Monday, May 6, 2024
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अल्पसंख्यक शैक्षिक संस्थान, जहाँ किया जाता है लाभ का दुरुपयोग… न्यायिक सुधारों की भी आवश्यकता: डॉ. अतुल कोठारी

शिक्षा में आमूल-चूल बदलाव को लेकर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) से जुड़े शिक्षा संस्कृति उत्थान न्यास ने दीनानाथ बत्रा और अतुलभाई कोठारी के नेतृत्व में लंबी लड़ाई लड़ी है। पाठ्य-पुस्तकों में किस तरह के बदलाव की आवश्यकता है, इसको लेकर न्यास की ओर से सरकार को पूरा रोडमैप दिया गया।

देश की वर्तमान शिक्षा प्रणाली को लेकर लंबे समय तक बहस चलती रही है। खासकर इतिहास के पाठ्यक्रमों में इस्लामी आक्रांताओं का जिस तरह से महिमामंडन किया गया है, उसको लेकर भारतीय जनमानस में हमेशा से विरोध के स्वर उठते रहे हैं। शिक्षा में आमूल-चूल बदलाव को लेकर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) के अनुषांगिक संगठन शिक्षा संस्कृति उत्थान न्यास ने दीनानाथ बत्रा और डॉक्टर अतुल कोठारी के नेतृत्व में लंबी लड़ाई लड़ी है।

पाठ्य-पुस्तकों में किस तरह के बदलाव की आवश्यकता है, इसको लेकर न्यास की ओर से सरकार को पूरा रोडमैप दिया गया। हालाँकि, पहले की सरकारों ने इस पर किसी तरह का ध्यान नहीं दिया। बाद में ‘शिक्षा बचाओ आंदोलन’ के तहत एक लंबा संघर्ष किया गया। सरकार बदलने के साथ ही इनमें से कई बिंदुओं पर काम हुआ है और कई पर काम हो रहा है। इन्हीं सब मुद्दे पर शिक्षा संस्कृति उत्थान न्यास के सचिव अतुलभाई कोठारी से ऑपइंडिया के कंसल्टिंग एडिटर सुधीर गहलोत ने लंबी बातचीत की। प्रस्तुत है प्रमुख अंश:

अभी हाल ही में राजस्थान के एक स्कूल से यह बात सामने आई कि वहाँ Father का अर्थ अब्बू, Mother का अर्थ अम्मी पढ़ाया जा रहा है। घर से बिरयानी बनाकर लाने के लिए कहा जा रहा है। पाठ्यक्रमों के इस्लामीकरण को लेकर आप क्या कहेंगे?

झारखंड, बिहार की जो बात आई है, वो एक अलग बात है। वहाँ क्या हुआ है कि झारखंड में जिस जिले में मुसलमानों की संख्या बढ़ गई है, वहाँ उन्होंने दबाव बनाकर वहाँ के विद्यालयों में उर्दू के बोर्ड लगा दिए, प्रार्थना बदल दी, खान-पान सब बदल दिया। ये सारी बातें उन्होंने की। यह बात जब प्रकाश में आई तो और भी कई जगहों की बातें सामने आईं। बिहार में भी किशनगंज और कुछ जिलों में कुछ वर्षों से इसी प्रकार चल रहा है। ये बातें बिल्कुल उचित नहीं हैं, क्योंकि सरकारी विद्यालयों में इस प्रकार की बातें होना गैर-कानूनी है। झारखंड में सरकारी वक्तव्य आया है कि ये सब सब बंद कर दिया जाएगा।

ये एक अलग मुद्दा है। जहाँ उनकी संख्या है, वहाँ ये दबाव बना रहे हैं, लेकिन जहाँ उनका दबदबा नहीं है, वहाँ भी ऐसा हो रहा है। राजस्थान का स्कूल कॉन्वेंट स्कूल है। वहाँ ऐसी किताबें पढ़ाई जा रही हैं। किताब CBSE पैटर्न पर है और हैदराबाद से छपती है। क्या कहेंगे इस पर?

कुछ वर्षों ऐसा सारा कुछ हुआ है, अभी बाहर आ रहा है। राजस्थान में जो पढ़ाई जा रही है और हैदराबाद में जो छपी है, वो प्राइवेट पब्लिकेशन की किताब है। ये प्राइवेट पब्लिकेशन वाले क्या करते हैं कि NCERT की किताब तो छापते हैं, लेकिन इसमें इस तरह के छोटे-मोटे बदलाव करके छापते हैं। ये बिल्कुल अनुचित है। कई वर्षों से ये सब चल रहा था, अभी ये बाहर आ रहा है, जब परिस्थिति बदली है, वातावरण बदला है, सरकारें बदली हैं।

इस्लामीकरण की यह प्रक्रिया कुछ-कुछ मदरसों की लाइन पर है। कई वीडियो सामने आ चुके हैं, जिनमें मदरसों में बच्चों को बताया जा रहा है कि हिंदू उनके दुश्मन हैं। सरकार मदरसों को फंडिंग कर रही है। मदरसों के पाठ्यक्रमों में बिना बदलाव के अगर सरकार उन्हें फंडिंग करे तो इससे किस तरह के उद्देश्य की पूर्ति होगी?

मदरसे दो-तीन प्रकार के देश में हैं। एक मदरसे, जिनकी सरकार फंडिंग करती है। एक मदरसे ऐसे हैं, जिन्होंने प्रयास किया, लेकिन उन्हें सरकार की फंडिंग नहीं मिल रही है और तीसरे ऐसे हैं, जिन्होंने प्रयास ही नहीं किया सरकार की फंडिंग का। जो सरकार की फंडिंग नहीं लेते हैं, उनमें ये सब ज्यादा हो रहा है, क्योंकि उन पर सरकार का नियंत्रण नहीं है। दुर्भाग्य से, पूर्व की सरकारों में सरकारी फंडिंग वाली मदरसों में भी सरकार का कोई नियंत्रण नहीं था।

उत्तर प्रदेश और असम जैसे कई ऐसे राज्य हैं, जहाँ मदरसों को अनुदान दिया जाता है, वहाँ शिकंजा कसा जा रहा है। वहाँ पहले राष्ट्रगान नहीं होता था, वहाँ सरकारी परंपरा के तहत काम नहीं होता था। ये सब अब धीरे-धीरे होने शुरू हुए हैं।

जब हमने शिक्षा बचाओ आंदोलन के द्वारा साल 2004 में काम शुरू किया था तो हमने कई मदरसों के पाठ्यक्रमों का अध्ययन किया था। हमने मँगाए थे। उर्दू में थे। इसका अनुवाद करके हमने एक किताब भी छापी थी, छोटी सी। उन मदरसों में इस प्रकार के पाठ्यक्रम सारे पढ़ाए जाते थे और आज भी पढ़ाए जाते होंगे। जो मदरसे सरकारी नियमों का पालन नहीं करते हैं, ऐसे हजारों मदरसे हैं देश में, जो सरकारों के संज्ञान में भी नहीं हैं शायद। ऐसे मदरसों में ये सारी बातें हो रही हैं। 

जब ऐसे मदरसों के होने की बात सामने आ चुकी हैं, जो सरकार से संबद्ध नहीं हैं, उन पर कार्रवाई क्यों नहीं हो रही है? हाल के दिनों में कट्टरवाद ज्यादा बढ़ा है और कर्नाटक, राजस्थान जैसे राज्यों में गला काटने की घटनाएँ बढ़ी हैं। ये सब देखने के बाद भी सरकार की क्या बाध्यता है? क्या संविधान वजह या कुछ और?

इसके पीछे दो-तीन कारण हैं। एक तो संविधान के अनुच्छेद 29-30 के तहत अल्पसंख्यक शैक्षिक संस्थाओं के लिए विशेष प्रावधान किए गए हैं, वो एक बहुत महत्वपूर्ण कारण है। CBSE से संबद्ध मध्य प्रदेश के एक अल्पसंख्यक स्कूल की बात आई तो वहाँ के अधिकारियों ने ये कहा कि हमारे हाथ बँधे हुए हैं, क्योंकि ये संवैधानिक प्रावधान है। इसलिए उसमें ज्यादा कुछ नहीं कर पाते हम लोग। 

दूसरी बात क्या है कि जंप लगाकर एकदम से ऊपर वाली मंजिल पर नहीं पहुँच सकते है। अभी जो सरकार ने काम शुरू किया है तो पहली सीढ़ी से काम शुरू किया है कि कम से कम जो मदरसे सरकारी अनुदान लेते हैं, इनको तो पहले ठीक किया जाए। क्योंकि, ये बहुत व्यापक समस्या है। सरकार ने इस पर क्रमबद्ध काम शुरू किया है। राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग (NCPCR) भी इस पर काम कर रहा है। उन्होंने इस पर काफी बड़ा सर्वे करके एक किताब लिखी है। उसमें उन्होंने सारी बातें लिखी हैं कि जो सरकार की अनुमति लिए बिना मदरसे चल रहे हैं, उसके कारण अल्पसंख्यक बच्चों का काफी बड़ा नुकसान हो रहा है। उन्हें मिड डे मिल आदि नहीं मिल रहा है। 

वास्तव में जो व्यवस्था वर्षों से स्थापित हो जाती हैं वो असत्य भी सत्य के रूप में स्थापित हो जाती है। जैसे दिल्ली में सेंट स्टीफंस और दिल्ली विश्वविद्यालय की लड़ाई चल रही है। देश में सेंट्रल एडमिशन सिस्टम शुरू हुआ, उसमें दिल्ली यूनिवर्सिटी भी भाग ले रही है, लेकिन उसको सेंट स्टीफंस कॉलेज मानने के लिए तैयार नहीं है। वर्षों से एक ऐसा मानस तैयार हो गया है कि इनके लिए तो सब छूट है। 

कर्नाटक में यह बात आई है कि अगर मुस्लिम महिलाओं को हिजाब में स्कूल-कॉलेजों में जाने की अनुमति नहीं दी जाएगी तो वे अपना अलग स्कूल-कॉलेज खोलेंगे, जहाँ हिजाब आदि की अनुमति होगी। ऐसे में जिस कट्टरता को रोकने के लिए सरकार ने स्कूलों में हिजाब पर प्रतिबंध का निर्णय लिया, उसका कोई अर्थ नहीं रह जाएगा। सरकार क्या करेगी?

सरकार तो इसे वैधानिक तरीके से नहीं रोक पाएगी, इसलिए मूल बात पर ही क्रेंद्रित होने की आवश्यकता है। ये संविधान की धारा 29-30 है, उस पर प्रश्न उठाने की जरूरत है। आज अल्पसंख्यक शैक्षिक संस्थान किस प्रकार के हैं? मान लें कि 7 संस्था हैं उनके पास तो उसमें से चार को अल्पसंख्यक संस्थान बना दिए। इसको मान्यता अल्पसंख्यक आयोग दे देता है। उसमें बच्चे भी अल्पसंख्यक नहीं हैं और ना ही अल्पसंख्यक शिक्षक बहुमत में हैं। अल्पसंख्यक सिर्फ एक दिखावा है। इस अल्पसंख्यक के लाभ का दुरुपयोग किया जाता है। 

इसी तरह धारा 29-30 है, उसमें अल्पसंख्यक की सही रूप से व्याख्या नहीं की गई है। कई बार लगता है कि हमारे न्यायालय भी बचते हैं इससे। सुप्रीम कोर्ट में एक केस आया था, जिसमें अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद ने उस समय हस्तक्षेप किया था। शायद 2001-02 की बात है। उस केस में मूल बात थी कि देश भर में अल्पसंख्यक संस्थानों के खिलाफ अलग-अलग कई राज्यों में केस थे तो एक सुप्रीम कोर्ट में लाया गया। लेकिन, निर्णय क्या आया कि सेल्फ फाइनेंस के संदर्भ में निर्णय आ गया। तो सेल्फ फाइनेंस में जो 50% पेमेंट सीट थी, उस संदर्भ में जजमेंट दे दिया गया कि ये गलत है।

यानी आप न्यायिक सुधारों की भी बात कर रहे हैं?

आवश्यकता है। एक तो मूल बात है कि ये जो वातावरण होता है, उसमें सब लोग बहते हैं। तो कोई उसमें हाथ डालना नहीं चाहता है। जब नूपुर शर्मा के बारे में स्टेटमेंट आया तो एक पूर्व माननीय न्यायाधीश ने जिस प्रकार प्रतिक्रिया दी, जबरदस्त प्रतिक्रिया थी। इन सारी बातों का विचार करना पड़ेगा।

शिक्षा बचाओ आंदोलन जब शुरू किया गया था, उसमें बहुत सारे इतिहास में बदलाव की बात हो रही थी। अकबर को महान बताना, टीपू सुल्तान को स्वतंत्रता सेनानी बताना, मुगलों को महिमामंडित करना आदि मुद्दा था। दीनानाथ बत्रा जी ने भी बहुत गंभीरता से इसे उठाया, लेकिन कुछ खास बदलाव नहीं दिख रहा है। क्या वजह है?

ऐसा नहीं है। हमारा पहले से ही मानना है कि आंदोलन तो एक मजबूरी होती है, तभी उसे किया जाता है। वैचारिक दृष्टि से हमारी यही मान्यता है कि समन्वय से कोई समाधान निकलता है जब तक, तब तक संघर्ष नहीं होना चाहिए। शिक्षा बचाओ आंदोलन के माध्यम से भी हमने किए कुछ सुधार। हमने शुरुआत तो समन्वय से किया। हमने तात्कालिक मानव संसाधन विकास मंत्री से कई बार मिलने का प्रयास किया। हमने हर स्तर पर अपनी बात लिखित रूप में दी, हमने आवेदन दिए, हमने बातचीत का प्रयास किया। लेकिन, जब सुनवाई नहीं हुई कहीं तो तब हमें उस मार्ग पर जाना पड़ा। 

तो आज जब सुनवाई हो रही है, जैसे कुछ समय पूर्व सरकार ने इन पाठ्यक्रमों के लिए एक राज्यसभा की समिति गठित की थी, विनय सहस्त्रबुद्धे जी की अध्यक्षता में। उस समय उन्होंने हमें बुलाया था। उन्होंने हमारी बात सुनी। हमने लिखित में भी सारा कुछ दिया। वो सारा रिकॉर्ड में आया और उन्होंने सारा कुछ NCERT को भेजा। NCERT में भी एक व्यक्ति की नियुक्ति हुई इसके लिए।

अभी जो नया पाठ्यक्रम तैयार हो रहा है, इसमें हमें बदलाव होने की संभावना लग रही है। बीच में जब राष्ट्रीय शिक्षा नीति घोषित नहीं हुई थी, तो उस समय NCERT ने देश भर से सुझाव माँगे थे कि अभी जो पुस्तकें हैं इसमें क्या सुधार होना चाहिए। उस समय हमने भी दिए थे। उस समय कुछ बदलाव किए गए। बहुत ज्यादा नहीं हुआ, लेकिन कुछ किए गए। सरकार ने एक समग्र शिक्षा नीति घोषित की है और उसमें हर स्तर पर पाठ्यक्रमों में बदलाव शुरू हो गया है। 

पाठ्यक्रम बदलना एक बड़ा काम है, अकादमिक काम है। जो वर्षों से चला आ रहा है, उसको एकदम से बदलना आसान नहीं है। उसमें समय लगता है। इस सरकार ने लोकतांत्रिक रवैया अपनाते हुए राज्य सरकरों की SCERT से भी सुझाव माँगे और इस प्रक्रिया में सबको शामिल किया।

CBSE और राज्य बोर्ड की परीक्षाओं में नंबर देने को लेकर भी संतुलन नहीं होता। इसका क्या उपाय है?

शिक्षा समवर्ती सूची में है। कुछ विषयों पर केंद्र का अधिकार है, कुछ पर राज्य का और कुछ पर दोनों का। इसलिए इस पर सरकार कुछ दबाव नहीं दे सकती। ये संवैधानिक व्यवस्था है।  

यूपी-बिहार जैसे राज्य में किसी को 70-80 प्रतिशत नंबर आते हैं तो वह टॉप कर जाता है। वहीं, CBSE में 98% भी आते हैं। जब देश के सर्वोच्च विश्वविद्यालयों में नामांकन की बारी आती है तो कम नंबर वाले बच्चे पिछड़ जाते हैं। इसका क्या समाधान है?

वास्तव में यह बहुत बड़ा प्रश्न है, क्योंकि इसमें कुछ अंश में CBSE भी जिम्मेदार है। ये बहुत वर्षों पहले से हुआ है कि सीबीएसई में बहुत अधिक मार्क्स दिए जाते हैं और राज्यों में इस प्रकार नहीं होता था। अब कुछ राज्यों में भी होने लगा। 

फिर तो राज्य बोर्डों के बीच प्रतिस्पर्धा चल पड़ेगी अपने छात्रों को अधिक नंबर देने की। ऐसा मामला आ भी चुका है। क्या इससे शिक्षा का स्तर प्रभावित नहीं होगा?

इसके लिए शीर्ष विश्वविद्यालयों या संस्थानों पर दबाव को कम करना पड़ेगा। हर राज्यों में ऐसे विश्वविद्यालय खड़े करने की जरूरत है। जब दबाव कम होगा तो इस समस्या का समाधान भी निकलेगा।

नई शिक्षा नीति में इस प्रश्न पर भी विचार किया गया है। उसमें छात्रों पर परीक्षा को लेकर जो दबाव है, उसको कम करने की भी बात आई है। नई शिक्षा नीति अपने आप में समग्र है। इसमें कौशल विकास से लेकर नैतिक संस्कार एवं चरित्र निर्माण पर भी ध्यान दिया गया है।  

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सुधीर गहलोत
सुधीर गहलोत
इतिहास प्रेमी

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