Monday, November 18, 2024
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दूल्हे को कोल्ड ड्रिंक न मिलने पर घराती-बारातियों में मारपीट, पुलिस ने किया दूल्हे को विदाई के लिए राजी

उत्तर प्रदेश के वाराणसी स्थित फूलपुर थाना एरिया में महज कोल्ड ड्रिंक नहीं मिलने पर शादी टूटने की नौबत आ गई। यह मामला मंगलवार (जून 18, 2019) देर रात का है। यहाँ की हरिजन बस्ती में शादी समारोह की रस्में चल रही थीं। उस दौरान दूल्हे के दोस्तों ने कोल्ड ड्रिंक की डिमांड की, लेकिन घरातियों ने असमर्थता जता दी। यह सुनते ही दूल्हा भड़क उठा और उसने दुल्हन की विदाई करने से इंकार कर दिया। इसके बाद घराती और बरातियों में मारपीट शुरू हो गई। हालाँकि, मामला थाने पहुँचा और दोनों पक्षों को समझा-बुझाकर शादी-समारोह संपन्न करा दिया गया।

अनीता और विजय का एक साल से था प्रेम सम्बन्ध

हरिजन बस्ती निवासी अनीता और एलएलबी पास आउट विजय चौधरी के बीच एक साल से प्रेम संबंध था। यह बात जब दोनों के घरवालों को पता चली तो दोनों प्रेमी शादी करने की बात पर अड़ गए। विजय और अनीता की बात सुनने के बाद परिजन भी इस प्रेम संबंध को 7 जन्मों के रिश्ते में बाँधने को तैयार हो गए। मंगलवार की रात विजय धूमधाम से बारात लेकर अनीता के घर पहुँचा। सिंदूरदान के बाद दूल्हे के दोस्त मंडप में बैठे हुए थे जहाँ दोस्तों ने पीने के लिए घरातियों से कोल्ड ड्रिंक की डिमांड की। घरातियों ने देर रात होने के चलते कोल्ड ड्रिंक नहीं मिलने की बात कही।

पुलिस को आना पड़ा मामला सुलझाने के लिए

कोल्ड ड्रिंक ना मिलने से दूल्हे के दोस्तों और घरातियों के बीच विवाद शुरू हो गया। लोग एक दूसरे को मारने पीटने पर उतारू हो गए। तुरंत इस मामले की जानकारी पुलिस को दी गई। कोल्ड ड्रिंक न मिलने को विजय ने अपमान मानते हुए विदाई से ही इंकार कर दिया जिसके कारण दोनो पक्षों में मारपीट शुरू हो गई। दुल्हन भी दूल्हे की हरकत देखकर हैरान थी। सूचना पाकर पहुँची पुलिस ने दोनों पक्षों को थाने बुलाया। मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार, फूलपुर एसओ सुधाकर प्रसाद ने बताया कि अनीता मूल रूप से बेलारी गाँव की रहने वाली है। दूल्हे को समझाकर विदाई के लिए राजी कर लिया गया है।

चीन के गुप्त कैदखाने: मजे-मजे में कैद हैं 10 लाख उइगर, मस्जिदों को ढाह दिया गया है

चीन में बिना किसी अपराध के, बिना मुक़दमा चलाए क़रीब 10 लाख से अधिक समुदाय विशेष के अल्पसंख्यकों को कई गुप्त क़ैदख़ानों में हिरासत में रखा गया है। इन कैदियों में अधिकांश युवा हैं। जिनका अपराध कुछ नहीं लेकिन लगभग पूरे विश्व में अधिकांश आतंकी घटनाओं में समुदाय विशेष की संलिप्तता देख कर चीन ने उन्हें पोटेंशिअल आतंकी या हमलावर मान कर सालों से कई कैम्पों में तगड़ी सुरक्षा व्यवस्था के बीच रख रहा है।

बीबीसी की एक रिपोर्ट के अनुसार, हाल ही में बीबीसी की एक टीम को पश्चिमी चीन के शिनजियांग में बने कुछ ऐसे ही कैंपों में जाने का अवसर मिला। इससे पहले भी कई अंतराष्ट्रीय मीडिया संस्थानों ने चीन में इस समुदाय के नारकीय जीवन के बारे में दिखाया था। चीन में उन्हें बिना किसी कारण के सिर्फ पूरे विश्व में बने बेहद ख़राब या दूसरे शब्दों में कहें तो आतंकी इमेज के कारण उन्हें तहखानों जैसे जेल में रखा जा रहा है। जिसे चीनी सरकार सुधार गृह या स्कूल भी कहती है। उनका अपराध क्या है? कुछ नहीं लेकिन इस पर वामपंथी पत्रकारों ने शायद ही कभी आपको कुछ बताया हो। जो लगातार हिन्दू संस्कृति के प्रति नफ़रत का बीज बो रहे हैं। ऐसे वामपंथी पत्रकारों ने इस मुद्दे पर चुप्पी ही बेहतर समझी क्योंकि वहाँ उसी विचारधारा की सरकार है जिसका नासूर ये वर्षों से ढोते आ रहे हैं। चीन में आज तक वामपंथियों को तानाशाही नज़र नहीं आई।

चीनी कैदखानों की सैटेलाइट इमेज

बीबीसी के अनुसार, चीन ने पहले तो शिनजियांग में ऐसे किसी कैंप के होने की बात से इनकार किया लेकिन बाद में दावा किया कि ये वो महज स्कूल हैं जहाँ इस्लामिक चरमपंथी विचारधारा का शिकार हुए लोगों को सही राह दिखाई जाती है। जबकि सच्चाई यही है चीन की कि वह कितना भी छुपाने की कोशिश करे जब-तब उसके इन तहखानों वाले स्कूलों की सच्चाई सामने आती रहती है। रिपोर्ट के अनुसार, कहा गया कि यह सभी लड़के और लड़कियाँ स्टूडेंट हैं और अपनी मर्जी से यहाँ ब्रेन वाश के लिए आए हैं।

चीन के एक कैम्प में चीनी भाषा की तालीम लेते अल्पसंख्यक युवा

सोचने वाली बात यहाँ यह है कि आखिर कौन अपनी मर्जी से कैद होना चाहेगा। वो भी कब तक कुछ पता नहीं, अपनी मर्जी से जहाँ खुश होने की छूठ भी न हो उसे स्कूल तो नहीं कहा जा सकता। इन कैद खानों में खुशी या नृत्य और संगीत की छूट तब मिलती है जब कोई सरकारी अधिकारी या बड़ा पत्रकार इस कैदखानों में रहने वालों से मिलने आता है। यदि कोई चीनी अधिकारियों के आदेश के अनुसार ऐसा नहीं करता है तो उसे यातनाएँ दी जाती हैं। इन कैदखानों में रह रहे युवाओं को पत्रकारों के सामने ऐसा दिखाया गया जैसे यहाँ ये अपनी मर्जी से कैद हों। चीनी अधिकारियों के अनुसार, इन युवाओं को वहाँ उनकी कट्टरपंथी विचारधारा को बदलने के लिए रखा गया है।

पत्रकार जीतनी देर तक इन कैम्पों में होते हैं सरकारी अधिकारी उन पर कड़ी निगाह रखते हैं। शिनजियांग में ऐसे ही बड़े-बड़े कई कैंप हैं जहाँ की दीवारें इतनी ऊँची हैं कि बाहरी दुनियाँ से संपर्क पूरी तरह कट चुका है। विचारधारा बदलने के नाम पर वहाँ धार्मिक शिक्षा पर पूरी तरह प्रतिबन्ध है, यहाँ तक की धर्म के प्रैक्टिस पर भी, सख्त नियंत्रण है। फिलहाल, कहा जा रहा है कि वहाँ कैद में इन युवाओं को चीनी भाषा की शिक्षा दी जा रही है।

गार्जियन की एक रिपोर्ट के अनुसार, चीन ने पिछले कई सालों में समुदाय विशेष को पोटेंशिअल आतंकी मानते हुए शिनजियांग के मुस्लिम बहुल इलाकों में भी इस मजहब के समर्थकों को बहुत थोड़े में समेट दिया है। चीन की कम्युनिस्ट सरकार ने वहाँ लगभग 5000 के आस-पास मस्जिदों को धराशाई कर चुकी है। एक रिपोर्ट के अनुसार, 2016 से अब तक अकेले शिनजियांग प्रांत में ही 25 से अधिक मस्जिदों को पूरी तरह नष्ट कर दिया गया है।


2010 में कुछ यूँ गुलजार था ईमान वसीम दरगाह (साभार: द गार्डियन)

‘द गार्डियन’ ने कुछ अन्य एजेंसियों के साथ मिलकर चीन की 100 मस्जिदों को ट्रैक किया। इसमें उसने पाया कि 91 में से 31 मस्जिदों को बड़ी क्षति पहुँचाई गई है, वो भी मात्र 3 वर्षों के भीतर। इनमें से 15 मस्जिदों को तो गायब ही कर दिया गया, वहीं कुछ के गुम्बद गायब हैं तो कुछ की मीनारें ही उड़ा दी गई हैं। कुछ मस्जिदों से उनका गेटहाउस ही गायब है। इसके अलावा 9 अन्य छोटे-मोटे मस्जिदों को भी ख़ासा नुकसान पहुँचाया गया है। चीन ने चुन-चुन कर उन मस्जिदों को ज्यादा तबाही पहुँचाई है, जहाँ उइगर भारी संख्या में जाया करते थे। चीन उइगरों को अपने लिए सबसे ज़्यादा खतरनाक मानता है।


करगिलिक मस्जिद की पहले और बाद की सैटेलाइट तस्वीरें (साभार: द गार्डियन)

चीन में उइगरों पर की जा रही कठोर कार्रवाई के पीछे, उसका यह विचार है कि समुदाय विशेष में पोटेंशिअल आतंकी होने की संभावना होती है। दूसरा चीन उन पर वर्षों से सख्ती बरतता आ रहा है जिससे भी सुरक्षा में ढील दिए जाने के कारण उनका आतंकी गतिविधियों में लिप्त होने की संभावना ज़्यादा मानते हुए चीनी अधिकारियों का साफ कहना है कि हम घटना का इंतज़ार नहीं कर सकते, इसलिए पहले से ही इन्हें नियंत्रण में रखा है। यहाँ तक आतंकी हमले के डर से चीन की सरकार ने जगह-जगह कैमरे लगा रखे हैं। कायदे से नमाज की भी इन लोगों को छूट नहीं है, विशेष अवसरों पर चीनी अधिकारियों और कैमरों की निगरानी में उन्हें नवाज की छूट मिलती है। जिसका तोड़ चीन ने नई पीढ़ी के बच्चों को ब्रैनवॉश कर, वो ऐसी प्रैक्टिस करें ही नहीं ऐसा तोड़ निकाल लिया है। इसके अलावा सादे कपड़ों में लगभग हर जगह तैनात सुरक्षाकर्मी भी आते-जाते इस समुदाय पर कड़ी नज़र रखते हैं। वहाँ की सरकार और सत्ताधारी कम्युनिस्ट पार्टी इस्लाम मज़हब को ही अपने लिए खतरा मानती है।


मस्जिदों को ढहाने के क्रम में चीन वहाँ के उइगरों की हर पुरानी पहचान को नष्ट कर रही है। यहाँ तक कि चीन के होतन के पास युटियन एटिका (Yutian Aitika) नामक एक मस्जिद था, जिसका इतिहास काफ़ी पुराना है। ये पिछले 800 वर्षों से यहाँ स्थित था। ये अपने इलाक़े का सबसे बड़ा मस्जिद था। अब इसी जगह बस कुछ खँडहर बचा है। चीन में मौजूद इस्लाम के अनुयाइयों का कहना है कि चीन इस्लाम का चीनीकरण करने के लिए एक अभियान चला रहा है, जिसके तहत मस्जिदें तोड़ी जा रही हैं और उइगरों को गिरफ़्तार कर प्रताड़ित किया जा रहा है। राहिले दावुत, जो चीन में स्थित मस्जिदों एवं दरगाहों के बारे में लिख रहे थे, वो अचानक से गायब हो गए।

राहिले का कहना था कि जिस तरह से चीन की नीतियाँ चल रही हैं, उससे लगता है कि कुछ दिनों बाद उइगरों को अपने इतिहास एवं संस्कृति का ज्ञान ही नहीं रहेगा। उधर चीन ने शिनजियांग में रमजान महीना शुरू होते ही सरकारी अधिकारियों, छात्रों और बच्चों के रोज़ा रखने पर प्रतिबन्ध लगा दिया था।

चीन भले ही दूसरे देशों में व्याप्त आतंक पर ढूलमूल रवैया अपनाता आया हो, खासकर भारत के प्रति यहाँ तक कि चीन भारत को अस्थिर करने के लिए लगातार पाकिस्तान और वहाँ के आतंकियों को बचाता और समर्थन देता आया हो। लेकिन, चीन ने अपनी रिपोर्ट में दावा किया है कि उसने 2014 से अब तक 12,995 आतंकियों को गिरफ़्तार कर चुकी है, उनसे 2,052 विस्फोटक सामग्री को जब्त किया गया, 1,588 हिंसक एवं आतंकी गैंगों को नेस्तनाबूत किया, 30,645 लोगों को 4,858 अवैध धार्मिक गतिविधियों (illegal religious practices) के लिए दण्डित किया। चीन ने आँकड़े गिनाते हुए कहा कि कई तो ऐसे आतंकी थे जिन्होंने दंड पाने के बावजूद फिर से वही कार्य किया। ऐसे लोगों पर और भी अधिक सख्ती से कार्रवाई की गई। चीन ने कहा है कि शासन से लेकर स्कूलों तक, हर जगह मज़हबी बीज बोए जा रहे थे, जिस पर क़ाबू पाने के लिए हरसंभव प्रयास किए गए। यहाँ तक की चीन पिछले कई सालों से वहाँ के समुदाय विशेष के अधिकांश बच्चों को उनकी माँ के गोद से छीनकर ऐसे ही कैम्पों में भेज देता है।

यहाँ तक कि अब चीन इस्लाम के मूल स्वरुप को ही बदलने की दिशा में आगे बढ़ चुका है। चीनी अधिकारियों को लगता है कि इस मज़हब के मूल में ही हिंसा है और ऐसे माहौल में रहने से बच्चों के पोटेंशिअल आतंकी बनने की संभावना को ध्यान में रखते हुए चीन इस्लामी दर्शन में ही बड़े बदलाव की तरफ बढ़ चुका है। चीन के अंग्रेजी अख़बार ग्लोबल टाइम्स के अनुसार चीन के सरकारी अधिकारियों ने आठ इस्लामी संगठनों के प्रतिनिधियों से बातचीत के बाद ये तय किया कि इस्लाम को समाजवाद (कम्युनिष्ट) के मूल्यों के अनुरूप ढाला जाएगा और उसके अनुसार उनका मार्गदर्शन किया जाएगा।

बता दें कि चीन के इतिहास में सबसे शक्तिशाली नेताओं में से एक माने जाने वाले राष्ट्रपति शी जिनपिंग के नेतृत्व वाली सरकार ने अपने देश में एक ‘सीनीफीकेशन’ अभियान शुरू किया है जिसके अंतर्गत ये निर्णय लिए गए और कुछ महीने में ही चीन के युन्नान प्रांत में प्रशासन ने हुइ मुस्लिम अल्पसंख्यकों द्वारा स्थापित किए गए तीन मस्जिदों को बंद कर दिया था।

इस तरह की गतिविधियों के पीछे, चीन का ये दावा है कि राष्ट्रपति शी जिनपिंग को इस्लामी चरमपंथियों और आतंकवादियों से ख़तरा है। चीन के अधिकारियों के मुताबिक़ अलगाववादी चीन के बहुसंख्यक हुन और मुस्लिमों के बीच एक खाई पैदा करना चाहते हैं। लेकिन मानवाधिकार संगठनों का कहना है कि चीन अल्पसंख्यकों की “नैतिक सफाई” कर रहा है। वह दिन दूर नहीं जब चीन अपनी सरजमीं से या तो इस्लाम को पूरी तरह मिटा देगा या उनकी मजहबीं परम्पराओं से लेकर, सभी मजहबी व्यवहार पूरी तरह बदल देगा। जिस तरह से चीन कार्य कर रहा है। उसकी शख्त नीतियों को देखते हुए, ऐसी संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता।

200 करोड़ रुपया गुप्ता का, ब्याह गुप्ता के लौंडे का और आपको पड़ी है बदरंग बुग्याळ और पहाड़ों की!

दो सौ से दो हजार तक साल लगते हैं उस परत को बनने में जिस भूरी और बेहद उपजाऊ मिट्टी के ऊपर जन्म लेती है 10 से 12 इंच मोटी मखमली घास यानी बुग्याळ! और मात्र 200 करोड़ रुपए लगते हैं इन सभी तथ्यों को नकारकर अपने उपभोक्तावाद के आगे नतमस्तक होकर पूँजीपतियों के समक्ष समर्पण करने में। आश्चर्य की बात यह है कि बुग्याळ को बदरंग करने की यह भव्य साजिश पूरे विश्व में चिपको आंदोलन का इतिहास रचने वाली गौरा देवी की धरती चमोली जिले में ही हो रही है।

समुद्रतल से 2505 मीटर की ऊँचाई पर बसा औली, उत्तराखंड राज्य के खूबसूरत पर्यटक स्थलों में से एक है, जिसे 500 से ज्यादा बेहद संवेदनशील प्रजातियों के लिए जाना जाता है। यहाँ पर हरी चमकती बुग्याळ पर खड़े होकर सामने बर्फीले पहाड़ों को देखकर हम प्रकृति के मुकुट का चित्रण कर लेते हैं। जो लोग उत्तराखंड की पारिस्थितिकी से बहुत ज्यादा परिचित नहीं हैं, उन्हें यह जानना चाहिए कि यह बुग्याळ देवभूमि का सबसे बड़ा स्वर्ण है। दयारा, वेदनी, औली और आली, ये सभी राज्य के कुछ प्रमुख बुग्याळों में से है। बुग्याळ वस्तुतः एक बेहद मखमली और मोटी लेकिन नाजुक चमकदार घास है, जो कि उत्तराखंड के पर्वतीय इलाकों की सबसे बड़ी खूबसूरती है। जिस किसी छोटे-बड़े हिल स्टेशन में ये घास चमकती नजर आती है उसे किसी अन्य बाजारी सज्जा की जरूरत नहीं पड़ती है।

200 करोड़ रुपए है बुग्याळ को बदरंग करने की कीमत

बुग्याळ अधिकतर बर्फ से ढके रहते हैं, इसलिए उनकी सतह के नीचे का तापमान हमेशा शून्य डिग्री के आसपास ही बना रहता है। बुग्याळ की सतह का तापमान 4 डिग्री से ज्यादा नहीं होता। विशेषज्ञों का मानना है कि प्राकृतिक रूप से इतने संवेदनशील क्षेत्र में किसी भी तरह का निर्माण कार्य और आयोजन भूस्खलन का खतरा पैदा करेगा। ऐसे में औली बुग्याळ में इस प्रकार के बड़े आयोजन में न केवल औली बुग्याळ को नुकसान पहुँचने की संभावना है, अपितु पर्यावरणीय दृष्टि से भी ये कोई शुभ संकेत नहीं है। बुग्याल के साथ मानवीय हस्तक्षेप के नतीजे भयावह होने तय हैं।

लेकिन धन कुबेरों की नज़रों से यह रमणीय स्थल भी अछूता नहीं रहा और इस काम में उनका साथ देने के लिए कूपमंडूक नेताओं को अपनी ओर मोड़ लेने का आत्मविश्वास तो इन धनाढ्यों में नेहरूकालीन भारत के समय से रहा ही है। और फिर इस बार तो मामला औली में 200 करोड़ रुपए की शाही शादी का है। भारत से जाकर साउथ अफ्रीका में बसे उद्योगपति गुप्ता बंधुओं अजय और अतुल ने अपने दो बेटों की शादी के लिए उत्तराखंड के औली को चुना है।

देवभूमि उत्तराखंड का एक सत्य यह भी है कि इस राज्य निर्माण का सबसे बड़ा फायदा छोटे-बड़े ठेकेदारों का हुआ। जो लोग कभी ग्राम प्रधान बनने का सपना नहीं देखते थे, उन लोगों के हाथ राज्य की बागडोर लगने लगी। कमीशन खाकर समाज सेवक बने घूम रहे लोगों का प्रत्यक्ष नियंत्रण शासन-प्रशासन में हो गया। इसका प्रमाण राज्य के गठन के बाद हमें आज भी मिलता ही है।

शीतकालीन खेल पहले ही बाधित कर चुके हैं औली का संतुलन

बुग्याळों में मानवीय हस्तक्षेप के चलते यहाँ के पारिस्थितक तंत्र को भारी नुकसान पहुँचा है। कुछ साल पहले शीतकालीन खेलों के लिए की गई तैयारियों से औली बुग्याल भूस्खलन का शिकार हो गया, जिसका असर जोशीमठ शहर तक हुआ है। आज भी भारी बारिश में जोशीमठ शहर के लोग सो नहीं पाते हैं, जानें कब औली का नाला तबाही मचा दे।

पर्यावरण गया ऑइल लेने, 200 करोड़ रुपए गिनिए बैठकर

औली में 20 जून को अजय गुप्ता के पुत्र सूर्यकांत का विवाह होना है। इसके बाद 22 जून को अतुल गुप्ता के पुत्र शशांक का विवाह होना है। सोमवार से वैवाहिक समारोह की शुरुआत हो गई है। लोक गायक पद्मश्री और पुरस्कार सम्मानित प्रीतम भरतवाण ने जागर गाकर भगवान का आह्वान किया।

इस शाही शादी में शामिल होने के लिए बॉलीवुड से करीब 55 कलाकार औली पहुँच रहे हैं। खबर है कि कैटरीना कैफ, सिद्धार्थ मल्होत्रा और उर्वशी रौतेला समेत कई कलाकार इस विवाह के गवाह बनेंगे। गायक कैलाश खेर भी औली पहुँच चुके हैं। यहाँ तक कि अभिनेता सलमान खान के भी इस शाही शादी में आने की संभावना है। अब जिस समारोह में इतना सब कुछ हो तो आप ही बताइए कि हमारे और आपके द्वारा पर्यावरण के नाम पर दिए जाने वाले तर्कों की कोई हैसियत है?

उत्तराखंड में ऐसा पहली बार हो रहा है। यहाँ के मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत की मानें तो उत्तराखंड की किसी लोकेशन में डेस्टिनेशन वेडिंग के रूप में ये पहली शाही शादी है, जिस पर 200 करोड़ रुपए खर्च किए जा रहे हैं। मुख्यमंत्री का यह भी लक्ष्य है कि उत्तराखंड को यूरोप की तर्ज पर ही वेडिंग डेस्टिनेशन की तरह तैयार किया जाएगा। हालाँकि, मुख्यमंत्री ऑफिस से राज्य में वर्षों से लोक सेवा आयोग के नोटिफिकेशन के इन्तजार में बैठे युवाओं के भविष्य पर कोई राय नहीं आई है।

बुग्याळ में स्थानीय लोगों को नहीं मिलती है सरकारी इजाजत

उत्तराखंड में कभी पर्यटन तो कभी विशेष आयोजन व धार्मिक आयोजनों के नाम पर इन बुग्याळों का लगातार दोहन किया जाता रहा है। दयारा, वेदनी, औली और आली राज्य के कुछ प्रमुख बुग्याळों में से है, लेकिन इन सब पर संकट के बादल मंडरा रहे हैं। माननीय उच्च न्यायालय ने वेदनी, आली, बगजी बुग्याळ सहित अन्य बुग्याळों में तो रात्रि विश्राम के लिए प्रतिबंध लगाया है। लेकिन औली में निजी शादी हेतु चार दिन के लिए जो शहर बसाया जा रहा है वो बेहद चिंताजनक है। एक ओर जहाँ बुग्याळों में स्थानीय लोगो को एक भी टेंट नहीं लगाने दिया जा रहा है, पशुओं को घुसने की आजादी नहीं है, वहीं एक शादी के लिए दर्जनों टेंट की अनुमति मिलना वाकई दुःखद है।

शाही परिवार ने नगर पालिका को नहीं चुकाए सफाई के लिए 28 लाख रुपए

शादी में आने वाले मेहमानों के लिए 200 हेलीकॉप्टर लगाए गए हैं। लेकिन पर्यावरण प्रदूषण को देखते हुए यहाँ हेलीकॉप्टर की लैंडिंग को लेकर विरोध भी हुआ। नैनीताल हाईकोर्ट की ओर से औली में हेलीकॉप्टर लैंडिंग पर रोक लगाए जाने के बाद NRI गुप्ता बंधुओं के बेटों की शादी में आने वाले मेहमानों के हेलीकॉप्टर अब जोशीमठ में उतर रहे हैं। और हाईकोर्ट ने प्रबंधन कंपनी से 3 करोड़ रुपए की राशि सिक्योरिटी के रूप में जमा कराने को कहा है।

जोशीमठ नगरपालिका अध्यक्ष शैलेंद्र सिंह पंवार ने कहा है कि पालिका ने गुप्ता बंधुओं को शादी के दौरान साफ सफाई व पर्यावरणीय क्षति न करने के लिए अनापत्ति प्रमाण पत्र दिया था। उन्होंने कहा कि पालिका द्वारा अनुमति नहीं दी गई थी। अनुमति देना प्रशासन का काम है। पालिका की जिम्मेदारी साफ-सफाई की है। इसके एवज में पालिका ने 13 लाख साफ-सफाई और 15 लाख रुपये सफाई वाहन के लिए माँगे थे, जिसका भुगतान अभी तक नहीं हुआ है।

‘वेडिंग डेस्टिनेशन सरकार’ को NRI के काला धन कनेक्शन से आपत्ति नहीं है?

गुप्ता बंधु अजय गुप्ता और अतुल गुप्ता दक्षिण अफ्रीका छोड़कर अब दुबई में रह रहे हैं। अफ्रीका में उनकी तमाम अचल संपत्तियां, निजी हवाई जहाज, कारें जब्त की जा चुकी हैं। गुप्ता बंधुओं पर काले धन को अवैध रूप से सफेद करने के आरोप भी लगते आए हैं।

हाईकोर्ट में इस शाही शादी से जुड़े केस की सुनवाई हुई है। उत्तराखंड हाईकोर्ट ने शादी पर तो रोक नहीं लगाई लेकिन आयोजकों को 3 करोड़ रुपए हाईकोर्ट में जमा करने के आदेश दिए हैं। आयोजकों को 21 जून तक ये रकम दो किश्तों में जमा करानी होगी। चमोली के जिलाधिकारी को आदेश का पालन करने की जिम्मेदारी दी गई है। कोर्ट का कहना है कि पर्यावरण मानकों का उल्लंघन हुआ, तो डीएम ही जिम्मेदार होंगे। प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड को इस शादी की मॉनिटरिंग करने के निर्देश दिए गए हैं। कोर्ट का कहना है कि पर्यावरण मानकों का उल्लंघन हुआ तो तीन करोड़ की रकम वापस नहीं होगी। इन सभी खबरों ने स्थानीय लोगों को खूब खुश कर दिया है। स्थानीय अखबार से लेकर TV चैनल तक में शाही शादी का हल्ला मचा हुआ है। इस बीच पर्यावरण की चिंता करने की फुरसत फिलहाल किसी को नहीं है।

शाही शादी से अति-उत्साहित उत्तराखंड सरकार के लक्ष्य स्पष्ट हैं

खैर, फिलहाल शासन और प्रशासन की जुगलबंदी ठीक चल रही है। परेशान सिर्फ जनता है। संवेदनशील इलाकों में बढ़ते हुए मानवीय हस्तक्षेप का नमूना हम केदारनाथ में 2013 में घटी आपदा में देख चुके हैं। लेकिन 200 करोड़ रुपए के सामने ऐसे सबक बहुत छोटे हैं। इस घटना के साथ ही उत्तराखंड सरकार की प्राथमिकता के नमूने को भी हम समझ चुके हैं। बच्चों के मुंडन, जन्मदिन, शादी विवाह से फुरसत होने पर ही यहाँ पर किसी नेता को वास्तविक विषयों पर कान रखते देखा जाता है। 200 करोड़ रुपए की शादी के साथ ही उत्तराखंड सरकार की यह विलक्षण प्रतिभा, जो अब तक सिर्फ उत्तराखंड राज्य तक ही चर्चित थी, अब सारी दुनिया के सामने है।

पहाड़ों को उनके हाल पर छोड़ दिया जाना चाहिए। वेडिंग डेस्टिनेशन के लिए NRI गुप्ता जैसे लोग 200 करोड़ रुपए कहीं भी खर्च कर के उसे औली की शक्ल दे सकते हैं। यह भी देखा जाना चाहिए कि शायद गुप्ता जी यह तथ्य जानते हैं कि रुपयों से बुग्याळ का सौंदर्य नहीं खरीदा जा सकता, लेकिन उत्तराखंड के मुख्यमंत्री के लिए यह समझ पाना मुश्किल लगता है। सिर्फ शौक़ीन प्रवृत्ति मनुष्यों की संतुष्टि के लिए प्रकृति के साम्य से खिलवाड़ करना उत्तराखंड की छवि और पर्यावरण दोनों को भारी पड़ सकता है।

हम पहले ही देखते आ रहे हैं कि उत्तराखंड के पवित्र तीर्थस्थलों से लेकर खूबसूरत पहाड़ों तक को वो लोग आए दिन नुकसान पहुँचाकर निकल जाते हैं, जिन्हें प्रकृति से कोई वास्ता और लगाव नहीं है। इसी क्रम में बुग्याळ को बदरंग कर दिया जाएगा और मुख्यमंत्री इसे यूरोपियन शैली कहते नजर आएँगे। देवभूमि को देवभूमि ही रहने दिया जाए, उसका हरियाणा-करण करने की आवश्यकता नहीं है। यह भी चिंता का विषय है कि बड़े-बड़े पर्यावरणविद भी 200 करोड़ रुपए एकसाथ सुनकर चुप बैठ चुके हैं। ऊँची आवाज वाले लोग खुद इस सजावट में मेहमान हैं। राज्य से लेकर केंद्र सरकार तक इस विषय पर मौन है।

हमें और आपको घर बैठकर गुप्ता जी के रुपयों की महिमा से सबक लेना चाहिए, ना कि पर्यावरण पर चिंता व्यक्त करनी चाहिए। औली आएँगे जाएँगे, लेकिन 200 करोड़ रुपए नहीं जाने चाहिए। कॉन्ग्रेस के भूतपूर्व मुख्यमंत्री और हॉर्स ट्रेडिंग विशेषज्ञ हरीश रावत ये बात अच्छे से जानते हैं कि 1-1 करोड़ से कितना फर्क पड़ जाता है। वो आज मुख्यमंत्री होते तो जरूर कहते कि ‘अच्छा हुआ मामला सस्ते में निपट गया।’वर्तमान सरकार को यह रिस्क नहीं लेना चाहिए।

हिंदी पहले ही राष्ट्रभाषा बन चुकी है, बहुत स्कोप है: जस्टिस काटजू

हिंदी को लेकर खड़े हुए विवाद में अब देश के सबसे मुखर पूर्व जजों में से एक जस्टिस मार्कण्डेय काटजू भी कूद आए हैं। प्रोपेगैंडा पोर्टल The Wire पर प्रकाशित लेख ‘India Doesn’t Need Hindi to Unify the Masses’ के जवाब में उन्होंने ‘Debate: Hindi Is Already the National Language of India’ नामक लेख लिखा है, जिसे (आश्चर्यजनक रूप से) The Wire में प्रकशित किया गया है। उसमें जस्टिस काटजू ने यह तर्क प्रस्तुत किया है कि हालाँकि वह हिंदी को किसी अन्य भाषा से ‘उच्च’ नहीं मानते, लेकिन आज़ादी के बाद से देश की सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों के चलते हिंदी का ज्ञान एक तरह से अपने प्रदेश के बाहर निकल कर रोजगार, प्रवास आदि की आकाँक्षा रखने वाले अधिकांश आकाँक्षी वर्ग की अनिवार्य आवश्यकता है। अतः हिंदी को ‘एक प्रकार की’ राष्ट्रीय भाषा का दर्जा मिल ही चुका है।

लोकतांत्रिक आज़ादी की हिमायत, अंग्रेजी का विरोध नहीं

लेख की शुरुआत में ही जस्टिस काटजू यह साफ कर देते हैं कि लोकतान्त्रिक प्रणाली में आस्था रखते हुए वह प्रचार-प्रसार में विश्वास करते हैं, ‘थोपने’ (Imposition) में नहीं, जिसका आरोप हिंदी-विरोधी अक्सर हिंदी-भाषियों पर लगाते हैं। वह 1960 में हिंदी को जबरन लाने के लिए तत्कालीन हिंदी-समर्थक नेताओं की आलोचना भी करते हैं कि हिंदी फिल्मों और हिंदी प्रचार सभा के प्रयासों से हो रहे हिंदी के सतत प्रसार पर उन्होंने पलीता लगा दिया और तमिल लोगों ने हिंदी सीखना बंद कर दिया।

साथ ही वह अंग्रेजी सीखने का विरोध करने की बजाय उस पर ज़ोर देते हैं। वह यह स्वीकार करते हैं कि आज ज्ञान (विशेषतः विज्ञान) के अर्जन के लिए अंग्रेजी सबसे उपयुक्त भाषा है। वैज्ञानिक, इंजीनियर, डॉक्टर अंग्रेजी से ही बनाए जा सकते हैं। इसके अलावा वह यह भी बताते हैं कि वह ‘आसान’ हिंदी के प्रचार-प्रसार के पक्ष में हैं, न कि ‘क्लिष्ट’, तत्सम हिंदी के।

दक्षिण में फ़ैल रही ही है हिंदी, तमिल से 15 गुना ज़्यादा बोली जाती है

काटजू इस तथ्य की ओर ध्यान दिलाते हैं कि ‘सामान्य’, सरल हिंदी न केवल कई उत्तर-भाषी राज्यों की भाषा है बल्कि कई गैर-हिंदी-भाषी प्रदेशों में भी बड़ी संख्या में लोगों द्वारा बोली जाती है। यहाँ तक कि पाकिस्तानी भी ठीक-ठाक हिंदी बोल कर समझ लेते हैं।

जज होने के नाते काटजू विभिन्न प्रदेशों के उच्च न्यायालयों में भी उन प्रदेशों की स्थानीय भाषाओं के प्रयोग का समर्थन करते हैं। लेकिन साथ ही वह हिंदी की तमिल जैसी शास्त्रीय लेकिन सीमित पहुँच वाली भाषाओं के मुकाबले कहीं अधिक पहुँच की भी बात करते हैं; बताते हैं कि तमिल के मुकाबले हिंदी 15 गुना अधिक बोली-समझी जाती है। वह अपना खुद का उदाहरण देते हैं कि वह अपनी मूल मातृभाषा कश्मीरी पूर्वजों के कश्मीर से 200 साल पहले बाहर चले जाने के चलते नहीं जानते, लेकिन उन्हें हिंदी जानने के चलते कभी कठिनाई का सामना नहीं करना पड़ा।

अंग्रेजी केवल ‘एलीट’ की सूत्र-भाषा, नेताओं की राजनीति में अवसर न गँवाएँ

काटजू आगे यह बात भी रखते हैं कि अंग्रेजी एक ‘सूत्र-भाषा’ (लिंक-लैंग्वेज) के तौर पर उत्तर भारत में आने वाले तमिल-भाषी को केवल ऊपरी 10% यानि एलीट वर्ग से ही जोड़ेगी। उन्हें अगर उत्तर-भारतीय आम आदमी से जुड़ना है तो उन्हें हिंदी सीखनी ही पड़ेगी। वह अपने खुद के अनुभव बताते हैं कि कैसे उनके सामने एक बार गुलबर्गा में एक कन्नड़ ड्राइवर (निचले आर्थिक तबके का व्यक्ति) से बात करने के लिए तेलुगु-भाषी व्यक्ति को भी हिंदी में बात करनी पड़ी थी क्योंकि गरीब होने के कारण वह कन्नड़ व्यक्ति अंग्रेजी नहीं जनता था और हिंदी ही उन दोनों के बीच इकलौती समान भाषा थी।

दूसरा उदाहरण वह बताते हैं चेन्नै के ही दुकानदार का, जो अपने ग्राहक से अंग्रेजी या तमिल की अपेक्षा हिंदी में बात कर रहा था। जब काटजू ने इसका कारण पूछा तो उसने बोला कि नेताओं का एजेंडा चलता रहेगा, लेकिन उसे अपना व्यवसाय देखना है। अंत में काटजू अपील करते हैं कि चूँकि हिंदी पहले ही (देश के विभिन्न भाषा वर्गों के आम आदमी के बीच की) लिंक-भाषा है, अतः जिन्हें यह भाषा नहीं भी आती, उन्हें इस सीख कर देश की एकता में भागीदार बनना चाहिए

मामा नेहरू वाली नयनतारा की नई लिबरपंथी: अपना मामा लोकतान्त्रिक, मोदी हुए अवैध

चूँकि साहित्य अकादमी पुरस्कार नयनतारा सहगल ने खुद ही लौटा दिया था, इसलिए ‘नेहरू जी की भान्जी’ ही उनकी बची-खुची पहचान है। यह नेहरू-गाँधी परिवार का पुराना इतिहास रहा है कि जब तक किसी भी निर्वाचन के नतीजे मन-मुताबिक होते हैं, जब तक बहुमत उनके साथ खड़ा होता है, तब तक तो बहुमत की इच्छा ‘लोकतंत्र की जीत’ होती है, लेकिन जहाँ लोकतंत्र ने इन्हें ‘गच्चा’ दिया, वहाँ से ‘लोकतंत्र की रक्षा’ यह परिवार लोकतंत्र और बहुमत के जनादेश का गला रेत कर करने पर उतारू हो जाता है।

यही सहगल जी के मामाजी पंडित नेहरू के लिए मोहनदास गाँधी ने किया, जब उन्होंने ‘मामाजी’ को पराजित कर कॉन्ग्रेस के अध्यक्ष निर्वाचित हुए बोस को पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा दिया। यही हुआ जब ‘मामाजी’ की बजाय कॉन्ग्रेस राष्ट्रपति (और स्वतंत्र भारत के प्रथम संभावित प्रधानमंत्री) बनने जा रहे सरदार पटेल को गाँधी जी ने ‘नैतिकता’ की लाठी से लँगड़ी लगाकर ‘मामा नेहरू’ के प्रधानमंत्री बनने का रास्ता साफ किया। और आज वही काम अपने खानदान के फड़फड़ाते चिराग राहुल गाँधी की हार पर नयनतारा सहगल कर रहीं हैं- लोकतंत्र के जनादेश द्वारा, गणतंत्र द्वारा स्थापित सभी नियमों का पालन करते हुए निर्वाचित मोदी के शासन को अवैध साबित करने का प्रयास।

नयनतारा सहगल लेखिका हैं, वह भी ‘नेहरूवियन’, अतः जाहिर है कि उनकी नज़र में आम आदमी मूर्ख है, मामूली पढ़ा-लिखा है, उसने तो कोई किताबें पढ़ी नहीं होंगी, जो मर्ज़ी आए किताबों का नाम लेकर पढ़ा दो। और दक्षिणपंथियों को तो अबौद्धिक साबित करने और बनाए रखने में ही आधी समाजवादी-वामपंथी-साम्यवादी राजनीति खेत हुई है। इसीलिए नयनतारा सहगल बतातीं हैं कि गेब्रियल गार्सिआ मार्क्वेज़ की किताब ‘द क्रॉनिकल ऑफ़ अ डेथ फोरटोल्ड’ पढ़ लेने के कारण उन्हें पहले ही मालूम था कि मोदी के आने के बाद क्या होगा, 2014 से 2019 के बीच क्या-क्या होगा, और कैसे मोदी 2019 में वापसी करेगा।

क्यूट लिबरपंथियों की यह आम आदत है कि वो खाँसते भी हैं तो दो किताब और तीन विदेशी लेखक के नाम मुँह से निकल जाते हैं। उन्हें लगता है कि लोग सोचेंगे कि बहुत जानकार व्यक्ति है। लेकिन ये ट्रिक घिस चुकी है और नयनतारा जैसे लिबरपंथियों की सच्चाई बाहर आ चुकी है। जिस तरह की बात इन्होंने फलाने विदेशी दर्शन शास्त्र प्रोफेसर की थ्योरी लेकर की है, उस से पता चल जाता है कि इनके आर्टिकल में आगे क्या होने वाला है। बिलकुल उसी तरह जैसे इन्होंने मार्क्वेज़ की किताब के सन्दर्भ में कहा है कि सबको पहले ही पता होता है कि क्या हुआ। हमें भी पहले ही पता था कि नयनतारा जी के लेखन की सीमा कहाँ तक है, ख़ास कर तब जब वो राजनीति पर 2019 के चुनाव परिणामों को लेकर लिख रही हों।

वह दर्शनशास्त्र के प्रोफेसर जेसन स्टैनली के एक अध्ययन का हवाला देतीं हैं कि कैसे ‘दक्षिणपंथी अतिवाद’ की तरफ देश के जनमानस को झुकाने के एक ‘स्टैण्डर्ड फॉर्मूला’ होता है, जिसका मोदी ने इस्तेमाल किया है। इस फॉर्मूले के अंतर्गत वह वही सब बातें बतातीं हैं जो उनका छद्म-लिबरल गैंग पिछले पाँच सालों से रोता आ रहा है- मोदी ने ‘हम-बनाम-वो’ की राजनीति की, समुदाय विशेष को इस देश की संस्कृति से अलग दिखाने की कोशिश की, फलाना-ढिकाना। जबकि हास्यास्पद बात यह है कि यह सब मोदी ने, या हिन्दुओं ने किया नहीं है, उनके ही साथ यह सब हुआ है।

नयनतारा सहगल कहतीं हैं कि मोदी ने एक ‘नैरेटिव’ बुना हिन्दुओं को ‘पीड़ित’ दिखाने और महसूस कराने का। नयनतारा जी, क्या यह महज़ एक नैरेटिव था, वो भी मोदी का बुना हुआ, कि हिन्दुओं ने इस्लामी आक्रांताओं के हाथों जो सामूहिक हत्याकांड, बलात्कार, लूटपाट लगभग एक हज़ार साल तक झेले, उन्हें इतिहासकारों ने न केवल सत्ता के इशारे पर (जिसके शीर्ष पर आपके प्रिय मामाजी थे) दफना दिया, बल्कि उसे उठाने वाले हिन्दुओं के सत्य दावों को नकार कर उनके साथ सामाजिक-मनोवैज्ञानिक दुर्व्यहवहार (‘गैसलाइटिंग’, एक सोशिओ-साइकोलॉजिकल एब्यूज़) किया गया?

या यह महज़ एक नैरेटिव था, वो भी मोदी का बुना हुआ, कि आपके मामाजी के समय से ही हिन्दुओं के मंदिरों को, उन मंदिरों की सम्पत्तियों को सरकार हड़पती गई, और उनसे हज यात्रा की सब्सिडी देती गई? क्या यह महज़ एक नैरेटिव था, वो भी मोदी का बुना हुआ, कि संविधान के अनुच्छेद 25-30 में दी गई धर्म के पालन की सुरक्षा, बिना सरकारी हस्तक्षेप के, हिन्दुओं को नहीं मिली है? क्या यह महज़ एक नैरेटिव था, वो भी मोदी का बुना हुआ, कि हिन्दुओं की कितनी शादियाँ होंगी, इसका फैसला आपके मामाजी ने कर लिया, लेकिन समुदाय विशेष के निजी जीवन में हस्तक्षेप को आपकी पार्टी ‘कम्यूनलिज़्म’ कहती है?

हिन्दुओं ने समुदाय विशेष को बाहरी बनाया, नयनतारा सहगल को बताना चाहिए, या इस एक मजहब ने खुद इस देश की ‘एकं सद् विप्राः बहुधा वदन्ति’ का फायदा उठा कर, और उसके ऊपर और खिलाफ ‘मेरे अल्लाह को जो इकलौती ताकत न माने वह काबिले-कत्ल है’ थोपने की कोशिश की? इस मजहब के लोग इस देश से अलग तब दिखे जब हिन्दुस्तान के हिन्दुओं ने ‘बेगानी शादी में <समुदाय विशेष का व्यक्ति> दीवाना’ की तर्ज पर खिलाफत आंदोलन में कूदने का निर्णय लिया, या तब जब उस्मानी ख़लीफ़ा के समर्थन में मोपलाह कट्टरपंथियों ने अपने हिन्दू पड़ोसियों का कत्लेआम कर दिया?

सेना का सम्मान किए जाने को भी नयनतारा सहगल फासीवाद को बढ़ावा देने वाला कदम बतातीं हैं, राष्ट्र के गौरव पर गर्व महसूस करने और अपने भूतकाल में जो अच्छी बातें थीं, उन्हें याद करने और उनकी बातें करने को भी ‘फ़ासीवादी साज़िश’ का हिस्सा करार देतीं हैं। ऐसी बातों का जवाब देने की कोशिश न ही की जाए तो बेहतर होगा।

आगे वह यह बतातीं हैं कि युद्ध की ‘लोकतंत्र में’ प्रशंसा नहीं की जाती। पहली बात तो यह नयनतारा जी कि न ही मोदी, और न ही अन्य तथाकथित ‘चरम-दक्षिणपंथी’ नेताओं ने युद्ध की प्रशंसा की है। अगर प्रशंसा हुई है तो हिंदुस्तान पर थोपे गए युद्धों में शौर्य का प्रदर्शन करने वाले वीरों की। और अगर आपको लगता है कि वह भी नहीं होना चाहिए तो ऐसी सोच कितनी गिरी हुई है, कि किसी सैनिक की वीरता और उसके शौर्य की प्रशंसा केवल इसलिए मत करो कि इससे राजनीतिक शत्रु को फायदा मिल जाएगा, इसकी कोई सीमा नहीं है। और दूसरी बात, अगर एक क्षण के लिए मान भी लिया जाए कि हिंदुस्तान अपने युद्धों की प्रशंसा करता भी है तो? यह वामपंथी को पसंद आने वाला लोकतंत्र भले नहीं होगा (क्योंकि वामपंथ कमज़ोरियों और विक्टिम्स की ओर ही नज़र रखता है), लेकिन दक्षिणपंथी लोकतंत्र तो होगा (क्योंकि दक्षिणपंथ शक्ति और क्षमता पर ज़ोर देता है)। या फिर वामपंथियों का लोकतंत्र ही इस देश का इकलौता लोकतंत्र हो सकता है?

नयनतारा सहगल मोदी पर जिस ‘कहानी’ के ज़रिए सत्ता में आने का और सत्ता में वापसी का आरोप लगातीं हैं, पहली बात तो वह ‘story-telling’ होने भर से असत्य या ‘reality’ से परे नहीं हो जाती। वरिष्ठ साहित्यकार होने के नाते सहगल को यह बात पता होना चाहिए कि ‘story-telling’ असलियत के जितना करीब होती है, उसकी सफलता उतनी ज़्यादा होती है। उनकी खुद की किताबों प्रशंसा इसलिए हुई है कि ‘फिक्शन’ होते हुए भी उनमें (एक समय) कहीं-न-कहीं सच्चाई प्रतिबिम्ब होती थी। आज मोदी वही ‘कहानी कहना’ इस्तेमाल कर रहा है। और मज़े की बता यह है कि जो कहानी आज मोदी, या इस देश का दक्षिणपंथी-राष्ट्रवादी वर्ग कह रहा है, उस कहानी की पृष्ठभूमि नयनतारा के मामाजी और उनके ‘भक्तों’ ने ही हिन्दुओं के शोषण, उनके साथ दोगले व्यवहार से तैयार की है।

नयनतारा सहगल जैसे लोग केवल व्यक्ति नहीं हैं, प्रतीक हैं- उस मानव-प्रवृत्ति का, उस ध्यानाकर्षण की लिप्सा और लोलुपता का, जिसके चलते इंसान अपने बूढ़े हो जाने, और अपने विचारों का समय निकल जाने के चलते हाशिए पर पहुँच जाने, अप्रासंगिक हो जाने को स्वीकार नहीं कर पाता। ऐसी ही मानसिक अवस्था में, अपने पुराने रौब के लिए छटपटाता व्यक्ति अनर्गल प्रलाप करने लगता है। उसे इससे भी मतलब नहीं होता कि उसके इस प्रलाप से किसका फायदा हो रहा है, किसका नुकसान (जैसे मोदी को गाली देते-देते यशवंत सिन्हा मोदी का तो कुछ नहीं बिगड़ पाए, उल्टा अपने ही बेटे की ‘नौकरी खा गए’); ऐसी ही हालत में इंसान नयनतारा सहगल जैसी बातें करने लगता है…

चेन्नई में भीषण जल-संकट की अहम बातें: स्कूल, होटल, हॉस्टल, IT कम्पनियाँ- हर जगह हाहाकार

जनसंख्या के मामले में देश का छठा सबसे बड़ा महानगर चेन्नई भीषण जल-संकट से जूझ रहा है। जब पीने के लिए पानी नहीं है तो बाकी दैनिक उपयोग के लिए कहना ही क्या। यह एक भीषण जल संकट है। आए दिन बारिश के मौसम में जहाँ लोग बाढ़ से हलकान रहते थे, बाढ़ के कारण शहर डूब जाया करता था, वहाँ आज पानी नहीं है, यह चिंता का विषय है। चेन्नई के जल संकट के बारे में यहाँ हम आपको सबकुछ बताएँगे- क्या दिक्कतें हैं, सरकार ने क्या किया, कोर्ट ने क्या कहा, स्थानीय लोग कैसे रह रहे हैं, सबकुछ। सबसे पहले वहाँ पानी के मूल्य की बात करते हैं। वहाँ के एक मोहल्ले में जब पानी ख़त्म हुए तो एक प्राइवेट सप्लायर को बुलाया गया और पानी का टैंकर वहाँ पहुँचा।

1600 रुपए में 12,000 लिटर पानी आया, जिसे उस अपार्टमेंट के 5 परिवारों ने शेयर किया। यह 3 दिन तक चला। समान मात्रा में पानी अगर चेन्नई वाटर सप्लाई बोर्ड से आता तो सिर्फ़ 1000 रुपए ख़र्च आता। अतः, अब पानी के लिए वहाँ सक्षम लोग डेढ़ से दोगुना ज्यादा रुपया दे रहे हैं। शहर के आसपास के पानी के जो भी स्रोत उपलब्ध थे, वे सारे के सारे सूख चुके हैं। आम जनता की तो छोड़िए, इससे कंस्ट्रक्शन सेक्टर पर इतनी भीषण मार पड़ी है कि उन्हें भी पानी का टैंकर ज्यादा मूल्य देकर ख़रीदना पड़ रहा है या फिर निर्माण कार्य रोकना मजबूरी हो जा रही है। निर्माण कार्यों की लागत बढ़ गई है।

मद्रास हाईकोर्ट ने तमिलनाडु सरकार पर समुचित व्यवस्था न करने के लिए फटकार लगाईं है। मुख्यमंत्री पलानीस्वामी का कहना है कि मीडिया मुद्दे को बढ़ा-चढ़ा कर ज्यादा भाव दे रहा है। कोर्ट ने कहा कि मानसून के कम स्तर पर रहने की उम्मीद के बावजूद सरकार ने उचित क़दम नहीं उठाए, यह चिंता का विषय है। कोयम्बटूर का एक झील सूख गया और उसमें मछलियाँ मरी हुई पाई गई। आईटी हबों में से एक होने के कारण कम्पनियों को भी ख़ास इंतजाम करने पड़ रहे हैं। चेन्नई व आसपास के इलाक़े में 100 के करीब होस्टलों को बंद कर दिया गया है क्योंकि पानी का इंतजाम नहीं हो पा रहा।

अगले कुछ दिनों में और भी होस्टलों को बंद कर दिया जाएगा। आईटी कम्पनियों ने अपने कर्मचारियों को घर से काम करने की सुविधा दे दी है, ताकि पानी की बर्बादी न हो और उन्हें पानी का इंतजाम न करना पड़े। वाटर सप्लाई विभाग के अधिकारियों का कहना है कि वीआईपी कॉलोनीज, सरकारी कॉलोनीज व अन्य प्रभावशाली लोगों के मुहल्लों में पानी की सप्लाई एकदम ठीक रखने का आदेश है, इससे पानी की सप्लाई में काफ़ी असंतुलन पैदा हो गया है। यही कारण है कि आमजनों को ज्यादा दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा है। चेन्नई का एक बड़ा स्कूल, जिसमें ढाई हज़ार से भी अधिक छात्र हैं, ने छुट्टी की घोषणा कर दी है।

कुछ स्कूलों ने अपनी टाइमिंग में बदलाव किया है और सिर्फ आधे दिन के लिए ही बच्चों की पढ़ाई हो रही है। कुछ स्कूलों ने तो पानी के टैंकरों के लिए बच्चों से अतिरिक्त शुल्क लेना भी शुरू कर दिया है। कुछ बड़े-बड़े होटलों ने तो खाने-पीने की चीजों में कमी कर दी है, मेनू में से कई चीजें हटा दी गई है। पाँच सितारा होटलों को भी तय से आधा पानी ही नसीब हो रहा। एक बात आश्चर्यजनक है कि चेन्नई में पानी की कमी का भी वही कारण है, जो 2015 में आई भीषण बाढ़ का था और वो समस्या है- चेन्नई व आसपास के रिजरवायर्स और कैनाल्स का सही तरीके से प्रबंधन नहीं होना।

अब इस समस्या का एक ही उपाय है और वो है ग्राउंडवाटर लेवल में सुधार करना, जो कि सरकार की इच्छाशक्ति व लोगों ने सहयोग से ही संभव है। इसके लिए एक योजना तैयार करनी पड़ेगी, समय लगेगा लेकिन उसपर अमल करना होगा।

जब रिपोर्टर मरे बच्चे की माँ से भी ज़्यादा परेशान दिखने लगें…

‘आप कैसा महसूस कर रहे हैं?’, ‘आपका बेटा जिंदगी के लिए तड़प रहा है, आप कुछ कहना चाहेंगे?’, ‘आपके पति की मौत हो गई, आपको कैसा फ़ील हो रहा है?’, आदि सवाल ऐसे हैं जो सवाल नहीं सामान्य बुद्धि के दायरे से बाहर के हैं। ये संवेदनहीनता से भरे तो हैं ही, साथ ही यह आपको एक पेशे का ऐसा चेहरा दिखाती है जो क्लेम करती है कि वो जो कर रहे हैं, वो जनता की आवाज बन कर कर रहे हैं।

सौ से ज्यादा बच्चे मर गए। वो मर गए। वो वापस नहीं आएँगे। हो सकता है, अगले साल फिर मर जाएँगे क्योंकि कुछ लोग अपना काम ठीक से नहीं कर रहे। ऐसे में मीडिया की क्या ज़िम्मेदारी है? मीडिया के लिए, ऐसे विषयों पर, दो काम बनते हैं। पहला यह है कि वो उन लोगों से सवाल करे जो इन मौतों को एक तय तरीके से होने देते हैं। और दूसरा यह कि वो वह काम करें जो उन लोगों ने नहीं किया, यानी जागरूकता फैलाने का।

इसमें कुछ मीडिया वाले बदतमीज़ी करते हुए हॉस्पिटल में पहुँच गए जैसे कि उनके जाने से सब कुछ सही हो जाएगा। पत्रकारों को, जिसमें कुछ बड़े एंकर शामिल हैं, लगता है कि उन्हें डिप्लोमैटिक इम्यूनिटी टाइप की कोई चीज मिली हुई है जिस कारण वो ब्रह्मांड के किसी भी कोने में माइक ले कर जा सकते हैं। ये सोच गलत है, कई बार ग़ैरक़ानूनी भी, लेकिन हमारा पेशा इतना विकृत रूप ले चुका है कि आप उन पर सवाल नहीं उठा सकते।

आप जरा सोचिए कि जिस हॉस्पिटल का नाम गलत कारणों से न्यूज में आया हुआ हो, वो कितने दबाव में काम कर रहे होंगे। मैं यह भी मान लेता हूँ कि हॉस्पिटल साफ-सुथरा नहीं होगा, लेकिन यह बताने के लिए जीवन और मौत से संघर्ष कर रहे बच्चों के वार्ड में आप यह दिखाने के लिए अराजकता फैलाने लगेंगे कि देखिए यहाँ कितनी गंदगी है?

अस्पतालों की गंदगी उत्तर भारत के लिए कोई ख़बर नहीं है। जो सरकारी अस्पतालों में गए हैं, उन्हें पता है कि वो गंदे हैं। ये कोई बताने की चीज नहीं है। बता भी दें तो कैमरा लेकर दिखाने से आप किसी की मदद नहीं कर रहे। यहाँ सबको वस्तुस्थिति पता है।

नर्स एक बीमार बच्चे के बेड के पास खड़ी होकर कुछ निर्देश दे रही है और हमारे पत्रकार माइक लेकर पिले पड़े हैं! ये कौन-सी पत्रकारिता है? इसका लक्ष्य क्या है? इससे समाज के किस हिस्से को आवाज मिल रही है या ऐसा कौन-सा मुद्दा आप दिखा रही हैं जो लोगों को पता नहीं है?

लोगों को आपके पहुँचने से पहले से मुद्दा पता है कि अस्पताल में बच्चे मर रहे हैं। लोगों को ये ख़बर तब से पता है जब से बाकी चैनल जगे नहीं थे। आज राहुल गाँधी लोकसभा में आँख मार दे या मोदी राहुल गाँधी की चुटकी ले ले तो आप इन सारी मौतों को भूल जाएँगे क्योंकि आप के लिए मौतें मुद्दा नहीं हैं। मुद्दा है आपका खलिहर होना और इस मातम में लोगों से पूछना कि उनको कैसा लग रहा है!

कैसा लगेगा जब इन एंकरों के बच्चे तड़पते रहेंगे और एक आम आदमी इनसे पूछे कि आपको एक माँ के लिहाज से कैसा महसूस हो रहा है? वो माइक इनके मुँह में ठूँस दे और नाक से कैमरा सटा कर पूछे कि आप कैसा फ़ील कर रही हैं? अच्छा नहीं लगेगा, आप उन्हें झिड़क कर भगा देंगे।

आप जैसे एंकरों ने अपनी तस्वीरें खींचने पर प्राइवेसी की दुहाई दी है। क्या उस बच्चे के पिता को प्राइवेसी का हक़ नहीं जिसके लिए प्राथमिकता उसके बच्चे की साँसें हैं, और यह कि वो दवाई कहाँ से लाएगा?

मीडिया अपने आप को समझता क्या है? ये ज़िम्मेदारी है मीडिया की? ऐसे आप रिपोर्टिंग करेंगे? ये मीडिया नहीं थिएटर है। यहाँ लोग चिल्लाएँगे नहीं, ड्रामा नहीं करेंगे, आवाज को मॉड्यूलेट नहीं करेंगे तो लोग उन्हें सुनेंगे नहीं। जबकि ऐसे कई एंकर हैं जो शांत हो कर अपनी बातें रखते हैं, और लोग सुनते हैं। ये फर्जी बुलबुला बना कर उसी में लोग जी रहे हैं जिसका परिणाम बाथ टब में श्री देवी की मौत कैसे हुई बताने के लिए चम्पक पत्रकार बाथ टब में लेट जाने पर दिखता है।

तो फिर ऐसे मामलों में मीडिया क्या करे? मीडिया को कम से कम आधे घंटे जागरूकता अभियान चलाना चाहिए चैनलों के माध्यम से। इन्हीं पत्रकारों को अगर लगता है कि लोग उन्हें सुनते हैं तो उन्हें स्थानीय भाषा में यूट्यूब या चैनल के माध्यम से डॉक्टरों की बातचीत दिखा कर लोगों को ऐसी बीमारियों से बचाव के तरीके बताने चाहिए। विज्ञापनों के बीच लोगों को साफ-सफ़ाई रखने का आग्रह करना चाहिए।

पत्रकारों का काम नौटंकी करके भीड़ जुटा कर लोगों को अचंभित करने का नहीं है कि लोग यह चर्चा करें कि ‘अरे देखो, कितना गंदा है हॉस्पिटल’। इससे किसे क्या लाभ होगा पता नहीं। क्या इस शो के दो दिन बाद भी कोई याद रखेगा कि हॉस्पिटल गंदा था? उस हॉस्पिटल का नाम भी ध्यान में रहेगा? ये इम्पैक्ट किसके लिए क्रिएट हो रहा है? क्या ये मनोरंजन है कुछ लोगों के लिए जिनके लिए आप पैकेज तैयार करते हैं? फिर आपने क्या योगदान दिया इस मुद्दे को लेकर बतौर पत्रकार? यही आधे घंटे अगर आपने किसी जानकार डॉक्टर से बात करते हुए, बार-बार यह बताया होता कि लक्षणों को तुरंत ऐसे पहचानें और अस्पताल जाएँ, तो कल को होने वाली कुछ मौतें कम हो सकती थीं।

जब मीडिया सरकार को निकम्मी मानती ही है, फिर मीडिया ने इस जानकारी के साथ खुद क्या किया? क्या हमने इस सीज़न की शुरुआत में ही कैलेंडर बनाया कि हर साल बच्चे मरते हैं, हम पहले ही जा कर हॉस्पिटल से और मंत्रालय से पता करें कि इस बार आपने बचाव के लिए क्या प्रयास किए हैं? ज़िम्मेदार पत्रकार तो पहले ही सरकार को आगाह करने की कोशिश करेगा। अगर सरकार या स्वास्थ्य तंत्र उदासीन दिखे, तो वो इस पर चर्चा करे कि मुज़फ़्फ़रपुर वालो, हमने तो तुम्हारे इलाके के लिए इतना प्रयास किया, देखो तुम्हारा नगर निगम, सदर अस्पताल, मंत्री, सांसद, विधायक, जिला परिषद सदस्य आदि सो रहे हैं।

लेकिन पत्रकार तो इन मौक़ों पर हमेशा सबसे बाद में आते हैं। इनके लिए कैलेंडर के हिसाब से सिर्फ जन्मदिन और श्रद्धांजलि के ही दिन बनते हैं। जबकि इन दोनों से किसको क्या लाभ होता है मुझे नहीं पता। अगर मीडिया, जो गले फाड़-फाड़ कर यह सवाल कर रही है कि किसी ने कुछ क्यों नहीं किया, स्वयं ही पहले कुछ करती, और जो आँकड़े ये हर साँस में गिना रही है कि इस साल इतने मरे, उस साल उतने मरे, वो पहले गिन लेती, तो शायद इस त्रासदी की चोट थोड़ी कम लगती।

हम सब जानते हैं कि इसमें दोष सरकार का है जो निकम्मी है, उपेक्षा करती है अपनी जनता का और ज़िम्मेदारी लेने से भागती है। ये बात सबको पता है। आँख मूँद कर ये बातें आप हर त्रासदी के बाद कह सकते हैं और आप गलत नहीं होंगे। लेकिन हम पत्रकारों की क्या ज़िम्मेदारी है? क्या हमने अपने अनुभव ये कुछ भी सीखा है? क्या हम प्रो-एक्टिव हैं किसी भी भयावह आपदा को लेकर? क्या हमें अंदाज़ा भी था कि इस साल भी बच्चे मरने वाले हैं या फिर हम उस दिन के बवाल में बिजी थे जिससे हमें ट्रैफिक और टीआरपी मिलें?

ये दोष मुझ पर भी है, और मेरे साथी पत्रकारों और संस्थानों पर भी। मीडिया को अपने ज़िम्मेदार होने का मेडल तब ही लटकाना चाहिए जब उसने ऐसी आपदाओं को आने से पहले ही लोगों को आगाह किया हो कि अब बारिश का मौसम आ रहा है, डेंगू फैलना शुरु होगा, हॉस्पिटलों की तैयारी पता की जाए। बारिश के बाद नालों के जाम होने पर सरकारों से सवाल पूछने से बेहतर है कि बारिश की शुरुआत में पूछा जाए कि क्या नालों की सफ़ाई हो गई?

अभी जो टीवी पर चल रहा है वो इतना घटिया और संवेदनहीन है कि उसमें दोष मढ़ने, नाटकीयता दिखाने और चेहरे पर पानी मार कर अपने आप को बदहवास दिखा कर यह बताने की होड़ मची है कि हमारे टीवी की एंकर उस माँ से ज़्यादा परेशान है जिसका मृत बच्चा उसकी गोद में पड़ा है और उसके आँसू सूख चुके हैं।

अपहृत सपा नेता की धारदार हथियार से हत्या, नक्सलियों ने सड़क पर फेंका शव

छत्तीसगढ़ में नक्सलियों का आतंक थमता नहीं दिख रहा है। ताज़ा घटना में समाजवादी पार्टी के एक नेता की निर्मम हत्या कर दी गई है। राज्य के बीजापुर में सपा नेता की पहले तो धारदार हथियार से हत्या कर दी गई और फिर शव को सड़क पर फेंक दिया गया। मंगलवार (जून 18, 2019) को नक्सलियों ने उन्हें उनके पैतृक आवास से अपहृत कर लिया था। बीजापुर के एसपी दिव्यांग पटेल ने बताया कि अभी तक इस घटना के कारणों का पता नहीं चल पाया है। ये वारदात इलमिडी थाना क्षेत्र के मरिमल्ला गाँव में हुई है।

मृतक नेता का नाम संतोष पुनेम है और वह पार्टी के विधानसभा प्रत्याशी रह चुके हैं। वह किसी काम से गाँव स्थित अपने पैतृक आवास पहुँचे थे, जहाँ नक्सलियों ने मौक़ा देखते ही उनका अपहरण कर लिया। इसके बाद तमाम तरह के क़यास लगाए जा रहे थे लेकिन उनके बारे में कुछ पता नहीं चल पा रहा था। बुधवार की सुबह उनकी लाश सड़क पर पड़ी मिली। मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार, प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना के तहत लोधेड़-मारिमल्ला में निर्माण कार्य किया जा रहा था, जिस वजह से संतोष नक्सलियों के निशाने पर थे।

वहीं पुलिस ने अभी तक इस बारे में खुल कर कुछ नहीं बताया है, अतः हत्या के और भी कारण हो सकते हैं। पुलिस मामले की छानबीन कर रही है। संतोष कॉन्ट्रेक्टर भी थे। वह गाँव में सड़क निर्माण सम्बन्धी कार्यों का जायजा लेने पहुँचे थे। जहाँ उनकी लाश मिली, वह जगह पुलिस थाने से 16 किलोमीटर दूर जंगल के भीतर है। पुनेम को विधानसभा चुनाव में 999 मत प्राप्त हुए थे। बता दें कि हाल ही में नक्सलियों ने बस्तर से एकमात्र भाजपा विधायक भीमा मंडावी की भी हत्या कर दी थी।

जब पुनेम की लाश मिली, तब आसपास काफ़ी ख़ून बिखरा हुआ था। वह बस्तर में सपा के उपाध्यक्ष भी थे। छत्तीसगढ़ में बिगड़ती क़ानून व्यवस्था को लेकर सरकार विपक्ष के निशाने पर है।

लोग नहीं चाहते कि नेहरूभक्त, गाँधीव्रता BBC अपने चक्रवर्ती सम्राट राहुल बाबा का बड्डे मनाए

स्वामिभक्ति और पत्नीव्रता जैसे शब्द बीते समय की बातें हो चुकी हैं। जहाँ तक मुझे याद है, बीबीसी जैसे ही किसी मीडिया ने धीरे-धीरे कर के लोगों को इसे पितृसत्तात्मक समाज का चेहरा बताकर ‘ओल्ड स्कूल थिंग्स’ की कैटेगरी में डाल देने का पूरजोर प्रयास किया है। ये अच्छी बात है अगर यह वाकई में पुरुषों द्वारा महिलाओं पर अधिकार जैसे तर्कों की वकालत करता है तो इसे नकार दिया जाना चाहिए। लेकिन यदि इन विशेषणों में बुराई थी तो BBC या ऐसा ही कोई लगभग-प्रगतिशील स्वयं क्यों इन विशेषणों से मोह त्याग नहीं पाया है?

मामला देश के ‘पहले’ युवा अध्यक्ष और नेहरूवियन सभ्यता के आखिरी खेवनहार राहुल गाँधी के जन्मदिन का है। ये वही राहुल गाँधी हैं, जिनके भगीरथ प्रयासों की बदौलत भाजपा इस बार के लोकसभा चुनावों में 300 का आँकड़ा अकेले अपने दम पर ले आने में सफल हुई। आज राहुल गाँधी का अवतरण दिवस है। एक ओर जहाँ देश ‘चमकी बुखार’ जैसी महामारी से आतंकित है, वहीं दूसरी ओर नेहरूघाटी सभ्यता में जन्मे कुछ मीडिया गिरोहों के कुछ बड़े स्तम्भों ने अपनी प्राथमिकता चुन ली।

जब नेहरूघाटी सभ्यता में जन्मे बुद्धिपीड़ितों का जिक्र आता है तो BBC का नाम सबसे पहले दिमाग में आना स्वाभाविक है। ये पत्रकारिता के कुछ ऐसे संस्थान हैं, जो भोजन शुरू करने से पहले अन्न का प्रथम अंश जवाहरलाल नेहरू और दूसरा अंश गाँधी परिवार के लिए रख देते हैं। कम ही लोग ये बात जानते हैं कि BBC जैसे मीडिया गिरोह गले में राहुल गाँधी द्वारा हर चुनाव नतीजों के बाद त्याग दिए गए जनेऊ धारण कर के ही कार्यक्षेत्र को रवाना होते हैं (व्यंग्य)। ऐसे में गाँधीव्रता, नेहरूभक्त BBC के लिए राहुल गाँधी का जन्मदिन किसी राष्ट्रीय त्यौहार से कम नहीं माना जा सकता है।

आज राहुल गाँधी का जन्मदिन है, नेहरूघाटी सभ्यता में जन्मे सभी विचारकों ने अपनी-अपनी पोजीशन सुबह ब्रह्ममुहूर्त में ही ले ली थी। जहाँ NDTV टेलीविजन के माध्यम से बार बार लूप में राहुल गाँधी का वीडियो चला कर माहौल बना रहा था वहीं BBC ने सोशल मीडिया पर अपनी स्वामिभक्ति का प्रदर्शन चालू किया। NDTV ने पलट-पलटकर दिखाया कि किस तरह से कार्यकर्ताओं से घिरे राहुल गाँधी लड्डू से भरी हुई थाली मीडिया की ओर बढ़ाकर ‘आप भी खाइए’ ‘आप भी खाइए’ कहकर उत्सव मना रहे थे। हालाँकि, इस प्रगतिशील मुजरे के बाद थोड़ी देर मुजफ्फरपुर के बच्चों की अकाल मृत्यु की रिपोर्ट दिखाई गई।

BBC देना चाहता था राहुल गाँधी को गिफ्ट, पाठकों ने गरिया दिया

BBC हिंदी के फेसबुक पेज ने स्वामिभक्ति में खुदको पिछड़ता देख तुरंत भक्तिधारा में लिखी एक तस्वीर शेयर की, जिसका कैप्शन था- ” HAPPY BIRTHDAY RAHUL : आज राहुल गाँधी का जन्मदिन है, अगर आपको उन्हें कोई एक तौहफा देने का मौका मिले तो आप क्या देंगे?”

वो अभागा पोस्ट, जिसकी किस्मत में डिलीट होना था

काबा किस मुँह से जाओगे BBC?

लेकिन कुछ देर बाद BBC को यह पोस्ट डिलीट करना पड़ा। कारण यह था कि पाठकों ने BBC के राजकुमार को “30 दिन में बुद्धिमान कैसे बनें” जैसी किताबें तो सुझाईं साथ ही, अध्यक्ष जी के लिए कुछ ‘मन की बातें’ भी खुलकर लिख डालीं। यह BBC से देखा नहीं गया और पोस्ट को डिलीट कर दिया गया। लेकिन, जिस तरह से एक विभीषण रावण की लंका में भी था, उसी तरह से शायद कोई मार्गदर्शक विभीषण BBC की लंका में भी बैठा था जिसने सलाह दी कि गाली खाने का मतलब यह नहीं कि तुम अपनी भक्ताई में कमी ले आओ, और संभव है कि यह भी याद दिलाया हो कि ‘काबा किस मुँह से जाओगे?’

इसके बाद BBC के पत्थरकारों का हौंसला बढ़ा और करीब 2 घंटे बाद नई तस्वीर और हौंसले के साथ पाठकों से दोबारा पूरी बेशर्मी के साथ राहुल गाँधी के लिए गिफ्ट माँगने वाली पोस्ट साझा की गई। हालाँकि, पाठकों की प्रतिक्रियाएँ अभी भी रोचक ही हैं। लेकिन, होशियार BBC ने इस बार एक निवेदन भी जारी करते हुए तस्वीर शेयर की। यह दर्दभरा हृदय चीर देने वाला निवेदन आप अपनी गारंटी पर ही पढ़ें-

BBC जैसे मीडिया गिरोहों का अपने अन्नदाताओं के प्रति यह समर्पण मिसाल है उन सभी बड़े-छोटे मीडिया घरानों के लिए, जिन्हें अभी बहुत कुछ सीखना बाकी है। वैसे BBC को हमारी सलाह यह भी है कि आज की तारीख को यानी, जून 19 को ही गाँधी जयंती मनाना शुरू कर दे। गाँधी जी अब रहे नहीं, और एकमात्र उम्मीद अब सिर्फ राहुल गाँधी ही बाकी हैं।

BBC की स्वामिभक्ति की एक झाँकी निम्न तस्वीरों के माध्यम से समझें

दुःखद : यह चित्र आपको विचलित कर सकता है
2 घंटे तक चली उच्चस्तरीय वार्ता में लिया गया फिर से गिफ्ट माँगने का निर्णय :रुके न तू झुके न तू

One Nation, One Poll: पीएम मोदी की बैठक से माया, ममता, केजरी, नायडू, स्टालिन रहेंगे गोल

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने “One Nation, One Poll” अर्थात ‘‘एक देश, एक चुनाव’’ के मुद्दे पर चर्चा के लिए सभी राजनीतिक दलों के लोकसभा और राज्यसभा में प्रतिनिधित्व करने वाले अध्यक्षों की 19 जून को एक बैठक बुलाई है। इस बैठक में राष्ट्रीय पार्टियों, क्षेत्रीय पार्टियों के अध्यक्ष को शामिल होना है। ये बैठक बुधवार दोपहर 3 बजे संसद भवन की लाइब्रेरी में होगी। इस बैठक में ‘एक देश, एक चुनाव’ के अलावा कुछ अन्य महत्वपूर्ण मुद्दों पर भी चर्चा होगी।

इस बैठक में ‘वन नेशन वन पोल’ के अलावा भी कई अन्य मुद्दों पर चर्चा होगी। जैसे, 2022 में भारत अपनी आजादी के 75 साल पूरा कर लेगा, इसे मोदी सरकार भव्य रूप में मनाना चाहती है, जिस पर सभी दलों से चर्चा हो सकती है। साथ ही इसी साल महात्मा गाँधी की 150वीं जयंती के जश्न और सदन में कामकाज के सुचारू रूप से चलने को लेकर बैठक में प्रधानमंत्री चर्चा कर सकते हैं।

चर्चा से पहले ही विपक्ष इस बैठक से किनारा करता जा रहा है। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के बाद अन्य क्षेत्रीय दलों के प्रमुख भी बैठक का हिस्सा बनने से इनकार कर रहे हैं। यहाँ तक कि कॉन्ग्रेस ने भी बैठक में शामिल होने से मना कर दिया है। ममता के बाद बहुजन समाज पार्टी की सुप्रीमो मायावती, दिल्ली के मुख्यमंत्री और आम आदमी पार्टी प्रमुख अरविंद केजरीवाल, तेलुगू देशम पार्टी (टीडीपी) के प्रमुख चंद्रबाबू नायडू और डीएमके अध्यक्ष एम. के. स्टालिन ने भी बैठक में नहीं शामिल होने से इनकार किया है। हालाँकि, इनमें से कुछ नेता बैठक में अपने प्रतिनिधियों को भेजेंगे।

मायावती ने बैठक में शामिल न होने की घोषणा करते हुए ट्वीट किया, “किसी भी लोकतांत्रिक देश में चुनाव कभी कोई समस्या नहीं हो सकती है और न ही चुनाव को कभी धन के व्यय-अपव्यय से तौलना उचित है। देश में ‘एक देश, एक चुनाव’ की बात वास्तव में गरीबी, मँहगाई, बेरोजगारी, बढ़ती हिंसा जैसी ज्वलंत राष्ट्रीय समस्याओं से ध्यान बाँटने का प्रयास व छलावा मात्र है।”

इससे पहले विपक्षी दलों ने इस मुद्दे पर अपनी रणनीति तय करने के लिए कॉन्ग्रेस समेत अन्य विपक्षी पार्टियों ने इसपर साझा बैठक बुलाई थी, लेकिन वह रद्द हो गई है। इस बीच NCP प्रमुख शरद पवार ने बयान दिया है कि वह प्रधानमंत्री के द्वारा बुलाई गई बैठक में शामिल होंगे।

कुछ मीडिया रिपोर्टों के अनुसार कॉन्ग्रेस ‘एक देश एक चुनाव’ का विरोध करेगी। इसके पीछे कॉन्ग्रेस का कहना है कि आज आप एक देश एक चुनाव की बात करेंगे, कल एक देश एक धर्म की बात होगी, फिर एक देश एक पहनावे की बात होगी।

इस बैठक में NDA के सभी घटक दल शामिल हो रहे हैं। साथ ही अगर गैर एनडीए दल की बात करें तो जगनमोहन रेड्डी, नवीन पटनायक, केसीआर की तरफ से उनके बेटे केटीआर और समाजवादी पार्टी के प्रमुख अखिलेश यादव भी बैठक में शामिल होंगे। अरविंद केजरीवाल की जगह इस बैठक में राघव चड्डा शामिल होंगे।