Thursday, May 23, 2024
Home Blog Page 5220

‘इतने की तो हम बीड़ी पी जाते हैं’: मध्य प्रदेश में ₹13 की क़र्ज़माफ़ी पर किसान का बयान

मध्य प्रदेश में कमलनाथ सरकार द्वारा किसानों की क़र्ज़माफ़ी की घोषणा के बाद किसानों की मुश्किलें ख़त्म होने के बजाए बढ़ती ही जा रही हैं। क़र्ज़माफ़ी को लेकर सरकारी दफ़्तरों में चिपकाई जा रही सूची में किसी के नाम ₹13 तो किसी के नाम के आगे ₹30 की क़र्ज़माफ़ी है। क़र्ज़माफ़ी के मुद्दे पर 15 साल बाद सत्ता में आई कॉन्ग्रेस की कमलनाथ सरकार के इस रवैये से जनता बेहद परेशान है।

किसानों के लिए जारी क़र्ज़माफ़ी की लिस्ट में निपानिया के रहने वाले एक किसान शिवपाल का भी नाम है। शिवपाल पर बैंक के ₹20,000 से ज्यादा का कर्ज़ है। लेकिन सरकार द्वारा जारी लिस्ट में उनके नाम के आगे ₹13 की क़र्ज़माफ़ी की गई है। शिवपाल ने अपने बयान में कहा, “सरकार क़र्ज़ माफ़ कर ही रही है तो मेरा पूरा क़र्ज़ माफ़ होना चाहिए, ₹13 की तो हम बीड़ी पी जाते हैं।”

मध्य प्रदेश में क़र्ज़माफ़ी एक तरह से फ़र्ज़ी किसान घोटाला है

कॉन्ग्रेस ने किसानों की क़र्ज़माफ़ी के अपने चुनावी जुमले को जनता के बीच जमकर भुनाया था, अब इस प्रकार के प्रकरणों से किसान ऋणमाफ़ी मात्र एक कॉन्ग्रेस का चुनावी पैंतरा बनकर रह गया है। इस रणनीति के तहत कॉन्ग्रेस ने भले ही 3 राज्यों (राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़) की सत्ता अपने हाथों ले ली हो, लेकिन उसकी असलियत अब धीरे-धीरे सामने आ रही है।

हाल ही में राजस्थान में फ़र्ज़ी कर्ज़माफ़ी के आँकड़े भी सामने आए थे, जिसमें कॉन्ग्रेस पार्टी का क़र्ज़माफ़ी का झूठ पकड़ा गया था। इस प्रकरण में राज्य सरकार द्वारा जारी की गई सूची में उन किसानों के नाम शामिल थे, जिन्होंने कभी बैंक से लोन लिया ही नहीं था।

ऐसा ही एक मामला मध्य प्रदेश सरकार में भी देखने को मिला है, जिसका असर आगामी चुनावों में कॉन्ग्रेस सरकार पर यक़ीनन देखने को मिलेगा। ख़बरों के अनुसार, मध्य प्रदेश में क़र्ज़माफ़ी की घोषणा के बाद वहाँ के किसानों ने इस बात पर आपत्ति जताई थी कि जब कर्ज़ लिया ही नहीं तो फिर माफ़ी कैसी?

मध्य प्रदेश के ग्वालियर में किसानों की क़र्ज़माफ़ी की प्रक्रिया शुरू होने के साथ ही विवादों में छा गई है। दरअसल हुआ यूँ कि क़र्ज़माफ़ी के लिए जब समितियों की तरफ से पंचायत पर कर्ज़दारों की सूची जारी की गई तो उनमें जिन किसानों के नाम शामिल थे, उन्होंने ऐसा कोई क़र्ज़ लिया ही नहीं था जिसकी माफ़ी से वे ख़ुश हो सकें।

इसके बाद उन किसानों ने जिले की सहकारी केंद्रीय बैंक की शाखा व समितियों पर जाकर क़र्ज़ लेने सम्बन्धी आपत्ति दर्ज़ कराई, साथ ही इस बात पर भी जोर दिया कि जब उन्होंने बैंक से कोई क़र्ज़ ही नहीं लिया तो फिर उनका नाम ऐसी किसी सूची में कैसे शामिल हो सकता है जिसके लिए कर्ज़ माफ़ी का प्रावधान किया जा रहा है। बता दें कि किसानों को फ़सल के लिए ऋण कृषि साख सहकारी समीतियों द्वारा ही दिया जाता है।

रिपोर्ट्स के अनुसार, जिला सहकारी बैंक की चीनौर शाखा उर्वा सोसायटी का घोटाला सबसे अधिक चर्चित रहा। लगभग 1,143 किसानों के नाम फ़र्ज़ी ऋण वितरित किया गया, जिससे बैंक को लगभग साढ़े पाँच करोड़ रुपए का चूना लगा। इस संबंध में जब पूर्व विधायक बृजेंद्र तिवारी ने एक किसान की जाँच कराई, तो पता चला कि ऐसे 300 किसानों के पते ही फ़र्ज़ी थे। बाकी किसानों के पास जाकर पाया कि उन्होंने किसान संबंधी कोई क़र्ज़ लिया ही नहीं।

ऐसे में यही सवाल उठता है कि क़र्ज़माफ़ी से जुड़ा यह विवाद अभी और कितने फ़र्ज़ी घोटालों को सामने लाएगा? उम्मीद यह की जा रही है कि जल्द ही इस तरह के क़र्ज़माफ़ी के और भी प्रकरणों का पर्दाफ़ाश होगा।

‘महाठगबंधन’ की बारात में ‘तानाशाह’ दीदी से लेकर दोमुँहे साँप केजरी ‘सड़जी’ फन फैलाए बैठे हैं

देश में जिस महागठबंधन को लेकर आज माहौल बनाया जा रहा है, वह सही मायने में ‘चोरों’ की एक ऐसी मंडली है जिसका इतिहास ही बाँटो, लूटो और राज करो का रहा है। अगर ये कहा जाए कि प्रधानमंत्री मोदी को हटाने के लिए सभी ‘चोरों’ का गिरोह एक साथ मैदान में उतर आया है तो गलत नहीं होगा। मौजूदा गाँठ जोड़ने वाली पार्टियों का सिर्फ़ एक ही लक्ष्य है कि ‘चौकीदार’ को हटाया जाए, और देश को लूटा जाए।

बिन दूल्हे की बारात जाएगी कहाँ?

सोचने वाली बात है कि बिन दूल्हे की बारात का आख़िर होगा क्या? पीएम मोदी जैसे सशक्त नेता के डर से गठबंधन तो कर लिया गया है, लेकिन गठबंधन में पीएम का विकल्प कौन होगा इस प्रश्न पर सन्नाटा है। कॉन्ग्रेस राहुल गाँधी को दूल्हा मानकर चल रही है, तो वहीं तृणमूल कॉन्ग्रेस का सपना दीदी ममता के सिर पर ताज सजाने का है। गठबंधन में शामिल हुए अलग-अलग पार्टी के दिग्गज नेताओं के मन में अलग ही रसगुल्ले इस बात को लेकर फूट रहे हैं कि शायद उनका जीवन बुढ़ापे में ही सुफल हो जाए।

खैर अब राहुल बाबा की कॉन्ग्रेस के 70 सालों के कारनामों को कौन नहीं जानता है? साम्प्रदायिकता के आधार पर देश को बाँटना हो, देश में हिंदू-मुस्लिम दंगा करवाना हो या फिर 2G, बोफ़ोर्स, कोल आवंटन, राष्ट्रमंडल खेल में करोड़ों का घोटाला करना हो, यहाँ का इतिहास घोटालों से संपन्न है। बावजूद इसके स्टालिन का कहना है कि मोदी सरकार को हराने की ताक़त, और क़ूवत राहुल गाँधी में है।

दोमुँहे साँपों का है ये महागठबंधन

दोमुँहे साँपों की अगर बात करें तो उसमें सबसे पहला नाम ‘सर केजरी’ का आता है। ये मैं नहीं कह रहा हूँ, इसका प्रमाण ‘सड़जी’ ख़ुद दे चुके हैं। जनवरी 2014 में ‘सड़जी’ ने कहा था, “मैंने भ्रष्ट लोगों की सूची बनाई है, यह सिर्फ़ शुरूआत है और सूची बढ़ेगी। मैं आपके सामने सूची पेश कर रहा हूँ, और आप तय करें कि इन लोगों को वोट दिया जाना चाहिए या नहीं? इनको हराना ही मेरा लक्ष्य है।” बता दें कि उस वक़्त ‘सड़जी’ की लिस्ट में सबसे ऊपर कॉन्ग्रेस के शहज़ादे राहुल गाँधी हुआ करते थे। खैर, ‘सड़जी’ तो इन्हें हटाते-हटाते खुद ही इनमें लिप्त हो गए।

कर्नाटक CM कुमारस्वामी चाहते हैं ममता जी के सिर पर सजे ताज

कर्नाटक के मुख्यमंत्री एच डी कुमारस्वामी की मानें तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के प्रशासन से पूरी तरह ‘निराश’ हैं। इन्हें पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता जी में ‘कुशल प्रशासक’ दिखाई दे रहा है। स्वामी जी की मानें तो देश की अगुवाई करने की हर काबिलियत इनमें मौज़ूद है।

वहीं, दूसरी ओर कॉन्ग्रेस के पश्चिम बंगाल के नेता रंजन चौधरी की मानें तो ममता जी गिरगिट की तरह रंग बदलने वाली महिला हैं, कट्टर, चालाक, तानाशाह उन पर भरोसा नहीं किया जा सकता है। चलिए जाने अनजाने ही सही कोई खुलकर तो बोला। याद दिलाते चलें कि ये वही ममता बनर्जी हैं जो हमेशा से दोहरे आचरण को लेकर चलती आई हैं।

एक तरफ ये NRC (नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटीजन) के मुद्दे पर असम एनआरसी से बाहर रह गए 40 लाख घुसपैठियों की बात करती थीं, वहीं दूसरी ओर 2005 में संसद में पश्चिम बंगाल में अवैध प्रवासियों के ख़िलाफ़ स्थगन प्रस्ताव लेकर अपनी ही बात का खंडन किया। इन सब के बावज़ूद ममता जी 2018 में NRC को लेकर बीजेपी पर हमला करती हैं और कहती हैं कि 40 लाख लोग पूरी तरह भारतीय हैं।

ममता जी पर तानाशाही का आरोप भी लग चुका है, याद दिला दें कि पश्चिम बंगाल की ममता दीदी की रैली में सवाल पूछने वाले एक व्यक्ति को गिरफ़्तार करने का आदेश दे दिया गया था। क्योंकि उसने ये कह दिया था कि किसान मर रहे हैं और खोखले वादे से काम नहीं चलेगा। अब आप सोच सकते हैं कि ममता जी के पास कितनी ममता है, और राष्ट्र के लिए वो कितनी उपयोगी प्रधानमंत्री साबित हो सकती हैं।

झूठ, फ़रेब, धोखा, भ्रष्टाचार के अलावा कुछ नहीं देगा महागठबंधन

‘मुँह में राम बगल में छूरी’ की कहावत पूरी तरह से ‘महागठबंधन’ के प्रत्येक पार्टी और नेताओं पर सटीक बैठता है। ये वही पार्टियाँ हैं, जिनके पास राष्ट्र के लिए कोई विज़न नहीं है। दशकों से एक दूसरे से लड़ती-झगड़ती, आरोप-प्रत्यारोप लगाते हुए राजनीति करती आई हैं। सवाल उठता है कि अगर सत्ता में आईं तो राष्ट्र और राष्ट्र के नागरिकों के लिए क्या करेंगे? क्योंकि वोट बैंक की राजनीति और सत्ता में आना ही इनका एक मात्र लक्ष्य है।

ये पार्टियाँ एक तरफ संसद में जीएसटी, आर्थिक आधार पर आरक्षण देने वाले बिल पर पूरा समर्थन देती हैं, वहीं दूसरी और संसद के बाहर राष्ट्रहित के इन पैमानों की जमकर आलोचना करती हैं। इनके लिए केवल सत्ता पाना ही सब कुछ है, भले ही इसके लिए कितना भी झूठ और अफ़वाह क्यों न फै़लाया जाए। सवाल उठता है कि आखिर ये इनका दोहरा रवैया झूठ, फ़रेब, धोखा, भ्रष्टाचार, घोटाले के अलावा इस राष्ट्र को क्या दे सकता है?

मोदी सरकार के आदि महोत्सव से 40,000 जनजातीय कारीगरों को मिली आजीविका

2014 में भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व वाली नरेंद्र मोदी की सरकार बनने के बाद समाज के वंचित आदिवासी समुदाय के लिए कई सारी महत्वपूर्ण योजनाओं की शुरूआत की गई। इन योजनाओं को सफ़ल बनाने के लिए सरकार ने कई सारे कार्यक्रमों की भी शुरूआत की। इन कार्यक्रमों में आने के लिए जनता को प्रेरित किया गया।

इन कार्यक्रमों के ज़रिए आदिवासियों के संस्कृति से लोगों को रू-ब-रू कराने के साथ-ही- साथ आदिवासियों के आय को भी बढ़ाने का प्रयास किया गया। आदिवासियों के उत्थान के लिए  शुरू किया गया ‘आदि महोत्सव’ योजना भी इन्हीं में से एक है।

यह योजना आदिवासियों को आजीविका और अपनी आय बढ़ाने के अवसर प्रदान करने का एक प्रयास है। महोत्सव आदिवासी कारीगरों को अपने उत्पाद सीधे ग्राहकों तक पहुंचाने की सुविधा प्रदान करता है। जनजातीय मामलों का मंत्रालय और कई सरकारी व गैर सरकारी संस्थान पूरे भारत के बाजार तक उनकी पहुँच सुनिश्चित करता है।

इन्हीं उद्देश्यों के साथ 2018 की दूसरी छमाही में इंदौर, अहमदाबाद, हैदराबाद, दिल्ली और भोपाल में पाँच आदि महोत्सव आयोजित किए गए। 2019 की पहली छमाही में 12 आदि महोत्सव आयोजित किए जाएँगे।

40 हजार जनजातीय कारीगर लाभांवित हुए

इस वर्ष के आदि महोत्सव से 14,000 जनजातीय परिवारों तथा 40,000 जनजातीय कारीगरों को आजीविका के साधन उपलब्ध हुए हैं तथा उन्हें अतिरिक्त आय प्राप्त हुई है। इस वर्ष 18 करोड़ रुपये से अधिक का कारोबार दर्ज किया गया है। दिसंबर, 2018 में भोपाल तथा रणथम्भौर में दो आदि महोत्सव आयोजित किए गए थे जहाँ 69.07 लाख रुपये का कारोबार हुआ था।

इसके अतिरिक्त ट्राइफेड ने नई दिल्ली, रायपुर, गुवाहाटी, जयपुर, उदयपुर, भुवनेश्वर, मुंबई, रांची, लखनऊ, मसूरी, देहरादून, वाराणसी, भोपाल, बैंगलोर, कन्याकुमारी, कोयम्बटूर, भिलाई, कोहिमा, काजीरंगा, कोटा, राउरकेला, रणथम्भौर, पुणे, प्रयागराज, पुड्डूचेरी, कोलकाता, चेन्नई और चंडीगढ़ में 28 प्रदर्शनियों का आयोजन किया था। इनमें  110.58 लाख रुपए मूल्य के उत्पादों की बिक्री हुई थी।

साभार:प्रेस इन्फोर्मेशन ब्यूरो

कृषि क्षेत्र में भारी संकट, फिर भी ऋण माफ़ी स्थाई समाधान नहीं: IMF चीफ़

चुनावी माहौल में विकास और व्यापक सुधार के कार्यक्रम भूलकर अक्सर नेता लोकलुभावन वादों तक ही सीमित हो जाते हैं और इसका चुनावी फायदा भी होता है। हाल ही में, उत्तर भारत के तीन हिंदी भाषी राज्य मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में कॉन्ग्रेस ने सत्ता में वापसी के लिए इसी तरह के लोकलुभावन वायदे किए थे और चुनाव में जीत हासिल करने के तुरंत बाद कृषि ऋण माफ़ी की घोषणा करते हुए किसानों से किए गए वादे को निभाया भी। इसको देखते हुए दबाव में बीजेपी शासित राज्य गुजरात और असम ने भी इसको अपनाया। इसी दबाव में बिना व्यापक सोच विचार किए, आगामी लोकसभा चुनाव को देखते हुए कई राज्य सरकारों के कृषि ऋण माफ़ी की घोषणा करने की संभावना है।

इसके विपरीत, न्यूज़ 18 की रिपोर्ट के अनुसार, भारतीय मूल की मशहूर अर्थशास्त्री गीता गोपीनाथ ने कहा, “मेरा मानना है कि कृषि क्षेत्र पर भारी संकट है फिर भी कृषि ऋण माफ़ी स्थाई समाधान नहीं है।” यह बात उन्होंने दावोस में वर्ल्ड इकोनॉमिक फ़ोरम के मौके पर कही गोपीनाथ द्वारा इंटरनेशनल मॉनिटरी फंड (IMF) की चीफ इकोनॉमिस्ट का पद संभालने के बाद वैश्विक विकास की यह पहली रिपोर्ट थी।

उन्होंने यह सुझाव दिया कि ‘कैश सब्सिडी’ ऋण माफ़ी के मुकाबले बेहतर होगा। उन्होंने कृषि ऋण माफ़ी को लेकर कहा, “ऐसे लोकलुभावन उपायों से किसानों की समस्याओं का स्थाई समाधान नहीं होगा। इसके बजाय कैश सब्सिडी बेहतर रहेगा। सरकार को किसानों को पैदावार बढ़ाने के लिए बेहतर तकनीक और बीज जैसी सुविधाएँ उपलब्ध करानी चाहिए।”

बता दें कि इससे पहले कॉन्ग्रेस अध्यक्ष राहुल गाँधी ने कहा था कि उनकी पार्टी और अन्य लोग प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को तब तक आराम नहीं करने देंगे, जब तक पूरे भारत में ‘किसान ऋण माफ़ी’ योजना लागू नहीं हो जाती है।

वहीं अपने एक वक़्तव्य में आरबीआई के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन ने भी कृषि ऋण माफ़ी योजना पर विरोध जताया था। साथ ही चुनाव आयोग से राजनीतिक दलों को इसे चुनावी मुद्दा बनाने से रोकने की माँग की थी।

रिपोर्ट के अनुसार, गोपीनाथ ने कहा, “कृषि क्षेत्र और रोज़गार सृजन एनडीए सरकार के लिए प्रमुख मुद्दा है। यह इस साल भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए प्रमुख चिंता का विषय भी रहेगा। लेकिन यह विकास दर के मदृेनजर सकारात्मक भी रहेगा।” बता दें कि वर्ल्ड इकोनॅामिक आउटलुक अपडेट में 2019-20 के दौरान भारत की अर्थव्यवस्था के सबसे तेजी से आगे बढ़ने की सम्भावना व्यक्त की गई है।  

उन्होंने वैश्विक इकॉनमी से तुलना करते हुए कहा, “वैश्विक स्तर पर मंदी रहने के आसार हैं। जबकि भारत की अर्थव्यवस्था का 7.5% की विकास दर से आगे बढ़ने की संभावना है। 2020-21 के दौरान भारत का विकास दर 7.7% तक पहुँचने की उम्मीद है। इस दौरान चीन का विकास दर 6.2% रहने का अनुमान है।”

रोज़गार कहाँ हैं? सिर्फ़ ऑटो और प्रोफ़ेशनल सेक्टर ने दी 1.8 करोड़ नौकरियाँ

नोटबंदी और जीएसटी जब एक के बाद एक आई, तो राजनीति से प्रेरित आर्थिक विश्लेषकों ने भारतीय अर्थ व्यवस्था को लगभग ख़त्म मान लिया था। उनके कारण भी रहे क्योंकि इन दोनों कारकों से इकॉनमी पर असर तो पड़ा ही। लेकिन सरकार और वित्त मंत्रालय ने कम समय तक टिकने वाले उन नुक़सानों को इसलिए भी नज़रअंदाज़ किया क्योंकि इसके आने वाले समय में बहुत बड़े फ़ायदे होने वाले थे। 

नोटबंदी के कारण विरोधियों ने सिर्फ़ विरोध करने के लिए विरोध किया, और उससे होनेवाले फ़ायदों को अब तक नकार रहे हैं जबकि आँकड़े कुछ और ही कहानी कहते हैं। ये कहना कि सारे नोट बैंकिंग सिस्टम में वापस आ गए, और यह भी कि ये सारा पैसा ‘सफ़ेद’ हो गया, अज्ञान से शुरु होकर अल्पज्ञान तक ही पहुँच पाता है। इस पर विस्तार से अगर आप पढ़ना चाहें तो यहाँ पढ़ सकते हैं। 

वैसे ही, जीएसटी के बारे में राफ़ेल के फ़र्ज़ी अफ़वाहों के आने तक लगातार ख़बरें बनाई गईं कि ‘सारे स्लैब को एक कर दो’, ”वन नेशन, वन टैक्स’ का मतलब क्या है? जब लोगों को चार टैक्स देना पड़ रहा है’ आदि। ऐसा नहीं है कि जो ऐसी वाहियात बातें करते हैं, उन्हें इसका ज्ञान नहीं, लेकिन आदत से मज़बूर, मुद्दों की तलाश में भटकते लोग, जब कुछ नहीं पाते हैं तो प्रपंच ही करते हैं। जीएसटी के ‘वन टैक्स’ होने का मतलब यह नहीं है कि हर चीज पर एक ही ‘मात्रा’ में टैक्स लगे, बल्कि उसका मतलब है कि सत्रह ‘तरह’ के अलग ‘मात्रा’ के टैक्स की जगह, एक तरह का टैक्स लगे। इस विषय पर भी आप विस्तार में यहाँ पढ़ सकते हैं। 

इन दो मुद्दों के बाद भी जब भारत लगातार एक स्थिरता के साथ, दुनिया की सबसे तेज़ी से बढ़ने वाली बड़ी अर्थ व्यवस्था बनती है, तो भी कुछ छद्मबुद्धिजीवियों और पक्षकारों को लगता है कि वर्ल्ड बैंक से लेकर IMF जैसी संस्थाओं में संघ प्रचारक बैठे हुए हैं जिन्हें मोदी फोन करता है और वो कहते हैं, “अच्छा, इस साल भी 7.5% रखना है ग्रोथ फ़ोरकास्ट… दुनिया का ग्रोथ फ़ोरकास्ट घटा देता हूँ, भारत का बढ़ा देता हूँ? ठीक है मोदी जी? जी, प्रणाम… जी वंदे मातरम और भारत माता की जय।” 

फिर ख़बरें आती हैं कि भारत ने फ़्रान्स और ब्रिटेन को पछाड़ दिया और कुछ ही महीनों में विश्व की पाँचवी बड़ी अर्थव्यवस्था बन जाएगी। ये सब पढ़ते रहने के बाद भी जब बार-बार रोज़गार सृजन को लेकर सरकार को घेरा जाता है, तो आश्चर्य होता है कि बिना रोज़गार दिए कोई अर्थ व्यवस्था इतनी तेज़ी से कैसे बढ़ रही है? 

दूसरी बात, रोज़गार के ही सिलसिले में ही देखा जाए तो साफ़ नज़र आती है कि हर तरफ़ सड़कें, और इन्फ़्रास्ट्रक्चर बन रहे हैं, फिर भी लोगों के पास काम नहीं है? ये सारे लोग कौन हैं? या वो सारे लोग कौन हैं जिन्होंने मुद्रा योजना के तहत लोन लिया और कम्पनी चला रहे हैं? या वो लोग कौन हैं जो टैक्सदाता बनकर पिछले कुछ सालों में टैक्स सिस्टम में आए हैं? और हाँ, पकौड़ा बेचना ‘भी’ रोजगार है जिसे कुछ स्पिन गेंदबाज़ पकौड़ा बेचना ‘ही’ रोज़गार है’ कहकर उपहास करते रहते हैं। 

इसी संबंध में टी वी मोहनदास पाई और यश बैद की एक रिसर्च सामने आई है जिसमें उन्होंने आँकड़ों के आधार पर यह बताया है कि ‘रोज़गार सृजन नहीं हो रहा’ कितना बड़ा झूठ है और मुद्रास्फीति कम रखते हुए उच्च जीडीपी वृद्धि दर लगातार बनाए रखना सरकार की एक बड़ी उपलब्धि है। 

भारत जैसे बड़े देश में जॉब क्रिएट करने वाले सेक्टर्स को देखें तो उसमें ऑटो सेक्टर बहुत बड़ी संख्या में रोज़गार देने वाला माना जाता है। अगर वाहनों की बिक्री बढ़ती है तो इसका मतलब है कि उनका उत्पादन बढ़ रहा है, उत्पादन करनेवालों के काम में स्थिरता है, और वहाँ नौकरियाँ बढ़ेंगी ही, घटेंगी नहीं। साथ ही, अगर कमर्शियल वाहनों (ट्रक, बस, ऑटोरिक्शा, टैक्सी, ट्रॉली, ट्रैक्टर आदि) की बात करें तो बिक्री का मतलब है कि कोई एक व्यक्ति तो उसे चलाएगा ही। कई बार एक ही ऑटो को शिफ्ट में चलाने का मतलब है कि संभवतः उसे एक से अधिक लोग चलाएँगे। साथ ही, अगर बिक्री बढ़ती है तो उससे जुड़े सेक्टर (रिपेयरिंग, सर्विसिंग आदि) में भी रोज़गार के बढ़ने की संभावना रहती है। 

ऐसी स्थिति में ऊपर के रिसर्च से मिले आँकड़ों को देखें तो 1 अप्रैल 2014 से 31 दिसंबर 2018 तक, ऑटो सेक्टर से संबंधित परोक्ष रोज़गारों को छोड़ते हुए (रिपेयर आदि), सिर्फ़ प्रत्यक्ष रोज़गारों की बात करें तो वहाँ लगभग 34 लाख लोगों को 2017-18 में रोज़गार मिले, और 2018 के अंतिम 9 महीनों में लगभग 28 लाख नई नौकरियों का सृजन हुआ। इस तरह से एनडीए सरकार के दिसंबर 2018 तक के कार्यकाल में अप्रैल 2014 से अप्रैल 2017 तक क्रमशः 26.02 लाख, 27.07 लाख और 28.37 लाख लोगों को रोज़गार मिले। इन सबको जोड़ा जाए तो इस सेक्टर में मोदी सरकार के कार्यकाल में लगभग 1.4 करोड़ लोगों को रोज़गार मिले।

इस पर आलोचनात्मक स्थिति में भी, कि इसमें से बहुत लोग ऐसे होंगे जो पुरानी गाड़ियों को बेच रहे होंगे, ये देखना मुश्किल नहीं है कि रोज़गार बढ़े ही हैं, घटे नहीं। क्योंकि नई गाड़ियाँ ख़रीदना सिर्फ़ मोदी सरकार में ही नहीं हो रहा, वो पहले भी हुआ है, आगे भी होगा। लम्बे समय में इस आँकड़े को देखा जाए, तो फिर वो एक स्थिर दर से रोज़गार में वृद्धि का संकेत देती है। 

मोहनदास और यश बैद ने ही दूसरे सेक्टरों में रोज़गार सृजन के आँकड़े देते हुए बताया है कि ‘प्रोफ़ेशनल’ सेक्टर एक ऐसा सेक्टर है जो कॉरपोरेट सेक्टर का हिस्सा न होने के बाद भी बहुत बड़ा रोज़गारदाता है। इस सेक्टर में वैसे लोग हैं जो अपने साथ कई और लोगों को काम देते हैं, जैसे चार्टर्ड अकाउंटेंट, वकील, मैनेजमेंट अकाउंटेंट, कम्पनी सेक्रेटरी, डॉक्टर, फ़ैशन डिज़ाइनर, रियल स्टेट ब्रोकर, वित्तीय सलाहकार आदि। 

चूँकि हम इन लोगों द्वारा जॉब क्रिएशन की बात कर रहे हैं, तो भी देखना ज़रूरी है कि क्या ऐसे कॉलेजों और विश्वविद्यालयों से (जो इस तरह की शिक्षा या स्किल्स देते हैं), उसी अनुपात में टैलेंट भी बाहर आ रहा है? इस बात पर भी मोहनदास और यश के लेख में ध्यान दिया गया है, और इस आँकड़े को न सिर्फ टैलेंट के कॉलेजों से आने, बल्कि नए टैक्सदाताओं की संख्या में हुई वृद्धि से जोड़कर देखा गया, तो सब कुछ सामान्य और आनुपातिक दिखता है। 

कहने का तात्पर्य यह है कि अगर इस सेक्टर में हम नौकरियों की बात कर रहे हैं, तो इसमें रोज़गार देनेवाले लोग हैं, जो वैसे लोगों को रोज़गार दे रहे हैं जो उनके मतलब की शिक्षा या कौशल के साथ कॉलेज से पढ़ाई करके बाहर आ रहे हैं, और जिन्हें नौकरी मिल रही है, वो लोग टैक्स सिस्टम का हिस्सा बन रहे हैं। ज़ाहिर तौर पर एक सामंजस्य देखा जा सकता है। 

अब इस सेक्टर के आँकड़ों की बात करें तो मार्च 2017 तक ऐसे नॉन-कॉरोपोरेट प्रोफ़ेशनल टैक्दाताओं की संख्या 20 लाख तक जाती है। इनकी संख्या में हो रही औसत वृद्धि (1,50,000/वर्ष) के हिसाब से मार्च 2019 तक यह संख्या 24 लाख तक जाती है। अब, यह भी कहा जा सकता है कि ये तो वैसे लोग हो सकते हैं जो पहले से प्रोफ़ेशनल थे, और अब टैक्स सिस्टम में आए हैं। ये तर्क सही है, लेकिन ऐसे लोगों के टैक्स ब्रेकेट में आने की प्रक्रिया सतत है, तो साल-दर-साल के आँकड़ों को देखते हुए यह सामान्यीकृत हो जाएगा। 

इस सेक्टर के लोगों की ख़सियत यह होती है कि ऐसे लोग न सिर्फ़ नौकरी करते हैं, बल्कि नौकरियाँ देते भी हैं। आम तौर पर एक टैक्स देने वाले प्रोफ़ेशनल के साथ कई और लोग कार्य करते हैं। उस आँकड़े को देखा जाए तो, एक प्रोफ़ेशनल द्वारा औसतन मात्र पाँच नौकरी भी माना जाए, तो ऐसे नए रोज़गारों की संख्या लगभग आठ लाख प्रति वर्ष होती है। साथ ही, हर साल टैक्स सिस्टम में आने वाले लोगों की संख्या लगातार बढ़ती दिखती है, जो कि एक सकारात्मक बात है।

इस हिसाब से नई नौकरियों के सृजन की संख्या देखें तो पाँच साल में लगभग 40 लाख लोगों को नौकरियाँ मिली हैं। ऊपर के ऑटो सेक्टर द्वारा सृजित रोज़गार के आँकड़ों को मिला दें तो ये संख्या 1.8 करोड़ तक पहुँच जाती है। सिर्फ दो सेक्टर ने इतने लोगों को नौकरियाँ दी हैं, जबकि मुद्रा लोन, इन्फ़्रास्ट्रक्चर सेक्टर से लाखों लोगों को काम देने की बात या स्वरोज़गार करते लोगों की संख्या आदि का कोई आधिकारिक या सरकारी आँकड़ा न होने के कारण ये कहना आसान हो जाता है कि ये ग्रोथ ‘जॉबलेस’ या रोज़गारहीन है।

इस तरह के तथ्यपरक आँकड़ों और तार्किक विश्लेषण से आम तौर पर झुठला दी जाने वाली बातों का खंडन किया जा सकता है। लेकिन हम ऐसे दौर में रहते हैं जहाँ अगर टीवी पर गम्भीर शक्ल लेकर बैठा एंकर ये सवाल पूछ दे कि ‘रोज़गार कहाँ हैं’ और हम मान लेते हैं कि रोज़गार नहीं हैं। या तो विश्वकर्मा हमारे सोने के बाद सड़कें बना दे रहे हैं, या फिर भगवान गणेश और चित्रगुप्त रात में जगकर टैक्स डिपार्टमेंट में फ़र्ज़ी लोगों के नाम कम्प्यूटर में डाल रहे हैं, क्योंकि आँकड़े तो एंकरों की गम्भीरता पर सवाल उठाते दिखते हैं। 

अच्छी ख़बर: वैश्विक स्तर पर भारत सबसे भरोसेमंद राष्ट्रों में से एक

हमारे भारत देश को वैश्विक स्तर पर सरकार,व्यापार, एनजीओ और मीडिया के मामले में सबसे अधिक विश्वस्नीय माना गया। ऐसा हम नहीं कह रहे हैं बल्कि 2019 की आई एक रिपोर्ट में यह बात है।

वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम (WEF) की बैठक से पहले 2019 का एडेलमैन ट्रस्ट बैरोमीटर का ग्लोबल ट्रस्ट इंडेक्स 21 जनवरी 2019 को जारी किया गया है। जिसके अनुसार भारत उन देशों में शामिल है, जिस पर सरकार, व्यापार, एनजीओ और मीडिया के मामले में वैश्विक स्तर पर यकीन किया जाता है। लेकिन, इसी रिपोर्ट के अनुसार देश के ब्रांड को सबसे कम विश्वसनीय माना जाता है। 65 पेज की इस रिपोर्ट को आप यहाँ पढ़ सकते हैं।

इस रिपोर्ट में भारत को वैश्विक विश्वास सूचांक में 3 प्वॉइंट की बढ़ोतरी मिली है। जबकि जागरूक जनता और सामान्य जनसंख्या क्षेत्रों में चीन विश्वास सूचांक में सबसे ऊपर है। वहीं भारत जागरूक जनता श्रेणी में दूसरे स्थान पर है और सामान्य जनसंख्या में तीसरे स्थान पर है।

बता दें कि यह सूचांक एनजीओ, व्यापार,सरकार और मीडिया में विश्वास का औसत प्रतिशत है। इन परिणामों के लिए 27 बाज़ारों में ऑनलाइन सर्वेक्षण कराया गया था, जिसमें 33,000 लोगों ने उत्तर दिया। ये कार्य 19 अक्टूबर 2018 से 16 नवंबर 2018 संचालित किया गया था।

ऐसे बाजार जहाँ कंपनियों के मुख्यालय हैं, सबसे ज्यादा विश्वस्नीय कंपनियाँ स्विट्जरलैंड,जर्मनी और कनाडा से हैं। इन देशों के ब्रांडों को विश्वास के मामले में 70 अंक दिए गए हैं जबकि जापान को इसमें 69 अंक प्राप्त हुए हैं।

इसी रिपोर्ट के अनुसार, भारत, मैक्सिको और ब्राजील में जिन कंपनियों के मुख्यालय हैं, वे सबसे कम विश्वसनीय हैं। इसके बाद चीन और दक्षिण कोरिया का स्थान आता है। बता दें कि भारत और ब्राजील का स्कोर 40 प्रतिशत है जबकि मैक्सिको और चीन का स्कोर क्रमशः 36 प्रतिशत और 41 प्रतिशत है।

EVM ‘एक्सपर्ट’ पर निर्वाचन आयोग ने दिल्ली पुलिस को FIR दर्ज़ करने का दिया निर्देश

लोकसभा चुनावों में EVM में गड़बड़ी किए जाने को लेकर सोमवार (जनवरी 21, 2019) को चर्चा में आए सैयद शूजा नाम के एक तथाकथित ‘टेक एक्सपर्ट’ के ख़िलाफ़ देश के निर्वाचन आयोग ने आज (जनवरी 22, 2019) को दिल्ली पुलिस को पत्र लिखकर रिपोर्ट दर्ज़ करने का निर्देश दिया।

निर्वाचन आयोग द्वारा दायर FIR की कॉपी

शूज़ा ने जो गैर-कानूनी काम किया है, वो आईपीसी की धारा 505(1)(b) का उल्लंघन है।

क्या है आईपीसी की धारा 505(1)(b)

  • सेक्शन 505 – सार्वजनिक उपद्रव के लिए जिम्मेदार बयान
  • (1) जो कोई बयान जारी करता है, अफवाह उड़ाता है या रिपोर्ट बनाकर उसे प्रकाशित या प्रसारित करता है
  • (b) जिसका इरादा जनता में या जनता के किसी भी वर्ग के लिए भय और डर पैदा करना या ऐसा करने की संभावना होना, ताकि किसी भी व्यक्ति को राज्य के खिलाफ या सार्वजनिक शांति के खिलाफ अपराध करने के लिए प्रेरित किया जा सकता है

ज्ञात हो कि सोमवार को भारतीय मूल के अमरीका के एक स्वघोषित साइबर विशेषज्ञ, सैयद शूजा ने लंदन में एक प्रेस कॉन्फ्रेंस आयोजित कर दावा किया था कि वो भारत में इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन (EVM) को डिज़ाइन करने वाली टीम का हिस्सा रह चुके हैं और कहा कि वह दिखा सकते हैं कि EVM मशीनों को ‘हैक’ किया जा सकता है।

इसके साथ ही उन्होंने कहा था कि वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव में EVM से छेड़छाड़ की गई थी और 12 पार्टियों ने उनसे EVM से छेड़छाड़ के लिए सम्पर्क भी किया था।

सैयद शूजा ने अपनी प्रेस वार्ता के दौरान कहा था कि चुनाव आयोग के दावों के बावज़ूद वो EVM मशीनों को हैक कर के दिखा सकता है।

चुनाव आयोग पहले भी कई बार EVM हैक किए जाने जैसी अफ़वाहों को नकारता आया है। मंगलवार को ही आम आदमी पार्टी नेता अरविन्द केजरीवाल ने भी कहा कि उन्होंने किसी साइबर एक्सपर्ट से संपर्क नहीं किया था।

सैयद शूजा नाम का यह ‘एक्सपर्ट’ स्काइप पर मास्क लगाकर पेश हुआ। शूजा ने कहा कि वह अमेरिका में राजनीतिक शरण लेकर रह रहा है। उसने यह भी दावा किया कि टेलिकॉम कंपनी रिलायंस कम्युनिकेशन ने ईवीएम हैक करने में बीजेपी की मदद की। हालांकि, उसने इस दावे पर कोई सबूत पेश नहीं किया। शुजा ने यह दावा भी किया कि बीजेपी, एसपी, बीएसपी, आप और कांग्रेस भी ईवीएम के साथ छेड़छाड़ की थी। हालांकि, इनमें से किसी पार्टी की तरफ से कोई प्रतिक्रिया सामने नहीं आई है।

लाइव प्रसारण में सैयद शूजा ने कहा था कि सीनियर जर्नलिस्ट गौरी लंकेश ने उनकी स्टोरी चलाने के लिए हामी भरी थी, लेकिन उनकी हत्या कर दी गई। कॉन्ग्रेस पार्टी नेता कपिल सिब्बल इस लाइव प्रेस वार्ता में मौजूद थे।

EVM हैकिंग की अफ़वाह से जुड़े नक़ाबपोश एक्सपर्ट के दावों और उसके समर्थकों के दोहरे चरित्र को जानना चाहते हैं तो पढ़ें यह शानदार लेख!

कृषि क्षेत्र में नरेंद्र मोदी को घेरने वालों को रास नहीं आएँगे ये आँकड़े

नरेंद्र मोदी सरकार को घेरने के लिए विपक्ष के पास मुद्दों का इतना अभाव है कि उन्हें ऐसे-ऐसे आलतू-फ़ालतू मुद्दे ख़ोज कर लाने पड़ते हैं, जिनकी न कोई प्रासंगिकता होती है और न प्रमाणिकता। विपक्षी नेता कभी ये बताते नहीं पाए जाते कि सरकार की किस योजना में क्या कमी है और कहाँ पेंच है। उल्टा उनके पास बस एक ही किस्म का रटा-रटाया बयान होता है, “मोदी ने मध्यम वर्ग के लिए कुछ नहीं किया” या “भाजपा ने किसानों के लिए कुछ नहीं किया” या “राफ़ेल में घोटाला हुआ है” या “EVM हैक कर लिया गया”… और न जाने क्या-क्या!

यहाँ हम किसानों की बात करेंगे। कृषि की बात करेंगे और इस क्षेत्र में मोदी सरकार द्वारा किए गए कार्यों का ज़िक्र करेंगे, ताकि बिना फैक्ट और आँकड़ों के सरकार को घेरने वाले हवा-हवाई नेताओं और पत्रकारों को समझा सकें कि आँकड़ें उनकी और उनके दावों की पोल खोल देते हैं। कृषि क्षेत्र में सरकार ने कई नई योजनाएँ शुरू की हैं। कई पुरानी योजनाएँ, जो कछुआ चाल से चल रही थी- उनका जीर्णोद्धार किया है।

कृषि एक ऐसा क्षेत्र रहा है, जिसका भारत की अर्थव्यवस्था में हमेशा से दबदबा रहा है। आज़ादी के बाद से ही इस बात को लेकर चिंता जताई जाती रही है कि किसानों को उनके फ़सल का उचित मूल्य नहीं मिल पाता, खेती के आधुनिक तौर-तरीके सिखाने के लिए उन्हें नई तकनीक उपलब्ध नहीं कराई जाती, और अगर फ़सल ज्यादा हो गई तो उसके रख-रखाव की भी उचित व्यवस्था नहीं की जाती। किसानों के बारे में आम धारणा रही है कि फ़सल ज्यादा होने पर रख-रखाव की व्यवस्था न होने के कारण खराब हो जाती है और फ़सल कम होने पर उन्हें घाटा होता है। आर यह महज़ धारणा नहीं बल्कि हकीकत भी है।

मोदी सरकार ने कई योजनाओं के द्वारा किसानों को आधुनिक तकनीक उपलब्ध कराने, खेती की कठिन प्रक्रिया को सुगम व सरल बनाने और सुविधाओं को सीधा उन तक पहुँचाने की व्यवस्था की है। इन में से कुछ चुनिंदा योजनाओं के बारे में हम यहाँ बात करेंगे और आधिकारिक आँकड़ों द्वारा ये देखने की कोशिश करेंगे कि पिछले पाँच सालों में कृषि क्षेत्र में क्या बदलाव हुए हैं?

प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना

मोदी को विरासत में एक ऐसी कृषि अर्थव्यवस्था मिली थी, जिस में पैसे लगाने को कोई तैयार नहीं था। कृषि क्षेत्र निवेश की भारी कमी से जूझ रहा था। 2014 में देश के अधिकतर इलाकों में ऐसा भीषण सूखा पड़ा था, जिससे किसान तबाह हो गए थे। इसके अलावे बेमौसम बरसात ने किसानों के घाव पर नमक छिड़कने का काम किया था। ऐसे समय में कुछ ठोस फ़ैसलों की ज़रूरत थी और नरेंद्र मोदी सरकार ने ‘प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना (PMKSY)’ लाकर किसानों को बहुत हद तक राहत दी।

पानी के संकट से जूझते किसानों और कृषि क्षेत्र के लिए PMKSY एक वरदान की तरह साबित हुआ। वित्त मंत्री अरुण जेटली ने 2015 में इस योजना के बारे में बताते हुए कहा था कि सरकार जल संसाधन के संरक्षण एवं कुशल प्रबंधन के लिए जिला और गाँव स्तर पर योजनाएँ तैयार करेगी। सूखे से पीड़ित कृषि क्षेत्र को राहत देते हुए मोदी सरकार ने ₹50,000 करोड़ की फंडिंग के साथ सिंचाई के लिए तय बजट को दुगुना कर दिया। पानी के उचित संरक्षण और खेतों में पानी की उचित मात्रा में सप्लाई- सरकार ने एक तीर से दो निशाने साधे।

हर खेत को पानी पहुँचाने के लक्ष्य के साथ शुरू हुई इस योजना ने नए कीर्तिमान रचे हैं। सितम्बर 2018 तक सिंचाई संबंधित 93 प्रमुख प्रोजेक्ट्स के लिए सरकार ने ₹65,000 करोड़ से भी अधिक के फण्ड जारी किए। 75 प्रोजेक्ट्स को पूरा किया व अन्य पर काम चल रहा है।

माइक्रो इरिगेशन एरिया कवरेज

इस योजना के तहत किसानों को पम्पसेट ख़रीदने पर ₹10,000 का अनुदान भी दिया जाता है। किसानों को सिंचाई के आधुनिक तकनीक अपनाने के लिए प्रशिक्षण भी दिया जा रहा है। कुल कृषि क्षेत्र में से अधिकतर अभी भी सिंचाई के पहुँच से बाहर है और PMKSY द्वारा इसे लगातार कम करने के प्रयास किए जा रहे हैं।

सॉइल हेल्थ कार्ड

सॉइल हेल्थ कार्ड (SHC) स्कीम को स्थाई आधार पर विशिष्ट फसलों की पैदावार बढ़ाने के लिए लाया गया। किसानों के खेतों की मिट्टी की जाँच कर सॉइल हेल्थ कार्ड बाँटा गया। इस से किसानों को ये पता चला कि उनके खेतों में किस न्यूट्रिएंट को कितनी मात्रा में डालना है। इस से फ़सल को रसायन की अधिकता से नुकसान भी नहीं होता और पैदावार भी अच्छी होती है। इसके लिए सरकार ने मोबाइल ऐप भी लॉन्च किया।

SHS के पहले साइकल (2015-17) और दूसरे साइकल (2017-19) के आँकड़े

इस योजना के पहले फेज़ (2015-17) में ही 10 करोड़ से भी अधिक सॉइल हेल्थ कार्ड बाँटे गए। इस से किसान अपने खेतों में अधिक या कम मात्रा में खाद डालने से बच गए। सॉइल हेल्थ कार्ड के द्वारा उन्हें ये पता चला कि खेतों में कितनी मात्रा में खाद डालनी है।

दूसरे साइकल के दौरान साढ़े साथ करोड़ से भी अधिक किसानों के लिए कार्ड्स बनाए गए।

किसानों को मुआवजा

किसानों के लिए उनके मेहनत से उगाए गए फ़सल का नष्ट हो जाना किसी बुरे सपने से कम नहीं है। किसानों की आत्महत्या के पीछे भी अधिकतर यही वज़ह होती है। प्रकृति पर किसी का ज़ोर नहीं होता। ओला-वृष्टि, अतिवृष्टि, सूखा या अन्य आपदाओं से नष्ट हुई फसलों के बदले किसानों को बहुत कम मुआवज़ा मिलता था। वो भी दलालों के बीच फँस कर रह जाता था।

नरेंद्र मोदी ने जनवरी 2018 में इस बारे में घोषणा करते हुए बताया कि सरकार अब किसानों के 50 प्रतिशत की जगह 33 प्रतिशत फ़सल नष्ट होने के बावजूद भी मुआवज़ा देगी। इसके अलावा सरकार ने मुआवज़े की रक़म को पहले के मुक़ाबले डेढ़ गुना बढ़ा दिया है।

अर्थात पहले किसानों की जब तक 50% फ़सल नष्ट नहीं हो जाती थी, तब तक उन्हें मुआवज़े से वंचित रखा जाता था। अब अगर किसानों की सिर्फ़ 33% फ़सल बर्बाद हो जाती है, तब भी उन्हें मुआवज़ा मिलेगा।

प्रधानमंत्री फ़सल बीमा योजना

आपदाओं में नष्ट होने वाली फसलों के बदले किसानों को मुआवज़ा देने के लिए मोदी सरकार ने 2016 में प्रधानमंत्री फ़सल बीमा योजना (PMFBY) शुरू किया। इसके तहत किसानों को खरीफ की फसल के लिए 2 फीसदी प्रीमियम और रबी की फसल के लिए 1.5% प्रीमियम का भुगतान करना पड़ता है। PMFBY योजना वाणिज्यिक और बागवानी फसलों के लिए भी बीमा सुरक्षा प्रदान करती है।

PMFBY आँकड़े (किसानों की संख्या लाख में)

जैसा कि ऊपर दिए ग्राफ से पता चलता है, 2016 के खरीफ सीजन में महाराष्ट्र एक करोड़ से भी अधिक किसानों को बीमा में एनरॉल कर इस मामले में टॉप पर रहा।

इन सबके अलावा मोदी सरकार ने किसानों को नीम कोटेड यूरिया उपलब्ध कराने के लिए भी नीतियाँ तैयार की है और उस पर अमल हो रहा है। नीम प्राकृतिक कीटनाशक के रूप में भी कार्य करता है। नीम कोटेड यूरिया के लिए नीम के बीज इकट्ठे किए जाते हैं- इस से ग्रामीण क्षेत्रों में रोज़गार का भी सृजन होता है।

ग्राम ज्योति योजना के तहत किसानों को सही समय पर बिजली आपूर्ति भी उपलब्ध कराई जा रही है। कुल मिला कर देखें तो मोदी सरकार को विरासत में जो नीतिविहीन कृषि व्यवस्था मिली थी, उसमें धीरे-धीरे सुधार किया जा रहा है और किसानों की आय दोगुनी करने की दिशा में लगातार प्रयास किए जा रहे हैं।

बाल ठाकरे स्मारक निर्माण के लिए महाराष्ट्र कैबिनेट ने किए ₹100 करोड़ मंजूर

महाराष्ट्र मंत्रिमंडल ने मंगलवार (जनवरी 22, 2019) को दिवंगत शिवसेना प्रमुख बाल ठाकरे के स्मारक निर्माण के लिए ₹100 करोड़ की मंजूरी दे दी है।

23 जनवरी को शिवसेना संस्थापक बाल ठाकरे की जयंती से ठीक एक दिन पहले महाराष्ट्र कैबिनेट ने यह बड़ा निर्णय लिया है। इस स्मारक का नाम ‘बालासाहेब ठाकरे राष्ट्रीय स्मारक’ होगा। राज्य सरकार ने पिछले साल बजट में इसका आवंटन किया था, लेकिन आज इसे मंजूरी दे दी गई है। स्मारक निर्माण की ज़िम्मेदारी MMRDA की होगी।

महाराष्ट्र के वित्त मंत्री सुधीर मुनगंटीवार ने कहा, “स्वर्गीय बाला साहेब ठाकरे सिर्फ शिवसेना के नेता नहीं थे बल्कि इस गठबंधन के नेता थे। बालासाहेब सभी राजनीतिक दलों के लिए उच्च महत्व के व्यक्ति बने रहेंगे। इसलिए, आज के मंत्रिमंडल में उनके स्मारक के लिए कैबिनेट ₹100 करोड़ स्वीकृत किए गए हैं।”

श्री मुनगंटीवार ने कहा कि स्मारक के लिए धन मुंबई महानगर क्षेत्र विकास प्राधिकरण (एमएमआरडीए) द्वारा प्रदान किया जाएगा और भाजपा के नेतृत्व वाली राज्य सरकार इसकी उपलब्धता सुनिश्चित करेगी। मंत्रिमंडल की बैठक के बाद श्री मुनगंटीवार ने मुंबई में संवाददाताओं से कहा कि भाजपा और उसकी सहयोगी पार्टी शिवसेना के बीच संबंध मधुर रहेंगे।

यह स्मारक शिवाजी पार्क क्षेत्र में स्थित है, जहाँ पहले मुंबई के मेयर का बंगला स्थित था। महापौर का यह ऐत‍िहास‍िक बंगला ग्रेड-2 बी व‍िरासत के तहत आता है। श‍िवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे की अध्‍यक्षता में बालासाहेब ठाकरे स्‍मारक ट्रस्‍ट संचाल‍ित क‍िया जा रहा है। उद्धव ठाकरे की योजना है कि स्‍मारक में गैलरी, लाइब्रेरी, सेम‍िनार हॉल, व्‍याख्‍यान कक्ष और कई अन्‍य उपयोगी चीजें बनाई जाएँ। बता दें कि यह हेर‍िटेज बंगला 2,300 स्क्वेयर फ़ीट के क्षेत्र में फैला हुआ है। स्‍मारक बनाने के ल‍िए यह बंगला काफी छोटा पड़ रहा था, अंडरग्राउंड फ़ैस‍िल‍िटी के बाद यह स्‍मारक 9,000 स्क्वेयर फीट में फैल जाएगा।

लम्बे समय से भारतीय जनता पार्टी और शिवसेना के बीच मनमुटाव देखने को मिल रहा था। ऐसे में देवेंद्र फड़णवीस सरकार की ओर से इस निर्णय को लिया जाना एक सकारात्मक कदम के तौर पर देखा जा सकता है। शिवसेना काफी लंबे समय से इसकी माँग कर रही थी।

1993 के घूस काण्ड की पार्टियाँ झारखंड में BJP के ख़िलाफ़ एकजुट

2019 लोकसभा चुनाव में भाजपा को रोकने के लिए विपक्षी दल कोई कसर नहीं छोड़ना चाहती है। नरेंद्र मोदी के लहर से पार पाने के लिए झारखंड में विपक्षी दलों ने एकजुट होना शुरू कर दिया है। इसी क्रम में झारखंड मुक्ति मोर्चा के नेता शिबू सोरेन ने कॉन्ग्रेस व अन्य दलों के साथ मिलकर चुनाव लड़ने की संभावना ज़ाहिर की है।

झारखंड में लोकसभा की कुल 14 सीटें हैं। राज्य में आदिवासियों की संख्या अच्छी तादाद में है। आदिवासियों के वोट बैंक पर झामुमो की पकड़ मजबूत है। यही वजह है कि आदिवासी नेता होने के नाते शिबू सोरेन की पार्टी को आदिवासियों का वोट मिल जाता है। जबकि राज्य के गैर-आदिवासी वोटों का झुकाव भाजपा की तरफ़ ज्यादा है। ऐसा इसलिए भी क्योंकि झारखंड में अगर किसी पार्टी ने गैर-आदिवासी मुख्यमंत्री दिया भी है तो वो भाजपा ही है।

भारतीय राजनीति में शिबू सोरेन कौन हैं? शिबू एकलौते ऐसे नेता हैं, जिन्होंने खुलेआम कॉन्ग्रेस सरकार को बचाने के लिए रिश्वत लेने की बात स्वीकार की थी। शिबू सोरेन वो नेता हैं, जिनके ऊपर भीड़ को उकसा कर 10 लोगों को मरवाने का आरोप है। यही नहीं, शिबू सोरेन पर सत्ता का भय दिखाकर लोगों के जमीन को हथियाने और अपने पीए को जान से मरवाने के मामले भी हैं। इनमें से कुछ मामलों में शिबू बरी हो गए हैं, कुछ मामले में जाँच चल रही है, जबकि कुछ मामले जग-ज़ाहिर हैं।

आज शिबू से जुड़े एक ऐसे ही मामले की बात करते हैं, जो सबों के सामने है। प्रभात खब़र को लिखे अपने लेख में वरिष्ट पत्रकार सुरेंद्र किशोर लिखते हैं कि एक अप्रैल 1997 को दिल्ली की एक आदालत में लोग बहस के बीच में झामुमो नेता का बयान सुनकर हतप्रभ रह गए थे।

दरअसल रिश्वत के आरोपित झामुमो सांसद शैलेंद्र महतो ने बहस के दौरान कहा था, “जज साहब, सरकार मेरे बैंक खाते में जमा रिश्वत की राशि जब्त कर सकती है।” और इस तरह झामुमो सांसद ने स्वीकार किया कि शिबू सोरेन के द्वारा पीवी नरसिंह राव के समर्थन में वोट देने के लिए उन्हें 40 लाख रुपए रिश्वत दिए गए थे।

याद रहे कि केंद्र में कॉन्ग्रेस सरकार को बचाने के लिए शिबू सोरेन, शैलेंद्र महतो, साइमन मरांडी व सूरज मंडल ने करोड़ों रुपयों का घूस लिया था। इस मामले में फ़ैसला सुनाते हुए अदालत ने कहा था कि संविधान ने हमारे हाथ बांध रखे हैं। कोर्ट ने तब जो कहा था उससे ज़ाहिर है कि भविष्य में रिश्वतखाेरों के ख़िलाफ़ कार्रवाई के लिए संविधान में संशोधन की ज़रूरत है। पर दु:ख की बात यह है कि इतने साल के बाद भी किसी राजनीतिक दल ने अब तक इस मामले के लिए संशोधन की दिशा में कोई पहल नहीं की है।

अपने राजनीतिक करियर की शुरुआत में ही शिबू ने अपराध का सहारा लिया था। दरअसल 1975 की एक रैली में शिबू ने लोगों के बीच भड़काऊ भाषण दिया था। शिबू के भाषण को सुनकर लोगों की भीड़ उग्र हो गई थी। उग्र भीड़ ने 10 लोगों को मौके पर लिंच कर दिया था। इन दस में से नौ लोग मुस्लिम समुदाय के थे। राजनीति में आदिवासियों का मसीहा बनने के लिए शिबू ने उग्र रूप धारण कर लिया था।

झारखंड के बोकारो जिले में शिबू सोरेन की बहु सीता सोरेन पर ज़बरन ज़मीन कब्जा करने का आरोप है। बोकारो स्टील प्लांट के 40 से अधिक रिटायर्ड अफ़सरों ने शिबू सोरेन पर ज़मीन कब्ज़ाने का आरोप लगाया है। एनडीटीवी रिपोर्ट के मुताबिक लोगों ने कई अधिकारियों के पास ज़मीन कब्जा मुक्त कराने का आग्रह किया, लेकिन किसी अधिकारी ने शिबू सोरेन के ख़िलाफ़ कार्रवाई करने की हिम्मत नहीं दिखाई।

जानकारी के लिए बता दें कि 2000 में बिहार से झारखंड राज्य अलग हुआ था। झारखंड के अलग होने के बाद दो दशक में पहली बार भाजपा ने राज्य में स्थाई सरकार बनाई है। इससे पहले शिबू सोरेन के झामुमो व बाबूलाल मरांडी के झारखंड विकास मोर्चा (झाविमो) जैसे दलों के बीच सत्ता का बंदर-बाँट होता रहा था। ऐसे में एक बार फ़िर से झारखंड में झामुमो व कॉन्ग्रेस के बीच राजनीतिक गठबंधन के कारण पुरानी यादें तरोताजा होना स्वाभाविक सी बात है।