अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन का धर्म के बारे में कहना था – “मैं जब कुछ अच्छा करता हूँ तो मुझे अच्छा महसूस होता है, मैं जब बुरा करता हूँ तो मुझे बुरा महसूस होता है और यही मेरा धर्म है।”
लेकिन भारत के संदर्भ में इस प्रकार के कथन मजाक बनकर रह गए हैं। और इसे मजाक बनाया है उन लोगों ने, जो एक लम्बे समय से सूचना के माध्यमों को अपनी बपौती समझते आ रहे थे। आज भी सूचना के बाजार में एक आसमानी मत यह है कि बुद्धिजीवी वही कहलाएगा, जो हिन्दुओं की आस्था पर बेहूदा तरीके से घटिया प्रहार कर सकेगा। इसी होड़ के बीच वो समय भी आया जब ‘त्रिशूल पर कंडोम’ की कविताएँ लिखी जाने लगीं। सेकुलरिज्म का सीधा सा अर्थ मुस्लिम समुदाय से जुड़ी ख़बरों को छुपा देना हो गया।
समाज का वास्तविक ध्रुवीकरण करने वाले भेड़िए कठुआ रेप केस के समय बाहर आ गए और प्लाकार्ड के जरिए हिंदुत्व को ही बलात्कार का केंद्र बना दिया गया। लिबरल प्रतीत होने के लिए बॉलीवुड से लेकर सोशल मीडिया के सिपाहियों ने जमकर बलात्कार के मुद्दे को हिंदुत्व में समेटने का काम किया। लेकिन तब शायद उन्हें यह आभास तक नहीं था कि वो समाज को कितना गहरा जख्म दे चुके हैं।
ये लिबरल्स ऐसी किसी भी घटना के इन्तजार में गिद्दों की तरह नजर गड़ाए बैठे रहते हैं, जिसके जरिए हिंदुत्व और उसकी आस्था को चोट पहुँचाई जा सके। लेकिन, इस हड़बड़ी में वो भूल ही गए कि यदि किसी भी अपराध को धर्म तक समेट दिया जाने लगा तो आगे ऐसे कितने मौके होंगे जब यही तीर उड़ता हुआ वापस उन्हीं को सहन करना होगा। रवीश कुमार जैसे बड़े नाम भी कहते नजर आए कि बलात्कार करने वालों के घरों में देवताओं की तस्वीरें लगी होती हैं। आखिर में यह लिबरल्स द्वारा बेहद जल्दबाजी में किया गया एक सेल्फगोल से ज्यादा कुछ साबित नहीं हुआ।
नतीजा ये हुआ कि सामाजिक विकृति से जन्मे किसी भी अपराध के ‘नायक’ को तलाशा जाने लगा। यदि 1 कठुआ में आरोपित हिन्दू था तो अन्य 10 मामलों में आरोपित मुस्लिम नजर आने लगे। इस सबका भुगतान किसे करना पड़ रहा है? क्या प्लाकार्ड के जरिए वर्चुअल फेम बटोर रहे लोगों को अलीगढ़ में ढाई साल की बच्ची के साथ हुई वीभत्स घटना से फ़र्क़ पड़ता भी है? बल्कि सवाल यह होना चाहिए कि क्या उनके पास इतनी फुरसत है भी कि वो इसे महसूस कर सकें?
जवाब बेहद स्पष्ट है कि उनका अपनी सस्ती लोकप्रियता के अलावा दूसरा कोई नहीं है। सामाजिक विकृतियाँ उनका पहला मुद्दा हैं भी नहीं। उनका मुद्दा इन बातों का नहीं है कि समाज में इस तरह के लोग हैं जो आपसी बदले के लिए ढाई साल की बच्ची तक को अपना शिकार बना सकते हैं। उनके लिए ये सिर्फ हार और जीत का मुद्दा है। वो लोग ऐसी ख़बरें सुनने के बाद सबसे पहले यह तलाश करते हैं कि कहीं आरोपित वो तो नहीं जिनके लिए उन्होंने तख्तियाँ उठाई थीं। यदि ऐसा हुआ तो यह उनकी विचारधारा की हार हुई।
अलीगढ़ में हुई इस घटना के बाद मुद्दा बलात्कार जैसे अपराध से बदलकर हिन्दू-मुस्लिम की चर्चा पर सिमट गया। ‘मेरे अपराधी’ और ‘तेरे अपराधी’ के इस द्वन्द्व में हम लोगों ने अपराध के लिए एक बड़ी जगह छोड़ दी है।
अपराधियों में हिन्दू नामों को तलाशकर उत्साह में त्रिशूल पर कंडोम की तस्वीरें शेयर कर देने वाले लोग आज अलीगढ़ कांड में भीगी बिल्ली बनकर खुद को पीड़ित बता रहे हैं।
ऐसे वैचारिक नंगे लोग ट्विटर से लेकर फेसबुक, समाचार पत्र और न्यूज़ डिबेट में बड़ी बेशर्मी से यह कहते देखे जा रहे हैं कि नाम में मजहब नहीं ढूँढा जाना चाहिए। या उल्टा सवाल पूछकर अपने दुराग्रहों का परिचय देते फिर रहे हैं कि सवाल हमसे क्यों पूछा जा रहा है? वास्तव में वह जवाब दे रहे हैं कि आपको पता होना चाहिए कि उन एक्टिविस्ट्स का हृदय सिर्फ विशेष अवसरों पर पिघलता है और तब उन्हें सवाल करने का इंतजार नहीं करना होता है।
राणा अय्यूब जैसे लोग हों या फिर स्क्रॉल जैसे मीडिया गिरोह, अलीगढ़ काण्ड में अपराधियों के नाम असलम और जाहिद होने के कारण उन सबका रोना यही है कि अपराध को साम्प्रदायिक रंग दिया जा रहा है। उन्हें समझना होगा कि यह सांप्रदायिक रंग नहीं दिया जा रहा है, बल्कि जो जहर उन लोगों ने बोया था, ये उसी के रुझान देखने को मिल रहे हैं।
आजकल हर दूसरी बलात्कार की घटना में अपराधी मौलवी या फिर किसी मुस्लिम युवक के होने का मतलब ये नहीं है कि भविष्य में कभी किसी दूसरे समुदाय द्वारा अपराध नहीं किए जा सकते हैं। इस बात की गारंटी कोई भी नहीं दे सकता है कि समाज में अपराध होने बंद हो जाएँगे। या अगर होंगे तो आरोपित सिर्फ मुस्लिम ही होंगे, लेकिन यह प्रचलन हिन्दू आतंकवाद शब्द गढ़ने वाले, विरोध के लिए त्रिशूल पर कंडोम लगाकर और तख्तियों पर सामाजिक अपराधों के लिए हिंदुत्व को जिम्मेदार ठहराने वाले लोगों ने ही शुरू किया है।
जो समाचार पत्र आज शिकायत करते नजर आते हैं कि हेडलाइन में मुस्लिम युवक का नाम लिखना सही नहीं है, वही लोग ‘हिन्दू अपराधी’ कहते हुए जोर से चिल्लाते हुए देखे गए हैं। इतिहास हम सबके अपराध का लेखा-जोखा रख रखा है और यदि सूचना के माध्यमों ने जिम्मेदारी नहीं दिखाई तो समाज ही इसके व्यापक नतीजे भी भुगतेगा। यह भी सच है कि इसमें नुकसान विचाधारा को अपना अहंकार बनाने वाले लोगों के बजाए सड़क पर मेहनत मजदूरी करने वाले लोगों का ही होना है।
गूगल पढ़कर ट्विटर पर लिखने वाले इन सोशल मीडिया एक्टिविस्ट्स को एक के बाद एक आ रहे अलीगढ़ से लेकर मौलवी तक के किस्सों से अब परेशानी होने लगी है। इस प्रकार के जघन्य अपराध को जो लोग खेल समझकर आगे बढ़ रहे थे शायद वो लोग समझ गए हैं कि अब यह इकतरफा नहीं है। उन्हें समझना होगा कि यदि यह खेल ही है, तो जिसे खेल समझकर वो उन्माद कर रहे थे उसे ख़त्म करने का मन बनाकर अब ‘दूसरी’ टीम भी मैदान में उतर गई है। लेकिन यह दुर्भाग्य है, इस खेल के बीच समाज हार गया है और बुराइयाँ चुपके से अपने लायक जगह तलाश रही हैं।
सोशल मीडिया लिबरल्स का दुःख प्रकट करने का तरीका अभी भी ‘हिंदूवादी एक्टिविस्ट्स’ से शुरू हो रहा है। यानी कम से कम यह तो साफ है कि पीछे हटने के मूड में कोई भी नहीं है। जाहिर सी बात है, आप सिर्फ एक समय में मुखर होकर दूसरी बार इसलिए नहीं चुप रह सकते क्योंकि यह आपके एजेंडा के मुताबिक़ नहीं है। आप या तो लिबरल हो सकते हैं या फिर नहीं होते हैं। यह बीच की कड़ी सिर्फ घृणा और दोहरे जहर का सबूत देती है। और अगर ऐसा है तो स्पष्ट है कि लोग प्रशासन से पहले स्वरा भास्कर और सोनम कपूर जैसे पार्ट टाइम लिबरल्स से सवाल करेंगे। तंत्र की विफलता के लिए यदि हिंदुत्व की जवाबदेही तय की जाएगी तो अगली बार इस्लाम की तय की जाएगी और इन सबके बीच हम लोग आपत्ति करने का अधिकार खो बैठेंगे।
अब देखना यह है कि आखिर कब तक हमारा मन इस रस्सा-कस्सी से भरता है और हम स्वीकार करते हैं कि इस समाज के कसूरवार हम लोग हैं, न कि हमारी आस्थाएँ। हमें मौकापरस्त होने से बचना होगा। हमारे नैतिक मूल्यों की जवाबदेही तय करने कोई बाहर से नहीं आएगा। लेकिन हकीकत ये है कि जब भी कभी कोई कठुआ और अलीगढ़ होगा, तो हम वही क्रम दोहराने वाले हैं क्योंकि हमारी जंग अपराध से नहीं बल्कि विचारधाराओं से हो चुकी है। हम आँसुओं को पोंछने से पहले दूसरे को ठेस पहुँचाना चाहते हैं। हमारे अपराधों के परिणाम भुगतने के लिए समाज तो है ही!