Tuesday, November 19, 2024
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थरूरों, योगेंद्र यादवों, येचुरियों को जनादेश ने पीट कर सुन्न कर दिया, लेकिन इनकी ऐंठ कायम है

मोदी की सुनामी के बाद विपक्षी दलों से लेकर मीडिया तक सभी के लिए यह आत्मचिंतन, आत्ममंथन का समय है- यह सोचने और मनन करने का समय है कि हमसे गलती भला कहाँ हो गई, कहाँ पर जनता का और हमारा साम्य इतना टूट गया कि एक ओर हम मोदी की हार को लेकर आश्वस्त हो गए, और दूसरी ओर जनता ने मतप्रतिशत, कुल सीटें, मत-संख्या, हर पहलू में मोदी को 2014 से ज्यादा ही समर्थन दिया।

मगर कोई भी बड़ी पार्टी या नेता खुल कर, बिना किसी अगर-मगर के बहाने के यह तक मानने को तैयार नहीं दिख रहा है कि उनसे मूलभूत, वैचारिक स्तर पर कोई गलती भी हुई है, तो सुधार तो दूर की कौड़ी है। अखिलेश यादव प्रवक्ताओं को निकाल रहे हैं, मानो उनका ‘संदेश’ (जोकि केवल एक जातिवादी, अवसरवादी गोलबंदी थी) अपने आप में कोई बड़ा क्रांतिकारी चमत्कार था, जिसे प्रवक्ता ज़मीन पर नहीं ले जा पाए (जोकि असल में नेता की जिम्मेदारी होती है, प्रवक्ता की नहीं)। उसी तरह कॉन्ग्रेस में राहुल गाँधी के इस्तीफे का नाटक चल रहा है-CWC यह मानने को नहीं तैयार कि राहुल गाँधी के चेहरे को ही जनता का सबसे बड़ा ‘रिजेक्शन’ मिला है, और उस चेहरे के अलावा पार्टी में सबकुछ बदलने के लिए तैयार है।

दर्प अभी भी हावी

और यह “हम और हमारे विचार तो गलत हो ही नहीं सकते” का दर्प उन कुछ नेताओं की बातों में भी साफ है जिनके इंटरव्यू इस हार के बाद सामने आ रहे हैं। मैं दो उदाहरण शशि थरूर और माकपा महासचिव सीताराम येचुरी के लूँगा। दोनों ने ही इंटरव्यू तिरंगा टीवी पर करण थापर को दिए गए हैं, और दोनों ही ‘डिनायल’ से भरे हुए हैं- जनता साम्प्रदायिकता की तरफ मुड़ रही है, संविधान खतरे में है, भाजपा संवैधानिक संस्थाओं को अपना गुलाम बना रही है, उसे केंद्र की सत्ता में होने का लाभ मिला, मोदी ने अपने व्यक्तित्व के इर्द-गिर्द के एक नया ही पंथ (पर्सनालिटी-कल्ट) खड़ा कर दिया (अंबानी के) पैसे से, और हमारी हार इन्हीं सब वजहों से हुई।

दोनों ही वैचारिक रूप से अपनी गलती एक राई-माशा भी मानने को तैयार नहीं हैं। न ही उनके हिसाब से भारत के विकृत सेकुलरिज़्म में किसी बदलाव की आवश्यकता है, न ही हिन्दू आतंकवाद और हिन्दू फासीवाद का शिगूफा छेड़ना गलती थी। जाति के आधार पर गोलबंदी कर भाजपा को हराने का व्यूह रचना भी सही था, अंबेडकर के महिमागान की आड़ में दशकों से सवर्णों को दुष्ट उत्पीड़कों के रूप में चित्रित करना भी सही था; बेरोजगारी के बढ़ा-चढ़ा कर किए गए दावे भी सही थे, और नोटबंदी-जीएसटी का दुर्भावनापूर्ण विरोध भी सही था।

येचुरी सबरीमाला को मुद्दा मानने से ही मना कर देते हैं- उनके अनुसार ‘कोर्ट के फैसले के बाद हमारी राज्य सरकार के हाथ बँधे थे’। या तो वह जनता को मूर्ख समझते हैं, या शायद खुद ही भूल गए कि उनकी सरकार के चंगुल में चल रहे त्रावणकोर देवस्वोम बोर्ड ने फैसले का अनुमोदन करते हुए पुनर्विचार याचिका का विरोध करते हुए प्रतिबंधित आयु-वर्ग की महिलाओं के प्रवेश का समर्थन किया था। उसी तरह शशि थरूर कुतर्कशास्त्र का नया अध्याय लिखते हुए बताते हैं कि चूँकि वायनाड (जहाँ, यह जान लेना जरूरी है कि, हिन्दू अल्पसंख्यक हैं) की जनता ने राहुल गाँधी को रिकॉर्ड मतों से जिता दिया, और इसलिए अमेठी से उनका नकारा जाना (पता नहीं कैसे) नकारे जाने में नहीं गिना जाएगा।

एलीटिज़्म का चरम

अपनी शाब्दिक परिभाषा के अनुसार एलीट (अभिजात्य वर्ग का) होना अपने आप में गलत नहीं है, लेकिन एलीटिज़्म को सर पर हावी हो जाने देना गलत है, यह मान लेना गलत है कि अगर मैं अपने किताबी ज्ञान या फलाना प्रतिभा के वर्ग में चोटी पर हूँ तो न केवल इस कारण मैं हर चीज़ का विशेषज्ञ हो गया, बल्कि मेरे ‘नीचे’ आने वाले हर व्यक्ति के जीवन को मैं बेहतर जानता हूँ, और उसे मेरे हिसाब से चलना चाहिए। एलीट सेंट स्टीफेंस के छात्रों, येचुरी और थरूर की, यही समस्या है।

इन्हें पहले तो यह लगा कि एक बार अपनी प्रतिभा से सेंत स्टीफेंस जैसे एलीट कॉलेज पहुँच गए तो इन्हें जिंदगी भर बाकी लोगों को क्या सोचना चाहिए, कैसे चलना चाहिए, इसका ‘हुक्म’ देने का हक मिल गया है। वही हक़ 2014 में चला गया जिसे यह लोग 2019 की हार के बाद भी नहीं स्वीकार पा रहे हैं। चूँकि यह लोग जड़ से, ज़मीन से कटे हुए हैं, इसीलिए इनके लिए यह समझना मुश्किल है कि भला एक टॉयलेट, बिजली, सिलिंडर जैसी चीजों को पाकर कोई इंसान इतना निहाल कैसे हो सकता है कि ‘सदियों की प्रताड़ना के बदले’ का सपना भूल जाए, ‘सेक्युलरिज़्म’ जैसी ‘पवित्र’ वस्तु को दाँव पर लगा दे, जीडीपी के तिमाही आँकड़ों का उसे फर्क न पड़े।

दिल्ली के शैम्पेन लिबरल बनने के बाद ज़ाहिर तौर अपनी खुद की मध्यमवर्गीय पृष्ठभूमि इनके जेहन से बाहर है, तभी इन्हें यह नहीं समझ में आ रहा कि स्वरोजगार के लिए एक मुद्रा लोन पा लेने या एक टिकट बुक/कैंसिल करने के लिए रेलवे के चक्कर काटने से निजात भर पाकर कोई इंसान इतना ‘स्वार्थी’ कैसे हो सकता है कि राहुल गाँधी के राफेल के शिगूफे पर ध्यान न दे!

भूल तो अपनी जड़, अपनी शुरुआत ‘दलित आईकन’ मयावती भी गईं थीं- जिस गेस्टहाउस कांड को दुधारू गाय की तरह दूह कर उन्होंने गरीब अनुसूचित जाति वालों को भावनात्मक रूप से ब्लैकमेल करते हुए सपा के गुंडों से पिटने के लिए आगे कर दिया, अपना उल्लू सीधा करने के लिए उन्हीं गुंडों को वोट देने के लिए उन्हीं मजलूमों को ‘हुकुम’ जारी कर दिया। यह भी एक तरह का ‘एलीटिज़्म’ था- उन्होंने सोचा कि उनकी सुनहरी सैंडिल देख वह वर्ग खुद के पैरों की बिवाई भूल लहालोट हो जाएगा।

योगेंद्र यादव और शेखर गुप्ता की ‘लगभग ईमानदार’ गलती की स्वीकृति

इन ‘बड़े’ नेताओं के बालू में सर छुपाए झूठ के मुकाबले तो एडिटर्स गिल्ड वाले शेखर गुप्ता और नेता-से-ज्यादा-निर्वाचन-विश्लेषक योगेंद्र यादव (योया) की स्वीकारोक्ति अधिक महत्वपूर्ण और ईमानदार है। शेखर गुप्ता ने हाल में यह माना कि मोदी सरकार की जनकल्याणकारी स्कीमों से देश को निश्चय ही फायदा हुआ है- और पत्रकारिता के समुदाय विशेष को भी यह फायदा दिखा तो जरूर, मगर उन्होंने घरों में सिलिंडर देख कर आँखें फेर लीं

योगेंद्र यादव इससे भी आगे बढ़ गए। उन्होंने माना कि मोदी-विरोधियों ने नाहक ही राष्ट्रवाद को बदनाम किया, और केवल और केवल नकारात्मकता की राजनीति की। उन्होंने यह भी माना कि सामाजिक न्याय के नाम पर जातिवादी गोलबंदी ही हुई है। सेक्युलरिज़्म के नाम पर समुदाय विशेष को डरा-धमका कर गोलबंद किए जाने की बात भी उन्होंने मानी।

हालाँकि विकृत सेक्युलर कीड़े के जहर से ‘योया’ जी अभी भी पूरी तरह मुक्त नहीं हुए हैं। उन्होंने हिन्दुओं के मुद्दों पर बात किए जाने को भी हिन्दुओं को उसी तरह भय के माहौल में डाला जाना बताया जैसा सत्तर साल अल्पसंख्यकों के साथ गैर-भाजपा दलों ने किया है।

यह पूरी तरह गलत और झूठ है, क्योंकि एक तो हिन्दू मजहब विशेष के उलट 70 साल इस देश के विशेषाधिकार प्राप्त वर्ग नहीं बल्कि 70 साल से नज़रअंदाज़ किया गया समुदाय हैं, दूसरा, मजहब विशेष के उलट हिन्दू माँगें अभी भी किसी विशेषाधिकार की नहीं, बल्कि सामान्य बराबरी की माँगें हैं- हमारे मंदिरों में सरकारें दखल देना और उनके खजाने को जोंक की तरह चूसना बंद करें, संविधान के अनुच्छेद 25-30 में प्रदत्त आस्था को सुरक्षा देश के हर समुदाय के लिए दी जाए, RTE के अनुपालन से पड़ने वाला आर्थिक बोझ केवल हिन्दुओं के स्कूलों को ढोने के लिए मजबूर न किया जाए, इत्यादि।

योया जी यह ‘बैलेंसिंग एक्ट’ बंद करें- इससे वह जहाँ से शुरू होते हैं, घूम फिर कर वहीं दोबारा पहुँच जाते हैं। बाकी की पार्टियों ने तो लगता है दुराग्रह की जमीन में ही पैर धँसाए रखने की कसम खाई हुई है।

अमित शाह के गृह मंत्री बनते ही 5 आतंकियों ने किया सरेंडर, मीरवाइज़ ने भी बदले सुर

एक ओर जहाँ अमित शाह ने आज (जून 1, 2019) गृह मंत्री के रूप में अपना पदभार संभाला, वहीं दूसरी ओर जम्मू-कश्मीर में कुलगाम जिले के 5 ‘भटके हुए’ नौजवानों ने आतंकवाद और हिंसा का रास्ता छोड़कर आत्मसमर्पण कर दिया। इस बात की जानकारी खुद पुलिस ने दी है।

पुलिस ने बताया कि अलग-अलग आतंकवादी संगठनों में शामिल हो चुके इन युवकों को परिवार और पुलिस के प्रयासों से मुख्यधारा में लौटा लिया गया है लेकिन अभी सुरक्षा कारणों से उनके नामों का खुलासा नहीं किया गया है।

दरअसल, आतंकियों के आत्मसमर्पण को लेकर पुलिस द्वारा की गई घोषणा के बाद से अब तक बड़ी संख्या में आतंक की राह पकड़ चुके युवक आत्मसमर्पण कर चुके हैं। पुलिस ने स्पष्ट कहा था कि अगर मुठभेड़ के दौरान कोई स्थानीय आतंकवादी आत्मसमर्पण करने की गुजारिश करता है तो उसे स्वीकार लिया जाएगा।

गौरतलब है आत्मसमर्पण और पुनर्वास की नीति घाटी में सर्वप्रथम 1995 में लाई गई थी। इस नीति की रूपरेखा उसी ‘पुनर्वास प्रोग्राम’ पर आधारित थी जिसे नक्सलियों के लिए शुरू किया गया था।

इसके अलावा खबरों के मुताबिक अमित शाह के गृह मंत्री बनते ही कश्मीर में हुर्रियत नेता मीरवाईज उमर फ़ारूक़ के सुर भी बदलने लगे हैं। अभी तक सरकार की खुलकर आलोचना करना वाले मीरवाइज उमर फारूक ने कहा है कि प्रचंड बहुमत ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को कश्मीर मुद्दे के समाधान में निर्णायक भूमिका निभाने का मौका दिया है। फारूक ने उम्मीद जताई है कि पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान की बातचीत की पेशकश को एनडीए की नई सरकार गंभीरता से लेगी।

पुत्र को पत्र: सोनिया ने मार्मिक और भावुक शब्दों में लिखा- राहुल, तुमने प्यार कमाया है

लोकसभा चुनाव में कॉन्ग्रेस को मिली जबरदस्त हार के बाद अपना पद छोड़ने पर अड़े कॉन्ग्रेस अध्यक्ष राहुल गाँधी को रोकने के लिए पूरी कॉन्ग्रेस ने जोर लगा दिया है। तमाम वरिष्ठ पदाधिकारियों के बाद अब राहुल गाँधी की मम्मी सोनिया गाँधी ने भी राहुल गाँधी को मनाने के लिए भावुक और बेहद मार्मिक कदम उठाया है। सोनिया गाँधी ने आज एक 3 पन्नों के पत्र के माध्यम से पुत्र राहुल गाँधी का हौसला बढ़ाने का प्रयास किया है। और लगता नहीं है कि इस मार्मिक अपील के बाद अध्यक्ष पद त्यागने के लिए राहुल गाँधी तैयार होंगे।

अपने पत्र में सोनिया ने कहा है, “राहुल गाँधी ने पार्टी के लिए शानदार अभियान चलाया। राहुल गाँधी के नेतृत्व में तीन राज्यों छत्तीसगढ़, राजस्थान और मध्य प्रदेश में कॉन्ग्रेस की सरकार बनी। सदन में हमारी संख्या भले ही कम है, लेकिन हम एक मजबूत विपक्ष की भूमिका निभाएँगे।”

सोनिया गाँधी ने अपनी चिट्ठी में लिखा, “कॉन्ग्रेस अध्यक्ष के रूप में राहुल गाँधी ने पार्टी के कार्यकर्ताओं और देश के करोड़ों मतदाताओं का प्यार कमाया। इसके लिए उन्होंने कड़ी मेहनत की। पूरे देश से उनके लिए भावनात्मक संदेश आ रहे हैं। आज परेशानी के समय में हमें यह जरूर जानकारी होनी चाहिए कि कॉन्ग्रेस पार्टी कई चुनौतियों का सामना कर रही है।”

कॉन्ग्रेस पार्टी में राजनीतिक संकट की पृष्ठभूमि में पार्टी संसदीय दल की नेता सोनिया गाँधी ने शनिवार (जून 01, 2019) को कहा कि कॉन्ग्रेस को फिर से मजबूत करने के लिए कई निर्णायक कदमों पर चर्चा चल रही है। सोनिया को नई दिल्ली में पार्टी संसदीय दल की बैठक में नेता चुना गया। इससे पहले वह भी वह संसदीय दल की नेता की भूमिका निभा रही थीं। संसदीय दल की बैठक में उन्होंने कहा, “हमारे कार्यकर्ता हमारे अग्रिम मोर्चे के सैनिक हैं। उन्होंने पिछले पांच वर्षों में नि:स्वार्थ भाव से काम किया। उन्होंने यह सुनिश्चित किया कि जिस भारत के लिए हम लड़ रहे हैं, उससे जुड़ी भावना का विस्तार देश के कोने-कोने में हो।”

कॉन्ग्रेस को वोट ना देने वाले लोगों के आँकड़े को बड़ी चालाकी से हटाकर सोनिया गाँधी ने सिर्फ कॉन्ग्रेस को ही वोट देने वाले लोगों को ही धन्यवाद देते हुए सोनिया ने कहा, ‘‘मैं अपने कार्यकर्ताओं का धन्यवाद करना चाहती हूँ, जिन्होंने सत्तारूढ़ पार्टी की शत्रुता का सामना किया। यह उनकी मेहनत और धैर्य का परिणाम है कि देश के 12.3 करोड़ लोगों ने कॉन्ग्रेस में अपना विश्वास प्रकट किया। मैं इस मौके पर कॉन्ग्रेस अध्यक्ष राहुल गाँधी का धन्यवाद करना चाहती हूँ, जिन्होंने पूरी मेहनत से प्रचार अभियान चलाया। कॉन्ग्रेस अध्यक्ष के तौर पर उन्होंने पार्टी के लिए दिन-रात एक कर दिया।”

रोजगार पर ज्ञान देने वाले ज्ञानी समुदाय के नाम

कुछ सेंसिबल लोगों को जब ‘रोजगार’ पर सरकार को अभी भी घेरते देखता हूँ तो मन बहुत करता है कि कुछ लिखूँ न लिखूँ, एक-दो लिंक ही दे दूँ कि आदमी पढ़ ले कि जिस 45 साल में सबसे ज्यादा दर पर हल्ला कर रहे हो, उसी मंत्रालय ने, उन्हीं अख़बारों ने, यह भी लिखा है कि निर्धारण के मानक बदल दिए गए हैं, इसलिए पिछले डेटा के आधार पर तुलना गलत है।

यही कारण है कि वो महान हस्तियाँ अब विडियो पर खुद स्वीकार रही हैं कि उनसे समझने में गलती हुई कि मोदी की योजनाओं का लाभ किसी को नहीं मिला। सत्य यह है कि रोजगार के जितने अवसर पिछले पाँच साल में बने, और लोगों को चाहे स्वरोज़गार से जीवनयापन का तरीका मिला हो, या फिर इन्फ़्रास्ट्रक्चर बनने के कारण, वो पहले नहीं हुआ

तुम ढोल पीटते रहो, रोते रहो कि नौकरी मतलब सरकारी नौकरी, एसी में बैठने वाली नौकरी। जबकि भारत जैसी जनसंख्या वाले देश में, जो समय-समय पर, वैश्विक प्रोसेस या तय तरीक़ों से अलग स्टेप को स्किप करते हुए, जम्प करते हुए, आगे बढ़ रहा है तो वो वहाँ सरकारी नौकरियों की कमी होती रहेगी। साथ ही, लगभग 90% लोग असंगठित क्षेत्रों में यहाँ रोजगार पाते हैं।

मतलब यह है कि आप माइक लेकर इस जनता के बीच जाइएगा तो आपको हमेशा बेरोज़गारी दिखेगी क्योंकि यहाँ नौकरी का मतलब सरकारी नौकरी है। उस सरकारी नौकरी में जाने का पहला कारण, बहुत बड़े प्रतिशत का, आराम करना और घूस लेने से लेकर ‘पावर मिलता है भैया’ होती है।

सारे ऐसा नहीं करते लेकिन सरकारी विभागों की इनएफिसिएंसी का ज़िम्मा तंत्र के साथ-साथ ‘अब तो लंच हो गया है’ वाले एटीट्यूड वालों को भी लेना होगा। आप खूब आदर्श व्यक्ति होंगे लेकिन आप बहुसंख्यक नहीं हैं।

सच्चाई यही है कि ट्रेडिशनल सरकारी नौकरियाँ कम होंगी क्योंकि नई तकनीक आ रही है। आप दिल्ली यूनिवर्सिटी में सिर्फ एडमिशन को ऑनलाइन कर पाए हैं और कर्मचारी यूनियन अभी भी दसियों फ़ॉर्म पेपर पर माँगता है क्योंकि वो वहाँ कम्प्यूटर नहीं चाहता, भले ही विद्यार्थी का खूब समय नष्ट हो। लेकिन ऐसे लोग एक दिन खत्म होंगे। नया विभाग बनेगा, नए अवसर पैदा होंगे।

ये एक नैसर्गिक चाल है। बाकी, अगर आप रोजगार के तमाम आँकड़ों को न मान कर ‘मैं जब मुखर्जीनगर पहुँचा तो वहाँ सारे युवा बेरोज़गार थे’ वाला लॉजिक लेकर चलिएगा तो मैं कहूँगा कि ‘मैं जब सायबर हब पहुँचा तो वहाँ सारे लोग लाखों की सैलरी पाने वाले थे, भारत बदल गया है, बेरोज़गारी शून्य प्रतिशत है’। जबकि, जितने गलत आप हैं, उतना नहीं तो थोड़ा कम गलत तो मैं भी हूँ।

फेसबुक पर मुद्दों की बात करना आपको बॉन्ड जरूर बना देगा, लेकिन आप सही नहीं हैं। एक पक्ष का डेटा लेना छोड़िए। आपके घर के आगे की सड़क टूटी है तो पूरे देश की सड़क टूटी है, ऐसा मत लिखिए। आप बेरोज़गार हैं, आप तबाह हैं, आप परेशान हैं नौकरी में तो उसके कई कारण हो सकते हैं। लेकिन, आपकी परेशानी पूरे युवा वर्ग की परेशानी नहीं है। खुद को यूनिवर्स मत समझिए, न ही उस व्यक्ति को जो हर शाम टीवी पर झूठ बोलता है और झूठ पकड़े जाने पर शेखर गुप्ता की तरह हिम्मत नहीं दिखाता कि सही बोल सके।

खैर, मुझे क्या। मैं इतनी नकारात्मकता लेकर नहीं चलता, न ही मुझे शौक है इस बात को भूलने का कि भारत में 130 करोड़ लोग हैं, आधे से ज़्यादा युवा और उनको जिस तरह की शिक्षा मिली है, जहाँ से भेड़चाल में वो सब कुछ बन गए, जिसमें उनकी रुचि नहीं थी, वो रोजगार के लिए सरकारी ऑफ़िस ढूँढ रहे हैं।

आप बेशक ढूँढते रहिए, अवसाद में चेहरा मलिन कर लीजिए लेकिन बता देता हूँ कि इस अर्थव्यवस्था में, इस जीडीपी के साथ, इस जनसंख्या के साथ, न तो आप बेहतर शिक्षा दे सकते हैं, न पोषण, न सबको सरकारी या संगठित क्षेत्रों में रोजगार। वो असंभव है इसलिए पीएचडी वाले चपरासी की नौकरी पाना चाहते हैं क्योंकि उनकी पीएचडी 5000 में ख़रीदी गई है, उन्होंने एमए कर लिया है लेकिन विषय का ज्ञान नहीं है, वो बीटेक हैं लेकिन वो नौकरी दिए जाने योग्य नहीं हैं।

अभी जो आँकड़े आए हैं उन तक पहुँचने के लिए मंत्रालय ने जो मानक तय किए थे, वो पिछली बार से बिलकुल अलग हैं। 2011-12 तक के सर्वेक्षणों में सैम्पल के रूप में लिए जाने वाले गाँवों/ब्लॉक्स में घरों के मासिक ख़र्च के आधार पर रोजगार और बेरोज़गारी के आँकड़े इकट्ठा किए जाते थे। इस बार मानक बदल कर लोगों की शिक्षा और आकांक्षाएँ हैं।

इसका मतलब है कि लोगों की शिक्षा का स्तर बढ़ा है और वो संगठित क्षेत्रों में, ज्यादा वेतन वाली नौकरियाँ करना चाहते हैं, न कि असंगठित क्षेत्रों में लेबर या वर्कफोर्स यानी कम पैसे वाली और एक तरह से मज़दूरी का काम। ये हमारे लिए सौभाग्य और दुर्भाग्य दोनों ही है। अच्छी बात यह है कि शिक्षा का स्तर बढ़ा है, लेकिन दुर्भाग्य यह कि जनसंख्या इतनी ज़्यादा होने के कारण हर व्यक्ति की आकांक्षाओं को पूरा नहीं किया जा सकता।

स्कूल, कॉलेज, हॉस्पिटल आदि बनाने की बातें होती हैं। मैनुफ़ैक्चरिंग पर ध्यान देने की बातें होती हैं, निवेश लाने की बातें होती हैं, लेकिन ये सारी बातें सिर्फ एक सरकार पर निर्भर नहीं। निवेश या विदेशी कम्पनियों की भागीदारी के लिए दूसरे देश और यहाँ की सरकारों द्वारा तय नियमों का पालन भी ज़रूरी है। ऐसा नहीं है कि उस पर काम नहीं हो रहा। काम हो रहा है लेकिन वैश्विक परिदृश्य में अमेरिका चीन से उलझा हुआ है, चीन भारत में सामान डम्प करता है, वर्ल्ड ट्रेड ऑर्गेनाइज़ेशन के नियमों से भारत के हाथ बँधे हुए हैं।

इन सारी दिक़्क़तों को दूर करने के लिए डिप्लोमैटिक स्तर पर बातचीत ज़रूरी है। उसके बाद, भारत के कॉलेजों से निकलने वाले ग्रेजुएट या नौकरी की तलाश करते लोगों की दक्षता पर हमेशा सवाल उठे हैं। कई बार, कई बड़ी कम्पनियों ने सीधे तौर पर कहा है कि भारतीय कॉलेजों के 70% इंजीनियर काम देने योग्य नहीं होते। ये एक सतत प्रयास से दूर होगा और उसमें समय जाएगा।

सरकार जो त्वरित प्रयास कर सकती थी, वो किया है। उसमें अगर सुधार की आवश्यकता है तो वो भी होंगे। आपके पास कुछ काम का आइडिया है तो आपको लोन लेने में आसानी होगी। लाखों लोगों ने मुद्रा लोन लिया है, और वो दूसरों को भी रोजगार दे रहे हैं। भले ही सरकार के मुँह से निकलने वाले इन आँकड़ों को आप नकारते रहें, लेकिन उससे सत्य बदल नहीं जाता। आप उसी सरकार के दूसरे आँकड़े पर हल्ला कर रहे हैं क्योंकि वो आपके विचारों के अनुकूल है।

हमारी समस्या यह है कि हम संदर्भ से परे, योग्यता की उपेक्षा करते हुए नौकरी तलाशते युवा वर्ग को एक ही खाँचे में रख देते हैं मानो पूरा युवा वर्ग एक तरह की दक्षता के साथ नौकरी ढूँढ रहा है। जबकि ऐसा नहीं है। इसमें एक बड़ा हिस्सा उन लोगों का है, जो हमारे दोस्त हैं, और हम जानते हैं कि उन्होंने आँख मूँद कर एक तरह की डिग्री ले ली। हम शायद जानते हैं कि उनके पास सिर्फ डिग्री ही है, योग्यता नहीं।

इसमें भी दोष सिस्टम का है, लेकिन उतना ही दोष आपका भी कि आपने गलत योग्यता पाने की कोशिश की, जबकि आपको पता होना चाहिए था कि इस डिग्री के साथ नौकरी मिलनी मुश्किल है। हर डिग्रीधारी न तो एक स्तर की योग्यता रखता है, न ही सारे नकारे होते हैं। एक ही क्लास के बच्चे को कैम्पस सलेक्शन से नौकरी मिलती है, बहुतों को नहीं। इन बातों को हम नकार देते हैं क्योंकि सरकारों को कोसने में आसानी हो जाती है।

इसलिए असंगठित क्षेत्र में एक लेबर फ़ोर्स की तरह काम करना भी रोजगार है। उससे भी घर चलता है, वो भी काम है। अपनी शिक्षा या डिग्री का दंभ मत पालिए, आप सक्षम हैं तो नौकरी है। नौकरी खत्म है तो आपको अपना स्किल सेट दोबारा डेवलप करना होगा। लोन लीजिए सरकार से, दूसरों को रोजगार दीजिए।

क्या ये इतना आसान है? जी नहीं, फेसबुक पर रोने और ज्ञान देने से बहुत कठिन है। आप बिना भविष्य को देखे इंजीनियरिंग क्यों पढ़ रहे हैं? आपको ये समझ में नहीं आता कि जितने लाख ये पढ़ाई कर रहे हैं उतनी नौकरियाँ नहीं हैं? आपने कुछ दूसरी चीज सोची कभी करने को?

क्या इस देश में 25 करोड़ लोगों को नौकरी मिल सकती है? नहीं। यह एक सत्य है। रोजगार मिल सकता है, पेट भरा जा सकता है। रोजगार के मौके मिल सकते हैं लेकिन यह कहना कि मेरे पास बीटेक या एमबीए की डिग्री है लेकिन रोजगार नहीं, वो तो पूरी तरह से सरकार पर आरोप फेंकने की बात है क्योंकि आपने रोजगार के बाज़ार को सही से नहीं पढ़ा। आप अपनी ज़िम्मेदारी लीजिए। सारी ज़िम्मेदारी सरकार की नहीं है। कुछ आपकी भी है।

सरकार जो कर सकती है, कर रही है, आगे भी करेगी। आप खुद पर थोड़ा ब्लेम लेना सीखिए। तंत्र अगर पचास सालों से बेकार बनाया गया है तो उसे ठीक होने में भी एक पीढ़ी निकल जाएगी। लेकिन आपको क्या, आप एक तरह की चीज पढ़िए, जनसंख्या को भूल जाइए और चिल्लाइए कि रोजगार नहीं हैं। आपका दुर्भाग्य कि आँकड़े आपकी भाषा नहीं बोलते।

फोन पर ‘हैलो’ नहीं, ‘जय बांग्ला/ जय हिंद’ बोलेंगे TMC कार्यकर्ता: ममता बनर्जी का फ़रमान

पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी और बीजेपी के बीच सियासी जंग थमने का नाम नहीं ले रही है। वैसे तो बंगाल में हो रही हिंसात्मक गतिविधियाँ आए दिन सुर्ख़ियों में नज़र आती रहती हैं, लेकिन ममता बनर्जी द्वारा एक फ़रमान जारी करने की ख़बर सामने आई है। इस आदेश के अनुसार अब TMC कार्यकर्ता फोन पर ‘हैलो’ की जगह ‘जय बांग्ला’ या ‘जय हिंद’ बोलेंगे। ऐसा प्रतीत होता है कि मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने अपने कार्यकर्ताओं को यह निर्देश ‘जय श्रीराम’ के नारे से तंग आकर दिया है।

इस वीडियो में आप देख सकते हैं कि एक जनसभा को संबोधित करते हुए ममता बनर्जी कह रही हैं कि वो ‘जय बांग्ला’ एक बार नहीं, हज़ार बार भी नहीं बल्कि लाख बार बोलने को तैयार हैं। उन्होंने कहा कि ‘जय हिंद’ पर किसी समुदाय का एकाधिकार नहीं है क्योंकि यह स्लोगन नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने दिया था। अपने संबोधन में उन्होंने फोन पर और सड़क पर चलते-फिरते भी ‘जय हिंद’ बोलने की अपील की। कड़े शब्दों में ममता ने कहा, “बाहर से आए लोग हमारी संस्कृति को ख़त्म करने में लगे हैं, लेकिन हमारी संस्कृति इतनी सस्ती नहीं है।”

जनसभा को संबोधित करते समय ममता दीदी के मुँह से निकले शब्द काफ़ी तल्ख़ अंदाज़ में बाहर आ रहे थे। उनके इस ग़ुस्से को देखकर यही लग रहा था जैसे वो राज्य में ‘जय श्रीराम’ के नारे से बेहद आहत हों। ‘जय श्रीराम’ के नारे से तिलमिलाई ममता ने अपनी भड़ास निकालने के लिए ‘जय बांग्ला’ और ‘जय हिंद’ शब्दों का इस्तेमाल शायद एक विकल्प के रूप में चुना है। शब्दों को लेकर ममता बनर्जी की यह सोच उनकी कुंठित मानसिकता को उजागर करती है।

दरअसल, पिछले काफ़ी समय से ममता बनर्जी ‘जय श्रीराम’ के नारे को लेकर सुर्ख़ियों में छाई हुईं हैं। कोलकाता के मेदनीपुर और बैरकपुर में ममता बनर्जी के क़ाफ़िले के सामने जब कुछ लोगों ने ‘जय श्रीराम’ के नारे लगाए थे, तो ममता दीदी न सिर्फ़ उन पर भड़कीं थीं बल्कि वो उनके ख़िलाफ़ कड़ी क़ानूनी कार्रवाई कराने के निर्देश तक दे दिए थे।

गुरूवार (31 मई) को भी एक ऐसा मामला सामने आया था जब ममता बनर्जी अपने क़फ़िले के साथ जा रही थीं और उस समय जय श्रीराम का नारा लगाने वाले 10 लोगों के ख़िलाफ़ ज़मानती धाराओं में मुकदमा दर्ज किया गया। ममता बनर्जी को ‘जय श्रीराम’ का नारा इतना नागवार लगता है कि वो तुरंत अपनी गाड़ी से उतरती हैं और नारा लगाने वालों को ख़ूब डाँटती-फटकारती हैं। कहने को तो ममता ने यह बात स्वीकारी थी कि वो बंगाली और बिहारी में कोई भेदभाव नहीं करतीं, लेकिन असलियत इससे परे है।

पश्चिम बंगाल में बीजेपी कार्यकर्ताओं की हत्या की ख़बर लगातार सामने आती रहती हैं। 30 मई को 52 वर्षीय बीजेपी कार्यकर्ता सुशील मंडल की हत्या सिर्फ़ इसलिए कर दी गई थी क्योंकि वो प्रधानमंत्री मोदी के शपथ ग्रहण के एक दिन पहले पार्टी के झंडे सजा रहे थे और ‘जय श्रीराम’ का नारा लगा रहे थे।

ED ने नारदा घोटाले में ममता के करीबी नेताओं के खिलाफ जारी किया नोटिस

प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) ने नारदा घोटाला के मामले में कोलकाता के पूर्व महापौर और टीएमसी के नेता सोवन चट्टोपाध्याय की पत्नी रत्ना चट्टोपाध्याय, टीएमसी मंत्री साधना पांडे की बेटी श्रेया पांडे, अविजित गांगुली और मोलॉय भट्टाचार्य को नोटिस जारी किया है। इस घोटाले में और भी कई लोगों के नाम शामिल हैं। जिन नेताओं के खिलाफ ईडी द्वारा नोटिस जारी किया गया है, वो पश्चिम बंगाल की सीएम ममता बनर्जी की काफी करीबी माने जाते हैं।

ईडी रत्ना चट्टोपाध्याय से इससे पहले पूछताछ कर चुकी है। ईडी के एक अधिकारी ने बताया था कि पूछताछ के लिए दफ्तर आई थी, मगर जल्द ही वो अपने खराब स्वास्थ्य की बात कहकर निकल गई। हालाँकि, रत्ना ने कहा था कि उन्होंने अपनी तरफ से सारे सवालों के जवाब दे दिए हैं और अगर वो उनके जवाब से संतुष्ट नहीं होते हैं और फिर से पूछताछ के लिए बुलाएँगे, तो जाने के लिए तैयार है।

गौरतलब है कि, इससे पहले इस मामले में तृणमूल कॉन्ग्रस के 12 नेताओं के खिलाफ मनी लॉन्ड्रिंग का मामला दर्ज किया गया था। कोलकाता के एक न्यूज़ चैनल ने स्टिंग ऑपरेशन करते हुए पश्चिम बंगाल के सत्तारूढ़ दल तृणमूल कॉन्ग्रेस के कुछ नेताओं को रिश्वत लेते हुए कैमरे पर पकड़ा था। जिसकी जाँच चल रही है। कोर्ट ने इस मामले में पश्चिम बंगाल की सीएम ममता बनर्जी की भी आलोचना की थी।

नरगिस ने हिन्दू युवक से की थी शादी; भाइयों ने पहले कुल्हाड़ी से मारा, फिर सिर में दाग दी गोली

दूसरे समुदाय में प्रेम विवाह करने से नाराज युवती के घरवालों ने उसकी हत्या कर दी। जबकि हमले में महिला का पति गोली लगने से गंभीर रूप से घायल हो गया। वारदात की सूचना पर हड़कंप मच गया। जानकारी के मुताबिक एसएसपी ने मौके पर पहुँच कर लोगों से पूछताछ की और हत्यारों की गिरफ्तारी के आदेश दिए हैं।

उत्तर प्रदेश के बरेली जिले में ऑनर किलिंग का एक मामला सामने आया है। बताया जा रहा है कि मृतक महिला और उसका पति दोनों अलग-अलग धर्म के थे। दोनों बृहस्पतिवार, मई 30, 2019 को पड़ोस के एक गाँव से घर लौट रहे थे, तभी रास्ते में महिला के भाइयों ने उन पर गोली चला दी। इस घटना में महिला की मौत हो गई और उसका पति घायल हो गया। पुलिस ने इस सिलसिले में मृतक महिला के तीन भाइयों को गिरफ्तार किया है और महिला के पिता और अन्य तीन लोगों के खिलाफ भी मुकदमा दर्ज किया गया है।

मृतक नरगिस के पिता कुतुबुद्दीन, माँ शबरी और उसके 6 भाइयों के नाम शामिल

नरगिस और उसका पति राम किशोर अपनी 4 महीने की बेटी के साथ परिजनों से मिलकर साहबगंज गाँव से लौट रहे थे। इस दौरान रास्ते में नरगिस के भाइयों ने उन्हें गोली मार दी। गोली सीधे नरगिस के सिर में जा लगी। इतना ही नहीं आरोपितों ने नरगिस पर कुल्हाड़ी से भी वार किया, जिससे उसके हाथ और चेहरे पर भी चोटें आईं। वहीं राम किशोर को गोली छूकर निकल गई, जिसके चलते वे भी घायल हो गए।

क्योलड़िया थाना क्षेत्र के एसएचओ ने बताया कि घायल राम किशोर की शिकायत पर 15 लोगों के खिलाफ केस दर्ज किया गया है। इस शिकायत में करूआ साहबगंज के रहने वाले नरगिस के पिता कुतुबुद्दीन, माँ शबरी और उसके 6 भाइयों का नाम शामिल है। बाकी के आरोपित मृतक महिला के रिश्तेदार और पड़ोसी बताए जा रहे हैं। एसीपी संसार सिंह ने बताया कि शुक्रवार, मई 31, 2019 को पीड़िता के 3 भाइयों शमशेर, असगर और अकबर को बहुआ मार्केट के कुलरिया इलाके से गिरफ्तार किया गया है। साथ ही पुलिस ने उनके पास से पिस्टल और कुल्हाड़ी भी बरामद की है।

कुछ दिन पहले लौटे थे गाँव

कुतुबुद्दीन की बेटी नरगिस ने बीते वर्ष अप्रैल माह में गाँव के ही रहने वाले दूसरे समुदाय के राम किशोर पुत्र जानकी प्रसाद से प्रेम विवाह कर लिया था। जिसके बाद से ही दोनों रुद्रपुर में रहकर मेहनत मजदूरी से गुर बसर कर रहे थे। नरगिस ने धर्म परिवर्तन कर अपना नाम मोहिनी देवी रख लिया। इस बीच दोनों के एक बेटी हुई जिसका नाम उन्होंने ज्योति रखा था। इसी बात को लेकर महिला के मायके वाले खुन्नस रखने लगे और उसकी जान के दुश्मन हो गए। बीते दिनों ही दंपत्ति अपने गाँव में वापस लौट कर आए थे, जिसके बाद से ही नरगिस के घर वाले दोनों को मारने की फिराक में लगे हुए थे।

बृहस्पतिवार सुबह दंपति अपनी बेटी ज्योति को दवाई दिलाने बरखान गाँव ले जा रहे थे, इसी बीच नरगिस के मायके वालों ने अपने घर के पास दंपत्ति को घेर लिया। आरोपित भाई और अन्य लोगों ने ताबड़तोड़ फायरिंग कर बाँके से हमला कर दिया, जिसमें नरगिस की कनपटी पर गोली लगने से मौके पर ही मौत हो गई। जबकि उसका पति बाँके से हमले और गोली लगने से गंभीर रूप से घायल हो गया, जिसे नवाबगंज के एक अस्पताल में भर्ती कराया गया है। डॉक्टरों ने नरगिस के पति राम किशोर की हालत बेहद नाजुक बताई है। घटना के बाद से ही आरोपित पक्ष गाँव से फरार हो गया।

Virginia (USA) में काला दिन: अंधाधुँध फायरिंग में गई 12 लोगों की जान

अमेरिका के वर्जिनिया शहर में शुक्रवार को एक आदमी ने सरकारी दफ्तर की बिल्डिंग में अधाधुँध फायरिंग की। इस फायरिंग में 12 लोगों की मौत होने की खबर है, जबकि 6 लोग घायल बताए जा रहे हैं। खबरों के मुताबिक पुलिस ने बताया है कि गोली चलाने वाला डेवेन क्रैडॉक नाम का व्यक्ति एक सरकारी कर्मचारी था, जो वर्जीनिया बीच के पब्लिक यूलिलिटिज डिपार्टमेंट में एक सर्टिफाइड प्रोफेशनल इंजीनियर के रूप में काम करता था।

यह घटना अमेरिकी समयानुसार शाम 4 बजे की है। वर्जिनिया के पुलिस चीफ जेम्स सर्वेरा ने बताया हमलावर बिल्डिंग में घुसा और अचानक अंधाधुँध गोलियाँ चलाने लगा। घायल होने वालों में एक पुलिसकर्मी भी है जो बुलेटप्रूफ जैकेट पहनने की वजह से बच गया लेकिन पुलिस के साथ हुई भिड़ंत के बाद हमलावर मारा गया है। घायल लोगों को अस्पताल भर्ती करवा दिया गया है।

फिलहाल गोलीबारी करने के पीछे के हमलावर का क्या मकसद था इसका पता नहीं चल पाया है। इस घटना के बाद वहाँ के स्थानीय लोगों में काफ़ी डर का माहौल है। बता दें कि शुक्रवार को हुई यह घटना इस साल की 150वीं ऐसी घटना है जिसमें चार से ज्यादा लोगों पर हमला हुआ या फिर उनकी मौत हुई। मेयर बॉबी दायर ने इस घटना के बारे में कहा है कि ये दिन वर्जिनिया बीच के इतिहास का सबसे काला/विनाशकारी दिन है।

ड्राइ डे के दिन मध्यम वर्गीय लोगों के साथ होता है भेदभाव, घटनी चाहिए संख्‍या: महाराष्ट्र सरकार

महाराष्‍ट्र में शराब कारोबारियों के साथ ही शराब पीने वालों के लिए भी राहत वाली खबर है। महाराष्‍ट्र सरकार ड्राइ डे की संख्‍या घटाने पर विचार कर रही है। दरअसल, शराब के कारोबार को आसान करने के लिए 30 जून 2018 को विभाग के प्रधान सचिव की अध्यक्षता में एक सात सदस्यीय समिति बनाई गई थी। इस समिति ने अब अपनी रिपोर्ट सरकार को दे दी है। समिति ने इस रिपोर्ट में 70 अलग-अलग बिंदुओं पर सरकार को अपनी सिफारिशें सौंपी हैं। इसमें ड्राइ डे पर कई सवाल भी उठाए गए हैं।

जानकारी के मुताबिक, समिति ने अपनी रिपोर्ट में ड्राइ-डे को प्रभावहीन माना है। समिति का मानना है कि ड्राइ-डे पर शराब पीने वाले अपने लिए किसी भी तरह से शराब की व्‍यवस्‍था कर लेते हैं। ऐसे में अवैध रूप से शराब की बिक्री का कारोबार पनपता है। वहीं, अवैध शराब बिकने से राज्‍य सरकार को राजस्‍व का नुकसान होता है। इसके साथ ही ड्राइ डे वाले दिन भी बड़े होटलों और क्‍लबों में शराब दी जाती है। ऐसे में तो यही सही होगा कि ड्राइ डे की संख्‍या घटा दी जाए।

महाराष्ट्र में साल भर में 9 दिन ड्राइ डे होते हैं, इस दौरान शराब की दुकानें और बार वगैरह बंद रहते हैं। इसके अलावा मतदान और मतगणना वाले दिन भी संबंधित क्षेत्र में ड्राइ डे घोषित कर दिया जाता है। इस ड्राइ डे को लेकर समिति का कहना है कि इस दिन शराब की दुकानें बंद रहने से मध्यम वर्ग के लोग इसके सेवन से वंचित रह जाते हैं, जबकि बड़े लोग तो इस दिस भी शराब का सेवन आसानी से करते हैं, क्योंकि ड्राइ डे वाले दिन भी बड़े-बड़े होटलों में शराब परोसी जाती है। ऐसे में लोगों के साथ भेद-भाव होता है। इसलिए इसकी संख्या कम कर देनी चाहिए। इसके साथ ही समिति ने मतदान व मतगणना वाले दिन उसकी अवधि खत्म हो जाने के बाद ड्राइ डे खत्म करने का सुझाव दिया है।

मीडिया के बेकार मुद्दों पर चर्चा से बेहतर है कि नई शिक्षा नीति पर अपनी बात सरकार तक पहुँचाइये

ऐसे मुद्दों को छोड़ दें तो बीस साल पुराने दौर में एक चीज़ और भी बदली हुई होती थी। किताबें अधिकांश खरीदी नहीं जाती थीं। आगे की कक्षा में पढ़ने वाले कक्षा पास करने पर अपने से छोटों को अपनी किताबें दे देते थे। हर साल नई किताबें खरीदने का बोझ शायद ही कभी, या बहुत कम छात्रों पर आता था। आज क्या किताबें इतनी बदल रही हैं कि हर साल हजारों रुपये की किताबें खरीदने की जरूरत पड़े?

सरकारी स्कूल जो मुफ्त में किताबें बांटते हैं, वो नई किताबें ही क्यों बाँट रहे हैं? बच्चों को अपने अग्रजों से किताबें मिल जाएँ तो एक तो उन्हें समय पर किताबें मिल जाएँगी, ऊपर से उनके खरीदने का खर्च, स्कूलों तक पहुँचाने की व्यवस्था में लगने वाला खर्च और समय सब बचाया जा सकता है। सरकारी प्रकाशन से आने वाली किताबों में शायद ही कोई अक्षर एक साल में बदल पाता है, इसलिए नई किताबें छापना जरूरी तो नहीं हो सकता।

दशकों पहले कभी यशपाल कमिटी ने शिक्षा सुधारों से सम्बंधित एक रिपोर्ट दी थी। उस समय शायद कोई अर्जुन सिंह मंत्री थे। इंट्रोडक्शन से लेकर अपेंडिक्स तक ये रिपोर्ट कुल 26 पन्ने की है। आमतौर पर समितियों की सिफारिश (अभी वाली नेशनल एजुकेशन पालिसी ड्राफ्ट भी) करीब पाँच सौ पन्ने का मोटा सा बंडल होता है जिसे कौन पढ़ता है, या नहीं पढ़ता, हमें मालूम नहीं। ऐसी सभी सिफारिशों से मेरी एक और आपत्ति ये भी होती है कि ये किस आधार पर बनी है ये पता नहीं होता। कभी-कभी कहा जाता है कि ये सर्वेक्षणों के आधार पर बनी हैं। ये वैसे सर्वेक्षण होते हैं जो अक्सर बताते हैं कि पाँचवीं-छठी कक्षा के बच्चों को दो का पहाड़ा नहीं आता।

क्यों नहीं आता? क्योंकि बिहार ही में बोली जाने वाली अनेक भाषाओँ में “पहाड़ा” अलग-अलग नामों से जाना जाता है। मैथिलि में इसे “खांत” कहते हैं तो मगही में “खोंढ़ा”। ऐसे क्षेत्रों में जब बच्चों से पूछा गया होगा कि पहाड़ा आता है? तो संभवतः उसे सवाल ही समझ में नहीं आया होगा। उसने ना में सर हिलाया होगा और वही लिख लिया गया। कोई खांत या खोंढ़ा पूछता तो शायद जवाब भी आता। हम आजादी के सत्तर सालों में बच्चों के लिए उनकी मातृभाषा में शिक्षा का इंतजाम भी नहीं कर पाए हैं। ऐसा तब है जब सभी वैज्ञानिक शोध बताते हैं कि मातृभाषा में मिलने वाली शिक्षा से बच्चे सबसे आसानी से सीखते हैं।

अब जब सरकार बन चुकी है तो ये नजर आता है कि शिक्षा नीतियों पर पहले दिन से ही बात शुरू हो चुकी है। एमएचआरडी ने एक ड्राफ्ट पालिसी तैयार कर रखी है और इस पर जनता से राय भी मांगी गई है। अपनी आने वाली पीढ़ियों के बेहतर भविष्य के लिए जरूरी है कि हम मीडिया के उठाये टीआरपी बटोरू मुद्दों के बदले अपनी जरूरतों पर ध्यान केन्द्रित करना सीखें। विवाद खड़ा करने में उनकी रुचि पिछले पांच वर्षों में सभी लोग देख चुके हैं। बाकी जरूरी मुद्दों के बारे में पढ़कर-जानकर उनपर अपनी राय सरकार तक पहुंचानी है, या सोशल मीडिया के हर रोज बदलते मुद्दों में मनोरंजन ढूंढना है, ये तो खुद ही तय करना होगा। सोचिये, क्योंकि सोचने पर फ़िलहाल जीएसटी नहीं लगता! आप मानव संसाधन विकास मंत्रालय तक अपनी राय ईमेल ([email protected]) के ज़रिये पहुँचा सकते हैं।