Monday, September 30, 2024
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‘मेरी दादी फुटबॉल में इटली टीम की प्रशंसक थीं’: प्रियंका गाँधी

केरल के एरिकोड में कॉन्ग्रेस महासचिव प्रियंका वाड्रा ने एक रैली को संबोधित करते हुए बताया कि उनकी दादी इंदिरा गाँधी फुटबॉल देखती थीं और 1982 विश्व कप फाइनल में उन्होंने इटली टीम के जीतने की दुआ की थी।

प्रियंका ने यह भी दावा किया कि वो ख़ुद भी फुटबॉल प्रशंसक हैं। प्रियंका इतने पर भी नहीं रुकीं उन्होंने आगे कहा कि उनका पूरा परिवार 1982 का विश्व कप फाइनल देख रहा था, तब उन्होंने अपनी दादी से पूछा कि वह किस टीम का समर्थन कर रही हैं, तब इंदिरा गाँधी ने कहा था कि वो इटली का समर्थन करेंगी। ख़बर के अनुसार, उस समय भारत नहीं खेल रहा था। संयोग से इटली ने पश्चिम जर्मनी को 3-1 से हराकर खेल जीत लिया था।

प्रियंका के भाषण का एक वीडियो सोशल मीडिया पर छाया हुआ है। इसमें उन्होंने बार-बार फुटबॉल का ज़िक्र करते हुए ‘सॉकर’ शब्द का इस्तेमाल किया जो फुटबॉल प्रेमियों के बीच लोकप्रिय है।

इस वीडियो में वो बताती हैं कि उनका बेटा और उनका भाई राहुल गाँधी भी फुटबॉल के प्रशंसक हैं। अपने संबोधन में थोड़ा मज़ाकिया होते हुए महिलाओं की ओर इशारा करते हुए कहा कि वो समझ सकती हैं कि जब एक तरफ फुटबॉल मैच चल रहा हो तो महिलाएँ कैसा अनुभव कर रही होती हैं। इस भाषण को कॉन्ग्रेस का चुनावी हथकंडा कहा जा सकता है जिससे मतदाताओं को लुभाया जा सके क्योंकि केरल में बड़ी संख्या में फुटबॉल प्रशंसक हैं।

बंगाल में 15 साल पहले के बिहार जैसे हालात: EC के अधिकारी का बयान

एक ओर जहाँ निर्वाचन आयोग पूरी सख्ती के साथ किताबों का विमोचन रोकने और फिल्मों/वेब सीरियलों को प्रतिबंधित कर रहा है, वहीं आयोग के विशेष पर्यवेक्षक का कहना है कि बंगाल 15 साल पहले का बिहार बनता जा रहा है जहाँ जंगलराज चलता था। पर्यवेक्षक के अनुसार लोगों को पुलिस पर भरोसा नहीं है और 92 फीसदी के करीब मतदान केन्द्रों पर निष्पक्ष वोटिंग के लिए केन्द्रीय बलों की तैनाती होगी। यह बयान देने वाले चुनाव आयोग के विशेष पर्यवेक्षक अजय वी नायक पूर्व में बिहार के मुख्य चुनाव अधिकारी (सीईओ) रह चुके हैं।

बंगाल के सीईओ के सामने दिया बयान

पश्चिम बंगाल के सीईओ आरिज आफताब उस समय मौके पर मौजूद थे जब 1984 बैच के आईएएस नायक ने यह बात कही। नायक को पश्चिम बंगाल में अंतिम पाँच चरणों के चुनाव कराने का दायित्व सौंपा गया है। उन्होंने कहा, ‘पश्चिम बंगाल के मौजूदा हालात बिहार के 15 साल पुराने जैसे हालात की तरह हैं। बिहार में उस समय सभी मतदान केंद्रों पर केंद्रीय बलों की तैनाती की जरूरत पड़ती थी। अब ऐसी जरूरत पश्चिम बंगाल में पड़ती है, क्योंकि राज्य के लोगों को पश्चिम बंगाल पुलिस पर भरोसा नहीं रहा और वे सभी मतदान केंद्रों पर केंद्रीय बलों की तैनाती की मांग कर रहे हैं।’

नायक ने यह भी जोड़ा कि आगामी तीसरे चरण के दौरान केन्द्रीय बलों की तैनाती 92% से अधिक मतदान केन्द्रों पर होगी। गौरतलब है कि 324 कंपनियों की आवश्यकता महज 5 लोकसभा क्षेत्रों बलूरघाट, मालदा उत्तरी, मालदा दक्षिणी, जांगीपुर और मुर्शिदाबाद के लिए पड़ रही है।

चुनाव अधिकारी हो चुके हैं लापता, हटाए गए मालदा के पुलिस कमिश्नर

पश्चिम बंगाल में अराजकता का माहौल किस हद तक है इसका अंदाजा इस एक घटना से लगाया जा सकता है कि वहाँ चुनाव कराने में तैनात एक नोडल अधिकारी ही लापता हो गए हैं। अर्णब रॉय नादिया जिले की राणाघाट लोकसभा सीट के लिए गत 18 अप्रैल को हुए चुनाव के सिलसिले में बिप्रदास पाल चौधरी पॉलिटेक्निक कॉलेज पर तैनात किए गए थे। वह वीवीपैट और ईवीएम के इंचार्ज थे।

वह करीब 2 बजे दोपहर के भोजन के लिए गए और उसके बाद से लापता हैं। शुरू में उनकी गुमशुदगी को उनके निजी जीवन से जोड़ने की भी कोशिश की गई थी। वहीं चुनाव आयोग ने पुलिस कमिश्नर अर्णब घोष को हटाकर उनकी जगह अजय प्रसाद को मालदा जिले का पुलिस कमिश्नर बनाया है। कथित तौर पर तृणमूल के करीबी घोष को हटाने की माँग भाजपा की राज्य इकाई ने की थी।

ईस्टर के मौके पर श्रीलंका में सीरियल ब्लास्ट: 25 की मौत, 280 घायल

6 सीरियल धमाकों ने ईस्टर रविवार की सुबह ने श्रीलंका को हिला कर रख दिया। विस्फोटों से श्री लंका की राजधानी कोलंबो और देश के अन्य हिस्से दहल उठे। आरंभिक जानकारी में तीन चर्च और तीन लक्जरी होटलों को निशाना बनाया गया है लेकिन कुछ समाचार एजेंसियाँ 8 स्थान भी बता रही हैं जहाँ ब्लास्ट हुआ है। इस हमले में अभी तक कम से कम 25 लोगों के मारे जाने की ख़बर है, जबकि 280 से ज्यादा लोग घायल हुए हैं। सोशल मीडिया पर इस हमले पर प्रतिक्रिया दर्ज हो रही है, जिसमें लोगों से घरों में रहने की अपील की गई है।

ख़बर के अनुसार, पुलिस प्रवक्ता रूवान गुनसेकेरा ने कहा कि विस्फोट रविवार सुबह (कोलंबो समयानुसार) सुबह 8.45 बजे हुआ।

श्रीलंका की राजधानी कोलंबो में हुए सीरियल ब्लास्ट पर भारत की विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने ट्वीट किया, “मैं कोलंबो में भारतीय उच्चायुक्त के लगातार संपर्क में हूँ, हम स्थिति पर पूरी नज़र बनाए हुए हैं।”

श्रीलंका के प्रधानमंत्री रानिल विक्रमसिंघे ने आपातकालीन बैठक बुलाई है।

इस गाँव में चुनाव प्रचार करने पर लगता है जुर्माना, लेकिन वोटिंग होती है 95-96%

देश के अधिकांश भागों में जहाँ 70% तक वोटिंग को ‘सफल’ मतदान माना जाता है वहीं गुजरात में ऐसा भी गाँव है जहाँ चुनाव प्रचार पर प्रतिबंध होने के बावजूद लगातार 95-96% तक मतदान होता रहा है। है। गाँव वालों का मानना है कि चुनाव प्रचार से व्यर्थ ही माहौल खराब होता है।

राजकोट का गाँव, यहाँ पर चुनाव प्रचार पर ₹51 जुर्माना

राजकोट जिले के राजसमढियाल गाँव में राजनीतिक दलों के चुनाव प्रचार पर मनाही है क्योंकि गाँव वालों के अनुसार इससे गाँव का माहौल प्रदूषित होता है। इसके बावजूद ग्रामीण मतदान को लेकर इतने सजग हैं कि मतदान न करने वालों पर ₹51 जुर्माना भी लगाया जाता है। सरपंच अशोक भाई वाघेरा प्रचार पर रोक की इस परंपरा का श्रेय अपने पूर्ववर्ती सरपंच हरदेव सिंह जडेजा को देते हैं

वह यह भी कहते हैं कि असल मतदान 100% के करीब होता है, पर मृत लोगों का नाम मतदाता सूची से न कट पाने या शादी के बाद गाँव के बाहर चली गईं महिलाओं का भी नाम सूची में रह जाने के कारण यह गिरकर 95-96% के आधिकारिक आँकड़े पर आ जाता है।

देश को लेना चाहिए सबक  

देश के सभी मतदाताओं, खासकर कि शहरी मतदाताओं को, राजसमढियाल गाँव के लोगों से सीख लेने की जरूरत है। हमारे देश में एक ओर जहाँ अंधा राजनीतिक ध्रुवीकरण होता है, दूसरी ओर लोग मतदान करने निकलने से बचते हैं। इन चुनावों में भी पहले दो चरणों में भी क्रमशः 66.44% और 69.43% ही हुआ है, जोकि एक परिपक्व लोकतान्त्रिक देश के लिहाज से कतई संतोषजनक नहीं है।

जलते जहाज पर 900 टन पानी डालकर आग बुझाने की हुई थी कोशिश: अग्निशमन सप्ताह

अगर धमाका मुंबई में हो तो क्या शिमला में (1700 किलोमीटर दूर) धरती काँपेगी क्या? नहीं भाई अतिशयोक्ति अलंकार नहीं है ये, सिर्फ कोलाबा की ऑब्जर्वेटरी में ही नहीं, शिमला के भूकंप नापने के यंत्रों ने भी इस धमाके के कम्पन को, भूकंप समझकर रिकॉर्ड कर लिया था। कई टन के (मदर ऑफ़ आल बॉम्ब्स) MOAB की ख़बरें हैरत से पढ़ते-पढ़ते, बता दें की 1395 टन बारूद एक बार मुंबई में भी फटा था। एस.एस. फोर्ट स्टिकीन नाम का जहाज 14 अप्रैल, 1944 को बॉम्बे के बंदरगाह पर था। धमाका इसी जहाज में हुआ था।

इस जहाज में लदे 1395 टन विस्फोटकों में 238 टन क्लास A यानि टारपीडो, माइन, तोपों के गोले और गोलियाँ थीं। उसके अलावा कपास की गाँठें, तेल के पीपे, कबाड़ लोहा, लकड़ी और 890000 पौंड की सोने की ईटों के 31 कैरट लदे हुए थे। दोपहर करीब दो बजे जहाज के नाविकों को आग लगने की चेतावनी दी गई। जहाजी, तटरक्षक और आग बुझाने वाली नावें थोड़ी ही देर में आग बुझाने में नाकाम होने लगी। 900 टन पानी जहाज में पंप कर देने के बाद भी आग का स्रोत नहीं ढूँढा जा पा रहा था। आग बुझ नहीं रही थी और जहाज पर डाला जा रहा पानी उबलने लगा था।


14 अप्रैल 1944 के विस्फोट से बचकर बंदरगाह से भागते लोग

तीन पचास में जहाज छोड़ देने का आदेश दिया गया, इसके सोलह मिनट बाद ही पहला धमाका हुआ। इस धमाके से जहाज दो हिस्सों में टूट गया और करीब 12 किलोमीटर दूर तक की खिड़कियों के काँच टूट गए। जहाज में लदा हुआ कपास, जलता हुआ, आग की बारिश की तरह आस पास की झुग्गी झोपड़ियों पर बरसा। धमाके से दो स्क्वायर किलोमीटर का तटीय इलाका जल उठा। आस पास खड़े ग्यारह जहाजों में भी आग लग गई और वो भी डूबने लगे। दुर्घटना से बचाव के लिए लड़ते कई दस्ते खेते रहे। राहत कार्यों को दूसरा झटका 04:34 पर लगा जब दूसरा धमाका हुआ। इस धमाके की आवाज़ 50 मील (80 किलोमीटर) दूर तक सुनी गई थी। ‘पचास पचास कोस दूर, गाँव में…’ वाला जुमला कहाँ से आया होगा वो अंदाजा लगा लीजिये।


बंदरगाह से पांच किलोमीटर दूर के संत ज़ेवियर स्कूल में अगर गिरा एक प्रोपेल्लर का टुकड़ा By Nicholas (Nichalp) – Own work

विस्फोट में उड़े 31 कैरट सोने की ईटों को 2011 तक वापिस किया गया है, लगभग पूरा मिल गया। इस दुर्घटना में तेरह जहाज डूब गए थे, कई बुरी तरह क्षतिग्रस्त हुए, लेकिन वो युद्ध का समय था इसलिए ख़बरें बाहर नहीं आई। गुलाम भारत के ब्रिटिश अधिकारियों ने मई के दूसरे सप्ताह में अख़बारों को ये खबर छापने की इजाजत दी। एक भारतीय सुधीश घटक ने इस घटना पर एक फिल्म सी बनाई थी जिसे ब्रिटिश अधिकारीयों ने जब्त कर लिया था। जापानी नियंत्रण वाले रेडियो साइगॉन ने सबसे पहले पंद्रह अप्रैल को ये खबर प्रसारित की। टाइम मैगज़ीन ने इसे 22 मई 1944 को छापा। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक इन विस्फोटों में 800 से 1300 के लगभग लोग मारे गए थे।

इस भयानक आग को बुझाने के लिए कई अग्निशमन दल भी जुटे थे जिन्होंने जलते जहाज पर 900 टन पानी डालकर आग बुझाने की कोशिश की थी। उनमें से अधिकतर मारे गए। पहले विस्फोट के बाद जब लोग बंदरगाह से भाग रहे होंगे तो नुकसान को और बढ़ने से रोकने के लिए अग्निशमन दल के और कुछ बहादुर दो किलोमीटर में लगी आग के बीच घुस रहे होंगे। दूसरे विस्फोट पर उनमें से भी अधिकतर वीरगति को प्राप्त हुए। अग्निशमन दलों के 66 जवान इस राहत कार्य में शहीद हुए थे। हम उनमें से किसी का नाम नहीं पढ़ते, नहीं सुनते, नहीं जानते। हमारी लड़ाइयों के नायक भी खो गए हैं।

इस घटना की याद में भारत में 14 से 22 अप्रैल को अग्निशमन सप्ताह मनाया जाता है। हो सकता है किसी आग से बचाव के अभ्यास के लिए आपको भी इस गर्मी में ऑफिस के ए.सी. को छोड़कर धूप में आने का बेकार कष्ट उठाना पड़ा हो। अगर आप अपनी बड़ी ऑफिस की बिल्डिंगों में होने वाले मोक ड्रिल, बचाव अभ्यासों से परेशान हो रहे हैं तो उन सैकड़ों बहादुरों को जरूर याद कीजियेगा जो जलती आग की लपटों में जान-माल को बचाने कूदे थे। उनमें से कई बाहर नहीं आये होंगे। उन अज्ञात नामों को भी नमन, हमारी लड़ाइयों के वो नायक, जो कि खो गए हैं।

कमाल ‘अतातुर्क’ का ख़ूनी जुनून था जिन्ना के सर पर: अभिजित चावड़ा

थ्योरेटिकल फिजिसिस्ट, लेखक और इतिहास-भूराजनीति के जानकार अभिजित चावड़ा ने हाल ही में दिल्ली में भारत के बंटवारे, तुर्की के इस्लामिक इतिहास में इसकी जड़ों, और गाँधी जी की इसमें भूमिका पर संक्षिप्त वक्तव्य दिया। सृजन फाउंडेशन द्वारा आयोजित इस कार्यक्रम में उन्होंने जिन्ना के मुस्तफ़ा कमाल ‘अतातुर्क’ के प्रति जुनून का संबंध भारत के 1947 में विभाजन से सिद्ध किया, ‘महात्मा’ मोहनदास करमचंद गाँधी की इस पूरे कालखंड में भूमिका का संक्षिप्त अन्वेषण किया, और कमाल अतातुर्क व गाँधी के नेतृत्व में अंतर का विश्लेषण किया।

प्रथम विश्वयुद्ध में अतातुर्क का उदय, खलीफाई के अंत का प्रारंभ

प्रथम विश्वयुद्ध में तुर्की पर शासन कर रहे उस्मानी (Ottoman) खलीफ़ा ने जर्मनी और ‘केन्द्रीय राष्ट्रों’ (Central Powers) का साथ इसलिए दिया था क्योंकि ईसाई-बहुल यूरोप की बड़ी राजनीतिक ताकतों में इकलौता जर्मनी था जो उस्मानिया खलीफाई का समर्थक था। दरअसल अपनी स्थापना के समय से ही उस्मानी खलीफाओं ने तुर्की में गैर-इस्लामियों, जिनमें बहुतायत ईसाईयों की थी, के ऊपर भयावह अत्याचार किए थे। इसके अलावा यूनान की उस्मानी साम्राज्य से आज़ादी के संघर्ष के समय भी यूनानियों और ईसाईयों के कई सामूहिक हत्याकाण्ड हुए थे। चूँकि यूनान पाश्चात्य जगत में पाश्चात्य सभ्यता का जन्मस्थान माना जाता है, अतः अधिकांश पश्चिमी देशों के सम्बन्ध तुर्की के साथ तनावपूर्ण या खुली शत्रुता के थे- केवल जर्मनी इसका अपवाद था।

पर प्रथम विश्वयुद्ध में जर्मनी और केन्द्रीय राष्ट्रों की पराजय हुई, और इंग्लैंड, फ़्रांस, और रूस के नेतृत्व वाले मित्र राष्ट्रों ने तुर्की के पर कतरते हुए उसे केवल उत्तरी और केन्द्रीय एनाटोलिया तक सीमित कर दिया। हालाँकि मित्र राष्ट्रों ने उस्मानिया खलीफाई को आधिकारिक तौर पर ख़त्म नहीं किया, पर खलीफाई का अंत यहीं से शुरू हुआ।

इस युद्ध में तुर्की भले हार गया, पर उसे मुस्तफ़ा कमाल के रूप में नया नायक मिला। युद्ध में मुस्तफ़ा कमाल ने अपनी अपेक्षाकृत कमज़ोर टुकड़ी के साथ गलीपोली नामक मोर्चे पर अंग्रेज़ों और मित्र देशों की सेनाओं से लोहा लिया। लोहा ही नहीं लिया, बल्कि अपने युद्ध कौशल और नेतृत्व क्षमता का अद्भुत प्रदर्शन करते हुए जीत भी हासिल की। इससे तुर्की में उनकी ताकत जनता और शासक वर्ग दोनों में बढ़नी शुरू हुई। और अंततः एक स्टाफ़ कप्तान से शुरुआत करने वाले मुस्तफ़ा कमाल ने तुर्की में उस्मानिया खलीफाओं की खलीफाई का अंत कर तुर्की में एक पंथनिरपेक्ष गणराज्य की स्थापना की।

गाँधी के खाद-पानी पर बढ़ी हिंदुस्तानियत को दबाती इस्लामी पहचान

खलीफा अब्दुल हमीद (1876–1909) ने अपनी सत्ता बचाने के लिए और तुर्की में ‘पाश्चात्य विचार’ लोकतंत्र को कुचलने के लिए 19वीं शताब्दी के अंत में ही दुनिया के हर हिस्से में अपने ‘दूत’ भेजने शुरू कर दिए थे। उसी बीज की बिना पर मौलाना मुहम्मद अली जौहर और उनके भाई शौकत अली ने खिलाफ़त आन्दोलन की नींव रखी।

अभिजित चावड़ा के मुताबिक, इस आन्दोलन ने पहली बार इस विचारधारा की पुष्टि कर दी कि हिन्दुस्तानी मुस्लिमों की पहली वफ़ादारी इस देश और इसके लोगों के प्रति नहीं, मज़हबी आधार पर इस देश के बाहर इस्लामी ‘उम्मा’ के प्रति है। इस आन्दोलन ने पहचानों के संघर्ष में ‘मुस्लिम’ को ‘हिन्दुस्तानी’ के ऊपर रखने का सन्देश मुस्लिमों में पुख्ता किया। यही नहीं, गाँधी समेत कॉन्ग्रेस नेताओं का समर्थन ही इस मज़हबी आन्दोलन का जनाधार बढ़ाने में निर्णायक हुआ।

एक गुमनाम-से ट्विटर अकाउंट को किसी लाखों-करोड़ों ‘फॉलोअर्स’ वाले ट्विटर अकाउंट द्वारा फॉलो और रीट्वीट किए जाने का उदाहरण देते हुए वह समझाते हैं कि कैसे गाँधी और कॉन्ग्रेस के नेताओं के चलते ही न केवल खिलाफ़त को गैर-मुस्लिम वर्गों का समर्थन मिला, बल्कि मुस्लिमों का भी अधिकतम वर्ग गाँधी और कॉन्ग्रेस के चलते ही खिलाफ़त से जुड़ा। और खिलाफ़त के दौर में भरा गया मज़हबी जहर ही आगे जाकर मुस्लिम लीग-रूपी विषबेल का फल विभाजन बना। इसी दौरान जामिया मिल्लिया इस्लामिया विश्वविद्यालय भी 1920 में हिंदुस्तानियत से अलग इस्लामी पहचान को पोषित करने के लिए ही बना।

खिलाफ़त की शुरुआत करने वाले मौलाना मुहम्मद अली जौहर ने ढाका में मुस्लिम लीग के ज़हरीले प्रस्तावों के आधिकारिक समर्थक बने।

जिन्ना: स्वनिर्वासन में ‘अतातुर्क’ बनने की सनक

हिंदुस्तान के बंटवारे के दूसरे सूत्रधार मुहम्मद अली जिन्ना के बारे में अभिजित खुलासा करते हैं कि जिन्ना तुर्की गणराज्य के संस्थापक मुस्तफ़ा कमाल पाशा ‘अतातुर्क’ की जीवनी से बहुत प्रभावित थे। गाँधी-नेहरू गुट द्वारा भारतीय राजनीति में किनारे लगा दिए गए जिन्ना स्वनिर्वासन में चले गए थे- और वह कभी न लौटते अगर लंदन में उन्होंने अतातुर्क की जीवनी न पढ़ी होती।

अतातुर्क से प्रभावित होकर ही जिन्ना न केवल हिंदुस्तान लौटे और मुस्लिम लीग की कमान अपने हाथ में ले इस देश का खूनी बँटवारा करा कर ही दम लिया, बल्कि उनके ‘Direct Action Day’ जैसे हिंसक पैंतरे भी सीधे-सीधे अतातुर्क द्वारा तुर्की में यूनानियों और अन्य गैर-मुस्लिमों के कत्लेआम की नक़ल थी। उनके अतातुर्क-प्रेम की तस्दीक उनकी बेटी दीना भी करतीं हैं जब वह बतातीं हैं कि जिन्ना कई-कई दिनों तक घर पर केवल तुर्की के राष्ट्रपिता की ही बात करते रहते थे; यहाँ तक कि एक समय दीना ने उन्हें भी अतातुर्क के लिए प्रयुक्त किए जाने वाला उपनाम ‘Grey Wolf’ दे दिया था

पर यहीं से कमाल अतातुर्क और जिन्ना के बीच गंभीर विरोधाभास भी उभरने लगते हैं। अतातुर्क ने बेशक मुसलामानों के कट्टरपन  और इस्लाम के नाम पर सामूहिक हत्याकांडों का इस्तेमाल सत्ता हथियाने के लिए किया, पर सत्ता पार कर उन्होंने जो तुर्की बनाया वह पंथनिरपेक्ष, प्रगतिशील, आधुनिकता की ओर उन्मुख राष्ट्र था; वहाँ की जनता अपने नेता के सेक्युलर इरादों से इतनी नावाकिफ़ थी कि वह ‘पहले खलीफ़ा के दौर में वापिस चलने’ की ख़ुशी मना रही थी। इसके उलट जिन्ना का पाकिस्तान जन्म से ही कट्टरपंथ, मुल्ला-मौलवीवाद में डूब गया।

इसके अलावा जहाँ अतातुर्क ने एक स्पष्ट दृष्टिकोण के अंतर्गत सत्ता केन्द्रीयकृत कर सभी महत्वपूर्ण शक्तियाँ अपने हाथ में रखीं। वहीं दूसरी ओर जिन्ना पाकिस्तान बनते ही ‘राजा बाबू’ “कायदे-आज़म” बना किनारे लगा दी गए। उनके प्रधानमंत्री लियाक़त अली खान ने उन्हें “बाबा-ए-कौम” का उपनाम दे घर के बूढ़े बाबा की तरह खिसका दिया। और विदेश, रक्षा, सीमांत मामले जैसे कद्दावर मंत्रालयों पर केन्द्रीयकृत कब्ज़ा किए रहे।

इन विरोधाभासों से यह साफ़ होता है कि जिन्ना जिस ‘अतातुर्क’ जैसा बनने के लालच में लाखों के खून और करोड़ों विस्थापितों की आहों से अपने हाथ सन बैठे, वे काबिलियत में उस अतातुर्क के सामने कहीं नहीं ठहरते थे। बल्कि शायद नियति की यही विडंबना रही कि अतातुर्क जैसी जिस ताक़त के पीछे वह लाखों की लाशों को सीढ़ी बना भागे, वह उनकी बजाय लियाक़त अली खान की झोली में जा गिरी!!

गाँधी: नेतृत्व क्षमता में अतातुर्क से तुलना

अपने वक्तव्य के आखिर में चावड़ा हमारे सामने एक महत्वपूर्ण प्रश्न रखते हैं- क्या होता अगर हिंदुस्तान में मुस्तफ़ा कमाल पाशा ‘अतातुर्क’ जैसा कोई नेता होता, या फ़िर तुर्की में गाँधी जैसा कोई नेता?

और इस सवाल के जवाब में वे दोनों के नेतृत्व की तुलना करते हैं।

चावड़ा के अनुसार देश को एक नेता से पाँच प्रकार के राष्ट्रीय हितों को सर्वोपरि रखना होता है:

⦁ समृद्धि

⦁ सुरक्षा

⦁ भूक्षेत्रीय अखंडता (यानि देश की ज़मीन देश के हाथों और नियंत्रण में ही रहे)

⦁ स्वनिर्धारण क्षमता (यानि देश के लोग ही अपने भाग्य का निर्णय स्वयं करें)

⦁ सांस्कृतिक अखंडता

इन पाँचों में भी चावड़ा स्वनिर्धारण क्षमता को सबसे महत्वपूर्ण बताते हुए नेता और प्रबंधक में बहुत महत्वपूर्ण अंतर भेड़ों के गड़ेरिये का बताते हैं- गड़ेरिया भेड़ों के खाने से लेकर तबियत तक का ध्यान रखता है, उनकी हर सुख-सुविधा का ख्याल रखता है, उन्हें शिकारी पशुओं जैसे बाहरी खतरों  से भी बचाता है- पर क्यों? इसलिए नहीं कि वह भेड़ों की सेवा कर रहा होता है, बल्कि इसलिए कि उसकी असली निष्ठा भेड़ों के ‘ऊपर’ भेड़ों के ‘मालिक’ के प्रति होती है; उसके लिए भेड़ों की इच्छा का कोई महत्त्व नहीं होता।

उसी तरह जिस ‘नेता’ की असली निष्ठा उन लोगों के प्रति नहीं होती जिनके नेतृत्व और प्रतिनिधित्व का वह दावा करता है, वह नेता नहीं, महज़ एक प्रबंधक होता है। ज़रूरी नहीं वह जनता के साथ बुरा ही सुलूक करे, कभी-कभी वह गड़ेरिये की तरह वह दुलार-पुचकार भी सकता है, पर उसका मकसद और उसकी निष्ठा लोगों या उनके हित से नहीं जुड़ी होती।

इस उदाहरण को वह गाँधी जी के बँटवारे के दौरान के व्यवहार के समक्ष रख कई प्रश्न पूछते हैं, ऐसे प्रश्न जो शायद गाँधीवादियों को बहुत ज्यादा चुभ सकते हैं:

  • गाँधी जी ने कहा था कि यदि कॉन्ग्रेस विभाजन स्वीकार करती है तो वह ऐसा उनकी लाश के ऊपर से करेगी। विभाजन फिर गाँधी के जीवित रहते कैसे हो गया?

  • गाँधी विभाजन का जुबानी विरोध तो आखिरी समय तक करते रहे, पर उन्होंने विभाजन को असल में रोकने के लिए क्या किया? उनके जैसे प्रभाव-क्षेत्र वाला व्यक्ति अगर एक बार विभाजन के खिलाफ आन्दोलन की पुकार भी दे देता तो सभी न सही, एक बड़ा वर्ग सड़कों पर विभाजन करने और स्वीकार करने वालों के खिलाफ उतर आता। उन्होंने ऐसा क्यों नहीं किया?

  • विभाजन-विरोधी मुस्लिमों के नेता खान अब्दुल गफ्फार खान के गाँधी से आखिरी शब्द थे, ‘आपने हमें भेड़ियों के बीच झोंक दिया है।’ (उनका प्रान्त पख्तूनवा उस समय विभाजन-विरोधी था। पर उसका जबरन विलय पाकिस्तान के साथ हुआ)
    उन्होंने यह जिन्ना या विभाजन कर रहे किसी अन्य नेता की बजाय गाँधी जी को इंगित कर क्यों कहा?

अभिजित इन सवालों का उत्तर ‘क्योंकि गाँधी जी गृह-युद्ध टालना चाहते थे’ मानने से इंकार कर देते हैं। वह अमेरिका के 16वें राष्ट्रपति लिंकन का उदाहरण देते हैं। ‘एक और नेता के सामने गृहयुद्ध या फिर गलत को सहते हुए बनी हुई एकता में से चुनाव था…’ और उसने क्या और क्यों चुना, और फिर क्या हुआ यह बताने की आवश्यकता नहीं…

मोदी का चेहरा अच्‍छा नहीं था, इसलिए पत्‍नी ने छोड़ा: कॉन्ग्रेस MLA जमीर अहमद खान

कर्नाटक में कॉन्ग्रेस व उसके मित्रों के खेमे से प्रधानमंत्री मोदी के चेहरे को लेकर रोज अलग-अलग बयान आ रहे हैं। पहले कर्नाटक के मुख्यमंत्री कुमारास्वामी शिकायत करते हैं कि मोदी वैक्सिंग करा के आते हैं और उनका चेहरा चमकता रहता है, इसलिए हमें फुटेज नहीं मिलती। अब उनके मंत्री और कॉन्ग्रेस के विधायक जमीर अहमद खान ने कहा कि ‘मोदी का चेहरा अच्छा नहीं था, इसीलिए उनकी पत्नी ने उन्हें त्याग दिया।’

‘कौन देगा मोदी के चेहरे पर वोट?’

जमीर अहमद ने पत्रकारों से बात करते हुए भाजपा के लोकसभा सदस्य शिवकुमार के उदासी का जिक्र करते हुए कहा कि वह (शिवकुमार) दो बार के भाजपा एमपी हैं पर वह अपने काम की बजाय मोदी के नाम और चेहरे पर वोट माँग रहे हैं। उनकी इसी अपील की खिल्ली उड़ाने में खान को मर्यादा का भी होश न रहा, और वो आगे कह बैठे कि मोदी का चेहरा अच्छा नहीं था, इसीलिए उनकी पत्नी ने उन्हें त्याग दिया। ऐसे चेहरे पर वोट देना चाहिए क्या लोगों को, उन्होंने यह भी पूछा।

मोदी की पत्नी को हमेशा से घसीटते रहे हैं विपक्षी नेता

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के व्यक्तिगत जीवन, खासकर कि उनकी पत्नी के साथ उनके विवादस्पद सम्बन्ध, सदा ही विपक्षी नेताओं के लिए हल्का निशाना रहे हैं। पिछले लोकसभा चुनावों के दौरान भी उनके और पत्नी के अलगाव को लेकर जमकर छींटाकशी हुई थी।

इन चुनावों के दौरान भी आंध्र के मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू ने कहा कि मोदी परिवार प्रणाली का सम्मान नहीं करते क्योंकि उन्होंने अपनी पत्नी को छोड़ दिया है। तीन तलाक को आपराधिक बनाने के मोदी सरकार के निर्णय के विरुद्ध भी चौधरी अजित सिंह ने कहा कि उन्होंने अपनी पत्नी को बिना एक भी बार तलाक बोले छोड़ दिया था

देखिए राहुल के मनगढ़ंत आँकड़े कितने तेजी से बदल रहे हैं

यहाँ तक कि भारत के सबसे अमीर व्यक्ति मुकेश अंबानी और अन्य उद्योगपति कॉन्ग्रेस नेता मिलिंद देवड़ा की उम्मीदवारी का समर्थन करते हैं। फिर भी पार्टी अध्यक्ष राहुल गाँधी अपने झूठ को रोक नहीं प् रहे हैं कि नरेंद्र मोदी ने भारत में अमीर उद्योगपतियों के कई लाख करोड़ रुपए  का कर्ज माफ किया है।

कई मौकों पर, राहुल गाँधी ने कहा है कि 15 सबसे अमीर उद्योगपतियों द्वारा 3.5 लाख करोड़ रूपए का ऋण मोदी सरकार द्वारा माफ किया गया है। लेकिन सभी मुद्दों की तरह वह मोदी सरकार पर हमला करने के लिए जिस राशि का उपयोग करते हैं वह लगातार उनके हर भाषण के साथ बदलती रहती है। अर्थात जब उनके जो मन में आता है उसी राशि का वह आरोप लगाने की कोशिश करते हैं। अब मैं यहाँ यह नहीं कहूँगा कि उनकी स्मृति में कुछ लोचा है। बल्कि, चूँकि आँकड़े ही झूठे हैं तो क्या फर्क पड़ता है कुछ भी बोल दो।

नवंबर 2016 में, राहुल गाँधी ने दावा किया कि मोदी सरकार ने तब बड़े उद्योगपतियों के 1.1 लाख करोड़ रुपए के ऋण माफ कर दिए थे। 2017 में गुजरात विधानसभा चुनावों के लिए प्रचार के दौरान, राहुल गाँधी ने बेवजह इस आँकड़े को 20,000 करोड़ रुपए और  बढ़ाकर 1.3 लाख करोड़ रुपए कर दिया। कर्नाटक में, उन्होंने एक कदम आगे बढ़कर एक और शानदार आँकड़ा हासिल किया- 2.5 लाख करोड़ रुपए जो कि माफ कर दिए गए थे।

उसके बाद, राहुल गाँधी के अनुसार उद्योगपतियों के लिए माफ की गई राशि पर कोई प्रतिबंध नहीं लगाया गया है, हालाँकि, इस छूट के लाभार्थियों की संख्या देश के 15 सबसे अमीर उद्योगपतियों में से एक ही है।

अब, राहुल गाँधी द्वारा ऐसे तमाम दावा किए जाने के बाद, माफी की विभिन्न मात्राओं को संकलित करते हुए एक वीडियो बनाया गया है। खैर, यह पहले ही सोशल मीडिया पर वायरल हो चुका है। वीडियो में, यह देखा जा सकता है कि मोदी सरकार ने कैसे 5.50 लाख करोड़ / 3.50 लाख करोड़ / 3.00 लाख करोड़ / 2.50 लाख करोड़ / 1.50 लाख करोड़ / 1.40 लाख करोड़ / 1.30 लाख करोड़ / 1.10 लाख करोड़ रुपए का ऋण माफ किया है उद्योगपतियों का।

अभी चुनाव प्रचार चल ही रहा है हो सकता है इस दौरान आपको और भी कई नए आँकड़े सुनने को मिले। आप भी तब तक इन आँकड़ों का मज़ा लीजिए। बाकी कॉन्ग्रेस का न कभी उद्योग से नाता रहा है, न उद्योगपतियों से अगर रहा भी तो अपनी जेबें भरने से, शायद तभी तो विकास कॉन्ग्रेस के लिए कभी मुद्दा ही नहीं रहा।

बेटे रेहान के साथ दिखी रॉबर्ट वाड्रा की पत्नी प्रियंका, लोगों ने कहा भविष्य के ‘पप्पू अध्यक्ष’ ले रहे हैं ‘ट्रेनिंग’

मनी लॉन्ड्रिंग के मामले में रोजाना ED ऑफिस के चक्कर काट रहे रॉबर्ट वाड्रा की पत्नी प्रियंका गाँधी आज चुनावी रैली में अपने बच्चों के साथ नजर आई। अक्सर वंशवाद जैसे आरोप झेलने वाली कॉन्ग्रेस पार्टी के लिए यह कोई नई बात नहीं थी, लेकिन जनता की इस पर प्रतिक्रिया दिलचस्प नजर आती है। भारतीय जनता पार्टी वंशवाद को लेकर कॉन्ग्रेस पर लगातार हमलावर रहती है। इसके बीच कॉन्ग्रेस महासचिव और कॉन्ग्रेस पार्टी अध्यक्ष राहुल गाँधी की बहन प्रियंका वाड्रा ने गाँधी परिवार की अगली पीढ़ी को राजनीति की ‘ट्रेनिंग’ देनी शुरू कर दी है।

केरल की वायनाड सीट पर अपने भाई और कॉन्ग्रेस अध्यक्ष राहुल गाँधी के लिए प्रचार करने गई प्रियंका गाँधी के साथ मंच पर उनके बेटा और बेटी रेहान और मिराया भी नजर आए। प्रियंका गाँधी के कहने पर उन्होंने उपस्थित भीड़ का हाथ हिलाकर अभिवादन भी किया।

ट्विटर पर इन तस्वीरों को देखकर यूजर्स ने तुरंत अपनी प्रतिक्रिया देनी शुरू कर दी। कुछ लोगों ने जवाब में लिखा, “भविष्य के कॉन्ग्रेस के चेहरे तैयार किए जा रहे हैं! नो वंडर 10 साल के बाद ये युवा कॉन्ग्रेस के दावेदार होंगे! खानदानी पेशा जो है राजनीति का।”

वहीं ‘यो यो फन्नी सिंह’ ने जवाब देते हुए लिखा, “कॉन्ग्रेस के भविष्य के मालिक।”

इसी तरह अन्य यूजर्स ने लिखा कॉन्ग्रेस के भविष्य के अध्यक्ष , तो कुछ ने प्रियंका गाँधी के बच्चों की तस्वीर पर ‘फन’ लेते हुए लिखा, “भविष्य के पप्पू।”

एक ट्विटर यूजर ने इस फोटो पर प्रतिक्रिया देते हुए लिखा, “गाँधी परिवार है साहब, यहाँ अध्यक्ष, उपाध्यक्ष पैदा होते है कार्यकर्ता नहीं।”

रॉबर्ट वाड्रा की पत्नी प्रियंका वाड्रा के भाई राहुल गाँधी इस बार अमेठी के साथ-साथ केरल की वायनाड संसदीय सीट से भी चुनाव लड़ रहे हैं। यहाँ से वह पिछले सप्ताह ही नामांकन-पत्र भी दाखिल कर चुके हैं। उनके गुणों का बखान करते हुए प्रियंका ने कहा, “मैं उस व्यक्ति के लिए यहाँ आई हूँ, जिसे मैं उनके पैदा हुए दिन से जानती हूँ। वह इस चुनाव में आपके उम्मीदवार होंगे। वह पिछले 10 सालों से अपने विरोधियों के व्यक्तिगत हमलों का सामना कर रहे हैं। विपक्ष ने उनकी एक ऐसी छवि गढ़ने की कोशिश की है, जो सच्चाई से बहुत दूर है।”

चुनाव आयोग आख़िर चाहता क्या है?

बड़े-बुजुर्गों ने लिखा था, ‘अति सर्वत्र वर्जयेत्’। मुझे पक्का लग रहा है चुनाव आयोग में किसी ने यह नहीं पढ़ा होगा। चुनावों में गलत आचरण रोकने के आदरणीय, सम्माननीय कार्य से आगे बढ़कर चुनाव आयोग वह लक्ष्मण रेखा पार कर चुका है जहाँ से वह लोगों के निजी जीवन और संविधान-प्रदत्त स्वतंत्रता में बाधक बन गया है। और अब शनैः-शनैः लोगों की सहन-क्षमता चुक रही है।

मोदी की बायोपिक पर रोक लगा दी जबकि वह एक विशुद्ध कमर्शियल सिनेमा है; योगी पर तब रोक लगा दी जब उन्होंने यह कहा कि वह खुद बजरंग बली के भरोसे हैं, यह नहीं कि लोगों को उन्हें वोट इसलिए देना चाहिए; दो किताबों के बारे में विमर्श पर केवल इसलिए रोक लगा दी क्योंकि एक चुनाव अधिकारी को ‘आभास’ हुआ (बिना एक कतरे सबूत के) कि यह कार्यक्रम मोदी के समर्थन का है। अब मोदी के जीवन पर आधारित वेब सीरीज़ का प्रसारण रोकने का नोटिस भेजा है।

आचार संहिता केवल नेताओं, पार्टियों और उम्मीदवारों के लिए होती है

शायद वह समय आ गया है कि चुनाव आयोग को खुद अपनी आचार संहिता खोल कर पढ़ ही लेनी चाहिए। उसमें उम्मीदवार (candidate) का जिक्र 28 बार है, दलों (party/parties) का 53 दफा, नेता (leader) 2 बार, और कार्यकर्ता (worker) की बात 6 बार की गई है। महज़ 1 बार नागरिक (citizen) का उल्लेख है, वह भी संविधान के सन्दर्भ में, न कि नागरिक को कोई दिशा-निर्देश देते हुए।

मतलब साफ है कि खुद आचार संहिता केवल नेताओं, पार्टियों, उम्मीदवारों और कार्यकर्ताओं के लिए होती है, न कि आम नागरिकों के लिए। पर इन चुनावों में तो ऐसा लग रहा है कि चुनाव आयोग पार्टियों और नेताओं से ज्यादा लोगों का मुँह दबाने में मुस्तैद है; उनकी जीविका तक को निशाना बनाने में नहीं हिचकिचा रहा। दो नागरिकों मानोशी सिन्हा और आभास मालदहियार की किताबों का विमोचन रोक दिया चुनाव आयोग ने, अभिनेता विवेक ओबरॉय की जीविका फिल्म-एक्टिंग पर रोक लगाई, सुप्रीम कोर्ट को बीच-बचाव करना पड़ा, और अब अपेक्षाकृत कम जाने-पहचाने कलाकारों को लेकर बनी कम बजट की और महज दस एपिसोड की वेब सीरीज ‘मोदी- जर्नी ऑफ़ अ कॉमन मैन’ पर रोक लगाई है।

क्यों भई? क्या मानोशी सिन्हा को अपनी किताब बेचने का हक़ नहीं है? उन्होंने न जाने कितने महीनों (या सालों) मेहनत की होगी किताब के लिए शोध में- उनकी किताब ‘Saffron Swords’ तो भारत के इतिहास के बारे में है, उस समय के बारे में है जब आज के राजनीतिक परिदृश्य के खिलाड़ी मोदी और राहुल गाँधी के लकड़दादा भी पैदा नहीं हुए होंगे।

आभास की किताब #Modi Again का नाम भले मोदी पर है पर किताब के पिछले कवर के ‘ब्लर्ब’ से साफ़ है कि किताब मोदी पर नहीं, आभास की खुद की यात्रा पर है- मार्क्सवाद से मोहभंग की उनकी यात्रा, जिसकी कहानी अपनी मर्जी के माध्यम से, अपनी मर्जी की सार्वजानिक जगह पर, अपनी मर्जी के समय पर सुनाना उनका पूरा हक है।

शक के आधार पर लगेगी रोक?

विवेक ओबरॉय की फिल्म को प्रतिबंधित करने को लेकर चुनाव आयोग ने दलील दी कि फिल्म में दिखाए गए राजनैतिक दृश्य सोशल मीडिया में प्रचारित हो रही चीज़ों को सच मानने का भ्रम उत्पन्न कर सकते हैंकर सकते हैं। एक बार फिर से पढ़िए, ताकि समझ में आ जाए कि जोर क्यों दिया जा रहा है। कर सकते हैं

यानि कोई तथ्य, कोई सबूत नहीं कि फिल्म में भ्रामक सामग्री है ही, केवल एक शक है। शक के आधार पर किसी की आजीविका पर लात मारने का अधिकार कहाँ से आया चुनाव आयोग के पास आया? शक के आधार पर पुलिस आज देशद्रोह के मामले तक में गिरफ़्तारी करने से हिचकिचा रही है, और चुनाव आयोग को शक के आधार पर लोगों की सालों की मेहनत, न जाने कितने लोगों की उससे जुड़ी आजीविका, और संविधान-प्रदत्त अधिकारों को कुचलने का हक़ मिल गया है?

उसके संवैधानिक दर्जे का सम्मान देश करता है, पर क्या चुनाव आयोग खुद नागरिकों को संविधान में दिए गए बोलने की आजादी के हक का सम्मान कर रहा है? सुप्रीम कोर्ट अनेकों बार ‘संविधान के मूल ढाँचे’ को हर कानून से बड़ा मान चुका है। क्या मानोशी-आभास का अपनी बात अपनी मर्जी के समय पर कहने का अधिकार, विवेक ओबरॉय और वेब सीरीज के प्रोड्यूसरों का बाजार की माँग के हिसाब से अपने व्यवसाय का पालन करने का हक संविधान के मूल ढाँचे वाले आदेश के दायरे में नहीं हैं? या चुनाव आयोग के आदेश पर संविधान के उपरोक्त अनुच्छेद और सुप्रीम कोर्ट के ‘मूल ढाँचे’ से जुड़े आदेश लागू ही नहीं होते हैं?

कानूनी आधार भी है कमजोर  

कानून के जानकारों के अनुसार चुनाव आयोग अपने इस तरह के आदेशों के लिए सहारा लेता है आचार संहिता के एक अस्पष्ट नियम का। उसकी आचार संहिता का एक नियम सत्तारूढ़ राजनीतिक दल द्वारा सार्वजनिक धन के प्रयोग से किसी एक राजनीतिक के पक्ष में प्रचार में विज्ञापन चलाने पर रोक लगाता है। और आज आयोग आज हर किताब और फिल्म को विज्ञापन मान रहा है।

क्या आयोग को किताब और विज्ञापन में अंतर नहीं पता? विज्ञापन देखने वाले को उसे देखने का पैसा नहीं देना पड़ता, जबकि फिल्म और किताब का उपभोग करने वाले अपनी जेब से पैसा खर्च कर के उन्हें देखते और पढ़ते हैं। आम प्रचलन की इतनी मूलभूत चीजों की परिभाषा से छेड़छाड़ किस आधार पर हो रही है?

और अगर मान भी लें कि चुनाव आयोग को हर माध्यम को हर तरफ से ‘विज्ञापन’ मानने का हक़ भी है, तो भी चुनाव आयोग का यह नियम, खुद उसकी वेबसाइट के मुताबिक:

  1. (केवल??) राजनीतिक दलों के लिए है- यानि यह नियम तो उम्मीदवारों पर भी लगाना प्रश्नवाचक होगा, प्राइवेट नागरिकों की तो बात ही अलग है
  2. सार्वजनिक धन का एक राजनीतिक पार्टी के पक्ष में व्यय रोकने के लिए है- यह प्राइवेट नागरिकों के धन से बनी वेब सीरीज़ और छपी किताबों पर किस आधार पर लागू होगा?

चुनाव आयोग को कुछ असहज करते प्रश्नों का जवाब देने की जरूरत है। नहीं तो वह जनता का भरोसा खो देगा। और यह लोकतंत्र के लिए कतई शुभ नहीं होगा।