Monday, September 30, 2024
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कमाल ‘अतातुर्क’ का ख़ूनी जुनून था जिन्ना के सर पर: अभिजित चावड़ा

थ्योरेटिकल फिजिसिस्ट, लेखक और इतिहास-भूराजनीति के जानकार अभिजित चावड़ा ने हाल ही में दिल्ली में भारत के बंटवारे, तुर्की के इस्लामिक इतिहास में इसकी जड़ों, और गाँधी जी की इसमें भूमिका पर संक्षिप्त वक्तव्य दिया। सृजन फाउंडेशन द्वारा आयोजित इस कार्यक्रम में उन्होंने जिन्ना के मुस्तफ़ा कमाल ‘अतातुर्क’ के प्रति जुनून का संबंध भारत के 1947 में विभाजन से सिद्ध किया, ‘महात्मा’ मोहनदास करमचंद गाँधी की इस पूरे कालखंड में भूमिका का संक्षिप्त अन्वेषण किया, और कमाल अतातुर्क व गाँधी के नेतृत्व में अंतर का विश्लेषण किया।

प्रथम विश्वयुद्ध में अतातुर्क का उदय, खलीफाई के अंत का प्रारंभ

प्रथम विश्वयुद्ध में तुर्की पर शासन कर रहे उस्मानी (Ottoman) खलीफ़ा ने जर्मनी और ‘केन्द्रीय राष्ट्रों’ (Central Powers) का साथ इसलिए दिया था क्योंकि ईसाई-बहुल यूरोप की बड़ी राजनीतिक ताकतों में इकलौता जर्मनी था जो उस्मानिया खलीफाई का समर्थक था। दरअसल अपनी स्थापना के समय से ही उस्मानी खलीफाओं ने तुर्की में गैर-इस्लामियों, जिनमें बहुतायत ईसाईयों की थी, के ऊपर भयावह अत्याचार किए थे। इसके अलावा यूनान की उस्मानी साम्राज्य से आज़ादी के संघर्ष के समय भी यूनानियों और ईसाईयों के कई सामूहिक हत्याकाण्ड हुए थे। चूँकि यूनान पाश्चात्य जगत में पाश्चात्य सभ्यता का जन्मस्थान माना जाता है, अतः अधिकांश पश्चिमी देशों के सम्बन्ध तुर्की के साथ तनावपूर्ण या खुली शत्रुता के थे- केवल जर्मनी इसका अपवाद था।

पर प्रथम विश्वयुद्ध में जर्मनी और केन्द्रीय राष्ट्रों की पराजय हुई, और इंग्लैंड, फ़्रांस, और रूस के नेतृत्व वाले मित्र राष्ट्रों ने तुर्की के पर कतरते हुए उसे केवल उत्तरी और केन्द्रीय एनाटोलिया तक सीमित कर दिया। हालाँकि मित्र राष्ट्रों ने उस्मानिया खलीफाई को आधिकारिक तौर पर ख़त्म नहीं किया, पर खलीफाई का अंत यहीं से शुरू हुआ।

इस युद्ध में तुर्की भले हार गया, पर उसे मुस्तफ़ा कमाल के रूप में नया नायक मिला। युद्ध में मुस्तफ़ा कमाल ने अपनी अपेक्षाकृत कमज़ोर टुकड़ी के साथ गलीपोली नामक मोर्चे पर अंग्रेज़ों और मित्र देशों की सेनाओं से लोहा लिया। लोहा ही नहीं लिया, बल्कि अपने युद्ध कौशल और नेतृत्व क्षमता का अद्भुत प्रदर्शन करते हुए जीत भी हासिल की। इससे तुर्की में उनकी ताकत जनता और शासक वर्ग दोनों में बढ़नी शुरू हुई। और अंततः एक स्टाफ़ कप्तान से शुरुआत करने वाले मुस्तफ़ा कमाल ने तुर्की में उस्मानिया खलीफाओं की खलीफाई का अंत कर तुर्की में एक पंथनिरपेक्ष गणराज्य की स्थापना की।

गाँधी के खाद-पानी पर बढ़ी हिंदुस्तानियत को दबाती इस्लामी पहचान

खलीफा अब्दुल हमीद (1876–1909) ने अपनी सत्ता बचाने के लिए और तुर्की में ‘पाश्चात्य विचार’ लोकतंत्र को कुचलने के लिए 19वीं शताब्दी के अंत में ही दुनिया के हर हिस्से में अपने ‘दूत’ भेजने शुरू कर दिए थे। उसी बीज की बिना पर मौलाना मुहम्मद अली जौहर और उनके भाई शौकत अली ने खिलाफ़त आन्दोलन की नींव रखी।

अभिजित चावड़ा के मुताबिक, इस आन्दोलन ने पहली बार इस विचारधारा की पुष्टि कर दी कि हिन्दुस्तानी मुस्लिमों की पहली वफ़ादारी इस देश और इसके लोगों के प्रति नहीं, मज़हबी आधार पर इस देश के बाहर इस्लामी ‘उम्मा’ के प्रति है। इस आन्दोलन ने पहचानों के संघर्ष में ‘मुस्लिम’ को ‘हिन्दुस्तानी’ के ऊपर रखने का सन्देश मुस्लिमों में पुख्ता किया। यही नहीं, गाँधी समेत कॉन्ग्रेस नेताओं का समर्थन ही इस मज़हबी आन्दोलन का जनाधार बढ़ाने में निर्णायक हुआ।

एक गुमनाम-से ट्विटर अकाउंट को किसी लाखों-करोड़ों ‘फॉलोअर्स’ वाले ट्विटर अकाउंट द्वारा फॉलो और रीट्वीट किए जाने का उदाहरण देते हुए वह समझाते हैं कि कैसे गाँधी और कॉन्ग्रेस के नेताओं के चलते ही न केवल खिलाफ़त को गैर-मुस्लिम वर्गों का समर्थन मिला, बल्कि मुस्लिमों का भी अधिकतम वर्ग गाँधी और कॉन्ग्रेस के चलते ही खिलाफ़त से जुड़ा। और खिलाफ़त के दौर में भरा गया मज़हबी जहर ही आगे जाकर मुस्लिम लीग-रूपी विषबेल का फल विभाजन बना। इसी दौरान जामिया मिल्लिया इस्लामिया विश्वविद्यालय भी 1920 में हिंदुस्तानियत से अलग इस्लामी पहचान को पोषित करने के लिए ही बना।

खिलाफ़त की शुरुआत करने वाले मौलाना मुहम्मद अली जौहर ने ढाका में मुस्लिम लीग के ज़हरीले प्रस्तावों के आधिकारिक समर्थक बने।

जिन्ना: स्वनिर्वासन में ‘अतातुर्क’ बनने की सनक

हिंदुस्तान के बंटवारे के दूसरे सूत्रधार मुहम्मद अली जिन्ना के बारे में अभिजित खुलासा करते हैं कि जिन्ना तुर्की गणराज्य के संस्थापक मुस्तफ़ा कमाल पाशा ‘अतातुर्क’ की जीवनी से बहुत प्रभावित थे। गाँधी-नेहरू गुट द्वारा भारतीय राजनीति में किनारे लगा दिए गए जिन्ना स्वनिर्वासन में चले गए थे- और वह कभी न लौटते अगर लंदन में उन्होंने अतातुर्क की जीवनी न पढ़ी होती।

अतातुर्क से प्रभावित होकर ही जिन्ना न केवल हिंदुस्तान लौटे और मुस्लिम लीग की कमान अपने हाथ में ले इस देश का खूनी बँटवारा करा कर ही दम लिया, बल्कि उनके ‘Direct Action Day’ जैसे हिंसक पैंतरे भी सीधे-सीधे अतातुर्क द्वारा तुर्की में यूनानियों और अन्य गैर-मुस्लिमों के कत्लेआम की नक़ल थी। उनके अतातुर्क-प्रेम की तस्दीक उनकी बेटी दीना भी करतीं हैं जब वह बतातीं हैं कि जिन्ना कई-कई दिनों तक घर पर केवल तुर्की के राष्ट्रपिता की ही बात करते रहते थे; यहाँ तक कि एक समय दीना ने उन्हें भी अतातुर्क के लिए प्रयुक्त किए जाने वाला उपनाम ‘Grey Wolf’ दे दिया था

पर यहीं से कमाल अतातुर्क और जिन्ना के बीच गंभीर विरोधाभास भी उभरने लगते हैं। अतातुर्क ने बेशक मुसलामानों के कट्टरपन  और इस्लाम के नाम पर सामूहिक हत्याकांडों का इस्तेमाल सत्ता हथियाने के लिए किया, पर सत्ता पार कर उन्होंने जो तुर्की बनाया वह पंथनिरपेक्ष, प्रगतिशील, आधुनिकता की ओर उन्मुख राष्ट्र था; वहाँ की जनता अपने नेता के सेक्युलर इरादों से इतनी नावाकिफ़ थी कि वह ‘पहले खलीफ़ा के दौर में वापिस चलने’ की ख़ुशी मना रही थी। इसके उलट जिन्ना का पाकिस्तान जन्म से ही कट्टरपंथ, मुल्ला-मौलवीवाद में डूब गया।

इसके अलावा जहाँ अतातुर्क ने एक स्पष्ट दृष्टिकोण के अंतर्गत सत्ता केन्द्रीयकृत कर सभी महत्वपूर्ण शक्तियाँ अपने हाथ में रखीं। वहीं दूसरी ओर जिन्ना पाकिस्तान बनते ही ‘राजा बाबू’ “कायदे-आज़म” बना किनारे लगा दी गए। उनके प्रधानमंत्री लियाक़त अली खान ने उन्हें “बाबा-ए-कौम” का उपनाम दे घर के बूढ़े बाबा की तरह खिसका दिया। और विदेश, रक्षा, सीमांत मामले जैसे कद्दावर मंत्रालयों पर केन्द्रीयकृत कब्ज़ा किए रहे।

इन विरोधाभासों से यह साफ़ होता है कि जिन्ना जिस ‘अतातुर्क’ जैसा बनने के लालच में लाखों के खून और करोड़ों विस्थापितों की आहों से अपने हाथ सन बैठे, वे काबिलियत में उस अतातुर्क के सामने कहीं नहीं ठहरते थे। बल्कि शायद नियति की यही विडंबना रही कि अतातुर्क जैसी जिस ताक़त के पीछे वह लाखों की लाशों को सीढ़ी बना भागे, वह उनकी बजाय लियाक़त अली खान की झोली में जा गिरी!!

गाँधी: नेतृत्व क्षमता में अतातुर्क से तुलना

अपने वक्तव्य के आखिर में चावड़ा हमारे सामने एक महत्वपूर्ण प्रश्न रखते हैं- क्या होता अगर हिंदुस्तान में मुस्तफ़ा कमाल पाशा ‘अतातुर्क’ जैसा कोई नेता होता, या फ़िर तुर्की में गाँधी जैसा कोई नेता?

और इस सवाल के जवाब में वे दोनों के नेतृत्व की तुलना करते हैं।

चावड़ा के अनुसार देश को एक नेता से पाँच प्रकार के राष्ट्रीय हितों को सर्वोपरि रखना होता है:

⦁ समृद्धि

⦁ सुरक्षा

⦁ भूक्षेत्रीय अखंडता (यानि देश की ज़मीन देश के हाथों और नियंत्रण में ही रहे)

⦁ स्वनिर्धारण क्षमता (यानि देश के लोग ही अपने भाग्य का निर्णय स्वयं करें)

⦁ सांस्कृतिक अखंडता

इन पाँचों में भी चावड़ा स्वनिर्धारण क्षमता को सबसे महत्वपूर्ण बताते हुए नेता और प्रबंधक में बहुत महत्वपूर्ण अंतर भेड़ों के गड़ेरिये का बताते हैं- गड़ेरिया भेड़ों के खाने से लेकर तबियत तक का ध्यान रखता है, उनकी हर सुख-सुविधा का ख्याल रखता है, उन्हें शिकारी पशुओं जैसे बाहरी खतरों  से भी बचाता है- पर क्यों? इसलिए नहीं कि वह भेड़ों की सेवा कर रहा होता है, बल्कि इसलिए कि उसकी असली निष्ठा भेड़ों के ‘ऊपर’ भेड़ों के ‘मालिक’ के प्रति होती है; उसके लिए भेड़ों की इच्छा का कोई महत्त्व नहीं होता।

उसी तरह जिस ‘नेता’ की असली निष्ठा उन लोगों के प्रति नहीं होती जिनके नेतृत्व और प्रतिनिधित्व का वह दावा करता है, वह नेता नहीं, महज़ एक प्रबंधक होता है। ज़रूरी नहीं वह जनता के साथ बुरा ही सुलूक करे, कभी-कभी वह गड़ेरिये की तरह वह दुलार-पुचकार भी सकता है, पर उसका मकसद और उसकी निष्ठा लोगों या उनके हित से नहीं जुड़ी होती।

इस उदाहरण को वह गाँधी जी के बँटवारे के दौरान के व्यवहार के समक्ष रख कई प्रश्न पूछते हैं, ऐसे प्रश्न जो शायद गाँधीवादियों को बहुत ज्यादा चुभ सकते हैं:

  • गाँधी जी ने कहा था कि यदि कॉन्ग्रेस विभाजन स्वीकार करती है तो वह ऐसा उनकी लाश के ऊपर से करेगी। विभाजन फिर गाँधी के जीवित रहते कैसे हो गया?

  • गाँधी विभाजन का जुबानी विरोध तो आखिरी समय तक करते रहे, पर उन्होंने विभाजन को असल में रोकने के लिए क्या किया? उनके जैसे प्रभाव-क्षेत्र वाला व्यक्ति अगर एक बार विभाजन के खिलाफ आन्दोलन की पुकार भी दे देता तो सभी न सही, एक बड़ा वर्ग सड़कों पर विभाजन करने और स्वीकार करने वालों के खिलाफ उतर आता। उन्होंने ऐसा क्यों नहीं किया?

  • विभाजन-विरोधी मुस्लिमों के नेता खान अब्दुल गफ्फार खान के गाँधी से आखिरी शब्द थे, ‘आपने हमें भेड़ियों के बीच झोंक दिया है।’ (उनका प्रान्त पख्तूनवा उस समय विभाजन-विरोधी था। पर उसका जबरन विलय पाकिस्तान के साथ हुआ)
    उन्होंने यह जिन्ना या विभाजन कर रहे किसी अन्य नेता की बजाय गाँधी जी को इंगित कर क्यों कहा?

अभिजित इन सवालों का उत्तर ‘क्योंकि गाँधी जी गृह-युद्ध टालना चाहते थे’ मानने से इंकार कर देते हैं। वह अमेरिका के 16वें राष्ट्रपति लिंकन का उदाहरण देते हैं। ‘एक और नेता के सामने गृहयुद्ध या फिर गलत को सहते हुए बनी हुई एकता में से चुनाव था…’ और उसने क्या और क्यों चुना, और फिर क्या हुआ यह बताने की आवश्यकता नहीं…

मोदी का चेहरा अच्‍छा नहीं था, इसलिए पत्‍नी ने छोड़ा: कॉन्ग्रेस MLA जमीर अहमद खान

कर्नाटक में कॉन्ग्रेस व उसके मित्रों के खेमे से प्रधानमंत्री मोदी के चेहरे को लेकर रोज अलग-अलग बयान आ रहे हैं। पहले कर्नाटक के मुख्यमंत्री कुमारास्वामी शिकायत करते हैं कि मोदी वैक्सिंग करा के आते हैं और उनका चेहरा चमकता रहता है, इसलिए हमें फुटेज नहीं मिलती। अब उनके मंत्री और कॉन्ग्रेस के विधायक जमीर अहमद खान ने कहा कि ‘मोदी का चेहरा अच्छा नहीं था, इसीलिए उनकी पत्नी ने उन्हें त्याग दिया।’

‘कौन देगा मोदी के चेहरे पर वोट?’

जमीर अहमद ने पत्रकारों से बात करते हुए भाजपा के लोकसभा सदस्य शिवकुमार के उदासी का जिक्र करते हुए कहा कि वह (शिवकुमार) दो बार के भाजपा एमपी हैं पर वह अपने काम की बजाय मोदी के नाम और चेहरे पर वोट माँग रहे हैं। उनकी इसी अपील की खिल्ली उड़ाने में खान को मर्यादा का भी होश न रहा, और वो आगे कह बैठे कि मोदी का चेहरा अच्छा नहीं था, इसीलिए उनकी पत्नी ने उन्हें त्याग दिया। ऐसे चेहरे पर वोट देना चाहिए क्या लोगों को, उन्होंने यह भी पूछा।

मोदी की पत्नी को हमेशा से घसीटते रहे हैं विपक्षी नेता

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के व्यक्तिगत जीवन, खासकर कि उनकी पत्नी के साथ उनके विवादस्पद सम्बन्ध, सदा ही विपक्षी नेताओं के लिए हल्का निशाना रहे हैं। पिछले लोकसभा चुनावों के दौरान भी उनके और पत्नी के अलगाव को लेकर जमकर छींटाकशी हुई थी।

इन चुनावों के दौरान भी आंध्र के मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू ने कहा कि मोदी परिवार प्रणाली का सम्मान नहीं करते क्योंकि उन्होंने अपनी पत्नी को छोड़ दिया है। तीन तलाक को आपराधिक बनाने के मोदी सरकार के निर्णय के विरुद्ध भी चौधरी अजित सिंह ने कहा कि उन्होंने अपनी पत्नी को बिना एक भी बार तलाक बोले छोड़ दिया था

देखिए राहुल के मनगढ़ंत आँकड़े कितने तेजी से बदल रहे हैं

यहाँ तक कि भारत के सबसे अमीर व्यक्ति मुकेश अंबानी और अन्य उद्योगपति कॉन्ग्रेस नेता मिलिंद देवड़ा की उम्मीदवारी का समर्थन करते हैं। फिर भी पार्टी अध्यक्ष राहुल गाँधी अपने झूठ को रोक नहीं प् रहे हैं कि नरेंद्र मोदी ने भारत में अमीर उद्योगपतियों के कई लाख करोड़ रुपए  का कर्ज माफ किया है।

कई मौकों पर, राहुल गाँधी ने कहा है कि 15 सबसे अमीर उद्योगपतियों द्वारा 3.5 लाख करोड़ रूपए का ऋण मोदी सरकार द्वारा माफ किया गया है। लेकिन सभी मुद्दों की तरह वह मोदी सरकार पर हमला करने के लिए जिस राशि का उपयोग करते हैं वह लगातार उनके हर भाषण के साथ बदलती रहती है। अर्थात जब उनके जो मन में आता है उसी राशि का वह आरोप लगाने की कोशिश करते हैं। अब मैं यहाँ यह नहीं कहूँगा कि उनकी स्मृति में कुछ लोचा है। बल्कि, चूँकि आँकड़े ही झूठे हैं तो क्या फर्क पड़ता है कुछ भी बोल दो।

नवंबर 2016 में, राहुल गाँधी ने दावा किया कि मोदी सरकार ने तब बड़े उद्योगपतियों के 1.1 लाख करोड़ रुपए के ऋण माफ कर दिए थे। 2017 में गुजरात विधानसभा चुनावों के लिए प्रचार के दौरान, राहुल गाँधी ने बेवजह इस आँकड़े को 20,000 करोड़ रुपए और  बढ़ाकर 1.3 लाख करोड़ रुपए कर दिया। कर्नाटक में, उन्होंने एक कदम आगे बढ़कर एक और शानदार आँकड़ा हासिल किया- 2.5 लाख करोड़ रुपए जो कि माफ कर दिए गए थे।

उसके बाद, राहुल गाँधी के अनुसार उद्योगपतियों के लिए माफ की गई राशि पर कोई प्रतिबंध नहीं लगाया गया है, हालाँकि, इस छूट के लाभार्थियों की संख्या देश के 15 सबसे अमीर उद्योगपतियों में से एक ही है।

अब, राहुल गाँधी द्वारा ऐसे तमाम दावा किए जाने के बाद, माफी की विभिन्न मात्राओं को संकलित करते हुए एक वीडियो बनाया गया है। खैर, यह पहले ही सोशल मीडिया पर वायरल हो चुका है। वीडियो में, यह देखा जा सकता है कि मोदी सरकार ने कैसे 5.50 लाख करोड़ / 3.50 लाख करोड़ / 3.00 लाख करोड़ / 2.50 लाख करोड़ / 1.50 लाख करोड़ / 1.40 लाख करोड़ / 1.30 लाख करोड़ / 1.10 लाख करोड़ रुपए का ऋण माफ किया है उद्योगपतियों का।

अभी चुनाव प्रचार चल ही रहा है हो सकता है इस दौरान आपको और भी कई नए आँकड़े सुनने को मिले। आप भी तब तक इन आँकड़ों का मज़ा लीजिए। बाकी कॉन्ग्रेस का न कभी उद्योग से नाता रहा है, न उद्योगपतियों से अगर रहा भी तो अपनी जेबें भरने से, शायद तभी तो विकास कॉन्ग्रेस के लिए कभी मुद्दा ही नहीं रहा।

बेटे रेहान के साथ दिखी रॉबर्ट वाड्रा की पत्नी प्रियंका, लोगों ने कहा भविष्य के ‘पप्पू अध्यक्ष’ ले रहे हैं ‘ट्रेनिंग’

मनी लॉन्ड्रिंग के मामले में रोजाना ED ऑफिस के चक्कर काट रहे रॉबर्ट वाड्रा की पत्नी प्रियंका गाँधी आज चुनावी रैली में अपने बच्चों के साथ नजर आई। अक्सर वंशवाद जैसे आरोप झेलने वाली कॉन्ग्रेस पार्टी के लिए यह कोई नई बात नहीं थी, लेकिन जनता की इस पर प्रतिक्रिया दिलचस्प नजर आती है। भारतीय जनता पार्टी वंशवाद को लेकर कॉन्ग्रेस पर लगातार हमलावर रहती है। इसके बीच कॉन्ग्रेस महासचिव और कॉन्ग्रेस पार्टी अध्यक्ष राहुल गाँधी की बहन प्रियंका वाड्रा ने गाँधी परिवार की अगली पीढ़ी को राजनीति की ‘ट्रेनिंग’ देनी शुरू कर दी है।

केरल की वायनाड सीट पर अपने भाई और कॉन्ग्रेस अध्यक्ष राहुल गाँधी के लिए प्रचार करने गई प्रियंका गाँधी के साथ मंच पर उनके बेटा और बेटी रेहान और मिराया भी नजर आए। प्रियंका गाँधी के कहने पर उन्होंने उपस्थित भीड़ का हाथ हिलाकर अभिवादन भी किया।

ट्विटर पर इन तस्वीरों को देखकर यूजर्स ने तुरंत अपनी प्रतिक्रिया देनी शुरू कर दी। कुछ लोगों ने जवाब में लिखा, “भविष्य के कॉन्ग्रेस के चेहरे तैयार किए जा रहे हैं! नो वंडर 10 साल के बाद ये युवा कॉन्ग्रेस के दावेदार होंगे! खानदानी पेशा जो है राजनीति का।”

वहीं ‘यो यो फन्नी सिंह’ ने जवाब देते हुए लिखा, “कॉन्ग्रेस के भविष्य के मालिक।”

इसी तरह अन्य यूजर्स ने लिखा कॉन्ग्रेस के भविष्य के अध्यक्ष , तो कुछ ने प्रियंका गाँधी के बच्चों की तस्वीर पर ‘फन’ लेते हुए लिखा, “भविष्य के पप्पू।”

एक ट्विटर यूजर ने इस फोटो पर प्रतिक्रिया देते हुए लिखा, “गाँधी परिवार है साहब, यहाँ अध्यक्ष, उपाध्यक्ष पैदा होते है कार्यकर्ता नहीं।”

रॉबर्ट वाड्रा की पत्नी प्रियंका वाड्रा के भाई राहुल गाँधी इस बार अमेठी के साथ-साथ केरल की वायनाड संसदीय सीट से भी चुनाव लड़ रहे हैं। यहाँ से वह पिछले सप्ताह ही नामांकन-पत्र भी दाखिल कर चुके हैं। उनके गुणों का बखान करते हुए प्रियंका ने कहा, “मैं उस व्यक्ति के लिए यहाँ आई हूँ, जिसे मैं उनके पैदा हुए दिन से जानती हूँ। वह इस चुनाव में आपके उम्मीदवार होंगे। वह पिछले 10 सालों से अपने विरोधियों के व्यक्तिगत हमलों का सामना कर रहे हैं। विपक्ष ने उनकी एक ऐसी छवि गढ़ने की कोशिश की है, जो सच्चाई से बहुत दूर है।”

चुनाव आयोग आख़िर चाहता क्या है?

बड़े-बुजुर्गों ने लिखा था, ‘अति सर्वत्र वर्जयेत्’। मुझे पक्का लग रहा है चुनाव आयोग में किसी ने यह नहीं पढ़ा होगा। चुनावों में गलत आचरण रोकने के आदरणीय, सम्माननीय कार्य से आगे बढ़कर चुनाव आयोग वह लक्ष्मण रेखा पार कर चुका है जहाँ से वह लोगों के निजी जीवन और संविधान-प्रदत्त स्वतंत्रता में बाधक बन गया है। और अब शनैः-शनैः लोगों की सहन-क्षमता चुक रही है।

मोदी की बायोपिक पर रोक लगा दी जबकि वह एक विशुद्ध कमर्शियल सिनेमा है; योगी पर तब रोक लगा दी जब उन्होंने यह कहा कि वह खुद बजरंग बली के भरोसे हैं, यह नहीं कि लोगों को उन्हें वोट इसलिए देना चाहिए; दो किताबों के बारे में विमर्श पर केवल इसलिए रोक लगा दी क्योंकि एक चुनाव अधिकारी को ‘आभास’ हुआ (बिना एक कतरे सबूत के) कि यह कार्यक्रम मोदी के समर्थन का है। अब मोदी के जीवन पर आधारित वेब सीरीज़ का प्रसारण रोकने का नोटिस भेजा है।

आचार संहिता केवल नेताओं, पार्टियों और उम्मीदवारों के लिए होती है

शायद वह समय आ गया है कि चुनाव आयोग को खुद अपनी आचार संहिता खोल कर पढ़ ही लेनी चाहिए। उसमें उम्मीदवार (candidate) का जिक्र 28 बार है, दलों (party/parties) का 53 दफा, नेता (leader) 2 बार, और कार्यकर्ता (worker) की बात 6 बार की गई है। महज़ 1 बार नागरिक (citizen) का उल्लेख है, वह भी संविधान के सन्दर्भ में, न कि नागरिक को कोई दिशा-निर्देश देते हुए।

मतलब साफ है कि खुद आचार संहिता केवल नेताओं, पार्टियों, उम्मीदवारों और कार्यकर्ताओं के लिए होती है, न कि आम नागरिकों के लिए। पर इन चुनावों में तो ऐसा लग रहा है कि चुनाव आयोग पार्टियों और नेताओं से ज्यादा लोगों का मुँह दबाने में मुस्तैद है; उनकी जीविका तक को निशाना बनाने में नहीं हिचकिचा रहा। दो नागरिकों मानोशी सिन्हा और आभास मालदहियार की किताबों का विमोचन रोक दिया चुनाव आयोग ने, अभिनेता विवेक ओबरॉय की जीविका फिल्म-एक्टिंग पर रोक लगाई, सुप्रीम कोर्ट को बीच-बचाव करना पड़ा, और अब अपेक्षाकृत कम जाने-पहचाने कलाकारों को लेकर बनी कम बजट की और महज दस एपिसोड की वेब सीरीज ‘मोदी- जर्नी ऑफ़ अ कॉमन मैन’ पर रोक लगाई है।

क्यों भई? क्या मानोशी सिन्हा को अपनी किताब बेचने का हक़ नहीं है? उन्होंने न जाने कितने महीनों (या सालों) मेहनत की होगी किताब के लिए शोध में- उनकी किताब ‘Saffron Swords’ तो भारत के इतिहास के बारे में है, उस समय के बारे में है जब आज के राजनीतिक परिदृश्य के खिलाड़ी मोदी और राहुल गाँधी के लकड़दादा भी पैदा नहीं हुए होंगे।

आभास की किताब #Modi Again का नाम भले मोदी पर है पर किताब के पिछले कवर के ‘ब्लर्ब’ से साफ़ है कि किताब मोदी पर नहीं, आभास की खुद की यात्रा पर है- मार्क्सवाद से मोहभंग की उनकी यात्रा, जिसकी कहानी अपनी मर्जी के माध्यम से, अपनी मर्जी की सार्वजानिक जगह पर, अपनी मर्जी के समय पर सुनाना उनका पूरा हक है।

शक के आधार पर लगेगी रोक?

विवेक ओबरॉय की फिल्म को प्रतिबंधित करने को लेकर चुनाव आयोग ने दलील दी कि फिल्म में दिखाए गए राजनैतिक दृश्य सोशल मीडिया में प्रचारित हो रही चीज़ों को सच मानने का भ्रम उत्पन्न कर सकते हैंकर सकते हैं। एक बार फिर से पढ़िए, ताकि समझ में आ जाए कि जोर क्यों दिया जा रहा है। कर सकते हैं

यानि कोई तथ्य, कोई सबूत नहीं कि फिल्म में भ्रामक सामग्री है ही, केवल एक शक है। शक के आधार पर किसी की आजीविका पर लात मारने का अधिकार कहाँ से आया चुनाव आयोग के पास आया? शक के आधार पर पुलिस आज देशद्रोह के मामले तक में गिरफ़्तारी करने से हिचकिचा रही है, और चुनाव आयोग को शक के आधार पर लोगों की सालों की मेहनत, न जाने कितने लोगों की उससे जुड़ी आजीविका, और संविधान-प्रदत्त अधिकारों को कुचलने का हक़ मिल गया है?

उसके संवैधानिक दर्जे का सम्मान देश करता है, पर क्या चुनाव आयोग खुद नागरिकों को संविधान में दिए गए बोलने की आजादी के हक का सम्मान कर रहा है? सुप्रीम कोर्ट अनेकों बार ‘संविधान के मूल ढाँचे’ को हर कानून से बड़ा मान चुका है। क्या मानोशी-आभास का अपनी बात अपनी मर्जी के समय पर कहने का अधिकार, विवेक ओबरॉय और वेब सीरीज के प्रोड्यूसरों का बाजार की माँग के हिसाब से अपने व्यवसाय का पालन करने का हक संविधान के मूल ढाँचे वाले आदेश के दायरे में नहीं हैं? या चुनाव आयोग के आदेश पर संविधान के उपरोक्त अनुच्छेद और सुप्रीम कोर्ट के ‘मूल ढाँचे’ से जुड़े आदेश लागू ही नहीं होते हैं?

कानूनी आधार भी है कमजोर  

कानून के जानकारों के अनुसार चुनाव आयोग अपने इस तरह के आदेशों के लिए सहारा लेता है आचार संहिता के एक अस्पष्ट नियम का। उसकी आचार संहिता का एक नियम सत्तारूढ़ राजनीतिक दल द्वारा सार्वजनिक धन के प्रयोग से किसी एक राजनीतिक के पक्ष में प्रचार में विज्ञापन चलाने पर रोक लगाता है। और आज आयोग आज हर किताब और फिल्म को विज्ञापन मान रहा है।

क्या आयोग को किताब और विज्ञापन में अंतर नहीं पता? विज्ञापन देखने वाले को उसे देखने का पैसा नहीं देना पड़ता, जबकि फिल्म और किताब का उपभोग करने वाले अपनी जेब से पैसा खर्च कर के उन्हें देखते और पढ़ते हैं। आम प्रचलन की इतनी मूलभूत चीजों की परिभाषा से छेड़छाड़ किस आधार पर हो रही है?

और अगर मान भी लें कि चुनाव आयोग को हर माध्यम को हर तरफ से ‘विज्ञापन’ मानने का हक़ भी है, तो भी चुनाव आयोग का यह नियम, खुद उसकी वेबसाइट के मुताबिक:

  1. (केवल??) राजनीतिक दलों के लिए है- यानि यह नियम तो उम्मीदवारों पर भी लगाना प्रश्नवाचक होगा, प्राइवेट नागरिकों की तो बात ही अलग है
  2. सार्वजनिक धन का एक राजनीतिक पार्टी के पक्ष में व्यय रोकने के लिए है- यह प्राइवेट नागरिकों के धन से बनी वेब सीरीज़ और छपी किताबों पर किस आधार पर लागू होगा?

चुनाव आयोग को कुछ असहज करते प्रश्नों का जवाब देने की जरूरत है। नहीं तो वह जनता का भरोसा खो देगा। और यह लोकतंत्र के लिए कतई शुभ नहीं होगा।

नकली भक्त राहुल गाँधी के कॉन्ग्रेस ने किया राम, भगवा ध्वज और त्रिपुण्ड का अपमान

कॉन्ग्रेस ने भक्त चरित्र के नाम से एक नया प्रचार वीडियो जारी किया है। उस पर बात करने से पहले कॉन्ग्रेस और नेहरुवियन चरित्र की बात कर ली जाए तो अफ़सोस होता है कि जब-जब देश उन्नति की तरफ बढ़ा, इनका पूरा तंत्र देश का अपने मतलब और राजनीतिक स्वार्थ के लिए दोहन करने में शोषण की हद तक लग गया। इतिहास के पन्ने खंगाले जाए तो पता चलेगा कि कॉन्ग्रेस का हाथ देश को पंगु करने में कितनी सक्रियता से सक्रीय रहा है।

इसी कॉन्ग्रेस ने जो आज तक ‘इस्लामी आतंक’ नहीं कह पाई है। आज भी उसके लिए ऐसे किसी आतंक का कोई मज़हब नहीं है। जिसने समय-समय पर देश की बुनियाद को खोखला करने वाले देश विरोधी ताकतों को संरक्षण दिया। इसी कॉन्ग्रेस ने अल्पसंख्यक तुष्टिकरण और हिन्दुओं को बदनाम करने के लिए कभी ‘भगवा आतंक’ का झूठा नैरेटिव खड़ा करने के लिए कैसे पूरा स्क्रिप्ट प्लान किया था। जिसका खुलासा विभिन्न जाँच एजेंसियों के साथ ही RVS मणि की पुस्तक ‘हिन्दू टेरर’ में किया जा चुका है।

आज एक बार फिर, राउल विन्सी उर्फ़ राहुल गाँधी के कॉन्ग्रेस ने शनिवार को अपने आधिकारिक ट्विटर हैंडल के माध्यम से एक वीडियो साझा करके हिन्दुओं को एक बार फिर से बदनाम करने की साजिश की तरफ इशारा किया है। जिसे देखकर किसी भक्त का चरित्र नहीं बल्कि इसके माध्यम से कॉन्ग्रेस का अपना असली चरित्र उजागर हो रहा है।

कभी नकली राम भक्त तो कभी शिव भक्त बने जनेऊधारी राहुल की कॉन्ग्रेस ने चुनावी घमासान में रही-सही कोशिश के रूप में एक ऐसा प्रचार वीडियो जारी किया है। जिसमें एक रैप सॉन्ग के माध्यम से यह कहलवाया गया है कि, “फ़र्ज़ी है, नकली है, ये भक्त चरित्र।” खैर बात राहुल की होती तो सच मान लिया जाता लेकिन वीडिओ में जिस इमेजरी का इस्तेमाल किया गया है। वह फिर से ‘भगवा आतंक’ के फ़र्ज़ी नैरेटिव को कॉन्ग्रेसी चोला पहनाने की कोशिश है।

इसी पार्टी के आलाकमान नेताओं ने इससे पहले भी अपने शासन काल में दिग्विजय सिंह और अन्य नेताओं की अगुवाई में पूरे सिस्टम को पंगु बनाकर इस झूठ को मान्यता प्रदान करने और वैश्विक स्तर पर वसुधैव कुटुंबकम को जीवन का मंत्र बनाने वाले हिन्दुओं को बदनाम करने की साजिश रची थी।

कॉन्ग्रेस के इस वीडियो में, पारंपरिक हिंदू भगवा परिधान पहने हुए कुछ युवाओं को दुर्भावनापूर्ण, घृणित रूप में दंगाई के रूप चित्रित किया गया है। यहाँ कॉन्ग्रेस यह दिखाना चाहती है कि भगवा पोशाक पहने हुए लोग बुरे और दंगाई होते हैं। जबकि रैपर, स्वयं, पश्चिमी कैजुअल्स में है। कॉन्ग्रेस जिन इमेजरी का इस्तेमाल कर हिन्दुओं को बदनाम करने का कुत्सित प्रयास कर रही है। वह राजनीतिक विरोध के नाम पर एक पूरी संस्कृति को बदनाम करने और वामपंथ के चरमपंथ को मान्यता देने की साजिश का हिस्सा है।

ऐसा करते हुए शायद राहुल भूल गए कि उनकी यही कॉन्ग्रेस पिछले 70 सालों में तमात दंगों का सूत्रधार रही है। आज़ादी के बाद से ही कॉन्ग्रेस देश के सामान्य लोगों को दंगों की भेंट चढ़ाती रही है। लिस्ट लम्बी है आपको पता भी है। जो लोग कॉन्ग्रेस के इन कुकृत्यों में आरोपित हैं वह आज MP के मुख्यमंत्री के रूप में नवाजे गए हैं।

और, जिस पर कोई भी आरोप नहीं है, जो इनके शासन काल में इनकी पूरी सत्ता झोंक देने के बाद भी पूरा कॉन्ग्रेसी गिरोह उस व्यक्ति का बाल भी बाक़ा नहीं कर पाई। वह व्यक्ति कॉन्ग्रेस के घोटालों से देश को निकालकर आज प्रगति के पथ पर ले कर चल रहा है। कॉन्ग्रेस का यह पूरा प्रचार तंत्र आज भारत की मूल संस्कृति को निशाने पर लेकर खुद भस्मासुर की भूमिका में आ गया है।

कॉन्ग्रेस का प्रचार गीत “ये कैसा भक्त चरित्र है?” शब्दों के साथ शुरू होता है। राष्ट्रीय राजनीति में नरेंद्र मोदी के आगमन के बाद से, कॉन्ग्रेस के पूरे पारिस्थितिकी तंत्र द्वारा, सभी मीडिया गिरोहों और देश विरोधी ताकतों का इस्तेमाल करते हुए ‘भक्त’ शब्द को गाली बना देने का प्रयास यूँ ही नहीं किया गया है। विदेशी चंदे और विदेशी गोद में झूला झूलने वालों को भारत की सनातन परम्परा का रत्ती भर भी ज्ञान होता तो आज देश को अपने ही घर में शर्मशार नहीं होना पड़ता।

सनातन या सम्पूर्ण हिंदू धर्म में, भक्त शब्द का एक बहुत ही गहरा और पवित्र अर्थ है। यह एक ऐसे बोध को दर्शाता है जो ईश्वर या देवताओं के प्रति भक्ति भाव में रमा हो। पर जिनके लिए धर्म अफ़ीम हो और अफीम और व्यभिचार जीवन का अभिन्न हिस्सा, ऐसे उदारवादियों ने देश के सांस्कृतिक लोकाचार को नष्ट करने के लिए और केवल अपनी घृणा को प्रकट करने के लिए सर्वे-सन्तु-निरामया की संस्कृति को नष्ट करने की साजिश न रचे तो और क्या करें?

वैसे ‘भक्त’ का कोई राजनीतिक अर्थ नहीं है। लेकिन कॉन्ग्रेस पार्टी और उसके मंत्रियों और वामपंथी गिरोह ने इसे राजनीतिक पक्षपात और द्वेष के साथ चित्रित कर इस शब्द को कट्टरता, बुराई, घृणा और कई अन्य नकारात्मक पहलुओं का पर्याय बनाने की भरसक कोशिश की है।

वीडियो में दिखाया गया है कि कैसे हिन्दू और उसके प्रतीक धार्मिक कट्टरवाद के पीछे की ताकत हैं। 2 मिनट 16 सेकंड के वीडियो में पिछले 70 सालों में इस्लामी कट्टरवाद के हिंदू पीड़ितों का एक भी उल्लेख नहीं किया गया है। पूरे वीडियो में, धार्मिक कट्टरता का रंग भगवा दिखाया गया है।

भाजपा के कई नेता वीडियो में दिखते हैं। योगी आदित्यनाथ, विनय कटियार, मेनका गाँधी को विवादित टिप्पणी करते हुए दिखाया गया है। सांप्रदायिक दंगों के चित्र भी दिखाए गए हैं और हर उदाहरण में, हिंदुओं को आक्रामक और समुदाय विशेष को पीड़ित के रूप में दर्शाया गया है। इसकी ख़ासियत के लिए एक विशेष पंक्ति का इस्तेमाल रैपर द्वारा हुआ है, “ढोंगी है, दिखावा है ये अस्तित्व।”

क्या कॉन्ग्रेस यहाँ यह कहना चाहती है कि किसी ऐसे व्यक्ति का अस्तित्व क्यों है जो देवताओं की पूजा करता है और उनके प्रति पूरी तरह से समर्पित है? क्या ईश्वर के प्रति समर्पित होना, हिन्दुओं की आस्था कॉन्ग्रेस के लिए एक दिखावा है? कॉन्ग्रेस की घृणित मानसिकता का चित्रण करता यह वीडिओ, लाखों-करोड़ों हिंदुओं के विश्वास का घोर अपमान है। लेकिन कॉन्ग्रेस पार्टी के इतिहास को देखते हुए, यह शायद ही उसे अपनी गलती का एहसास हो।

इतना ही नहीं वीडियो में हिन्दुओं के धार्मिक प्रतीकों का भी अपमान किया गया है। वीडियो के अंत में, त्रिपुंड और भागवत को स्क्रीन पर ‘भक्त चरित्र’ के रूप में दिखाया गया है। धर्माभिमानी हिंदुओं के लिए, ये पवित्र प्रतीक हैं जो हमारी महान सभ्यता के बहुत ही सामान्य लोकाचार का प्रतिनिधित्व करते हैं।

भगवाध्वज हमारी सभ्यता का रंग है। यह वह बैनर है जिसके तहत हमारे महान पूर्वजों ने हमारी महान सभ्यता का संरक्षण किया, जो भी लुटेरे यहाँ आये वो भी यहाँ की संस्कृति का मूल नष्ट नहीं कर पाए। भगवाध्वज ही था, जिसकी छत्रछाया में छत्रपति शिवाजी महाराज ने इस धरा को गौरवान्वित किया था। इसी ध्वज के तले हमारे पूर्वजों ने न्याय, धर्म, स्वराज का पाठ मानवता को पढ़ाया।

भागवत को कट्टरता और धार्मिक कट्टरवाद के साथ जोड़ना युद्ध के मैदान पर हमारे पूर्वजों द्वारा दिए गए बलिदानों और उनके द्वारा झेली गई कठिनाइयों का अपमान है। आज उनके बलिदानों की वजह से ही इतने आक्रांत लुटेरों के हमलों के बाद भी हमारी संस्कृति का मूल तत्व जन-जन के जीवन में है।

त्रिपुंड, जिसे कॉन्ग्रेस पार्टी ने कट्टरता से जोड़ा है, शिव तत्व का प्रतीक है। एक बार, कॉन्ग्रेस अध्यक्ष राहुल गाँधी ने खुद को शिव-भक्त कहा था और यहाँ आज वे त्रिपुंड को कट्टरता के साथ जोड़ रहे हैं। यही होता है जब कोई राउल विन्सी बिना धर्म और संस्कृति के मूल को समझे जब प्रतीकों की भौंड़ी नकल करने की कोशिश करता है तो उसके लिए उनके प्रति सम्मान नहीं बल्कि वह सत्ता हासिल करने के लिए एक नाटक का हिस्सा होता है।

हालाँकि, कॉन्ग्रेस पार्टी यह कहने से नहीं चूकती कि वीडियो का उद्देश्य भारतीय जनता पार्टी और उसके कार्यकर्ताओं को निशाना बनाना है। लेकिन यह भूल जाती है कि त्रिपुंड और भगवाध्वज भाजपा से जुड़े नहीं हैं। त्रिपुंड अपने बोध को जागृत करने का प्रतीक है। और भागवत हमारी हिंदू सभ्यता की शांति का प्रतीक है। कर्म की प्रधानता का प्रतीक है। यह आक्रमणकारियों के प्रति हमारे प्रतिरोध का प्रतीक है। यह हर एक हिंदू की धरोहर हैं, उन्हें बदनाम करना हमारे हिंदू विश्वास पर हमला है, न कि भाजपा पर। लेकिन जमीन से कट चुकी कॉन्ग्रेस के लिए, ऐसा लगता है कि यह सब एक ही चीज हैं।

नफ़रत और घृणा के नशे में चूर कॉन्ग्रेस ने भगवान श्री राम को भी नहीं बख्शा। वीडियो में राम का अपमान किया गया है। उन्हें इस ढंग से दिखाया गया है कि जैसे वह स्वयं किसी दंगे का नेतृत्व कर रहे हों। यह दृश्य किसी भी दंगे या सांप्रदायिक हिंसा का नहीं है। चित्र से ऐसा प्रतीत होता है कि यह दृश्य या तो राम नवमी या दशहरे का है। हालाँकि,  यह निश्चित रूप से कहना असंभव है कि यह वास्तव में कहाँ का है। लेकिन नकली राम भक्त राहुल ने भगवान राम को भी असहिष्णुता का प्रतीक बता दिया है।

यह वीडियो एक राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी के खिलाफ राजनीतिक प्रचार के रूप में कम और हिंदू आतंकवाद सिद्धांत को फिर से हवा देने की रूपरेखा के रूप में ज़्यादा है। कॉन्ग्रेस पार्टी सत्ता में वापस आने के लिए अब देश ही क्या, यहाँ की संस्कृति और सहिष्णुता का भी घोर अपमान करने पर तुली हुई है।

सत्ता और तुष्टिकरण के लिए अब ये कोई भी सीमा लाँघ सकते हैं। इन्हे हर हाल में सत्ता वापस चाहिए। चाहे इसके लिए सम्पूर्ण भारतीय अस्मिता को ही दाँव पर क्यों न लगाना पद जाए। फिर त्रिपुंड, भगवाध्वज और श्री राम का अपमान इनके लिए कौन सी बड़ी बात है। लेकिन कॉन्ग्रेस ऐसा करके खुद की बची-खुची साख को भी मटियामेट कर रही है। ऐसी हरकतों से शायद ही कभी कॉन्ग्रेस की सत्ता में वापसी हो। बाकी भगवान राम की इच्छा।

दुष्कर्म करने में असफल बदमाशों की क्रूरता, तेजाब से झुलसाया लड़की का चेहरा

भागलपुर के अलीगंज इलाके में शुक्रवार (अप्रैल 19, 2019) की देर रात 3 लड़कों ने एक सर्राफा व्यापारी के घर में घुसकर उसकी बेटी के साथ दुष्कर्म करने का प्रयास किया। जब लड़की की माँ उसे बचाने आई, तो बदमाशों ने माँ को तमंचा दिखाकर शांत कर दिया, लेकिन अपने मंसूबों में खुद को नाकामयाब होता देख उन लड़कों ने लड़की के सिर पर तेजाब डाला और फरार हो गए।

ये वाकया बबरगंज थाना क्षेत्र के अलीगंज में गंगा विहार कालोनी का है। लड़की इंटर की छात्रा है। मीडिया खबरों की मानें तो लड़की को देर रात जवाहरलाल नेहरू मेडिकल कॉलेज में भर्ती किया गया। जहाँ डॉक्टरों ने पीड़िता की हालत देखकर उसे शहर से बाहर ले जाने की नसीहत दी। इसके बाद उसे रात में बनारस ले जाया गया।

जनसत्ता की खबर के मुताबिक, पीड़िता 40 फीसदी तक झुलस गई है। पीड़िता के चेहरे पर ज्यादा जख्म है क्योंकि तेजाब उसके सिर पर डाला गया था। घटना की सूचना मिलते ही एसपी एस के सरोज और डीएसपी राजवंश सिंह आरोपितों का पता लगाने में जुट गए हैं। खबर की मानें तो ये बदमाश पड़ोस के मकान की छत से करीब 8 बजे घर में घुसे थे।

पीड़िता की माँ ने पुलिस को बताया है कि सिर पर तेजाब डालने के कारण उनकी बेटी बुरी तरह तड़पने लगी थी। बेटी को बचाने के दौरान माँ का भी हाथ जल गया है। जलन से तड़पती पीड़िता की आवाज़ सुनकर पड़ोसी भी व्यापारी के घर में आए, लेकिन तब तक बदमाश फरार हो चुके थे।

लड़की ने अपनी माँ को बताया है कि वह उन बदमाशों को नहीं जानती है। ट्यूशन से लौटने के बाद वह अपने घर की छत पर टहल रही थी, जब उसने देखा कि गली में 4 लड़के सिगरेट पी रहे हैं। उन्हें देखकर वह नीचे आ गई। लड़की की गलती बस इतनी थी कि इस दौरान वह छत का दरवाजा बंद करना भूल गई। मौक़े का फायदा उठाते हुए बदमाश पड़ोस की छत के जरिए घर में घुसे और पूरी घटना को अंजाम दिया।

शेर मोदी के सामने राहुल पिल्ले की तरह नजर आते हैं: भाजपा नेता के बेहूदे शब्द

आचार संहिता के कड़े आदेश के बावजूद भी राजनीतिक दलों के नेताओं की बदजुबानी थमती नजर नहीं आ रही है। चुनाव प्रचार के दौरान बेहूदा बयानबाजी कर के चर्चा में आना बेहद आम बात हो गई है। चुनावी रैलियों में आजम खान जैसे नेता महिलाओं तक को अपनी भद्दी भाषा का निशाना बनाते हुए आपत्तिजनक बयान देने के कारण चुनाव आयोग द्वारा 72 घंटे का प्रतिबन्ध भुगत चुके हैं।

ताजा प्रकरण गुजरात का है, जहाँ BJP मंत्री गणपत वसावा ने कॉन्ग्रेस अध्यक्ष राहुल गाँधी को लेकर एक आपत्तिजनक बयान दिया है। मंत्री जी ने अपने चुनावी भाषण के दौरान कहा, “जब देश के PM नरेंद्र मोदी खड़े होते हैं तो गुजरात के शेर की तरह लगते हैं, वहीं जब कॉन्ग्रेस अध्यक्ष राहुल गाँधी खड़े होते हैं तो पिल्ले की तरह नजर आते हैं। गुजरात सरकार में मंत्री गणपत वसावा यहीं नहीं रुके, उन्होंने आगे कहा कि अगर पाकिस्तान और चीन उन्हें रोटी दे तो वह वहाँ चले जाएँगे।

चुनावों में बदजुबानी को लेकर चुनाव आयोग सख्त है इसके बाद भी इस प्रकार की छींटाकशी रूकती नहीं नजर आ रही हैं। देखा जाए तो हर बड़े और छोटे राजनीतिक दल ने इसे लोकप्रियता का तरीका बना लिया है।

वसावा फिलहाल गुजरात की विजय रुपाणी सरकार में कैबिनेट मंत्री हैं। वसावा से पहले गुजरात के बीजेपी विधायक रमेश कटारा का भी एक विवादित बयान चर्चा का विषय बना था। कटारा का जो विडियो सोशल साइट्स पर वायरल हुआ था उसमें वह मतदाताओं को धमकाते दिखे थे। कटारा के इस बयान के बाद चुनाव आयोग की ओर से उन्हें एक नोटिस भी जारी किया गया था।

क्या इस बार ‘शशि’ थरूर को लगेगा ग्रहण?

दो बार तिरुवनंतपुरम से लोकसभा सदस्य और प्रख्यात लेखक डॉ शशि थरूर के लिए इस बार लोकसभा की राह आसान नहीं लग रही है। इकॉनॉमिक टाइम्स में छपी एक खबर के मुताबिक भाजपा के कुम्मानम राजशेखरन ने उनकी ताकत में बहुत हद तक सेंध लगा दी है। पिछली बार आखिरी दौर की गिनती में किसी तरह जीत दर्ज करने वाले थरूर अगर इस बार किसी तरह जीत भी जाते हैं तो यह जीत पिछली बार से भी कम अंतर से होगी।

एलडीएफ-यूडीएफ, दोनों की ज़मीन खींच रहे राजशेखरन

कुम्मानम राजशेखरन कुछ समय पहले तक मिज़ोरम के राज्यपाल थे। भाजपा ने उन्हें वहाँ से विशेष तौर पर शशि थरूर को चुनौती देने के लिए वापिस बुलाया है और राजशेखरन कॉन्ग्रेस के यूडीएफ और वाम दलों के गठबंधन एलडीएफ दोनों के ही वोट बैंक को खींच रहे हैं। वाम के खिलाफ उनकी ताकत सबरीमाला पर भाजपा और संघ की लंबी चल रही लड़ाई है, जिसमें भाजपा के घोषणापत्र में सबरीमाला की आस्था के सम्मान की बात शामिल है; वाम दलों वाली सरकार ने न केवल परंपरा भाग करने की अदालत में पैरवी की, बल्कि हिन्दुओं में अपनी आस्था के अपमान के तौर पर देखे जा रहे निर्णय को लागू करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। वहीं शशि थरूर एक लोकसभा सदस्य के तौर पर क्षेत्र को नज़रंदाज़ करने के आरोप के अलावा कॉन्ग्रेस की कमजोर राष्ट्रीय छवि के चलते भी बैकफुट पर हैं।

पूर्व संयुक्त राष्ट्र राजनयिक थरूर, जो एक समय संयुक्त राष्ट्र के महासचिव बनते-बनते रह गए थे, अपने 2009 के पहले चुनाव के बाद से ही तिरुवनंतपुरम की ‘शान’ माने जाते हैं। अपनी विक्टोरियन अंग्रेजी के लिए सोशल मीडिया पर जाने जाने वाले थरूर अपने पहले चुनाव में सीपीआइ के पी. रामचंद्रन नायर को एक लाख के करीब मतों से पराजित कर लोकसभा पहुँचे थे। उनके व्यक्तिगत मतदाताओं में एक बड़ा वर्ग महिलाओं और युवाओं का मन जाता है, जिसमें वह बहुत लोकप्रिय रहे हैं

पिछली बार भी बहुत कम था जीत का अंतर, वाम के खराब प्रदर्शन का ‘भरोसा’

शशि थरूर की व्यक्तिगत लोकप्रियता के बावजूद 2014 के गत लोकसभा चुनावों में उनकी जीत का अंतर महज 15,000 वोटों का था, और दूसरे स्थान पर रहे थे नेमोम विधानसभा क्षेत्र के वर्तमान विधायक ओ राजगोपाल। राजगोपाल राज्य भाजपा के कद्दावर नेता हैं।

शशि थरूर के वर्तमान भाजपाई प्रतिद्वंद्वी राजशेखरन भी कमोबेश उसी कद के नेता हैं, और अब उनके पास नरेंद्र मोदी सरकार के कामकाज का ‘रिपोर्ट कार्ड’ भी है। ऐसे में शशि थरूर की जीत का पूरा गणित तीसरे प्रतिद्वंद्वी, एलडीएफ के सी दिवाकरण, के खराब प्रदर्शन पर टिका है।

ऐसा इसलिए कि दोनों ही दल/गठबंधन ‘भाजपा आएगी तो दंगे हो जाएंगे’ का भय दिखाकर गैर-हिन्दू वोटों के ध्रुवीकरण की उम्मीद में हैं, और इसीलिए वे राजशेखरन को भी ‘खतरनाक संघी’ के रूप में प्रचारित कर रहे हैं। ऐसे में यदि यह वोट बँटते हैं, तो राजशेखरन फायदे में रहेंगे और शशि थरूर हारेंगे। उनकी जीत तभी सम्भव है अगर या तो ध्रुवीकरण हो ही नहीं, और अगर हो तो गैर हिन्दू वोट बँटने की बजाय एकमुश्त उनकी झोली में आ गिरे।

राहुल की ‘न्याय योजना’ कहीं अन्याय का प्रतीक तो नहीं…

जैसे ही चुनाव का समय नजदीक आता है, राजनीतिक पार्टियों द्वारा जनता को लुभाने की भरपूर कोशिश की जाती है। इसी के मद्देनजर कॉन्ग्रेस पार्टी ने अपने चुनावी घोषणापत्र में ‘न्याय योजना’ को प्रमुखता से जगह दी और इसका बढ़-चढ़ कर प्रचार भी किया। आपको बता दें कि न्याय योजना के अंतर्गत कॉन्ग्रेस पार्टी ने चुनावी घोषणापत्र में 25 फीसदी गरीबों के खाते में ₹6 हजार प्रतिमाह के हिसाब से ₹72 हजार सालाना भेजने का वादा किया है। इस योजना को लेकर कॉन्ग्रेस लगातार कह रही है कि इसके तहत गरीबों के साथ न्याय होगा। मगर अब इस न्याय योजना को लेकर कॉन्ग्रेस पार्टी खुद न्यायालय के चक्कर काट रही है।

दरअसल, इलाहाबाद कोर्ट ने नोटिस जारी करते हुए पूछा है कि इस तरह की घोषणा वोटरों को रिश्वत देने की कैटगरी में क्यों नहीं आती और क्यों न पार्टी के खिलाफ पाबंदी या दूसरी कोई कार्रवाई की जाए? कोर्ट ने इस मामले में चुनाव आयोग से भी जवाब माँगा है। कोर्ट का मानना है कि इस तरह की घोषणा रिश्वतखोरी व वोटरों को प्रभावित करने की कोशिश है। इसलिए अदालत ने कॉन्ग्रेस पार्टी और चुनाव आयोग को जवाब दाखिल करने के लिए 10 दिन का वक्त दिया है। हाईकोर्ट के वकील मोहित कुमार द्वारा दाखिल की गई जनहित याचिका में कहा गया कि कॉन्ग्रेस ने घोषणा पत्र में गरीबों को ₹72 हजार सालाना देने का वादा कर मतदाताओं को प्रलोभन दिया है। यह आचार संहिता का उल्लंघन है। याचिकाकर्ता का कहना है कि मतदाता को प्रलोभन देना निष्पक्ष मतदान के खिलाफ है। इससे मतदान की प्रक्रिया प्रभावित होती है।

कोर्ट के द्वारा भेजे गए नोटिस से कॉन्ग्रेस को बड़ा झटका लग सकता है, क्योंकि कॉन्ग्रेस घोषणापत्र के जारी होने के साथ ही इस वादे का जोर-शोर से प्रचार कर रही है और इस वादे के दम पर चुनाव जीतने का भी ख्वाब देख रही है, लेकिन अब कॉन्ग्रेस की ‘न्याय योजना’ ही न्यायालय पहुँच गई है। तो अब देखना होगा कि कॉन्ग्रेस पार्टी कैसे अपनी न्याय योजना का बचाव करते हुए न्यायालय को अपना जवाब सौंपती है, और क्या न्यायालय कॉन्ग्रेस के जवाब से संतुष्ट हो पाएगी?

वैसे देखा जाए तो कॉन्ग्रेस जब से इस योजना को लेकर आई है, तब से सवालों के घेरे में है। कभी इस योजना के लागू करने को लेकर, तो कभी न्याय की बात करने को लेकर। और इस तरह के सवालों का उठना लाजिमी भी है, क्योंकि आजादी के 70 सालों में कॉन्ग्रेस ने 60 साल तक देश पर शासन किया। इस दौरान पंडित जवाहर लाल नेहरू, इंदिरा गाँधी, राजीव गाँधी, मनमोहन सिंह ‘गरीबी हटाओ’ का नारा देती रही, लेकिन कभी इस पर काम नहीं किया और अब राहुल गाँधी ‘गरीबी हटाओ’ के नारे के साथ एक बार फिर जनता को मूर्ख बनाने आए हैं।

दरअसल पार्टी का गरीबी हटाने का कोई मकसद ही नहीं है। कॉन्ग्रेस के द्वारा ये स्लोगन सिर्फ जनता का वोट हासिल करने का एक पैंतरा मात्र है। ऐसा लगता है कि 60 साल तक देश पर राज करने वाली पार्टी को सत्ता से दूरी खटक रही है, बेचैनी बढ़ रही है। वो बस किसी तरह से सत्ता में आना चाहती है और देश पर राज करना चाहती है।

अब यहाँ एक और सवाल ये भी उठता है कि कॉन्ग्रेस अध्यक्ष राहुल गाँधी ने लोकसभा चुनाव के मुख्य चुनावी वादे के रूप में न्यूनतम आय गारंटी योजना की घोषणा तो कर दी, लेकिन ये नहीं बताया कि इस भारी भरकम योजना को लागू कैसे किया जाएगा? इसके लिए फंड कहाँ से आएगा? जीडीपी और राजकोषीय घाटे पर इसका क्या असर होगा? अगर यह योजना लागू होती है, तो 2019-20 में करीब ₹3,60,000 करोड़ की जरूरत होगी। वो पैसे कहाँ से आएँगे?

कॉन्ग्रेस ने अपने घोषणापत्र में इसके बारे में कोई जिक्र नहीं है कि इस योजना के लिए पैसों का इंतजाम किस तरह से और कहाँ से किया जाएगा? क्या कॉन्ग्रेस पार्टी के पास कोई ऐसा पेड़ है, जिसको हिलाने पर पैसे गिरेंगे या फिर उन्होंने कोई खजाना छुपा रखा है, जिसका वो चुनाव जीतने के बाद खुलासा करेंगे। कहीं ऐसा तो नहीं कि राहुल गाँधी कॉन्ग्रेस पार्टी द्वारा किए गए घोटालों- अगस्ता वेस्टलैंड घोटाला, बोफोर्स घोटाले, 2 जी स्पेक्ट्रम घोटाला, नेशनल हेराल्ड घोटाला और वाड्रा के द्वारा किए गए मनी लॉन्ड्रिंग, आदि घोटाले के जरिए अर्जित किए गए अवैध संपत्ति से गरीब जनता का भला करने का सोच रहे हैं।

खैर, ये तो अलग बात है, लेकिन अगर भविष्य में ये स्कीम लागू होती है तो ये जाहिर सी बात है कि पैसे मिडिल क्लास फैमिली की जेबों से ही निकाली जाएगी। यानी कि इस योजना का भार मिडिल क्लास फैमिली पर ही पड़ने वाला है, क्योंकि राहुल गाँधी योजना तो बढ़ा देंगे, लेकिन आय का स्त्रोत तो नहीं बढ़ेगा, वो तो वही रहेगा। ऐसे में किसी न किसी टैक्स में वृद्धि की जाएगी, जिसका असर मध्यम वर्ग के लोगों पर ही पड़ेगा। इस तरह से मध्यम वर्ग के परिवारों से पैसे टैक्स के रूप में वसूल कर गरीबों को देकर वाह-वाही लूटी जाएगी। तो ऐसे में ये कहना गलत नहीं होगा कि ये न्याय योजना मिडिल क्लास फैमिली के लिए अन्याय ही साबित होगी।

चुनाव के तारीख की घोषणा होने से पहले से ही राहुल गाँधी ‘चौकीदार चोर है’ के नारे लगाते हुए पीएम मोदी को सत्ता से हटाना चाह रही है। क्योंकि चोर को ही चौकीदार से डर लगता है और इस चौकीदार की चौकीदारी की वजह से ही उनके (कॉन्ग्रेस) के काले कारनामों की लंबी फेहरिस्त सामने आई है, जिससे बौखला गए हैं राहुल जी।

असल में राहुल को पता है कि चौकीदार जाग रहा है और उन्हें डर है कि जिस तरह से इस चौकीदार ने उनके सारे घोटालों का बखिया उधेड़ दिया है, वो आगे भी उन्हें जनता और देश का पैसा नहीं खाने देगा। इसलिए वो किसी भी हालत में उन्हें हटाना चाहते हैं, लेकिन सच्चाई तो यही है कि देश को ऐसे ही चौकीदार की जरूरत है, जो जनता और देश के पैसों की सही रखवाली कर सके और गलत हाथों में न जाने दे।

दरअसल, कॉन्ग्रेस के पास गरीबी हटाने का कोई विजन नहीं है। वो न्याय योजना की घोषणा करके जनता को बरगलाने की कोशिश कर रही है। राहुल गाँधी ने पैसा बाँटने की योजना की बात कहकर केवल देश की जनता को ठगने का काम किया है, क्योंकि अगर कॉन्ग्रेस वाकई में गरीबी मिटाना चाहती तो स्किल इंडिया की तरह कोई योजना लेकर आती, या फिर शिक्षा के स्तर को बढ़ाने के लिए किसी तरह की योजना की बात करती।

इससे जनता के शिक्षा का स्तर बढ़ता और वो रोजगार के माध्यम से गरीबी को पीछे छोड़ आगे बढ़ते, तो ऐसा लगता कि कॉन्ग्रेस गरीबी मिटाने की दिशा में आगे बढ़ रही है। और राहुल गाँधी को गरीबों और किसानों की इतनी ही चिंता है, तो वो कॉन्ग्रेस शासित राज्यों में किसान सम्मान निधि योजना लागू क्यों नहीं कर रही है? क्यों वो आयुष्मान योजना के लाभ से गरीबों को वंचित रख रही है?