Tuesday, October 1, 2024
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देश को मिला पहला लोकपाल, चुनाव से पहले विपक्ष का एक और मुद्दा ख़त्म

देश को पहला लोकपाल मिल गया है। राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने सुप्रीम कोर्ट के रिटायर्ड जज जस्टिस पिनाकी चंद्र घोष (Pinaki Chandra Ghose) को देश का पहला लोकपाल नियुक्त किया है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, प्रधान न्यायाधीश रंजन गोगोई, लोकसभा अध्यक्ष सुमित्रा महाजन, प्रख्यात कानूनविद मुकुल रोहतगी की चयन समिति ने शुक्रवार (मार्च 15, 2019) को उनके नाम की सिफारिश की थी।

लोकसभा में विपक्ष के नेता और कॉन्ग्रेस पार्टी के नेता मल्लिकार्जुन खड़गे भी चयन समिति का हिस्सा थे, लेकिन वह चयन प्रक्रिया में शामिल नहीं हुए थे। इस कमेटी में एक चेयरमैन, एक न्यायिक सदस्य और एक गैर न्यायिक सदस्य होते हैं।

भारत के राष्ट्रपति न्यायमूर्ति ने दिलीप बी भोसले, न्यायमूर्ति पी के मोहंती, न्यायमूर्ति अभिलाषा कुमारी और न्यायमूर्ति एके त्रिपाठी को न्यायिक सदस्य नियुक्त किया गया है। इसके अलावा गैर न्यायिक सदस्यों में दिनेश कुमार जैन, अर्चना रामासुंदरम, महेन्द्र सिंह, और डॉ. आईपी गौतम को सदस्य नियुक्त किया गया। अधिसूचना के मुताबिक प्रभार लेने के साथ ही इन सदस्यों की नियुक्ति प्रभावी मानी जाएगी।

परिचय: पीसी घोष

पिनाकी चंद्र घोष का जन्म मई 28, 1952 को हुआ था और वह जस्टिस शंभू चंद्र घोष के बेटे हैं। वह सुप्रीम कोर्ट के जज रह चुके हैं और कई राज्य के मुख्य न्यायाधीश रह चुके हैं। वर्तमान में पीसी घोष, मानवाधिकार आयोग के सदस्य हैं। उन्होंने सेंट जेवियर्स कॉलेज से बीकॉम और कोलकाता यूनिवर्सिटी से LLB की पढ़ाई की है। घोष साल 1997 में कलकत्ता हाईकोर्ट के जज बने और उसके बाद दिसंबर 2012 में उन्होंने आंध्र प्रदेश हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश बने। मई 2017 में घोष सुप्रीम कोर्ट से रिटायर हुए थे और वह 2013 से 2017 तक सुप्रीम कोर्ट के जज रहे। पीसी घोष तमिलनाडु की पूर्व मुख्यमंत्री जयललिता की सहयोगी रहीं शशिकला को आय से अधिक मामले में दोषी ठहरा चुके हैं।

देश के पहले लोकपाल की नियुक्ति लोकपाल अधिनियम-2013 के पारित होने के 5 साल बाद की गई है। देश के पहले लोकपाल के साथ ही कॉन्ग्रेस और तमाम विपक्षी दलों को अब फिलहाल आम चुनाव तक, इस मुद्दे पर बिना किसी आरोप के ही चुनाव लड़ना पड़ेगा। लोकपाल का मुद्दा एक अहम मुद्दा था जिसे विपक्ष भ्रष्टाचार से जोड़कर सरकार को घेरती थी। आज़ादी के बाद पीसी घोष इस देश के पहले लोकपाल हैं, जिन्हें मोदी सरकार ने अपने कार्यकाल रहते नियुक्त कर लिया है।


देशहित में कॉन्ग्रेस को वोट देकर 10% सीटें जिताइए, आपको राफेल की कसम है

राहुल गाँधी यूँ तो मोदी को लेकर अनेकों प्रकार की बातें करते हैं, मसलन वो उनसे ‘दस मिनट भी बहस नहीं कर पाएँगे’, मोदी उनसे ‘आँख नहीं मिला पाते’, ‘चौकीदार चोर है’ इत्यादि। लेकिन इस दौरान जो उन्होंने एक ‘तथ्यात्मक आरोप’ लगाया है वह राफेल विमान सौदे में मोदी द्वारा दलाली खाने और घोटाला करने का है। मैं तथ्यात्मक इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि इसके अलावा उनके बाकी सभी आरोप बतोलेबाजी ही हैं, लेकिन ‘राफेल’ तो ‘एग्जिस्ट’ करता है, हम सबको पता है, इस सौदे पर फ़्रांस सरकार के साथ वर्तमान प्रधानमंत्री मोदी ने ही हस्ताक्षर किए हैं।

इस आरोप में राहुल गाँधी लगातार राफेल की कीमत को ₹1600 से लेकर ₹526 करोड़ से लेकर ₹1600 करोड़ तक का बताते हैं। अगर हम विमानों की कीमत जैसे तकनीकी विषय में न जाएँ, तो उनका मूल और फ्लैट आरोप यह है कि इसमें ₹30 हजार करोड़ का घोटाला हुआ है। अर्थात नरेंद्र मोदी ने भारत सरकार के खजाने से ₹30 हजार करोड़ लूट लिए हैं और दिलचस्प बात यह है जो राहुल गाँधी कहते हैं कि लूट के ये ₹30 हजार करोड़ नरेंद्र मोदी ने अनिल अम्बानी की जेब में डाल दिए हैं।

कॉन्ग्रेस पार्टी अध्यक्ष और रॉबर्ट वाड्रा के साले राहुल गाँधी इस बात को इतनी बार दोहरा चुके हैं कि हम इस घटनाक्रम को भी इमेजिन करने लगते हैं कि आखिर कैसे यह सब हुआ होगा? नरेंद्र मोदी अकेले में तो अनिल अम्बानी को बुला नहीं सकते हैं, क्योंकि सबको पता चल जाएगा, इसलिए किसी सार्वजनिक कार्यक्रम में मोदी ने सबसे नजरें बचाकर, अनिल अम्बानी को किसी कोने में ले जाकर, उसके कोट की जेब में ₹30 हजार करोड़ ठूँस दिए होंगे।

अब रेगुलर करेंसी के इतने नोट तो एक जेब में बन नहीं सकते, इसलिए यह भी मुमकिन है कि मोदी ने RBI के तत्कालीन गवर्नर ऊर्जित पटेल (गुजराती) को बोलकर ₹15 हजार करोड़ की कीमत वाले दो स्पेशल नोट छपवाए होंगे और उन्हीं नोटों को बंद मुट्ठी करके जूनियर अम्बानी की जेब में डाल दिया होगा। वैसे ही, जैसे शेयरिंग सवारियाँ ढोने वाला ऑटो ड्राईवर, आवश्यकतानुसार ट्रैफिक पुलिस वाले की मुट्ठी गर्म कर देता है, और प्रभु का तीसरा नेत्र भी इस दुर्लभ संयोग को देखने से वंचित रह जाता है।

अब अम्बानी की जेब गरम करने वाले मुद्दे की असलियत जानते हैं कि यह ₹30 हजार करोड़ का आँकड़ा आखिर आया कहाँ से, जबकि राफेल विमान सौदा ही कुल ₹58 हजार करोड़ का है? दरअसल यह ₹30 हजार करोड़ वह ऑफसेट ऑब्लिगेशन अमाउंट है, जिसे फ़्रांस की सरकार इस सौदे की शर्तों के तहत अगले पाँच से दस सालों में भारत की कम्पनियों के साथ भारत में निवेश करेगी। जिसके लिए भारत की 100 से अधिक कम्पनियों का चयन हुआ है, जिसमें रिलायंस भी एक है और इसके लिए ‘रिलायंस डिफेन्स’ ने दसॉं एविएशन कम्पनी (Dassault Aviation Company) के साथ एक ‘जॉइंट वेंचर’ बनाया है। इसके अंतर्गत ₹850 करोड़ का इन्वेस्टमेंट होगा, जिसमें रिलायंस के हिस्से का इन्वेस्टमेंट ‘सिर्फ ₹426 करोड़’ का है, जो आने वाले पाँच से दस साल के दौरान होगा। अब अगर अनिल अम्बानी यह पूरा इन्वेस्टमेंट भी डकार जाए, तब भी यह घोटाला सिर्फ ₹426 करोड़ का होगा, न कि ₹30 हजार करोड़ का, जैसा कि कॉन्ग्रेस चिरयुवा अध्यक्ष और विश्व वैमानिकी के जानकार माननीय राहुल गाँधी कहते आ रहे हैं।

यहाँ मैंने जो इस सौदे में अनिल अम्बानी की भूमिका का तकनीकी स्पष्टीकरण दिया है। एक बार अगर हम उसे भी दरकिनार कर देते हैं, और इसे ₹30 हजार करोड़ का ही घोटाला मान लेते हैं, और तब एक नजर कल की उस खबर पर डालते हैं, जो आज भी सुर्खियाँ बटोर रही है कि एक दूरसंचार सौदे में ₹500 करोड़ के कर्ज में डूबे अनिल अम्बानी को बचाने के लिए उनके बड़े भाई मुकेश अम्बानी ने उनका यह कर्जा चुकाया, वरना उन्हें 3 महीने के जेल हो सकती थी।

तब इसी एंगल से सोच लीजिए कि अगर अनिल अम्बानी के पास मोदी द्वारा उसकी जेब में ठूँसे गए ₹30 हजार करोड़ रखे होते तो क्या वह सिर्फ ₹500 करोड़ के लिए जेल जाने के मुहाने पर खड़ा होकर इस तरह से पूरी दुनिया में सरेआम जलील होना स्वीकार करता?

इन सभी कारणों से इस हवाबाजी का यह सार निकलता है कि नरेन्द्र मोदी ने बीते 5 साल में ‘आर्थिक अनियमिता’ और ‘घोटाले’ के नाम पर महज एक ‘राफेल’ करने की कोशिश की, लेकिन इसमें भी वे एक फूटी कौड़ी नहीं कमा सके, क्योंकि देश में एक जागरूक, मजबूत और रक्षा विशेषज्ञ के तौर पर राहुल गाँधी जैसा विपक्ष का नेता मौजूद था।

इसलिए, अगर आगे भी देश को मोदी-शाह जैसे शातिर चौकीदारों से बचाना है, तो आने वाले कई सालों तक विपक्ष में राहुल गाँधी जैसा एक जानकार, मँजा हुआ, सुलझा हुआ, ऊर्जावान, ओजस्वी और अविवाहित नेता ही चाहिए। इसलिए मेरी भारत की जनता से यही अपील रहेगी, खासकर युवा वर्ग से कि इस बार कॉन्ग्रेस को इतना वोट तो अवश्य दीजिएगा कि लोकसभा में उसकी कम से कम 10% सीटें आ जाएँ, ताकि उसे अधिकृत तौर पर नेता विपक्ष का पद मिल सके, जिसे कैबिनेट मंत्री का दर्जा हासिल होता है। चूँकि पीएम को मिलने वाली SPG सुरक्षा पहले से ही उनके पास है… और जीने को क्या चाहिए?

पुलवामा से पहले तक हमारे पक्ष में माहौल: शशि थरूर ने हार के कारण किए तैयार

कॉन्ग्रेस नेता शशि थरूर ने यह दावा किया कि अगर पुलवामा हमला न होता तो कॉन्ग्रेस के पक्ष में बहुत अच्छा माहौल लोकसभा चुनावों के परिप्रेक्ष्य में बन चुका था। उन्होंने भाजपा पर आगामी चुनावों को ‘खाकी चुनाव’ बनाने का भी आरोप लगाया।

‘केरल में पहली बार किसानों की आत्महत्या’

पूर्व केन्द्रीय मंत्री व संयुक्त राष्ट्र राजनयिक थरूर ने भाजपा के रोजगार-सम्बंधित दावों का मज़ाक उड़ाते हुए कहा कि भाजपा केवल दिल्ली में अपना रोजगार (सरकार) बचाने की चिंता में है। उन्होंने देश में किसानों की भाजपा सरकार के कार्यकाल में बदहाली पर भी चिंता व्यक्त करते हुए उदहारण दिया कि उनके गृह राज्य केरल में पहली बार 8 किसानों ने आत्महत्या कर ली है।

शशि थरूर का यह दावा हास्यास्पद भी है और अटपटा भी- हास्यास्पद इसलिए क्योंकि पहली बात तो यह केरल में पहली किसान आत्महत्या नहीं है (2001-06 में जब कॉन्ग्रेस-नीत यूडीएफ राज्य में सत्ता में था, तो खाली वैनाड जिले में 500 किसानों की आत्महत्या की खबर मीडिया ने रिपोर्ट की)।

और यह अटपटा इसलिए है कि भाजपा कभी भी केरला की सत्ता में नहीं रही- इन 8 किसानों की आत्महत्या के लिए यदि सत्ता जिम्मेदार है तो यह जिम्मेदारी वामदलों-नीत उस एलडीएफ की होनी चाहिए जिससे शशि थरूर की पार्टी कॉन्ग्रेस अपने कार्यकर्ताओं की हत्या का आरोप लगाने के बावजूद गठबंधन के लिए लालायित है।  

‘हमारी ज़िम्मेदारी असली मुद्दे जनता को याद दिलाने की’

भूख, गरीबी, बीमारियों को दैनिक आतंकवाद बताते हुए शशि थरूर ने कहा कि सरकार को इन मुद्दों से भी लड़ने की आवश्यकता है, और यह भी कहा कि वे राष्ट्रीय सुरक्षा और बाह्य खतरों जैसे मुद्दों को कम कर के नहीं आँक रहे हैं।

‘क्षणिक त्रासदियों पर न हों चुनाव’

तिरुवनंतपुरम से दो बार के लोकसभा सांसद और तीसरी बार के प्रत्याशी शशि थरूर ने कहा कि चुनाव पुलवामा हमले जैसी क्षणिक त्रासदियों पर नहीं, बल्कि भूख, गरीबी, बीमारियों जैसे सर्वकालिक मुद्दों पर लड़े जाने चाहिए।

मालूम हो कि गत 14 फरवरी को पुलवामा में सीआरपीएफ के 40 सैनिक जैश-ए-मोहम्मद के आत्मघाती हमले में मारे गए थे। पलटवार में भारत ने पाकिस्तान में खैबर पख्तूनख्वा स्थित बालाकोट में आतंकी कैम्पों पर हमला किया और 300-400 आतंकियों के मारे जाने का दावा किया।

शशि थरूर इन्हीं हवाई हमलों के बाद भाजपा और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के पक्ष में बने सकारात्मक माहौल का ज़िक्र कर रहे थे। उन्होंने कहा कि भाजपा की कोशिश ऐसा माहौल बनाने की है कि केवल भाजपा ही राष्ट्रीय सुरक्षा की रक्षक है जबकि कॉन्ग्रेस देश की हिफ़ाज़त को हल्के में ले रही है।

शशि थरूर का भाजपा पर चुनावों का खाकीकरण करने का आरोप एक बार फिर हास्यास्पद है। जब कॉन्ग्रेस के खुद के महत्वपूर्ण नेता कपिल सिब्बल, दिग्विजय सिंह, नवजोत सिंह सिद्धू बालाकोट हवाई हमले पर सवाल उठाते हैं, राहुल गाँधी मोदी पर खून की दलाली का आरोप लगाते हैं, तो क्या उन्हें ऐसा करने का इशारा भाजपा की ओर से मिलता है?

‘उम्मीद है कि लोग भाजपा को उखाड़ फेंकेंगे’

शशि थरूर ने भाजपा सरकार पर फिर से बहुसंख्यकवाद फैलाने और देश के सेक्युलर सिद्धांत को कमज़ोर करने का आरोप भी लगाया। उन्होंने कहा कि उन्हें उम्मीद है आगामी चुनावों में देश के लोग भाजपा को सत्ता से उखाड़ फेंकेंगे क्योंकि भाजपा सरकार दोबारा केन्द्रीय सत्ता पाने की हकदार नहीं है

जिस तरह की दलीलें थरूर दे रहे हैं, उससे प्रतीत होता है कि उन्होंने कॉन्ग्रेस की हार स्वीकार कर ली है और कारणों को गिनाने की शुरुआत कर चुके हैं।

बालाकोट एयर स्ट्राइक से चिढ़ा पाकिस्तान इस तरह ले रहा भारत से बदला

पाकिस्तान के बालाकोट में आतंकी अड्डे को तबाह करने की भारतीय वायु सेना की कार्रवाई से चिढ़ा पाकिस्तान अब भारतीय राजनयिकों के उत्पीड़न पर उतर आया है। भारत ने पाकिस्तान के विदेश मंत्रालय को एक नोट जारी करते हुए कहा है कि पाकिस्तानी एजेंसियाँ इस्लामाबाद में भारतीय राजनयिकों को फिर से परेशान कर रही हैं। भारत ने मार्च के महीने से उदाहरणों को सूचीबद्ध करते हुए पाकिस्तान से इस मामले की जाँच करने को कहा है, साथ ही अधिकारियों के सुरक्षा का भरोसा देने के लिए भी कहा गया है।

भारतीय राजनयिकों की खुफियागिरी करने और उन्हें तरह-तरह से परेशान करने की घटनाओं का सिलसिलेवार उल्लेख करते हुए भारत ने अपनी कड़ी आपत्ति जताई है। बताया जा रहा है कि पाकिस्तान में पिछले चार दिनों के अंदर भारतीय उच्चायुक्त और उप उच्चायुक्त सहित कई बड़े अधिकारियों का पीछा करने, अनुचित तरीके से सर्विलांस, झूठी फोन कॉल आदि दर्जन भर से ज्यादा घटनाएँ हुई हैं।

उच्चायोग में नौसेना के सलाहकार का भी आक्रामक तरीके से 8, 9, 10 और 11 मार्च को पाकिस्तान के सुरक्षाकर्मियों ने पीछा किया। भारतीय उच्चायोग ने पाकिस्तान से इस मामले की तत्काल जाँच की करने की माँग की है और कहा है कि इस तरह की उत्पीड़न की घटनाएँ 1961 के विएना समझौता का स्पष्ट उल्लंघन है।

गौरतलब है कि पाकिस्तान द्वारा भारतीय राजनयिकों के साथ दुर्व्यवहार की खबरें पहले भी कई बार आती रही है। इससे पहले पाकिस्तान में भारतीय उच्चायुक्त अजय बिसारिया और महावाणिज्य दूतावास के अधिकारियों को गुरुद्वारा पंजा साहिब में पाकिस्तान के विदेश मंत्रालय की अनुमति होने के बाद भी जाने से रोका गया था। इसके अलावा एक घटना में एक भारतीय राजनयिक का पीछा किया गया और गाड़ी रोक कर बदसलूकी की गई थी।

‘मोदी PM बना तो हिन्दू नंगी तलवारें लेकर दौड़ेंगे’ से ‘मोदी फिर PM बना तो चुनाव ही नहीं होंगे’ तक

जब इनएविटेबल सामने होता है तो व्यक्ति अपने मानसिक संतुलन पर सबसे पहले हमला बोलता है। उसके कारण वो जो कार्य करता है, या बोलता है, वो विशुद्ध मूर्खता की श्रेणी में रखा जा सकता है। उदाहरण के लिए गाय की स्मगलिंग करता हुआ अपराधी, पुलिस बैरिकेडिंग पर पकड़े जाने के भय से पुलिस अफसर के ऊपर गाड़ी चढ़ाकर उसकी हत्या का भी अपराध कर देता है।

2013-14 का एक दौर याद कीजिए, जब नरेन्द्र मोदी की उम्मीदवारी तय हो चुकी थी और लहर को नकारते-नकारते विपक्ष के नेता सब तमाम प्रपंच करने लगे थे। नए झूठ गढ़े जाने लगे, प्रोपेगेंडा फैलाना चरम पर था, साम्प्रदायिकता को खूब हवा दी जा रही थी। बातें फैलाई जा रही थीं कि मोदी अगर आ गया तो दंगे हो जाएँगे, समुदाय विशेष का जीना हराम हो जाएगा, हिन्दू बहुसंख्यक लोग सड़कों पर नंगी तलवारें लेकर निकलेंगे और मार-काट करेंगे।

एक माहौल गढ़ा गया जिसमें भाजपा द्वारा कॉन्ग्रेस के निकम्मेपन और दस सालों की लूट पर वोट माँगने पर अपने गढ़ में पड़ती दरारों को कॉन्ग्रेस ने भाँप लिया था और सहयोगी दलों के साथ मिलकर प्रपंच करना शुरु किया। जिस कॉन्ग्रेस के पूरे शरीर पर देश के अधिकांश दंगों का रक्त है, जो अकेली भारतीय पार्टी है, जिसने एक अल्पसंख्यक समुदाय के साथ राजनैतिक संरक्षण में ‘पेड़ गिरने’ और ‘धरती हिलने’ के नाम पर नरसंहार किए, और वो कोर्ट द्वारा बेगुनाह साबित हो चुके व्यक्ति पर ऐसे प्रोपेगेंडा फैलाती है जैसे उसके सत्ता में आते ही भारत दंगाई कोलोजियम बन जाएगा।

लेकिन बात तो वही है कि सत्ता आपको अनुभव बहुत देती है। आपको जीतने के तरीके पता होते हैं, और आपको हराने का भी हुनर आ जाता है। आप खबरें पैदा कर सकते हैं, जब सामने वाला राम मंदिर और तुष्टीकरण न करे तो आप छेड़ते हैं कि अब राम मंदिर पर बात क्यों नहीं कर रहे! आप घाघ हो जाते हैं, आपके अंदर की धूर्तता आपके बच्चों तक जेनेटिकल स्तर तक पहुँच चुकी होती है।

ये घाघपना और आपका स्थापित तंत्र एक मुद्दा बनाता है, जिसमें क्षेत्रीय पार्टियों के उदय से आपके ट्रेडिशनल अल्पसंख्यक वोट बैंक में होते छेद पर सेलो टेप मारा जा सके। ऐसे समय में ‘डर’ की रचना सबसे कारगर होती है। तब आप न उनकी शिक्षा की बात करते हैं, न उनमें व्याप्त गरीबी की, न उनके आधारभूत विकास पर ध्यान देते हैं। क्योंकि उन्हें वैसा रखने में आपने बहुत परिश्रम किया। आपने समुदाय विशेष को गरीब, पिछड़ा, अशिक्षित रखा क्योंकि आप उस मुद्दे के गन्ने को बोते रहे, बोते रहे, काटते रहे, काटते रहे, और फिर चुनाव की मशीन में इतनी बार पेरा गया कि उसकी सिट्ठी ही बची।

जब आप लगातार एक मानसिकता बना देते हैं कि तुम अल्पसंख्यक हो, और भाजपा साम्प्रदायिक है, तो उसे तीन तलाक के निरस्तीकरण से लेकर वो सारी बातें साज़िश लगने लगती हैं जो उसी के विकास के लिए है। फिर एक घाघ नेता और धूर्त पार्टी इस ‘डर’ पर खेलना शुरु करता है। पूरे समुदाय को बताया जाता है कि ‘देखो, हम चोर ही सही, हम तो तुम्हें गरीबी-लाचारी-अशिक्षा में जीने तो दे रहे हैं, वो तो तुम्हें काट देगा’। 

यह डर खूब फैलाया गया ताकि अपनी लूट, भ्रष्टाचार और निकम्मेपन की बात को छुपाया जा सके। लेकिन कारपेट के भीतर कूड़ा छुपाने की एक हद होती है। कॉन्ग्रेस का स्वीपिंग अंडर कारपेट इतना विशाल हो गया वो कारपेट कूड़े का पहाड़ बन गया, जो सबको दिख रहा था। ये पहाड़ सबको दूर से नज़र आ रहा था। फिर घाघ पार्टी के पास कोई चारा नहीं बचा: मोदी आ गया तो देश में दंगे होंगे! 

मोदी तो मोदी, योगी भी मुख्यमंत्री बनकर आ गया और उत्तर प्रदेश अपने प्रशासन और अपराधियों पर लगाम कसने में नई मिसाल क़ायम कर रहा है जहाँ अपराधी खुद ही जेल में सरेंडर करने पहुँच रहे हैं। योगी को लेकर भी यही आशंका जताई गई थी कि यूपी समुदाय विशेष के लिए रहने योग्य नहीं रहेगा और दंगे होंगे। ऐसा कुछ नहीं हुआ। दंगाइयों को सजा मिल रही है, अपराधियों को पकड़ा जा रहा है और यूपी सरकार भी बेहतरी की ओर बढ़ रही है। 

मोदी पूर्ण बहुमत की सरकार लेकर आ गए, कुशलता से पाँच सालों में जितना हो सकता था (पिछली सरकारों के मुक़ाबले) उससे ज़्यादा ही काम किया। बिजली, सड़क, स्वच्छता जैसे छोटे लेकिन जीवन बदलने वाले मुद्दों से लेकर वित्तीय समावेशन, विदेश नीति, जीडीपी, टैक्सेशन जैसे मुद्दों पर लगातार बेहतरी की है। लगातार भाजपा समर्थित पार्टियों की जीत यही बताती है कि मोदी और पार्टी की छवि सुधरी है, न कि उन्हें एक हिन्दुत्ववादी सरकार की तरह देखा जा रहा है जहाँ हिन्दुओं को मार-काट की खुली छूट हो। 

यही कारण है कि सत्ता से दूर, चौवालीस तक सिमट चुके, छोटे दलों द्वारा सीटों के लिए लगातार नकारे जा रहे कॉन्ग्रेस और उनके नेताओं को नए झूठ की ज़रूरत महसूस हो रही है। कॉन्ग्रेस के लिए दुर्भाग्य कई स्तर का है। पहला तो यही है कि राहुल गाँधी पार्टी के अध्यक्ष हैं। दूसरा यह है कि पाँच सालों में इन्होंने जो-जो मुद्दे उठाए, सब फट के हवा हो चुके हैं, चाहे वो राफेल हो या रोजगार की बात। तीसरा यह है कि ये लोग अपनी योजना या विजन को लोगों तक पहुँचाने की बजाय मीम बनाकर मोदी की छवि बिगाड़ने में लगे हुए हैं। 

चौथी बात, जो इस लेख का आधा हिस्सा है, वो यह है कि ये अब झूठ भी अपना नहीं बना पा रहे। इन्होंने कहीं सुना कि मोदी के खिलाफ कुछ कहा जा रहा है, तो चोरी-चोरी चुपके-चुपके, एक टुटपुँजिया कॉमेडियन की तरह, जो किसी कम प्रसिद्ध व्यक्ति के चुटकुले चुराकर हिट होने की फ़िराक़ में रहता है, अशोक गहलोत ने कह दिया कि अगर मोदी दोबारा आ गया तो चुनाव ही नहीं होने देगा।

ये बात गहलोत की ऑरिजिनेलिटी नहीं है, ये विशुद्ध चिरकुटों वाली हरकत है जो कि सत्तर साल के बुजुर्ग व्यक्ति को शोभा नहीं देती। इतना अनुभव गहलोत साहब कहाँ ले जाएँगे, पता नहीं चल रहा कि ऐसे मामलों में तो दिमाग लगा लें थोड़ा कि कह क्या रहे हैं! ‘हिन्दू तलवार लेकर दौड़ जाएगा’ वाली बात ही कह देते, कुछ दुसरे समुदाय वाले लोग डर के मारे वोट दे देते, लेकिन ये वाली बात अलग स्तर पर जा चुकी है! 

‘चुनाव ही नहीं होने देगा’ कहकर शायद ये पूरी भारत की जनता में डर व्याप्त करना चाह रहे हैं। लेकिन कहीं ये डर बैकफायर न कर जाए! वैसे भी भारत में आदमी वोट देने से पक चुका है, और कॉन्ग्रेस के इस झूठ को सच मानकर कहीं मोदी को 60% वोट देकर अनंतकाल के लिए पीएम न बना दे! फिर ईवीएम और वीवीपैट हैक्ड है कि नौटंकी करते रहिएगा! 

गहलोत ने गम्भीरता से अपनी बात रखते हुए कहा कि अगर मोदी दोबारा जीत जाता है तो या तो यहाँ चुनाव ही नहीं होंगे या भारत में रूस या चीन जैसी स्थिति हो जाएगी। गहलोत ने आगे बताया कि मोदी चुनाव जीतने के लिए किसी भी हद तक जा सकता है।

सही बात है, चुनाव जीतने के लिए ‘किसी भी हद तक’ जाने की बात कॉन्ग्रेस से बेहतर और कौन जान सकता है! चाहे राफेल को पीटकर चुनाव में फर्जी मुद्दा बनाने की बात हो, या फिर लगातार झूठ बोलकर जनता को तमाम मुद्दों पर बरगलाने की बात हो, कॉन्ग्रेस ने अपनी कल्पनाशीलता का खूब परिचय दिया है। एक ही बात को सतहत्तर बार बोलकर, सत्य को झूठ बनाने की तकनीक भी इन्होंने अपना ली, लेकिन इनके झूठ का खोटा सिक्का चल नहीं पा रहा।

पाँच साल ही सत्ता से दूर रहने पर गहलोत शायद थोड़े ढीले भी हो गए हैं। उन्हें ये पता नहीं है कि प्रपंच को कसकर पकड़ना चाहिए ताकि लोग उनको गम्भीरता से लें। उन्होंने मोदी को पहले चुनाव नहीं होने देने की बात को लेकर घेरा, फिर अगली ही लाइन में उन्हें ‘बॉलीवुड में होते तो अपने लटके-झटकों एवं अदाओं से देश तथा दुनिया में अलग छाप छोड़ते’ कहकर दाँत निपोड़ दिया।

वैसे, दो लाइन में गम्भीरता से भाषाई और शारीरिक चिरकुटई पर उतरना कॉन्ग्रेस में ऊपर से ही नीचे बहता आ रहा है। इनके अध्यक्ष पहले प्यार से मोदी के गले पड़ने जाते हैं, फिर ‘आँख मारे वो लड़का आँख मारे’ करते नज़र आते हैं। कॉन्ग्रेस के एकमेव पैदाइशी मालिक राफेल जैसे गम्भीर मसले पर चर्चा करने की बात करने आए, उनके नुमाइंदों ने संसद में पेपर प्लेन चलाकर अपनी गम्भीरता की माचिस जलाकर छोड़ दी। 

किसी भी हद तक कौन जा रहा है, ये जनता को दिखता है। प्रपंच के नए कीर्तिमान कॉन्ग्रेस रच रही है। अल्पसंख्यकों में डर फैलाने की बातें कॉन्ग्रेस कर रही है। भाषाई मर्यादाओं को कॉन्ग्रेस तोड़ रही है। लगातार छोटे दलों के पीछे पड़कर समर्थन देने की बात कॉन्ग्रेस कर रही है। क्षेत्रीय दलों द्वारा ‘दो और पाँच सीटें लो या निकल लो’ टाइप की धमकियाँ झेलकर भी कुछ न कह पाने के लिए मजबूर कॉन्ग्रेस हो रही है। 

और, किसी भी हद तक कौन जा सकता है? मोदी! अरे भैया, वो जा सकता है, तुम जा चुके हो। रमाधीर सिंह की कालजयी पंक्ति ही बची है याद करने को अब, “और कितना बेइज्जत कराओगे बाप को?”

इस आर्टिकल का वीडियो यहाँ देखें


कॉन्ग्रेस कर रही है बेरोजगारों की भर्ती, CD वाले से लेकर ‘कमरा’ वाले कतार में

चौकीदार vs बेरोजगार

ट्विटर पर चौकीदार और बेरोजगार की लड़ाई में योद्धा अपने अपने शिविर से निकल चुके हैं। सबने अपने पिछले रिकॉर्ड और क्षमता के साथ न्याय करते करते हुए अपने-अपने टैग और प्रोफ़ेशन चुन लिए। इसमें चौकीदार बनी है प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सेना और बेरोजगार बनी है कॉन्ग्रेस पार्टी की कार्यकर्ता टीम!

कॉन्ग्रेस के बेरोजगारों में सबसे पहला नाम जो नजर आया, वो है राहुल गाँधी के बाद पार्टी के दूसरे युवा नेता, कॉन्ग्रेस पार्टी अध्यक्ष पद के कड़े प्रतिद्वंदी और ‘पाटीदार आंदोलन फेम’ हार्दिक पटेल का। जिस हार्दिक पटेल का राजनीति में स्वागत ही एक ‘CD-काण्ड’ के साथ होता है, उसका ‘चौकीदार’ होना समाज के लिए उचित भी नहीं है।

ऑपइंडिया तीखी मिर्ची सेल द्वारा जारी ‘चुनावी बेरोजगारी’ के आँकड़े

बेरोजगार कॉन्ग्रेस

मेरा मानना है कि हार्दिक पटेल की बेरोजगारी इस देश के युवा के लिए एक मानक की तरह आदर्श बेरोजगारी घोषित की जानी चाहिए। यह युवा नेता ऐसा बेरोजगार है, जो पिछले 4-5 सालों में पाटीदार जाति के लिए आरक्षण का झंडा उठाकर बहुत ही कम समय में राष्ट्रीय केजरीवाल बनकर उभरा है। अपने इस तमाम सफर में हार्दिक पटेल CD-काण्ड जैसी एक के बाद एक बड़ी कठिनाई से गुजरे। इसके बाद ब्याह रचाया और अब 2019 के आम चुनाव से पहले अपनी सभी बड़ी जिम्मेदारियाँ निपटाने के बाद समय से अपना सेटलमेंट करने के लिए बेरोजगार हो जाना चुन चुके हैं। हार्दिक पटेल को ‘आदर्श बेरोजगार’ का दर्जा देना चुनावी घोषणापत्र में शामिल किया जाना चाहिए। कॉन्ग्रेस पार्टी के भीतर रहते हुए ‘दर्जा-दिलाऊ’ पत्रकारों के अभियान से यह जल्दी से संपन्न भी हो जाएगा। हार्दिक पटेल की बेरोजगारी इसलिए भी चर्चा का विषय होनी चाहिए कि बहुत ही कम समय में उन्हें देश की सबसे प्राचीन राजनीतिक पार्टी ने भर्ती किया और उसके बाद वो बेरोजगार हो गए।

बेरोजगार पत्रकार

खुद को बेरोजगार बताने की लहर मोदी लहर से ज्यादा चली है। जबकि, अगर आप आँकड़े देखें तो 2014 में नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने से बहुत से लोगों को रोजगार मिला है। रोजाना नरेंद्र मोदी सरकार के घोटालों के स्वप्न को सच साबित करने वालों को रोजगार मिला है, संसद में उनके गले पड़ने वालों को रोजगार मिला है। मीडिया में बैठे पत्रकारिता के समुदाय विशेष को तो सबसे ज्यादा रोजगार मिला है। जिन पत्रकारों को TRP न आने के चलते नौकरी छिन जाने का भय भी सताने लगा था, उन्होंने भी पाकिस्तान में अच्छी-खासी फैन फॉलोविंग पुलवामा आतंकी हमले के दौरान दिन-रात प्रोपेगेंडा चलाने की मेहनत कर के जुटा ली है। ये मीडिया गिरोह तो मन ही मन चाह रहा होगा कि अबकी बार फिर से नरेंद्र मोदी ही सरकार बनाएँ, ताकि इनके पास खूब रोजगार के अवसर और मुद्दे रहें। अख़बारों की ख़बरों को काट-पीटकर TV चैनल पर अपने प्रोपेगेंडा के अनुसार बनाकर प्रस्तुत करना क्या रोजगार नहीं है?

यदि इन सब रोजगार के आँकड़ों को भी नकार दिया जाए, तो 2 मिनट का समय निकालकर आप उस आदमी के बारे में सोचिए, जिसे सिर्फ इसलिए रोजगार मिला हुआ है क्योंकि एक मुद्दों से भटका हुआ मनचला पत्रकार रोज शाम को उससे अलग-अलग भाषाओं में अपने फेसबुक स्टेटस को ट्रांसलेट करवा रहा है।

बेरोजगार कॉमेडियंस

मोदी सरकार के शपथ ग्रहण करते ही रोजगार की लहर सबसे ज्यादा कॉमेडियंस के बीच देखने को मिली है। इतिहास में यह पंचवर्षीय, कॉमेडियंस का स्वर्णकाल कहलाई जाएगी। इस दौरान वो लोग भी कॉमेडियन कहलाए गए हैं, जिन्होंने रेलवे प्लेटफॉर्म पर बिकने वाली अकबर-बीरबल के चुटकुलों वाली किताब से चुटकुले पढ़कर यूट्यूब पर सुनाकर वायरल कर डाले। उनकी कॉमेडी का हुनर कॉन्ग्रेस को इतना भाया है कि राज परिवार द्वारा मोदी सरकार को गाली देने के लिए उसे अब भाड़े पर रख लिए गए।

हालाँकि, इन सभी सस्ते-महँगे कॉमेडियंस द्वारा कॉमेडी के नाम पर बनाए गए चुटकुले इतने बकवास थे कि उन्हें कॉमेडी कहा जाना ही सबसे बड़ी कॉमेडी हो पड़ी। AIB समूह के साथ इस दौरान जो घटना घटी, वो चौंका देने वाली थी। इसमें कॉमेडी ये थी कि अपने #MeToo कांडों का ठीकरा वो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के सर पर नहीं फोड़ सके और AIB एक नाकाम फिदायीन की तरह ‘Self Goal’ को प्राप्त हुआ। फिर भी, AIB की दुकान बंद होने का दारोमदार राहुल गाँधी ने अपने कन्धों पर संभाले रखा और जनता को कभी भी इंटरटेनमेंट में कोई कमी महसूस नहीं होने दी।

बेरोजगार फ़्रीलांस प्रोटेस्टर्स और कॉन्ग्रेस IT ट्रॉल सेल

JNU की फ्रीलांस प्रोटेस्टर शेहला रशीद से लेकर व्हाट्सएप्प यूनिवर्सिटी में रिश्तेदरों के ग्रुप में होने वाली ‘वायरल तस्वीर‘ का फैक्ट चेक कर के अपनी दुकान चलाने वाले लोगों के रोजगार के आंकड़ों में भी ‘बूम’ नजर आया है। कभी-कभी ‘फैक्ट चेक’ की कमी के चलते इनका धंधा मंद हुआ, लेकिन यही मौका था जब उनकी रचनात्मकता से लोग खुश होते और वो अपने प्रोपेगैंडा के चितेरे प्रशंसकों की उम्मीदों पर खरे उतरे। ये सब मोदी सरकार के दौरान ही तंदुरुस्त हुए हैं। देखा जाए तो इन्हें मोदी सरकार का शुक्रगुजार होना चाहिए, जिसके विरोध में लिखने और ‘ऑन डिमांड धरना प्रदर्शन’ के कारण इनका अस्तित्व लोगों के सामने आ सका। इसी तरह से कॉन्ग्रेस और AAP का संयुक्त IT सेल प्रमुख ध्रुव राठी भी यदि खुद को बेरोजगार कह दे, तो उसे भी तुरंत कॉमेडियन का दर्जा देकर रोजगार में तब्दील कर दिया जाना चाहिए।

बेरोजगार महागठबंधन

2019 के आम चुनाव के बाद जो सड़क पार आने की स्थिति में होगा वो होगा महागठबंधन। नरेंद्र मोदी के दुबारा प्रधानमंत्री बनने का सपना देखने वाले समाजवादी नेताजी तो अब मार्गदर्शक मंडल में ही रोजगार पाएँगे, लेकिन अखिलेश यादव और बहन मायावती के साथ यदि जनता ने कॉमेडी कर दी तो उनका ट्विटर एकाउंट में भी बेरोजगार जुड़ना तय है।

बेरोजगार आम आदमी पार्टी वालंटियर्स

आज के समय में यदि कोई सबसे ज्यादा बेरोजगार है, तो वो है नई वाली राजनीति फेम आम आदमी पार्टी अध्यक्ष अरविन्द केजरीवाल। वो गिड़गिड़ाकर, रो-रो कर गठबंधन की भीख माँग रहे हैं, लेकिन गठबंधन है कि उन्हें रोजगार देने को तैयार ही नहीं है।

आप चुनावी माहौल में सिर्फ चुनावी चकल्लस की तलाश में निकले हैं, इसलिए मामले की गंभीरता से आप दूर हैं। आप बेरोजगार हार्दिक पटेल का असल मर्म नहीं जानते। कॉन्ग्रेस पार्टी में पहले से ही एक चिर युवा अध्यक्ष राहुल गाँधी अध्यक्ष पद पर मौजूद हैं। अब, जब एक पाटीदार देश के सबसे प्राचीन राजनीतिक दल में घुस चुका है, तो वो आरक्षण के बल पर अध्यक्ष पद पाने की महत्वाकांक्षा मन में पाल रहा है। अब जब तक उसे ये पद मिल नहीं जाता, उसने खुद को बेरोजगार मानने का संकल्प धारण कर लिया है। इस तरह से अभी तक कॉन्ग्रेस  में सिर्फ राहुल गाँधी ही भाजपा के स्टार प्रचारक माने जाते थे लेकिन अब हार्दिक पटेल भी भाजपा की स्लीपर सेल इकाई के तौर पर देखे जाने चाहिए।

जो भी है, मगर ये VIP बेरोजगार एंटरटेनमेंट में कोई कमी नहीं आने दे रहे दे रहे हैं। आम आदमी को इससे ज्यादा और चाहिए भी क्या?

ममता सरकार ने जनतंत्र के साधनों पर कब्ज़ा कर लिया है: टीना बिस्वास

जब सरकार जनतंत्र के साधनों पर कब़्जा करने लगे और अभिव्यक्ति की स्वतत्रंता पर लगाम कसने लगे तो यह चिंता और चेतावनी की स्थिति है और यही हालात पश्चिम बंगाल में भी है। जानी-मानी उपन्यासकार और विचारक टीना बिस्वास ने मंगलवार को कोलकाता प्रेस क्लब में अपनी तीसरी पुस्तक ’द एंटागाॅनिस्ट’ के विमोचन के अवसर पर अपनी वेदना व्यक्त की।

पुस्तक विमोचन के दौरान अपने विचार प्रकट करती टीना बिस्वास

’’आधुनिक काल में पश्चिम बंगाल की राजनीति को जो चीज़ रुग्ण कर रही है उसका खुलासा करने के लिए मैंने उपन्यास को माध्यम बनाया है। एक वक्त था जब हम सबने बड़ी आशा लगाई थी कि यहाँ पर सरकार में होने वाला परिवर्तन दिखेगा, लेकिन दुर्भाग्य से वह आशा बेहद अल्प-जीवी साबित हुई।’’ बिस्वास ने बताया कि उनका जन्म बंगाली दंपत्ति के घर में हुआ और उन्होंने आक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी में राजनीति, दर्शनशास्त्र एवं अर्थशास्त्र की पढ़ाई की। उनकी तीसरी किताब ’द एंटागाॅनिस्ट’ के बारे में सांसद शशि थरूर का कहना है, ’’यह एक दिलचस्प और आविष्कारशील राजनीतिक उपाख्यान है। यह सुस्पष्ट, अभिगम्य, चपल और अत्यतं मौलिक उपन्यास है।’’

एशियन रिव्यू ऑफ बुक्स ने इस पुस्तक के लिए लिखा है, ’’राजनीतिक प्रवंचना के प्रशंसक इस व्यंग्यपूर्ण कथा को सराहेंगे, जो पश्चिम बंगाल के शासक वर्गों में फैले कपटाचरण, मीडियाई जोड़तोड़ और हत्याओं के किस्से बयां करती है।’’ पुस्तक के प्रकाशक फिंगरप्रिंट के प्रतिनिधि उपन्यास के बारे में कहते हैं, ’’व्यक्ति के संग राजनीति को निर्बाध ढंग से एक करते हुए और कल्पना को वास्तविकता के साथ मिलाते हुए ’द एंटागाॅनिस्ट’ आधुनिक राजनीति के काले एवं विसंगति भरे व्यंग्य को प्रकट करती है।’’

टीना बिस्वास बताती हैं, ’’यूनाइटेड किंग्डम में जन्म व पालन पोषण के बावजूद मेरे हृदय में बंगाली संस्कृति का विशेष स्थान है और इसीलिए इसमें कोई हैरानी की बात नहीं है कि मेरे तीनों उपन्यासों का पश्चिम बंगाल से गहरा नाता है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और जनतंत्र के मूल्याों में गहन विश्वास रखने वाले व्यक्ति के तौर पर मुझे, आजकल लगाए जाने वाले प्रतिबंधों से बहुत दुख होता है- चाहे वह सिनेमा पर रोक हो या फिर असहमति की आवाज़ को दबाना। सार्वजनिक स्वतंत्रता के क्षेत्र में सरकार के दमन के विरुद्ध मैंने अपनी लेखनी से सदैव आवाज़ बुलंद की है।’’ द गार्जियन द्वारा टीना बिस्वास को ’स्वाभाविक लेखक’ करार दिया गया है। विख्यात राजनीतिक टिप्पणीकार व लेखक मैथ्यू डी’ऐनकाॅना ने घोषित किया है कि ’द एंटागाॅनिस्ट’ ’’एक शानदार सामाजिक व्यंग्य है। इसकी गति, दनदनाते संवाद और मेधावी अवलोकन ईवलिन वाॅ के जादुई लेखन का एहसास कराते हैं।’’

अपने उपन्यास का प्रचार करने के लिए टीना कोलकाता और दिल्ली की यात्रा कर रही हैं। बिस्वास ने पश्चिम बंगाल में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के दमन और बिगड़ते राजनीतिक हालात के संदर्भ में कहा, “मैं समझती हूँ कि जो सही है, उसके लिए खड़े होना मेरा कर्तव्य है और इस हेतु लिखने से बेहतर तरीका और भला क्या हो सकता है।’’ टीना बिस्वास ने एक दिन पहले सोमवार को ऐमिटी यूनिवर्सिटी के विद्यार्थियों के साथ संवाद भी किया था।

‘बिहारी डकैत’ कहकर चंद्रबाबू नायडू ने किया बिहार और प्रशांत किशोर का अपमान

ओंगोल में एक रैली को सम्बोधित करने के दौरान आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू ने बिहार का अपमान किया। उन्होंने बिहार और बिहारियों के प्रति अपनी असंवेदनशीलता को दर्शाते हुए जदयू नेता व राजनीतिक रणनीतिकार प्रशांत किशोर को ‘बिहारी डकैत’ विशेषण से नवाज़ा। उन्होंने तेलंगाना के मुख्यमंत्री के चंद्रशेखर राव पर तेदेपा व कॉन्ग्रेस विधायकों को हथियाने का आरोप मढ़ा। तेदेपा (तेलूगु देशम पार्टी) सुप्रीमो ने कहा कि केसीआर आपराधिक राजनीति में उतर आए हैं और वह एक-एक कर तेदेपा व कॉन्ग्रेस विधायकों को अपने पाले में अपनी पार्टी में शामिल करने का प्रयास कर रहे हैं। जदयू उपाध्यक्ष प्रशांत किशोर पर अपना गुस्सा निकालते हुए नायडू ने उन पर आंध्र प्रदेश में 7 लाख वोटरों का नाम कटवाने का आरोप लगाया।

बता दें कि चुनावी प्रचार के लिए सेवा देने वाली प्रशांत किशोर की कंपनी आईपैक ने इन दिनों नायडू के खिलाफ खड़े वाईएसआर कॉन्ग्रेस के लिए प्रचार का जिम्मा थाम रखा है। प्रशांत किशोर ने इसे पुराना असाइनमेंट बताया है। वाईएसआर कॉन्ग्रेस के अध्यक्ष जगन मोहन रेड्डी फिलहाल आंध्र प्रदेश विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष हैं। उनके दिवंगत पिता राजशेखर रेड्डी आंध्र के लोकप्रिय मुख्यमंत्री थे। कॉन्ग्रेस के दिग्गज नेताओं में शुमार रेड्डी की एक हैलीकॉप्टर दुर्घटना में मृत्यु हो गई थी। नायडू ने प्रशांत किशोर पर निशाना साधते हुए कहा:

“जाँच में यह भी पता चला है कि सारा खेल बिहार से रचा गया है और नाम कटवाने के लिए भेजे गए आवेदन बिहार से भेजे गए थे। टीडीपी कार्यकर्ताओं और समर्थकों से जुड़े कई डेटा प्रशांत किशोर ने चोरी छिपे हासिल किए और फिर उसको जगन मोहन रेड्डी की पार्टी वाईएसआर कॉन्ग्रेस को सौंप दिया है। राज्य सरकार के द्वारा गठित स्पेशल एसआईटी मामले की जाँच कर रही है और यह सारा खेल प्रशांत किशोर के दिमाग की उपज है। प्रशांत किशोर ने वाईएसआर को सेवाएँ मुहैया कराने के नाम पर काफी घृणित काम किया है।”

प्रशांत किशोर ने ट्वीट कर नायडू के इस बयान का जवाब दिया। जदयू उपाध्यक्ष ने कहा कि आसन्न पराजय को देख कर बड़े से बड़े नेता भी हिल उठते हैं। उन्होंने नायडू के बयानों को आधारहीन बताते हुए कहा कि उनके द्वारा इस तरह के अपमानजनक शब्दों का प्रयोग करना बिहार के प्रति उनकी प्रतिकूल और द्वेषपूर्ण सोच को दर्शाता है। उन्होंने नायडू को इस बात पर ध्यान देने को कहा कि आंध्र के लोग उन्हें फिर से क्यों वोट करें?

विश्लेषकों का मानना है कि प्रशांत किशोर के पुराने रिकार्ड्स को देखते हुए चंद्रबाबू नायडू ने उन पर निशाना साधा है। किशोर इस से पहले नरेंद्र मोदी और बिहार लालू-नितीश महागठबंधन के लिए रणनीति तैयार कर चुके हैं। दोनों ही चुनावों में उन्हें सफलता मिली थी। हाँ, कॉन्ग्रेस के साथ उनका दाँव असफल रहा था। नायडू को आशंका है कि प्रशांत किशोर की मदद से जगन मोहन रेड्डी को फ़ायदा हो सकता है। बता दें कि लोकसभा चुनाव के ऐन पहले चुनाव आयोग को 9,27,542 नामों को हटाने की गुजारिश की गई है। इसमें सबसे ज्यादा नाम वाईएसआर कॉन्ग्रेस की तरफ से फॉर्म 7 के जरिए हटाने की माँग की गई है। फॉर्म-7 का इस्तेमाल मतदाता अपना नाम या किसी अन्य का नाम मतदाता सूची से हटाने के आवेदन के लिए करते हैं। इसीलिए नायडू ख़फ़ा हैं।

आंध्रा प्रदेश में लोकसभा चुनाव के साथ ही विधानसभा चुनाव भी होने वाले हैं। जगन रेड्डी और भाजपा अभी तक एक दूसरे के प्रति सॉफ्ट रहे हैं और आंध्र में भाजपा की उपस्थिति नगण्य होने के कारण जगन के उद्भव से उसे फ़ायदा मिल सकता है। प्रदेश के विभाजन के कारण कॉन्ग्रेस से भी लोग ख़ुश नहीं हैं। जगन रेड्डी जहाँ आंध्र में सरकार बनाकर राष्ट्रीय राजनीतिक पटल पर नाम बनाने की जुगत में लगे हैं वहीं महागठबंधन के पीछे ताक़त लगाने वाले नायडू राष्ट्रीय राजनीति में प्रासंगिक बने रहने के लिए आगामी चुनाव में ज़ोर लगा रहे हैं।

फैक्ट चेक: नकली है मस्जिद हमले के बाद 350 कीवियों का इस्लाम अपनाने का दावा

सोशल मीडिया पर एक खबर आग की तरह फैली कि न्यूज़ीलैंड में गत सप्ताह हुए नरसंहार के बाद 350 न्यूज़ीलैंड निवासियों ने कलमा पढ़ इस्लाम कबूल लिया है। सबूत के तौर पर ढाई मिनट का एक वीडियो भी प्रसारित हो रहा था। इसे कई व्हाट्सप्प ग्रुप और सोशल मीडिया में यह कहकर प्रचारित किया गया कि इस्लाम को लोग पसंद कर रहे हैं और हमले के बाद लोगों की रुचि इसमें बढ़ी है।

पर मीडिया में जल्दी ही इसका खण्डन भी प्रसारित होने लगा। थोड़ी सी पड़ताल के बाद ही पता चल गया कि न्यूज़ीलैंड में ऐसे किसी सामूहिक मज़हब-परिवर्तन की खबर नहीं है। यही नहीं, जिस वीडियो का सहारा लिया जा रहा है, वह भी कहीं और का और बहुत पुराना है।

संख्या, तारीख, देश: सब कुछ फ़ेक

उस वीडियो के उद्गम का पीछा करते-करते मीडिया जब यूट्यूब खँगालने लगा तो पता चला कि वह वीडियो न्यूज़ीलैंड नहीं जर्मनी का है और वह भी 12 साल पुराना (वीडियो की अपलोड की तारीख यूट्यूब पर 25 अगस्त, 2007 पड़ी हुई थी)।

यही नहीं, प्रोपेगैंडा वीडियो में जहाँ 350 लोगों के कलमा पढ़ने की बात थी, वहीं असली वीडियो में केवल 5 जर्मन नागरिकों के इस्लाम कबूल करने का दावा किया गया था।

मूल वीडियो का स्क्रीनशॉट जहाँ इसकी पुरानी तारीख बताई गई है। अब इस पेज से ओरिजिनल वीडियो को हटा दिया गया है।

शाहिद सिद्दीकी ने किया रीट्वीट, फिर डिलीट

उस फ़ेक न्यूज पर आधारित एक ट्वीट को वरिष्ठ पत्रकार, उर्दू साप्ताहिक ‘नई दुनिया’ के संपादक, व पूर्व राज्यसभा सदस्य शाहिद सिद्दीकी ने भी रीट्वीट कर खबर पर खुशी जाहिर की। बाद में हमने उनका वह ट्वीट ढूँढ़ने का प्रयास किया तो वह कहीं मिला नहीं, यानी उन्होंने उसे बाद में डिलीट कर दिया था।

उनका यह ट्वीट अब उपलब्ध नहीं है

उनके अलावा नकीब न्यूज़ नामक एक वेबसाइट ने भी इस खबर को चलाया है

मूल चैनल से भी गायब  

उस वीडियो का उद्गम मीडिया रिपोर्ट्स में जिस यूट्यूब चैनल ‘DedicatedMoslem’ को बताया जा रहा था (चैनल की पहचान गाजा-समर्थक प्रोफ़ाइल पिक्चर से हुई), उसके यूट्यूब प्लेलिस्ट से भी फिलहाल वह वीडियो गायब है। सरसरी निगाह डालने पर ये चैनल इस्लाम के प्रचार से जुड़ा प्रतीत होता है।

चिरयुवा राहुल के ‘बूढ़ों की फ़ौज’ बनाम ‘रूढ़िवादी’ BJP के युवा मुख्यमंत्रियों की टोली

जब भाजपा और कॉन्ग्रेस के बीच तुलना की बात आती है तो दोनों ही दलों के मुखिया की बात की जाती है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के रूप में जहाँ राजग सरकार के पास एक ऐसा चेहरा है जिसने चाय बेचने से शुरू कर प्रधानमंत्री तक का सफर तय किया। वहीं अमित शाह के रूप में उनके पास एक ऐसा व्यक्ति है जिसने पोस्टर चिपकाने से शुरू कर दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी के अध्यक्ष तक का सफर तय किया। उधर कॉन्ग्रेस के मुखिया की बात आती है तो 1978-2019 के बीच गुजरे चार दशकों में अगर नरसिंह राव और सीताराम केसरी को छोड़ दिया जाए तो गाँधी परिवार के लोग ही अध्यक्ष रहे हैं। सोनिया गाँधी तो लगातार 19 वर्षों तक अध्यक्ष बनी रहीं। भाजपा की बात करें तो पार्टी के अब तक के 10 अध्यक्षों में से एक भी ऐसे नहीं रहे हैं, जिसके पिता पार्टी में किसी पद पर रहें हों।

अमित शाह 49 वर्ष की उम्र में भाजपा के अध्यक्ष बने थे। नितिन गडकरी जब भाजपा अध्यक्ष बने थे, तब उनकी उम्र 50 वर्ष थी। अब बात भाजपा के मुख्यमंत्रियों की करते हैं। यहाँ आपको बताना ज़रूरी है कि जनसंख्या के मामले में देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश और जीडीपी के मामले में देश के सबसे अमीर राज्य महाराष्ट्र के मुख्यमंत्रियों की उम्र 50 से कम है। इन दोनों में से किसी के भी पिता या परिवार का कोई व्यक्ति भाजपा संगठन या सरकार में किसी बड़े पद पर नहीं रहा है। जहाँ योगी आदित्यनाथ ने गोरखनाथ पीठ से अपने आध्यात्मिक एवं राजनीतिक सफर की शुरुआत की, देवेंद्र फडणवीस ने बहुत कम उम्र में नागपुर का मेयर बन इतिहास रचा था।

हरियाणा के मुख्यमंत्री 64 वर्षीय मनोहर खट्टर भाजपा के सबसे उम्रदराज मुख्यमंत्री हैं। वहीं अरुणाचल प्रदेश के 39 वर्षीय प्रेमा खांडू भाजपा के सबसे युवा मुख्यमंत्री हैं। कुल मिला कर देखें तो भाजपा के 12 मुख्यमंत्रियों में से 5 ऐसे हैं, जिनकी उम्र 48 वर्षीय चिरयुवा राहुल गाँधी से कम है। योगी आदित्यनाथ और देवेंद्र फडणवीस- ये गाँधी से छोटे हैं। दोनों का ही लंबा प्रशासनिक अनुभव रहा और और वे एक कुशल प्रशासक के रूप में प्रख्यात हैं। 75 ज़िलों वाले उत्तर प्रदेश को संभाल रहे योगी आदित्यनाथ ने कड़ी कार्रवाई करते हुए राज्य के अपराधियों में भारी हड़कंप मचा दिया है। वहीं देवेंद्र फडणवीस महाराष्ट्र जैसे जटिल राज्य और शिवसेना जैसे हंगामेबाज गठबंधन साथी को संभाल रहे हैं। गोवा के नए मुख्यमंत्री प्रमोद सावंत की उम्र भी 45 वर्ष है।

अब एक नज़र कॉन्ग्रेस के मुख्यमंत्रियों पर डाल लेते हैं। अभी हाल ही में तीन बड़े राज्यों में पार्टी की सरकार बनी। इसमें मध्य प्रदेश में 72 वर्षीय कमलनाथ और राजस्थान में 67 वर्षीय अशोक गहलोत को मुख्यमंत्री बनाया गया। ऐसा नहीं था कि कॉन्ग्रेस के पास विकल्पों का अभाव था। एमपी में ज्योतिरादित्य सिंधिया और राजस्थान में सचिन पायलट के रूप में उनके पास दो अनुभवी युवा नेता थे। दोनों ने ही चुनावों में ख़ासी मेहनत की थी और अंदेशा लगाया जा रहा था कि राहुल गाँधी जिस तरह से हर एक कार्यक्रम में ‘युवा-युवा’ रटते रहते हैं, उस हिसाब से इन दोनों को ही कमान दी जाएगी। लेकिन, हुआ इसके एकदम उलट। वैसे सिंधिया और पायलट- दोनों ही दिग्गज कॉन्ग्रेसी नेताओं के परिवारों से आते हैं। अगर इतने वर्चस्व वाले खानदानी युवाओं का पार्टी में ये हाल है तो संघर्ष कर आगे बढ़ने वालों की तो बात ही छोड़ दीजिए।

अगर भाजपा के सभी 12 मुख्यमंत्रियों की औसत उम्र की बात करें तो वो 53.5 आता है जबकि कॉन्ग्रेस के सभी 5 मुख्यमंत्रियों की औसत उम्र निकल कर 68.8 आता है। यानी दोनों पार्टियों के मुख्यमंत्रियों की औसत उम्र में क़रीब डेढ़ दशक का अंतर आ जाता है। ऐसा नहीं है कि उम्रदराज नेतागण कार्य नहीं करते। हमने अटल बिहारी वाजपेयी और नरसिंहा राव को उम्र के आखिरी पड़ाव पर भी एक कुशल प्रशासक की भूमिका निभाते हुए देखा है। लेकिन, अगर कोई पार्टी दिन-रात युवावर्ग की बातें करती है, दूसरी पार्टियों पर युवाओं को नज़रअंदाज़ करने के आरोप मढ़ती है, तो उस पार्टी को तो कम से कम उदाहरण पेश करना बनता है। राहुल अपनी हर रैली में युवाओं को रोजगार देने की बात करते हैं, उनके राजनीति में आने की बात करते हैं लेकिन ख़ुद की पार्टी में वह इसे लेकर गंभीर नहीं हैं।

पंजाब, मध्य प्रदेश और पुडुचेरी के कॉन्ग्रेसी मुख्यमंत्रियों की उम्र 70 पार है जबकि भाजपा के किसी भी मुख्यमंत्री ने अब तक 65 वर्ष की उम्र का दहलीज पार नहीं किया है। सबसे बड़ी बात तो यह कि भाजपा के सभी मुख्यमंत्रियों में से कोई भी खानदानी परिवार से नहीं आते हैं। पार्टी ने त्रिपुरा में 47 वर्षीय बिप्लव देब को मुख्यमंत्री बनाया। हिमाचल प्रदेश में 54 वर्षीय जयराम ठाकुर को मुख्यमंत्री बनाया गया। भाजपा के मुख्यमंत्रियों में से अधिकतर की उम्मीदवारी चुनाव से पहले घोषित नहीं की गई थी। अर्थात यह, कि इन्हे मुख्यमंत्री बनाने का निर्णय पार्टी आलाकमान ने लिया। भाजपा के 12 में से 3 मुख्यमंत्री ही ऐसे हैं, जिनकी उम्र 60 के पार है। अब मुद्दे पर आते हैं ताकि आपको पता चले की हम ये आँकड़ें क्यों गिना रहे हैं?

इन आँकड़ों का मक़सद क्या है?

भाजपा को अक्सर युवा विरोधी पार्टी बताया जाता है। बार-बार यह दिखाने की कोशिश की जाती है कि भाजपा और उसका हिंदुत्ववादी अजेंडा- दोनों ही युवाओं से कोसो दूर हैं। यही बोल कर भाजपा को एक रूढ़िवादी (Conservative) पार्टी के रूप में प्रचारित करने की कोशिश की जाती रही है। बताया जाता है कि आज का युवा ‘यो टाइप’ है और वो अपनी संस्कृति, परम्परा और धर्म को याद नहीं करना चाहता। वास्तविकता में भाजपा ने इस भ्रामक धारणा को तोड़ दिया है। विरोधियों के इस दुष्प्रचार पर भाजपा ने अपने एक्शन से वार किया। मोदी को तानाशाह कहने वाले आलोचकों को पता होना चाहिए कि उत्तर प्रदेश में कड़े छवि वाले योगी को मुख्यमंत्री बनाना भी पार्टी आलाकमान का ही निर्णय था।

राजनीति और खेल में बहुत अंतर है। जहाँ खेल में 35 की उम्र आते-आते खिलाड़ी के रिटायरमेंट की बारें शुरू हो जाती है, वहीं राजनीति में 35 के बाद पारी ही शुरू होती है। ऐसे में, मुख्यमंत्री और केंद्रीय मंत्री बनते-बनते ज़िंदगी खप जाती है, बशर्ते कि आप किसी बड़े नेता के परिवार से न आते हों। अगर आज की राजनीति में ऐसे युवाओं की खोज करनी है जो वंशवाद की उपज न हों तो भाजपा से बाहर शायद ही कोई नाम सूझे। बिहार में तेजस्वी यादव, यूपी में अखिलेश यादव, तेलंगाना में केटीआर, कश्मीर में उमर अब्दुल्लाह, मध्य प्रदेश में ,ज्योतिरादित्य सिंधिया, राजस्थान में सचिन पायलट, तमिलनाडु में उदयनिधि स्टालिन और हरियाणा में दीपेंद्र सिंह हुडा, ये सभी किसी न किसी दिग्गज नेता के बेटे हैं। वहीं भाजपा में लिस्ट ढूँढ़नी हो तो बस उनके मुख्यमंत्रियों पर एक नज़र दौड़ा लीजिए, आपको फ़र्क़ साफ़ पता चल जाएगा।

गोवा के दिवंगत मुख्यमंत्री मनोहर पर्रिकर ने जब राज्य की जिम्मेदारी संभाली थी, तब उनकी उम्र मात्र 45 वर्ष थी। उनके पास क्षमता थी, योग्यता थी, पार्टी ने उन पर भरोसा जताया। इसी तरह जब शिवराज सिंह चौहान जब मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री बने थे, तब उनकी उम्र 46 वर्ष थी। भाजपा के सबसे लम्बे कार्यकाल वाले मुख्यमंत्री डॉक्टर रमण सिंह ने भी 50 वर्ष की उम्र में पहली बार यह पद सम्भाला था। सार यह कि भाजपा में युवाओं की भूमिका पहले से ही प्रबल रही है और जब भी एक पीढ़ी के नेता रिटायर होने को आते हैं, दूसरी पीढ़ी उनका स्थान ग्रहण करने के लिए तैयार बैठी होती है, ये पीढ़ी उन नेताओं के परिवारों से नहीं होती। संघ और भाजपा को युवाओं से दूर बता कर कोसने वाले वास्तविकता जान कर बेहोश जाएँगे लेकिन सच यही है कि भारतीय जनता पार्टी में लम्बा अनुभव और युवा जोश का समुचित सम्मिश्रण है।

सचिन पायलट के ऊपर अशोक गहलोत को तरजीह दी गई

राहुल गाँधी ने कॉन्ग्रेस अध्यक्ष बनते ही पार्टी में युवाओं की भागीदारी सुनिश्चित करने की बात कही थी। क्या राहुल गाँधी बताएँगे कि उसके बाद हुए चुनावों में किन युवाओं को मुख्यमंत्री उम्मीदवार या मुख्यमंत्री बनाया गया? दिल्ली में फिर से 80 वर्षीय शीला दीक्षित को ही वापस लाया गया है। इन सबसे पता चलता है कि आगे भी इस बात के आसार कम ही हैं कि युवावर्ग को कॉन्ग्रेस पार्टी में कोई प्रतिनिधित्व मिले। हमें अनुभवी नेताओं की ज़रूरत है, वयोवृद्ध नेतागण हर मौसम को झेल कर आगे बढ़ने के कारण सही निर्णय लेने की क्षमता रखते हैं लेकिन अगर युवाओं को मौक़ा ही न मिले तो ऐसा अनुभव किस काम का। अटल-अडवाणी-जोशी की छाया में ख़ुद को स्थापित कर के मोदी-राजनाथ-शिवराज जैसे नेता ऊपर तक पहुँच सकते हैं तो वैसे ही उनकी छाया में योगी-फडणवीस-विप्लब जैसे नेता भी सत्ता की जिम्मेदारी संभाल सकते हैं। शायद यही कारण है कि कॉन्ग्रेस दिन पर दिन गर्त में चली जा रही है और भाजपा दुनिया की सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी है।