राजनीति में और खासकर विपक्ष में इन दिनों एक हल्ला उठा हुआ है और वो है भाजपा के केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी को लेकर। महागठबंधन से विभीषण की तरह लतियाए जाने के बाद अपने प्रधानमंत्री पद के चेहरे लिए तरसती और जूझती हुई ये पार्टी, इस मामले में ज्यादा मशगूल है कि सत्ताधारी पार्टी में क्या चल रहा है और क्या नहीं?
पहला सवाल तो यह है कि क्या भारत में आज विपक्ष की मात्र यह भूमिका रह गई है कि वो अपने घर में फैले रायतों को समेटने के बजाए, पड़ोस में चल रहे हो-हल्ला पर कान रखता है? इस तरह से इसे विपक्ष कम और मोहल्ले की उस मौसी का नाम देना ज्यादा बेहतर होगा, जिसे मोहल्ले भर के एक-एक घर की कानाफूसी से जुटाई हुई तमाम जानकारियों में रूचि रहा करती है।
कॉन्ग्रेस शासनकाल में वित्त मंत्री रह चुके पी चिदमबरम का मानना है कि नितिन गडकरी नरेंद्र मोदी को चुनावों के बाद चुनौती देने वाले हैं। यानी, आगामी आम चुनाव में भाजपा बहुमत जुटाने में विफल रहती है तो प्रधानमंत्री पद के लिए नितिन गडकरी अपनी दावेदारी ठोकेंगे।
दिवास्वप्न देखना और कॉन्सपिरेसी थ्योरी में यकीन करना कॉन्ग्रेस पार्टी का एक पार्ट टाइम पेशा बनता जा रहा है, और शायद इस तरह की संभावनाओं पर भविष्यवाणियाँ कर के कॉन्ग्रेस के नेता अपने लिए 2019 के आम चुनावों के बाद रोज़गार तलाश रहे हैं।
पार्टी अध्यक्ष मुँगेरीलाल ही जब सोते-जागते स्वप्न देखने में मशगूल हैं तो फिर सिपहसालारों से तो यह उम्मीद की ही जानी चाहिए। उनके सपनों के किस्से और कहानियाँ मैं पहले भी बता चुका हूँ।
क्या नरेंद्र मोदी को सिर्फ इसलिए नकार दिया जाना चाहिए, क्योंकि वो जनता के मर्म को जानते और समझते हैं?
तीन दशक तक सिंगापुर के प्रधानमंत्री रहे और सिंगापुर के संस्थापक माने जाने वाले ली कुआन यू ने नोटबंदी के बाद भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बारे में कहा था कि भारत की अर्थव्यवस्था को जिस प्रधानमंत्री की जरुरत थी, वो उसे मिल चुका है। उन्होंने कहा था कि नरेंद्र मोदी देश की जनता की नब्ज़ को समझते हैं और उस अनुसार काम भी करते हैं। साथ ही यह भी कहा था की भारत के नागरिकों की विशेषता है कि पहले तो ये लोग किसी काम के लिए हामी नहीं भरते, लेकिन जब एक बार रास्ते पर चल पड़ते हैं तो फिर पीछे मुड़कर नहीं देखते।
पिछले 4 सालों में जो एक बात सबसे ज्यादा गौर करने लायक रही है वो ये कि विपक्ष लगातार भाजपा की बिछाई पिच पर ही क्रिकेट खेलने उतरा है और नरेंद्र मोदी ऐन समय पर गुगली फेंक देते हैं जिससे विपक्ष की तमाम रणनीति तितर-बितर हो जाती है और वो पगबाधा होकर पवेलियन लौट जाता है।
वंशवाद और चमचागीरी में लिप्त कॉन्ग्रेस सरकार अपने वैचारिक और बुद्दिजीवी ब्रिगेड को मोर्चे पर लाने के बजाए निरंतर एक ऐसे प्यादे पर दाँव लगाने की फ़िराक में लगी रहती है, जिसे कुछ दिन पहले ही वो प्रियंका गाँधी को राजनीति में लाकर ‘जोकर’ साबित कर चुकी है। इसके लिए भी अगर वो किसी दिन नरेंद्र मोदी को ही जिम्मेदार ठहरा दें, तो कोई आश्चर्य की बात नहीं होगी। साथ ही, इतिहास गवाह है कि इस वंशवाद, शासन करने और सत्ता अपने हाथों में रखने की शौक़ीन यह पार्टी, अपने बुद्दिजीवी वर्ग को कभी घोटालों में बलि का बकरा बनाती आई है या फिर उन्हें किसी ना किसी तरह से पार्टी की मुख्यधारा से दूर कर के उनके पँख कुरेदते आई है।
राहुल गाँधी और उनकी गोदी मीडिया ये सत्य बखूबी जानती है कि वर्तमान सरकार की सबसे बड़ी जीत उनके कार्यकाल में एक भी घोटाले का न होना है। यही वजह है कि मुद्दों की कमी के चलते यह गिरोह प्रधानमंत्री को कभी तानाशाह तो कभी फासीवादी कहता नज़र आता है।
नितिन गडकरी को लेकर खेले जा रहे इस दाँव के लिए मुद्दों के लिए भटकती हुई विपक्ष की आत्मा ही जिम्मेदार है। लेकिन मेरा मानना है कि नितिन गडकरी के बयानों को मुद्दा बनाना उस संस्था के लिए स्वाभाविक है, जो खुद एक परिवार की दकियानूसी और चापलूसी में संलग्न रहने का आदी है।
कॉन्ग्रेस को स्वतंत्र विचार रखने वाले लोग सिर्फ और सिर्फ बगावती नज़र आते हैं क्योंकि उनके साथ यही होता आया है। नितिन गडकरी जैसा व्यक्तित्व हर हाल में भाजपा की धरोहर है और ये पार्टी में मौजूद लोकतंत्र को दर्शाता है, ना कि बगावत को। लेकिन अगर कॉन्ग्रेस यही बात समझ जाती तो आज देश की इतनी पुरानी पार्टी की कहानी कुछ और होती।
ये भाजपा ही है, जिसके नेता को एक ऐसे व्यक्तित्व के ख़िलाफ़ बोलने की आज़ादी है जिसके समर्थन में लोकतंत्र का एक बड़ा वर्ग मौज़ूद है, जबकि कॉन्ग्रेस पार्टी के हालात ये हैं कि जिसने भी शीर्ष नेतृत्व के विरुध्द आवाज़ उठाई उसे ही ‘उठा’ लिया गया। नीतिन गडकरी इस बात का उदाहरण हैं कि BJP में कम से कम कोई तो है भी जो मोदी को कह सके कि ‘हटो’, वरना कॉन्ग्रेस में तो जिस-जिस ने ‘हटो’ कहा, उसे ही ‘हटा’ देने की प्रथा रही है।
कॉन्ग्रेस का असल दर्द:
क्योंकि मोदी सरकार के दौरान कॉन्ग्रेस को आए दिन घोटाले, जनता पर आँसू गैस छोड़ने, रबड़ की गोलियाँ जैसे काण्ड देखने को नहीं मिल रहे हैं, इसलिए अब लीडरशिप में फूट डालने के लिए नई नौटंकी रच रही है। इसके लिए वो यदा-कदा उस गोदी मीडिया का भी सहारा लेते दिख जाता है, जो अब धीरे-धीरे उभरता हुआ कहानीकार बन चुका है। ‘व्हाट्सएप्प यूनिवर्सिटी’ के ‘जातिवाचक कुलपति’ तो इनके पास हैं ही।
नितिन गडकरी वही काम कर रहे हैं, जो एक मंत्रिमंडल से उम्मीद की जा सकती है। वो अगर सत्ता में रहते हुए शासन-प्रशासन की कमियों के बारे में बात करते हैं, तो यह लोकतंत्र के लिए एक बेहतरीन सबक है और हर राजनीतिक दल को इससे सीख लेनी चाहिए। यह हर मायने में प्रशंसा का विषय है, ना की मौकापरस्त होकर नरेंद्र मोदी सरकार को कोसने का।
प्यारे कट्टर विपक्षी साथियों, नींद से जाग जाइए और इस हक़ीक़त को समझकर स्वीकार करिए कि इस देश के नागरिक का असल रोना लोकतंत्र, पितृसत्ता या अभिव्यक्ति की आज़ादी जैसे प्रोपैगैंडा नहीं, बल्कि एक मजबूत विपक्ष की माँग है। बेहतर होगा कि आप ‘सरला मौसी’ होने के बजाए ,एक बेहतर राजनीति के विकल्प बनने पर ध्यान दें।