Sunday, September 29, 2024
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प्रधानमंत्री मोदी की तरह कमलनाथ को भी मिले ‘संदेह का लाभ’: शशि थरूर

कांग्रेस पार्टी द्वारा मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री के रूप में नामित किये गए कमल नाथ का बचाव करते हुए शशि थरूर ने कहा है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की तरह उन्हें भी “संदेह का लाभ” मिलना चाहिए। बता दें कि कमल नाथ पर 1984 सिख दंगों में शामिल होने का आरोप लगा था। तिरुअनंतपुरम सांसद थरूर ने उनकी तुलना प्रधानमंत्री से करते हुए कहा कि जैसे नरेन्द्र मोदी को 2002 दंगों में उनकी भूमिका को लेकर “संदेह का लाभ” मिला है वैसे ही कमल नाथ को भी मिलना चाहिए। थरूर ने आल इंडिया प्रोफेसनल कांग्रेस के सदस्यों से बातचीत करते हुए यह बयान दिया।

दरअसल उनसे जब ये सवाल पुछा गया कि क्या कमल नाथ को मध्य प्रदेश के भावी मुख्यमंत्री के रूप में नामित कर कांग्रेस अपने ही नैतिक मूल्यों का उल्लंघन कर रही है तब उन्होंने इसके जवाब में ये बयान दिया। उन्होंने कहा कि दंगों के दौरान कमलनाथ ऐसी स्थिति में नहीं थे कि उनके पास किसी तरह के अधिकार थे और न ही वह दिल्ली के मुख्यमंत्री थे। वह दंगों के दौरान इतने पावरफुल व्यक्ति नहीं थे, जो इतने बड़े स्तर पर दंगे फैला सकें, वैसे भी “किसी भी अदालत को उनके खिलाफ दोषी ठहराने के लिए कोई सबूत नहीं मिला है। असंतुलित और अप्रत्याशित आरोपों के आधार पर फैसला करना गलत है।”

कमल नाथ पर क्या है आरोप?

ज्ञात हो कि कमल नाथ के मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री बनाये जाने की घोषणा से पहले ही दिल्ली भाजपा के प्रवक्ता तेजिंदर बग्गा ने ट्वीट कर ये दावा किया था कि यह वही व्यक्ति है जिसने रकाबगंज गुरुद्वारा (गुरु तेगबहादुर जी का श्मशान घाट) जलाया था। उनके अनुसार इस फैसले से एक बार फिर कांग्रेस का सिख विरोधी चेहरे का पर्दाफाश हुआ है। यही नहीं, उन्होंने कांग्रेस के इस फैसले के विरोध में अनिश्चितकालीन अनशन की घोषणा भी कर दी है।

दूसरी ओर, आम आदमी पार्टी के बागी विधायक कपिल मिश्रा ने भी इस मुद्दे पर ट्वीट करते हुए लिखा था कि 1 नवम्बर 1984 के दिन दिल्ली के रकाबगंज गुरुद्वारा पर 4000 लोगों ने हमला किया और दो सिख (पिता और बेटे) को जिंदा जला दिया गया। मौके पर मौजूद सूरी नाम के प्रत्यक्षदर्शी पत्रकार ने जांच आयोग को बताया कि दंगाइयों की इस भीड़ का नेतृत्व कमलनाथ कर रहे थे।

2016 में हुए पंजाब चुनावों के दौरान कांग्रेस ने कमल नाथ को राज्य में पार्टी मामलों का प्रभारी बना कर भेजा था लेकिन सभी दलों के कड़े विरोध के बाद उन्हें इस पद से इस्तीफा देना पड़ा था। उस समय आम आदमी पार्टी के नेता और वकील एचएस फुल्का ने नानावती आयोग के निष्कर्षों और अखबारों की खबरों का उल्लेख करते हुए कहा था:

“सिखों के खिलाफ 1984 की हिंसा में कमलनाथ का नाम बार-बार आया है। वे उन्हें क्लीनचिट कैसे दे सकते हैं?’ खबरों से साफ पता चलता है कि कमलनाथ गुरुद्वारा रकाबगंज के बाहर जमा उपद्रवियों में मौजूद थे। वह वहां क्या कर रहे थे? यदि वह गुरुद्वारे की रक्षा करने पहुंचे थे तो उन्होंने वहां पीड़ित सिखों की मदद क्यों नहीं की जब उन्हें जिंदा जलाया जा रहा था और उनमें से तीन डॉक्टरी मदद के लिए गुहार लगा रहे थे?”

क्या मोदी को सच में मिला संदेह का लाभ?

ऐसे में कमल नाथ की तुलना नरेन्द्र मोदी के किये जाने पर ये अवाल उठना लाजिमी है कि क्या नरेन्द्र मोदी को सच में 2002 दंगों के मामले में संदेह का लाभ मिला था? इसकी पड़ताल के लिए थोड़ा पीछे जाना जरूरी है। अप्रैल 2012 में शीर्ष अदालत द्वारा गठित की गई एक एसआईटी ने तब गुजरात के मुख्यमंत्री रहे नरेन्द्र मोदी को गुजरात दंगे से जुड़े मामले में क्लीन चिट देते हुए कहा था कि उनके खिलाफ कोई भी साक्ष्य साबित नहीं होते। 2010 में एसआईटी द्वारा नरेन्द्र मोदी से लगभग नौ घंटों तक पूछताछ की गई थी।

छिन्दवाड़ा से नौ बार सांसद रहे कमल नाथ 17 दिसम्बर को कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गाँधी की मौजूदगी में मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री के रूप में शपथ लेंगे

सोनिया गाँधी के तमिलनाडु दौरे का कड़ा विरोध, लोगों ने ट्रेंड किया ‘गो बैक सोनिया’

चेन्नई स्थित द्रमुक मुख्यालय में पार्टी के पूर्व प्रमुख और तमिलनाडु के पूर्व मुख्यमंत्री करूणानिधि की प्रतिमा स्थापित की गई है जिसका अनावरण आज एक भव्य समारोह में किया जाना है। बता दें कि द्रविड़ राजनीती के दिग्गज नेता और तमिलनाडु की राजनीति में सात दशकों तक प्रासंगिक रहे करूणानिधि का निधन इसी साल अगस्त में हुआ था। वो पांच बार राज्य के मुख्यमंत्री रहे थे। माना जा रहा है कि इस समारोह के मंच से विपक्षी एकता दिखाने की पूरी कोशिश की जाएगी। ख़बरों की माने तो डीएमके प्रमुख और दिवंगत करूणानिधि के पुत्र एमके स्टालिन ने राज्य में अन्नाद्रमुक और केंद्र में भाजपा के खिलाफ एकता दर्शाने के लिए विपक्ष के कई बड़े नेताओं को आमंत्रण भेजा है। ऐसे में उम्मीद है कि 2019 में राजग के खिलाफ सम्भावित महागठबंधन के नेता इस समारोह के माध्यम से शक्ति-प्रदर्शन का कोई मौक़ा नहीं छोड़ेंगे।

वहीं कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गाँधी और पार्टी की पूर्व अध्यक्षा सोनिया गाँधी भी आज इस समारोह में हिस्सा लेने चेन्नई पहुँचने वाली है। इस खबर के फैलते ही तमिलनाडु में लोगों ने ट्विटर पर “गो बैक सोनिया” ट्रेंड कराना शुरू कर दिया। वहीं तमिलनाडु युवा भाजपा के अध्यक्ष एसजी सूर्या ने मुख्यधारा की मीडिया पर इस विरोध प्रदर्शन को नजरअंदाज करने का आरोप लगाया। उन्होंने अपने ट्वीट में कहा:

“सभी पत्रकार गो-बैक-मोदी वाले ट्रेंड पर पागल हुए जा रहे थे। ये उस समूह का हिस्सा थे जिन्होंने इस ट्रेंड की योजना बनाई, इसे ट्रेंड कराने में मदद किया और अपने न्यूज़ चैनलों पर लगातार इस से जुडी ख़बरें प्रसारित की। अब जब गो-बैक-सोनिया एक राष्ट्रव्यापी ट्रेंड (ट्विटर पर) बन गया है, तब वो ना तो इस बारे में ट्वीट करेंगे और ना ही इसे एक खबर की तरह रिपोर्ट करेंगे।”

बता दें कि “गो बैक सोनिया” आज ट्विटर के पांच चोटी के राष्ट्रीय ट्रेंड्स में शामिल था। सूर्या ने ट्वीट करते हुए ये भी कहा कि जिस इंदिरा गाँधी ने भ्रष्टाचार के आरोप में कभी करूणानिधि की सरकार बर्खास्त कर दी थी, उन्ही इंदिरा की बहू आज करूणानिधि की प्रतिमा के अनावरण करने आ रही है।

सोनिया गाँधी के गढ़ रायबरेली में गरजे पीएम मोदी; कहा रायबरेली बनेगा रेल कोच निर्माण का ग्लोबल हब

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने आज सोनिया गाँधी के संसदीय क्षेत्र रायबरेली को 1100 करोड़ रूपये के परियोजनाओं की सौगात दी। अपने पहले रायबरेली दौरे में मोदी ने राफेल पर चुप्पी तोड़ते हुए कहा कि कांग्रेस रक्षा सौदों के लेकर इसलिए भड़की है क्योंकि उसमें ‘क्वात्रोची मामा’ या फिर क्रिश्चेन मिशेल अंकल’ नहीं है। प्रधानमंत्री ने रायबरेली में कोच फ़ैक्टरी में उत्पादित 900वें रेल डिब्बे व हमसफर रेक को हरी झंडी दिखा कर देश को समर्पित करने के बाद अपनी रैली में कहा:

“यहां आने से पहले मैं पास ही में बनी मॉर्डन कोच फैक्ट्री में था। मैंने उस फैक्ट्री में इस वर्ष बने 900वें डिब्बे को हरी झंडी भी दिखाई। पहले की सरकारों की क्या कार्यसंस्कृति रही है, इसकी गवाह रायबरेली की रेल कोच फैक्ट्री भी है। ये फैक्ट्री 2007 में स्वीकृत हुई थी। 2010 में ये फैक्ट्री बनकर तैयार भी हो गई। लेकिन उसके बाद 4 साल तक इस फैक्ट्री में कपूरथला से डिब्बे लेकर उनमें पेंच कसने और पेंट करने का काम हुआ। जो फैक्ट्री नए डिब्बे बनाने के लिए थी, उसे पूरी क्षमता से कभी काम ही नहीं करने दिया गया।”

उन्होंने ये भी दावा किया कि आने वाले समय में रायबरेली रेल कोच निर्माण के मामले में एक ग्लोबल हब बनने वाला है। उन्होंने कहा कि कोच फैक्ट्री की संख्या बढ़ने से यहाँ के युवाओं के लिए भी हर तरह के रोजगार के अवसर बढ़ेंगे। रेल कोच फैक्ट्री पर पिछली कांग्रेस सरकार पर निशाना साधते हुए पीएम ने कहा:

“जब पहले की सरकार ने यहां पर रेल कोच फैक्ट्री का निर्माण तय किया था, तो ये तय हुआ था कि 5000 कर्मचारियों की नियुक्ति की जाएगी। लेकिन स्वीकृति इसके आधे पदों को ही दी गई। इतना ही नहीं, 2014 में हमने ये भी देखा कि यहां की कोच फैक्ट्री में एक भी नई नियुक्ति नहीं हुई थी। अब आज की स्थिति ये है कि लगभग 2 हजार नए कर्मचारियों को हमारी सरकार ने नियुक्त किया है।”

पीएम ने कहा कि कुछ लोग ऐसे भी हैं जिन्हें “भारत माता कि जय” से दिक्कत है। उन्होंने जनता को सम्बोधित करते हुए कहा कि आपको भले इस नारे से गर्व होता हो लेकिन कुछ लोगों को इस से शर्मिंदगी महसूस होती है। वहीं कांग्रेस द्वारा राफेल सौदे को विवादों में घसीटने को लेकर भी पीएम ने चुप्पी तोड़ते हुए इसे देश की सुरक्षा से खिलवाड़ बताया। उन्होंने तुलसीदास के रामचरितमानस की चौपाई “झूठई लेना, झूठई देना, झूठई भोजन, झूठ चबेना” का जिक्र कर इसका अर्थ समझाते हुए कहा कि कुछ लोग झूठ ही स्वीकार करते हैं, झूठ ही दूसरो को देते हैं, झूठ का ही भोजन करते हैं और झूठ ही चबाते हैं। उन्होंने कहा:

“ऐसे लोगों के लिए देश का रक्षा मंत्रालय भी झूठा है, देश की रक्षा मंत्री भी झूठी हैं, भारतीय वायुसेना के अफसर भी झूठे हैं।अब तो उन्हें देश की सर्वोच्च अदालत भी झूठी लगने लगी है।”

प्प्रधानमंत्री ने आरोप लगाया कि कांग्रेस ने अपनी सर्कार के दस सालों के कायकाल में भारतीय वायुसेना को मजबूत नहीं होने दिया। प्रधानमंत्री मोदी ने कहा कि कांग्रेस ने सेना के हित में अपनी सरकार द्वारा किये जाते हुए कार्य गिनाते हुए कहा:

“केंद्र में हमारी सरकार बनने के बाद 2016 में हमने सेना के लिए 50 हजार बुलेटप्रूफ जैकेट खरीदी। मैं देश को ये भी जानकारी देना चाहता हूं कि इस साल अप्रैल में पूरी 1 लाख 86 हजार बुलेट प्रूफ जैकेट का ऑर्डर दिया जा चुका है। ये जैकेट भारत की ही एक कंपनी बना रही हैक्षा सौदों के लेकर इसलिए भड़की है क्योंकि उसमें ‘क्वात्रोची मामा’ या फिर क्रिश्चेन मिशेल अंकल’ नहीं है।”

वहीं किसानों के बारे में बात करते हुए प्रधानमंत्री ने कांग्रेस पर स्वामीनाथन समिति की रिपोर्ट लागू नहीं करने का आरोप लगाया और कहा कि राजग सरकार ने न्यूनतम समर्थन मूल्य पर काम करते हुए स्वामीनाथन कमिटी की रिपोर्ट लागू की। साथ ही उन्होंने कर्नाटक सरकार पर निशाना साधते हुए काहा कि कांग्रेस ने 20 दिन में किसानों की कर्जमाफी का वादा किया था लेकिन छः महीने बीत जाने के बाद भी इस पर अमल नही किया गया।

प्रधानमंत्री ने रायबरेली में अपनी सरकार द्वारा किये गए कार्यों के आंकड़े को गिनाते हुए कहा कि अकेले रायबरेली में दो लाख गैस कनेक्शन दिए गए, आठ लाख बैंक खाते खोले गए और पचपन हजार घरों में मुफ्त बिजली कनेक्शन दिया गया। जनसभा को उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और देश के रेल मंत्री पियूष गोयल ने भी सम्बोधित किया।

बता दें कि रायबरेली कांग्रेस का सनातन गढ़ माना जाता है जहां से सोनिया गाँधी लगातार चौथी बार सांसद चुनी गई है। दिवंगत पूर्व प्रधामंत्री इंदिरा गाँधी भी इस क्षेत्र का दो बार प्रतिनिधित्व कर चुकी है। ऐसे में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के इस दौरे को काफी अहम माना जा रहा है।

विजय दिवस विशेष: भारत-पाक युद्ध जिसने दुनिया का नक्शा बदल दिया

ये उस विजय गाथा की दास्तान है जिसकी शुरुआत 3 दिसम्बर 1971 को हुई थी और जिसका अंत 16 दिसम्बर 1971 को पाकिस्तान की करारी हार के साथ हुआ। उस दिन के बाद से हर साल हम इस दिन को विजय दिवस के रूप में मनाते आ रहे हैं। ये सिर्फ भारत की ही विजय नहीं थी बल्कि पकिस्तानी हुकूमत और सेना द्वारा पूर्वी पकिस्तान के लोगों पर किये जा रहे क्रूर अत्याचार का अंत भी था। इस युद्ध के बाद पूर्वी पकिस्तान आजाद हुआ जिसे आज हम बंगलादेश के नाम से जानते हैं। कुल 93000 पाकिस्तानी सैनिकों के भारतीय सेना के समक्ष बिना शर्त समर्थन के साथ ख़तम हुए इस युद्ध ने दुनिया का नक्शा बदल दिया था। ये भारतीय सेना के पराक्रम, भारत सरकार की इक्षाशक्ति और पूर्वी पकिस्तान के लोगों के साहस की कहानी है। आइये जानते हैं कि 1971 में भारत और पकिस्तान के बीच हुए इस युद्ध के बारे में।

सबसे पहले बात करते हैं मृत्युंजय देवव्रत की 2014 में आई फिल्म “चिल्ड्रेन ऑफ़ वार” के एक दृश्य से जिसमे एक वीरान और अन्धकार भरी जगह पर एक ट्रक आकर रूकती है। उस ट्रक से सैकड़ों अधमरी सी महिलाओं को उतारा जाता है जिन्हें एक दूसरे से बाँध कर रखा गया है। ये एक दिल दहला देने वाला चित्रण था। लेकिन इसके आगे जो होता है वो पाकिस्तानी सेना का एक ऐसा चेहरा बेनकाब करता है जिस से ज्यादा वीभत्स और नृशंस शायद ही कुछ हो। उन महिलाओं को अलग-अलग उम्र के समूह में बाँट कर ये सुनिश्चित कर लिया जाता है कि उनमे से कौन सी महिलाएं बच्चों को जन्म देने के लायक है। जो इस काम में अयोग्य लगे उनकी तत्काल गोली मार कर हत्या कर दी जाती है और बाँकियों पाकिस्तानी सेना के कमांडर के हुक्म से बलात्कार किया जाता है। उनकी सोंच ये होती है कि इस घिनौने कृत्य द्वारा पूर्वी पकिस्तान में ऐसे बच्चे पैदा किये जाये जो आगे जाकर पाकिस्तानी हुकूमत और सेना के वफादार बने।

ये कोई कोरी कल्पना पर आधारित दृश्य नहीं था। ये कोई फिक्शन नहीं था। इस दृश्य द्वारा 1971 में पाकिस्तानी सेना द्वारा पूर्वी पकिस्तान के लोगों पर किये जा रहे नृशंस अत्याचार की बस एक झलक भर पेश की गई थी। ये एक ऐसी सच्चाई का चित्रण था जिसे कोई सपने में सोंच कर भी डर जाये। काहा जाता है कि इस युद्ध में पाकिस्तानी सेना द्वारा लगभग चार लाख से भी ज्यादा औरतों का बलात्कार किया गया था। इस अत्याचार ने पूर्वी पकिस्तान में मुक्ति वाहिनी को जन्म दिया जिससे आजादी के लिए संघर्ष का एक नया दौर शुरू हुआ। भारत की इन घटनाओं पर कड़ी नजर थी और पूर्वी पाकितान के स्वतंत्रता संग्राम के नेताओं द्वारा भारत से मदद की अपील करने के बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी ने सेना प्रमुख सैम मानेकशॉ से इस मामले में भारतीय हस्तक्षेप को लेकर राय मांगा। स्वराज्य में सैयद अता हुसैन के एक लेख के अनुसार तब सेना प्रमुख मानेकशॉ ने श्रीमती गाँधी को सितम्बर तक इन्तजार करने का सुझाव दिया क्योंकि तब तक हिमालय से निकलनेवाली नदियों में पानी के भरी बहाव की वजह से पकिस्तानी सेना भारतीय क्षेत्रों में आक्रमण करने में अक्षम होगी और तब तक बांग्लादेश मुक्ति वाहिनी द्वारा छेड़े गये संघर्ष की वजह से वहां की सरकार और सेना- दोनों ही कमजोर हो चुकी होगी। आखिरकार 1971 के दिसंबर महीने में ऑपरेशन चंगेज खान के जरिए भारत के 11 एयरबेसों पर हमला कर दिया जिसके बाद 3 दिसंबर 1971 में भारत और पाकिस्तान के बीच युद्ध की शुरुआत हुई।

आज के दिन पाकिस्तानी सेना के लेफ्टिनेंट जनरल अमीर अब्दुल्ला खान नियाजी ने 93000 पाकिस्तानी सैनिकों के भारतीय सेना के समक्ष एकतरफा और बिना शर्त आत्मसमर्पण वाले दस्तावेज पर हस्ताक्षर किया। उस समय बांग्लादेश मुक्ति वाहिनी का नेतृत्व भारतीय सेना के लेफ्टिनेंट जनरल जगजीत सिंह अरोड़ा कर रहे थे। नियाजी ने अपने बिल्ले को उतार कर और प्रतीक स्वरूप अपनी रिवॉल्वर लेफ्टिनेंट जनरल अरोड़ा को सौंप कर आत्मसमर्पण की घोषणा की। इस युद्ध में बांग्लादेश मुक्तिवाहिनी के 3843 जवान शहीद हुए जिसमे भारतीय और बंगलादेशी शामिल थे। ढाका का रमना रेस कोर्स जो अब सुहरावर्दी उद्यान के नाम से जाना जाता है, इस ऐतिहासिक घटना का गवाह बना।

तब से आज का दिन हर साल विजय दिवस के रूप में मनाया जाता है और इस युद्ध में शहीद हुए भारतीय सैनिकों को श्रधांजलि अर्पित की जाती है। तीनों सेनाओं के अध्यक्ष हर साल इंडिया गेट पर स्थित अमर जवान ज्योति पर एकत्रित होते हैं और आधिकारिक रूप से शहीदों को श्रधांजलि दी जाती है।

राफेल पर देश की जनता को गुमराह करने के लिए माफ़ी मांगे राहुल गाँधी: अमित शाह

भारत और फ्रांस के बीच हुए राफेल सौदे पर शीर्ष अदालत ने अपना फैसला देते हुए कहा है कि इस करार में नियमों का उल्लंघन नहीं हुआ है और इस मामले में अदालत द्वारा किसी भी प्रकार की छानबीन की जरूरत नहीं। इस मामले में मोदी सरकार को क्लीन चिट मिलते ही राजनितिक दलों और नेताओं की बयानबाज़ी भी तेज हो गई है। आइये सबसे पहले संक्षिप्त में जानते हैं कि राफेल सौदा है क्या और इसपर विवाद क्यों हुआ।

अप्रैल 2015 में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने पेरिस दौरे के दौरान फ्रांस से 36 राफेल जेट खरीदने की घोषणा की। इस सौदे के पीछे भारतीय वायु सेना की ऑपरेशनल जरूरतों का हवाला दिया गया। इस योजना पर अंतिम निर्णय 2016 में लिया गया जब लगभग 59000 करोड़ रुपये की इस डील के लिए दस्तखत किये गए। इसी साल अनिल अम्बानी की रिलायंस डिफेंस और दसौल्ट ने आधिकारिक रूप से एक दूसरे के साथ संयुक्त परियोजना पर काम करने की घोषणा भी की। इसके बाद आरोपों का दौर शुरू हुआ जब कांग्रेस ने ये दावा किया कि यूपीए सरकार ने 126 फाइटर जेट का डील किया था और वो भी तुलनात्मक रूप से कम लगत में। साथ ही कई बयानों में सरकार पर कम्पनी विशेष को फायदा पहुंचाने का आरोप भी लगाया गया।

वहीं शीर्ष अदालत ने राफेल में हुई कथित अनियमितताओं को लेकर दायर की गई याचिकाओं पर आज फैसला देते हुए कहा कि इस सौदे को लेकर और विमान खरीद प्रक्रिया पर उन्हें कोई शक नहीं है और अदालत इस मामले में अब कोई हस्तक्षेप नहीं करना चाहती है। अदालत के इस निर्णय को जहाँ भाजपा द्वारा सरकार को क्लीन चिट के तौर पर देखा गया वहीं संसद में भी इस मामले को लेकर हंगामा हुआ जिसके कारण संसद की कार्यवाही स्थगित करनी पड़ी।

भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने प्रेस कांफ्रेंस करते हुए कहा:

“राफेल सौदे के संबध में आये सर्वोच्च न्यायालय के फैसले का हम स्वागत करते हैं। आज सत्य की जीत हुई है। देश की आज़ादी के बाद से एक कोरे झूठ के आधार पर देश की जनता को गुमराह करने का इससे बड़ा प्रयास कभी नहीं हुआ और ये दुर्भाग्यपूर्ण है कि यह प्रयास देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस के अध्यक्ष के द्वारा किया गया। कांग्रेस अध्यक्ष ने अपने और अपनी पार्टी के तत्काल फायदे के लिए झूठ का सहारा लेकर चलने की एक नई राजनीति की शुरुआत की और सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने आज सिद्ध कर दिया है कि झूठ के पैर नहीं होते और अंत में जीत सत्य की ही होती है।”

अमित शाह ने राफेल खरीद के सम्बन्ध में देश की जनता को गुमराह करने और सेना के बीच में सन्देश पैदा करने के लिए राहुल गांधी को देश की जनता से मांफी मांगने की भी सलाह दी। उन्होंने आगे कहा:

“कांग्रेस पार्टी एक काल्पनिक जगत बनाकर बैठी हुई है जिसमें सच और न्याय की कोई जगह नहीं है। सवाल भी कांग्रेस पार्टी खड़े करती है, वकील भी वही हैं और न्यायाधीश भी वहीं है। आज कांग्रेस पार्टी देश के सर्वोच्च न्यायालय के फैसले पर सवाल खड़ा कर रही है।”

उधर कांग्रेस कि तरफ से बयान देते हुए रणदीप सिंह सुरजेवाला ने दावा किया कि उनकी पार्टी शुरू से ही इस मामले की जाँच जेपीसी से कराने के पक्ष में है और वो आज भी इस मांग पर अड़े हैं। उन्होंने कहा:

“हमने पहले ही कहा था कि सुप्रीम कोर्ट राफेल के भ्रष्टाचार की जांच नहीं कर सकता क्योंकि नियमों के तहत उसका दायरा सीमित है. इसलिए हमने न्यायालय का रुख नहीं किया था.’ कांग्रेस नेता ने कहा, ‘इस मामले में भ्रष्टाचार की कई परते हैं. इसकी छानबीन सिर्फ जेपीसी जांच से हो सकती है. इसमें तथ्य और साक्ष्य दोनों की छानबीन होनी है।”

साथ ही सुरजेवाला ने ये भी दावा किया कि प्रधानमंत्री मोदी जेपीसी द्वारा जाँच कराने से डर रहे हैं। ज्ञात हो कि जेपीसी का अर्थ होता है ज्‍वाइंट पार्लियामेंटरी कमेटी। यह संसद की वह समिति होती है जिसमें सभी दलों की समान भागीदारी हो। जेपीसी को यह अधिकार है कि वह किसी भी व्‍यक्ति, संस्‍था या किसी भी उस पक्ष को बुला सकती है जिसको ले‍कर जेपीसी का गठन हुआ है।

वहीं राफेल मामले में सरकार के खिलाफ याचिका दायर करने वाले आप के निष्काषित नेता और वकील प्रशांत भूषण ने तो शीर्ष अदालत के निर्णय को ही गलत बताते हुए कहा कि मेरा मानना है कि राफेल लड़ाकू विमान सौदे मामले पर सुप्रीम कोर्ट का निर्णय पूरी तरह गलत है। उन्होंने कहा कि सौदे को लेकर शुरू किया अभियान सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले के बाद भी नहीं रोका जाएगा. सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले के बाद हम पुर्नविचार याचिका दायर करने की संभावनाओं पर जल्द ही निर्णय ले सकते हैं।

हम राफेल सौदे की निर्णय प्रक्रिया से संतुष्ट, किसी भी प्रकार के जांच की जरूरत नहीं: शीर्ष अदालत

देश की शीर्ष अदालत ने राफेल फाइटर जेट करार को लेकर हुए सारे विवादों को विराम देते हुए कहा है कि वो इस मामले की निर्णय प्रक्रिया से पूरी तरह संतुष्ट हैं। राफेल सौदे को लेकर दाखिल की गई सभी याचिकाओं को ख़ारिज करते हुए मुख्य न्यायधीश तरुण गोगोई ने कहा कि सारी चीजों को ध्यानपूर्वक पढ़ने के बाद और रक्षा अधिकारीयों से विचार-विमर्श के बाद उन्होंने ये निष्कर्ष निकाला है कि इस मामले में अदालत द्वारा किसी भी प्रकार की छानबीन की जरूरत नहीं। बार एंड बेंच की वेबसाइट के अनुसार मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई, न्यायमूर्ति संजय किशन कौल और न्यायमूर्ति केएम जोसफ की पीठ ने निर्णय देते हुए कहा कि ये अदालत का काम नहीं है कि वो ओफ़सेट साझेदार चुनने और मूल्य निर्धारित करने जैसे मामलों में हस्तक्षेप करे।

अदालत ने इस बात से भी संतुष्टि जताई कि राफेल सौदे में नियमों का पालन किया गया और भारत को इस में वित्तीय बढ़त मिली है। प्राइसिंग पर अदालत ने कहा कि इस मामले में जाना अदालत का काम नहीं है। ऑफसेट पर अदालत ने कहा कि ये सरकार का नहीं बल्कि विक्रेताओं का निर्णय क्षेत्र है। साथ ही अदालत ने ये भी साफ़ कर दिया कि व्यक्तियों की अनुभूति हस्तक्षेप का आधार नहीं बन सकती।

ज्ञात हो कि छः लोगों द्वारा भारत और फ्रांस के बीच हुए 36 राफेल जेट के लिए हुए सौदे को लेकर कुल चार याचिकाएं दाखिल की गई थी। ये याचिकाएं दायर करने वाले लोगों में वकील प्रशांत भूषण, पूर्व भाजपा नेता यशवंत सिन्हा और आम आदमी पार्टी के नेता संजय सिंह इत्यादि शामिल थे। बता दें कि इस मामले पर सुनवाई करते हुए अदालत ने भारतीय वायु सेना के अधिकारीयों से उनकी जरूरतों के बारे में जाना था और रक्षा सचिव से इस प्रकिया को पूरी करने से पहले जो स्टेप्स लिए गए उस बारे में जानकारी मांगी थी।

अदालत के इस फैसले के बाद राफेल को लेकर दिए जा रहे विवादित बयानों और लगाये जा रहे भ्रष्टाचार और नियमों में उल्लंघन के आरोपों पर भी विराम लगने की उम्मीद है। उधर फ्रांस के विदेश मंत्री ने भी एक साक्षात्कार में ये साफ़ कर दिया है कि राफेल सौदे में साझेदारों को चुनने को लेकर उनपर भारत सरकार का कोई दबाव नहीं था।

राफेल करार को लेकर हम पर किसी प्रकार का दबाव नहीं डाला गया: विदेश मंत्री, फ्रांस

2012 से 2017 तक फ्रांस के रक्षा मंत्री रहे ली ड्रायन अभी भारत दौरे पर आये हुए हैं। ड्रायन अभी फ्रांस के विदेश मंत्री हैं। बता दें कि भारत और फ्रांस के बीच चर्चित राफेल करार पर भी इन्ही के रक्षा मंत्रित्व के कार्यकाल के दौरान अंतिम निर्णय लिया गया था। टाइम्स ऑफ़ इंडिया को दिए साक्षात्कार में उन्होंने बताया कि एक मंत्री के तौर पर ये उनका सोलहवां भारत दौरा है। ज्ञात हो कि इस साल भारत और फ्रांस एक दूसरे के बीच हुई पहली आधिकारिक रणनीतिक साझेदारी की बीसवीं वर्षगाँठ मना रहे हैं। उन्होंने अपने इस साक्षात्कार में राफेल से जुड़े सवालों पर भी जवाब दिया। जब उनसे पूछा गया कि राफेल पर चल रहे विवाद पर वो क्या टिपण्णी करना चाहेंगे तो उन्होने कहा:

“तब रक्षा मंत्री के तौर पर मैंने राफेल की कई आधिकारिक चर्चाओं में हिस्सा लिया था, इसीलिए मैं कुछ तथ्य सामने रखना चाहूँगा। अप्रैल 2015 में जब प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी फ्रांस दौरे पर गए तब तक दस्सौल्ट और हल (एच.ए.एल) के बीच समझौते के लिए हो रही बातचीत रुक चुकी थी। मैंने ये चीज स्वयं देखी थी। ऐसा इसीलिए हुआ क्योंकि इन चर्चाओं के कोई नतीजे नहीं निकल पा रहे थे। भारतीय वायुसेना की शीघ्र आवश्यकताओं को देखते हुए अब एक ही उपाय बचा था जिसे हमने चुना- एक नए अंतर-सरकारी करार में घुसना जिसमे भारत को परियोजना के सफल परिणाम के लिए बेहतर गारंटी मिले और जो भारत की अभिग्रहण प्रक्रिया का पालन भी करती हो। जैसा कि हमारे संयुक्त बयान में भी कहा गया था- इस करार का समापन “बेहतर शर्तों” पर होगा और ऐसा हुआ भी। इसका मतलब ये हुआ कि सम्बद्ध निर्माता इस बात पर राजी हो गए कि सारे जेट के कुल मूल्य का पचास प्रतिशत निवेश, तकनीकी हस्तांतरण और रोजगार सृजन के रूप में भारत में आये।”

फ्रांस के विदेश मंत्री ने ये भी साफ़ कर दिया कि ओफ़सेट के नियमों के कार्यान्वयन और भारतीय साझेदारों (जो कि लगभग सौ की संख्या में हैं) को चुनने का पूरा का पूरा काम सम्बद्ध फ्रेंच कम्पनियों ने किया और इसका दोनों सरकारों के सम्बन्ध से कोई लेना-देना नहीं था। एक अहम बयान देते हुए उन्होंने ये भी साफ़ कर दिया कि इस मामले में उनपर किसी भी प्रकार का कोई दबाव नहीं था। उन्होंने कहा कि भारतीय वायुसेना को राफेल की खेप 2019 के बाद से मिलने लगेगी।

“हमें इस करार पर गर्व है क्योंकि ये भारत की सुरक्षा व्यवस्था में अहम योगदान देता है और हमारे बीच की रणनीतिक साझेदारी को मजबूत करता है। “

– ली ड्रायन, फ्रांस के विदेश मंत्री

फ्रांस के विदेश मंत्री का बयान उन लोगों के लिए तगड़ा झटका है जिन्होंने ये दावा किया था कि भारत सरकार ने फ्रांस पर दबाव डाल कर राफेल करार में अपनी मनपसंद कम्पनियों को साझेदार के रूप में चुनने को कहा।

भारत को हिन्दू राष्ट्र घोषित किया जाना चाहिए था: मेघालय उच्च अदालत

मेघालय उच्च अदालत ने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी, गृहमंत्री राजनाथ सिंह और कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद सहित सभी सांसदों से अपील किया है कि पाकिस्तान, बंगलादेश और अफगानिस्तान से आने वाले हिन्दू, सिख, ईसाई, जैन, बौद्ध, पारसी, गारो, खासी और जयंतिया लोगों को भारत में रहने की इजाजत दी जाये और उन्हें भारतीय नागरिकता देने के लिए कानून बनाया जाये।

बार एंड बेंच की वेबसाइट के अनुसार अधिवास प्रमाण पत्र से सम्बंधित मामले में फैसला देते हुए न्यायाधीश सुदीप रंजन सेन ने कहा:

“हम सबको पता है कि भारत विश्व के सबसे बड़े देशों में से एक था और उस समय पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान का कोई अस्तित्व नहीं था। ये सभी एक ही देश के अन्दर हुआ करते थेऔर हिन्दू साम्राज्य द्वारा शासित थे लेकिन मुगलों ने आक्रमण कर देश के विभिन्न भागों पर कब्जा किया और शासन करने लगे। उस समय उनके द्वारा जबरन कई लोगों का धर्म-परिवर्तन कराया गया।”

उहोने आगे कहा:

“उसके बाद ईस्ट इंडिया कंपनी के नाम से अंग्रेज भारत में आये और उन्होंने यहाँ शासन करना शुरू कर दिया और भारतियों को प्रताड़ित करने लगे जिसके कारण स्वतंत्रता अभियान की शुरुआत हुई और अंततः 1947 में भारत आजाद हुआ। भारत का विभाजन हुआ जिसमे एक देश भारत कहलाया और एक को पकिस्तान नाम दिया गया।”

जस्टिस सेन ने अपने फैसले में आगे कहा:

“यह एक निर्विवाद तथ्य है कि देश के विभाजन के समय लाखों सिखों और हिन्दुओं का नरसंहार किया गया, उन्हें प्रताड़ित किया गया और कईयों का बलात्कार किया गया जिसके कारणवश उन्हें अपनी जिंदगी और इज्जत की रक्षा करने के लिए अपने पूर्वजों की संपत्ति को छोड़ कर भारत में शरण लेने को मजबूर होना पडा।”

“पकिस्तान ने खुद को एक इस्लामिक राष्ट्र घोषित किया लेकिन भारत, जिसे धर्म के आधार पर विभाजित होने के कारण एक हिन्दू राष्ट्र घोषित किया जाना चाहिए था- एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र बना रहा।

अदालत ने ये भी साफ़ किया कि वो भारत में कई पुश्तों से रह रहे मुस्लिम नागरिकों के विरुद्ध कतई नहीं हैं। जस्टिस सेन ने कहा कि भारत में रह रहे और भारतीय कानून का पालन कर रहे मुस्लिम नागरिकों को भी शांतिपूर्वक तरीके से यहाँ रहने का पूरा अधिकार है। इसके अलावे अदालत ने सरकार से सभी भारतीय नागरिकों के लिए एक सामान कानून बनाने की भी अपील की।

अदालत ने ये भी कहा कि भारत को आजादी अहिंसा से नहीं बल्कि रक्तपात से मिली और इस रक्तपात के पीड़ित हिन्दू और सिख रहे। अदालत के अनुसार सिखों के लिए तो सरकार द्वारा पुनर्वास की व्यवस्था की भी गई लेकिन हिन्दू तो उस से भी वंचित रहे। अदालत ने जोर देकर कहा कि किसी को भी भारत को इस्लामिक देश बनाने की कोशिश नहीं करनी चाहिए वरना ये भारत ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया के लिए क़यामत का दिन होगा।

अदालत ने नरेन्द्र मोदी सरकार पर भरोसा जताते हुए कहा कि पीएम इस मामले की गंभीरता को समझते हैं और वो उचित निर्णय लेंगे। साथ ही अदालत ने ये भी आशा जताया कि पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी भी देशहित में लिए गए निर्णय का समर्थन करेंगी।

संसद भवन पर हमले कि बरसी पर जानिए क्या हुआ था उस दिन और उसके बाद

पाकिस्तान ने भारत पर हमले के कई तरीके अपनाये हैं- सीधा युद्ध, अवैध घुसपैठ, आतंकी हमले, आत्मघाती हमले इत्यादि। जब राज्य की ताकत भारत के सामने कमजोर पड़ी तब राज्य द्वारा पोषित आतंकियों की सहायता ली जाने लगी। 2001 के संसद हमले से लेकर 2008 के मुंबई हमले हों या फिर 2016 का पठानकोट हमला- पकिस्तान ने हमेशा अपने जमीन पर कुकुरमुत्ते की तरह पाल रखे आतंकी संगठनों का इस्तेमाल कर भारत में तबाही मचाने की कोशिश की है। आज 2001 में भारत के संसद भवन पर हुए आत्मघाती हमलों की बरसी है। आज जब पूरा देश उस दिल दहला देने वाले हमले में जान गंवाने वाले जवानों की शहादत को याद कर रहा है, आइये जानते हैं उस दिन आखिर हुआ क्या था।

वो तेरह दिसम्बर 2001 का दिन था। संसद की कार्यवाही को स्थगित हुए लगभग चालीस मिनट हो चुके थे। तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी और विपक्ष की नेत्री सोनिया गाँधी जा चुकी थी लेकिन तत्कालीन गृह मंत्री लाल कृष्ण आडवानी सहित कम से कम सौ लोग अभी भी संसद भवन के प्रांगन में ही रुके हुए थे और इनमे कई दिग्गज नेता भी शामिल थे। तभी सफ़ेद रंग की एंबसेडर कार से आये पांच आतंकियों ने संसद भवन के परिसर में घुसकर ताबड़तोड़ गोलियां चलानी शुरू कर दी। रिपोर्ट्स की मानें तो उन्होंने संसद भवन के आसपास कड़ी सुरक्षा घेड़े को चकमा देने के लिए जाली पहचान पत्रों का इस्तेमाल किया था। सुरक्षाकर्मियों की वर्दी पहने आतंकियों ने ठीक दोपहर में संसद भवन के परिसर में प्रवेश किया था।

चश्मदीदों के अनुसार एक आतंकी हमलावर ने अपने शरीर बार बांधे गये बम की मदद से खुद को उड़ा लिया था. बांकी बचे चार आतंकियों को लगभग एक घंटे तक चली गोलीबारी में सुरक्षाबलों द्वारा मार गिराया गया था। उस समय इस पूरी गोलीबारी का टीवी पर लाइव प्रसारण हुआ था। इस हमले में भारतीय सुरक्षाबलों के छः जवान शहीद हुए. इनमे से पेंच पुलिसकर्मी थे जबकि एक संसद का सिक्यूरिटी गार्ड। वहीं संसद भवन में स्थित बगीचे के बागवान को भी अपनी जान गंवानी पड़ी थी। इस हमले के पीछे कुख्यात पाकिस्तानी आतंकी संगठन जैश-ए-मुहमम्द और लश्कर-ए-तैयबा का हाँथ सामने आया था।

इस हमले के तुरंत बाद इसके पीछे शामिल आतंकियों की धर-पकड़ के लिए भारतीय सुरक्षाबलों और जांच एजेंसियों द्वारा एक बृहद अभियान चलाया गया जिसमे अफजल गुरु, शौकत हुसैन, नवजोत संधू और एसएआर गिलानी सहित कईयों को गिरफ्तार किया गया। नवजोत संधू को छोड़ कर बांकी तीन आतंकियों को फांसी की सजा सुनाई गई। वहीं बाद में एसएआर गिलानी को बरी कर दिया गया और शौकत हुसैन की सजा को कम कर के आजीवन कारावास में बदल दिया गया। शौकत हुसैन को उसके जेल में “अच्छे आचरण” का हवाला देकर उसकी सजा पूरी होने के नौ महीने पहले पहले ही आजाद कर दिया गया था। वहीं अफजल गुरु की दया याचिका को शीर्ष अदालत ने जनवरी 2007 में ख़ारिज कर दिया था. तत्कालीन राष्ट्रपति प्रणब मुख़र्जी द्वारा भी उसकी दया याचिका ख़ारिज करने के बाद अफजल को फरवरी 2013 में अंततः फांसी दे दी गई थी।

अफजल की फंसी का विरोध भी हुआ था और तब ह्युमन राइट्स वाच की एशिया डायरेक्टर रही मीनाक्षी गांगुली ने इस पर बयान देते हुए कहा था

भारत दोषियों को फांसी देकर सही काम नहीं कर रहा है. केवल लोगों की भावनाओं को शांत करने के लिए फांसी देना गलत है। भारत को फांसी देना बंद करना चाहिए।

वैसे भारत में आतंकियों को बचाने के लिए अक्सर मुहीम छेड़ी जाती रही है। 1993 के मुंबई धमाके के दोषी याकूब मेनन की फंसी रुकवाने के लिए भी कई कथित बुद्धिजीवियों ने अभियान चलाया था। इनमे अभिनेता शत्रुघ्न सिन्हा, वकील राम जेठमलानी सही कई कथित मानवाधिकार कार्यकर्ता और पूर्व-न्यायाधीश शामिल थे। अफजल के मामले में भी फारुख अब्दुल्ला, मुफ़्ती मोहम्मद सईद और अरुंधती रॉय ने उसकी सजा के खिलाफ विरोध दर्ज कराया था।

वहीं संसद हमले के मास्टरमाइंड औए जैश-ए-मुहमम्द के कमांडर शाह नवाज खान उर्फ़ गाजी बाबा को बीएसएफ द्वारा अगस्त 2003 में कश्मीर के नूर बाग़ में हुए मुठभेड़ में मार गिराया गया था।

हमले के बाद संसद की सुरक्षा व्यवस्था में अमूल-चूल बदलाव किया गया। संसद भवन के अंदर सीआरपीएफ, दिल्ली पुलिस और क्यूआरटी(क्‍यूक रिस्‍पॉन्‍स टीम) को तैनात किया गया है। मुख्य जगहों पर अतिरिक्त स्नाइपर भी पहरा देते रहते हैं। साथ ही सुरक्षा के ऐसे इंतजाम भी किये गए हैं जो गुप्त होते हैं यानी दिखते नहीं। किसी भी अप्रिय स्थिति को रोकने के लिए आतंक निरोधी दस्ते लगातार औचक निरीक्षण करते रहते हैं। उच्च तकनीक वाले उपकरण जैसे बुम बैरियर्स और टायर बस्टर्स लगाने में करीब 100 करोड़ रुपये खर्च किये गये।

नोटा से किसका फायदा; मतदाता का, अच्छे उम्मीदवारों का या फिर बुरे उम्मीदवारों का?

देश में पांच राज्यों के लिए हुए विधानसभा चुनावों और उसके ताजा परिणामों के बाद एक बार फिर से नोटा (उपर्युक्त में से कोई नहीं) को लेकर बहस छिड़ गई है। लगभग साढ़े छह प्रतिशत लोगों ने इन चुनावों में किसी भी उम्मीदवार को अपना वोट देने की बजाय नोटा का विकल्प दबाना ज्यादा बेहतर समझा। पांचो राज्यों की इकट्ठे बात करें तो नोटा ने आम आदमी पार्टी, समाजवादी पार्टी और वाम दलों को काफी पीछे छोड़ दिया। ये सारे दल को मिले मत नोटा को मिली मतों से काफी कम रहे। पांचो राज्यों में नोटा को कुल पन्द्रह लाख वोट पड़े। नोटा को मिले वोटों के महत्त्व का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि राकांपा और माकपा, भाकपा जैसे दलों को भी नोटा से काफी कम वोट मिले।

अगर मध्य प्रदेश की बात करें तो अठारह सीटों पर उम्मीदवारों के हार-जीत का अंतर उन सीटों पर नोटा को मिले वोटों से कम रहा। इसका मतलब ये कि नोटा दबाने वाले लोगों ने अगर किसी उम्मीदवार के लिए वोट किया होता तो शायद उन सीटों पर नतीजे कुछ और होते। ऐसे में इस बात पर चर्चा होना लाजिमी है कि आखिर नोटा से किसको फायदा है? क्या नोटा से जनता को फायदा होता है? या फिर सत्ताधारी दल को? या विपक्ष को? इन सब बातों पर चर्चा करेंगे लेकिन पहले जानते हैं कि सरसंघचालक मोहन भागवत ने क्यों चुनावों से पहले कई बार मतदाताओं को चेताते हुए नोटा न दबाने की सलाह दी थी।

संघ प्रमुख ने सितम्बर में विज्ञान भवन में आयोजित तीन दिवसीय ‘भविष्य का भारत: राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का दृष्टिकोण, व्याख्यानमाला के अंतिम दिन लोगों के सवालों के जवाब देते हुए कहा था “नोटा में हम लोग सर्वोत्तम को भी किनारे कर देते हैं और इसका फायदा सबसे बुरा उम्मीदवार ले जाता है। होना यह चाहिए कि हमारे पास जो सर्वोत्तम उपलब्ध है, उसे चुन लें। प्रजातंत्र में सौ फीसदी लोग सही मिलेंगे, ऐसा बहुत मुश्किल है।” उनका ये आकलन सही था क्योंकि मतदाता भले ही नोटा दबा कर यह समझे कि उसने सभी उम्मीदवारों को अस्वीकार कर दिया है लेकिन शायद उसे यह नहीं पता होता कि इस से किसी ऐसे उम्मीदवार की कम अंतर से हार हो सकती है जो उन सबमे सबसे बेहतर हो। ऐसे में नोटा को गए वोट अगर उस हारे उम्मीदवार को जाते तो वह जीत सकता था। अगर इस कारण किसी बुरे उम्मीदवार की जीत हो जाती है तो फिर नोटा दबाने के कोई मायने ही नहीं रह जाते।

उदाहरण के तौर पर मध्य प्रदेश को देखा जा सकता है। यहाँ भाजपा को कांग्रेस से ज्यादा वोट पड़े लेकिन सीटें कांग्रेस को ज्यादा मिली। इसके बावजूद भी कांग्रेस बहुमत के लिए जरूरी सीटों के आंकड़े से पीछे ही रह गई। यहाँ नोटा को 1.4% मत पड़े। वहीं भाजपा और कांग्रेस के बीच मतों का अंतर सिर्फ 0.1% रहा. ऐसे में ये 1.4% वोट अगर दोनों में से किसी भी पाले में गए होते तो उस पार्टी को पूर्ण बहुमत मिल सकता था जो कि तुलनात्मक रूप से एक ठोस और स्थिर सरकार के लिए जनादेश होता। इसीलिए इस सवाल का उठना लाजिमी है कि क्या नोटा के कारण जिस पार्टी को वोट ज्यादा मिले उसे सीटें कम मिली और जिसे सीटें ज्यादा मिली वो पार्टी बहुमत से पीछे रह गई। ये आंकड़े बताते हैं कि नोटा से जनता का तो फायदा नहीं ही हुआ।

नोटा को लेकर बहस की शुरुआत तभी हो गई थी जब गुजरात चुनाव में तीस सीटों पर उम्मीदवारों के हार-जीत के बीच का अंतर नोटा को मिले मतों की संख्या से कम रहा था। ये अपने-आप में एक बड़ी बात थी।

आरएसएस प्रमुख ने अक्टूबर में दशहरा के मौके पर भी लोगों को नोटा न इस्तेमाल करने की सलाह देते हुए कहा था-“किसी भी पार्टी में सारे गुण नहीं होते हैं। राष्ट्रीय हित में काम करने के लिए सौ प्रतिशत पारदर्शी होना चाहिए। इसलिए जो श्रेष्‍ठ विकल्‍प हो उसे चुनना चाहिए। यदि आप नोटा का विकल्प चुनते हैं तो वह उस पार्टी के पक्ष में जाएगा तो राष्‍ट्रहित के खिलाफ है। इसलिए नोटा को चुनना सबसे खराब को चुनने जैसा है। इसलिए इस तरह का आत्मघाती कदम न उठाएं।” उनके बार-बार इस बात को दुहराने से इस बात का पता चलता है कि उन्हें कहीं न कहीं इस बात का अंदाजा था कि नोटा दबाने को लेकर जो दुष्प्रचार फैलाया जा रहा है उसका विपरीत असर आगामी चुनावों में पड़ सकता है। आखिर वो कौन से लोग थे जिन्होंने सोशल मीडिया पर नोटा को लेकर अभियान चलाया था?

जब सरकार ने एससी एसटी एक्ट को लेकर अध्यादेश जारी किया तब सवर्णों को भड़काने के लिए नोटा का प्रचार किया गया। जब सरकार ने सबरीमाला पर अदालत के फैसले के खिलाफ कोई स्टैंड नहीं लिया तब दक्षिण भारतीयों को नोटा दबाने के लिए भड़काया गया। राम मंदिर का मामला जो कि अदालत में लंबित है, उसे लेकर ये साबित करने की कोशिश की गई कि सरकार राम मंदिर के पक्ष में नहीं है। इसे लेकर हिन्दुओं को भड़का कर नोटा दबाने की सलाह दी गई। ये अपील किसी दल की तरफ से नहीं आती है- ऐसे में ये पता लगाना कठिन हो जाता है कि ये दुष्प्रचार फैलाने वाले लोग कहाँ से आते हैं और कौन हैं। हो सकता है कि इन्हें राजनीतिक उपयोग के लिए इस्तेमाल किया जा रहा हो। या फिर ये भी हो सकता है कि कोई ऐसी पार्टी जिसे हार का डर हो और वह वोटों को अपनी तरफ खींचने में नाकाम होने पर अपने फायदे के लिए नोटा के प्रयोग से जीतने वाली पार्टी को मिलने वाले वोटों की संख्या कम करना चाहती हो।

राजस्थान के ताजा चुनाव परिणामों का ही उदाहरण लेते हैं। यहाँ भी पंद्रह सीटों पर नोटा को मिले वोटों की संख्या उम्मीदवारों की हर-जीत के अंतर से ज्यादा रही। ऐसे में अगर ये वोट किसी उम्मीदवार को पड़ते तो नतीजे कुछ और हो सकती थे। यहाँ भी कांग्रेस बहुमत के करीब जाकर रह गई लेकिन जरूरी सीटों के आंकड़े तक नहीं पहुँच सकी। इसका मतलब ये हुआ कि कांग्रेस को निर्दलीयों या किसी अन्य दल की मदद से सरकार चलानी पड़ेगी। अगर यहाँ नोटा को मिले मत भाजपा या कांग्रेस को मिले होते तो उनके पास आठ-दस ज्यादा सीटें हो सकती थी जिसे किसी पार्टी को स्थिर सरकार चलाने के लिए मिला जनादेश माना जाता। इसीलिए यहाँ भी नोटा को पड़े मतों ने दोनों तरफ का खेल बिगाड़ा।

यहाँ ये बताना जरूरी हो जाता है कि भारतीय लोकतंत्र में नोटा का इस्तेमाल शीर्ष अदालत के आदेश के बाद 2013 के विधानभा चुनावों में पहली बार किया गया था। अदालत का मानना था कि अगर कोई मतदाता किसी भी उम्मीदवार को अपना वोट नहीं देना चाहता है तो फिर वह वो गुप्त रूप से नोटा दबा सकता है। इस आदेश के बाद चुनाव आयोग ने इवीएम में नोटा विकल्प को जोड़ा। लेकिन उसी शीर्ष अदालत ने अगस्त 2018 में दिए अपने निर्णय में राज्यसभा चुनावों में नोटा के इस्तेमाल की इजाजत देने से मना कर दिया। ऐसे में इस सवाल का उठना लाजिमी है कि अगर नोटा एक चुनाव में प्रासंगिक है तो फिर दूसरे चुनाव में वही विकल्प अप्रासंगिक कैसे हो सकता है? क्या राज्यसभा चुनावों में सभी उम्मीदवार बेहतर होते हैं? अगर नोटा एक सही विकल्प है तो फिर इसे प्रत्येक चुनाव में क्यों नहीं इस्तेमाल किया जा सकता है? या फिर ये मान लिया जाए कि राज्यसभा चुनावों में उम्मीदवार बुरे हो ही नहीं सकते क्योंकि अदालत ने वहां नोटा के प्रयोग को मंजूरी नहीं दी। ये एक विरोधाभास है जिसकी चर्चा होनी चाहिए।

सितम्बर में इंडिया टुडे के एक रिपोर्ट के अनुसार भाजपा नेता सी एन अग्रवाल ने ये आकलन किया था कि कुछ लोग भले ही भाजपा से गुस्सा हों पर वो विपक्षी पार्टियों से भी खुश नहीं हैं। उनका मानना था कि नोटा से उच्च जाती, पिछड़े और अल्पसंख्यक समुदायों से जुड़े उम्मीदवारों पर असर पड़ेगा जबकि दलित उम्मीदवारों को इस से फायदा मिलने की सम्भावना है। ऐसे में बसपा को फायदा होगा। और हुआ भी यही। क्योंकि जहाँ सपा का प्रदर्शन नोटा से भी खराब रहा वहीं बसपा को कहीं-कहीं कुछेक सीटें आ गई। अब सवाल यह उठता है कि क्या नोटा से नतीजों पर वैसा ही प्रभाव पड़ता है जैसा मतदाता चाहते हैं और अगर नहीं तो फिर इसके कारण चुनाव परिणामों में होने वाले उलट-पुलट की जिम्मेदारी किसकी? अगर कुछ लोगों द्वारा नोटा के पक्ष में हवा तैयार करवा कर कोई दल या समूह चुनाव को प्रभावित कर सकता है तो फिर तैयार रहिये; क्योंकि भविष्य में ये खेल और भी बड़े स्तर पर खेला जायेगा।