रामधारी सिंह दिनकर भरे सदन में नेहरू की आलोचना से नहीं हिचकते थे। समसामयिक समस्याओं का समाधान वह द्वापर से खोज लाते थे। राष्ट्रकवि दिनकर 'कुरुक्षेत्र' में भीष्म और 'रश्मिरथी' में कर्ण के संवादों में आज के युग के हिसाब से प्रासंगिकता खोज रहे होते हैं।
ये स्वयं को प्रधानमंत्री की अवमानना के लिए स्वतंत्र मानते हैं परन्तु अपने विरोध में उठे एक स्वर पर भी दिल्ली-सुलभ 'जानता है मेरा बाप कौन है' का फ़िकरा फ़ेंक के मारते हैं। प्रसिद्ध पिता के प्रताप से वंचित लेखक व्यंग्य ही लिखेगा और आशा करेगा कि बिना दीक्षा और समीक्षा के...
अमृता प्रीतम साहिर की प्रेमिका थीं, वे उनकी छोड़ी हुई सिगरेट पीती थीं। इमरोज़ अमृता से बहुत प्यार करते थे लेकिन अमृता को साहिर से ज़्यादा प्यार था। क्या अमृता के इस परिचय से ज्यादा भी कुछ पढ़ा है आज? क्या इतनी उम्दा लेखिका सिर्फ़ दो मर्दों तक सीमित थीं?
"बंगालियों या तमिल लोगों की तरह हम अपनी भाषा से प्रेम नहीं करते। हमें महानगरों में, मॉल्स में, कॉरपोरेट दफ्तरों में, मैथिली बोलने में शर्म आती है। यह हीन भावना हम मैथिली बोलने वालों ने खुद ही विकसित की है।"
कल (22 जुलाई 2019) जब जगन्नाथ पुरी के एक पुजारी की तस्वीरें इन्टरनेट पर नजर आने लगीं तो कुछ तथाकथित हिन्दुओं की मासूम, अहिंसक, गाँधीवादी, सेक्युलर भावना बड़ी बुरी तरह आहत हो गईं।
केंद्रीय भारतीय भाषा संस्थानों के प्रमुखों की बैठक में निशंक ने संस्कृत भाषा के प्रचार-प्रसार के लिए और भी कई महत्वपूर्ण बातें कही। उन्होंने कहा कि भारतीय भाषाओं के विकास के लिए नए तरीके खोजने की ज़रूरत है।
रूमा गुहा ने साल 1944 में हिंदी फिल्म 'ज्वार-भाटा' से बॉलीवुड डेब्यू किया था। इसके बाद उन्होंने बंगाली फिल्मों की ओर रुख कर लिया था। रूमा ने ‘एंटोनी फिरंगी’, ‘गंगा ओभीजान’, ‘बालिका वधू’ और ‘अभिजान’ समेत कई बंगाली फिल्मों में काम भी किया।
किताबों में रुचि होने की वजह से हमें वाराणसी के साथ-साथ 'काशी का अस्सी' भी याद आ जाती है। एक वामी मजहब के लेखक की इस किताब को पढ़ने के बाद शायद ही कोई उर्दू भाषा से प्रेरित गाली होगी, जिसे सीखना बाकी रह जाता होगा।
अगर दाखुंदा का शाब्दिक अर्थ देखें तो ये मोटे तौर पर पहाड़ी जैसा अर्थ लिए हुए है। जैसे हिंदी में 'देहाती' कहने पर सिर्फ ग्रामीण का बोध नहीं होता, उसमें 'गंवार', मूर्ख, नासमझ, या दुनियादारी से अनभिज्ञ वाला भाव भी होता है।
एशियन रिव्यू ऑफ बुक्स ने इस पुस्तक के लिए लिखा है, ’’राजनीतिक प्रवंचना के प्रशंसक इस व्यंग्यपूर्ण कथा को सराहेंगे, जो पश्चिम बंगाल के शासक वर्गों में फैले कपटाचरण, मीडियाई जोड़तोड़ और हत्याओं के किस्से बयां करती है।’’