Friday, March 29, 2024
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दक्षिणपंथी मूर्ख नहीं है वामपंथी परमादरणीय क्यूटियों, तुम एक्सेल-एक्सेल खेलते रहो

आज के दौर में जहाँ रामनवमी के जुलूस पर 'शंतिप्रियों' की चप्पलें फेंकी जाती हैं, दुर्गा पूजा के पंडालों पर पत्थरबाज़ी होती है, विसर्जन पर प्रशासन को घेराबंदी पर मजबूर होना पड़ता है, वहाँ आप हिन्दुओं के रंगों को ऐसे दिखा रहे हैं जैसे वो छतों से बम फेंकते हों?

मीडिया अपनी नंगई के नए आयाम हर दिन गढ़ता जाता है। जब ख़बर न हो, तो ख़बर बनाई जाती है। एंगल न हो, तो एंगल निकाला जाता है। बात कही न गई हो, तो बात कहलवाई जाती है। कोई माफ़ीनामा नहीं, कोई शुद्धिकरण नहीं, कोई पछतावा नहीं। 

सर्फ़ एक्सेल ने एक प्रोपेगेंडा किया अपने एक विज्ञापन के माध्यम से। बहुत ही सहज तरीके से, अपने आप को धार्मिक सद्भाव का पक्षधर दिखाते हुए, विज्ञापन में होली के त्योहार को समुदाय विशेष के बच्चे पर आतंक की तरह से दिखाते हुए, एक बच्ची का सहारा लेकर यह जताने की कोशिश हुई कि हिन्दुओं ने उनकी नमाज़ तक बंद करा रखी है।

विज्ञापन बनाने वालों को सामान भी बेचना है, और उन्हीं की भावनाओं को टार्गेट भी करना है जो उनका सबसे बड़ा ख़रीदार है। जब विज्ञापन की कॉपी लिखी जाती है तो किसी को आहत करना उसका मक़सद नहीं होता, बशर्ते आप सच में किसी को आहत करके ही चर्चा का विषय बनना चाहते हैं। 

टीवी पर अब विज्ञापन कोई नहीं देखता। विज्ञापन आया, आप चैनल बदल लेते हैं। ऐसे में दो उपाय बचते हैं विज्ञापन बनाने वालों के लिए, पहला यह कि विज्ञापन इतना अच्छा बना दिया जाए कि वाक़ई लोग उसे देखें। जैसा कि गूगल ने कई बार एक से डेढ़ मिनट लम्बे विज्ञापन बनाए हैं, जिसमें कहानियाँ होती हैं, और आप भावुक हो जाते हैं। ऐसे विज्ञापन खूब शेयर होते हैं, और इसी के माध्यम से कम्पनी का प्रचार भी हो जाता है।

इस तरीके में थोड़ा समय लगता है, थोड़ा दिमाग लगाना होता है, टीम को बैठकर कॉपी लिखनी होती है, सामाजिक संवेदना और भावनाओं को केन्द्र में रखकर चर्चा होती है, तब जाकर वह विज्ञापन बनकर तैयार होता है। चूँकि, इतने स्तर पर इसमें लोग जुड़े होते हैं, तो उसमें किसी को टार्गेट करने की जगह, सब को अपील करने की बात पर ज़्यादा ज़ोर होता है। 

दूसरे तरीके में ऐसा अप्रोच नहीं होता। दोनों तरीके का मक़सद है चर्चा में आना। दूसरे तरह के लोग, जो सर्फ़ एक्सेल वाले हैं, या फिर पूरी दुनिया में कभी बीयर बेचते हुए नस्लभेदी बात कहने वाले, या फिर डोल्चे एंड गबाना, पेप्सी, या केटी पैरी जैसे ब्रांड और लोगों के द्वारा आम जनता की भावनाओं के साथ खेलते हैं, ऐसे लोग जानबूझकर इस तरह के विज्ञापन बनाते हैं।

इस तरह के विज्ञापन को बनाने में आपको टार्गेट पता होता है, वो किन बातों से नाराज हो सकते हैं, ये भी पता होता है। फिर आप शब्दों और तस्वीरों की कलाकारी से दिखाते हैं कि आप सद्भावना की बात कर रहे हैं, और बड़े ही प्रेम से आप नफ़रत बाँटकर निकल लेते हैं। सर्फ़ एक्सेल ने यही तरीक़ा अपनाया। उनका तरीक़ा सफल रहा। उस विज्ञापन के कुछ दिन पहले हिन्दुस्तान यूनिलीवर ने कुम्भ मेले को ऐसे दिखाया था जैसे वहाँ हिन्दू युवक अपने बुजुर्ग माँ-बाप को छोड़कर भाग जाने के लिए आते हैं।

ऐसे विज्ञापनों के तरीके तो अब सब जानते हैं, लेकिन इसके बाद जो होता है, वो भी एक गिरोह का कारोबार बन गया है। ये बातें भी पहले से तय होती हैं कि क्या होगा, कैसे होगा, और कब होगा। एक्सेल का विज्ञापन न सिर्फ अपनी तस्वीरों के लिए बेहूदा कहा जाएगा, बल्कि होली के रंगों को ‘दाग’ जैसे नकारात्मक शब्दों से जताने के लिए भी। हम होली खेलकर आते हैं, तो यह नहीं कहते कि ‘दाग नहीं छूट रहा’, हम यही कहते हैं कि ‘रंग नहीं उतर रहा’। 

एक्सेल ने अपने शब्द चुने, टोपी पहनकर सफ़ेद कपड़ों में मस्जिद जाते मासूम बच्चे को चुना, हिन्दुओं के सुंदर से त्योहार को चुना, बच्चों की टोलियाँ चुनीं और उनके माध्यम से एक घृणित सोच को विज्ञापन के रूप में चलाया। क्या ऐसा कहीं होता है? आज के दौर में जहाँ रामनवमी के जुलूस पर समुदाय विशेष की चप्पलें फेंकी जाती हैं, दुर्गा पूजा के पंडालों पर पत्थरबाज़ी होती है, विसर्जन पर प्रशासन को घेराबंदी पर मजबूर होना पड़ता है, वहाँ आप हिन्दुओं के रंगो को ऐसे दिखा रहे हैं जैसे वो छतों से बम फेंकते हों? 

इसे कहते हैं सामान्यीकरण। अपवाद भी नहीं है, ऐसा कहीं नहीं होता कि नमाज़ पढ़ने जाते बच्चे पर, या युवक पर, किसी हिन्दू ने रंग फेंक दिया हो। अगर ऐसा होगा तो वहाँ दंगा हो जाएगा, क्योंकि इतनी समझदारी हर आदमी में है कि किस पर रंग फेंका जाए, किस पर नहीं। दंगा इसलिए होगा क्योंकि कुछ लोग दंगा कराने की फ़िराक़ में बैठे रहते हैं। जिसे रंग पड़ा हो, वो मजहब का आदमी भले ही कपड़े बदल ले, लेकिन चार लोग उस बात का बतंगड़ बनाकर झगड़ा शुरू कर सकते हैं।

नॉर्मल बात यह है, न कि वो कि छोटा बच्चा मस्जिद जा रहा है, और उसे रंगों से नहलाने का इंतजार किया जा रहा हो। और हाँ, इन मासूम बच्चों को अपनी घृणित मानसिकता में क्यों घसीट रहे हो? इन्हें न तो होली पता है, न नमाज़। ये तो रंगों से सराबोर कपड़ों में नमाज़ पढ़ लेंगे, लेकिन तुम पढ़ने दोगे नहीं। तुम्हें उन बच्चों को आतंकियों की तरह दिखाना है जो रंग खेल रहे हैं, होली मना रहे हैं।

किसी त्योहार से किसी तक नकारात्मकता कैसे पहुँचाई जाए, ये एक्सेल के विज्ञापन से देखा जा सकता है। अगली बार कोई एन्टीसैप्टिक क्रीम वाले लोग ऐसा विज्ञापन बनाएँगे, जिसमें किसी नमाज़ पढ़ने जाते समुदाय विशेष के बच्चे पर हिन्दू बच्चों ने बम उछाल दिया हो, और उसकी चमड़ी जल जाए। बाद में पता चले कि वो तो हिन्दू ही था जिसने अपने मजहबी दोस्त के लिए टोपी पहनकर बम झेला! फिर आप चुपके से अपनी क्रीम बेच लेना यह कहकर कि साम्प्रदायिक सद्भावना का परिचायक है यह विज्ञापन।

ये सब अब क्रिएटिवीटी के नाम पर हो रहा है। ऐसा करना इस प्रोसेस का पहला हिस्सा है। इसमें हिन्दुओं को पहले रंग खेलने वाले आतंकवादियों की तरह दिखाया गया जैसे वो रंग की जगह एसिड फेंक रहे हों, और रही सही कसर शब्दों के चुनाव से पूरी हो गई। प्रोसेस का दूसरा हिस्सा है ट्विटर पर बॉयकॉट सर्फ़ एक्सेल ट्रेंड होना।

ये ट्रेंड, हो सकता है, ऑर्गेनिक हो, और लोगों ने वाक़ई सर्फ़ एक्सेल को न ख़रीदने का विचार किया हो, लेकिन एंड्रॉयड एप्प स्टोर में जाकर, माइक्रोसॉफ़्ट एक्सेल एप्प के नीचे, फर्जी नाम बनाकर (प्राउड हिन्दू, जय श्री राम, अ एंड्रॉयड यूज़र आदि) टूटी-फूटी हिन्दी और अंग्रेज़ी में एप्प को गाली देना, रेटिंग कम करना, ऑर्गेनिक नहीं है। ये स्वतः नहीं होता, ये किया जाता है।

ये ऐसा जताने की कोशिश है कि दक्षिणपंथी लोग, हिन्दू लोग, वैसे लोग जिन्हें ऐसे विज्ञापनों से समस्या है, वो न सिर्फ ‘एक सामाजिक सद्भाव के विज्ञापन को समझ नहीं सके’ बल्कि उन्हें तो ‘सर्फ़ एक्सेल और माइक्रोसॉफ़्ट एक्सेल का भी फ़र्क़ नहीं पता’। ये लोग मीडिया पोर्टल चलाते हैं, तीन एप्प रिव्यू देखकर आर्टिकल लिखते हैं, और ‘स्टूपिड राइट विंगर्स’ के मज़े लेते हैं।

इनकी यही मूर्खता इनकी ताबूत में कीलों को ठोकती जा रही है। इन्हें लगता है कि ये दक्षिणपंथियों को ऐसे ही मूर्ख बनाकर दिखाते रहेंगे और इन्हें कुछ हासिल हो जाएगा। जबकि होता है इसका उल्टा। राइट विंग वाले जानते हैं कि ये करतूत किसकी है। अब सबको पता है कि मीडिया इन बातों पर कैसे रिएक्ट करेगी। लोग कटाक्ष करने के लिए माइक्रोसॉफ़्ट एक्सेल के एप्प की रेटिंग कम देकर, बुरी भाषा में कुछ लिखकर आ जाते हैं। 

ऐसा करना वामपंथियों का मजाक उड़ाना है कि तुम यही खोजते आओगे, मैंने पहले ही तुम्हारी चाल समझ ली, इसलिए हवेली पर आओ, हम तुम्हारे मज़े लेंगे। अब दक्षिणपंथी इन वामपंथियों को इन्हीं के खेल में हराने लगे हैं। ये इन्हें जितना मूर्ख दिखाने की कोशिश करें, मोर तो ये खुद ही बन रहे हैं। सर्फ़ एक्सेल वालों को बेहतर पता होगा कि फ़र्क़ माइक्रोसॉफ़्ट को पड़ा है, या सर्फ़ को। 

अब ये हथकंडे पुराने हो चुके हैं। ये उतना ही घिसा हुआ आर्टिकल होता है जितना कि हर सेलिब्रिटी के इन्स्टाग्राम पर गाली देने वाले ट्रोल को जवाब देती सेलिब्रिटी के एक कमेंट पर आर्टिकल लिखने वाले पोर्टलों के खलिहरपन की जब वो लिखते हैं ‘एंड शी शट डाउन द ट्रोल विद हर एपिक रिप्लाय’। रिप्लाय कोई एपिक नहीं होता, वो लिख रही होती है कि ट्रोल को ढंग का काम करना चाहिए, गाली देने से कुछ नहीं होगी, या फिर गाली ही देकर उससे उलझा जा रहा हो।

इसलिए, वामपंथी क्यूटाचारी पत्रकारो, पत्रकारिता के समुदाय विशेष गिरोह के चिरकुट सदस्यो, बंद करो ये नौटंकी। वैसे भी दक्षिणपंथी पोर्टलों की ट्रैफिक बढ़ती ही जा रही है और तुम्हारे बाप और दादा हिटलर का लिंग नापने से लेकर जवानों की जाति बताने, झूठे ‘एक्सपोज़े’ करने और सनसनी फैलाकर हिट्स बटोरने की जद्दोजहद में लगे हुए हैं।

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अजीत भारती
अजीत भारती
पूर्व सम्पादक (फ़रवरी 2021 तक), ऑपइंडिया हिन्दी

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1951 में उन्हें जनसंघ ने राजस्थान में संगठन की जिम्मेदारी सौंपी और 6 वर्षों तक घूम-घूम कर उन्होंने जनता से संवाद बनाया। 1967 में दिल्ली महानगरपालिका परिषद का अध्यक्ष बने।

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