Saturday, April 27, 2024
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फगुआ, दोल जात्रा, होला मोहल्ला, भगोरिया… हर राज्य में उल्लास का अलग है रंग: भारत की विविधता, संस्कृति, लोक कला, साहित्य को समेटती होली

तमिलनाडु की कमन पोडिगई मुख्य रूप से कामदेव की कथा पर आधारित वसंतोत्सव है जबकि मणिपुर के याओसांग में योंगसांग उस नन्हीं झोंपड़ी का नाम है जो पूर्णिमा के दिन प्रत्येक नगर-ग्राम में नदी अथवा सरोवर के तट पर बनाई जाती है।

विविधताओं के देश भारत में होली का त्यौहार भी अलग-अलग प्रदेशों में भिन्न-भिन्न तरीकों से मनाया जाता है। जहाँ ब्रज और बनारस की होली आज भी पूरे देश में आकर्षण का प्रमुख केंद्र है। वहीं बरसाने की लट्ठमार होली भी उतनी ही प्रसिद्ध है। इसमें पुरुष महिलाओं पर रंग डालते हैं और महिलाएँ उन्हें लाठियों से पीटती हैं। फूलों की होली में तो राधा-कृष्ण भक्ति सहित आध्यात्मिकता की छटा भी है।

मथुरा और वृंदावन में 15 दिनों तक होली का पर्व मनाया जाता है तो राधा के गाँव में 40 दिन तक चलती है होली। वहीं काशी में रंगभरी एकादशी से होली शुरू होकर बुढ़वा मंगल तक चलता है। कुमाऊँ की गीत बैठकी में शास्त्रीय संगीत की गोष्ठियाँ होती हैं। यह सब होली के कई दिनों पहले से ही शुरू हो जाता है।

धर्म ग्रन्थ और धार्मिक साहित्य में होली

होली का वर्णन अनेक पुरातन धार्मिक पुस्तकों में मिलता है। इनमें प्रमुख हैं, जैमिनी के पूर्व मीमांसा-सूत्र और कथा गार्ह्य-सूत्र, नारद पुराण और भविष्य पुराण जैसे पुराणों की प्राचीन हस्तलिपियों और ग्रंथों में भी इस पर्व का उल्लेख मिलता है।

विंध्य क्षेत्र के रामगढ़ स्थान पर स्थित ईसा से 300 वर्ष पुराने एक अभिलेख में भी इसका उल्लेख किया गया है। संस्कृत साहित्य में वसन्त ऋतु और वसन्तोत्सव अनेक कवियों के प्रिय विषय रहे हैं।

राधा संग होली खेलते माधव की पेंटिंग (साभार-dolls.com)

प्राचीन काल के संस्कृत साहित्य में भी होली के अनेक रूपों का विस्तृत वर्णन है। श्रीमद्भागवत महापुराण में रसों के समूह रास का वर्णन है। अन्य रचनाओं में ‘रंग’ नामक उत्सव का वर्णन है जिनमें हर्ष की प्रियदर्शिका व रत्नावली तथा कालिदास की कुमारसंभवम् तथा मालविकाग्निमित्रम् शामिल हैं। कालिदास रचित ‘ऋतुसंहार’ में पूरा एक सर्ग ही ‘वसन्तोत्सव’ को अर्पित है।

भारवि, माघ और अन्य कई संस्कृत कवियों ने वसन्त की खूब चर्चा की है। चंद बरदाई द्वारा रचित हिंदी के पहले महाकाव्य ‘पृथ्वीराज रासो’ में होली का वर्णन है। भक्तिकाल और रीतिकाल के हिन्दी साहित्य में भी होली और फाल्गुन माह का विशिष्ट महत्व रहा है।

आदिकालीन कवि विद्यापति से लेकर भक्तिकालीन सूरदास, रहीम, रसखान, पद्माकर, जायसी, मीराबाई, कबीर और रीतिकालीन बिहारी, केशव, घनानंद आदि अनेक कवियों को यह विषय प्रिय रहा है। महाकवि सूरदास ने वसन्त एवं होली पर 78 पद लिखे हैं। पद्माकर ने भी होली विषयक प्रचूर रचनाएँ की हैं।

इस विषय के माध्यम से कवियों ने जहाँ एक ओर नितान्त लौकिक नायक नायिका के बीच खेली गई अनुराग और प्रीति की होली का वर्णन किया है, वहीं राधा-कृष्ण के बीच खेली गई प्रेम और छेड़छाड़ से भरी होली के माध्यम से सगुण साकार भक्तिमय प्रेम और निर्गुण निराकार भक्तिमय प्रेम का निष्पादन कर डाला है।

मुस्लिम शासकों, सूफियों पर भी चढ़ा होली का रंग

सूफ़ी संत हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया, अमीर खुसरो और बहादुर शाह ज़फ़र जैसे मुस्लिम संप्रदाय का पालन करने वाले कवियों ने भी होली पर सुंदर रचनाएँ लिखी हैं जो आज भी जन सामान्य में लोकप्रिय हैं। दूसरे शब्दों में कहूँ तो होली का रंग जो भी भारत में आया उस पर चढ़ता रहा है। वह कोई भी समुदाय, संप्रदाय, मजहब का रहा हो लेकिन होली के रंगों से अछूता नहीं रहा।

मुगलकालीन होली (artist Nidhamal, Lucknow, 1760-5. British Library)

आधुनिक हिंदी साहित्य में होली

आधुनिक हिंदी कहानियों में प्रेमचंद की ‘राजा हरदोल’, प्रभु जोशी की ‘अलग-अलग तीलियाँ’, तेजेंद्र शर्मा की ‘एक बार फिर होली’, ओम प्रकाश अवस्थी की ‘होली मंगलमय हो’ तथा स्वदेश राणा की ‘होली’ में होली के अलग-अलग रूप देखने को मिलते हैं।

बॉलीवुड फिल्मों में होली

भारतीय फ़िल्मों में भी होली के दृश्यों और गीतों को सुंदरता के साथ चित्रित किया गया है। इस दृष्टि से शशि कपूर की उत्सव, यश चोपड़ा की सिलसिला, वी शांताराम की झनक-झनक पायल बाजे और नवरंग इत्यादि उल्लेखनीय हैं। हालिया कई फिल्मों में भी होली का दृश्य टर्निंग पॉइंट बना है जैसे या जवानी है दीवानी और बागवान, रंग दे बसंती, राँझना।

भारतीय संगीत और सुरों में घुले हैं होली के रंग

भारतीय शास्त्रीय, उपशास्त्रीय, लोक तथा फ़िल्मी संगीत की परम्पराओं में होली का विशेष महत्व है। शास्त्रीय संगीत में धमार का होली से गहरा संबंध है, हालाँकि ध्रुपद, धमार, छोटे व बड़े ख्याल और ठुमरी में भी होली के गीतों का सौंदर्य देखते ही बनता है।

कथक नृत्य के साथ होली, धमार और ठुमरी पर प्रस्तुत की जाने वाली अनेक सुंदर बंदिशें जैसे “चलो गुंइयाँ आज खेलें होरी कन्हैया घर” आज भी अत्यंत लोकप्रिय हैं। ध्रुपद में गाए जाने वाली एक लोकप्रिय बंदिश है “खेलत हरी संग सकल, रंग भरी होरी सखी” भारतीय शास्त्रीय संगीत में कुछ राग ऐसे हैं जिनमें होली के गीत विशेष रूप से गाए जाते हैं। बसंत, बहार, हिंडोल और काफ़ी ऐसे ही राग हैं।

होली पर गाने-बजाने का अपने आप वातावरण बन जाता है और जन-जन पर इसका रंग छाने लगता है। उपशास्त्रीय संगीत में चैती, दादरा और ठुमरी में अनेक प्रसिद्ध होलियाँ हैं। होली के अवसर पर संगीत की लोकप्रियता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि संगीत की एक विशेष शैली का नाम ही होली है, जिसमें अलग-अलग प्रांतों में होली के विभिन्न वर्णन सुनने को मिलते है जिसमें उस स्थान का इतिहास और धार्मिक महत्व छुपा होता है।

बरसाने की लट्ठमार होली

जहाँ ब्रजधाम में राधा और कृष्ण के होली खेलने के वर्णन मिलते हैं वहीं अवध में राम और सीता के जैसे होली खेलें रघुवीरा अवध में। इसी प्रकार महादेव शिव से संबंधित एक होली में “दिगंबर खेले मसाने में होली” कह कर शिव द्वारा श्मशान में चिताभस्म की होली खेलने का वर्णन मिलता है।

भारतीय फिल्मों में भी अलग-अलग रागों पर आधारित होली के गीत प्रस्तुत किए गए हैं जो काफी लोकप्रिय हुए हैं। ‘सिलसिला’ के गीत रंग बरसे भीगे चुनर वाली, रंग बरसे और ‘नवरंग’ के आया होली का त्योहार, उड़े रंगों की बौछार, को आज भी लोग भूल नहीं पाए हैं।

भारत के राज्यों में भी होली का अलग है अंदाज

हरियाणा की धुलंडी में भाभी-देवर के बीच छेड़ने-पिटाने की प्रथा है। हालाँकि, यह छेड़-छाड़ हँसी-ठिठोली के रूप में प्रतीकात्मक तौर पर होती है, न कि इसकी सामान्य परिभाषा के हिसाब से। बंगाल की दोल जात्रा चैतन्य महाप्रभु के जन्मदिन के रूप में मनाई जाती है। जुलूस निकलते हैं और गाना-बजाना भी साथ रहता है।

दोल जात्रा (शांतिनिकेतन में होली)

इसके अतिरिक्त महाराष्ट्र की रंग पंचमी में सूखा गुलाल खेलने, गोवा के शिमगो में जुलूस निकालने के बाद सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन तथा पंजाब के होला मोहल्ला में सिखों द्वारा शक्ति प्रदर्शन की परंपरा है।

तमिलनाडु की कमन पोडिगई मुख्य रूप से कामदेव की कथा पर आधारित वसंतोत्सव है जबकि मणिपुर के याओसांग में योंगसांग उस नन्हीं झोंपड़ी का नाम है जो पूर्णिमा के दिन प्रत्येक नगर-ग्राम में नदी अथवा सरोवर के तट पर बनाई जाती है।

मणिपुर की होली (साभार-अरूणाचल 24)

दक्षिण गुजरात के आदिवासियों के लिए होली सबसे बड़ा पर्व है। छत्तीसगढ़ की होरी में लोक गीतों की अद्भुत परंपरा है और मध्यप्रदेश के मालवा अंचल के आदिवासी इलाकों में बेहद धूमधाम से मनाया जाता है भगोरिया, जो होली का ही एक रूप है। बिहार का फगुआ जम कर मौज मस्ती करने का पर्व है और नेपाल की होली में इस पर धार्मिक व सांस्कृतिक रंग भी दिखाई देता है।

इसी प्रकार विभिन्न देशों में बसे प्रवासियों तथा धार्मिक संस्थाओं जैसे इस्कॉन या वृंदावन के बाँके बिहारी मंदिर में अलग-अलग प्रकार से होली के श्रृंगार व उत्सव मनाने की परंपरा है जिसमें अनेक समानताएँ और भिन्नताएँ हैं।

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रवि अग्रहरि
रवि अग्रहरि
अपने बारे में का बताएँ गुरु, बस बनारसी हूँ, इसी में महादेव की कृपा है! बाकी राजनीति, कला, इतिहास, संस्कृति, फ़िल्म, मनोविज्ञान से लेकर ज्ञान-विज्ञान की किसी भी नामचीन परम्परा का विशेषज्ञ नहीं हूँ!

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