Saturday, May 4, 2024
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‘हमें सिखाया जा रहा अपनी ही संस्कृति से नफरत करना, धर्म पर शर्मसार होना’: बोले ‘हिंदुत्व’ के हीरो – वक्फ सबसे बड़ा फर्जीवाड़ा, बॉलीवुड हुआ पथभ्रष्ट

"हमारे हिन्दू राजा हारे भी तब, जब कोई 'जयचंद' निकला। इसी 'तरह Divide And Rule' के तहत एक हिन्दू को दूसरे के खिलाफ खड़ा कर के हमें हराया गया। जब-जब हम इकट्ठे हुए, हमें कोई नहीं हरा पाया। अंग्रेज भी आए, उनकी भी 'फूट डालो, राज करो' वाली नीति थी। आज भी यही कोशिश हो रही है।"

आशीष शर्मा टीवी की दुनिया में जाना-पहचाना नाम हैं, जिनकी फिल्म ‘हिंदुत्व चैप्टर वन’ सिनेमाघरों में रिलीज हो चुकी है। इस फिल्म का निर्देशक करण राजदान ने किया है। ‘हिंदुत्व’ फिल्म को लेकर इसके मुख्य अभिनेता आशीष शर्मा ने ऑपइंडिया से बात करते हुए विभिन्न मुद्दों पर अपनी राय रखी। कई ऐतिहासिक किरदारों को छोटे पर्दे पर निभा चुके आशीष शर्मा ने ‘बॉयकॉट बॉलीवुड’ से लेकर लिबरल गिरोह द्वारा हिन्दू धर्म को बदनाम किए जाने जैसे मुद्दों पर बेबाकी से अपनी राय रखी।

‘हिंदुत्व’ फिल्म के मुख्य अभिनेता आशीष शर्मा का इंटरव्यू

प्रश्न: आप ‘सिया के राम’ हैं या ‘चन्द्रगुप्त मौर्य’ हैं? खुद को आप किस रूप में देखते हैं?
जवाब: दोनों हूँ मैं। देखिए, दोनों के अंश हैं मेरे अंदर और हमारे अंदर होने भी चाहिए। अगर हमें नेतृत्व करना है तो इन दोनों के गुण होने चाहिए। श्रीरामचन्द्र हों या चन्द्रगुप्त मौर्य, कार्य दोनों ने एक ही किया था और वो है भारतवर्ष को एक करने का।

प्रश्न: एक अभिनेता रूप में आप काफी ऐतिहासिक किरदारों को निभा चुके हैं, चाहे वो ‘चन्द्रगुप्त मौर्य (2011-12)’ हो, ‘सिया के राम (2015-16)’ हो या फिर ‘पृथ्वी वल्लभ (2018)’ हो। इन किरदारों को निभाने की प्रेरणा आपको कहाँ से मिलती है? आखिर क्या कारण है कि ऐसे किरदार घूम-फिर कर आपके पास ही पहुँचते हैं?
जवाब: वो होता है ना, जब आप अंदर से जो भी होते हैं उन्हीं चीजों को आकर्षित करने लगते हैं। मैं बचपन से इन्हीं किताबों को पढ़ते हुए पला-बढ़ा हूँ। कहीं न कहीं बचपन में ये किरदार ही मेरे रोल मॉडल रहे हैं। साहित्य में मेरी बचपन से रुचि रही है, खासकर हिंदी साहित्य। आज भी इन्हें मैं पढ़ता हूँ। शुरुआत में मैंने इन किरदारों को आकर्षित किया, जिसके बाद एक कड़ी जुड़ती चली गई। एक अभिनेता के तौर पर इन किरदारों को करने के बाद निर्माताओं को आपके ऊपर एक भरोसा आने लगता है कि आप इन किरदारों को अच्छे से निभा सकते हैं। ऐतिहासिक जो किरदार हैं, उन्हें निभाने के लिए भाषा पर पकड़ और स्क्रीन प्रेजेंस के अलावा उनकी साइक्लोजी और फिलॉसफी भी समझ में आनी चाहिए।

प्रश्न: बात ‘हिंदुत्व’ फिल्म की करें तो आपने क्या सोच कर इस फिल्म को हाँ कहा? आपका मन कैसे बना कि इसे करनी चाहिए?
जवाब: जब करण राज़दान (फिल्म के निर्माता-निर्देशक) ने मुझे बुलाया और उनसे मुलाकात हुई तो उन्होंने पहले ही शब्द में कह दिया कि वो ‘हिंदुत्व’ फिल्म बना रहे हैं। ये सुनते ही मेरे कान खड़े हो गए। पहले तो मैंने उनके साहस की दाद दी कि एक ऐसा फिल्ममेकर इस विषय पर मूवी बना रहा है, जिसे देखते हुए हमलोग बड़े हुए हैं। मुझे बड़ी ख़ुशी हुई। फिर उन्होंने मुझे कहानी सुनाई और मुझे ये अच्छी लगी। मैं व्यक्तिगत तौर पर काफी चीजें समझता-पढ़ता-देखता हूँ। इस समय देश-दुनिया में जो चल रहा है न, या यूँ कह लीजिए कि आज हमें दिखाई दे रहा है – हमलोग पाश्चात्य संस्कृति से प्रभावित हो गए हैं। इसका जो असर है, हम वेस्ट को देख कर खुद को धर्मनिरपेक्ष बनाने की कोशिश कह रहे हैं, जबकि हमें खुद इसका मतलब पता हैं। हिन्दुओं को सेक्युलर होने का मतलब पता नहीं। किसी और के प्रभाव में आकर हिन्दू खुद को सेक्युलर बताने लगे हैं, जबकि उन्हें नहीं पता है कि कैसे उन्हें योजनाबद्ध तरीके से अपने ही धर्म, संस्कृति और रीति-रिवाजों से अलग किया जा रहा है। मैंने व्यक्तिगत तौर पर ये महसूस किया और इस फिल्म के जरिए इसे युवाओं तक पहुँचाना ज़रूरी है। हिंदुत्व को लेकर योजनाबद्ध तरीके से एक नैरेटिव बनाया गया है, जिसके चक्कर में पड़ कर हम अपने धर्म को भूल गए हैं।

प्रश्न: क्या आपको लगता है कि ‘हिंदुत्व’ फिल्म एक ऐसा माध्यम बनेगा, जिससे युवा अपने धर्म को समझेंगे?
जवाब: सबसे ज्यादा ज़रूरी है कि युवा हिंदुत्व के प्रति अपनी जिम्मेदारी को समझें, जो उनका अधिकार भी है। वो न सिर्फ हिन्दू धर्म को अपनाएँ, बल्कि इसे बचाएँ और अपनी आने वाली पीढ़ियों को बताएँ। जब बाकी दुनिया विकसित नहीं हुई थी, हम यहाँ किताबें लिख रहे थे, वेद-पुराण लिख रहे थे। विज्ञान को हमने उसी समय समझा। तब वैज्ञानिकों का धरती प अता-पता ही नहीं था। हमारा धर्म सबसे पुरातन है और ये आज तक टिका हुआ है, इसका कारण है कि ये खुद को बार-बार नए तरीके से विकसित करती है, हर दौर में, हर दशक में। जो घट रही हैं, उस हिसाब से अपने आपको अनुकूल बनाती चली जाती है। इतनी खूबसूरत संस्कृति पर हमें योजनाबद्ध तरीके से शर्म करना सिखाया जा रहा है। हम हिंदी में बात करें तो हमें तुच्छ समझा जाए, कुर्ता-पजामा पहन रहे हैं तो ‘कूल’ नहीं हैं और हमने पूजा-पाठ कर लिया या तिलक लगा लिया तब हम रूढ़िवादी हो गए। हमें कट्टरवादी बता दिया गया। हिंदुत्व को इससे जोड़ दिया गया। अगर एक मुस्लिम पाँच वक्त नमाज पढ़ता है, सिर पर टोपी रखता है और रोजा रखता है तो कहा जाता है कि वो अपने मजहब का पालन कर रहा। लेकिन, अगर मैं नवरात्र कर लूँ, मंगल का व्रत कर लूँ या शिव की पूजा-आराधना कर लूँ तो ‘कट्टरवादी’ हो गया। जबकि हमारी पूजा-पाठ की समाप्ति के समय ‘विश्व का कल्याण हो’ कहा जाता है। ध्यान दीजिए, निजी कल्याण की नहीं, सबकी भलाई की बात की जाती है। ऐसे करने में हमें अपने ही धर्म पर शर्मशार होना सिखाया जाता है।

प्रश्न: ‘हिंदुत्व’ शब्द को काफी बदनाम कर दिया गया है। हिन्दुओं पर हमले होते हैं, तब भी उन्हें आरोपित बताया जाता है। क्या ये एक सोची-समझी साजिश है?

जवाब: बिलकुल, ऐसा ही है। और सालों से ऐसा नैरेटिव बनाने की कोशिश की जा रही है। अगर आप इतिहास उठा कर देखेंगे तो जब मुगलों ने हम पर आक्रमण किया, उस समय भी उन्हें पता था कि उनके विरुद्ध लड़ रहे राजाओं पर वो शौर्य में विजय प्राप्त नहीं कर सकते। इसीलिए, उन्होंने हिन्दुओं को एक-दूसरे से लड़ाना शुरू किया। हमारे हिन्दू राजा हारे भी तब, जब कोई ‘जयचंद’ निकला। इसी ‘तरह Divide And Rule’ के तहत एक हिन्दू को दूसरे के खिलाफ खड़ा कर के हमें हराया गया। जब-जब हम इकट्ठे हुए, हमें कोई नहीं हरा पाया। अंग्रेज भी आए, उनकी भी ‘फूट डालो, राज करो’ वाली नीति थी। आज भी यही कोशिश हो रही है। हिन्दुओं को सिखाया जा रहा है कि असली हिन्दू सेक्युलर होता है, ‘कट्टर’ नहीं होता। लेकिन, बाकी सरे मजहब कट्टरपंथ पर भी उतर आएँ तब हम कहते हैं कि उनकी एकता काफी अच्छी है। एक छोटा सा उदाहरण समझिए। जब फिलिस्तीन में कुछ होता है, तो हमारे यहाँ के ‘Woke’ और सेक्युलर किस्म के लोग नारे लगाते है, ऑनलाइन ट्रेंड चलाते हैं और प्लाकार्ड लेकर खड़े हो जाते हैं। काफी सारे सेलेब्रिटी भी ऐसा करते हैं। विरोध व्यक्त किया जाता है, कड़ी निंदा की जाती है। लेकिन, जब लेस्टर और बर्मिंघम में हिन्दुओं पर हमला होता है और मंदिरों को निशाना बनाया जाता है, तब ये सब चुप हो जाते हैं और उनकी आवाज़ नहीं निकलती। ये ‘सेलेक्टिव आउटरेज’ है। इसीलिए, हमें ‘सेक्युलर’ होने बोल कर मूर्ख बनाया जा रहा है। जबकि, हमें सुदृढ़ बनने की ज़रूरत है। पुणे में PFI की रैली में देश विरोधी नारे लगाए गए। इस पर ये लोग क्यों नहीं बोल रहे? जो नहीं बोल रहे, वो राष्ट्र के हित में नहीं हैं। हिन्दू धर्म में ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ की धारणा है, अर्थात पूरा विश्व एक परिवार है। हमारा धर्म सबसे पहले पहले राष्ट्रवाद सिखाता है। हम इसी वसुधा की बात करते हैं और अगर इसकी भलाई नहीं कर सकते तो हमें न तो हिन्दू कहलाने का अधिकार है और न ही राष्ट्रवादी।

प्रश्न: ‘हिंदुत्व’ फिल्म में ‘लव जिहाद’ पर भी चोट की गई है। क्या आपको लगता है कि ये असली में एक समस्या है, क्योंकि लिबरल गिरोह अक्सर इसे बनावटी बताता है।
जवाब: आप एक ऐसी घटना दिखा दीजिए, जहाँ किसी हिन्दू लड़की से शादी कर के कोई मुस्लिम लड़का हिन्दू धर्म को अपना ले। ऐसी कितनी घटनाएँ आती हैं? मेरी शादी एक ईसाई लड़की से हुई हैं। मेरी पत्नी एक रोमन कैथोलिक हैं, लेकिन वो महाराष्ट्रियन हैं। उनकी पिछली कुछ पीढ़ियाँ ईसाई रही होंगी। लेकिन, वो अपना धर्म निभाती हैं और उतनी ही शिद्दत से मेरा धर्म भी निभाती हैं। वो करवा चौथ का व्रत करती हैं और हवन भी करती हैं, लेकिन मैंने उनसे कभी नहीं कहा कि आप धर्म-परिवर्तन कर लो। लेकिन, ऐसा नहीं है कि वो मेरे धर्म को नीचा देखती हैं। ये होती है धर्मनिरपेक्षता, जहाँ किसी को नीचा नहीं दिखाया जाता। धर्मनिरपेक्षता ये नहीं है कि अंतर्धार्मिक विवाह की आज़ादी तो चाहिए लेकिन लड़की को हमारे मजहब में आना ही पड़ेगा। ये प्रेम नहीं है। प्रेम के अंदर सौदेबाजी नहीं होती। प्रेम का अर्थ है कि जो जो हैं, उन्हें वो रहने दीजिए। लड़की को ही जब धर्म-परिवर्तन करना पड़े हमेशा, तो ये दोगलापन है।

प्रश्न: आपकी फिल्म ‘हिंदुत्व’ में छात्र राजनीति को भी उभारा गया है। ‘द कश्मीर फाइल्स’ में भी छात्र राजनीति के कई पहलू दिखाए गए थे। क्या आप कोई तुलना देखते हैं?
जवाब: मैं ‘द कश्मीर फाइल्स’ से कोई तुलना नहीं करना चाहता, क्योंकि वो वास्तविक घटनाओं पर आधारित फिल्म है। जो घटनाएँ घटीं, उन्हें उन्होंने उसी पीड़ा के साथ हूबहू ईमानदारी से सामने रखा, उसे डॉक्यूमेंट किया। वो डोक्यू-ड्रामा थी, जबकि हमारी फिक्शनल फिल्म है। ये सत्य घटनाओं पर आधारित है। हमारे देश की राजनीतिक और सामाजिक घटनाओं पर आधारित इस फिल्म में दो दोस्तों की कहानी है। ये दोनों भारत का प्रतिनिधित्व करते हैं। भारत आज की तारीख़ में जो देश है, वो विभाजन की नींव पर बना था। जो चीजें विभाजन पर आती हैं, उन्हें जोड़ कर रखने की आवश्यकता होती है। ये फिल्म इसी जोड़ की बात करती है। इसके चक्कर में एक पलड़े को भारी और एक को कम नहीं कर सकते, समानता होनी चाहिए। ‘हम अल्पसंख्यक हैं, हमने अपने कानून बना लिए’ – ये सही नहीं है। ‘वक्फ बोर्ड’ कितना बड़ा फर्जीवाड़ा है। कानून से अधिकार पाकर वो किसी भी जमीन पर दावा कर के उसे ले लेते हैं। जबकि मंदिरों के मामले में उनकी पूरी कमाई सरकार के पास जाती है। समानता दोनों तरफ से होनी चाहिए, वरना इनमें पड़ने का कोई फायदा नहीं है।

प्रश्न: आजकल ‘बॉयकॉट बॉलीवुड’ का ट्रेंड भी चल रहा है। ‘शमशेरा’ में हिन्दू धर्म का अपमान होने के कारण इसका बहिष्कार किया गया और ये फ्लॉप हुआ। आमिर खान की ‘लाल सिंह चड्ढा’ जैसी बड़ी फिल्म नहीं चली। आपको क्या लगता है, बॉलीवुड कहाँ चूक रहा है?
जवाब: पिछले कुछ ज़माने से बॉलीवुड थोड़ा सा पथभ्रष्ट हो गया है। असल में वो यही काम कर रहे हैं, जो वो करते हैं। वो पूरी शिद्दत से कहानी कह रहे हैं। ऐसा नहीं है कि कलाकारी ये मेहनत में। फर्क ये नजर आया है कि जनता ने उन्हें कह दिया है कि हमें वो नहीं देखना जो आप बना रहे हैं और आप वो बनाइए, जो हम देखेंगे। पहले हमलोग जो भी बनता था, जाकर देख लेते हैं। मैं भी उसी में था। अब जनता ने पहली बार बोला है और टिकट खिड़की पर इसे साबित भी कर दिया है। नकारना या स्वीकारना ऑडिएंस का अधिकार है। फिल्मकारों को समझना पड़ेगा कि ऑडिएंस को क्या देखना है। उनकी बात माननी पड़ेगी। बॉयकॉट से बेहतर है कि आप जिसे देखना चाहते हैं, उसका समर्थन कर दें। ‘द कश्मीर फाइल्स’ को देख लीजिए, न तो समीक्षकों ने उसका रिव्यू किया और न ही मीडिया ने कवर किया। ज़रूरत ही नहीं पड़ी। जनता ने रिव्यू दे दिए, जनता ने कवर किया, जनता ने टिकट खरीदा और इसे ब्लॉकबस्टर बनाया। आजकल पैसे देकर समीक्षा भी करवाई जाती है। कितने स्टार्स देने के कितने पैसे मिलते हैं, ये जगजाहिर है। दिनकर ने – ‘सिंहासन खाली करो, कि जनता आती है।’

प्रश्न: दक्षिण भारतीय फिल्मों को हिंदी बेल्ट के दर्शकों द्वारा इतना प्यार दिए जाने के पीछे आप क्या कारण मानते हैं? बाहुबली सीरीज के अलावा ‘पुष्पा’, KGF और RRR जैसे फ़िल्में भी उत्तर भारत में ब्लॉकबस्टर हुई हैं। इसका कारण आप क्या मानते हैं?
जवाब: मैं तो एक जमाने से साउथ की फ़िल्में देखता हूँ और सिर्फ उनकी कमर्शियल ही नहीं बल्कि और भी फ़िल्में देखता रहा हूँ। मेरे हिसाब से मलयालम में भारत की बेहतरीन फ़िल्में बनती हैं। काफी खूबसूरत और जमीन से जुड़ी हुई मानवीय कहानियाँ वो कहते हैं, जहाँ आपको भारतीयता, भारत का परिवेश और हिंदुस्तानी नागरिक नजर आता है। उसमें पाश्चात्य प्रभाव नहीं दिखता। वो अपनी छोटी-छोटी मानवीय मुद्दों पर फ़िल्में बनाते हैं, जिनमें आसपास के लोगों की कहानी होती है। साउथ के फिल्मों की कहानी और किरदार जमीनी होते हैं। वो ‘लार्जर दैन लाइफ’ भी बनाते हैं तो वो प्रेरणा देते हैं और भारतीयता को महत्व देते हैं। आपको देख कर लगेगा कि मैं भी इसके जैसा बन सकता हूँ। इसका कारण ये भी है कि वहाँ के अभिनेता-अभिनेत्री भी जमीन से जुड़े रहते हैं। वो अपनी संस्कृति से जुड़े हुए लोग हैं, इसीलिए वो इतनी शिद्दत से ये किरदार निभाते हैं। जबकि बॉलीवुड में अधिकतर लोग पाश्चात्य प्रभाव में बड़े हुए हैं। माहौल वेस्टर्नाइज बन गया है, इसीलिए उनकी सोच-समझ भी ऐसी हो गई है। उनके लिए हिंदी बोलना-समझना भी मुश्किल है। किसी छोटे शहर में किसी युवक की तकलीफ को वो कैसे समझेंगे, जब आपने वो ज़िन्दगी जी ही नहीं। आप रिसर्च कर के उसके करीब पहुँच जाएँगे, लेकिन उसे अपने अंदर नहीं उतार पाएँगे। या तो आपने वो जिया न हो या करीब से देखा न हो, तब तक इसे निभाना संभव नहीं। आजकल जो आधुनिक लेखक हैं, वो भी हमारे समाज, संस्कृति और सभ्यता से जुड़े हुए नहीं हैं। इसका कारण ये भी है कि वो हिंदी साहित्य पढ़ते ही नहीं हैं। आजकल लिखे ही नहीं जाते। हमें हमारे बच्चों को अपनी सभ्यता और संस्कृति से जोड़ना होगा, तभी बड़े होकर वो उसी हिसाब से काम करेंगे।

प्रश्न: आप अपने संघर्ष और शुरुआती दिनों के बारे में बताइए, ताकि नए अभिनेताओं और अभिनय का शौक रखने वालों को भी इससे प्रेरणा मिले।
जवाब: मैं ये कहूँ कि मैं रेलवे प्लेटफॉर्म पर सोया और बड़ापाव खाया तो मैं ये नहीं कहूँगा। मेरी शुरुआत फिल्मों से ही हुई। दिवाकर बनर्जी की ‘लव, सेक्स और धोखा’ (2010) काफी क्रिटिकली एक्लेम्ड रही, लेकिन मुझे नाम टीवी से मिला। टीवी ने मुझे घर-घर तक पहुँचाया, नाम और पैसा दिया। साथ ही इस लायक बनाया कि मैं चीजों को ना बोल सकूँ। उन चीजों को नकार सकूँ, जो मुझे नहीं करना है। इसका कारण ये है कि मैंने अपने ज़रूरतों और आवश्यकताओं को नियंत्रण में रखा। मैंने Need और Want को कंट्रोल में रखा। आपको ज्यादा चीजों की आवश्यकता नहीं पड़ती। मुझे आज भी कम चीजों की ही ज़रूरत पड़ती है। टीवी ने मुझे इस लायक बनाया कि मैं अपना काम खुद बना सकूँ, कंटेंट क्रिएट सर सकूँ। मेरी प्रोडक्शन कंपनी भी है। उसके तहत मैं ऐसी ही कहानियाँ बना रही हूँ। एक फिल्म मैं बना चुका हूँ। एक सीरीज बन चुकी है। दो फ़िल्में फ्लोर पर हैं। मैंने OTT या फिल्मों की तरफ रुख किया, लेकिन हमारे लिए वहाँ ‘बासी’ शब्द का प्रयोग करते हुए कहा जाता है कि ‘टीवी के बड़े कलाकारों’ को 10 साल से लोग देख रहे हैं, अब उन्हें कौन देखना चाहता है। मेरा मानना है कि दर्शक मुझे नहीं देख रहे, किरदार को देख रहे। अमिताभ बच्चन दशकों से काम कर रहे हैं, लेकिन क्या वो बासी हो गए? वो आज भी इतने ही फ्रेश हैं और शिद्दत से काम करते हैं। इस सोच से मुझे लड़ना है। वो इज्जत से आपको बैठाएँगे, चाय-पानी पिलाएँगे, लेकिन काम नहीं देंगे। इज्जत से तिरस्कार करेंगे। इस पर आप रो सकते हैं या इससे लड़ सकते हैं। छाती पीट कर हाय-हाय करने की जगह आप अपनी जगह खुद बनाना शुरू करते हैं, जो मैं कर रहा। तकलीफें आती हैं, लेकिन अड़चनों के अंदर मौका खोजना चाहिए। मैं यही कर रहा हूँ।

आशीष शर्मा ने इस इंटरव्यू में ये भी बताया कि उनकी प्रोडक्शन कंपनी कई नए प्रोजेक्ट्स पर काम कर रही है। वो खुद एक और फिल्म कर रहे हैं। उनका कहना है कि फिल्मों के जरिए मनोरंजन के साथ-साथ एक सन्देश छोड़ जाना भी उनका उद्देश्य है। उनकी अगली फिल्म बड़े-बुजुर्गों के प्रति युवाओं की जिम्मेदारी की बात करेगी। उनका मानना है कि कलाकारों की स्वीकार्यता काम से नहीं, नाम से होनी चाहिए। ‘हिंदुत्व’ फिल्म को दर्शकों से अच्छी प्रतिक्रिया मिली है।

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अनुपम कुमार सिंह
अनुपम कुमार सिंहhttp://anupamkrsin.wordpress.com
चम्पारण से. हमेशा राइट. भारतीय इतिहास, राजनीति और संस्कृति की समझ. बीआईटी मेसरा से कंप्यूटर साइंस में स्नातक.

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