हाल ही में इटली के एक लग्जरी ब्रांड प्राडा ने मिलान के रैंपवॉक के लिए अपने स्प्रिंग और समर सीजन के मेंस वियर कलेक्शन 2026 दिखाया। इसमें ब्रांड ने मॉडल्स को चमड़े की चप्पलें पहनाईं और इसे अपना बेहतरीन और ओरिजिनल कलेक्शन बताया। बस इसी के बाद दुनियाभर में प्राडा का तिरस्कार और बवाल शुरू हो गया।
बवाल होना भी लाजिमी है क्योंकि प्राडा जिन चप्पलों को अपनी ‘प्रेरणा’ बता रहा था वह असल में भारतीय कोल्हापुरी चप्पलें हैं जो भारत की एक पारंपरिक हस्तशिल्प की अनूठी पहचान के साथ आम लोगों के लिए गर्व का जरिया भी हैं।
प्राडा ने इन चप्पलों को ₹1,00,000 तक बेच डाला जबकि भारत में यही कोल्हापुरी चप्पलें ₹200 से ₹1000 में ही आसानी से बाजार में उपलब्ध हैं। प्राडा के इस कलेक्शन की चप्पलें सोशल मीडिया में जैसे ही वायरल हुई वैसे ही भारतीयों का आक्रोश सामने आया।
भारतीयों ने नाराजगी जताते हुए प्राडा से सवाल किया कि ब्रांड ने पीढ़ियों से चली आ रही इस कारीगरी की विरासत के लिए भारत या कोल्हापुर आदि का जिक्र क्यों नहीं किया।
कोल्हापुरी चप्पलों की है अपनी खासियत
भारतीय पारंपरिक हस्तशिल्प में महाराष्ट्र और कर्नाटक के कारीगरों द्वारा चमड़े पर की गई की सदियों की मेहनत और कौशल का दूसरा नाम कोल्हापुरी चप्पल कहा जा सकता है। आमतौर पर इसकी कीमत 500 से 1000 रुपए के बीच है। ये कोल्हापुरी चप्पलें जितनी महीन और बेहतरीन कारीगरी का संगम दिखाती हैं उतनी ही मजबूत और टिकाऊ भी होती हैं।
मीडिया रिपोर्ट्स की मानें तो कोल्हापुरी चप्पलों का निर्माण 12वीं या 13वीं शताब्दी से चला आ रहा है। महाराष्ट्र के राजघरानों में रखे गए मोची समूह के कुशल कारीगर इसे हाथ से तैयार करते थे। इसकी एक खासियत ये भी है कि इसे बनाने में लोहे की कीलों का उपयोग नहीं किया जाता।
कोल्हापुरी चप्पलें किसी पहचान की मोहताज नहीं हैं। इसे 2019 में भारत सरकार ने GI टैग भी मिल चुका है। GI Tag उन उत्पादों को मिलता है जो किसी विशेष भौगोलिक क्षेत्र से जुड़े होते हैं और क्षेत्र के आधार पर ही उनकी विशिष्टता तय की जाती है।
आखिरकार झुका प्राडा
भारतीयों की गुस्सा देखने के बाद प्राडा को आखिरकार अपनी गलती माननी पड़ी। प्राडा के कॉर्पोरेट सोशल रिस्पॉन्सिबिलिटी प्रमुख लोरेंजो बर्टेली ने महाराष्ट्र चेंबर ऑफ कॉमर्स को पत्र लिखकर अपनी गलती मानी और स्वीकार किया कि ये चप्पलें भारतीय परंपरा की सदियों पुरानी विरासत हैं।
बर्टेली ने स्थानीय भारतीय कारीगरों से ‘सार्थक बातचीत’ करने की बात भी कही। हालाँकि भारतीयों का गुस्सा अगर सामने नहीं आता तो शायद प्राडा अपने इस ‘अपने कलेक्शन’ से काफी मुनाफा कमा चुका होता।
भारतीय विरासतों की सदियों से हो रही नकल
यह कोई पहला मामला नहीं है जिसमें भारतीय पारंपरिक उत्पादों या विरासतों की नकल कर उसका फायदा उठाया गया हो। इससे पहले भी कई बड़े ब्रांडों ने न केवल फैशन में बल्कि खानपान और धातुओं में भी चोरियाँ कीं, उनसे मिली प्रसिद्धि का फायदा उठाया और असल देश और लोगों को तवज्जो देना भूल गए।
इटली के ही लग्जरी ब्रांड गूची ने 2021 में ‘ऑर्गेनिक लिनन काफ्तान’ के नाम पर भारतीय कुर्ता बेचा। इसकी कीमत लगभग ₹2.5 लाख थी। इसके बाद सोशल मीडिया पर ब्रांड का जमकर मजाक बना। अंतरराष्ट्रीय ब्रांड जारा ने अपने कपड़ों में कई बार भारतीय ब्लॉक प्रिंट्स और डिजाइनों का उपयोग किया है। इसके लिए उसने कभी भारतीय स्रोत को श्रेय नहीं दिया।
इसी तरह लुई वितोन ने बनारसी ब्रोकेट समेत भारतीय कढ़ाई का इस्तेमाल अपने कलेक्शन में किया। हालाँकि उसका कोई भी श्रेय जमीनी कारीगरों को नहीं दिया। इसी तरह भारतीय डिजाइनर सब्यसाची मुखर्जी ने 2021 में H&M के साथ मिलकर ‘वांडरलस्ट’ नाम का कलेक्शन पेश किया। इसमें राजस्थान के सांगानेरी ब्लॉक प्रिंट का उपयोग किया लेकिन श्रेय नहीं दिया गया। सांगानेरी प्रिंट को भी GI Tag मिला हुआ है।
फैशन के अलावा भी हुईं हैं भारत के उत्पादों की चोरियाँ
मध्यकालीन यूरोप में तलवार की बेहतरीन धार और काफी मजबूत धातु के तौर पर दमिश्क स्टील प्रसिद्ध हुआ था। 12वीं सदी में यूरोप से ईसाइयत को बढ़ाने के लिए निकले योद्धाओं ने पश्चिम एशिया स्थित सीरिया की राजधानी दमिश्क में सबसे पहले ऐसी तलवारों को देखा जो रेशम के कोमल कपड़ों को भी हवा में काट देती थीं। उस जगह के नाम पर ही उन्होंने इस तलवार को दमिश्क स्टील नाम दिया।
हालाँकि असल में ये दमिश्क स्टील भारत की उत्पत्ति है। भारत से इसे पश्चिम एशिया में निर्यात किया जाता था। मूल रूप से वुट्ज स्टील (wootz steel) से बने दमिश्क स्टील को केरल, तमिलनाडु और कर्नाटक में तैयार किया जाता था। असल में वुट्ज स्टील का नाम तमिल के ‘उक्कू’ शब्द से आया है जिसका अर्थ इस्पात होता है।
ये स्टील 1-1.5% कार्बन से बना हाइपरयूटेक्टाइड स्टील होता था। इसके कारण ही ये दुनिया में सबसे सबसे अधिक मजबूत और धारदार होता था। भारत की इस धातु से बनी तलवारें आज भी यूरोपीय और एशियाई संग्राहलयों में हैं लेकिन इनसे भारत का नाम गायब हो गया है।
भारतीय उपमहाद्वीप की विरासत बासमती चावल भी हुए चोरी
भारतीय उपमहाद्वीप में पारंपरिक रूप से उगाए जाने वाले सुगंधित बासमती चावल भी चोरी होने से अछूते नहीं रह पाए। भारत और पाकिस्तान में होने वाली बासमती चावलों की खेती पर अमेरिकी कंपनी राइसटेक (RiceTec Inc.) ने 1997 में अमेरिकी पेटेंट करवाया। इसके बाद वहाँ उगने वाले बासमती चावलों को टैक्समती (Texmati) और जैसमती (Jasmati) कहकर बेचना शुरू कर दिया।
इसके बाद भारत ने बासमती को GI Tag देने की प्रक्रिया शुरू की। 18 साल की कानूनी लड़ाई के बाद बासमती को वैश्विक मान्यता और GI Tag मिल पाया।
नकल कर मुनाफा कमाने की पुरानी चाल
प्रेरणा के नाम पर बड़े-बड़े अंतरराष्ट्रीय ब्रांड सदियों से चली आ रही पारंपरिक विधाओं के साथ कुशल कारीगरों की मेहनत का भी अपनी सुविधानुसार मजाक बनाते हैं। खुद का उत्पाद बताकर अच्छा खासा मुनाफा कमा लेते हैं, दुनियाभर में नाम कमा लेते हैं।
इसके बाद जब उनकी नकल पकड़ में आती है तो धीरे से माफी माँगकर बात को रफा-दफा कर देने का तरीका अपना लेते हैं। इन सब के बीच नुकसान सिर्फ और सिर्फ उन कुशल हाथों का होता है जिनकी पीढ़ियाँ इसी काम के बलबूते कमाती-खाती और अपनी पहचान स्थापित करती आई हैं।
जब कारीगर बार-बार अपने हुनर का मजाक बनते देखते हैं तो उनमें हताशा साफ तौर पर दिखती है। हतोत्साहित होने के साथ वे स्वयं को छला हुआ पाते हैं। तब वे इसे छोड़ने का मन बना लेते हैं ताकि उनकी अगली पीढ़ी इस निराशा से न जूझे।
ऐसे में सबसे बड़ी जिम्मेदारी सरकार और कानून- नियम निर्माताओं की है कि वे हमारी विरासत को संजोने के लिए इतने कड़े नियामक तय कर दें कि कोई भी ब्रांड ‘असल कला’ की नकल करने से पहले उसके परिणामों से डर जाएं। तभी इस तरह के आधुनिक ब्रांड उन कुशल कारीगरों के पेट पर लात मारने या उनकी प्रतिभा का फायदा उठाने से पहले दो बार सोचेंगे।