जम्मू कश्मीर में महाराजा हरि सिंह के विरुद्ध इस्लामी जिहाद करने वालों को शहीद बताने का दौर फिर से चालू हो रहा है। हरि सिंह को काफिर मान कर जिहाद करते हुए मारे जाने वालों के नाम पर छुट्टी घोषित किए जाने की माँग चल रही है। यह छुट्टी भारत सरकार ने 2019 में खत्म कर दी थी। भाजपा ने इन इस्लामी जिहादियों को शहीद बताए जाने का विरोध किया है।
यह पूरा मामला जम्मू-कश्मीर विधानसभा के बजट सत्र में चालू हुआ। बुधवार (5 मार्च, 2025) को जम्मू कश्मीर विधानसभा में PDP के विधायक वहीद-उर-रहमान पारा ने माँग की कि 13 जुलाई का अवकाश दोबारा चालू किया जाए। उन्होंने इसे ‘शहीदी दिवस’ का दर्जा दिए जाने की माँग की।
भाजपा ने किया वाकआउट
विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष और भाजपा विधायक सुनील शर्मा ने इसका जोरदार प्रतिरोध किया। उन्होंने कहा, “वे शहीद नहीं बल्कि देशद्रोही थे।” सुनील शर्मा ने स्पष्ट कर दिया कि महाराजा हरि सिंह के विरुद्ध विद्रोह करने वाले को क्रांतिकारी नहीं बल्कि कट्टरपंथियों की भीड़ थी।
सुनील शर्मा के नेतृत्व में भाजपा ने विधानसभा से वाकआउट कर दिया। सुनील शर्मा ने बाहर कहा कि शहीदों के नाम पर गद्दारों को सम्मान नहीं दिया जा सकता। सुनील शर्मा ने कहा, “मैं आज आपको बताना चाहता हूँ कि 13 जुलाई, 1932 को मारे गए लोगों ने पहले एक हिंदू इलाके में आग लगाई और फिर महाराजा के शासन के खिलाफ बावला शुरू किया। इन लोगों को कॉन्ग्रेस पार्टी ने शहीद बना दिया था, लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के शासन में इन्हें शहीद नहीं माना जा सकता।”
किश्तवाड़ से भाजपा विधायक शगुन परिहार ने भी इस मामले में नेशनल कॉन्फ्रेंस और PDP पर हमला बोला। उन्होंने कहा, “13 जुलाई के नाम पर छुट्टी माँग रहे हैं, वह लोग गद्दार थे। यह लोग कश्मीरी पंडितों की बात नहीं करते, 90 के दशक के विषय में बात नहीं करते… महाराजा का राज्य यह लोग चाहते हैं लेकिन उनका सम्मान नहीं करते। यह लोग पाकिस्तान का सम्मान करते हैं, जिसकी वजह से हमारे लाखों लोग मारे गए।”
क्यों हो रहा 13 जुलाई पर बवाल?
इस पूरे बवाल की जड़ 9 दशक पहले की एक तारीख 13 जुलाई, 1931 से जुड़ी है। दरअसल, 13 जुलाई, 1931 को श्रीनगर की सेंट्रल जेल के बार महाराजा हरि सिंह की सेना ने 21 इस्लामी दंगाइयों को गोली मार दी थी। यह इस्लामी दंगाई जेल पर हमला करने आए थे और महाराजा हरि सिंह का तख्तापलट करना चाहते थे।
1948 में जब जम्मू कश्मीर का विलय भारत में हो गया और नेशनल कॉन्फ्रेंस राज्य की सत्ता में आई तो इन्हें शहीद का दर्जा दे दिया गया। इस दिन राज्य में छुट्टी भी घोषित की गई। इनको ‘लोकतंत्र’ के लिए आंदोलन करने वाला क्रांतिकारी बताया गया। इनके लिए एक सूफी संत की मजार के पास एक स्मारक भी बनाया गया था।
यह छुट्टी दशकों तक इसी तरह चलती रही थी। हालाँकि, 2019 में मोदी सरकार ने अनुच्छेद 370 हटाने के बाद यह छुट्टी खत्म कर दी थी। हालाँकि, अब जम्मू कश्मीर में नेशनल कॉन्फ्रेंस की सरकार में यह छुट्टी दोबारा चालू करने की माँग की गई है। इस पर भाजपा को सख्त ऐतराज है।
क्या है 13 जुलाई के शहीदों की सच्चाई
कश्मीर में कट्टर मानसिकता वाले लगातार 13 जुलाई की घटना को महाराजा हरि सिंह के खिलाफ क्रान्ति और जनआंदोलन करार देते हैं। इसे ‘कश्मीर शहीद दिवस’ बताते हैं। कहा जाता है कि यह महाराजा के कथित क्रूर शासन के खिलाफ एक विद्रोह था। जबकि असल में यह एक ‘काफिर’ हिन्दू शासक के खिलाफ लड़ाई थी।
इस सम्बन्ध में कश्मीरी पंडित एक्टिविस्ट सुशील पंडित ने एक लेख में काफी अच्छे से समझाया था। वो मानते हैं कि आधुनिक कश्मीर का पहला नरसंहार तभी हुआ था, वो भी पूरी साजिश के साथ। सैकड़ों लोगों की हत्या कर दी गई, ज़िंदा जला दिया गया, विकलांग बना दिया गया और नदी में फेंक दिया गया। महिलाओं का यौन शोषण और बलात्कार हुआ। कइयों के घर लूट लिए गए तो कइयों को इस्लाम अपनाने के लिए मजबूर किया गया।
उन्होंने बताया है कि कैसे जब पुलिस ने दंगाइयों पर कार्रवाई की तो उनमें से कुछ की मौत हो गई, जिसके बाद उनके गिरोह द्वारा उन्हें ‘शहीद’ बता दिया गया और स्वतंत्र भारत में जम्मू कश्मीर की नई सरकार ने उन आतंकियों के कृत्यों को ‘पवित्र’ बनाने के लिए नायकों की तरह उनका सम्मान करते हुए 13 जुलाई को उन्हें याद किया जाने लगा। आइए, अब जानते हैं कि असल में उस दिन हुआ क्या था। उस समय जम्मू कश्मीर के स्वायत्त राजा थे हरि सिंह।
तब जम्मू कश्मीर के साथ-साथ लद्दाख, गिलगिट-बाल्टिस्तान, मुजफ्फराबाद-मीरपुर और अक्साई चीन के अलावा शक्सगाम घाटी के इलाके भी उनके क्षेत्र का हिस्सा हुआ करते थे। लेकिन, अंग्रेज उनसे कुछ इलाके छीनना चाहते थे। महाराजा हरि सिंह उन दुर्लभ राजाओं में से एक थे, जिनका शासन मुस्लिम बहुल इलाके में था। इसीलिए, अंग्रेजों ने एक साजिश के तहत पेशवर के एक अहमदी अब्दुल क़दीर को खानसामा के वेश में श्रीनगर में स्थापित कर दिया।
इसके बाद ‘अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी (AMU)’ के शेख मोहम्मद अब्दुल्लाह को भी लाया गया। वो एक राजनीतिक महत्वाकांक्षा वाला व्यक्ति हुआ करता था, जिसकी पुश्तें आज भी जम्मू कश्मीर को अपनी बपौती समझती हैं। ख़ानक़ाह मोहल्ला स्थित ‘शाह-ए-हमदान’ में एक सार्वजनिक सभा हुई, जहाँ अब्दुल क़दीर ने एक भड़काऊ भाषण दिया। महाराजा के विरुद्ध जंग के लिए कुरान का हवाला दिया गया। उसने भड़काया कि एक ‘काफिर’ कैसे मुस्लिमों के ऊपर राज कर सकता है, इसकी इस्लाम में सख्त मनाही है।
कानून के अनुसार जिस गोहत्या पर प्रतिबंध था, उसके लिए उसने मुस्लिमों को खुल कर उकसाया। उसे जब राजद्रोह के आरोप में गिरफ्तार किया गया तो दंगे भड़क गए। कानूनी प्रक्रिया में बाधा डालने की कोशिशें हुईं। मज़बूरी में जेल परिसर में ही सुनवाई होती थी। 13 जुलाई को भी एक ऐसी ही सुनवाई थी। लेकिन, भीड़ ने वहाँ हमला कर दिया और जज के चैंबर में घुसने की कोशिश करने लगे। भीड़ ने पुलिस पर हमला बोल दिया और आगजनी शुरू कर दी।
जैसा कि आज भी होता है, जम कर मुस्लिम भीड़ ने पत्थरबाजी भी शुरू कर दी। जेल के कैदियों ने भी वहाँ से भागने का प्रयास शुरू कर दिया। पुलिस बल ने सारे पैंतरे आजमा लिए, लेकिन मुस्लिम भीड़ तितर-बितर नहीं हुई। कुछ कैदियों को भगा भी दिया गया। इसके बाद स्थानीय DM ने गोली चलाने के आदेश दिए। हरि पर्वत किले की तरफ भी भीड़ चल पड़ी थी। लाठीचार्ज का कोई असर नहीं हो रहा था। महराजगंज तब व्यापारियों का अड्डा हुआ करता था, जहाँ जम कर लूटपाट मचाई गई।
सुशील पंडित लिखते हैं कि इसके बाद भोरी कदल से लेकर आईकदल तक एक लंबी दूरी में हिन्दुओं की दुकानों को तहस-नहस कर दिया गया और चीजें लूट ली गईं। सफाकदल, गंजी, खुद और नवाकदल जैसे इलाकों में भी जम कर लूटपाट हुई। बाजार में बही-खातों को जला दिया गया और हिन्दू दुकानदारों में भगदड़ मच गई। लाखों के सामान लूट लिए गए, ये सड़कों पर तहस-नहस कर के फेंक दिए गए। हालाँकि, इस दौरान किसी मुस्लिम के दुकान में घुस कर लूटपाट की कोई खबर नहीं आई।
श्रीनगर के विचारनाग में मुस्लिम भीड़ अलग से जुटी हुई थी। वहाँ समृद्ध हिन्दुओं के साथ अत्याचार किया गया और उनकी महिलाओं का यौन शोषण हुआ। जब तक सेना आई, तब तक मुस्लिम भीड़ ने हिन्दुओं का बड़ा नुकसान कर दिया था। इसके बाद ‘बुद्धिजीवी’ गिरोह काम पर लगा और उसने इसे ‘सामंती सत्ता के विरुद्ध लोकतांत्रिक विद्रोह’ नाम दे दिया। याद कीजिए, मोपला मुस्लिमों द्वारा केरल में किए गए बड़े स्तर के नरसंहार को भी ‘जमींदारों के खिलाफ किसानों का विद्रोह’ कह दिया गया था।
जबकि, असल में कश्मीर में 13 जुलाई, 1931 को जो भी हुआ, वो एक हिन्दू राजा के विरुद्ध इस्लामी जंग था। शेख मोहम्मद अब्दुल्लाह का भी इन दंगों को भड़काने में बड़ा हाथ था। उसे गिरफ्तार कर जेल भी भेजा गया। हालाँकि, अगले ही साल महाराजा ने उसे माफ़ी दे दी और उसने ‘ऑल जम्मू एंड कश्मीर मुस्लिम कॉन्फ्रेंस’ का गठन कर के लोगों को भड़काना शुरू कर दिया। मीरपुर में हिन्दुओं ने भाग कर जान बचाने की कोशिश की। बाद में उनमें से सैकड़ों को शरणार्थी बन कर रहना पड़ा।
हिन्दुओं के गाँव जलाए, मंदिर तोड़े
उस समय इस घटना को देखने वाले बुजुर्गों ने बताया था कि कैसे कइयों को बेरहमी से मार डाला गया और इस्लाम अपनाने को भी कइयों को मजबूर किया गया। मंदिरों और गुरुद्वारों पर हमले की कई घटनाएँ सामने आईं। गुरुग्रंथ साहिब सहित कई पवित्र सनातनी पुस्तकों को जला दिया गया और देवी-देवताओं की प्रतिमाओं को खंडित किया गया। इसे ’88 ना शौरांश’ कहते हैं, अर्थात 88 का नरसंहार। विक्रम संवत के हिसाब से तब 1988 चल रहा था।
उस घटना के बाद के सैकड़ों परिवार और उनकी पुश्तें दशकों तक पुनर्वास के लिए संघर्ष करती रहीं। खुद अंग्रेजी रिकार्ड्स की मानें तो 31 मंदिरों-गुरुद्वारों को पूरी तरह तबाह कर दिया गया। 600 के आसपास जबरन इस्लामी धर्मांतरण के मामले सामने आए। सुक्खचैनपुर और संवल (मीरपुर) के हिन्दुओं को सबसे ज्यादा नुकसान हुआ। अंग्रेज लिखते हैं कि जहाँ भी दंगाई पहुँचे, स्थानीय मुस्लिम जनसंख्या ने उनका साथ दिया।
कुछ हिन्दुओं के गाँवों को तो एकदम से वीरान ही बना दिया गया, ऐसी लूटपाट और तबाही मचाई गई। इसके बाद 18 जनवरी, 1932 को भी हिन्दुओं के 50 गाँवों पर हमला हुआ और 300 घरों को लूटा गया। इनमें से 40 को आग के हवाले कर दिया गया। इतना ही नहीं, 40 हिन्दुओं को जबरन मुस्लिम बनाया गया। थन्ना गाँव में 20 जनवरी, 1932 को फिर से 36 घरों में लूटपाट हुई और 8 को फूँक दिया गया। सोहाना गाँव में 84 घरों में लूटपाट हुई और एक अन्य गाँव में 28 जनवरी को लूटपाट हुई।
जिस कश्मीर को महाराजा रणजीत सिंह ने अफगानों के चंगुल से छुड़ाया था और फिर डोगरा राजाओं ने हिन्दू शासन की स्थापना की, वहाँ के गैर-मुस्लिमों को सदियों के अत्याचार से राहत मिली। लेकिन, इस घटना के बाद से पुनः कश्मीर में पंडितों का नरसंहार शुरू हो गया। वहाँ भारत का संविधान स्वतंत्रता के बाद भी लागू नहीं हो पाया और मुट्ठी भर अलगाववादियों के अलावा अब्दुल्लाह-मुफ़्ती मिल कर यहाँ इस्लामी शासन चलाते रहे।
मोदी सरकार में रुका गद्दारों का सम्मान
जुलाई 2020 में ऐसा पहली बार हुआ, जब कश्मीर में दंगाइयों को श्रद्धांजलि नहीं दी गई। मोदी सरकार के कारण ये संभव हो पाया। आधुनिक कश्मीर में हिन्दुओं को संगठित तरीके से खदेड़ना के कार्य तभी शुरू हुआ था। अंग्रेजों के षड्यंत्र और इस्लामी भीड़ की हिंसा ने एक हिन्दू सत्ता को उखाड़ने के लिए हिन्दुओं का नरसंहार किया और बाद में ‘बुद्धिजीवियों’ ने इसे एक अलग रंग दिया। महाराजा हरि सिंह ने इन घटनाओं की जाँच के लिए हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश बरजोर दलाल की अध्यक्षता वाली एक समिति को दी।
महाराजा हरि सिंह ने लंदन के गोलमेज सम्मेलन में भारतीय एकता की बात की थी, उसी के बाद अंग्रेज सेनाधिकारी मेजर बोट ने अब्दुल कदीर नाम के पठान को वहाँ लाकर बसाया। ये सब एक साजिश का हिस्सा था। ब्रिटिश ने सत्ता सँभालने के बाद अब्दुल कदीर को 1.5 साल में ही रिहा कर दिया, जबकि उसे 5 साल की जेल हुई थी। कादियाँ नगर के अहमदिया समुदाय ने इस पूरे मामले में अंग्रेजो की खासी मदद की। इस रिपोर्ट में पता चला कि अंग्रेज अधिकारी वेकफील्ड जानबूझ कर उस दिन जेल के पास स्थिति को काबू करने नहीं गया, जबकि सुरक्षा का नियंत्रण उसके पास ही था।
4 जुलाई, 1931 को कुरान की बेअदबी की खबर सामने आई, जबकि ऐसा कुछ भी नहीं हुआ था। लेकिन, वेकफील्ड ने जाँच के बाद कुरान के तौहीन की बात प्रचारित की और मुस्लिमों को भड़काया। श्रीनगर में महाराजा हरि सिंह के खिलाफ भड़काऊ सामग्रियाँ भेजी गईं। वेकफील्ड की जगह प्रधानमंत्री बनाए गए हरि कृष्ण कौल ने मुस्लिम दंगाइयों से राज्य का समझौता कराया, लेकिन दंगे नहीं रुके। देश के कई हिस्सों में इस्लामी दंगों का पैटर्न यही रहा है, आज भी यही है।