न्यायपालिका को हिंसा और दुर्व्यवहार के शिकार लोगों की रक्षा करने का काम सौंपा गया है। हालाँकि, भारतीय अदालतों ने कई मौकों पर यौन उत्पीड़न के मामलों में पीड़ितों को दोषी ठहराकर और अपराधियों को शादी या राखी बाँधने जैसे बेहद बेतुके कारणों से ज़मानत देकर इस भरोसे को तोड़ दिया है। इसके कई मामले सामने आ चुके हैं। इस मामले में इलाहाबाद हाई कोर्ट के दो आदेश बेहद चिंतनीय हैं।
इसी हाई कोर्ट ने टिप्पणी की थी कि किसी लड़की का स्तन दबाना, उसके पायजामे का नाड़ा खींचना और लड़की को खींचकर ले जाना रेप का प्रयास नहीं है। उसके बाद नोएडा की एक युवती के साथ रेप के मामले में इस हाई कोर्ट ने कहा था कि पीड़िता ने खुद ही ‘मुसीबत को आमंत्रित किया’। अदालत ने आरोपित को जमानत भी दे दी। मेडिकल रिपोर्ट में युवती के हाइमन फटने की बात थी, लेकिन रेप की नहीं।
दरअसल, नोएडा की एक छात्रा ने सितंबर 2024 में अपने साथ हुए बलात्कार की शिकायत की थी। इस फैसले की हर तरफ आलोचना हुई। सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस बीआर गवई ने कहा, “इस हाईकोर्ट में क्या हो रहा है? अब उसी हाईकोर्ट के दूसरे जज ऐसी बातें कह रहे हैं। इस तरह की टिप्पणियाँ क्यों की जा रही हैं? ये मामले बहुत संवेदनशील है, इन मामलों में सावधान रहने की जरूरत है।”
हालाँकि, मुसीबत आमंत्रित करने वाली टिप्पणी इलाहाबाद हाई कोर्ट के जस्टिस संजय कुमार सिंह ने दी थी। इससे पहले जस्टिस राम मनोहर नारायण मिश्रा की पीठ ने कासगंज यौन उत्पीड़न मामले में कहा था कि किसी लड़की के स्तन को पकड़ना, उसके पायजामे के नाड़े को तोड़ना और पुलिया के नीचे खींचना… रेप या रेप के प्रयास का अपराध नहीं है। ऐसी टिप्पणियाँ देश भर की अदालतों से आती रहती हैं।
इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले पर विवाद
मार्च 2025 को इलाहाबाद हाईकोर्ट के जस्टिस राम मनोहर मिश्रा की एकल पीठ ने एक नाबालिग के रेप के मामले में फैसला दिया कि उसका स्तन पकड़ना और पायजामे का नाड़ा खोलना ‘बलात्कार का प्रयास’ नहीं है। हाई कोर्ट ने कहा था कि इस मामले में बलात्कार के प्रयास का आरोप नहीं बनता, क्योंकि अभियोजन पक्ष को यह साबित करना होता है कि आरोपितों की कार्रवाई अपराध करने की तैयारी से आगे बढ़ चुकी थी, जो कि साबित नहीं हुआ।
अदालत ने कहा था कि बलात्कार के प्रयास और अपराध की तैयारी के बीच अंतर को सही तरीके से समझना चाहिए। अदालत ने ट्रायल कोर्ट द्वारा जारी समन आदेश को संशोधित करते हुए निचली अदालत को निर्देश दिया कि वह आरोपितों के खिलाफ धारा 376 (बलात्कार) के बजाय धारा 354-बी (निर्वस्त्र करने के इरादे से हमला) और पॉक्सो अधिनियम की धारा 9/10 (गंभीर यौन हमला) के तहत नया आदेश जारी करे।
बाद में बवाल हुआ तो सुप्रीम कोर्ट ने इसका संज्ञान लेते हुए हाई कोर्ट के इस फैसले पर संवेदनहीन और घिनौना बताते हुए इस पर रोक लगा दी। सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश बीआर गवई और जस्टिस ऑगस्टिन जॉर्ज मसीह की पीठ ने अपने आदेश में कहा, “हमें यह कहते हुए कष्ट हो रहा है कि (इलाहाबाद हाई कोर्ट की) विवादित आदेश में की गई कुछ टिप्पणियाँ निर्णय लिखने वाले जज की ओर से संवेदनशीलता की पूर्ण कमी को दर्शाती हैं।”
कल्पना कीजिए कि आरोपित ने पीड़ित एक नाबालिग लड़की को घसीटा, उसके पायजामे का नाड़ा तोड़ा और फिर भी अदालत के लिए यह बलात्कार का प्रयास नहीं माना जाता। प्रवेशात्मक यौन हमला बलात्कार है और जिसे अदालत ने ‘तैयारी’ कहा है उसे बलात्कार का प्रयास माना जाना चाहिए। हालाँकि, इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने इसे ‘गंभीर यौन हमला’ माना।
बॉम्बे हाईकोर्ट ने नाबालिग से बलात्कार के आरोपित को दी जमानत
इसी तरह बॉम्बे हाई कोर्ट ने भी एक फैसला दिया था। बॉम्बे हाईकोर्ट ने 17 फरवरी 2025 को 14 वर्षीय लड़की से बलात्कार के आरोपित 24 वर्षीय एक युवक को जमानत दे दी थी। जस्टिस मिलिंद जाधव की पीठ ने कहा था कि पीड़िता ‘स्वेच्छा से’ आरोपित के साथ चार दिन रही और उसे ‘अपने कृत्यों के परिणाम’ की समझ थी।
कोर्ट ने पीड़िता के बयान को आधार बनाया, जिसमें उसने सहमति से संबंध होने की बात कही थी। हालाँकि, कानून कहता है कि18 साल से कम उम्र की सहमति मान्य नहीं होती। कोर्ट ने कहा था कि पॉस्को की धाराएँ गंभीर हैं, लेकिन न्याय के उद्देश्य से जमानत दी जा सकती है। इस फैसले की भी आलोचना हुई, क्योंकि नाबालिग का ब्रेनवॉश या दबाव में बयान देने की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता।
रेप का आरोपित बेल पर बाहर आने के बाद फिर किया रेप
अक्टूबर 2023 में आसिफ उर्फ छोटे बाबू नामक 22 वर्षीय व्यक्ति ने एक 17 वर्षीय लड़की का अपहरण किया और फिर उसका बलात्कार किया। आरोपित जमानत पर बाहर आने के बाद उसने 5 फरवरी 2025 को उत्तर प्रदेश के भदोही में एक लड़की का फिर से अपहरण किया और उसका रेप किया। इससे पहले वह 8 महीने जेल में रह चुका था।
ठाणे की पॉस्को कोर्ट ने दिया बेल
महाराष्ट्र के ठाणे स्थित पॉक्सो कोर्ट ने अप्रैल 2025 में 15 वर्षीय एक लड़की के अपहरण और उसका यौन शोषण के आरोपित को ज़मानत दे दी थी। जज डीएस देखमुख ने माना था कि पीड़िता और आरोपित के बीच सहमति से प्रेम संबंध बने थे और लड़की इसके परिणामों को समझने के लिए ‘काफी परिपक्व’ थी।
ओडिशा में बलात्कार के आरोपित ने जेल से बाहर आकर पीड़िता की हत्या की
ओडिशा के सुंदरगढ़ जिले में पुलिस ने एक नाबालिग लड़की की हत्या के आरोप में कुनू किशन नामक व्यक्ति को 11 दिसंबर 2024 को गिरफ्तार किया था। आरोपित ने उसी लड़की के साथ बलात्कार के किया था और उस मामले में वह अगस्त 2023 में गिरफ्तार किया गया था। जमानत पर रिहा होने के बाद उसने लड़की पर अपने पक्ष में बयान देने का दबाव डाला।
हालाँकि, लड़की ने उसकी बात मानने से इनकार कर दिया। इसका बदला लेने के लिए आरोपित कुनू किशन ने पीड़िता की हत्या कर दी। इतना ही नहीं, आरोपित ने पीड़िता के शव के टुकड़े करके जिले के अलग-अलग हिस्सों में फेंक दिए। पुलिस का कहना है कि जेल में रहते हुए ही उसने हत्या की योजना बना ली थी।
केरल हाईकोर्ट ने पॉक्सो केस खारिज की
साल 2021 में केरल के एक व्यक्ति पर 17 वर्षीय लड़की के अपहरण और बलात्कार का मामला दर्ज हुआ था। बाद में दोनों ने शादी कर ली और अब उनके दो बच्चे हैं। जुलाई 2024 में केरल हाई कोर्ट के न्यायमूर्ति ए. बदरुद्दीन ने आरोपित के खिलाफ दर्ज पॉक्सो के मामले को रद्द कर दिया था।
इसके पीछे तर्क देते हुए जस्टिस बदरुद्दीन ने कहा था कि बलात्कार और पॉस्को मामलों में समझौता कानूनन स्वीकार्य नहीं है, लेकिन इस मामले में मानवीय आधार पर केस खारिज किया गया, ताकि पारिवारिक जीवन और बच्चों की भलाई प्रभावित न हो। इस तरह अदालत बलात्कार की पीड़िता से शादी करना बलात्कारी के अपराध को माफ कर देता है।
बलात्कार के आरोपित ने पीड़िता के पिता और भाई की हत्या की
मार्च 2024 में हरियाणा के 19 वर्षीय मुकुल कुमार नाम के रेप के आरोपित ने 14 वर्षीय बलात्कार पीड़िता के रेलकर्मी पिता और 8 वर्षीय भाई की धारदार हथियार से हत्या कर दी। इन हत्याओं के बाद पीड़िता ने पिता के फोन से अपने दादा को वॉयस मैसेज भेजकर घटना की जानकारी दी। आरोपित पीड़िता का पड़ोसी था और उस पर पहले से बलात्कार का आरोप था।
बेल के लिए MP हाईकोर्ट ने आरोपित को पीड़िता से ‘राखी’ बँधवाई
जुलाई 2020 में मध्य प्रदेश हाईकोर्ट ने यौन उत्पीड़न के आरोपित को जमानत देने की शर्त पर पीड़िता से राखी बँधवाने का आदेश दिया। इस फैसले ने न्याय की मर्यादा तोड़ते हुए आरोपित को ‘भाई’ के रूप में पेश किया और यौन हमले को महत्वहीन बना दिया। सुप्रीम कोर्ट ने साल 2021 में इस फैसले पर रोक लगाते हुए इसे ‘अपमानजनक’ बताया था।
‘क्या आप पीड़िता से शादी करेंगे?‘: रेप के आरोपित से सुप्रीम कोर्ट का सवाल
मार्च 2021 में भारत के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश (CJI) एसए बोबडे की अगुवाई वाली सुप्रीम कोर्ट बेंच ने बलात्कार के आरोपित एक सरकारी कर्मचारी से पूछा था, “क्या आप पीड़िता से शादी करेंगे?” पीड़िता आरोपित की रिश्तेदार थी और जब वह नाबालिग थी, तब आरोपित ने उसका बलात्कार किया था। बेंच बॉम्बे हाई कोर्ट द्वारा आरोपित को अग्रिम जमानत दिए जाने के खिलाफ़ याचिका पर सुनवाई की थी।
तब तत्कालीन CJI ने पूछा था, “क्या आप उससे (पीड़िता से) शादी करेंगे? हम आपको शादी करने के लिए मजबूर नहीं कर रहे हैं। अगर आप करेंगे तो हमें बताएँ। अन्यथा, आप कहेंगे कि हम आपको उससे शादी करने के लिए मजबूर कर रहे हैं।” इस टिप्पणी पर देशभर में भारी विरोध हुआ था। इसके बाद CJI बोबडे ने सफाई दी थी कि उनकी पूछताछ न्यायिक रिकॉर्ड पर आधारित थी।
जस्टिस बोबड़े ने कहा था कि आरोपित ने यह वचन दिया था कि वह नाबालिग लड़की (पीड़िता) के 18 वर्ष की हो जाने के बाद उससे विवाह करेगा। आरोपित ने बताया था कि वह पीड़िता से शादी करना चाहता था, लेकिन पीड़िता ने इनकार कर दिया था। इसके बाद उसने कहीं और विवाह कर लिया। इसके बाद शीर्ष अदालत ने आरोपित को गिरफ्तारी से अंतरिम राहत दे दी थी।
कर्नाटक हाईकोर्ट का विवादित फैसला: ‘पीड़िता का व्यवहार आदर्श नहीं’
जुलाई 2020 में राकेश बी बनाम कर्नाटक राज्य मामले में कर्नाटक हाईकोर्ट ने बलात्कार के आरोपित को जमानत दे दी। जस्टिस कृष्ण एस दीक्षित ने पीड़िता की गवाही पर सवाल उठाते हुए कहा कि उसका व्यवहार एक “आदर्श” बलात्कार पीड़िता जैसा नहीं था। कोर्ट ने पूछा कि पीड़िता रात 11 बजे आरोपित से मिलने क्यों गई, शराब पीने पर आपत्ति क्यों नहीं जताई, और उसे सुबह तक क्यों रुकने दिया।
कर्नाटक हाई कोर्ट के जज ने कहा कि उसका यह कहना कि वह थक गई थी और सो गई, “भारतीय महिला के लिए अनुचित” है। इस फैसले ने पीड़ितों से ‘भावनात्मक रूप से आदर्श’ प्रतिक्रिया की अपेक्षा और उनके आचरण पर न्याय को टालने की मानसिकता को उजागर किया।
कर्नाटक हाई कोर्ट के न्यायाधीश ने पीड़िता पर की थी टिप्पणी
जुलाई 2020 में कर्नाटक हाई कोर्ट ने एक महिला के साथ बलात्कार के आरोपित व्यक्ति राकेश बी. को जमानत दे दी थी। न्यायमूर्ति कृष्ण एस दीक्षित ने पीड़िता की गवाही को ‘विश्वास करने में थोड़ा मुश्किल’ माना था कहा था कि पीड़िता का व्यवहार किसी भी तरह से एक अनिच्छुक, भयभीत और पीड़ित के व्यवहार के जैसा नहीं था।
जज ने पीड़िता से यह भी पूछा कि वह रात 11 बजे अपने अधिकारी से क्यों मिलने गई और उसने आरोपित के साथ शराब पीने पर आपत्ति क्यों नहीं जताई। इसके अलावा, कोर्ट ने पीड़िता से यह भी पूछा कि उसने आरोपित को सुबह तक अपने साथ क्यों रहने दिया।
जज ने पूछा, “उसने (पीड़िता ने) स्पष्टीकरण दिया था कि वह इस कृत्य के बाद थक गई थी और सो गई थी। यह एक भारतीय महिला के लिए अनुचित है… यह उस तरह नहीं है जिस तरह से हमारी महिलाएँ बलात्कार के बाद प्रतिक्रिया करती हैं।”
दरअसल, न्यायालय ने सुझाव दिया कि बलात्कार पीड़ितों को विश्वसनीय दिखने के लिए भावनात्मक प्रतिक्रियाओं के अनुरूप होना चाहिए। अगर ऐसा नहीं होता है तो उन पर ‘विश्वास करना कठिन’ है और आरोपित को उसके साथ रहने या शराब पीने की अनुमति देने के लिए पीड़िता को दोषी ठहराना उचित है। कोर्ट ने यह भी कहा कि अगर महिलाएँ देर रात तक पुरुषों को अपने आसपास रहने देती हैं तो यह बलात्कार का जोखिम उठाने जैसा है।
निष्कर्ष
न्यायपालिका के बयान और उनके द्वारा की गई विवादित टिप्पणियाँ उन पर सवाल खड़े करती हैं। उदाहरण के तौर पर ‘पर्याप्त परिपक्व’ जैसी टिप्पणियाँ और बलात्कारियों को पीड़ितों से शादी की अनुमति देना नाबालिगों को खतरे में डालता है। अदालतें जब ‘प्रेम संबंध’ का हवाला देकर फैसले सुनाती हैं या बलात्कारियों को जमानत देती हैं तो न केवल असंवेदनशीलता दिखाती हैं बल्कि पीड़ितों की सुरक्षा को भी खतरे में डालती हैं।
जमानत पर छूटे अपराधियों द्वारा दोबारा बलात्कार और हत्या जैसे मामले पीड़ितों में डर और अविश्वास पैदा करते हैं। इससे पता चलता है कि न्यायपालिका अक्सर अभियुक्तों के ‘पुनर्वास’ या महिलाओं के प्रति सामाजिक पूर्वाग्रहों (नकारात्मक सोच) को न्याय से ऊपर रखती हैं, जिससे यौन हिंसा के मामलों में सजा की जगह दंड से मुक्ति की संस्कृति को बढ़ावा मिलता है।
न्यायपालिका जब पीड़ितों को उनके मित्रों से मिलने या ‘पर्याप्त’ प्रतिरोध नहीं करने के लिए दोषी ठहराती हैं तो स्थिति और भी खराब हो जाती है। इस तरह अदालतें अपराधियों की जवाबदेही को कम करके न्याय प्रणाली पर भरोसे को कम करती हैं। साल 2016 में दिल्ली हाईकोर्ट ने फिल्म निर्देशक महमूद फारूकी को संदेह का लाभ देकर बरी करते हुए कहा था कि ‘कमज़ोर ‘ना’ भी ‘हाँ’ हो सकती है’।
कोर्ट ने कहा था, “महिलाओं के व्यवहार के उदाहरण अज्ञात नहीं हैं कि एक कमज़ोर ‘नहीं’ का मतलब ‘हाँ’ हो सकता है।” दरअसल, अदालतें बलात्कार पीड़ितों से कमज़ोर दिखना, विनम्र होना, दुर्व्यवहार का ‘काफी मजबूती से’ विरोध करना जैसे व्यवहार या इससे भी ज्यादा की उम्मीद करती हैं। अगर ऐसा नहीं होता है तो ‘मुसीबत को आमंत्रित किया’ जैसी टिप्पणियाँ की जाती हैं।
अदालतें जब पीड़िता को ही ‘आदर्श पीड़िता’ साबित करने की कोशिश करती हैं तो उनके लिए न्याय पाना मुश्किल हो जाता है, क्योंकि इससे न्याय की गंभीरता कम हो जाती है। इसका परिणाम ये होता है कि आरोपित को जमानत मिल जाती है और फिर वे बाहर आकर कभी पीड़ित एवं उसके परिवार की हत्या कर देते हैं तो कभी फिर से अपराध को अंजाम देते हैं।
POCSO के मामलों में, जहाँ पीड़ित नाबालिग होती हैं, ज़मानत देने में नरमी और भी गंभीर हो जाती है। ऐसे मामलों में कानून मानता है कि आरोपित तब तक दोषी है, जब तक कि वह अन्यथा साबित न हो जाए। इसके बावजूद अदालतों ने कई मामलों में अवास्तविक सबूत या पीड़िता के प्रतिरोध के सबूतों की माँग की है। इससे बलात्कारी हतोत्साहित नहीं होंगे।
भारतीय न्यायिक प्रणाली में एक समस्या है और यह समस्या पुरुष वर्चस्व की हो सकती है। केवल 14% उच्च न्यायालय के न्यायाधीश और कुल केवल 9.3% न्यायाधीश महिलाएँ हैं। दरअसल, पितृसत्तात्मक सोच पितृसत्तात्मक परिणामों को जन्म देती है। इस सोच से न्यायिक व्यवस्था भी प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकती है।
साल 2021 में अपर्णा भट बनाम मध्य प्रदेश राज्य केस में सुप्रीम कोर्ट ने जमानत के दौरान पीड़िता के पहनावे, व्यवहार या नैतिकता पर टिप्पणी करने से मना किया और संवेदनशील रवैया अपनाने की बात कही थी। हालाँकि, इलाहाबाद हाईकोर्ट सहित कई हालिया फैसले दिखाते हैं कि सुप्रीम कोर्ट की ये गाइडलाइंस आज तक प्रभावी नहीं हो पाई हैं। इसलिए न्यायाधीशों की संवेदनशीलता का प्रशिक्षण अनिवार्य होना चाहिए।
सबसे अहम बात यह है कि पीड़िता को दोषी ठहराने की मानसिकता समाप्त होनी चाहिए और अदालतों को निर्णय केवल तथ्यों और सबूतों के आधार पर देना चाहिए, न कि पीड़िता के चरित्र पर। जब तक न्यायपालिका में गंभीर सुधार नहीं होते, तब तक इलाहाबाद हाईकोर्ट जैसे अपमानजनक आदेश सामने आते रहेंगे। महिलाओं को निर्णय नहीं, न्याय मिलना चाहिए।
(इस रिपोर्ट को श्रद्धा पांडेय ने मूल रूप से अंग्रेजी में लिखा है। पढ़ने के लिए इस लिंक को क्लिक करें)