लप्रेक के रचनाकार रवीश कुमार का कहना है कि दिल्ली दंगों की चार्जशीट को साहित्य की नजर से देखना चाहिए। उनका कहना है कि ये चार्जशीट पढ़ने में अच्छी लगती हैं और इसी तरह बनाई भी गई हैं। जबकि लोग आज तक ‘जस्टिस’ रवीश कुमार को ही साहित्य की नजर से देख पाने में नाकाम रहे हैं।
रवीश ने ये भी कहा है कि आलोक धन्वा की लड़कियों के लिए लिखी गई कविता ‘भागी हुई लड़कियाँ’ को लड़कों को नहीं पढ़ना चाहिए क्योंकि उन्हें लड़कों से कोई उम्मीद नहीं है। लेकिन ‘फैज-परस्त’ यह वामपंथी प्रोपेगेंडाकार यह नहीं बताता है कि आलोक धन्वा ने अपनी कविता में ‘लड़कियों’ का जिक्र किया था, जिनका जिहादी मानसिकता से कोई लेना देना नहीं होता।
आलोक धन्वा की कविता की लड़कियाँ वो लड़कियाँ होती हैं, जो ‘फक हिंदुत्व’ के नारे नहीं लगातीं, या फिर जिन्हें शाहीन बाग़ में मोदी और अमित शाह को भद्दी गाली देने के लिए ‘लड़की’ नहीं होना पड़ता है, जिन्हें सस्ती लोकप्रियता, टीवी डिबेट का हिस्सा बनने और एक ‘विचारक’ वर्ग की वाहवाही के लिए या फिर उनके मानकों पर खरा उतरने के लिए हिन्दुओं की आस्था को गाली नहीं देनी होती हैं। आलोक धन्वा की कविता की लड़कियाँ वो लड़कियाँ होती हैं, जो दुर्भाग्य से रवीश कुमार जैसे एजेंडाबाजों द्वारा अपने कुतर्क को सही साबित करने के लिए इस्तेमाल की जाती हैं।
NDTV न्यायालय के न्यायमूर्ति रवीश कुमार के कल शाम प्राइम टाइम का प्रमुख किरदार अमूल्या थी। वही अमूल्या, जो फरवरी माह में ओवैसी के मंच से पाकिस्तान जिंदाबाद के नारे लगाते हुए देखी गई थी। धीरे-धीरे लप्रेकी रवीश कुमार की कहानी में वही चिरपरिचित किरदारों के नाम सामने आने लगे। ये नाम थे – ‘गर्भवती’ सफूरा जरगर, उमर ख़ालिद, पिंजड़ा तोड़ गिरोह, लदीदा फरजाना।
यह देखना भी दिलचस्प है कि जो वामपंथ समाज के ताने-बाने को ठुकराता है, उसका उपहास करता है, जो भाई-बहन, माँ-बाप के रिश्ते से सबसे ऊपर सिर्फ ‘साथी कसम’ को रखता है, वह कुछ दिनों से एक लड़की को ‘लड़की’ होने से ज्यादा उसके गर्भ को महत्त्व दे रहा है, मानो सफूरा जरगर कभी विषय थी ही नहीं और विषय उसका गर्भ रहा हो।
जिन अपराधियों को निर्दोष बताने के लिए रवीश कुमार इस्लामिक कट्टरपंथी लदीदा फरजाना जैसों का सहारा लेना पड़ रहा हो, वो खुद उस संक्रामक विचारधारा से किस स्तर तक प्रभावित होंगे यह अंदाजा लगाया जा सकता है।
लेकिन ‘न्यायमूर्ति’ रवीश कुमार के इस दंगा साहित्य से क्रूरता से काट दिए जाने के बाद जलती आग में झोंक दिए गए 20 साल के दिलबर नेगी का जिक्र गायब था, ना ही 51 बार चाकुओं से गोदने के बाद नाले में फेंक दीए गए IB अधिकारी अंकित शर्मा का इसमें जिक्र किया गया। रवीश कुमार के करीब 45 मिनट तक चले इस दंगा साहित्य में पेट्रोल बम गायब थे, आसमानी गुलेलों का जिक्र नहीं था, पत्थरबाजी नहीं थी और ना ही इसमें काफ़िरों को सबक सिखाने वाले नारों का जिक्र था।
रवीश कुमार के सोशल मीडिया एकाउंट्स पर नजर आ रही हरकतों से देखा जा सकता है कि उनके निशाने पर अब पूरी तरह से देश के युवा हैं। यानी, ‘कूल अंग्रेजी’ संगीत पसन्द करने वाले युवा, कॉलेज, लाइब्रेरी बैठने वाले युवा। ये 18-25 वर्ष की उम्र का वो वर्ग होता है जो रियलिटी शो में बैकग्राउंड में बजने वाली गम्भीर धुन पर भावुक हो जाता है और जिंदगी में पहली बार जीवन और मृत्यु, अमीर बनाम गरीबी जैसे दार्शनिक मुद्दों पर लगभग एक-आध दिन चिन्तन करता है। वही युवा जो गिटार के साथ जब तक कुछ शब्द ना बोले जाएँ, उन्हें कविता नहीं मानता।
रवीश कुमार वामपंथ के नशे को अच्छी तरह जानते हैं। वही वामपंथ जो दंगों को ‘क्राफ्ट’ बताता है। इसलिए अब वो प्राइम टाइम में भी भावुक धुनों पर कविता करने लगे हैं। वो समय दूर नहीं जब वे युवाओं को प्रभावित करने के लिए प्राइम टाइम में लूडो खेलते हुए भी देखे जाएँगे।
कल के प्राइम टाइम में आलोक धन्वा की कविता ‘भागी हुई लडकियाँ’ के जरिए ‘न्यायमूर्ति’ रवीश कुमार ने दिल्ली दंगों में सभी आरोपितों को निर्दोष घोषित कर दिया है। उनका कहना है कि पाकिस्तान जिंदाबाद के नारे चिंता का विषय नहीं होने चाहिए इसलिए अमूल्या निर्दोष है।
शो के आगे बढ़ने पर इसमें नए किरदार दिखते हैं, जिसे सफूरा जरगर के साथ गर्भवती भी बताया जाता है। रवीश कुमार ये बताना भूल गए कि दिल्ली में हुए जिन हिन्दू विरोधी दंगों की साजिश में सफूरा जरगर दोषी पाई गई हैं, उन दंगों में कई ऐसे मासूम प्रभावित हुए हैं। निर्दोषों को इस्लामिक नारों के साथ मार-काट दिया गया। वामपंथी विचारधारा के अकेले ध्वजवाहक रवीश कुमार ने इसके पीछे तर्क दिया है कि ये लोग ‘बस ट्रम्प के जरिए दुनिया का ध्यान ही तो आकर्षित करना चाहते थे।
दंगाप्रिय वामपंथी इस ‘अटेंशन’ के लिए पूरी दिल्ली को जला सकते हैं। लोगों को घसीटकर उन्हें बर्बरता से मार सकते हैं। छतों से ‘काफ़िरों’ पर पेट्रोल बम बरसा सकते हैं और पत्थरबाजी तो मानो ये अब मौलिक अधिकार समझने लगे हैं।
इस शो में रवीश कहते हैं कि JNU छात्र उमर खालिद ही क्यों बार-बार सामने आ जाते हैं। और जब उन पर गोली चलाई गई थी, तब किसीने उस घटना पर ध्यान क्यों नहीं दिया था? यहाँ पर यह बताना भी जरूरी है कि जिस एकमात्र प्राणी को उस समय उमर खालिद पर गोली लगने का गवाह बताया गया था, वह खालिद सैफ़ी भी कुछ ही दिनों पहले दिल्ली दंगों में आरोपित पाया गया है और ताहिर हुसैन और रवीश कुमार के प्रिय छात्र उमर खालिद के बीच दंगों की मीटिंग करवाने का मुख्य आरोपित है।
कविताओं के जरिए भारत के सांस्कृतिक गौरव का उपहास करने से यदि आत्ममुग्ध रवीश कुमार को फुर्सत मिले, तो उन्हें इस बात पर ध्यान देना चाहिए कि वो अब बचपन में सुनाया गया कोई वो घिसापिटा चुटकुला बन कर रह गए हैं, जिसे सुनाने में भी इंसान को लज्जा महसूस करनी चाहिए, बावजूद इसके रवीश उसे उसी शान से रोजाना घिसते रहते हैं।
उन्होंने अपने प्राइम टाइम में बेहद चालाकी से बताया कि दंगों की क्रोनोलॉजी जामिया में पुलिस द्वारा छात्रों को पीटने से हुई थी लेकिन इन मासूम छात्रों की पत्थरबाजी के हुनर पर दो शब्द भी नहीं रखे। उन्होंने यह नहीं बताया कि उन मासूम छात्रों के अंदर लाइब्रेरी में बैठकर पत्थरों को बटुआ बना देने का चमत्कारी गुण भी मौजूद है, जिन्हें रवीश कुमार अब अपनी TRP का आखिरी विकल्प बनाने का प्रयास कर रहे हैं।
सत्ता विरोध करना, संस्थाओं को झूठा साबित करना, गुनहगारों को दंगा साहित्य की शरण देना ही रवीश के पास अब प्रासंगिक रहने का आखिरी हथियार बाकी रह गया है। या फिर यह भी सम्भव है कि रवीश आज भी नेहरू-इंदिरा के अहंकार के उस दौर से आतंकित हैं, जब मनचाहे तरीकों से सत्ता, समाज और संस्थाओं को अपने नियंत्रण में रखा करती थी। लप्रेकी रवीश इस नींद से जागना नहीं चाहते क्योंकि उन्हें ‘दंगा साहित्य’ पसंद है।
वामपंथी उदारवादियों के प्रपंचकारियों के इस शगल की भेंट हमेशा से कितने ही बेकसूर अपनी जान गंवा देते हैं। कितने ही युवा इन दंगों में अपना भविष्य तलाशना शुरू कर देते हैं। फिर एक समय आता है, जब ये लोग वास्तव में यकीन करना शुरू कर देते हैं कि सत्ता और समाज तो वाकई में उनका दुश्मन है और वो इसे तबाह करने के हर षड्यंत्र का हिस्सा बनना चाहते हैं।