बिहार में आज (16 नवंबर 2020) नई सरकार का गठन हो गया। नीतीश कुमार ने सातवीं बार मुख्यमंत्री पद की शपथ ली। उनके साथ 14 मंत्रियों ने भी शपथ ली।
इस कैबिनेट की उसी तरह अलग-अलग व्याख्या होगी, जैसे बिहार के जनादेश की हो रही है। जब तक मंत्रिमंडल का विस्तार नहीं होता, आकलन का दौर भी उसी तरह चलेगा जैसा नतीजों और फिर डिप्टी सीएम को लेकर मीडिया में चल रहा था।
जैसा कि नतीजों के आने से पहले भी ऑपइंडिया ने कहा था कि बिहार में कोई भी सरकार नीतीश कुमार के जदयू के बिना नहीं बन सकती और मुख्यमंत्री बनना या नहीं बनना नीतीश कुमार के विवेक पर ही निर्भर करेगा। हालाँकि नीतीश कुमार का दावा है कि उन्होंने बीजेपी से अपना मुख्यमंत्री बनाने को कहा था, लेकिन उनका यह आग्रह नहीं माना गया। पर एक सच यह भी है कि राजनीति उतनी भी सीधी रेखा में नहीं चलती, जितनी वह नीतीश कुमार के इस ‘निर्दोष बयान’ में दिखती है। लिहाजा, यह सरकार कब तक चलेगी, बीजेपी ने ज्यादा सीटें होते हुए भी अपना मुख्यमंत्री क्यों नहीं बनाया या धनबल और बाहुबल के बल पर राजद इस सरकार को गिरा देगी, इन सारे सवालों के जवाब भविष्य में छिपे हैं।
पर क्या बाढ़, बदहाली और बेरोजगारी की पहचान के साथ घिसट रहे बिहार के सामने असल चुनौतियॉं इन्हीं सवालों का जवाब तलाशना है? नहीं, बिलकुल नहीं। उसके सामने तीन बड़ी चुनौतियाँ हैं। इनसे निपटे बिना बिहार आगे नहीं बढ़ सकता है। ये हैं,
- वामपंथ
- कट्टरपंथ
- धर्मांतरण
बिहार में बीजेपी की चुनावी सफलता और एनडीए के सरकार बचा ले जाने के पीछे भी इन खतरों का बढ़ता प्रभाव ही है। भले वामपंथी दलों को 16 सीटें मिल जाना उनका पुनर्भव नहीं हो, लेकिन इसने उन्हें राज्य की मुख्यधारा की राजनीति में लौटने का अवसर जरूर उपलब्ध करा दिया है। राजद के कोर वोटर की बदौलत उन्होंने यह सफलता तब हासिल की है, जब गिनती के जिलों में माले के प्रभाव को छोड़ दें तो राज्य में वामपंथ का नामलेवा नहीं बचा था। तमाम प्रोपेगेंडा के बावजूद 2019 के लोकसभा चुनाव में बिहार की जनता ने वामपंथ के पोस्टर बॉय कन्हैया कुमार को नकार दिया था। बाद में यात्रा के जरिए सियासी जमीन तलाशने की उसकी कोशिश का भी जगह-जगह विरोध हुआ था।
वामपंथी राजनीति पर अंकुश इसलिए भी जरूरी है कि यदि ऐसा नहीं हुआ तो बिहार एक बार फिर से जातीय हिंसा के उस दौर में पहुँचा सकता है, जिसके जख्म अब भी गहरे हैं। खतरा यह भी है कि एक बार फिर उनके साथ बिहार को ‘जंगलराज’ देने वाले भी हैं।
इसी तरह चुनाव के आखिरी चरण में जिस तरह सीमांचल, तिरहुत और मिथिलांचल के लोगों ने एनडीए को समर्थन दिया वह कहीं न कहीं इन इलाकों में कट्टरपंथ के बढ़ते प्रभाव से लोगों की चिंता को दिखाता है। ऑपइंडिया की चुनावी कवरेज के दौरान उम्मीदवार भले आचार संहिता का हवाला देकर इसका जवाब देने से कन्नी काट रहे थे, लेकिन लोग खुलकर इस मुद्दे को उठा रहे थे। यही कारण है कि उन सीटों पर भी बीजेपी जीती है जो उसके लिए कभी आसान नहीं रही। राज्य में असदुद्दीन ओवैसी की ‘जहरीली राजनीति’ को लेकर भी लोग मुखर थे। सीमांचल में उनके पाँच उम्मीदवारों का जीतना चिंताजनक है। वैसे भी किशनगंज और नेपाल की सीमा से सटे बिहार के इलाकों में तेजी से बदलती जनसांख्किीय और घुसपैठ अरसे से बड़ी समस्या बनी हुई है।
इनके साथ बिहार के सुदूर इलाकों में ईसाई मिशनरियों को बढ़ता प्रभाव भी चिंताजनक है। मधुबनी के देहात में लोगों को बहला-फुसलाकर जब हमने धर्मांतरण किए जाने की रिपोर्ट की थी, उसके बाद से बिहार का कोई जिला नहीं बचा है, जहाँ के लोगों ने हमें संदेश भेजकर यह नहीं बताया हो कि उनके यहाँ भी यह खेल चल रहा है। जबकि अब तक माना जाता था कि यह झारखंड से सटे इलाकों की ही समस्या है।
बिहार के लिए अच्छी बात यह है कि इन मुद्दों पर बीजेपी गंभीर दिखती है। उसने नीतीश की नई कैबिनेट में जीवेश मिश्र जैसे लोगों को जगह भी दी है जो इन मुद्दों को लेकर मुखर है। लेकिन, ज्यादा चिंता की बात नेतृत्व की भूमिका में उस नीतीश कुमार का होना है, जिनकी जमीन पर छवि एक खास मजहब के प्रति झुकाव रखने वाली की है। इस बार भी कई जगहों पर प्रशासन ने दुर्गा मूर्ति तोड़ दी थी, लेकिन सरकार ने कोई कार्रवाई नहीं की। चुनाव के दौरान मुंगेर की घटना हुई और उस पर भी सख्त प्रतिक्रिया देने से सरकार में शामिल लोग बचते रहे।
इस बार जैसे-तैसे सरकार बचाने में सफल रही एनडीए के लिए जनादेश स्पष्ट है। जनता यह स्वीकार कर सकती है कि राजनैतिक मजबूरियों की वजह से बीजेपी नीतीश कुमार की सदारत स्वीकार कर ले। लेकिन, उसे इन मुद्दों की अनदेखी कबूल नहीं होगी। बीजेपी को वह रास्ता तलाशना ही होगा जिससे वह इन तीन मोर्चों पर बिहार में लड़ती नजर आए। सरकार के तौर पर भी और संगठन के तौर पर भी।