भारत में वर्तमान में ऑपरेशन पुशबैक चल रहा है। इसके तहत बांग्लादेशी घुसपैठियों को वापस भेजने का प्रयास हो रहा है। यह कार्रवाई अभी कुछ हजार लोगों तक ही सीमित है। इसी तरह अमेरिका में भी वर्तमान में घुसपैठियों को वापस भेजने की कार्रवाई चल रही है, इसको लेकर लॉस एंजिल्स शहर में दंगे हो रहे हैं। कमोबेश यही स्थिति यूरोप के कई देशों में है, जहाँ से घुसपैठियों को वापस भेजे जाने की माँग हो है।
असल में एक बार जब अवैध प्रवासी किसी देश में प्रवेश कर जाते हैं तो चाहे वह भारत हो, अमेरिका फिर या यूरोप के देश, तो उन्हें वापस भेजना कानूनी अड़चन, राजनीतिक विरोध और एक्टिविज्म का एक चक्रव्यूह बन जाता है। कायदा तो यह होना चाहिए कि किसी देश मेंअवैध रूप से रहने वालों को उठा कर सीधे वापस भेज दिया जाना चाहिए। हालाँकि, यह लंबी अदालती लड़ाइयों, एक्टिविज्म और कानूनी दाँवपेंच में बदल गया है।
दिलचस्प बात यह है कि जहाँ भारत जैसे देशों में घुसपैठियों को बाहर निकालना मुश्किल का काम है, वहीं पाकिस्तान धड़ाधड़ अफगानिस्तान के लोगों को निर्वासित कर रहा है। रिपोर्ट बताती है कि फरवरी 2025 तक, पाकिस्तान ने 800,000 से ज़्यादा अफ़गानों को बिना किसी बवाल के डिपोर्ट कर दिया है।
भारत में कोर्ट और एक्टिविस्ट लगाते हैं अड़ंगा
जनसंख्या के मामले में चीन की तुलना में भारत एक बहुत बड़ा देश नहीं है। भारत में जनसंख्या बहुत ज़्यादा है लेकिन यहाँ सांस लेने के लिए जगह हर दिन कम होती जा रही है। हमारे देश में संसाधन कम होते जा रहे हैं। चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था होने के बावजूद भारत में ज़मीन, भोजन, और रोजगार बड़ी समस्या है।
ऐसे देश में यह बात हैरान कर देती है कि बांग्लादेश और म्यांमार (खासकर रोहिंग्या) से आए घुसपैठिए लगातार कानूनका फ़ायदा उठाते हैं। हिरासत में लिए जाने के बाद बड़ी संख्या में NGO एक्टिविस्ट, प्रशांत भूषण और कपिल सिब्बल जैसे तथाकथित वरिष्ठ वकील खड़े हो जाते हैं। ये लोग इन्हें बचाने को सुप्रीम कोर्ट पहुँच जाते हैं। हिरासत में लिए गए कई घुसपैठिए भारत के संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत याचिकाएँ दायर करते हैं, जिसमें उनके जीवन या स्वतंत्रता को ख़तरा बताया जाता है।
दुखद बात ये है कि हमारी न्यायपालिका इन्हें बाहर फेंके जाने से अक्सर रोक देती है। इसके चलते केंद्र और राज्य सरकारों को अवैध अप्रवासियों को बाहर नहीं निकाल पातीं। भले ही सुप्रीम कोर्ट अवैध अप्रवासियों को डिपोर्ट करने के पक्ष में हो, लेकिन घुसपैठिए अनुभवी वकीलों की मदद से दायर रिट से अंतरिम राहत पा जाते हैं। इससे डिपोर्ट होने पर रोक लग जाती है और अदालती मामला सालों तक चलता रहता है।
कानूनी व्यवस्था से इस तरह के प्रतिरोध के साथ, राज्य सरकारें अब इसे पूरी तरह से दरकिनार करके मामलों को तेज़ी से निपटाने की कोशिश कर रही हैं। उदाहरण के लिए, असम के मुख्यमंत्री हिमंत बिस्वा सरमा ने हाल ही में विदेशी ट्रिब्यूनल को दरकिनार करने और घुसपैठियों को बांग्लादेश और म्यांमार में वापस भेजने के लिए 1950 के कानून का हवाला दिया है। इस कदम की भी यह एक्टिविस्ट आलोचना कर रहे हैं।
अमेरिका में नेताओं ने दी हुई शरण
अमेरिका में भी घुसपैठ का हाल कमोबेश ऐसा ही है। यह जब एक बार घुसपैठिया अंदर आ जाता है तो उसको डिपोर्ट करना भीइसी तरह एक लंबा और विवादास्पद मामला बन जाता है। अमेरिका में लॉस एंजिल्स, न्यूयॉर्क और सैन फ्रांसिस्को जैसे कुछ ऐसे शहर हैं, जहाँ अधिकारियों को इन घुसपैठियों से पूछताछ करने या उन्हें हिरासत में लेने की अनुमति नहीं है। ये शहर डिपोर्ट करने के आदेशों या पुलिस के साथ सहयोग करने से साफ इनकार करते हैं, उन्हें कानून प्रवर्तन के राजनीतिक हथियार के रूप में देखते हैं।
जून 2025 की शुरुआत से लॉस एंजिल्स में इसी से जुड़ा एक नाटक चल रहा है। यहाँ घुसपैठियों पर जब एक्शन चालू हुआ तो इसके विरोध में प्रदर्शन होने लगे। पुलिस ने इन प्रदर्शनकारियों पर आंसू गैस और रबर की गोलियाँ चलाई। यहाँ इसके बाद यूनियन नेता डेविड ह्यूर्टा को गिरफ्तार कर लिया गया, जिससे आक्रोश फैल गया। इसके बाद ऑपरेशन के दौरान 118 प्रवासियों को हिरासत में लिया गया।
ट्रम्प सरकार ने इसके बाद टाइटल 10 कानून के तहत 4,000 नेशनल गार्ड सैनिकों और 700 मरीन को तैनात करके जवाब दिया। इसके बाद तो बवाल और बढ़ा। कई कारों को जला दिया गया, सड़कों को अवरुद्ध कर दिया गया, कई पत्रकारों को घायल कर दिया गया।
इस पूरे बवाल से ट्रंप सरकार की घुसपैठियों को लेकर नीति और किसी शहर को उनके लिए स्वर्ग बनाने की राजनीति माना जा सकता है। इन सब चक्करों में डिपोर्टेशन और भी कठिन हो जाता है।
भले ही अमेरिका के वर्तमान राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प सख्त सीमा प्रवर्तन और भूमि से अवैध अप्रवासियों को हटाने के लिए जोर दे रहे हैं, लेकिन कानूनी प्रणाली और कुछ विशिष्ट शहर इससे कड़ी लड़ाई लड़ रहे हैं। डिपोर्ट किए जाने वाले लोगों में कई सैकड़ों भारतीय भी थे जो अवैध रूप से अमेरिका में घुस आए थे।
यूरोप में कानून सबसे बड़ी अड़चन
यूरोपियन यूनियन के देशों में घुसपैठियों को निकलने जाने में सबसे मजबूत अड़चन यहाँ के कानून हैं। मानवाधिकारों पर यूरोपीय सम्मेलन (ECHR) उन व्यक्तियों को डिपोर्ट करने पर रोक लगाता है, जिनको यातना या अमानवीय व्यवहार का जोखिम हो।
इसके तहत यूरोपियन यूनियन के देशों को डिपोर्ट करते टाइम तमाम मानदंड पूरे पड़ते हैं, जिससे प्रक्रिया लगभग असंभव हो जाती है। हालाँकि, ये नियम स्थानीय लोगों के जीवन को नरक बना रहे हैं। यूरोपीय देशों में बड़े पैमाने पर अपराध, स्थानीय महिलाओं के साथ बलात्कार और डेमोग्राफी बदलाव आम हो गए हैं।
हाल के दिनों में, इन नीतियों के खिलाफ़ विरोध हुआ है। बढ़ते दबाव के बीच, कुछ सरकारें (इटली, जर्मनी, ऑस्ट्रिया, डेनमार्क) खुले तौर पर ECHR में सुधार करने या यहाँ तक कि इससे बाहर निकलने पर विचार कर रही हैं, इसे प्रवासन पर ‘संप्रभु नियंत्रण में बाधा’ के रूप में देख रही हैं।
क्या सहिष्णु होना बन रहा है बाधा?
जो लोकतांत्रिक देश अपने यहाँ अधिकारों, सही न्यायिक प्रक्रिया और समानता के अधिकार जैसे ढिंढोरे पीटते हैं, वहीं यह घुसपैठियों को निकालने की कार्रवाई और कठिन हो जाती है।
यहाँ जब भी किसी घुसपैठिए को निकाला जाना होता है तो उसके समर्थक कोर्ट पहुँच याचिका ठोक देते हैं। यह संवैधानिक, अंतरराष्ट्रीय या मानवीय आधार पर लगाई जाती हैं। दुखद बात यह है कि अधिकतर फ़ैसले घुसपैठियों पक्ष में होते हैं, देश के नागरिकों के पक्ष में नहीं।
जमीनी स्तर के NGO से लेकर नागरिक संगठनों तक के कार्यकर्ता इसके लिए जन समर्थन जुटाते हैं, कानूनी चुनौतियाँ देते हैं, विरोध प्रदर्शन आयोजित करते हैं और मीडिया में सनसनी फैलाते हैं।
इसके बाद वामपंथी-उदारवादी मीडिया घुसपैठियों की दुख भरी कहानी को बढ़ा-चढ़ाकर पेश करता है। इस कार्रवाई से लोगों के मन में ग्लानि उत्पन्न करने का प्रयास होता है। इसके अलावा नेता भी इसे अपने राजनीतिक फायदे के लिए इस्तेमाल करते हैं और खुद का वोटबैंक बनाते हैं। इससे डिपोर्ट करना और भी कठिन काम हो जाता है।
पाकिस्तान ने दिखाया- कानूनी अड़चन ना होता होता है मददगार
जब अमेरिका और NATO सेना ने अफ़गानिस्तान छोड़ा और तालिबान ने सत्ता संभाली, तो लाखों अफ़गान अवैध रूप से पाकिस्तान और दुनिया के अन्य हिस्सों में चले गए। पाकिस्तान ने जल्द ही अफ़गानों को वापस खदेड़ना शुरू कर दिया।
2023-25 के बीच, अफ़गानों को निशाना बनाकर डिपोर्ट किया गया। संयुक्त राष्ट्र और पाकिस्तानी स्रोतों के अनुमानों के अनुसार जनवरी 2025 तक निर्वासित लोगों की संख्या 813,300 से अधिक और जून 2025 तक लगभग दस लाख हो जाएगी। पाकिस्तान को इस काम में ना किसी कानूनी अड़चन का सामना करना पड़ा और ना ही कोई एक्टिविज्म करने आया। ऐसा इसलिए क्योंकि पाकिस्तान में मानवाधिकार का ना कोई मोल है और ना ही वहाँ इस पर काम करने वाले कथित एक्टिविस्ट हैं।
सहनशील होने की अपनी कीमत
असल में, अधिकारों का आवश्यकता से अधिक सम्मान करने वाले समाज अपने ही हाथ बाँध लेते हैं। कानूनी ढांचे, कार्यकर्ता प्रतिरोध और जन भावनाएँ अवैध घुसपैठियों के इर्द-गिर्द अदृश्य दीवारें खड़ी कर देती हैं। न्याय और स्वतंत्रता के नैतिक गुण प्रशासनिक कार्रवाई को धीमा कर देते हैं।
जहाँ एक और अधिकारों को ज्यादा देखने पर यूरोप जैसे हाल होने का खतरा है तो वहीं पाकिस्तान जैसी अमानवीय कार्रवाई भारत नहीं कर सकता। ऐसे में सवाल उठता है कि घुसपैठियों को लेकर क्या किया जाना चाहिए।
अब सवाल यह है कि कौन सा मॉडल बेहतर है? अधिकार-उन्मुख लोकतंत्र धीमे, गड़बड़ और कानूनी रूप से संघर्षशील हो सकते हैं, लेकिन वे व्यक्तिगत स्वतंत्रता को संरक्षित करते हैं। जो देश उन सुरक्षा उपायों को त्याग देते हैं, वे डिपोर्ट करने का लक्ष्य प्राप्त कर सकते हैं। लेकिन कहीं ना कहीं तो हमें रेखा खींचनी होगी।