मैं पूजा राणा। कलम की सिपाही हूँ। आजकल दिल्ली में रहती हूँ। आर्मी ब्रैट हूँ। पिता के तबादलों के साथ ही मेरे दोस्त, स्कूल, शहर सब बदल जाते थे। पर इस यात्रा में जो कभी नहीं बदला, वह है सरहदों और वर्दी से मेरा रिश्ता।
भारतीय थल सेना की 24 साल तक सेवा करने वाले मेरे पिता दो साल पहले ही रिटायर हुए हैं। इस दौरान देश के सामने आई हर चुनौती को उन्होंने करीब से देखा। 1999 में पाकिस्तान के साथ हुई जंग के दौरान वे कारगिल में मोर्चे पर थे। उस समय मेरा जन्म भी नहीं हुआ था। लेकिन मेरे घर की दीवारों पर उस समय की किस्से-कहानियाँ अब भी अंकित हैं।
मेरी माँ ने कई बार सुनाया है कि कैसे कारगिल युद्ध के दौरान उनकी हर सुबह रेडियो से होती थी। रेडियो से चिपक कर घंटों युद्ध की खबरें सुनना ही उनकी दिनचर्या हो गई थी। वह मोबाइल-सोशल मीडिया का जमाना नहीं था। सूचना क्रांति दूर थी। लेकिन अपने बेटे की खबर लेने की मेरी दादी की जिद्द के आगे ये सब बाधा नहीं थी। उन्होंने किसी तरह पापा की यूनिट का नंबर खोज निकाला। पापा के कमांडिंग ऑफिसर से बात की।
माँ बताती हैं कि उस समय केवल सेना ही नहीं, पूरा देश भी लड़ रहा था। गाँव के लोग अनाज जमा करने लगे थे। किचन का सारा राशन सहेज कर रखा गया था। आशंका थी कि युद्ध का असर देश के भीतर नागरिकों पर भी पड़ सकता है। उन्हें सामान्य वस्तुओं की किल्लत भी झेलनी पड़ सकती है।
यानी, युद्ध भले सीमा पर लड़ा जा रहा था। भले लोगों के जज्बे में कोई कमी नहीं थी। लेकिन हर मन के एक कोने में कहीं न कहीं डर भी था और उससे उनकी सामान्य दिनचर्या भी प्रभावित थी।
युद्ध और अपने पड़ोस में बैठे आतंकी मुल्क (पाकिस्तान) की करतूतों से भले मेरा बचपन का वास्ता रहा हो, पत्रकारिता में आने के बाद भले मैंने रूस-यूक्रेन युद्ध की खबरों पर लगातार नजर रखी हो, पर युद्ध काल के उस ‘समय’ को मैंने जीवन में कभी महसूस नहीं किया था।
पर पहलगाम में इस्लामी आतंकियों ने जब धर्म पूछकर हिंदुओं का कत्लेआम किया, जब भारतीय सेना ‘ऑपरेशन सिंदूर’ के तहत पाकिस्तान में घुसकर आतंकियों के ठिकानों को तबाह कर दिया, बौखलाए पाकिस्तान ने जब देश के कई शहरों में ड्रोन-मिसाइल अटैक किए, कई जगहों से ब्लैकआउट की खबरें आने लगी, संघर्ष विराम का उल्लंघन कर रिहायशी इलाकों पर गोलाबारी हुई, यहाँ तक कि देश की राजधानी दिल्ली पर मिसाइल दागा गया जिसे रास्ते में ही सेना ने मार गिराया… मैंने उस डर को महसूस नहीं किया जो पहले से सुन रखा था।
जिस दिल्ली में मैं काम करती हूँ, वहाँ दिनचर्या सामान्य थी। सड़कों पर ट्रैफिक का वही शोर था। मेरठ के उस शहर में भी सब कुछ अपनी गति से चल रहा था, जहाँ आज मेरे रिटायर पिता रहते हैं। मेरे उस गाँव में भी सब कुछ सामान्य था, जहाँ 1999 में सब इकट्ठे होकर रेडियो पर कारगिल युद्ध की खबरें सुना करते थे। न अपने घरों में सामान जमा करने की कोई होड़ देखी। न ही किसी चेहरे पर यह भय दिखा कि अब क्या होगा।
आखिर क्या कारण था कि युद्ध काल को लेकर जैसे अनुभव मेरी मम्मी-दादी के रहे हैं, वैसा मेरा नहीं है? पाकिस्तान के ड्रोन मिसाइल अटैक से जब इसका विस्तार होने की आशंका थी, तब भी सामान्य भारतीयों के शिकन पर चिंता क्यों नहीं थी? 1971 के बाद जब देशभर में पहली बार ‘रेड सायरन’ की गूँज सुनाई पड़ी तो भी कहीं कोई पैनिक नहीं था?
इसका सबसे बड़ा कारण देश में उस नेतृत्व का होना है, जिसने आम लोगों में यह भरोसा पैदा किया है कि देश मजबूत हाथों में है। जिसने सेना का सशक्तिकरण और आधुनिकीकरण साथ-साथ किया है। इस सरकार ने ‘ऑपरेशन सिंदूर’ से पहले भी सर्जिकल स्ट्राइक और एयर स्ट्राइक से देशवासियों को सुरक्षित होने का भरोसा दिलाया था। यह विश्वास पैदा किया था कि हम इस्लामी आतंकियों को पाकिस्तान में घुसकर मारने में सक्षम है। याद कीजिए नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने से पहले का वह समय, जब रक्षा मंत्री यह कहा करते थे कि हथियार खरीदने के लिए सरकार के पास पैसे नहीं है। जब राजनीति के लिए सेना के नाम का इस्तेमाल कर मीडिया में तख्तापलट के लिए सेना के आगरा से कूच करने की खबरें प्लांट करवाई गई थी।
युद्ध काल के उस भय को खत्म करने के लिए, हम में यह विश्वास पैदा करने के लिए, भारतीय सेना को गर्व के क्षण देने के लिए, भारत के पराक्रम का डंका बजाने के लिए इस आर्मी ब्रैट का सैल्यूट स्वीकार करिए प्रधानसेवक नरेंद्र मोदी जी!