मार्क्सनंदन कामपंथी वामभक्तों की पार्टी ‘माकपा’ ने दो दिन की बैठक की। बैठक क्यों की, इसकी क्या जरूरत थी, ये इनके पार्टी वालों को छोड़ कर किसी की समझ में नहीं आता। इन्हें अब स्कूल की प्राइमरी कक्षाओं में मॉनीटर का चुनाव छोड़ कर कोई पूछने वाला बचा नहीं है, लेकिन 24/7 चिल्लाने वाली मीडिया में खबरों की कमी के बीच इनसे भी दो बातें पूछ ली जाती हैं कि भैया, दो दिवसीय चिंतन जो किया उसमें हुआ क्या।
इन्होंने अपने मुद्दे तक सत्ता की चाहत में भुला दिए, जो कि बाकी पार्टियों द्वारा हथिया लिए गए, तब इनके पास सिवाय कल्पनाशीलता के कुछ बचता नहीं है। आज इनकी हालत इतनी बेकार हो चुकी है कि केरल में वामपंथी सरकार ने जब दो वामपंथियों को यूएपीए के तहत जेल में डाल दिया तो बिफर गए कि अपनी सरकार में ऐसा कैसे हो सकता है।
इनके दो दिवसीय बैठक से जो मूल बात निकल कर बाहर आई वो यह है कि ‘अयोध्या पर फैसला आया है, न्याय नहीं हुआ।’ इसके साथ ही भावुकता में बहते हुए मार्क्सवंशियों ने यहाँ तक कहा कि ये फैसला एक खास वर्ग के लोगों को ध्यान में रख कर दिया गया है। उनकी इस पंक्ति से सड़ाँध मारने वाले तर्क की दुर्गंध फैल जाती है। इनके कहने का मतलब यह है कि ‘हिन्दुओं को ध्यान में रख कर फैसला दिया गया है’, जबकि सुप्रीम कोर्ट को ‘इस वर्ग के नहीं, दूसरे वर्ग के लोगों को ध्यान में रख कर फैसला देना चाहिए था।’
आप इनकी ऐंठ देखिए कि है कुछ नहीं इनके पास, लेकिन जो है उसी को इतनी जोर से बजा रहे हैं कि कब फूट जाए, पता नहीं। इनकी ऐंठ और घमंड यह है कि इनके लिए भारतीय इतिहास 1949 से ही शुरु होता है। उसके पहले जो हुआ, उसको बोलते भी नहीं कहीं। बहुत पीछे जाते हैं तो 1528 में पहुँचते हैं जहाँ रहमदिल, आलमपनाह बाबर, जिसके माता और पिता पक्ष पर करोड़ों हत्याओं का रक्त है, कंधे पर पत्थर उठा कर एक जंगल-झाड़ में, छेनी-हथौड़ा से कूटते हुए मस्जिद बनाता दिखता है।
इनका वश चले तो यही कह दें कि बाबर ने ही भारत को समुद्र से खींच कर बाहर निकाला था, और हर भारतीय को उसका शुक्रगुजार होना चाहिए। इनका वश चले तो सुप्रीम कोर्ट में जज नहीं, पोलित ब्यूरो के सदस्य बैठेंगे।
चीन के उइगरों पर चुप क्यों हो?
1962 के भारत-चीन युद्ध में चीन का समर्थन करने वाले वामपंथी, आज मंदिर के ऊपर बनी उस नासूर मस्जिद के लिए ‘हाय बाप-हाय दादा’ चिल्ला रहे हैं, जैसे कि उसी मस्जिद में इनके युवा काडरों के लिए विशिष्ट पदार्थों का भंडारण होता था जिसके सेवन से ऐसे दुनिया बदलने वाले ख्याल इनके दिमाग में उपजते हैं।
आम तौर पर वेनेजुएला से ले कर स्वीडन तक के वामपंथी लम्पटों के लिए तुरंत झंडा निकाल लेने वाले भारतीय वामपंथी, चीन पर झंडे का डंडा स्थान विशेष में छुपा लेते हैं। उइगरों के साथ जो चीन कर रहा है, उस पर एक बयान तक नहीं आता। ये तो कम्यून मानते हैं, देश तो ‘टुकड़े-टुकड़े’ हो जाए, ‘केरल, पंजाब, बस्तर’ सबके लिए आजादी माँगते हैं, फिर भारत के समुदाय विशेष और चीन के उइगरों में अंतर कैसा? वो इसलिए कि भारत का समुदाय विशेष कन्हैया को वोट देता है, वहीं उइगर मुस्लिम महिलाओं के साथ चीनी राष्ट्रपति क्या करवा रहे हैं, वो इंटरनेट पर मिल जाएगा।
बैठक में बताया जा रहा है कि राफेल और सबरीमाला पर भी इनकी कुछ राय है। इनकी राय सुप्रीम कोर्ट के साथ नहीं है। ये चाहते हैं कि सारी हिन्दू परम्पराएँ ध्वस्त हो जाएँ, लेकिन धर्म/मजहब को न मानने वाले ये चम्पू अचानक से मस्जिद के लिए कंधे पर ईंट ले कर चलने को तैयार हैं।
वामपंथियों से सीधा सवाल यह है कि जब तुम सर्वहारा की लड़ाई लड़ने का ज्ञान देते हो, तो इसमें मस्जिद की उपयोगिता कहाँ से आ गई? विचार इस पर करो कि खास समुदाय में एक प्रतिशत महिलाएँ ही ग्रेजुएट क्यों हैं? बहुत ज्यादा दया आती है अल्पसंख्यकों की स्थिति पर तो हलाला जैसी बेहूदगी से मुक्त करवाओ उन्हें! अगर कथित अल्पसंख्यकों से इतना ही प्रेम है तो उनकी आधुनिक शिक्षा के लिए प्रयास करो, उन्हें मदरसों से बाहर निकालो।
लेकिन वो तुमसे हो नहीं पाएगा। वो इसलिए नहीं हो पाएगा क्योंकि नसों में दोगलेपन से सना हुआ रक्त बह रहा है। मुस्लिम को बाबरी मस्जिद मिले या न मिले, वो जिंदा रह सकता है, अपने जीवन में आगे बढ़ सकता है, लेकिन अगर उसके पास शिक्षा का अभाव है, वहाँ ध्यान नहीं दिया जा रहा है तो वो कहीं पत्थरबाज बनेगा, कहीं आतंकी बनेगा, कहीं कट्टरपंथियों के साथ मिल कर दंगों को अंजाम देगा।
तुम ये कर नहीं पाओगे क्योंकि अपनी मीटिंग में चाय-समोसे का फंड जुटा पाना भी तुम्हारे लिए आज मुश्किल है। वो इसलिए मुश्किल है क्योंकि तुम पर किसी का विश्वास रहा नहीं, और जेएनयू जैसी जगहों पर नितम्ब चिपकाकर चुनाव जीतने से पद तो मिल जाता है, लेकिन गंगा ढाबा पर ‘दो रूपया देना कामरेड, बीड़ी पीनी है’ वाले फंड से बीड़ी ही खरीदी जा सकती है, लोगों का विश्वास नहीं।
इसलिए, मार्क्स को ही अपना बाप बनाने पर तुले मूर्खाधिराजो! हे धूर्त नक्सलियो! हे दोगले वामपंथियो! सुप्रीम कोर्ट को दोष देना बंद करो और अगर सच में चाहते हो मजहब विशेष का उत्थान हो, तो उनकी बेहतरी के लिए कुछ मुद्दे मैं बता रहा हूँ जिसे पकड़ कर तुम्हारा बेहतर टाइमपास हो सकता है: अशिक्षा, कुपोषण, कट्टरपंथ, हलाला-बहुपत्नी प्रथा-तीन तलाक जैसी कुरीतियाँ इत्यादि।
पैटर्न है लोकतंत्र के खम्भों पर लगातार हमला
इनका पैटर्न है ये। पाँच साल से चिल्लाते रहे कि लोकतंत्र की तो हत्या हो गई, आज लोकतंत्र शर्मसार हुआ, आज दोबारा मर गया, आज तो आपातकाल आ गया है, आज तो घृणा फैलाई जा रही है, आज तो असहिष्णुता आ गई है हिन्दुओं में, लेकिन लोकतंत्र का ‘लोक’ इन्हें नकारता रहा। जितनी घटनाएँ ये लोग लिंचिंग, ‘जय श्री राम’, गौरक्षक आदि के नाम पर गिनाते हैं, हर एक में हिन्दुओं को पीड़ित होने का अनुपात ही ज्यादा है।
हर अखलाख के लिए दस भरत यादव हैं, हर पहलू खान के लिए दस प्रकाश मेशराम हैं, हर तबरेज पर दस काँवड़ियों का जत्था है जिस पर पत्थरबाज़ी हुई, हर हिन्दू असहिष्णुता की खबर पर दस खबरें हैं कि दुर्गा की मूर्ति कट्टरपंथियों ने तोड़ी, रामनवमी जुलूस पर हमला किया, कई मंदिर तोड़े, जय श्री राम पर झूठी खबरें फैलाई गईं …
इसलिए, अब मीडिया में जब ये हर बार अपने प्रपंच पर पकड़ लिए जाते हैं तो तथ्य की राह छोड़ कर अब विचार पर उतर आए हैं। पहले ‘मु##मानों की लिंचिंग हो रही है’ को काटने के लिए खबरें छुपा ली जाती थीं, अब वैसा नहीं हो पाता, तो अब ये लोग ऐसी बातें नहीं कर पा रहे। अब इन्होंने विधायिका पर प्रश्न करना छोड़ दिया है और लोकतंत्र के दूसरे खम्भे पर हमला बोलना शुरु कर दिया है।
अब इनके फायरिंग रेन्ज में सुप्रीम कोर्ट है। अब वो सुप्रीम कोर्ट है, वो न्यायपालिका है जिसमें कमोबेश हर भारतीय की आस्था है। अगर इसी खम्भे पर मूत्र विसर्जन कर-कर के, गला दिया जाए, तो इन वामपंथियों का लक्ष्य सध जाएगा। इसलिए, पूरी लॉबी एक साथ, इकट्ठा हो कर चिल्ला रही है कि मजहब विशेष के साथ तो अयोध्या में अन्याय हो गया। एक ऐसा नहीं है इनमें जो यह कह सके कि नहीं, वो जगह हिन्दुओं की थी, मंदिर था, वहाँ मस्जिद बनानी ही नहीं चाहिए थी। और जब बन गई तो मजहब विशेष वालों को साम्प्रदायिक सौहार्द का परिचय देते हुए, बिना कोर्ट कचहरी के, जगह खाली कर देनी चाहिए थी।
उन्होंने ऐसा नहीं किया। उन्होंने लगातार कहा कि उन्हें सुप्रीम कोर्ट पर विश्वास है। उन्हें विश्वास इसलिए था क्योंकि बाबरी का ध्वंस लोगों की स्मृतियों में ताजा था। सबको दिखा था कि बाबरी मस्जिद को तोड़ा गया है। इसलिए उम्मीद थी कि फैसला उसी टूटी मस्जिद के आधार पर होगा। राम के अस्तित्व पर सवाल उठाए गए इस देश में! पूछा गया कि वो हुए, ये किसने देखा। रामायण तो मिथ्या है, कल्पना है किसी लेखक की।
इसलिए, जब तक इन्हें उम्मीद थी कि फैसला इनके पक्ष में आएगा, ये चुप रहे। तब तक सवाल नहीं उठाया सुप्रीम कोर्ट पर, लेकिन पाँच जजों के एकमत फैसले को ये दस-बीस वामपंथी नेता ‘अन्याय’ कह रहे हैं। भारत का संविधान सबको बोलने की आजादी देता है, आजादी तो इतनी देता है कि इसी देश के टुकड़े की इच्छा पर ‘इंशाअल्लाह’ कहा जाता है, और लोग कुछ नहीं कहते।
अब सुप्रीम कोर्ट ही उठल्लू हो गया है। अब इन वामपंथियों की सभा तय करेगी कि सुप्रीम कोर्ट के जज क्या फैसला सुनाएँ। ये चाहते हैं कि राफेल में घोटाले की बात मान ले सुप्रीम कोर्ट, नहीं मान रही तो फिर ये लोग खुद जाँच करेंगे। जो सामरिक महत्व की गोपनीय बातें सार्वजनिक नहीं होनी चाहिए, उसे ये चार चम्पक वामपंथी सरेआम कर देना चाहते हैं ताकि सारे देशों से भारत के रिश्ते खराब हो जाएँ।
लेकिन ऐसी सभा, ऐसा कोर्ट, ऐसी जाँच समितियाँ इन वामपंथियों के सपनों में ही बैठ सकती है क्योंकि इन भिखारियों के पास बीड़ी पीने के तो पैसे हैं नहीं, सभा कैसे बुलाएँगे।