Friday, March 29, 2024
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राजनीति से नहीं ट्विटर के रार का सरोकार, यह ‘विदेशी मसीहा’ को लेकर लिबरल बेचैनी का है इजहार

मोदी सरकार और माइक्रोब्लॉगिंग वेबसाइट के ताजा गतिरोध में लिबरलों ने ट्विटर को जिस तरह का समर्थन और प्यार दिया है, वह इसी मानसिकता को दर्शाता है।

भारत में जब साल 2009-2011 में मोबाइल डेटा और स्मार्टफोन के साथ-साथ ट्विटर का तेजी से प्रसार हुआ, उस दौरान लिबरल इससे बेहद खुश थे। वास्तव में वे इसका इस्तेमाल करने वाले पहले लोगों में से थे। उन दिनों शशि थरूर के फॉलोअर्स की चर्चा जोरों पर थी। दरअसल, उस समय शशि थरूर ट्विटर पर सबसे ज्यादा फॉलो किए जाने वाले भारतीय नेता थे।

उस दौरान मेनस्ट्रीम मीडिया में ट्विटर को काफी प्रमोट किया गया। इसके चलते थरूर अपने ही ट्वीट्स को लेकर एक-दो बार विवादों में घिर गए, जिसके बाद आम लोगों का सच से सामना हुआ। उन विवादों के कारण केंद्रीय मंत्री की कुर्सी उनसे लगभग छीन ली गई थी। पहला विवाद 2009 में ‘Cattle Class‘ को लेकर किए गए उनके ट्वीट को लेकर खड़ा हुआ था। वहीं दूसरा विवाद 2010 में आईपीएल के पूर्व कमिश्नर ललित मोदी और शशि थरूर के ट्वीट के कारण गरमाया था, जो उनके सुनंदा पुष्कर से व्यक्तिगत और वित्तीय संबंधों की ओर संकेत करते थे, जिनसे थरूर ने बाद में शादी कर ली थी।

हालाँकि, थरूर को शुरुआती दौर में कुछ परेशानियाँ हुईं, लेकिन ट्विटर लिबरल लोगों के लिए तब तक एक बेहतर खेल का मैदान बना रहा, जब तक कि ‘दूसरे पक्ष’ ने वास्तव में इसका प्रभावी ढंग से इस्तेमाल करना शुरू नहीं किया था। लेकिन दूसरे पक्ष की बारी आने में वास्तव में ज्यादा समय नहीं लगा। 2011 तक, अन्ना हजारे के समर्थन में काफी लोग थे। अन्ना को सबसे अधिक युवाओं ने सपोर्ट किया। ट्विटर पर ‘हिंदुत्व टाइप’ घनी आबादी थी।

इस मंच (ट्विटर) ने लोकतंत्र को एक नई दिशा दी। जिन लोगों को मेनस्ट्रीम मीडिया आउटलेट में लेख प्रकाशित होने का कोई मौका नहीं मिलता था, उन्हें अब एक ऐसा मंच मिल जो न केवल मेनस्ट्रीम मीडिया की पहुँच से काफी तेज और प्रभाव डालने वाला है। इसने मेनस्ट्रीम मीडिया प्रकाशन में मौजूद सभी बाधाओं को तोड़ दिया।

खासकर, भाषा (मुख्य रूप से शैली), पहुँच (आपको एक संपादक को जानने या लोगों तक पहुँच बनाने के लिए किसी पीआर एजेंसी को किराए पर लेने की आवश्यकता नहीं थी) और सबसे महत्वपूर्ण विचारधारा (प्रकाशित होने के लिए आपको उसी पुरानी लिबरल लाइन को ढर्रा बनाने की आवश्यकता नहीं थी)।

जो लोग ‘संपादक के नाम पत्र’ भी कभी प्रकाशित भी नहीं करवा पाए, वे संपादकों को अब मजाकिया जवाब भेज रहे थे और खुद के पाठकों को बढ़ा रहे थे। जिससे एक नए दौर की शुरुआत होना तय माना जा रहा था। स्वाभाविक है कि इस उलटफेर से लिबरल असहज होने लगे।

अगस्त 2012 में भारत की तत्कालीन सरकार ने कई हैंडल को ब्लॉक कर दिया था। इनमें से कई ‘हिंदुत्व टाइप’ थे, जो सरकार द्वारा ट्विटर को सेंसर करने के शुरुआती प्रयासों में से एक हैं। यूपीए सरकार ने बस ट्विटर को दरकिनार कर दिया और आईएसपी (इंटरनेट सर्विस प्रोवाइडर) को उन ट्विटर अकाउंट को ब्लॉक करने के लिए कहा। इसको लेकर बड़े पैमाने पर हंगामा किया गया, लेकिन कुछ लिबरल का इसे मौन समर्थन मिला।

उनमें से कई ने मनमोहन सरकार के इस कदम को यह कहते हुए उचित ठहराया कि ट्विटर अकाउंट में सांप्रदायिक आधार पर ‘अभद्र भाषा’ का इस्तेमाल किया गया था। आम लोगों के ट्विटर अकाउंट को ब्लॉक करने के मनमोहन सिंह सरकार के फैसले का समर्थन करने वाले एक ऐसे लिबरल आउटलेट ‘हार्डन्यूज’ के संस्थापक और संपादक अब एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया के पदाधिकारी हैं।

हालाँकि, सभी लिबरल्स ने उस समय खुले तौर पर कुछ ट्विटर हैंडल को ब्लॉक करने के सरकार के फैसले का समर्थन नहीं किया। उनके से अधिकतर ने, खासकर मीडिया में बात करने वाले प्रमुखों ने ट्विटर पर ‘ट्रोल्स’ के बारे में एक ठोस चर्चा शुरू की कि यह कैसे एक बड़ी समस्या थी, जिसे हल करने की जरूरत थी। वे चाहते थे कि ट्विटर उन्हें ‘सेफ स्पेस’ दे और सरकार ऐसे ‘अपराधियों’ के खिलाफ कार्रवाई करे, जो उन्हें ट्रोल करते हैं और अपना पक्ष रखने की हिम्मत रखते थे।

जैसा वह चाहते थे वैसा तुरंत नहीं हो पाया। ट्विटर अपने नए यूजर्स के अकाउंट को लेकर काफी व्यस्त था, जबकि दूसरी ओर यूपीए सरकार नए घोटालों में बहुत व्यस्त थी। हालाँकि, यूपीए सरकार के प्रति निष्पक्ष होने के लिए, उन्होंने आईटी अधिनियम की धारा 66ए के साथ आने की कोशिश की, लेकिन यह बहुत ही शर्मनाक और घिनौना था। उनके शब्द थे, ‘प्रो लिबरल’ अर्थात लिबरल के पक्ष में लिखे गए विचार, पोस्ट की बजाय सरकार के पक्ष में लिखे गए विचार पर कंट्रोल होना चाहिए, जो अंततः लिबरल लोगों का लक्ष्य हैं।

लिबरल छल-कपट में विश्वास करते थे। उस समय मूल रूप से उनके पास स्वरा भास्कर जैसे लोग नहीं थे। इसलिए वे खुले तौर पर समर्थन में नहीं उतर सकते थे। हालाँकि, खासतौर पर कुछ पत्रकारों ने यह तर्क देने की कोशिश की कि ट्विटर पर ‘ट्रोलिंग’ को कंट्रोल करने के लिए ऐसे कानूनों की आवश्यकता है, लेकिन ट्विटर ने यह काम नहीं किया। उसने इस मंच को लोकतांत्रिक बनाना जारी रखा, जहाँ विचारों पर कंट्रोल करना आसान नहीं था।

जुलाई 2013 में नरेंद्र मोदी शशि थरूर को पछाड़कर सबसे अधिक फॉलो किए जाने वाले भारतीय नेता बन गए। अधिकांश लिबरल ने विकास को लेकर उनका मजाक उड़ाया और कहा कि ‘मोदी निश्चित रूप से ट्विटर के प्रधानमंत्री बन सकते हैं’। अगले साल मोदी ने भारत के प्रधानमंत्री के रूप में शपथ ली। इससे लिबरल लोगों को सबसे बड़ा झटका लगा, चारों ओर सन्नाटा पसर गया।

इस झटके से देसी लिबरल को झटका लगा और वह जाग खड़े हुए। उन सभी ने महसूस किया कि उन्हें उन टूल और प्लेटफॉर्म पर दोबारा कंट्रोल करने की जरूरत है, जो नैरेटिव बनाने में मदद करते हैं। वे भाग्यशाली थे कि 2016 में, डोनाल्ड ट्रम्प ने संयुक्त राज्य अमेरिका में राष्ट्रपति चुनाव जीता, इसलिए वैश्विक वामपंथियों को भी नए प्लेटफार्मों को कंट्रोल करने की जरूरत का अहसास हुआ।

अगले 4 सालों में ट्विटर पर लिबरल ने दोबारा कंट्रोल पा लिया। डोनाल्ड ट्रंप को सक्रियता से दबाया गया और उन्हें सेंसर किया। हाँ ये बात भी है कि डोनाल्ड ट्रंप के मुँहफट रवैये ने इसमें उनकी मदद हुई। लेकिन ये भी सच है कि इसके लिए उन्हें पहले से निशाने पर रखा गया था। इस बात का पता सक्रिय लिबरलों और ट्विटर के बीच की साँठगाँठ से भी मालूम होता है। आज डोनाल्ड ट्रंप ट्विटर और फेसबुक दोनों से गायब हो चुके हैं।

लेकिन ये सब चीज नरेंद्र मोदी का कुछ नहीं बिगाड़ पाई। उन्होंने 2019 में दोबारा चुनाव जीता। या यूँ कहें कि वैश्विक वामपंथ को अपनी सारी ऊर्जा नरेंद्र मोदी पर केंद्रित करनी बाकी थी। ऐसा लगता है कि ये सब बदल रहा है। अमेरिका से ट्रंप को हटाकर वामपंथी खुद को किसी मसीहा से कम नहीं समझ रहे। लेकिन ये भी ध्यान रहे कि ऐसे मसीहा अपनी जमीन बदलने के बाद एक जगह नहीं रुकते। ये और शागिर्द अगली भूमि को बदलने, उन्हें नई चीज सिखाने और उसे सभ्य बनाने के लिए निकल पड़ते हैं।

भारत इनके लिए इस परिवर्तन को लाने के लिए सबसे बढ़िया जगह है या कहें कि भारत भी इस परिवर्तन को लाने के लिए इनके लिए सबसे बढ़िया जगह है।

भारत के देसी लिबरल हूबहू पश्चिमी लिबरल जैसे हैं। इन्हें बस यहाँ श्वेत शब्द को ब्राह्मण शब्द से रिप्लेस करके अपना काम करना है। अब तो हैरानी भी नहीं होती कि लिबरल फिल्ममेकरों का बेस्ट काम आखिर हॉलीवुड फिल्मों के रीमेक के तौर पर क्यों पकड़ा जाता है।

देसी लिबरल जानते हैं कि इनके अपने हीरो तो कभी इंटलेक्चुअल दिखेंगे नहीं। मेरा मतलब है कि आप क्या उम्मीद करते हैं उनसे जिनके हीरो ही स्वरा भास्कर जैसे लोग हों। खैर, भूल जाइए,  प्रशांत भूषण जैसे लोग अब निम्न स्तर के ट्रोल में आ चुके हैं, जिसे अभी हाल में मास्क और वैक्सीन पर झूठ फैलाते पकड़ा गया और बाद में ट्विटर से ब्रेक लेकर बैठ गया।

मोदी ने 2019 में दोबारा जीत हासिल की और वो भी बड़े वोट शेयर व ज्यादा सीटों के साथ… ये एक सबूत है कि ये देसी लिबरल आम भारतीयों के दिमाग पर कब्जा नहीं कर पाए थे और इसलिए इन्हें अपने विदेशी मसीहाओं की आवश्यकता है। भारतीय अब भी विदेशी माल और गोरी चमड़ी पर यकीन करते हैं, ताकि इनका षड्यंत्र कामयाब हो। इसी से परे, मुझे लगता है कि लिबरल्स को फेयरनेस क्रीम पर ज्यादा गुस्सा नहीं करना चाहिए वो भी तब तक, जब तक कि ये भारतीय गोरी चमड़ी के इतने दीवाने हों और इनसे इनका प्रोपेगेंडा हवा पाता हो।

प्वाइंट ये है कि मोदी की 2019 मे जीत के बाद विदेशी पहलू होना लिबरल नैरेटिव में महत्वपूर्ण बन गया है। ये कोई संयोग नहीं है कि जो पत्रकार अपने लोगों में विश्वसनीयता खो रहे हैं, वो अब कैसे न्यूयॉर्क टाइम्स, वाशिंगटन पोस्ट, टाइम्स मैग्जीन में लगातार बाइलाइन लिख रहे हैं। एक बेचारी पत्रकार को तो इन सबके चलते धोखाधड़ी भी झेलनी पड़ी। उसे लगा कि वह हार्वर्ड यूनिवर्सिटी में एसोसिएट प्रोफेसर लग गई है… इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि बायलाइन राणा अय्यूब की है या रवींद्र अटूत की, जिससे फर्क पड़ता है वो ये बात है कि प्रकाशन में ‘विदेशी’ हिस्सा क्या मायने रखता है।

कुछ हफ्ते पहले द डेली गार्जियन अखबार में एक लेख छपा जिसमें इस बात पर तर्क दिए गए थे कि कैसे पीएम मोदी कोरोना महामारी से निपटने के लिए जी-तोड़ मेहनत में लगे थे। इस लेख को लिबरल्स ने निशाने पर ले लिया। उन्होंने इसके कंटेंट के लिए इसे नहीं घेरा, बल्कि फैक्ट चेक के जरिए ये खुलासा करने लगे कि अखबर यूके का गार्जियन न्यूजपेपर नहीं है।

मूलत: ये लिबरल सिर्फ ये बताना चाह रहे थे कि कैसे फॉरेन मीडिया तो बस उनके साथ है और अगर ऐसा कुछ प्रकाशित हुआ तो मतलब ये तो उन्हें धोखा देने जैसे होगा। मैं जोड़ना चाहता हूँ कि ये सोच मुख्य रूप से उपनिवेशवादी मानसिकता का ही एक लक्षण है।

यही मानसिकता तब भी दिखी तब इन्होंने गल्फ न्यूज में प्रकाशित एक और लेख को आड़े हाथों लिया। इनसे आखिर ये कैसे बर्दाश्त होता कि एक विदेशी मीडिया में किसी विदेशी पत्रकार ने मोदी सरकार की प्रशंसा कर दी। दरअसल, ये देसी लिबरल कुछ भी ऐसा नहीं देख सकते हैं जिससे इनकी ये विदेशी भाग वाली रणनीति बेकार हो। ये जुटे हुए हैं अपने विदेश में बैठे अपने माई-बापों से मदद लेने के लिए, आखिर यही तो मोदी के ख़िलाफ़ इनकी आखिरी उम्मीद है।

विदेश से मसीहा आकर स्थानीय छद्म नायकों को नेस्तनाबूद कर देगा, यह उम्मीद कई मौकों पर सामने आई है न कि केवल उन दो अवसरों पर जिनका जिक्र मैंने ऊपर किया है। हमने लिबरलों के उत्साह को हिलोरे मारते कई मौके पर देखा है, चाहे वह कोई अमेरिकी राज्य या यूरोपीय देश की नगरपालिका ही सीएए के खिलाफ प्रस्ताव क्यों न पारित कर दे। यही ‘किसान आंदोलन’ में विदेश नेताओं से हस्तक्षेप की अपील के दौरान और अधिक बेशर्मी के साथ दिखा। ऐसे किसी भी हस्तक्षेप, यहाँ तक कि पूर्व पोर्न स्टार के समर्थन का भी देसी लिबरलों और वोक्स की जमात ने बढ़-चढ़कर स्वागत किया।

इस आशा का सबसे निर्मम रूप गलवान घाटी में भारत-चीन के टकराव के बीच तब देखने को मिला था, जब देसी लिबरलों और ‘वोक्स’ में से कई सार्वजनिक तौर पर कामना कर रहे थे की भारत को बीजिंग ‘परास्त’ कर दे। यह मसीहा को लेकर इनकी व्याकुलता का एक और प्रमाण था जो विदेशी जमीन से आकर एक नाकाम समाज का साक्षात्कार सच्ची व्यवस्था और धर्म से कराएगा।

एक विदेशी मसीहा को लेकर ये इतने बेचैन हैं कि जब ऑड्रे ट्रुशके नामक विदेशी गोरा औरंगजेब की क्रूरता पर पर्दा डालता है तो ये न केवल उस पर मोहित होते हैं, बल्कि कई कथित इतिहासकार तो उसकी ही धुन पर नाचने लगते हैं। बात अपने पुराने पापों पर पर्दा डालने की हो या नए प्रोपेगेंडा को हवा देनी हो, देशी लिबरलों को अब विदेशी मदद की दरकार है क्योंकि उनके पुराने घरेलू नायकों का चेहरा बेपर्दा हो चुका है।

मोदी सरकार और माइक्रोब्लॉगिंग वेबसाइट के ताजा गतिरोध में लिबरलों ने ट्विटर को जिस तरह का समर्थन और प्यार दिया है, वह उसी मानसिकता को दर्शाता है। एक अमेरिकी कंपनी को काफिरों को परास्त करने में मददगार के तौर पर देखा जा रहा। यह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता या लोकतंत्र के बारे में बिल्कुल भी नहीं है।

इस तरह के सिद्धांतों का समर्थन लिबरलों ने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स के आने पर किया था, लेकिन जल्दी ही उन्हें एहसास हो गया कि यह इस तरह काम नहीं करता। आत्मचेतना के बाद वे इस निष्कर्ष पर पहुँचे  कि वे सिद्धांतविहीन हैं, लेकिन उनके पास विशेषाधिकार है जिसे उन्हें संरक्षित करना चाहिए। तब से वे ‘वोक’ में तब्दील हो गए जिनके लिए ‘अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता नस्ली है’ और ‘अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता उनकी हत्या करती है’ (ये आधुनिक उदारवादियों के वास्तविक विचार हैं) तथा उनके लिए अपने पंसदीदा नेता के नहीं जीतने का मतलब लोकतंत्र में खोट होना है।

ट्विटर (अन्य बड़ी तकनीकी मीडिया कंपनियाँ भी) के साथ मौजूदा गतिरोध का चुनाव से सरोकार नहीं है। यह बीजेपी आईटी सेल या कॉन्ग्रेस टूलकिट के बारे में नहीं है। यह उस मानसिकता से जुड़ा है, जो विदेशी मसीहा को श्रेष्ठ और काफिरों को उजड्ड मानता है।

(राहुल रौशन द्वारा मूल रूप से अंग्रेजी में लिखे इस लेख का अनुवाद जयंती मिश्रा और सुनीता मिश्रा ने किया है)

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Rahul Roushan
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