Monday, May 20, 2024
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UP में लौट रहे योगी, BJP को कितनी सीटें; अखिलेश की साइकिल और मायावती की हाथी में कितना बचा दम: सही साबित होंगे Exit Poll?

बसपा खुद किस आँकड़े तक पहुँचेगी यह अनुमान लगाना मुश्किल है। लेकिन यह तय है कि बीजेपी गठबंधन 10 मार्च को 290 से जितना आगे जाएगी, उसमें बसपा की बड़ी भूमिका देखने को मिलेगी।

8 जनवरी 2022 को चुनाव आयोग ने तारीखों का ऐलान कर उत्तर प्रदेश, पंजाब, उत्तराखंड, गोवा और मणिपुर में विधानसभा चुनाव (Assembly Elections 2022) के जिस रण का शंखनाद किया था, उस पर 7 मार्च 2022 को यूपी की आखिरी 54 सीटों पर मतदान पूरा होते ही विराम लग गया। पाँचों राज्यों के नतीजे 10 मार्च को आने हैं। उससे पहले पोल पंडित अपने-अपने ‘गणित’ के साथ सीटों का अनुमान लगा रहे हैं। वैसे एग्जिट पोल (Exit Poll) का अतीत ज्यादातर मौकों पर गलत साबित होने का ही रहा। खासकर, तब जब कोई एकतरफा लहर न दिखती हो या फिर एकतरफा लड़ाई को भी मीडिया ‘कड़ी टक्कर’ प्रचारित करने पर अमादा हो। इन राज्यों में उत्तर प्रदेश के नतीजों पर सबसे ज्यादा नजरें हैं। लोकसभा में सबसे ज्यादा सांसद भेजने वाले इस राज्य के नतीजों से 2024 के आम चुनावों की दशा और दिशा भी तय होगी। ऐसे में उत्तर प्रदेश की 403 सदस्यीय विधानसभा चुनाव के आखिरी नतीजे क्या हो सकते हैं, यह जानने से पहले कुछ उदाहरणों से यह समझने की कोशिश करते हैं कि आखिर प्रदेश में जमीन पर किस तरह की राजनीति चल रही थी।

जब मेनस्ट्रीम मीडिया स्वामी प्रसाद मौर्य के ‘पालाबदल’ को अखिलेश यादव के नेतृत्व वाली सपा का मास्टरस्ट्रोक बता रही थी, उन दिनों मैं दिल्ली में नहीं था। पूर्वांचल में भटक रहा था। अचानक से एक बुजुर्ग टकरा गए। चुनाव की बात चली तो उन्होंने कहा, “माहौल तो सही है। थोड़ा बहुत डगमग है। लेकिन उससे कोई अंतर नहीं पड़ेगा।” यह पूछे जाने पर कि किसके लिए माहौल सही है, उन्होंने कहा, “बीजेपी के लिए।” अगला सवाल स्वामी प्रसाद मौर्य के बीजेपी छोड़ने को लेकर पूछा तो उनका जवाब था, “प्रभाव नहीं पड़ने वाला है इससे, क्योंकि और भी लोग हैं। उनका कोई मतलब नहीं। देखा जाए तो पब्लिक को काम प्यारा है। काम हो रहा है, वर्क हो रहा है तो सब सही है। किसी के आने-जाने से फर्क नहीं पड़ता।” ये सारी बातें कहने वाले शख्स का नाम विजय कुमार मौर्य है और उन्होंने भी अपने जीवन में राजनीति के उतने ही मोड़ देख रखे हैं, जितना 68 वर्षीय स्वामी प्रसाद मौर्य का देखा है।

बाद में कुशीनगर की अपनी परंपरागत पडरौना सीट छोड़ स्वामी प्रसाद मौर्य फाजिलनगर से चुनाव लड़ने चले गए। बीच चुनाव जब स्वामी प्रसाद मौर्य ‘मेरे काफिले पर बीजेपी के लोगों ने हमला किया है’ का प्रलाप अलाप रहे थे, उस वक्त फाजिलनगर में बसपा के इलियास अंसारी उनकी राजनीतिक जमीन खोद रहे थे। मेनस्ट्रीम मीडिया के लिए अंसारी भले मौर्य की तरह हैवीवेट नही हैं, लेकिन आपकी जानकारी के लिए बता दूँ कि अंसारी चुनाव से ऐन पहले तक सपा में ही थे। मौर्य के लिए जब सपा ने उनसे मुँह मोड़ लिया तो उनका एक वीडियो सामने आया था, जिसमें वे कह रहे थे, “मैंने समाजवादी पार्टी के लिए अपना पूरा जीवन लगा दिया। सपा की राजनीति के चलते मेरी 22 साल की बेटी विधवा हो गई। पार्टी की वजह से मेरे दामाद की हत्या हो गई। समाजवादी पार्टी मेरी हत्या कराना चाहती है। यहाँ के लोग स्वामी प्रसाद मौर्य को हराकर दम लेंगे।” कहा जाता है कि मायावती ने उन्हें विशेष तौर पर बुलाकर बसपा का टिकट दिया था। अब फाजिलनगर के दो ही संभावित नतीजे नजर आते हैं। या तो अंसारी जीतेंगे या फिर वे मौर्य की हार सुनिश्वित करेंगे।

स्वामी प्रसाद मौर्य की तरह धर्म सिंह सैनी भी योगी सरकार की कैबिनेट में थे। उनके भी पालाबदल का खूब शोर मीडिया में मचा था। जब हम पहले चरण के मतदान के पहले पश्चिमी उत्तर प्रदेश में घूम रहे थे तो चार बार के विधायक सैनी नकुड़ सीट पर कमजोर दिखे थे।

सैनी और मौर्य बस उदाहरण हैं। फेहरिस्त लंबी है। पूरे चुनाव ‘हम जिसके साथ जाते हैं उसकी सरकार बनती है’ का दंभ भरते रहने वाले सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी के मुखिया ओमप्रकाश राजभर की राजनीतिक कब्र गाजीपुर की जहूराबाद सीट पर बसपा की शादाब फातिमा ने खोद दी है। एग्जिट पोल के दिन इन सबका जिक्र महज इसलिए ताकि आप समझ सकें कि विधानसभा चुनाव के दौरान असल में उत्तर प्रदेश की जमीन पर हुआ क्या? क्यों योगी आदित्यनाथ के नेतृत्व में बीजेपी के एक बार फिर 2017 जैसी जनादेश के साथ वापसी की संभावना दिखती है? क्यों मीडिया जिसे कड़ी टक्कर बता रहा था, असल में जमीन पर वह थी नहीं? क्यों कागज पर सारे समीकरण सही करने वाले अखिलेश यादव के नेतृत्व में सपा करारी शिकस्त के मुहाने पर है?

बीजेपी की जीत का कारण नंबर 1: किसान आंदोलन पर वोट नहीं पड़े, आवारा पशुओं को विपक्ष भुना नहीं पाया

चुनावों के ऐलान से कुछ महीने पहले तक उत्तर प्रदेश में चुनाव एकतरफा नजर आ रहा था। अचानक से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने तीन कृषि कानूनों की वापसी का ऐलान कर किसान प्रदर्शनकारियों से अपने घरों को लौटने को कहा। इस फैसले को राजनीतिक पंडितों ने विधानसभा चुनावों से जोड़कर देखा और वातानुकूलित कमरों में बैठकर यह थ्योरी गढ़ी कि बीजेपी ने डैमेज कंट्रोल की कोशिश की है। जमीनी हकीकत यह है कि उत्तर प्रदेश में किसान आंदोलन चुनावों का कोई मुद्दा ही नहीं था। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जयंत चौधरी के रालोद से गठबंधन करने और राकेश टिकैत के हवा भरने के बावजूद हमने अपनी ग्राउंड रिपोर्टिंग में पाया कि ज्यादातर किसानों को प्रधानमंत्री का फैसला वापस लेना नहीं पचा था। जाहिर है फिर इस फैसले के पीछे प्रधानमंत्री की कुछ और सोच रही होगी, क्योंकि हम जानते हैं कि बीजेपी हमेशा चुनावी मोड में रहती है। लगातार सर्वे और फीडबैक जमीन से लेती रहती है। खासकर चुनावी राज्यों में तो यह प्रक्रिया बेहद कम अंतराल पर दुहराई जाती है। यह एक सुनिश्चित प्रक्रिया के तहत होती है और इसकी रिपोर्ट आलाकमान तक भी जाती है। ऐसे में यह संभव ही नहीं है कि बीजेपी को इसका पता नहीं हो कि यूपी के मतदाताओं के लिए कथित किसान आंदोलन कोई मुद्दा ही नहीं है। इसके उलट यूपी के हर इलाके में आवारा पशुओं से फसलों को नुकसान की बात लगातार लोगों ने की। विपक्ष इसे मुद्दा बनाने में नाकामयाब रहा। इसी तरह गन्ना किसानों का समय से भुगतान नहीं होने की बात भी पश्चिमी उत्तर प्रदेश में लोग कर रहे थे। लेकिन लगे हाथ यही लोग यह भी बता रहे थे कि पूर्व की सरकारों के मुकाबले इस सरकार में भुगतान जल्दी हो रहा है। वे व्यवस्था में और सुधार चाहते थे तथा इसकी भी उम्मीद उन्होंने बीजेपी से लगा रखी थी। उनका मानना था कि सपा या बसपा की वापसी से भुगतान की प्रक्रिया और लंबी हो सकती है।

बीजेपी की जीत का कारण नंबर 2: मुफ्त राशन-सख्त शासन

ऐसा भी नहीं है कि बीजेपी के लिए सब कुछ सही ही था। कई सीटों पर उसके उम्मीदवारों को लेकर भारी नाराजगी थी। यहाँ तक कि अयोध्या जैसी सीट पर भी लोगों का कहना था कि बीजेपी के निवर्तमान विधायक 5 साल तक इलाके में नहीं दिखे थे। कई जगहों पर प्रशासन में ‘ठाकुरशाही’ के बढ़ते दखल को लेकर भी लोग नाराजगी जता रहे थे। इसके उलट कानून-व्यवस्था के मोर्चे पर योगी सरकार का इकबाल और मुफ्त राशन दो ऐसे काम थे, जिससे कमोबेश उत्तर प्रदेश के हर इलाके में लोग संतुष्ट थे। यहाँ यह ध्यान देना जरूरी है कि घर, शौचालय, रसोई गैस, बैंक खाता जैसे काम पूर्व के चुनावों में भी बीजेपी के लिए वोट खींच चुके हैं। इनका अभी भी असर बचा है।

बीजेपी की जीत का कारण नंबर 3: लाभार्थी वर्ग से टूटे जातीय समीकरण

2014 के आम चुनावों में मोदी लहर से टकरा कर हिंदी पट्टी में सारे जातिगत समीकरण धाराशायी हो गए थे। उसके बाद इन इलाकों में हुए तमाम चुनावों के नतीजे तय करने में जातिगत समीकरणों का दखल लगातार कमजोर हुआ है। इसकी वजह है- विभिन्न योजनाओं के जरिए मोदी सरकार द्वारा लाभार्थी का एक नया वर्ग तैयार करना। यूपी विधानसभा चुनाव में भी इसका असर दिखा है। मसलन, उत्तर प्रदेश में करीब 15 करोड़ लोग ऐसे हैं जिन्हें कोरोना काल में मुफ्त राशन मिला। करीब डेढ़ करोड़ परिवार ऐसे हैं जिन्हें उज्ज्वला स्कीम के तहत एलपीजी कनेक्शन दिए गए। इसी तरह कोरोना संकट के दौरान ग्रामीण इलाकों में बड़े पैमाने पर मनरेगा के तहत रोजगार भी मुहैया कराए गए। इन सबके साथ अयोध्या में मंदिर निर्माण और विकास की अन्य परियोजना, काशी कॉरिडोर, मथुरा-वृंदावन में विकास की योजनाओं ने बीजेपी के कोर वोटर को भी उसके पीछे इन चुनावों में लामबंद किया।

बीजेपी की जीत का कारण नंबर 4: अपनों ने भी जलाई सपा की लंका

2017 के विधानसभा चुनावों में कॉन्ग्रेस और 2019 के आम चुनावों में बसपा के साथ जोड़ी बनाकर हाथ जलाने वाले अखिलेश यादव ने इस बार बीजेपी के आजमाए फॉर्मूले पर अमल करते हुए छोटे-छोटे राजनीतिक खिलाड़ियों को अपने साथ जोड़ा। वैसे तो ये ‘स्वयंभू मसीहा’ अपनी-अपनी जातियों का ठेकेदार होने के दावे करते हैं, पर सत्य यही है कि इनकी जाति इनके समर्थन में तभी लामबंद होती है जब ये उम्मीद पैदा करने वाले किसी बड़े चेहरे के पीछे खड़े रहते हैं। आज की तारीख में मोदी ही एकमात्र ऐसे चेहरे हैं। अखिलेश यादव में वो करिश्मा नहीं है। लिहाजा यह प्रयोग सपा के लिए वोटों को लामबंद करने में कामयाब नहीं रहा। वहीं बीजेपी के पाला बदलने वाले जिन चेहरों पर सपा ने दांव लगाया उनमें से ज्यादातर ऐसे हैं जिनके खिलाफ उनके इलाकों में भारी नाराजगी थी और उन्हें टिकट काटे जाने की आशंका थी। इनको साइकिल की सवारी का मौका देकर अखिलेश ने उनलोगों को नाराज कर दिया जो पिछले 5 साल से जमीन पर पार्टी के लिए सक्रिय थे। गठबंधन सहयोगियों और पाला बदलने वालों को संतुष्ट करने के लिए अखिलेश यादव ने कई जगहों पर अपनों से आखिरी वक्त में टिकट भी वापस ले लिया। करीब दो दर्जन सीटें ऐसी हैं जिन पर सपा की हार इन्हीं लोगों ने तय की है।

बीजेपी की जीत का कारण नंबर 5: मायावती का उम्मीदवार चयन

भले बसपा की इन चुनावों में कम चर्चा हुई हो। लेकिन उम्मीदवार चयन के लिहाज से मायावती ने सबसे बेहतर काम किया है। मेनस्ट्रीम मीडिया की अनदेखी के बीच अपने समर्थकों तक बात पहुँचाने के लिए उन्होंने सोशल मीडिया का सहारा लिया। बहुत सारी सीटों पर बसपा मुस्लिमों का भी वोट झटकने में कामयाब रही है। कम से कम 50 सीटें ऐसी हैं जिस पर सपा-बीजेपी की सीधी लड़ाई में बसपा ने सपा की हार तय करने का काम किया है। इसी तरह कुछ ऐसी भी सीटें हैं जिन पर बसपा उम्मीदवारों की वजह से इस बार बीजेपी उतने बड़े मार्जिन से नहीं जीत रही जैसा उसका 2017 में प्रदर्शन रहा था। हालाँकि बसपा खुद किस आँकड़े तक पहुँचेगी यह अनुमान लगाना मुश्किल है। लेकिन यह तय है कि बीजेपी गठबंधन 10 मार्च को 290 से जितना आगे जाएगी, उसमें बसपा की बड़ी भूमिका देखने को मिलेगी।

निष्कर्ष

यूपी में भले मीडिया ने चुनावों को कड़ी टक्कर के तौर पर प्रचारित किया हो, लेकिन इससे कहीं ज्यादा तगड़ी टक्कर बिहार के 2020 के विधानसभा चुनावों में दिखी थी। बिहार में पहले चरण में तो राजद काफी आगे थी। इसके उलट पश्चिमी उत्तर प्रदेश में सपा-रालोद को वैसी बढ़त जमीन पर नहीं मिली है। सबसे ज्यादा संभावना इस बात की है कि बीजेपी गठबंधन को इस बार 320 के आसपास सीटें मिलेंगी, लेकिन इनमें से कम से कम 50 सीटें ऐसी रहने वाली हैं जिस पर बीजेपी को बेहद मामूली अंतर से जीत मिलेगी। ओवरऑल भी बीजेपी उम्मीदवारों की जीत का मार्जिन इस बार वैसा नहीं होगा, जैसा 2017 में था। इसका एक कारण यह भी है कि 2017 में यूपी में सत्ता परिवर्तन करने के लिए भी एक वर्ग वोट करने निकला था और यह बीजेपी की झोली में गिरा था। इस बार सत्ता परिवर्तन की अकुलाहट वैसी नहीं थी तो मतदान का प्रतिशत भी 2017 के मुकाबले गिरा है।

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अजीत झा
अजीत झा
देसिल बयना सब जन मिट्ठा

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