अभी प्रयागराज में महाकुंभ चल रहा है। प्रयागराज के अलावा हरिद्वार, उज्जैन और नासिक में भी कुंभ लगते हैं। कुंभ की कथा समुद्र मंथन से जुड़ती है। समुद्र मंथन में जब अमृत कलश निकला तो उसकी कुछ बूँदें पृथ्वी पर जिन चार जगहों पर गिरी वे ‘कुंभ स्थान’ हो गए। लेकिन समुद्र मंथन में अमृत प्राप्त होने से पहले विष निकला था, जिसे पीकर महादेव, नीलकंठ हुए।
यह पौराणिक कथा हमें बताती है कि मंथन से बहुत कुछ निकलता है। विष से लेकर अमृत तक। स्वतंत्र भारत की राजनीति में मंथन के ऐसे दो अध्याय दिखते हैं। पहला, जब जयप्रकाश नारायण यानी जेपी के नेतृत्व में ‘संपूर्ण क्रांति’ हुई। दूसरा, जब अन्ना हजारे के नेतृत्व दिल्ली की रामलीला मैदान से भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज बुलंद हुई।
संपूर्ण क्रांति नाम के राजनीतिक मंथन से जो विष निकला, वह बिहार के हिस्से आया। इसे वह आज भी भोग रहा है। इसी तरह अन्ना की प्रयोगशाला से निकला विष दिल्ली के हिस्से आया। दुर्भाग्य से इन दोनों राजनीतिक मंथन का अमृत कहाँ गया, इसका किसी को पता नहीं है।
भारत की राजनीति में दो दल ऐसे हैं, जिनका वैचारिक आधार है। जो कार्यकर्ताओं/कैडरों के दम पर चलते हैं। पहला, जनसंघ जो आज भारतीय जनता पार्टी (BJP) कहलाती है। दूसरे, वामपंथी दल जो अब केरल जैसे राज्य तक सिमटकर रह गए हैं। ऐसे में इन दो राजनीतिक मंथन से जो दल/नेता निकले उनकी ताकत ‘आम लोग’ थे। दुर्भाग्य यह भी है कि जनता को सबसे अधिक मायूसी भी इन्हीं दलों और इनके नेताओं ने दी। इन्होंने साफ-सुथरी राजनीति का भरोसा देकर भ्रष्टाचार के शीशमहल बनाए। पैसे के लिए पशुओं के चारा तक को नहीं छोड़ा। जनता की आवाज के नाम पर व्यक्तिवाद/परिवारवाद थोप दिया। जीवन सुलभ-सरल करने का वादा कर जनता को सड़क, बिजली, साफ पानी, स्कूल, अस्पताल जैसी मूलभूत चीजों के लिए तरसा दिया। विकास की जन आकांक्षाओं को कुचलने के लिए जातिवाद/क्षेत्रवाद/मजहबवाद जैसी आगों को धधकाया।
चूँकि राजनीति में कुछ भी स्थायी नहीं है। कोई भी अजेय नहीं है। अर्श से फर्श पर गिरने की गति की गणना नहीं की जा सकती। इन राजनीतिक मंथनों से निकले दल/नेताओं ने भी जिस तरह सफलताओं की गाथा लिखी, उसी तरह पराजय का गर्त भी देखा। लेकिन 8 फरवरी 2025 को आए दिल्ली विधानसभा चुनावों के नतीजों ने यह भी बताया है कि आम आदमी पार्टी (AAP) और उसके नेता अरविंद केजरीवाल के पतन की जिस बेसब्री से प्रतीक्षा थी, वैसा इससे पहले कभी देखने को नहीं मिला।
इसका कारण यह है कि केजरीवाल ने आम आदमी का वेष धरकर झूठ और मक्कारी की राजनीति को आगे बढ़ाया। नीचता की नई परिभाषाएँ गढ़ी। आम आदमी को धुर समझ कु-कर्म किए, जिनमें कुछ सामने आ चुके हैं, बाकी आगे आते रहेंगे।
किसी राजनीतिक दल या नेता के खत्म होने की भविष्यवाणी करने से बचना चाहिए, क्योंकि ये एक चुनाव में राख का ढेर बन जाते हैं तो दूसरे ही चुनाव में उसी से ढेर उठकर खड़े भी हो जाते हैं। दिल्ली में भले AAP हार गई हो पर पंजाब में अभी भी उसकी सरकार है। दिल्ली में भी उसे 43.57% लोगों ने अब भी वोट दिया है। अब भी उसके 22 विधायक चुनकर सदन में पहुँचे हैं। इसलिए AAP का फातिहा पढ़ना तो जल्दबाजी ही मानी जाएगी।
फिर भी AAP और अरविंद केजरीवाल अब अलग होने का दंभ नहीं भर सकते। वे वैसे ही हैं जैसे राजनीतिक कोठरी में शामिल दूसरे दल और नेता हैं। वे इस मायने में जरूर अलग हैं कि उन्होंने जिस तरह के राजनीतिक प्रतिमान गढ़े हैं, उससे भविष्य में जनांदोलनों और उससे जुड़े लोगों की विश्वसनीयता पहले दिन से ही संदेह के घेरे में होगी। इनके कारण शायद अगले कुछ वर्षों/दशकों तक हमें ऐसा कोई जनांदोलन देखने को भी न मिले।
यही कारण है कि AAP और अरविंद केजरीवाल के पतन पर जमीन से लेकर सोशल मीडिया तक में उत्साह दिख रहा है। यह केवल राजनीतिक उत्साह नहीं है। यह केवल बीजेपी समर्थकों का जोश नहीं। यह हर उस आदमी का ‘प्रायश्चित’ है, जिसने AAP और अरविंद केजरीवाल के उदय को साफ-सुथरी राजनीति का अभ्युदय समझने का ‘पाप’ किया था। आम आदमी का यह प्रायश्चित अरविंद केजरीवाल को अब ठीक उसी तरह न चैन से सोने देगा, न जागने देगा, जैसे कथित ‘सुशासन’ के करीब दो दशक बाद भी बिहार में ‘जंगलराज’ लालू एंड गैंग को न चैन से सोने देता है, न जागने, भले उन्हें चुनाव में सफलता मिलती रहे।