Monday, October 14, 2024
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रवीश जी, पत्रकार तो आप घटिया बन गए हैं, इंसानियत तो बचा लीजिए!

रवीश ने पत्थरबाजों, दंगाइयों, हत्यारों की एक हिंसक भीड़ को उन्मादी बनाया है। हिन्दू-मुस्लिम न करने को कह कर कई रात बस यही ज़हर डाला है लोगों के दिमागों में कि मुस्लिमों को हिन्दू मार देंगे। आज एक भीड़ को रवीश जैसों के शब्दों से हिंसक होने का बहाना मिलता है।

रवीश कुमार का सुषमा स्वराज वाला प्राइम टाइम देख कर ऐसा लगा कि बेचारा एक मोदी को अटैक करने के चक्कर में किसी की मौत तक को बदरंग करने से नहीं हिचकता! शब्द बनाते हैं, और गिराते हैं। शब्द घाव भी होते हैं, मरहम भी। जख्म भी देते हैं, उन्हें सिल भी सकते हैं। संदर्भ पा कर वही शब्द सुंदर अभिव्यक्ति का माध्यम बनते हैं, और संदर्भ से अलग वो किसी व्यक्ति को दानव जैसा दिखा सकते हैं। इसलिए, शब्दों के व्यापार से जुड़े लोग, उनका इस्तेमाल नाप-तौल कर करते हैं। पत्रकारिता शब्दों के व्यापार का एक उद्योग है। समाज का कितना भला हुआ है इससे, इस पर चर्चा हो सकती है, लेकिन आज के दौर में इसकी अहमियत से इनकार नहीं किया जा सकता।

शब्दों के ऐसे ही व्यापारी हैं रवीश कुमार। उन्होंने जब वो प्राइम टाइम किया तो उन्होंने उन शब्दों को पढ़ने से पहले लिखा होगा, लिखने से पहले सोचा होगा। अनुभवी आदमी शब्दों को अपने हिसाब से लिख सकता है कि वो एक स्तर पर श्रद्धांजलि लगे, एक स्तर पर राजनैतिक समझ की परिचायक, और गहरे जाने पर वैयक्तिक घृणा से सना हुआ दस्तावेज। रवीश अनुभवी हैं, इसमें दोराय नहीं।

हर दिन इस व्यक्ति (पत्रकार नहीं, व्यक्ति) के प्रति सम्मान कम होता जा रहा है। मैं ये भी नहीं कह रहा कि यार वो मर गईं, उनको उस दिन तो बख़्श देते। नहीं, क्योंकि ये आदमी ‘किया होगा’, ‘हुआ होगा’, ‘ऐसा तो होता ही होगा’ जैसे वाक्यांशों के सहारे अपनी नफ़रत को अपने मलिन, संस्कार मंद पड़ते चेहरे के साथ बोलता रहा। ऐसी काल्पनिक बातें जिसे एक चेहरे ने टीवी पर पब्लिक के लिए हवा में छोड़ दिया, और उनके भक्त सत्य मान कर अपनी घृणा का छौंक लगा कर हर जगह लिख-बोल रहे होंगे।

4:16 से उसका वीडियो देखिए प्राइम टाइम। ये निहायत ही बेकार और घृणा में डूबे हुए इन्सान के शब्द हैं। सिर्फ पत्रकार होना बेहतर नहीं होता, भले ही आपके करियर में कुछ अच्छे काम रहे हों। सुषमा स्वराज कम से कम रवीश से बेहतर इन्सान थीं, और अपने क्षेत्र का चमकता सितारा थी। वहीं रवीश, घृणा में डूबा वो आदमी है जो प्रधानमंत्री आवास का अगर कुत्ता भी मर जाए तो इंट्रो में कुछ ऐसा लिखेगा:

मर गया कुत्ता। कुत्ते तो मर ही जाते हैं। ये कुत्ता पीएम आवास पर दुम हिलाता रहता होगा। 2014 तक भले ही मनमोहन कुछ बोलते नहीं होंगे, लेकिन उसे भी देख कर वो खुश होता होगा। लेकिन 2014 के बाद मालिक बदलने पर कुत्ता भी तो बदल गया होगा… क्या 18 घंटे काम की बात करने वाले मोदी उस कुत्ते का ख्याल रख पाते होंगे? क्या वो कुत्ता मोदी को देख कर भी उतना ही खुश होता होगा? क्या 2014 के बाद मोदी उसे ऐसे तो नहीं देखते होंगे कि ये तो मनमोहन का कुत्ता था 10 सालों से, मेरा क्या, मेरा वश चले तो इसका एनकाउंटर करवा दूँ… और क्या पता कि ये कुत्ता मरा भी कैसे होगा क्योंकि नेशनल सीक्रेट के नाम पर कुत्ते का पोस्टमार्टम तो हुआ नहीं। सबूत आप माँग नहीं सकते क्योंकि आपको एंटीनेशनल करार दे दिया जाएगा। हम और आप इसमें कुछ नहीं कर सकते क्योंकि सत्ता जिसके पास है, उसका क्या इतिहास है, ये किसी से छुपा तो नहीं।

जब इस देश में जस्टिस लोया की संदिग्ध परिस्थितियों में हत्या हो जाती है, तो कुत्ता तो फिर भी कुत्ता है, और वो कुत्ता भी कॉन्ग्रेस का है जिससे मुक्ति के लिए प्रधानमंत्री पिछले छः सालों से लगे हुए हैं। आप सोचिए, कि आखिर ऐसा क्या हुआ होगा कि कुत्ता मर गया? जानता हूँ कि ये समय सवालों का नहीं है, लेकिन ऐसे कठिन समय में ही ऐसे सवाल पूछे जाने चाहिए। अगर हर मौत पर हमने बस मातम मना कर, अच्छी बातें कह कर, किसी के कथित अपराधों को, भले ही वो बाद में गलत साबित हो जाएँ, याद करने का मौका छोड़ दिया तो पत्रकारिता कैसी?

रेमॉन मैग्ससे अवार्ड इसीलिए सबको नहीं मिलता। हमें कठिन सवाल पूछने चाहिए, वरना सवाल पूछने वाली पत्रकारिता गायब हो जाएगी। क्या इस देश के नागरिकों को ये जानने का हक नहीं कि उस कुत्ते ने सुबह में ऐसा क्या खाया? क्या हमें यह जानने का हक नहीं कि यह कुत्ता 2019 में ही क्यों मरा? मैं जानता हूँ। दस सालों से कॉन्ग्रेस और देश का वफादार कुत्ता 2014 की मई में ही मार डाला जा चुका होता लेकिन मोदी वो नहीं करते जो लोग उनसे उम्मीद करते हैं कि वो करेंगे। वो पहले विश्वास दिलाते हैं कि सब कुछ ठीक है। और एक दिन कुत्ता मर जाता है। और वो दिन 2019 में आता है ताकि किसी को शक न हो। मैं शक नहीं कर रहा, मैं तो बस आपको दूसरा पक्ष, कुत्ते का पक्ष दिखाना चाह रहा हूँ कि इसकी टाइमिंग देखिए। जब कुत्ते खुद को डिफेंड नहीं कर सकते तो मैं करता हूँ, करता रहूँगा।

कुत्ते की उम्र सत्रह साल थी। यूँ तो इस उम्र में कुत्ते स्वभाविक मौत से भी मरते हैं, लेकिन ये तो प्रधानमंत्री का कुत्ता था। प्रधानमंत्री का कुत्ता तो आम कुत्तों से अलग होता होगा। उसे तो गली-गली खाने के लिए भटकना तो नहीं पड़ता होगा, वो तो बाज़ार से, यूट्यूब पर चलने वाले विज्ञापनों में आने वाला पैकेज्ड खाना खाता होगा, मिनरल वाटर पीता होगा… फिर तो उसकी उम्र भी ज्यादा होगी। पाँच साल तो बढ़ ही जाती होगी उम्र। इंसान भी संयमित भोजन करे तो उसकी भी उम्र बढ़ जाती है। तो फिर इसकी क्यों नहीं।

आप कहेंगे कि रवीश जी आप तो कुत्ते की मौत को इतना बड़ा बना रहे हैं। जिसका कोई नहीं होता, उसका रवीश होता है। ‘हैशटैग रवीश जी आपसे उम्मीद है’ लिख कर हजारों लोग मुझे रोज मैसेज करते हैं। ये कुत्ता भी करना चाहता होगा लेकिन आधार कार्ड और मोबाइल नंबरों के जुड़े होने के इस दौर में क्या प्रधानमंत्री कार्यालय को कुत्ते पर शक नहीं होता? शक क्या, वो तो पूरा मैसेज ही पढ़ लेते। इसलिए, एक पत्रकार के तौर पर मेरी जिम्मेदारी और बढ़ जाती है कि मैं उसका भी पक्ष रखूँ।

दूसरी बात, ये कुत्ता हमारे, आपके, हम सब के पैसों पर पलता होगा। प्रधानमंत्री आवास का खर्चा टैक्स भरने वाले उठाते हैं। इसलिए, हमें ये जानने का हक है कि उस पैसे का दुरुपयोग तो नहीं हो रहा था। उस कुत्ते को सुबह के खाने में जो जहर दे दिया गया होगा, वो किसके पैसे से आया होगा? कोई आदमी एक मूक जानवर को जहर दे कर कैसे मार सकता है! कितना निर्दयी रहा होगा वो!

इसका जवाब कौन देगा? इस बात को क्यों छुपाया जा रहा है? मैं जानता हूँ। कुत्ता गाय नहीं होता। कुत्ता तो कुत्ता होता है। इसलिए, उसके मरने पर शोर नहीं होता। संघ वाले बेहतर बताएँगे कि गाय और कुत्ते का फर्क क्या होता है। मोदी भी जानते होंगे कि क्या फर्क होता है। भले ही उस कुत्ते ने कितने प्रधानमंत्रियों, नेताओं, सत्ता के शक्तिशाली लोगों का हाथ अपनी गर्दन पर महसूस किया होगा, लेकिन आज वो मर चुका है। सत्ता, पावर, नेता का करीबी होना उसके काम नहीं आया। उसे मार दिया गया जैसे लोग मार दिए जाते रहे हैं।

लेकिन आपको क्या! आप टीवी देखते रहिए। हिन्दू-मुस्लिम करते रहिए। अर्थ व्यवस्था पर डिबेट शुरु नहीं होता है कि ध्यान हटाने के लिए कश्मीर से 370 हटाने की बातें शुरु हो जाती हैं। उस पर डिबेट शुरु होता है तो कोई नेता अचानक मर जाता है। आपको मूर्ख बनाया जा रहा है। जब आप लिखते हैं कि रवीश जी आपसे उम्मीद है, तो मेरी उम्मीद आपसे यही होती है कि आप भी रवीश बन जाएँ। आप भी चीजों को वैसे देखें, जैसे मैं देखता हूँ। आप भी वैसे ही चर्चा करें जैसे मैं करता हूँ। आप भी कुत्ते को देख कर सोचें कि ये किसका है, ये क्या खाता होगा, जीडीपी बढ़ने से इसके जीवन पर क्या फर्क पड़ता होगा, क्या इसे पता भी होगा कि जीडीपी के मनुष्य करते क्या हैं?

जब तक दर्शक जागरूक नहीं होगा, ऐसे ही आपको डराया जाएगा कि यहाँ प्रधानमंत्री आवास का कुत्ता भी चला जाता है, और किसी को पता नहीं चलता। चिल्लाने वाले एंकर से पूछिए तो वो कहेंगे, कौन सा कुत्ता, किसका कुत्ता… मंटो की एक कहानी है ‘टिटवाल का कुत्ता’। पढ़िए उसको। लेकिन मंटो तो पाकिस्तान के थे। क्या पता आप पढ़ते रहेंगे और कोई कहेगा कि ये पढ़ना है तो पाकिस्तान जाओ। लेकिन आप पढ़ते रहिए। आपातकाल आ चुका है। आज कुत्ते मर रहे हैं, कल को मुझे सड़क पर रौंदती हुई कोई गाड़ी निकल जाएगी। आप लोग दो दिन दुखी रहेंगे, मेरे बारे में अच्छी-अच्छी बातें कहेंगे, और फिर सब भूल जाएँगे।

लेकिन आपको भूलना नहीं चाहिए। अगर रवीश मर जाएगा तो आपके हैशटैग पर भी वही गाड़ी चल चुकी होगी, आपके उम्मीदों की भी हत्या हो चुकी होगी। तब आप शोक मत करिएगा। मैं चाहता हूँ कि मेरे जाने के बाद आप सवाल पूछिएगा कि वो गाड़ी किसकी थी, उसमें कौन बैठा था, क्यों बैठा था! तब आप किसी भी तरह से उसका एक कनेक्शन निकालिएगा ताकि पता चले कि उसके पूरे खानदान में भाजपा से जुड़ा कोई वार्ड कमिश्नर भी तो नहीं। फिर आप उसमें भाजपा, संघ, अमित शाह, मोदी और मेरी गजब की पत्रकारिता के बिन्दुओं को जोड़ दीजिएगा। कहानी बन भी जाएगी, और चल भी जाएगी।
नमस्कार! हें हें हें

अपने ही गिरने के पैमाने को तोड़ता है ये व्यक्ति

रवीश कुमार अपने ही गिरने के पैमाने हर दिन तोड़ते हैं। नौकरी, कॉलेज, एसएससी, बैंकिंग, स्कूल आदि पर खबरों की शृंखला चलाने वाले रवीश हर दिन एक अंधेरे कुएँ में गिरते जा रहे हैं। ऐसा नहीं है कि उनका करियर बेकार रहा है, लेकिन जिस ‘2014 के बाद’ से वो सुषमा को मोदी द्वारा दरकिनार करते देखते हैं, जिस तरह एक किडनी ट्रांसप्लांट के बाद अस्वस्थ रहने वाली नेत्री के राजनीति से दूरी बनाने को मोदी की चाल जैसा दिखाते हैं, उसी 2014 के बाद रवीश ने स्वयं की पत्रकारिता के साथ क्या किया, ये छुपा नहीं है।

रवीश के भक्त जो अपने गॉड के ‘टीवी मत देखिए’ कहने के बाद भी रोज टीवी देखते हैं, और रवीश द्वारा स्वयं ही गढ़ी गई परिभाषाओं को परम सत्य मानते हैं, वो समझते हैं कि रवीश की पत्रकारिता का स्वर्णिम काल पिछला छः साल ही है। जबकि इन छः सालों में एक पत्रकार के मानसिक पतन की जो कहानी हर रात टीवी की स्क्रीनों पर दिखी है, वो सबके सामने है।

रवीश के चेले और ट्रोलों की फौज भले ही आज सुषमा स्वराज की मृत्यु में कोई चाल देख ले, भले ही उसे लगे कि सुषमा को तो प्रधानमंत्री बनना था, मोदी ने पत्ता काट दिया, लेकिन उससे सत्य नहीं बदलता। रवीश कुमार पत्रकारिता को दोनों छोर को जी चुके हैं। अच्छी पत्रकारिता की बड़ाई उनके आज के विरोधी भी करते हैं, लेकिन जितनी घटिया पत्रकारिता अब उनकी हो गई है, वाकई टीवी देखना बंद कोई करे या नहीं, रवीश के धीमे जहर से तो जरूर बचे।

रवीश जी, आप बीमार हो चुके हैं। आप जब कैमरे में देखते हैं, और बोलते हैं, तो लगता है कि दया कर रहे हैं किसी पर। आपको अपने ही दर्शक मूर्ख लगते हैं, जिन्हें आप हर रात पट्टी पढ़ाते हैं। साथ ही, कैमरे के सामने आपका एटीट्यूड अब तिरस्कार वाला हो चुका है। रवीश जी की भावभंगिमा अपने ही दर्शकों को मानो ललकारती है कि ‘अबे तुम लोग हो क्या! मैं तुमसे महान हूँ, तुम सुन भी रहे हो तो मेरी दया के कारण।’ आपको लगने लगा है कि आप रवीश कुमार हैं और आपको अपना काम भी गंभीरता से करने की जरूरत नहीं है। स्क्रिप्ट पढ़ते हुए लगातार फ़म्बल करना, चेहरे पर ऐसे भाव कि दस बजे घर जाना है, ‘विषय’ कुछ भी हो, उसमें ‘य’ हटा कर ‘विष’ रख लेना, ये सब आपकी दिनचर्या है।

कुछ समय पहले तक आपको लौट आने का सुझाव दिया करता था। अब वो मत कीजिए। आप कहीं चले जाइए क्योंकि मैं नहीं चाहता कि कोई आपके कारण, आपकी घटिया पत्रकारिता के कारण आपस में लड़े, किसी को गाली दे। क्योंकि, आप एक भीड़ को उन्मादी बना चुके हैं। ये भीड़ हर मुस्लिम की हत्या पर खड़ी होती है, और हर हिन्दू की मुस्लिमों द्वारा हत्या पर चुप हो जाती है।

आपने ऐसी ही खतरनाक, जानलेवा परंपरा को हवा देना शुरु किया था, अब वो बवंडर बन कर पूरे समाज को लीलता जा रहा है। आपके प्रशंसकों में सहिष्णुता नहीं है, वो बात-बात पर हिन्दू-मुस्लिम ही करते हैं। वो सामान्य अपराध में धर्म जोड़ देते हैं, क्योंकि आपने उन्हें प्रशिक्षण दिया है, हर रात टीवी से और दिन में कई बार अपने लेखों से। शहर में अगर मजहबी भीड़ पुलिस पर पत्थर फेंकती है, दंगे करती है, जान लेती है, तो उसका रक्त आपके हाथों पर भी है।

आपने तैयार किया है ऐसे लोगों को जिन्हें शायद ऐसे अपराधों में बस अपराध दिखता था, लेकिन जबसे आपने जुनैद को बीफ के साथ जोड़ी, सक्सेना की मौत पर चुप रहे; जबसे तबरेज पर खूब बोला गया और गोपाल पर चुप रहे; जबसे पहलू खान आपके लिए ज़रूरी था लेकिन बीफ माफिया द्वारा की गई कई हत्याओं पर आप चुप रहे, तब से आपको पत्रकारिता का मापदंड मानने वाली भीड़ हिंसक होती गई। यही कारण है कि हिन्दुओं को लगातार, बेखौफ हो कर एक खास धर्म के लोग मार रहे हैं। काँवरियों पर पत्थरबाजी की जा रही है, ग्यारह मामलों में ‘जय श्री राम’ जबरदस्ती बुलवाने की बातें गलत साबित हुई हैं

ये आप पर इसलिए है क्योंकि आपने बस एक पक्ष लिखा। आपने जान-बूझ कर चुप्पी साधी क्योंकि आप पत्रकारिता कर ही नहीं रहे थे। आपको अजेंडा बढ़ाना था। आप आदर्श ज़रूर हैं, लेकिन उन लोगों के जो बातों को मरोड़ कर पेश करता है, उसमें धर्म और जाति निकालने के बाद ही चर्चा का पहला वाक्य कहता है। आप एक खोखले आदर्श हैं, नकारात्मकता से भरे हुए।

इसीलिए, आपको सुषमा स्वराज की मृत्यु के दिन भी मोदी को टारगेट करना उचित लगा। आपने शब्दों की शृंखला से साबित किया कि केन्द्र से हाशिए पर सुषमा को कैसे ढकेला गया। रवीश जी, आपकी ज़रूरत है समाज को, पत्रकारिता के छात्रों को, टीवी को। ताकि, वो जान सकें कि पत्रकारिता का एक बेकार उदाहरण कैसा होता है, उन्हें निजी घृणा से खोखला होने से कैसे बचना चाहिए।

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अजीत भारती
अजीत भारती
पूर्व सम्पादक (फ़रवरी 2021 तक), ऑपइंडिया हिन्दी

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