Wednesday, April 24, 2024
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सिगरेट का धुआँ उड़ाते अबुल कलाम, बैठक में सोते कॉन्ग्रेस अध्यक्ष, गाँधी से लड़ते नेहरू: विभाजन को ऐसे राजी हुई थी कॉन्ग्रेस, गई 20 लाख जानें

AMU के संस्थापक सर सैयद अहमद खान ने सन् 1876 में ही कह दिया था कि एक देश में हिन्दू-मुस्लिम साथ-साथ नहीं रह सकते, क्योंकि दोनों अलग हैं। कॉन्ग्रेस के तीसरे ही अध्यक्ष बदरुद्दीन तैयब ने ही लिखा था कि कोई भी भारत को एक राष्ट्र नहीं मानता है, वो भी सन् 1888 में।

भारत का विभाजन – ये एक ऐसा अध्याय है जिसने आज़ादी के जश्न को भी फीका कर दिया था। हमें अंग्रेजों की दासता से मुक्ति तो मिली, लेकिन भारत माँ बँट गईं। अंग्रेजों ने सिरिल रेडक्लिफ को आज़ादी से पहले इसकी जिम्मेदारी देकर भेजा, जिसे इस इलाके कोई समझ ही नहीं थी। उसने एक लाइन खींच दी और कॉन्ग्रेस राजी हो गई। 20 लाख लोगों को अपनी जान गँवानी पड़ी। करोड़ों का पलायन हुआ। 200 वर्षों की गुलामी के बाद मिली क्या तो 20 लाख लाशें।

भारत के विभाजन ने 20 लाख ज़िंदगियों को लील लिया

सड़क पर मानव अंग पड़े रहते थे। रेलगाड़ियों में लाशें भर कर भेजी जाती थीं। क्षत-विक्षत शव मिलते थे। कई महिलाओं का बलात्कार हुआ। करीब 2 करोड़ लोगों को पलायन करना पड़ा था। बंगाल और पंजाब पर इसका सबसे ज्यादा असर पड़ा, जो उस समय तक अखंड था। लोगों को अपनी संपत्तियाँ छोड़ कर पलायन को मजबूर होना पड़ा। जिस रेडक्लिफ ने कभी पेरिस से पूर्व की ओर देखा तक नहीं था, उसने भारतीय उपमहाद्वीप का नक्शा बदल डाला।

जिस मोहम्मद अली जिन्ना ने मुस्लिमों के भीतर कट्टरता भर कर अलग मुल्क की माँग को अभियान बनाया, वो भी कभी कॉन्ग्रेस का ही नेता हुआ करता था। जो पाकिस्तान भारत से बँट कर अलग हुआ था, 1971 में भारत से भीषण युद्ध के बाद उसका भी विभाजन हुआ और बांग्लादेश एक अलग देश बना। जिस तरह मालाबार हुआ था, वैसे ही बंगाल में जमींदारी के नाम पर हिन्दुओं और उनकी संपत्ति को निशाना बनाया गया। 1937 के प्रांतीय चुनाव में मुस्लिम बहुल इलाकों में जिन्ना की ‘मुस्लिम लीग’ की बड़ी जीत ने ही इसकी पटकथा तैयार की थी।

वो 15 जून, 1947 का ही दिन था जब कॉन्ग्रेस भारत के विभाजन के लिए तैयार हुई थी। ‘अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी (AMU)’ के संस्थापक सर सैयद अहमद खान ने सन् 1876 में ही कह दिया था कि एक देश में हिन्दू-मुस्लिम साथ-साथ नहीं रह सकते, क्योंकि दोनों अलग हैं। बाद में भी उन्होंने कहा कि एक ही गद्दी से भारत में हिन्दू-मुस्लिम शासन नहीं कर सकते। सन् 1906 में कॉन्ग्रेस के ही मुस्लिम नेताओं ने मिल कर ‘ऑल इंडिया मुस्लिम लीग’ पार्टी बनाई थी।

1930 ईस्वी में ‘मुस्लिम लीग’ के कवि अल्लामा इकबाल ने मुस्लिमों के लिए एक अलग मुल्क की माँग की। हिन्दू-मुस्लिम एकता की बात करते रहे जिन्ना के नेतृत्व में अलग इस्लामी मुल्क के लिए प्रस्ताव पारित किया गया। ब्रिटश सरकार ने भारत के अंदर की एक स्वायत्त तरह के इस्लामी राज्य के गठन की बात कही, लेकिन जिन्ना और नेहरू ने इसे नकार दिया। जिन्ना ने ‘कांस्टीट्यूएंट असेंबली’ की माँग को भी खारिज कर दिया।

मुस्लिम लीग के सामने कॉन्ग्रेस ने कर दिया था समर्पण

3 जून, 1947 को भारत के अंतिम वायसराय लॉर्ड माउंटबेटन ने अलग मुल्क की बात रखी, जिसे कॉन्ग्रेस और मुस्लिम लीग ने स्वीकार कर लिया। माउंटबेटन ने भी सारे काम जल्दी-जल्दी में किया, क्योंकि उसे वापस जाकर अपने नौसेना के करियर को आगे बढ़ाना था। जिन्ना ने ‘डायरेक्ट एक्शन’ का ऐलान किया और हिन्दुओं का कत्लेआम शुरू हो गया। कॉन्ग्रेस हिंसा नहीं रोक पाई। महात्मा गाँधी ने भी कॉन्ग्रेस का समर्थन किया और विभाजन के लिए हिन्दुओं और सिखों को जिम्मेदार ठहराया।

कई देशों में भारत के राजदूत रहे नरेंद्र सिंह सरीला अपनी पुस्तक ‘विभाजन की असली कहानी’ में लिखते हैं कि उन्हें अंग्रेजों के गुप्त दस्तावेजों से पता चला था कि सोवियत संघ के विस्तार को रोकने और ईरान के तेल के कुओं पर उसके कब्जे की आशंका से अंग्रेजों ने भारत को बाँटा, ताकि पाकिस्तान में सैन्य बेस बना कर नजर रख सके। उन्होंने विभाजन में अमेरिका का भी हाथ माना है। साथ ही कहा है कि अंग्रेजों की नींव हिलाने में बोस का हाथ था, उनके देहांत के बाद भी।

इसी तरह मुनीश त्रिपाठी अपनी पुस्तक ‘विभाजन की त्रासदी‘ में लिखते हैं कि माउंटबेटन मुस्लिमों को एक विजेता समाज मानता था, जबकि हिन्दुओं पराजित। मुस्लिम नेताओं से उसकी तुरंत दोस्ती हो जाती थी और उसका कहना था कि मुस्लिम अंग्रेजी शासन को बनाए रखना चाहते हैं। उसका मानना था कि भारत को अंग्रेजों ने ही अखंड बनाया है। जिन्ना के भड़काने के बाद देश भर में 7000 से अधिक हिन्दुओं का नरसंहार हो गया था।

त्रिपाठी लिखते हैं कि विभाजन का सबसे बड़ा कारण पृथक निर्वाचन वाली व्यवस्था थी, जिसे कॉन्ग्रेस ने मान लिया था। 1916 में मुस्लिम लीग से उसने समझौता किया, जिसके तहत मुस्लिमों में भारत से अलग होने की भावना राजनीतिक रूप से भी भर गई। इसे ‘मार्ले मिंटो सुधार’ नाम दिया था, जिसने भारत का बिगाड़ ही किया। एक तरह से कॉन्ग्रेस ने मुस्लिम लीग के आगे समर्पण कर दिया। सर सैयद अहमद खान खुद एक अंग्रेज कर्मचारी हुआ करते थे और उन्होंने मुस्लिमों को अंग्रेजी शिक्षा ग्रहण कर सरकारी नौकरियों के लिए उकसाया था, क्योंकि उन्हें पढ़े-लिखे हिन्दू समाज से द्वेष था।

कॉन्ग्रेस और नेहरू विभाजन को हो गए थे राजी

उन्होंने ही मुस्लिमों को कॉन्ग्रेस के आंदोलन से न जुड़ने की सलाह दी थी। बंगाल में भी सरकारी नौकरियों से लेकर कारोबार तक में हिन्दुओं की प्रतिष्ठा थी, जिससे मुस्लिमों को ईर्ष्या होने लगी। कॉन्ग्रेस के तीसरे ही अध्यक्ष बदरुद्दीन तैयब ने ही लिखा था कि कोई भी भारत को एक राष्ट्र नहीं मानता है, वो भी सन् 1888 में। मुस्लिम लीग के दबाव में महात्मा गाँधी और कॉन्ग्रेस ने खिलाफत आंदोलन का समर्थन किया, जो खलीफा के शासन की वापसी के लिए हुआ था और इसकी आड़ में हिन्दुओं का नरसंहार हुआ।

इस पुस्तक में ये भी लिखा है कि अबुल कमाल आज़ाद मानते थे कि जवाहरलाल नेहरू ने विभाजन के प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया, क्योंकि इसके पीछे उनकी पत्नी एडविना माउंटबेटन का हाथ था। एडविना ने नेहरू के सामने पंजाब में हुए दंगों को लेकर आँसू बहाए और नेहरू पिघल गए। इसमें बताया गया है कि एडविना और उनकी बेटी पामेला को नेहरू को मनाने की जिम्मेदारी दी गई थी। जवाहरलाल नेहरू ने कॉन्ग्रेस में विभाजन के प्रस्ताव को रखा और उस समय बिहार-बंगाल के दौरे पर गए महात्मा गाँधी को इसकी सूचना नहीं दी।

राम मनोहर लोहिया ने अपनी पुस्तक ‘भारत विभाजन के गुनहगार‘ ने इसके बाद हुई बैठक का जिक्र किया है, जिसमें गाँधी की आपत्ति के बाद नेहरू आवेश में आए गए और कहा कि वो तो हर बात की जानकारी गाँधीजी को देते रहते हैं, लेकिन दूर नोआखली में होने के कारण उन्हें विस्तार से नहीं बता पाए। लोहिया ने तत्कालीन कॉन्ग्रेस अध्यक्ष आचार्य कृपलानी का जिक्र किया है जो बैठकों में सोए रहते थे और मौलाना अबुल कलम आज़ादी सिगरेट का धुआँ उड़ाते रहते थे।

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अनुपम कुमार सिंह
अनुपम कुमार सिंहhttp://anupamkrsin.wordpress.com
चम्पारण से. हमेशा राइट. भारतीय इतिहास, राजनीति और संस्कृति की समझ. बीआईटी मेसरा से कंप्यूटर साइंस में स्नातक.

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