तुर्की (अब तुर्किये) एक ऐसा देश है जो यूरोप और एशिया दोनों महाद्वीपों में फैला हुआ है। यह देश आठ देशों की सीमाओं से घिरा हुआ है और इसमें पहाड़, मैदान, तथा कालासागर, एजियनसागर और भूमध्य सागर के किनारे विस्तृत समुद्र तट शामिल हैं, जो इसके विविध भौगोलिक परिदृश्य को दर्शाते हैं। हालाँकि, राष्ट्रपति रेसेप तैयप एर्दोगन की खिलाफत को पुनर्जीवित करने और स्वयँ को खलीफा के रूप में स्थापित करने की अघोषित लेकिन प्रबल इच्छा के चलते तुर्की तेजी से अपनी सांस्कृतिक विविधता और धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांतों को इस्लामी कट्टरवाद की ओर खोता जा रहा है।
इस्लामी खिलाफत का उन्मूलन और एक धर्मनिरपेक्ष तुर्की का उदय
तुर्की गणराज्य की स्थापना 29 अक्टूबर 1923 को मुस्तफा कमाल अतातुर्क ने लॉज़ेन संधि के बाद, ओटोमन साम्राज्य के पतन के पश्चात की थी। एक सैन्य कमांडर और प्रभावशाली नेता के रूप में अतातुर्क ने तुर्की को एक धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक और आधुनिक राष्ट्र-राज्य के रूप में आकार देने की परिकल्पना की थी, जो पश्चिमी मूल्यों पर आधारित हो।
अतातुर्क के सुधारों को कमालिज्म कहा जाता है। कमालिज्म का उद्देश्य ओटोमन अतीत और इस्लामी कट्टरता से तुर्की को दूर ले जाना था। उन्होंने धर्मनिरपेक्षता, उदारगणतंत्रवाद और इस्लाम के आधुनिक संस्करण को अपनी विचारधारा का केंद्र बनाया, जो तुर्की की नई पहचान की नींव बनी। इन्हीं कारणों से उन्हें ‘अतातुर्क’ यानी तुर्कों के पिता की उपाधि दी गई।
1925 में हैट क्रांति के तहत, उन्होंने पारंपरिक धार्मिक परिधानों जैसे फेज़, हेडस्कार्फ़ और हिजाब पर प्रतिबंध लगाया। 1926 में उन्होंने स्विट्जरलैंड से प्रेरित नागरिक संहिता लागू की, जिसने इस्लामी कानून की जगह ली। साथ ही उन्होंने जातीयता के आधार पर एकीकृत तुर्की पहचान को भी प्रोत्साहित किया।
20वीं सदी के अधिकांश भाग में तुर्की ने मुस्तफा कमाल अतातुर्क द्वारा स्थापित कमालवादी सिद्धांतों का पालन किया। अतातुर्क की मृत्यु के बाद भी तुर्की की सेना ने धर्मनिरपेक्षता की रक्षा की और यह सुनिश्चित किया कि महजब का राजनीति और सार्वजनिक जीवन में प्रभाव न्यूनतम रहे। अतातुर्क के नेतृत्व और उनके बाद कमालवाद के प्रभाव में तुर्की ने तीव्र औद्योगिकीकरण, आर्थिक विकास और शहरीकरण का अनुभव किया, साथ ही 1952 में नाटो जैसे पश्चिमी गठबंधनों में भी वह शामिल हुआ।
हालाँकि अतातुर्क और उनके विचार इस्लाम के विरोधी नहीं थे और इस्लाम तुर्की में एक सांस्कृतिक शक्ति बना रहा, लेकिन राज्य की नीति यह सुनिश्चित करने की रही कि मजहब सरकारी और सार्वजनिक निर्णयों पर हावी न हो। अतातुर्क के प्रमुख सुधारों में शामिल थे, नागरिक स्वतंत्रता और लोकप्रिय संप्रभुता की स्थापना (1921), खिलाफत का उन्मूलन (1924), धार्मिक मामलों के निदेशालय की स्थापना (1924), अंकारा को नई राजधानी बनाना (1923), प्रेस की स्वतंत्रता को बढ़ावा देना (1925), सरकारी सांख्यिकी और जनगणना विभाग की स्थापना (1926), चर्च और राज्य को अलग करने वाले कदम (1934), महिलाओं की राजनीति में भागीदारी और लैंगिक समानता की शुरुआत (1926 और 1934)।
इसके अतिरिक्त उन्होंने नामकरण प्रणाली में परिवर्तन कर इस्लामी नामों की जगह पश्चिमी शैली के नामों को प्रोत्साहित किया। ग्रेगोरियन कैलेंडर को अपनाया (1925–26), सह-शिक्षा और महिलाओं की शिक्षा को बढ़ावा दिया (1927), और औद्योगीकरण तथा बैंकिंग प्रणाली का विकास किया (1927–1931)। यद्यपि ये सुधार तुर्की को आधुनिकता और प्रगति की ओर ले गए, फिर भी देश के सामाजिक और राजनीतिक ताने-बाने में एक गहरी इस्लामवादी प्रवृत्ति दबे स्वर में बनी रही, जो समय आने पर फिर से उभरने को तत्पर थी।
एर्दोगान, खलीफा का सपना और तुर्की का अपने धर्मनिरपेक्ष आधार से धीरे-धीरे दूर होना
बीते कुछ सालों में तुर्की ने एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र से धीरे-धीरे एक ऐसे राज्य की ओर रुख किया है, जहाँ इस्लामी तत्वों का प्रभाव लगातार बढ़ता जा रहा है। यह परिवर्तन राष्ट्रपति रेसेप तैयप एर्दोगन के नेतृत्व में हुआ है और यह देश के संस्थापक मुस्तफा कमाल अतातुर्क के धर्मनिरपेक्ष और आधुनिक दृष्टिकोण से एक स्पष्ट विचलन को दर्शाता है।
साल 2003 में एर्दोगन के नेतृत्व में न्याय और विकास पार्टी (AKP – अदालत वे कलकिनमा पार्टी) का सत्ता में आना एक निर्णायक मोड़ था। एर्दोगन की राजनीतिक पृष्ठभूमि इस्लामवादी आंदोलनों से जुड़ी रही है, जो ओटोमन साम्राज्य के गौरव को पुनर्जीवित करने और इस्लाम को राज्य नीति में पुनः स्थापित करने की कोशिश करते रहे हैं।
एर्दोगन की जड़ें उन प्रतिबंधित इस्लामवादी पार्टियों में रही हैं जैसे वेलफेयर पार्टी (रेफाह पार्टीसी), जिसे 1998 में देश की धर्मनिरपेक्षता के विरोध में प्रतिबंधित कर दिया गया था। उसकी उत्तराधिकारी सदाचार पार्टी (फाज़िलेत पार्टीसी) को भी इसी कारण बैन कर दिया गया। इन पार्टियों का उद्देश्य तुर्की की धर्मनिरपेक्ष राजनीति में इस्लाम को अधिक सक्रिय भूमिका दिलाना था, एक ऐसा लक्ष्य जो कमालवादी सिद्धांतों के खिलाफ था। एर्दोगन इन्हीं विचारधाराओं से उभरकर सामने आए और आज तुर्की की राजनीति को एक नई दिशा में ले जा रहे हैं, जिसमें मजहब का प्रभाव लगातार बढ़ता दिख रहा है।
इस्लामवादी विचारधारा से प्रेरित एक चतुर और रणनीतिक राजनेता के रूप में रेसेप तैयप एर्दोगन ने अपने इस्लामवादी एजेंडे को आगे बढ़ाने के लिए टकराव से बचने वाली, धीरे-धीरे आगे बढ़ने की नीति अपनाई। उन्होंने तुर्की के धर्मनिरपेक्ष प्रतिष्ठान से सीधे संघर्ष करने के बजाय एक क्रमिक और योजनाबद्ध दृष्टिकोण अपनाया।
राजनीतिक रूप से एक बड़ा आश्चर्य तब हुआ जब एर्दोगन ने इस्तांबुल के मेयर का चुनाव जीत लिया, जबकि उनकी जीत की संभावना बेहद कम मानी जा रही थी। लेकिन 1998 में धार्मिक घृणा फैलाने के आरोप में दोषी पाए जाने के बाद उन्हें अपने पद से इस्तीफा देना पड़ा। यह आरोप उस वक्त लगा जब उन्होंने ज़िया गोकलप की एक कविता का पाठ किया, जिसमें मस्जिदों को सैन्य बैरकों और मुसलमानों को सैनिकों की तरह बताया गया था।
इस मामले में एर्दोगन को 10 महीने की सजा सुनाई गई, जिसमें उन्होंने चार महीने जेल में बिताए। इसके साथ ही उन पर राजनीति में सक्रिय भूमिका निभाने पर प्रतिबंध भी लगा दिया गया। हालाँकि न्याय और विकास पार्टी (AKP) की सरकार, जिसमें उनके सहयोगी और सह-संस्थापक अब्दुल्ला गुल प्रधानमंत्री थे, उन्होंने यह प्रतिबंध हटाया। इससे एर्दोगन को 2003 में सिर्ट प्रांत के उपचुनाव में भाग लेने की अनुमति मिल गई, जहाँ वे विजयी हुए।
उनकी जीत के बाद अब्दुल्ला गुल ने प्रधानमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया और 14 मार्च 2003 को एर्दोगन तुर्की के 25वें प्रधानमंत्री बने। इसके साथ ही तुर्की में धर्मनिरपेक्ष परंपराओं से हटकर एक ‘नव-ओटोमनवादी’ सोच की ओर धीरे-धीरे परिवर्तन की शुरुआत हुई, एक ऐसा युग जिसमें इस्लाम को फिर से सार्वजनिक और राजनीतिक जीवन में प्रमुखता मिलने लगी।
अपने शासन के शुरुआती वर्षों में रेसेप तैयप एर्दोगन ने न्याय और विकास पार्टी (AKP) को एक उदारवादी, लोकतंत्र समर्थक दल के रूप में प्रस्तुत किया, जिसने आर्थिक विकास, पारदर्शी शासन और यूरोपीय संघ में तुर्की के एकीकरण का वादा किया। इन सुधारवादी वादों ने उन्हें व्यापक जनसमर्थन दिलाया। हालांकि, समय बीतने के साथ एर्दोगन की नीतियाँ बदलने लगीं और उनका इस्लामवादी एजेंडा धीरे-धीरे स्पष्ट होता गया।
एक ओर जहाँ उन्होंने आर्थिक विकास और लोकतांत्रिक मूल्यों की बात की, वहीं दूसरी ओर उन्होंने देश में इस्लामी शिक्षा को बढ़ावा दिया, हज़ारों इमामों की नियुक्ति की और अभूतपूर्व स्तर पर मस्जिदों के निर्माण को प्रोत्साहित किया। इन परियोजनाओं में इस्तांबुल की भव्य कैमलिका मस्जिद भी शामिल है। द न्यू यॉर्क टाइम्स की 2017 की एक रिपोर्ट के अनुसार, एर्दोगन के शासनकाल में अब तक लगभग 9,000 मस्जिदों का निर्माण किया जा चुका था, और यह संख्या अब और भी अधिक हो चुकी है।
एर्दोगन ने 2003 से 2014 तक तुर्की के प्रधानमंत्री और 2014 से सीधे निर्वाचित राष्ट्रपति के रूप में कार्य किया है। उनके नेतृत्व में 2015 में एक अंतरराष्ट्रीय मस्जिद-निर्माण कार्यक्रम भी शुरू किया गया, जिसके तहत अल्बानिया, अमेरिका, रूस, किर्गिज़स्तान, फिलीपींस, यूनाइटेड किंगडम, फिलिस्तीनी क्षेत्र और सोमालिया सहित कई देशों में 10 विशाल मस्जिदों का निर्माण कराया गया।
इन कदमों ने न केवल तुर्की के भीतर धार्मिक पहचान को प्रमुखता दी, बल्कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी एर्दोगन की नव-ओटोमनवादी सोच और इस्लामी प्रभाव बढ़ाने की मंशा को उजागर किया।
तुर्की के तेजी से इस्लामीकरण की प्रक्रिया के पीछे राष्ट्रपति रेसेप तैयप एर्दोगन का ओटोमन साम्राज्य के प्रति गहरा लगाव और उस गौरवशाली अतीत को पुनर्जीवित करने की महत्वाकांक्षा प्रमुख कारण रही है। इतिहास में ओटोमन साम्राज्य ने 13वीं शताब्दी से लेकर प्रथम विश्व युद्ध की समाप्ति तक मुस्लिम दुनिया या उम्माह का नेतृत्व किया था। इस साम्राज्य के विघटन के बाद मुस्तफा कमाल अतातुर्क ने एक धर्मनिरपेक्ष तुर्की राज्य की स्थापना की, लेकिन एर्दोगन उस विरासत को उलटकर एक नया इस्लामी नेतृत्व स्थापित करना चाहते हैं। माना जाता है कि वे खुद को आधुनिक खलीफा के रूप में देखना चाहते हैं, एक महत्वाकांक्षा जो 1994 में इस्तांबुल का मेयर पद जीतने की उनकी पहली कोशिश से ही उनके भीतर मौजूद रही है।
देश के भीतर एर्दोगन ने इस्लामवादी एजेंडे को लागू करने के लिए सत्ता को चतुराई से केंद्रीकृत किया। 2016 में एक असफल तख्तापलट के प्रयास से बचने के बाद उन्होंने सेना, न्यायपालिका और शिक्षा व्यवस्था में व्यापक बदलाव किए। धर्मनिरपेक्ष और विरोधी तत्वों को इन संस्थानों से हटाकर उनकी जगह अपने वफादारों को नियुक्त किया गया। इससे उन्हें शासन में पूरी तरह से नियंत्रण स्थापित करने का अवसर मिला।
साथ ही एर्दोगन ने मीडिया की स्वतंत्रता पर भी गंभीर अंकुश लगाए। कई आलोचनात्मक मीडिया आउटलेट्स को या तो बंद कर दिया गया या फिर उन्हें सरकार के नियंत्रण में ले लिया गया। यह कदम न केवल उनकी आलोचना को दबाने के लिए था, बल्कि एक सुसंगत और नियंत्रित खलीफा की छवि को गढ़ने के लिए भी जरूरी था, एक ऐसी छवि जो धार्मिक राष्ट्रवाद और रूढ़िवादी इस्लामवादी मूल्यों को मजबूत करती है।
कुल मिलाकर एर्दोगन की यह रणनीति केवल घरेलू सत्ता मजबूत करने तक सीमित नहीं रही, बल्कि इसका उद्देश्य तुर्की को फिर से इस्लामी दुनिया के नेतृत्व में लाना और ओटोमन साम्राज्य की खोई हुई विरासत को पुनर्स्थापित करना भी रहा है।
एर्दोगन के शासनकाल में तुर्की की शिक्षा प्रणाली में इस्लामवादी एजेंडे को बढ़ावा देने के लिए व्यापक बदलाव किए गए हैं। विशेष रूप से, उनकी सरकार ने इमाम हातिप स्कूलों, जो पारंपरिक रूप से इस्लामी इमामों और उपदेशकों को प्रशिक्षित करने के लिए स्थापित किए गए थे उनको बड़े पैमाने पर वित्तीय समर्थन दिया है।
2018 में राष्ट्रपति एर्दोगन ने स्वयँ इस नीति के पीछे की सोच स्पष्ट करते हुए कहा कि उनका उद्देश्य एक पवित्र पीढ़ी (Religious Generation) तैयार करना है, जो तुर्की में एक ‘नई सभ्यता के निर्माण’ की दिशा में काम करे। यह बयान उनके इस्लामवादी दृष्टिकोण को खुलकर दर्शाता है।
रेउटर्स की 2018 की रिपोर्ट के अनुसार, तुर्की सरकार ने 14 से 18 वर्ष की आयु के छात्रों के लिए इमाम हातिप हाई स्कूलों का बजट दोगुना कर 6.57 बिलियन लीरा (लगभग 1.68 बिलियन डॉलर) तक बढ़ाने की योजना बनाई थी। रिपोर्ट में यह भी बताया गया कि जबकि इमाम हातिप स्कूलों में पढ़ने वाले छात्र तुर्की की कुल हाई स्कूल आबादी का केवल 11 प्रतिशत हैं, फिर भी उन्हें कुल शिक्षा बजट का 23 प्रतिशत हिस्सा मिलता है, यह स्पष्ट करता है कि एर्दोगन सरकार का प्राथमिक ध्यान इन मजहबी स्कूलों पर है।
ये नीतियाँ न केवल शिक्षा प्रणाली का इस्लामीकरण करने की दिशा में हैं, बल्कि तुर्की की युवा पीढ़ी को धार्मिक और रूढ़िवादी मूल्यों की ओर मोड़ने की रणनीति का हिस्सा भी हैं, जो एर्दोगन की नव-ओटोमनवादी और इस्लामी पहचान को पुनः स्थापित करने की व्यापक परियोजना से जुड़ी हुई है।
पिछले कुछ वर्षों में तुर्की के मजहबी मामलों के निदेशालय, डायनेट, का प्रभाव उल्लेखनीय रूप से बढ़ा है। यह संस्थान अब राष्ट्रपति एर्दोगन की इस्लामवादी नीतियों का एक केंद्रीय उपकरण बन चुका है। डायनेट विशेष रूप से सुन्नी इस्लामी पहचान को बढ़ावा देने पर केंद्रित है, जिससे एलेवी जैसे गैर-सुन्नी मुस्लिम समुदायों को सामाजिक और धार्मिक रूप से हाशिए पर डाल दिया गया है। यह प्रवृत्ति तुर्की में धार्मिक एकरूपता और राज्य द्वारा नियंत्रित इस्लाम को सुदृढ़ करने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है।
अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी एर्दोगन की नीतियाँ तेजी से इस्लामी एकजुटता और पश्चिम विरोधी रुख की ओर मुड़ी हैं। 7 अक्टूबर 2023 को इज़राइल और इस्लामिक आतंकी समूह हमास के बीच शुरू हुए युद्ध के बाद तुर्की ने खुलकर फिलिस्तीन का समर्थन किया। इस संघर्ष के जवाब में नवंबर 2024 में राष्ट्रपति एर्दोगन ने घोषणा की कि तुर्की अब इज़रायल के साथ सभी राजनयिक संबंध समाप्त कर रहा है।
उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कहा, “तैयप एर्दोगन के नेतृत्व में तुर्की गणराज्य की सरकार इज़राइल के साथ संबंध जारी नहीं रखेगी या उन्हें विकसित नहीं करेगी। हमारा सत्तारूढ़ गठबंधन इस निर्णय पर अडिग है, और हम भविष्य में भी यही रुख अपनाए रखेंगे।”
इस बयान के साथ एर्दोगन ने यह सुनिश्चित कर दिया कि तुर्की ने इज़राइल के साथ सभी आधिकारिक संबंध समाप्त कर दिए हैं। यह कदम न केवल तुर्की की विदेश नीति में एक महत्वपूर्ण बदलाव है, बल्कि यह एर्दोगन के व्यापक इस्लामवादी दृष्टिकोण और मुस्लिम दुनिया में नेतृत्व की उनकी आकांक्षा को भी दर्शाता है।
एर्दोगन की विस्तारवादी कार्रवाइयाँ इस्लामवाद और मिसक-ए-मिल्ली में निहित हैं
तुर्की को वैश्विक मुस्लिम उम्माह (इस्लामी समुदाय) का नेता बनाने की राष्ट्रपति एर्दोगन की महत्वाकांक्षा ने देश की विदेश नीति को उसके ओटोमन अतीत से गहरे रूप से जोड़ दिया है। यह दृष्टिकोण नव-ओटोमनवाद के रूप में जाना जाता है, जिसमें तुर्की की ऐतिहासिक और सांस्कृतिक सीमाओं को वर्तमान सीमाओं से परे मानते हुए क्षेत्रीय और मजहबी नेतृत्व स्थापित करने की कोशिश की जाती है।
हालाँकि AKP की लगातार चुनावी सफलताओं ने पार्टी नेतृत्व को और अधिक राष्ट्रवादी बना दिया है, फिर भी इस्लामवादी एजेंडे को धीरे-धीरे लागू किया गया। 2007 के चुनाव अभियान के दौरान एर्दोगन ने वादा किया था कि वे सिविल सेवा में महिलाओं पर लगे हेडस्कार्फ़ (हिजाब) प्रतिबंध को हटाएँगे। इस वादे को उन्होंने 2013 में पूरा किया, जब AKP सरकार ने दशकों पुराना यह प्रतिबंध हटा दिया, एक प्रतीकात्मक और वास्तविक रूप से महत्वपूर्ण कदम, जिसने धर्मनिरपेक्ष व्यवस्था की नींव को और अधिक कमजोर किया।
नव-ओटोमनवादी सोच AKP नेतृत्व के अन्य प्रमुख नेताओं में भी स्पष्ट रही है। 2003 में तुर्की के तत्कालीन प्रधानमंत्री और एर्दोगन के करीबी सहयोगी अब्दुल्ला गुल ने खुले तौर पर इस विस्तारवादी विचारधारा की घोषणा की थी। उन्होंने एक धार्मिक स्थल पर कहा, “तुर्की को केवल अनातोलिया तक सीमित नहीं किया जा सकता, इसकी वास्तविक सीमाएँ आधिकारिक सीमाओं से कहीं आगे तक फैली हुई हैं।”
यह बयान स्पष्ट रूप से दिखाता है कि AKP नेतृत्व तुर्की को न केवल एक राष्ट्रीय शक्ति के रूप में, बल्कि एक ऐतिहासिक और धार्मिक नेता के रूप में पुनर्स्थापित करना चाहता है, एक ऐसा दृष्टिकोण जो धार्मिक पहचान, क्षेत्रीय प्रभाव और ओटोमन विरासत को समेटे हुए है।
तुर्की के नव-ओटोमनवादी दृष्टिकोण के तहत, बाल्कन, मध्य पूर्व और मध्य एशिया को देश की विदेश नीति में ‘सीधे चिंता के क्षेत्र’ के रूप में देखा जाता है। तुर्की के पूर्व प्रधानमंत्री अब्दुल्ला गुल ने स्पष्ट रूप से कहा था कि ‘तुर्की को केवल अनातोलिया के भीतर सीमित नहीं किया जा सकता’। उन्होंने 1920 की मिसाक-ए-मिली (राष्ट्रीय संधि) का हवाला दिया, यह ओटोमन युग का एक क्षेत्रीय दावा था, जिसके तहत तुर्की की सीमाओं को सीरिया और इराक तक विस्तारित माना गया था। इस दावे वाले क्षेत्रों में कुर्द, अरब, सीरियाई, असीरियन, अर्मेनियाई, तुर्कमेन और अन्य जातीय समुदायों का मिश्रण निवास करता है।
यह विस्तारवादी सोच बाद की घटनाओं में भी स्पष्ट रूप से झलकती है, 2011 में जब अरब दुनिया में हिंसा और अराजकता फैल रही थी, विशेष रूप से सीरिया में तो तुर्की ने इसे हस्तक्षेप का अवसर माना। नव-ओटोमनवादियों के अनुसार, सीरिया मिसाक-ए-मिली के दायरे में आता है और इसलिए उसके घटनाक्रम तुर्की के लिए घरेलू महत्व रखते हैं। इस सोच को राष्ट्रपति एर्दोगन ने 8 अगस्त 2011 को खुले तौर पर स्वीकार किया जब उन्होंने कहा, “सीरिया हमारे लिए एक विदेशी मुद्दा नहीं है, हम इसे एक घरेलू मामला मानते हैं।”
यह बयान न केवल तुर्की की सीरिया नीति को वैध ठहराने का प्रयास था, बल्कि यह भी दर्शाता है कि एर्दोगन सरकार ओटोमन साम्राज्य की सीमाओं और प्रभाव क्षेत्र को आधुनिक तुर्की की विदेश नीति का आधार बनाना चाहती है।
राष्ट्रपति एर्दोगन की नव-ओटोमनवादी नीति के तहत तुर्की न केवल सीरिया में सैन्य और राजनीतिक रूप से हस्तक्षेप कर रहा है, बल्कि वह सीरियाई शरणार्थियों को तुर्की की नागरिकता भी प्रदान कर रहा है। इस कदम को वैध ठहराते हुए, 2019 में तत्कालीन गृह मंत्री सुलेमान सोयलू ने कहा था, “वे मिसाक-ए मिल्ली की सीमाओं के भीतर की भूमि से आते हैं, जो उन्हें तुर्क बनने का एक उचित दावा देता है।”
यह बयान दर्शाता है कि तुर्की सरकार सीरियाई शरणार्थियों को केवल मानवीय संकट के तहत नहीं, बल्कि ऐतिहासिक और वैचारिक तर्कों के आधार पर तुर्की की सामाजिक संरचना में शामिल कर रही है।
सीरिया में एर्दोगन सरकार ने बशर अल-असद शासन के खिलाफ सैन्य हस्तक्षेप किया और सीरियन नेशनल आर्मी जैसे असद विरोधी समूहों का समर्थन किया। तुर्की ने इन प्रॉक्सी बलों के ज़रिए देश में अपने प्रभाव का विस्तार किया है और उत्तरी सीरिया के कई महत्वपूर्ण शहरों, जैसे जाराब्लस, अल-बाब, अज़ाज़, अफ़रीन, रास अल-ऐन (सेरे कनिये) और तेल अब्याद (गिरे स्पी) पर नियंत्रण स्थापित कर लिया है।
इसके अलावा तुर्की ने इन क्षेत्रों में स्थायी सैन्य उपस्थिति सुनिश्चित करने के लिए सैन्य अड्डे स्थापित करने की भी योजना बनाई है। यह रणनीति न केवल सीरिया में तुर्की के भू-राजनीतिक प्रभाव को मजबूत करती है, बल्कि यह भी दर्शाती है कि एर्दोगन शासन मिसाक-ए मिल्ली की अवधारणा को 21वीं सदी की नीतियों में सक्रिय रूप से लागू कर रहा है।
एर्दोगन के राजनीतिक जीवन का एक सबसे विवादास्पद और आलोचना से भरा पहलू तुर्की में कुर्दों के दमन से जुड़ा है। आतंकवाद से लड़ने के नाम पर उनकी सरकार ने कुर्द कार्यकर्ताओं, राजनेताओं और मीडिया संस्थानों को व्यवस्थित रूप से निशाना बनाया है। इसमें मनमानी गिरफ्तारियाँ, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर कठोर प्रतिबंध, और निर्वाचित कुर्द अधिकारियों को उनके पदों से बर्खास्त करना शामिल है। ये कार्रवाइयाँ तुर्की के लोकतांत्रिक ढाँचे और मानवाधिकारों पर गंभीर सवाल खड़े करती हैं।
हाल ही में एर्दोगन ने इस्तांबुल में सीरिया के अंतरिम राष्ट्रपति अहमद अल-शारा से मुलाकात की। शारा पूर्व में अल-कायदा से जुड़े रहे हैं और अब सीरियन नेशनल आर्मी के प्रमुख नेता माने जाते हैं, जिसे तुर्की समर्थन देता है। इस बैठक में शारा ने सीरिया पर लगे पश्चिमी प्रतिबंधों को हटवाने में मदद करने के लिए एर्दोगन को धन्यवाद दिया।
गौर करने वाली बात यह है कि मार्च 2025 में अहमद अल-शारा ने एक अनंतिम संविधान पर हस्ताक्षर किए, जिसने सीरिया को एक इस्लामवादी शासन के अधीन कर दिया। हालाँकि संविधान में यह दावा किया गया कि संक्रमण काल के दौरान पाँच वर्षों तक सभी सीरियाई नागरिकों के अधिकारों की रक्षा की जाएगी, लेकिन संविधान का इस्लामवादी स्वरूप चिंता का विषय बना हुआ है।
इन घटनाओं से स्पष्ट होता है कि एर्दोगन न केवल घरेलू स्तर पर कुर्द विरोधी अभियान चला रहे हैं, बल्कि क्षेत्रीय स्तर पर भी ऐसे इस्लामवादी गुटों और नेताओं का समर्थन कर रहे हैं, जिनका इतिहास अतिवाद से जुड़ा रहा है। यह दोहरा रवैया तुर्की की लोकतांत्रिक छवि को लगातार कमजोर करता जा रहा है।
दिसंबर 2024 में अल-कायदा से संबद्ध कट्टरपंथी सुन्नी संगठन हयात तहरीर अल-शाम (HTS) ने सीरियाई राष्ट्रपति बशर अल-असद की 24 साल पुरानी तानाशाही के खिलाफ एक सशस्त्र विद्रोह का नेतृत्व किया। इस विद्रोह के चलते सीरिया की सरकार के लिए देश के बड़े हिस्सों पर नियंत्रण बनाए रखना चुनौतीपूर्ण हो गया है।
यह स्थिति एर्दोगन सरकार के लिए रणनीतिक रूप से फायदेमंद साबित हुई है, क्योंकि तुर्की का उद्देश्य लंबे समय से मुस्लिम उम्माह को एकजुट करना और खुद को उसका नेता स्थापित करना रहा है। HTS जैसे समूहों के उभार से सीरिया में सत्ता अस्थिर हुई है, जिससे तुर्की को क्षेत्रीय प्रभाव बढ़ाने का अवसर मिला है।
हालाँकि सीरिया अभी संक्रमणकालीन चरण में है, लेकिन तुर्की और सीरिया के बीच कई द्विपक्षीय समझौतों पर हस्ताक्षर की तैयारी चल रही है। इन प्रस्तावित सौदों में गैस और बिजली के निर्यात जैसे आर्थिक सहयोग शामिल हैं, जो यह संकेत देते हैं कि एर्दोगन शासन न केवल राजनीतिक रूप से, बल्कि आर्थिक रूप से भी सीरिया पर अपना प्रभाव जमाने की दिशा में सक्रिय है।
यह घटनाक्रम एर्दोगन की नव-ओटोमनवादी और इस्लामवादी विदेश नीति के व्यापक एजेंडे का हिस्सा है, जिसमें तुर्की को मुस्लिम विश्व का केंद्र बनाने की दीर्घकालिक रणनीति स्पष्ट रूप से झलकती है।
एर्दोगन की इस्लामवादी और नव-ओटोमनवादी नीतियों का विस्तार इराक और लीबिया तक भी पहुँच चुका है। 2016 में उन्होंने मोसुल पर तुर्की का दावा पेश करते हुए सेल्जुक और ओटोमन इतिहास तथा मिसाक-ए-मिल्ली (1920 की राष्ट्रीय संधि) का हवाला दिया, यह तुर्की की ऐतिहासिक सीमाओं को पुनः परिभाषित करने की एक और कोशिश थी।
इसके अलावा तुर्की ने इराक के कुर्दिस्तानक्षेत्र में सैन्य अड्डों की स्थापना के ज़रिए वहाँ अपनी स्थायी सैन्य उपस्थिति बढ़ाई है। यह कदम आधिकारिक तौर पर राष्ट्रीय सुरक्षा के नाम पर उठाया गया, लेकिन वास्तव में यह तुर्की की क्षेत्रीय विस्तारवाद की रणनीति का हिस्सा है, जिसका मकसद कुर्द गतिविधियों को दबाना और क्षेत्र पर रणनीतिक पकड़ मजबूत करना है।
तुर्की की यही आक्रामक विदेश नीति लीबिया में भी देखने को मिली। अगस्त 2024 में तुर्की और लीबिया की संसदों के बीच एक समझौता ज्ञापन (MoU) पर हस्ताक्षर हुआ, जिसने तुर्की की सेना को लीबिया में व्यापक सैन्य परिचालन स्वतंत्रता और कानूनी संरक्षण प्रदान किया। यह तुर्की को लीबिया में सैन्य और राजनीतिक रूप से गहरी पकड़ बनाने की अनुमति देता है।
इसके साथ ही एर्दोगन सरकार का मुस्लिम ब्रदरहुड जैसे इस्लामी संगठनों और जिहादी गतिविधियों के साथ स्पष्ट और सार्वजनिक जुड़ाव यह दिखाता है कि तुर्की अब इस्लामवादी कारणों के लिए अपने समर्थन को छिपाने की ज़रूरत नहीं समझता। यह सब मिलाकर एर्दोगन की सरकार की उस व्यापक रणनीति को दर्शाता है, जिसका उद्देश्य तुर्की को मुस्लिम दुनिया का केंद्र और इस्लामी नेतृत्व का ध्वजवाहक बनाना है।
यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि तुर्की के पड़ोसी देशों ग्रीस, आर्मेनिया और साइप्रस के साथ उसके लंबे समय से चले आ रहे तनावपूर्ण संबंध एर्दोगन के शासनकाल में और भी अधिक उग्र हो गए हैं। जनवरी 2024 में, एकेपी की बैठक को संबोधित करते हुए राष्ट्रपति एर्दोगन ने एक भड़काऊ बयान देते हुए कहा, “हमारा संघर्ष दुश्मनों (यूनानियों) को हमारी भूमि से खदेड़ने और उन्हें इज़मिर से समुद्र में फेंकने के साथ समाप्त नहीं हुआ है।”
यह बयान सीधे तौर पर 1922 के स्मिर्ना (अब इज़मिर) नरसंहार की ओर इशारा करता है, जिसमें तुर्की सेना द्वारा अनातोलिया में 1 लाख से अधिक ग्रीक ईसाई और कई अर्मेनियाई नागरिकों की हत्या कर दी गई थी। यह घटना उस समय की त्रासदी का प्रतीक मानी जाती है जब ओटोमन साम्राज्य के पतन के बाद तुर्क राष्ट्रवाद और जातीय हिंसा ने चरम रूप लिया था।
चौंकाने वाली बात यह है कि एर्दोगन ने न केवल इस इतिहास को संदर्भित किया, बल्कि उसकी प्रशंसा भी की। तुर्की के कई इस्लामवादी गुट आज भी ‘यूनानियों को समुद्र में फेंकने’ की इस ऐतिहासिक घटना को गर्व की बात मानते हैं, एक ऐसा रवैया जो क्षेत्रीय तनावों को भड़काने और पड़ोसी देशों के साथ शांति प्रयासों को कमजोर करने का कार्य करता है।
इस प्रकार एर्दोगन का बयान न केवल अतीत की विभाजनकारी राजनीति को पुनर्जीवित करता है, बल्कि यह दिखाता है कि उनकी सरकार राष्ट्रवादी-इस्लामवादी विचारधारा को क्षेत्रीय शक्ति-प्रदर्शन और ऐतिहासिक प्रतिशोध के उपकरण के रूप में इस्तेमाल कर रही है।
तुर्की की क्षेत्रीय विस्तारवादी नीतियों के तहत, एजियन सागर में भी विवाद गहराता जा रहा है। तुर्की 152 द्वीपों और टापुओं पर दावा कर रहा है, जिन्हें अंतरराष्ट्रीय समझौतों के तहत ग्रीस को सौंपा गया था, विशेष रूप से 1923 की लॉज़ेन संधि, 1932 में तुर्की और इटली के बीच हुआ समझौता और 1947 की पेरिस संधि। इन दावों ने तुर्की और ग्रीस के बीच तनाव को और बढ़ा दिया है।
इसी तरह एर्दोगन आर्मेनिया के खिलाफ़ इस्लामिक राष्ट्र अज़रबैजान का खुलकर समर्थन करते हैं। जबकि अज़रबैजान ने 2020 से अब तक लगभग 215 वर्ग किलोमीटर (83 वर्ग मील) अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मान्यता प्राप्त अर्मेनियाई क्षेत्र पर कब्जा किया हुआ है, एर्दोगन ने इस आक्रामकता को खुला समर्थन दिया।
पिछले साल एर्दोगन ने 2020 के दूसरे नागोर्नो-करबाख युद्ध में अज़रबैजान की जीत का श्रेय स्वयं को देते हुए कहा कि तुर्की के समर्थन से ही यह जीत संभव हुई। हालाँकि अज़रबैजान ने एर्दोगन के इस दावे पर कड़ी आपत्ति जताई, क्योंकि वह इसे घरेलू राजनीति में तुर्की की छवि चमकाने का प्रयास मानता है।
यह सब मिलाकर दिखाता है कि एर्दोगन की ‘खलीफा’ बनने की महत्वाकांक्षा और नव-ओटोमनवादी सोच तुर्की की विदेश नीति को आक्रामक बना रही है, चाहे वह ग्रीस के साथ समुद्री सीमा विवाद हो या दक्षिण काकेशस में अज़रबैजान और आर्मेनिया के बीच जारी संघर्ष में धार्मिक और राजनीतिक पक्षपात है।
तुर्की ने भारत के खिलाफ आतंकवाद को बढ़ावा देने वाले पाकिस्तान का समर्थन किया
खुद को मुस्लिम उम्माह का नेता स्थापित करने और इस्लामी दुनिया में तुर्की के प्रभाव को मजबूत करने की महत्वाकांक्षा के चलते राष्ट्रपति रेसेप तैयप एर्दोगन ने ऐतिहासिक रूप से भारत के खिलाफ पाकिस्तान का खुलकर समर्थन किया है। यह समर्थन उस स्थिति में भी बना रहा है जब पाकिस्तान के खिलाफ वर्षों से यह दस्तावेजी प्रमाण मौजूद हैं कि वह सीमा पार जिहादी आतंकवाद को संगठित रूप से प्रायोजित करता है।
एर्दोगन की सरकार ने अंतरराष्ट्रीय मंचों, विशेषकर संयुक्त राष्ट्र और ओआईसी (इस्लामिक सहयोग संगठन) में, कश्मीर मुद्दे पर पाकिस्तान के पक्ष को आगे बढ़ाने की बार-बार कोशिश की है। तुर्की की यह रणनीति भारत की संप्रभुता के खिलाफ जाती है और इस्लामवादी एकता के नाम पर जिहादी नैरेटिव को वैधता देने का काम करती है।
इसके अलावा तुर्की ने पाकिस्तान को हथियारों और सैन्य तकनीक की आपूर्ति कर उसे रणनीतिक रूप से सशक्त किया है। इस सहयोग में ड्रोन, रक्षा उपकरण और सैन्य प्रशिक्षण शामिल हैं। यह साझेदारी एर्दोगन की उस सोच को दर्शाती है, जिसमें वह एक ओटोमन-शैली की खिलाफत को पुनर्जीवित करने के आत्मघोषित मिशन पर हैं।
इस्लामी आतंकवाद को राज्य नीति के रूप में उपयोग करने वाले देश के साथ गठबंधन कर एर्दोगन यह संकेत देते हैं कि उनका उद्देश्य केवल तुर्की की सीमाओं तक सीमित नहीं है, बल्कि वे खुद को एक वैश्विक इस्लामी नेता के रूप में स्थापित करने की कोशिश कर रहे हैं, भले ही इसके लिए उन्हें कट्टरपंथी और आतंकवाद-समर्थक तत्वों के साथ खड़ा क्यों न होना पड़े।
कश्मीर मुद्दे पर पाकिस्तान के बयानों का समर्थन करने से आगे बढ़कर तुर्की ने भारत के खिलाफ आतंकी हमलों के संदर्भ में भी बार-बार पाकिस्तान का पक्ष लिया है। इसमें 2016 काउरी हमला, 2019 का पुलवामा आत्मघाती हमला और हालिया 2025 का पहलगाम हमला शामिल हैं, तीनों हमले पाकिस्तान-प्रायोजित आतंकवाद से जुड़े रहे हैं। इन घटनाओं के बावजूद, एर्दोगन सरकार ने खुलेआम पाकिस्तान का समर्थन किया, जिससे उसकी इस्लामवादी प्राथमिकताएँ और रणनीति उजागर होती है।
साल 2019 में जब भारत ने जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 और 35A को निरस्त किया, तब तुर्की के मीडिया और सरकारी संस्थानों ने पाकिस्तान के झूठे दावों और दुष्प्रचार को बढ़ावा दिया। इस कदम को भारत का आंतरिक मामला मानने के बजाय, तुर्की ने पाकिस्तान के इस्लामी नैरेटिव का समर्थन किया, जिससे यह साफ हुआ कि एर्दोगन सरकार कश्मीर को मुस्लिम उम्माह के मुद्दे के रूप में पेश करने की कोशिश कर रही है।
इसी तरह पुलवामा हमले के बाद जब भारत ने पाकिस्तान के बालाकोट में आतंकी ठिकानों पर एयरस्ट्राइक की, तब भी तुर्की ने आतंकवाद के खिलाफ भारत की कार्रवाई की आलोचना करते हुए पाकिस्तान का पक्ष लिया।
इस तरह का लगातार समर्थन यह दर्शाता है कि एर्दोगन अपने वैश्विक इस्लामी नेतृत्व की आकांक्षा को साकार करने के लिए ऐसे देशों के साथ भी गठबंधन करने को तैयार हैं जिनका आतंकवाद को समर्थन, वित्तपोषण और संरक्षण देने का स्पष्ट इतिहास रहा है। तुर्की की यह विदेश नीति भारत विरोधी रुख के साथ-साथ इस्लामवादी एजेंडे को भी मजबूती से आगे बढ़ाती है।
पाकिस्तान को तुर्की का धार्मिक और वैचारिक समर्थन अब केवल राजनीतिक या कूटनीतिक सीमाओं तक सीमित नहीं रह गया है, बल्कि यह सैन्य सहयोग और आक्रामकता के क्षेत्र में भी प्रवेश कर चुका है। तुर्की अब पाकिस्तान को भारत के खिलाफ इस्तेमाल की जाने वाली घातक हवाई सैन्य संपत्तियाँ, विशेष रूप से ड्रोन और उन्नत हथियार प्रणाली, सक्रिय रूप से प्रदान कर रहा है।
केवल हथियार ही नहीं, रिपोर्टों के अनुसार – तुर्की के सैन्य सलाहकार भी पाकिस्तानी सेना के साथ मिलकर इन ड्रोन और हवाई संपत्तियों का भारतके खिलाफ रणनीतिक रूप से उपयोग शामिल रहे हैं। भारत द्वारा की गई जवाबी कार्रवाई में कथित रूप से दो तुर्की ड्रोन ऑपरेटर मारे गए, जिससे यह स्पष्ट हुआ कि तुर्की न केवल पाकिस्तान का समर्थक है, बल्कि सैन्य संघर्ष में भी उसकी सहभागीता है।
इसके अलावा, संघर्ष के दौरान तुर्की की सैन्य गतिविधियाँ और भी उजागर हुईं, जहाँ कराची हवाई अड्डे पर 27 अप्रैल, 2025 को तुर्की का एक विमान C-130 हरक्यूलिस सैन्य परिवहन विमान उतरा, जो संभावित रूप से हथियार और सैन्य सामग्री लेकर आया था। यह घटना पहलगाम आतंकी हमले के बाद भारत की संभावित जवाबी कार्रवाई की आशंका से जुड़ा माना जा रहा है।
इसके अलावा 2 मई, 2025 को कराची बंदरगाह पर एक तुर्की Ada-Class एंटी-सबमरीन कोरवेट ने भी डॉक किया, जो तुर्की की नौसैनिक भागीदारी और क्षेत्रीय सैन्य सहयोग का संकेत देता है। इन घटनाओं से यह स्पष्ट होता है कि एर्दोगन की तुर्की सरकार न केवल वैचारिक रूप से भारत विरोधी रुख अपनाए हुए है, बल्कि वह जमीनी और सामरिक स्तर पर भी पाकिस्तान के साथ मिलकर भारत के खिलाफ सैन्य गतिविधियों को बढ़ावा दे रही है। यह तुर्की-पाकिस्तान गठजोड़ भारत की सुरक्षा के लिए एक गंभीर चुनौती बनता जा रहा है।
तुर्की के राष्ट्रपति रेसेप तैयप एर्दोगन ने रविवार (25 मई 2025) को इस्तांबुल में पाकिस्तान के प्रधानमंत्री शहबाज शरीफ से मुलाकात की, जिसमें दोनों नेताओं ने विशेष रूप से रक्षा, ऊर्जा और परिवहन क्षेत्रों में सहयोग को बढ़ावा देने पर सहमति जताई। यह साझेदारी ऐसे समय में हो रही है जब भारत और पाकिस्तान के बीच तनाव चरम पर है, और पाकिस्तान लगातार भारत-विरोधी गतिविधियों में शामिल पाया गया है।
विडंबना यह है कि एर्दोगन के कार्यालय ने इस बैठक के बाद बयान दिया कि तुर्की आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई में पाकिस्तान के साथ सहयोग करेगा। वही पाकिस्तान जहाँ, संयुक्त राष्ट्र द्वारा नामित और प्रतिबंधित आतंकवादी हाफिज अब्दुर रऊफ खुलेआम भारत द्वारा मारे गए आतंकवादियों के अंतिम संस्कार करता है, जबकि पाकिस्तानी सैनिक वहाँ मौजूद रहते हैं। संयुक्त राष्ट्र द्वारा प्रतिबंधित एक अन्य आतंकवादी के बेटे को पाकिस्तानी आँड (आर्म्ड) फोर्सेस के PR विंग के डीजी के रूप में नियुक्त किया गया है।
इससे पहले, जब भारत ने 100 से अधिक आतंकवादियों को मार गिराया था, तो एर्दोगन ने पाकिस्तान के प्रति एकजुटता जताते हुए कहा “मैं हमलों में जान गँवाने वाले हमारे भाइयों के लिए अल्लाह से दया की प्रार्थना करता हूँ और पाकिस्तान के भाईचारे वाले लोगों और उनकी सरकार के प्रति अपनी संवेदना व्यक्त करता हूँ।”
एर्दोगन का यह रुख स्पष्ट रूप से दिखाता है कि तुर्की, एक ओर तो आतंकवाद विरोधी सहयोग की बात करता है और दूसरी ओर ऐसे देश का समर्थन करता है जो खुद आतंकवादियों को आश्रय और सम्मानदेता है। इस तरह तुर्की की विदेश नीति उसकी इस्लामवादी प्राथमिकताओं और भारत विरोधी झुकाव को उजागर करती है।
यह अब स्पष्ट हो चुका है कि रेसेप तैयप एर्दोगन का पाकिस्तान के प्रति मजबूत समर्थन उनके व्यापक इस्लामवादी एजेंडे और मुस्लिम उम्माह के नेता बनने की महत्वाकांक्षा से जुड़ा हुआ है। एर्दोगन खुद को एक आधुनिक खलीफा के रूप में प्रस्तुत करते हैं, जो ओटोमन शैली के इस्लामी साम्राज्य का पुनरुत्थान करना चाहता है।
उन्होंने न केवल अतातुर्क की धर्मनिरपेक्ष विरासत से दूरी बना ली है, बल्कि तुर्की को एकउचित इस्लामी राष्ट्र में रूपांतरित करने के लिए घरेलू नीतियों में व्यापक इस्लामीकरण भी किया है। इसके साथ ही, एर्दोगन इस्लामी दुनिया में प्रभाव और नेतृत्व हासिल करने के उद्देश्य से मुस्लिम राष्ट्रोंके समर्थन को बयानबाजी और रणनीतिक कार्रवाइयों के ज़रिए जुटा रहे हैं।
हालाँकि, पारंपरिक रूप से सऊदी अरब को मुस्लिम उम्माह का नेता माना जाता रहा है, एर्दोगन ने पाकिस्तान के साथ गठजोड़ करके एक वैकल्पिक नेतृत्व केंद्र की भूमिका निभाने का प्रयास किया है। लेकिन पाकिस्तान को खुला समर्थन दिया है, भारत में तीव्र आक्रोश का कारण बना है, खासकर आतंकवाद के संदर्भ में, और साथ ही, एक नाटो सदस्य के रूप में तुर्की की विश्वसनीयता और उसकी प्रतिबद्धताओं पर भी गंभीर सवाल खड़े किए हैं। इस तरह, एर्दोगन की नीतियाँ तुर्की की परंपरागत धर्मनिरपेक्षपहचान से इस्लामी विस्तारवाद की दिशा में एक सुनियोजित परिवर्तन का संकेत देती हैं।
लोकतांत्रिक वैधता की आड़ में, राष्ट्रपति रेसेप तैयप एर्दोगन ने इस्लामवाद, लोकलुभावन राष्ट्रवाद, और ओटोमन साम्राज्य के गौरवशाली अतीत के पुनरुद्धार की विचारधारा को बढ़ावा देते हुए एक विशिष्ट इस्लामवादी शासन मॉडल विकसित किया है। उनके नेतृत्व में तुर्की धीरे-धीरे मुस्तफा कमाल अतातुर्क के धर्मनिरपेक्ष दृष्टिकोण से इस्लामी राष्ट्रवाद की दिशा में बढ़ता गया है।
एर्दोगन की नीति तीन प्रमुख पहलुओं में स्पष्ट होती है, आतंक-प्रायोजक पाकिस्तान के लिए निरंतर समर्थन दिया भले ही पाकिस्तान अंतरराष्ट्रीय मंचों पर जिहादी आतंकवाद से जुड़ा रहा हो, एर्दोगन ने उसे राजनयिक, रक्षा और वैचारिक समर्थन दिया है, जिससे भारत और कई अन्य देशों के साथ तुर्की के संबंधों में तनाव बढ़ा है।
तुर्की के भीतर धर्मनिरपेक्ष और असहमत आवाज़ों का दमन सेना, न्यायपालिका, मीडिया और शिक्षा संस्थानों में इस्लामवादियों की नियुक्ति और आलोचनात्मक संस्थानों को बंद करना, देश की धर्मनिरपेक्ष पहचान पर सीधा हमला है। वही एक आधुनिक ‘खलीफा’ और नव-ओटोमन साम्राज्य की वैश्विक महत्वाकांक्षा एर्दोगन खुद को मुस्लिम उम्माह के नेता के रूप में स्थापित करना चाहते हैं, जिससे वे पारंपरिक रूप से सऊदी अरब द्वारा निभाई गई भूमिका को चुनौती दे रहे हैं। इस तरह की नीतियाँ न केवल तुर्की की धर्मनिरपेक्ष विरासत का गंभीर क्षरण हैं, बल्कि देश को राजनयिक अलगाव, क्षेत्रीय संघर्ष, और भविष्य में सैन्य टकराव की दिशा में भी धकेल सकती हैं।
यह खबर मूल रूप से अंग्रेजी में श्रद्धा पांडे ने लिखी है, जिसको पढ़ने के लिए इस लिंक पर क्लिक करे।