भारतीय उपमहाद्वीप एक बार फिर अशांत हो गया है। बांग्लादेश के कुछ महीनों के बाद भारत के दूसरे मित्रवत देश नेपाल में जनता का एक बड़ा तबका सड़कों पर है। राजधानी काठमांडू तक में कर्फ्यू लगाना पड़ा है। बीते लगभग तीन दशक से लगातार अशांति झेल रहे नेपाल में लाखों की भीड़ हिन्दू राजशाही को वापस लाने की माँग कर रही है। उसकी माँग है कि नेपाल को वापस हिन्दू राष्ट्र घोषित किया जाए। लोकतंत्र के लगभग डेढ़ दशक के प्रयोग के बाद नेपाल फिर से उसी दोराहे पर खड़ा है, जहाँ से वह 1980 के दशक के अंत में चला था।
नेपाल में बीते तीन-चार दशकों से मची इस अशांति का फायदा चीन, अमेरिका, ईसाई मिशनरियों और इस्लामी कट्टरपंथियों को मजबूत करके पाकिस्तान ने उठाया है। नेपाल का उसके हिन्दू मूल से अलगाव करके लगातार तोड़ने के प्रयास किए जाते रहे हैं। भारत के भी कुछ नेता नेपाल को इस स्थिति में धकेलने के लिए जिम्मेदार हैं। नेपाल की हिन्दू जनता अब इस स्थिति में है कि उसे लोकतंत्र की बजाय वापस राजशाही और हिन्दू राष्ट्र बनाए जाने की माँग कर रहे हैं।
राजीव गाँधी ने किया नेपाल की राजशाही को खोखला
नेपाल में वर्ष 2008 में हिन्दू राजशाही का अंत हो गया था। राजा ज्ञानेन्द्र शाह को 2008 में अपनी गद्दी छोड़नी थी। इससे पहले वामपंथियों ने लगभग एक दशक नेपाल में खूब खून बहाया था। इसी के साथ 2008 में नेपाल की लगभग ढाई सदियों पुरानी राजशाही का अंत हो गया था।
हालाँकि, नेपाल की राजशाही की अंत की कथा लगभग इससे 20 वर्ष पहले ही लिखी जाने लगी थी। भले ही बाद में नेपाल में राजशाही वामपंथियों के आंदोलन ने खत्म की हो, इसके बीज भारत के प्रधानमंत्री रहने के दौरान राजीव गाँधी ने बो दिए थे। उनके एक कदम से ही नेपाल और भारत की दूरी बढ़ी, जिसे आज तक नहीं भरा जा सका है।
1980 के दशक के अंत तक नेपाल और भारत के रिश्ते मजबूत थे। सीमा को लेकर विवाद भी विशेष नहीं था। लाखों नेपाली भारत में काम करते थे। नेपाल अपनी किसी भी जरूरत के लिए भारत पर निर्भर था। भारत नेपाल को उत्पादों की सप्लाई करने में लगभग एकाधिकार की स्थिति रखता था।
80 के दशक का अंत होते-होते यह स्थितियाँ बदल गईं। राजीव गाँधी ने वर्ष 1989 में नेपाल को हर चीज की आपूर्ति रोक दी थी। भारत ने नेपाल को जाने वाले 21 में से 19 रास्तों को बंद किया था। तेल से लेकर राशन तक की नेपाल के लिए नाकाबंदी कर दी गई थी। नेपाल में इसके बाद तेल और खाने-पीने की भारी समस्या हो गई थी।
नेपाल में केरोसिन के लिए तक लंबी-लंबी लाइनें लग गई थीं। यह कदम राजीव गाँधी ने तब उठाया था जब नेपाल में कुछ ही दिन पहले रिक्टर स्केल पर 7 से अधिक तीव्रता वाला भूकंप आया था। तब राजीव गाँधी के इस कदम दो कारण बताए गए थे।
एक कारण तब नेपाल का चीन के हथियारों का एक सौदा करना बताया गया था। भारत का पक्ष रखने वालों ने कहा था कि यह उनकी सुरक्षा के लिए खतरा है और वह ऐसा नहीं होने दे सकते। वहीं दूसरा कारण नेपाल के साथ आवागमन के लिए किए गए समझौतों के खत्म होने का बताया गया था।
इन सबके चलते नेपाल में तब राज कर रहे राजा बीरेन्द्र बिक्रम शाह की भारत से ठन गई थी। यह नाकाबंदी एक वर्ष तक चली थी और इस दौरान नेपाल को भारी समस्याएँ झेलनी पड़ी थीं। नेपाल और राजा महेन्द्र के साथ इस सलूक के पीछे एक और कहानी बताई जाती है।

कहा जाता है कि 1988 में तब प्रधानमंत्री राजीव गाँधी पत्नी सोनिया गाँधी के साथ नेपाल गए थे। यहाँ राजीव गाँधी काठमांडू स्थित पशुपतिनाथ मंदिर भी पहुँचे थे। लेकिन यहाँ के पुजारियों ने उनकी पत्नी सोनिया गाँधी को मदिर में प्रवेश की अनुमति देने से इनकार कर दिया था।
कहा जाता है कि यह सोनिया गाँधी के ईसाई होने के चलते कहा गया था। राजीव गाँधी ने इसके बाद राजा महेन्द्र से विषय में मदद माँगी थी। राजा महेन्द्र ने भी इस पर कोई मदद करने से इनकार कर दिया था और कहा था कि वह धार्मिक मामलों में कोई दखल नहीं दे सकते। बताते हैं कि रानी ऐश्वर्या भी सोनिया के मंदिर के भीतर जाने के विरुद्ध थीं।
When Rajiv Gandhi visited Nepal,Sonia Gandhi was not allowed into Pashupatinath Temple because she is Xtian. Even the King could not help. Rajiv imposed a blockade on Nepal to avenge this ‘slight’. This was the point when Nepal began to turn against India. @Swamy39 on @NewsX
— Tathagata Roy (@tathagata2) June 11, 2020
यह बात भाजपा नेता सुब्रमण्यम स्वामी के हवाले से तथागत रॉय ने बताई थी। बताते हैं कि नेपाल में सोनिया को मंदिर में ना घुसने देने के चलते राजीव नाराज हो गए और भारत वापस आने के बाद उन्होंने नेपाल से राजशाही उखाड़ फेंकने के लिए कदम बढ़ाए। यह नाकाबंदी उसी का एक हिस्सा था।
राजीव गाँधी ने इसके साथ ही नेपाल के राजा के खिलाफ पार्टियों को इकट्ठा करने के लिए भी ‘रिसर्च एंड एनालिसिस विंग’ को लगा दिया। R&AW के स्पेशल डायरेक्टर रहे अमर भूषण ने अपनी किताब ‘इनसाइड नेपाल’ में बताया है कि राजीव गाँधी के आदेश पर R&AW ने नेपाल में राजा के खिलाफ चल रहे आंदोलन को मजबूत कर दिया।
इसके लिए तमाम जासूस भी भर्ती किए गए थे। जिस समय राजीव गाँधी ने नेपाल के खिलाफ नाकाबंदी लगाई, उसी समय नेपाल में राजा की शक्तियाँ कम करने और राजनीतिक पार्टियाँ संचालित करने पर लगे प्रतिबंध हटाने के लिए आंदोलन चल रहा था। जब नाकाबंदी हुई तो जनता और भड़क गई।
नेपाल की जनता और छात्र भारत के खिलाफ तो गुस्सा थे ही, वह राजा बीरेन्द्र शाह के भी खिलाफ हो गए। इन्हें R&AW ने इसी दौरान संगठित कर लिया। R&AW ने इस दौरान नेपाली कॉन्ग्रेस पार्टी और कम्युनिस्टों को मजबूत किया। यह आंदोलन हिंसक भी हुआ और इसमें कई लोग मारे भी गए। अप्रैल, 1990 में राजा को आखिरकार झुकना पड़ा।
R&AW के इस ऑपरेशन के चलते 1990 में राजा को राजनीतिक पार्टियों को मंजूरी देनी पड़ी। इसके बाद नेपाल के पूर्णरूपेण राजशाही नहीं रह गया। इसका रूप सांवैधानिक राजशाही हो गया। राजीव गाँधी के इस रवैये के चलते नेपाल चीन की तरफ भी झुका।
इस तरह राजीव गाँधी ने निजी नाराजगी के चलते जहाँ नेपाल को चीन की तरफ धकेला तो वहीं उसकी राजशाही की जड़े भी खोखली कर दी। जहाँ राजीव गाँधी ने नेपाल में कम्युनिस्टों को खाद-पानी देकर राजशाही को कमजोर किया तो वहीं भारत के कम्युनिस्टों ने इस राजशाही को खत्म करने में बड़ा रोल निभाया।
सीताराम येचुरी वर्ष 2006 में कम्युनिस्ट नेताओं से मिलने भी पहुँचे थे। तब नेपाल में राजशाही और गुरिल्ला फौजें लड़ाई लड़ रहीं थी। बताया जाता है कि वह प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के कहने पर गए थे। माना जाता है कि सीताराम येचुरी के नेपाली वामपंथियों से गहरे संबंध थे।
2006 में उन्होंने वामपंथियों और नेपाल की बाकी पार्टियों के बीच एक समझौता भी करवाया था। इसे येचुरी फॉर्मूला कहा गया था। येचुरी ने अपनी इस यात्रा में कहा था कि 1990 में जो हासिल किया गया था, उसे अब आगे बढ़ाया जाना चाहिए।
अस्थिरता का फायदा मिशनरियों को
नेपाल में तीन दशक से फैली इस अस्थिरता का फायदा विदेशी शक्तियों ने खूब उठाया है। ईसाई मिशानिरियाँ इसमें आगे रही हैं। हिन्दू राष्ट्र नेपाल लम्बे समय से कई ईसाई मिशनरियाँ एक्टिव हैं। बीबीसी की 2023 में आई एक रिपोर्ट ने बताया था एक दशक में नेपाल में ईसाइयों की आबादी 68% बढ़ी है।
नेपाल में 2011 में 3.76 लाख ईसाई रहते थे। यह संख्या 2001 में मात्र 1 लाख थी। वर्तमान में नेपाल में 5.5 लाख से अधिक ईसाई रहते हैं। यह स्थिति तब है, जब नेपाल में 1951 में एक भी ईसाई नहीं था। नेपाल की यह ईसाई जनसंख्या धर्मांतरण करने बनाई गई है। धर्मांतरण के निशाने पर नेपाल के सुदूर इलाकों के हिन्दू ही होते हैं।

साफ़ है कि जिस भी समय में नेपाल में अस्थिरता बनी रही है, वहाँ तेजी से धर्मांतरण हुआ है। यह सिलसिला अब भी जारी है। ईसाई धर्मांतरण का यह खेल 2008 में नेपाल के हिन्दू राष्ट्र का दर्जा खत्म हो कर सेक्युलर राष्ट्र बनने के बाद और तेजी से बढ़ा है।
बीबीसी की रिपोर्ट के अनुसार, नेपाल में ईसाई धर्मांतरण में बड़ा रोल दक्षिण कोरिया की ईसाई मिशनरियों का है। दक्षिण कोरिया ने करीब दो दशक पहले नेपाल में ईसाई धर्म प्रचारकों को भेजना शुरू किया था। तब से लेकर अब तक करीब 20,000 कोरियाई मिशनरी हिंदुओं को ईसाई धर्म में परिवर्तित करने के अभियान में शामिल हो चुके हैं।
नए आँकड़ों के अनुसार, नेपाल में लगभग 7758 चर्च हैं। यानी जहाँ 50 वर्ष पहले ईसाइयों की संख्या एक गाँव के बराबर नहीं थी, वहाँ आज 7700 से अधिक चर्च बन गए हैं। नेपाल में ईसाई धर्मांतरण में वामपंथी लड़ाकों का भी बड़ा रोल रहा है।
1995 के बाद से नेपाल में वामपंथी लड़ाकों ने अपना प्रभाव जमाना चालू कर दिया था। वामपंथी ज्यादातर उत्तर के पहाड़ी क्षेत्रों में अपना बसेरा बनाए हुए थे। उन्होंने नेपाल की जनता को पढ़ाया कि धर्म अफीम है और हमें धर्म से कुछ नहीं मिलने वाला। वामपंथी नेपाल में हिन्दू धर्म के ही खिलाफ थे।
इसके बाद वामपंथियों और सरकार के बीच चली लड़ाई से यहाँ दरिद्रता आई। धर्म से दुराव और गरीबी ने ईसाई मिशनरियों के लिए एकदम उपजाऊ जमीन तैयार कर दी। पहले से परेशान लोगों को कहीं वित्तीय लालच देकर तो कहीं शिक्षा और स्वास्थ्य के नाम पर बरगलाया गया और उन्हें ईसाइयत में धर्मांतरित किया गया।
ऐसा नहीं है कि नेपाल में किसी को भी इस धर्मांतरण की चिंता नहीं है। नेपाल के पूर्व उपप्रधानमंत्री कमल थापा ने बीबीसी से बात करते हुए ईसाई मिशनरियों पर कहा था कि यह जंगल में आग की तरह नेपाल के भीतर फ़ैल रही हैं। उन्होंने चिंता जताई थी कि इससे देश की संस्कृति का अस्तित्व खतरे में आ जाएगा।
इस्लामी कट्टरपंथ भी फैला रहा पाँव
नेपाल में ईसाई मिशनरियों के साथ ही इस्लामी कट्टरपंथ भी अपने पैर पसार रहा है। वर्ष 2001 में नेपाल में 9.54 लाख मुस्लिम आबादी थी। 2021 में यह बढ़कर 14 लाख से अधिक हो चुकी है। नेपाल में सिर्फ मुस्लिमों की जनसंख्या ही नहीं बढ़ी है बल्कि कट्टरपंथ भी बढ़ा है।
भारत की सीमा से लगे इलाकों में नेपाल में मस्जिद और मदरसे उग आए हैं। ऑपइंडिया ने इस मामले में 2022 में की गई एक ग्राउंड रिपोर्ट में पाया था कि सीमाई इलाकों में अर्थव्यवस्था भी बड़े स्तर पर मुस्लिमों का कब्जा है। 2008 तक हिन्दू राष्ट्र रहे नेपाल में मुस्लिमों ने एक गाँव का नाम बदल कर इस्लाम नगर करने तक की कोशिश की थी।

एक और घटना में सामने आया था कि पहले रोहिंग्या घुसपैठियों के लिए पहले कच्ची झुग्गियां बसाई गईं थी और बाद में इस जगह पर पक्के मकान बनाए जाने की माँग कर दी थी। ऐसे कई मामले सामने आए हैं जब कट्टरपंथियों ने सड़क पर उतर कर भी उत्पात मचाया है।
चीन और ISI ने उठाया नेपाल में गड़बड़ी का फायदा
नेपाल में अस्थिरता और उसके हिन्दू राष्ट्र के दर्जे के खत्म होने का फायदा चीन और पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी ISI ने उठाया है। ISI ने नेपाल को भारत में नकली नोट भेजने के लिए अड्डे की तरह इस्तेमाल किया था। भारत से भागे कई बड़े इस्लामी आतंकी भी नेपाल में ही पकड़े गए हैं।
पाकिस्तान नेपाल में इस्लामी कट्टरपंथियों को भड़का और अपने जासूस भेज कर इस इलाके को भी अपने लिए इस्तेमाल करता आया है। भारत के साथ खुली सीमा के चलते पाकिस्तानियों ने इसे भारत से भागने के एक रूट की तरह भी इस्तेमाल किया है। विकिलीक्स में भी सामने आया था कि पाकिस्तान ने काठमांडू में एक आतंकी संगठन तक खड़ा कर दिया था।
भारत के दबाव के बाद 2020 में नेपाल ने कई पाकिस्तानी नागरिक पकड़े थे। यह नागरिक भारत में नकली नोट लाने और आतंकी नेटवर्क बढ़ाने के लिए करते थे। 1990 के दशक के दौरान दाऊद इब्राहिम गैंग ने नेपाल को अपना बेस बनाया था। भारत में अपराध करने के बाद अपराधी नेपाल भाग जाते थे।
जहाँ पाकिस्तान अपने मंसूबे के लिए नेपाल को इस्तेमाल करता आया है, तो वहीं चीन भी अपनी विस्तारवादी नीति के चलते नेपाल को अपने घेरे में लेना चाहता है। राजीव गाँधी के नेपाल को लेकर लिए गए एक्शन ने उसे चीन की तरफ धकेल दिया था।
चीन हमेशा से ही नेपाल में अपना प्रभाव बढ़ाना चाहता था। वह नेपाल के सहारे भारत को घेरना चाहता था। 2008 में कम्युनिस्टों के सत्ता में आने के बाद चीन की नेपाल में घुसपैठ को नया सहारा मिला है। कम्युनिस्ट भारत पर दबाव बनाने के लिए चीन के साथ व्यापार और सहयोग बढाते हैं।
इसका सबसे बड़ा उदाहरण नेपाल का बेल्ट एवं रोड परियोजना में शामिल होना है। नेपाल इसको लेकर ना-ना करता आया है लेकिन चीन उसे इसमें शामिल कर चुका है। चीन नेपाल को श्रीलंका की तरह ही कर्ज के जाल में फंसा कर उसका इस्तेमाल भारत को उसके ही घर के पिछवाड़े में घेरने के लिए करना चाहता है।
नेपाल ने चीन से कर्ज लेकर हाल ही में पोखरा में एक नया एयरपोर्ट भी बनाया है। यह एयरपोर्ट वैसे मरीज की तरह है, जो अस्पताल पहुँचने से पहले ही मर चुका है। इस एयरपोर्ट पर पहली उड़ान के लिए नेपाल ने भारत से गुहार लगाई थी लेकिन उसने मना कर दिया। इसके बाद चीन की एक फ्लाइट से यहाँ काम चालू हुआ।
यह एयरपोर्ट ग्वादर और हम्बनटोटा की तरह खाली पड़ा है। आशंका है कि इसके लिए दिए गए कर्जे की वसूली को चीन नेपाल पर दबाव बनाकर यह एयरपोर्ट कब्जा सकता है। नेपाल के आंतरिक मामलों में भी चीन का दखल है।
2020 में चीनी महिला राजदूत के नेपाल के तत्कालीन प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली तक को हनीट्रैप करने की खबरें सामने आई थीं। यह जासूस भारत के खिलाफ नेपाल को भड़का रही थी। नेपाल से उसका इसके बाद तबादला कर दिया गया था।
मधेशी और पहाड़ी के झगड़े ने और बिगाड़ी स्थितियाँ
इन सब लड़ाइयों के इतर नेपाल में मधेशी और पहाड़ी के झगड़े ने और स्थितियाँ बिगाड़ी ही हैं। मधेशी नेपाल के तराई और भारत से सटे अधिकांश इलाकों में रहने वाले लोगों को कहते हैं जबकि पहाड़ी जनसंख्या देश के पर्वतीय इलाकों में बसती है।
नेपाल में राजशाही के खत्म होने के साथ ही मधेशी और पहाड़ी जनता के बीच खाई और बड़ी हो गई। मधेशी हितों की बात करने वालों का कहना है कि नेपाल की राजनीति में हमेशा से ही पहाड़ी जनता का प्रभुत्व रहा है और मधेशियों को वह प्रतिनिधित्व नहीं है जिसके वह हकदार हैं।
इसके अलावा मधेशी अपने इलाके को स्वायत्तता ना दिए जाने को लेकर भी आक्रोशित रहे हैं। इस लड़ाई का एक और सिरा नेपाल के माओवादी आंदोलन से भी जुड़ता है। दरअसल, नेपाल के माओवादी आंदोलन के अधिकांश नेता पहाड़ी जनसंख्या से आते थे।

इनका काडर भी यहीं से था। तमाम माओवादियों ने आंदोलन के दौरान तराई इलाकों में बड़ी लूटमार की और अपहरण तथा हत्याओं का एक दौर चलाया। इसके चलते भी अलगाव है। 2008 और 2015 में संविधान बनने के दौरान भी मधेशियों ने आंदोलन किया था।
2015 में यह आंदोलन हिंसक भी हो गया था। इसमें तमाम मधेशी मारे गए थे। काफी बवाल के बाद नेपाल की सरकार मधेशियों की कुछ मांगों को लेकर मानी थी। मधेशियों और पहाड़ियों की इस लड़ाई ने पहले से अशांत नेपाल को एक और समस्या दी है और यहाँ के लोगों की जिन्दगी कठिन कर दी है।
ऊब गए हैं नेपाल के लोग
नेपाल में बीते 30 वर्षों में जनता और विशेष कर हिन्दुओं ने इतनी अस्थिरता और लड़ाइयाँ देख ली हैं कि वह अब पुराने ढर्रे पर लौटना चाहते हैं। उन्होंने पिछले तीन दशक में राजतंत्र, संवैधानिक राजतंत्र और लोकतंत्र सब कुछ देख लिया है। इसमें सबसे बुरी स्थिति उनकी लोकतंत्र के चलते हुई है।
नेपाल में 2008 में राजशाही खत्म होने के समय लोकतांत्रिक पार्टियों ने नेपाली जनता से बड़े वादे किए थे। उन्होंने तत्कालीन राजा ज्ञानेन्द्र को पूरी प्रक्रिया से सिरे से बाहर कर दिया था। एक दशक तक हिंसा का दौर झेलने वाले नेपाली युवाओं को रोजगार और नेपाली जनता को खुशहाली का वादा किया गया था।
2025 आते-आते नेपाल में इसमें से अधिकांश वादे पूरे नहीं हुए हैं। नेपाल लोकतंत्र आने के बाद अस्थिरता का शिकार हो गया है। 2008 से 2025 के बीच 17 वर्षों में नेपाल में 13 बार सरकार बन-बिगड़ चुकी है। 13 बार प्रधानमंत्री बदल चुके हैं। इनमें से 11 बार तो सरकार पूरे 2 वर्ष भी नहीं चल पाई है।
राजशाही के खिलाफ हथियार उठाने वाले वामपंथी दल आज आपस में ही सिर फुटौव्वल का शिकार हैं। शेर बहादुर देउबा, केपी शर्मा ओली, पुष्प कमल दहल प्रचंड और बाबूराम भट्टाराई जैसे नेताओं के इर्द-गिर्द ही नेपाल की राजनीति बीते लगभग 2 दशक से घूम रही है।
लोकतंत्र के आने के बाद नेपाल के नेता आपस के ही झगड़े नहीं सुलटा पाए हैं। वर्तमान में नेपाल में बेरोजगारी दर 12% से भी अधिक है, जो कि भयावह है। युवाओं में तो यह दर 20% के भी पार है। बड़ी संख्या में युवा काम करने के लिए नेपाल से भारत या फिर अरब और यूरोपियन देशों में भाग रहे हैं।

एक रिपोर्ट बताती है कि नेपाल से रोज औसतन 1700 लोग देश छोड़ कर जा रहे हैं। देश छोड़ने वालों में अधिकांश युवा हैं। नेपाल की जनसंख्या का लगभग 10% हिस्सा दूसरे देशों में काम की तलाश में जा चुका है। वर्तमान में लगभग 23-24 लाख लोग नेपाल छोड़ कर विदेशों में काम कर रहे हैं।
बेरोजगारी के अलावा दूसरा बड़ा मुद्दा नेपाल में लोकतंत्र के बाद आया भ्रष्टाचार है। राजशाही के समय सत्ता केंद्रीकृत थी और भ्रष्टाचार का सामना आम जनता को रोजाना के काम में नहीं करना पड़ता था। लेकिन अब भ्रष्टाचार ने नेपाल में गहरी जड़ें जमा ली हैं।
द काठमांडू पोस्ट की एक रिपोर्ट बताती है कि नेपाल में 2023 में भ्रष्टाचार के 28 हजार से अधिक मामले दर्ज हुए थे। कई जगह तो सरकारी विभागों का काम इसलिए अटका पड़ा है क्योंकि वहाँ कई अधिकारी और कर्मचारी भ्रष्टाचार के आरोप में या तो निलंबित हैं या जेल काट रहे हैं।
इन सबके चलते आम जनता में असंतोष है। इसके अलावा मूलभूत सुविधाओं का भी टोटा है। एक रिपोर्ट बताती है कि नेपाल में 73% लोगों को स्वच्छ पीने का पानी नहीं मिलता है। एक और रिपोर्ट बताती है कि नेपाल की लगभग 35 लाख जनता अभी बिजली से वंचित है। पहाड़ी इलाकों में सड़कों की भी कमी है। इसके चलते नेपाल के लोग अब ऊब चुके हैं।
अब फिर राजशाही और हिन्दू राष्ट्र की माँग
नेपाल को बीते 3 दशक से हिंदुत्व और राजशाही से दूर किया जाता रहा है। वर्तमान में नेपाल सेक्युलर राष्ट्र है। यहाँ राजशाही भी नहीं है। लेकिन तब भी लोगों की समस्याएँ नहीं सुलझ पाई हैं। उन्हें अब लग रहा है कि माओवादी आंदोलन के चलते हटाई गई राजशाही वापस उनका देश ठीक कर सकती है।
नेपाल में राजशाही का इतिहास लगभग 250 वर्ष पुराना है। इसकी स्थापना राजा पृथ्वी नारायण शाह ने की थी। उसके बाद 2008 तक उनकी ही पीढ़ियों ने यहाँ शासन किया। हालाँकि, इस बीच राजशाही के सामने कई समस्याएँ भी आईं।
19वीं शताब्दी के मध्य से 20वीं शताब्दी के उत्तरार्ध तक इस परिवार को कब्जे में रख कर राणा परिवार नेपाल पर शासन करता रहा था। हालाँकि, 1950 के दशक में राजा त्रिभुवन शाह ने तख्तापलट करके सत्ता वापस अपने हाथ में ले ली थी। उनकी 1955 में मौत हो गई। इसके बाद महेन्द्र 1972 तक राजा रहे।
1972 के बाद बीरेन्द्र बिक्रम शाह राजा बने। उनका कार्यकाल घटनाओं से भरा हुआ था। चाहे 1989 में राजीव गाँधी से नाकाबंदी का सामना हो या फिर 1990 में लोकतंत्र का सामना। उनके ही राज के दौरान नेपाल में वामपंथी आंदोलन भी चालू हो गया था। हालाँकि, 2001 में राजा बीरेन्द्र और बाक़ी पूरे परिवार की उनके बेटे दीपेन्द्र ने हत्या कर दी थी।

इसके बाद उनके भाई ज्ञानेन्द्र को राजा बनाया गया था। ज्ञानेन्द्र का कार्यकाल नेपाल में राजशाही का अंत था। ज्ञानेन्द्र के कार्यकाल के दौरान नेपाल में सत्ता परिवर्तन हुआ था। ज्ञानेन्द्र के कार्यकाल तक नेपाल हिन्दू राष्ट्र हुआ करता था।
17 वर्ष बाद वापस नेपाल उसी मोड़ पर है। इन 17 वर्षों में नेपाल में लोकतंत्र वह करने में सक्षम नहीं रहा है, जो वहाँ की जनता चाहती है। ऐसे में बीते कुछ समय से राजा ज्ञानेन्द्र को वापस लाने की माँग उठी है। नेपाल के हिन्दुओं को लगता है कि राजशाही और हिन्दू राष्ट्र के दर्जे की वापसी ही उनके लिए अब एक रास्ता बचा है।
यह कोशिश एकतरफ़ा नहीं है। नेपाल के पूर्व राजा ज्ञानेन्द्र ने हाल ही में एक वीडियो जारी किया था। उन्होंने इस दौरान ‘जिम्मेदारी अपने हाथ में लेने’ की बात कही थी। यह एक बड़ा सन्देश था। नेपाल में राजशाही के जाने के बाद यह पहली बार था जब पूर्व राजा ने ऐसी बात कही हो।
राजा ज्ञानेन्द्र के लिए लोकतंत्र के दौरान भी समर्थन कुछ कम नहीं हुआ था। जनता का एक बड़ा हिस्सा अब भी राजा के प्रति श्रद्धा रखता है। 9 मार्च, 2025 को नेपाल के राजा ज्ञानेन्द्र शाह वापस राजधानी काठमांडू आए थे। वह इससे पहले पूरे देश के मंदिरों की यात्रा पर थे।
उनके काठमांडू आने के बाद एयरपोर्ट के बाहर लाखों की भीड़ ने स्वागत किया था। इसने उनके समर्थन बारे में सब स्पष्ट कर दिया। उनके समर्थकों ने वापस आने के बाद राजशाही समर्थक नारे भी लगाए थे। समर्थकों के हाथों में ‘राजशाही वापस लाओ’, ‘हमें हमारा राजा वापस दो’ और ‘ये नेपाल ज्ञानेंद्र का है’ की तख्तियां थी।
नेपाल में राजशाही की वापसी के लिए आवाज उठाने वालों में सबसे बड़ा नाम राष्ट्रीय प्रजातांत्रिक पार्टी का है। यह पार्टी नेपाल में राजशाही के साथ ही हिन्दू राष्ट्र की वापसी चाहती है। यह पार्टी बड़े प्रदर्शन भी आयोजित कर चुकी है। राजा ज्ञानेन्द्र की काठमांडू वापसी के बाद बड़ा समारोह भी इसी पार्टी के नेतृत्व में आयोजित किया गया था।
यह सिर्फ एक ट्रेलर भर था। 28 मार्च, 2025 को नेपाल में राजशाही के लिए हो रहा आंदोलन हिंसक हो गया। RPP ने 28 मार्च को एक बड़ा प्रदर्शन काठमांडू में किया। इस आंदोलन के दौरान प्रदर्शनकारियों ने राजशाही की वापसी की माँग की। इस आन्दोलन को दबाने के लिए पुलिस ने लाठियाँ चलाई और फायरिंग भी कर दी।
इसके चलते 1 प्रदर्शनकारी की मौत हो गई। इससे आंदोलन और उग्र हो गया। काठमांडू के तिन्कुने इलाके में हुए इस प्रदर्शन के दौरान पुलिसिया कार्रवाई के विरोध में उग्र हुए समर्थकों ने कई इमारतों में तोड़फोड़ की। एक इमारत में आग लगा दी। इसके चलते एक मीडियाकर्मी की मौत हो गई।

काठमांडू में इस प्रदर्शन के चलते कर्फ्यू लगाना पड़ा। यहाँ सेना भी बुलानी पड़ गई। इस आंदोलन ने दिखाया कि नेपाल में राजशाही का कितना बड़ा तबका समर्थन करता है। RPP की केन्द्रीय समिति की सदस्य स्वाति मिश्रा ने कहा कि वह राज ज्ञानेन्द्र को एक राजा के रूप में नहीं बल्कि अभिभावक के रूप में वापस चाहते हैं।
RPP का कहना है कि वह हिन्दू धर्म को नेपाल में एक स्थिरता प्रदान करने वाली शक्ति के रूप में उपयोग करना चाहते हैं। RPP की इस बात में वजन भी दिखाई पड़ता है। नेपाल के एकीकरण और उसकी स्थिरता में धर्म का बड़ा रोल रहा है। लोगों को लगता है कि देश को सेक्युलर बनाए जाने के बाद ही अथिरता का माहौल आया है।
नेपाल में राजतंत्र के समय हिन्दू धर्म राजशाही पर भी नियंत्रण रखने वाली शक्ति के रूप में भी था। नेपाल की धार्मिक जनता और राजा का धर्म के प्रति जुड़ाव उसे अस्थिर होने से बचाता था। हालाँकि, नेपाल में संविधान संशोधन करके इसे सेक्युलर किया गया। यह वामपंथी पार्टियों का एक एजेंडा था।
इसके चलते नेपाल में धर्म एकीकरण करने वाली शक्ति के की हैसियत से तो हटा ही, बल्कि नेपाल, चीन की तरफ भी झुक गया। धर्म ही नेपाल को भारत से भी मजबूती से जोड़ कर रखता था। वामपंथी पार्टियाँ अब भारत की बजाय चीन की तरफ भागती हैं। इससे लेकिन जनता का जुड़ाव नहीं हो पाता। क्योंकि उसका सांस्कृतिक जुड़ाव भारत से है।
नेपाल की जनता को अब लगता है कि लोकतंत्र ने उन्हें केवल भ्रष्टाचार, अस्थिरता, आंतरिक लड़ाई और वादे ही दिए हैं जबकि राजशाही के दौर में वह ज्यादा समृद्ध थे। इसीलिए राजशाही का समर्थन करने वालों में आम जनता के साथ ही नेपाल के बड़े व्यापारी भी शामिल हैं।
नेपाल के बड़े कारोबारी दुर्गा परसाई भी इसी आंदोलन का हिस्सा हैं। नेपाल की जनता के साथ ही उसका अभिजात्य वर्ग भी राजशाही का समर्थक रहा है। बॉलीवुड अभिनेत्री मनीषा कोइराला ने एक इंटरव्यू में कहा था कि यहाँ के संविधान ने लोगों की आकांक्षाओं को पूरा नहीं किया है। कोइराला नेपाल के शक्तिशाली राजनीतिक परिवार से आती हैं।
उन्होंने कहा था कि नेपाल में राजा को नए संविधान में एक स्थान दिया जाना चाहिए था। उन्होंने नेपाल की वर्तमान व्यवस्था को एक ‘लोकतंत्र का मुखौटा’ बताया था। उन्होंने कहा था कि राजशाही का आज भी 90% नेपाली जनता किसी ना किसी तरह से समर्थन करती है। मनीषा कोइराला ने बताया था कि नेपाल के लोगों के मन से राजशाही को हटाया नहीं जा सकता।
अब चाहे कोइराला हों नेपाल की आम जनता, सब यह मानते हैं कि राजशाही वापस उनकी समस्याएँ हल कर सकती है। नेपाल की राजनीतिक पार्टियाँ राजशाही के लिए हो रहे आंदोलन के पीछे राजा ज्ञानेन्द्र का हाथ मानती हैं। उनका भारत के ऊपर भी राजशाही को हवा देने का आरोप है।
यह कोई नई बात नहीं है, काठमांडू के भीतर एक कटोरी के जमीन पर गिरने को भी भारत की साजिश बता दिया जाता है। पार्टियाँ राजा की किसी भी तरह से वापसी नहीं चाहती। भारत ने अभी इस आंदोलन और नए राजनीतिक समीकरणों को लेकर कोई प्रतिक्रया नहीं दी है।
देखने वाली बात होगी कि आगे नेपाल में वापस राजा का शासन आ पाता है या लोकतंत्र अपनी जगह वापस बनाए रखता है। नेपाल वापस हिन्दू राष्ट्र बनेगा या नहीं, यह समय के गर्भ में है। कोई बीच का रास्ता भी सामने आ सकता है जहाँ राजा और लोकतंत्र, दोनों को हिस्सेदारी दी जाए।