हर साल दिसंबर महीने में यूरोपीय मैगज़ीन द इकॉनॉमिस्ट अपने प्रतिष्ठित ‘कंट्री ऑफ द ईयर’ अवॉर्ड की घोषणा करती है। यह पुरस्कार किसी देश की समृद्धि या खुशहाली को नहीं, बल्कि उस देश द्वारा किए गए महत्वपूर्ण सुधारों को आधार बनाकर दिया जाता है। ऐसा दावा खुद ‘द इकॉनॉमिस्ट’ ही करता है।
इस साल बांग्लादेश को यह सम्मान मिला है। द इकॉनॉमिस्ट ने कहा कि बांग्लादेश ने कथित ‘तानाशाही शासन’ को समाप्त करके यह अवॉर्ड प्राप्त किया। हालाँकि, इस दौरान मैगज़ीन ने बांग्लादेश में हिंदू समुदाय पर हो रही हिंसा और उत्पीड़न को पूरी तरह से नजरअंदाज कर दिया।
द इकॉनॉमिस्ट के अनुसार, ये अवॉर्ड उन देशों को दिया जाता है जिन्होंने पिछले साल में महत्वपूर्ण प्रगति की हो। मैगज़ीन ने बताया कि बांग्लादेश ने शेख हसीना की सरकार को हटाकर ‘तकनीकी अंतरिम सरकार’ स्थापित की है, जिसकी अगुवाई नोबेल पुरस्कार विजेता मोहम्मद यूनुस कर रहे हैं। इसके अलावा छात्र आंदोलनों की भी सराहना की गई, जिन्होंने शेख हसीना की सत्ता को समाप्त किया।
Every year The Economist picks what we consider to be the most improved nation, for its “country of the year” award. This year the winner is Bangladesh. Our foreign editor, Patrick Foulis, congratulated its interim leader, Muhammad Yunus https://t.co/ACI7hA1vQi pic.twitter.com/gPILLk2Eym
— The Economist (@TheEconomist) December 20, 2024
मैगज़ीन ने यह भी दावा किया कि शेख हसीना के हटने के बाद देश में ‘व्यवस्था बहाल’ हुई है और ‘आर्थिक स्थिरता’ आई है। लेकिन क्या सच में ऐसा हुआ है? हाल ही में बांग्लादेश ने भारत से 50,000 टन चावल की माँग की है और अडानी ग्रुप के बिजली बिल का बड़ा हिस्सा बकाया है। इसके अलावा बांग्लादेश का टेक्सटाइल उद्योग भी गंभीर संकट से गुजर रहा है। ऐसे में यह स्पष्ट नहीं है कि द इकॉनॉमिस्ट किस आर्थिक स्थिरता की बात कर रहा है।
लेकिन सबसे चिंता का विषय यह है कि द इकॉनॉमिस्ट ने बांग्लादेश में बढ़ती हिंदू विरोधी हिंसा और अल्पसंख्यकों के उत्पीड़न को पूरी तरह नजरअंदाज कर दिया। शेख हसीना की सरकार के गिरने के महज तीन दिनों के भीतर हिंदू मंदिरों, व्यवसायों और घरों पर 205 से अधिक हमले हुए। ऑपइंडिया ने इन घटनाओं का दस्तावेजीकरण किया है और अगस्त 2024 से बांग्लादेश में हिंदुओं और अन्य अल्पसंख्यकों पर हो रहे अत्याचारों पर विस्तार से रिपोर्ट दी है।
बांग्लादेश में हिंदू समुदाय पर हो रहे अत्याचारों का एक प्रमुख उदाहरण चिटगाँव में भगवान गणेश की मूर्तियों के साथ की गई तोड़फोड़ है। इसी तरह पबना और किशोरगंज जिलों में दुर्गा की मूर्तियों को नष्ट किया गया। ये घटनाएँ बांग्लादेश में धार्मिक असहिष्णुता के बढ़ते स्तर को दर्शाती हैं, लेकिन द इकॉनॉमिस्ट ने इन घटनाओं को पूरी तरह नजरअंदाज किया।
अब सवाल यह उठता है, क्या कोई देश सच में ‘सुधार’ कर सकता है, जबकि उसके अल्पसंख्यक समुदायों के खिलाफ हिंसा और दमन बढ़ रहा हो? भारत के विदेश मंत्रालय द्वारा संसद में प्रस्तुत किए गए आँकड़ों के अनुसार, बांग्लादेश में अल्पसंख्यकों पर हमलों की संख्या पिछले तीन सालों में तेजी से बढ़ी है। 2022 में हिंदुओं पर 47 हमले दर्ज हुए थे, 2023 में यह संख्या 302 हो गई, जो 2022 के मुकाबले 545% अधिक थी। वहीं, 2024 में यह संख्या 2,200 तक पहुँच गई, जो 2023 से 628% और 2022 के मुकाबले 4,580% अधिक थी। इन आँकड़ों के बावजूद द इकॉनॉमिस्ट ने इन घटनाओं पर चुप्पी साध रखी है, जिससे उनकी ‘प्रगति’ की परिभाषा पर गंभीर सवाल उठते हैं।
हिंदुओं पर हो रहे अत्याचारों की अनदेखी
हिंदुओं पर हो रहे अत्याचारों को अनदेखा करना एक व्यापक समस्या का हिस्सा है, जो उपमहाद्वीप में हिंदू समुदाय के हाशिए पर जाने और उनके उत्पीड़न को दर्शाता है। हाल के महीनों में बांग्लादेश में कट्टरपंथी इस्लामी समूहों ने हिंदुओं पर हमले तेज कर दिए हैं। इन समूहों ने हिंदुओं और उनके संगठनों को परेशान करने के लिए ईशनिंदा के आरोपों का सहारा लिया है। हृदय पाल और उस्ताद मंडल के मामले इसका स्पष्ट उदाहरण हैं।
यहाँ तक कि इस्कॉन जैसे हिंदू संगठन भी इस अत्याचार से बच नहीं सके। इस्कॉन पर प्रतिबंध लगाने की कोशिश और हिंदू नेता चिन्मय कृष्ण दास प्रभु की गिरफ्तारी, हिंदू संस्थानों को निशाना बनाने की सोची-समझी रणनीति को दर्शाती है। अंतरिम सरकार द्वारा हिंदू विरोध प्रदर्शनों को दबाने और उन पर देशद्रोह जैसे झूठे आरोप लगाने के फैसले से यह साफ होता है कि उनकी स्वतंत्रता को खत्म करने के लिए एक साजिश चल रही है।
पश्चिमी देशों का सेलेक्टिव अप्रोच
पश्चिमी देशों की चयनात्मक नैतिकता इस समस्या को और बढ़ाती है। बढ़ते सबूतों के बावजूद वैश्विक संस्थाएँ और मीडिया हाउस इन अत्याचारों को नजरअंदाज कर रहे हैं। संयुक्त राष्ट्र के मानवाधिकार उच्चायुक्त कार्यालय (OHCHR) ने इन नफरत से भरे अपराधों को दस्तावेज़ करने से परहेज किया है। हमारी एक रिपोर्ट के अनुसार, OHCHR ने इन हमलों को धार्मिक घृणा अपराध मानने से इनकार कर दिया है, जो हिंसा को नजरअंदाज करने की सोची-समझी कोशिश को दर्शाता है। इसके बजाय, वे व्यापक सांप्रदायिक मुद्दों पर ध्यान केंद्रित करते हैं और इन घटनाओं के धार्मिक पहलुओं को छिपा देते हैं।
भारतीय मीडिया पोर्टल द वायर ने भी बांग्लादेश में हिंदुओं के उत्पीड़न की गंभीरता को छिपाने या कमकर दिखाने का प्रयास किया है। हाल ही में एक खुलासे में यह पाया गया कि द वायर ने जातीय सफाए को ‘अतिरंजित’ या ‘राजनीतिक रूप से प्रेरित’ बताने की कोशिश की है, जिससे कट्टरपंथी इस्लामी समूहों की जिम्मेदारी को कम किया गया। ऐसी रिपोर्टिंग न केवल पाठकों को गुमराह करती है, बल्कि यह उन खतरनाक विचारों को बढ़ावा देती है, जो हिंदू अल्पसंख्यकों के दर्द और पीड़ा को कमतर आँकते हैं।
बीबीसी ने भी बांग्लादेश में हिंदुओं के खिलाफ हुई हिंसा की रिपोर्टिंग के लिए आलोचना का सामना किया है। ऑपइंडिया की एक रिपोर्ट में बताया गया कि कैसे बीबीसी ने हिंदुओं के खिलाफ टारगेटेड हिंसा और हमलों को ‘राजनीतिक हिंसा’ के तौर पर पेश किया और धार्मिक मामले को नजरअंदाज किया। बीबीसी ने इसे व्यापक राजनीतिक अशांति से जोड़ते हुए इस बात को छिपा दिया कि यह हिंसा सुनियोजित तरीके से हिंदुओं पर हो रही है। इससे न केवल हिंदुओं के खिलाफ हो रहे व्यवस्थित उत्पीड़न को अनदेखा किया गया, बल्कि अंतरिम सरकार और अपराधियों की जिम्मेदारी को भी कम कर दिया गया।
पश्चिमी मीडिया और संस्थाओं का यह दोहरा रवैया लंबे समय से जारी है। द इकॉनॉमिस्ट, द वायर और बीबीसी जैसे मीडिया पोर्टल्स ने लगातार हिंदुओं पर हो रहे अत्याचारों की गंभीरता को कम करके दिखाया है। वे इन घटनाओं को अक्सर ‘राजनीतिक’ या ‘आर्थिक अशांति’ के रूप में पेश करते हैं और धार्मिक संदर्भों को नजरअंदाज करते हैं। इस तरह की रिपोर्टिंग न केवल हिंदुओं के उत्पीड़न की गंभीरता को गलत तरीके से पेश करती है, बल्कि अपराधियों को अंतरराष्ट्रीय मंच पर जिम्मेदारी से बचने का मौका भी देती है।
द इकॉनॉमिस्ट का हिंदू-विरोधी पक्षपात पुराना
सालों से द इकॉनॉमिस्ट ने यह साबित किया है कि उसका हिंदुओं, हिंदुत्व और भारतीय सरकार खासतौर पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ स्पष्ट झुकाव है। यह पक्षपात लगातार हिंदू राष्ट्रवाद को ‘चरमपंथी’ आंदोलन के रूप में पेश करने के प्रयासों में दिखता है, जबकि इसके ऐतिहासिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक संदर्भों को अनदेखा किया गया है।
हमारे शोध के दौरान यह पाया गया कि द इकॉनॉमिस्ट की रिपोर्टिंग में एक बार-बार दोहराया जाने वाला विषय है, जिसमें हिंदुत्व को एक रूढ़िवादी और वर्चस्ववादी विचारधारा के रूप में दिखाया गया है। उदाहरण के लिए, अपने एक लेख ‘What is Hindutva, the ideology of India’s ruling party?’ में इस मैगजीन ने हिंदुत्व को अल्पसंख्यकों को हाशिए पर डालने वाले हथियार के तौर में पेश किया।
इसके साथ ही द इकॉनॉमिस्ट भारत की नीतियों और घटनाओं के संदर्भ को तोड़-मरोड़कर पेश करने या पूरी तरह अनदेखा करने का प्रयास करता है। उदाहरण के तौर पर, उसने नागरिकता संशोधन अधिनियम (CAA) की आलोचना करते हुए इसे भेदभावपूर्ण कानून बताया, जबकि इसके मूल उद्देश्य को नजरअंदाज कर दिया।
प्रधानमंत्री मोदी के शासन की कवरेज भी द इकॉनॉमिस्ट के इस पक्षपाती दृष्टिकोण को दिखाती है। उदाहरण के लिए, “How Narendra Modi is remaking India into a Hindu state” जैसे लेखों में पत्रिका ने सरकार पर अल्पसंख्यकों के खिलाफ भीड़ द्वारा हिंसा को बढ़ावा देने का आरोप लगाया, जबकि सरकार द्वारा चलाए जा रहे कई कल्याणकारी योजनाओं को पूरी तरह अनदेखा कर दिया।
वास्तव में द इकॉनॉमिस्ट का हिंदू विरोधी और पक्षपाती रवैया केवल भारतीय राजनीति तक सीमित नहीं है, बल्कि यह वैश्विक स्तर पर हिंदू विरोधी विचारों को बढ़ावा देने का प्रयास करता है। इस पत्रिका की रिपोर्टिंग और इसके द्वारा उठाए गए मुद्दे अक्सर इस विचारधारा का समर्थन करते हैं, जिसमें हिंदुओं के धार्मिक पहचान को निशाना बनाया जाता है और हिंदुओं पर ही चरमपंथ के आरोप लगाए जाते हैं, जोकि सच्चाई से एकदम उलट है।
(मूल रूप से ये लेख अंग्रेजी भाषा में लिखा गया है। मूल लेख पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक करें।)