छत्तीसगढ़ के नारायणपुर जिले के अबूझमाड़ के जंगलों में बुधवार (21 मई 2025) को हुई मुठभेड़ में सुरक्षा बलों ने वामपंथी उग्रवाद के खिलाफ एक बड़ी सफलता हासिल की है। इस मुठभेड़ में नक्सल आतंकवाद के सरगना नंबाला केशव राव उर्फ बसवराजू मारा गया। बसवराजू भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) का महासचिव था और भारत के सबसे प्रमुख माओवादी नेताओं में शामिल था।
70 वर्षीय बसवराजू के सिर पर ₹1.5 करोड़ का इनाम था। वह 2010 में छत्तीसगढ़ के चिंतलनार में CRPF के 76 जवानों की हत्या और 2013 में झीरम घाटी हमले का मास्टरमाइंड था, जिसमें कई कॉन्ग्रेस नेता मारे गए थे। बसवराजू उन 26 नक्सल आतंकवादियों में शामिल था, जिन्हें सुरक्षा बलों ने इस मुठभेड़ में ढेर किया।
छत्तीसगढ़-तेलंगाना सीमा पर नक्सलियों की कमर तोड़ने के लिए सुरक्षा बलों ने 21 अप्रैल से 11 मई 2025 तक ‘ऑपरेशन ब्लैक फॉरेस्ट’ चलाया था। इस 21 दिवसीय अभियान को केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल (CRPF) और राज्य पुलिस के संयुक्त बलों ने कर्रेगुट्टालु हिल के पास अंजाम दिया।
इस ऑपरेशन में कुल ₹1.72 करोड़ रुपये के इनामी 31 नक्सली मारे गए थे। इसके साथ ही 214 नक्सली ठिकाने और बंकर नष्ट किए गए। तलाशी अभियान के दौरान सुरक्षा बलों ने 450 आईईडी, 818 बीजीएल गोले, 899 बंडल कोडेक्स वायर, बड़ी मात्रा में डेटोनेटर और अन्य विस्फोटक सामग्री बरामद की। इसके अलावा करीब 12,000 किलोग्राम खाद्य आपूर्ति भी जब्त की गई।
इसके कुछ ही दिनों बाद 21 मई को अबूझमाड़ के जंगलों में हुई मुठभेड़ में शीर्ष माओवादी नेता नंबाला केशव राव उर्फ बसवराजू को मार गिराया गया। गृह मंत्री अमित शाह ने छत्तीसगढ़ के नारायणपुर में 21 मई को हुए मुठभेड़ ऑपरेशन को नक्सलवाद के खिलाफ लड़ाई में ‘ऐतिहासिक उपलब्धि’ बताया है।
उन्होंने कहा, “आज हमारे सुरक्षा बलों ने नारायणपुर में एक बड़े ऑपरेशन के तहत 27 खूंखार माओवादियों को मार गिराया है, जिनमें सीपीआई (माओवादी) के महासचिव और नक्सल आंदोलन की रीढ़ माने जाने वाले नंबाला केशव राव उर्फ बसवराजू भी शामिल हैं।”
उन्होंने यह भी कहा कि भारत की नक्सलवाद के खिलाफ तीन दशकों की लड़ाई में यह पहली बार है कि सुरक्षा बलों ने महासचिव स्तर के माओवादी नेता को ढेर किया है। शाह ने इस सफलता के लिए सुरक्षा बलों और एजेंसियों की सराहना की।
A landmark achievement in the battle to eliminate Naxalism. Today, in an operation in Narayanpur, Chhattisgarh, our security forces have neutralized 27 dreaded Maoists, including Nambala Keshav Rao, alias Basavaraju, the general secretary of CPI-Maoist, topmost leader, and the…
— Amit Shah (@AmitShah) May 21, 2025
इसके साथ ही गृह मंत्री ने हाल ही में समाप्त हुए ऑपरेशन ब्लैक फॉरेस्ट की भी प्रशंसा की। उन्होंने दोहराया कि मोदी सरकार 31 मार्च 2026 से पहले भारत से नक्सलवाद का पूरी तरह सफाया करने के लिए प्रतिबद्ध है।
गृह मंत्री शाह ने कहा, “मुझे यह बताते हुए भी खुशी हो रही है कि ऑपरेशन ब्लैक फॉरेस्ट के पूरा होने के बाद छत्तीसगढ़, तेलंगाना और महाराष्ट्र में 54 नक्सलियों को गिरफ्तार किया गया है और 84 नक्सलियों ने आत्मसमर्पण किया है। मोदी सरकार 31 मार्च 2026 से पहले नक्सलवाद को खत्म करने के लिए प्रतिबद्ध है।”
Proud of our forces for this remarkable success. Our Government is committed to eliminating the menace of Maoism and ensuring a life of peace and progress for our people. https://t.co/XlPku5dtnZ
— Narendra Modi (@narendramodi) May 21, 2025
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी माओवादी आतंकी नंबाला केशव राव उर्फ बसवराजू को मार गिराने पर सुरक्षा बलों की सराहना की है। प्रधानमंत्री ने कहा कि यह कार्रवाई नक्सलवाद के खिलाफ लड़ाई में एक महत्वपूर्ण पड़ाव है और उनकी सरकार देश से नक्सली खतरे को खत्म करने के लिए पूरी तरह से प्रतिबद्ध है।
अब नक्सलवाद का ‘लाल किला’ अबूझमाड़ ढह चुका है, इसलिए दशकों से माओवादी आतंक से ग्रस्त इस क्षेत्र के रक्तरंजित इतिहास को भी जानना जरूरी है।
अबूझमाड़: आखिरी नक्सल किला और 40 साल बाद उसका पतन
‘अबूझमाड़’ नाम दो शब्दों से मिलकर बना है ‘अबूझ’ यानी जिसे समझा न जा सके, और ‘माड़’ यानी पहाड़ी। यह भारत का एकमात्र ऐसा भू-भाग है जिसका आज तक कोई राजस्व मानचित्र नहीं बनाया गया है। यहाँ के ग्रामीणों के पास अपनी जमीन का कोई स्वामित्व प्रमाण (पट्टा) नहीं है, जबकि यह क्षेत्र लगभग 4,000 वर्ग किलोमीटर में फैला हुआ है।
नक्सलवाद के कारण दशकों तक यहाँ सरकार का दखल दशकों तक शून्य रहा है। अबूझमाड़ मुख्य रूप से नारायणपुर जिले के ओरछा ब्लॉक के हिस्सों में फैला है। इस क्षेत्र की आबादी करीब 40 से 45 हज़ार है, जिनमें अधिकांश अबूझमाड़िया जनजाति से संबंध रखते हैं।

अबूझमाड़िया समुदाय छत्तीसगढ़ के विशेष रूप से कमज़ोर जनजातीय समूहों (PVTGs) में से एक है। इन्हें सरकार द्वारा लुप्तप्राय जनजातीय समूहों के लिए निर्धारित विशेष अधिकारों और लाभों का हकदार माना गया है।
यह क्षेत्र न केवल भौगोलिक रूप से कठिन है, बल्कि सामाजिक और प्रशासनिक रूप से भी बेहद संवेदनशील रहा है, और नक्सलवाद ने इसके विकास को लंबे समय तक बाधित किया। अबूझमाड़ केवल नारायणपुर और ओरछा ब्लॉक तक सीमित नहीं है, बल्कि इसका विस्तार छत्तीसगढ़ केदंतेवाड़ा और बीजापुर जिलों के कुछ हिस्सों तक भी होता है।
इसके अलावा, महाराष्ट्र के गढ़चिरौली जिले के कुछ इलाके भी अबूझमाड़ क्षेत्र में शामिल हैं। यह पूरा क्षेत्र घने जंगलों, दुर्गम पहाड़ियों और सीमित प्रशासनिक पहुँच के कारण लंबे समय से नक्सल प्रभावित और रणनीतिक रूप से संवेदनशील माना जाता है।
अबूझमाड़ क्षेत्र में आज तक सड़कें, अस्पताल और अन्य बुनियादी सुविधाएँ नहीं पहुँच पाई हैं। इसका प्रमुख कारण यह है कि माओवादियों ने इस क्षेत्र को मुख्यधारा से जुड़ने नहीं दिया और हर प्रकार के विकास कार्य का विरोध किया।
स्थानीय लोगों के अनुसार, नक्सली गाँवों तक पहुँचने वाली बसों को आग लगा देते थे और बाहरी लोगों या सरकारी कर्मचारियों के प्रवेश को हिंसा करके रोक देते थे। माओवादियों ने यह सुनिश्चित किया कि यहाँ कोई गाड़ी चलने लायक सड़क तक ना बने। उन्होंने किसी ग्रामीण को पट्टा भी नहीं मिलने दिया।
आज़ादी के बाद 1947 में छत्तीसगढ़ के ओरछा और नारायणपुर जैसे इलाकों में कुछ हद तक विकास हुआ और 1980 के दशक तक गाड़ी चलने लायक सड़कें भी बन गईं। लेकिन अबूझमाड़ के पहाड़ी क्षेत्र जानबूझकर लोगों की पहुँच से दूर रखा गया, जिससे यहाँ की जनजातीय संस्कृति और परंपराएँ कमजोर होती गईं।
स्थिति तब और बिगड़ गई जब 1990 के दशक में माओवादियों ने इस अनजाने और जनजातीय बहुल क्षेत्र की ओर रुख किया। 2000 के दशक तक उन्होंने अबूझमाड़ को अपना गढ़ बना लिया। इसके बाद माओवादियों ने न केवल सड़कों को नष्ट किया, बल्कि 50 से ज्यादा स्कूल जला दिए, जिससे यह क्षेत्र मुख्यधारा से पूरी तरह कट गया।
माओवादियों ने यहाँ ‘जनता सरकार’ की स्थापना कर ली और अबूझमाड़ को अपने वैकल्पिक शासन का केंद्र बना लिया। उन्होंने मुरुमवाड़ा और बोटोर जैसे इलाकों में अपने स्कूल शुरू किए, यहाँ पर माओवादी पाठ्यक्रम पढ़ाया जाता था, यह सिलसिला हाल के वर्षों तक जारी रहा।
विकास को रोकने के लिए माओवादी हिंसा के साथ-साथ दुष्प्रचार का भी इस्तेमाल करते हैं। उनका मकसद यह रहा है कि अबूझमाड़ के पहाड़ी गाँव पूरी तरह अलग-थलग और उनके प्रभाव में बने रहें। अबूझमाड़, छत्तीसगढ़ के नारायणपुर विधानसभा क्षेत्र का हिस्सा है, लेकिन इसका लगभग 90% क्षेत्र आज भी राजस्व सर्वेक्षण से वंचित है।
अप्रैल 2017 में IIT रुड़की की मदद से अकाबेड़ा और कुछ अन्य गाँवों में सर्वेक्षण शुरू किया गया था, परंतु सुरक्षा चिंताओं और बुनियादी ढाँचे की कमी के चलते इसमें कोई खास प्रगति नहीं हो सकी। 2023 में अबूझमाड़ को पहली बार एक ऑपरेशन थियेटर और दो मोबाइल टावर मिल पाए थे। हालाँकि, अब भी बड़े इलाके में मोबाइल नेटवर्क नहीं आते।
चुनाव आयोग अबूझमाड़ को चुनावी प्रक्रिया से जोड़ने के प्रयास कर रहा है। 2018 से यहाँ की मतदाता सूची में 300 से अधिक नाम जोड़े गए हैं, इससे पता चलता है कि यह इलाका कितना अलग-थलग रहा है।
हालाँकि, माओवादी आज भी इस क्षेत्र में लोकतांत्रिक और प्रशासनिक प्रयासों को चुनौती देते है। दिसंबर 2024 में कोहकामेटा में एक मुठभेड़ के दौरान माओवादियों ने डिस्ट्रिक्ट रिजर्व गार्ड (DRG) के एक हेड कांस्टेबल की हत्या कर दी थी। माओवादी अपने प्रभाव वाले इलाकों में पूर्व सरपंचों और नेताओं को भी निशाना बना रहे हैं।
2023 में, अबूझमाड़ के ज़ारा गाँव में पूर्व सरपंच रामजी डोडी और उनके दो भतीजों को माओवादियों ने अगवा कर लिया था। इसके बाद उन्हें जंगल ले जाकर उनकी गला घोंटकर हत्या कर दी थी। उन पर पुलिस का मुखबिर होने का आरोप लगाया गया था।
इसके अलावा, बीजापुर(दक्षिण बस्तर) में एक भाजपा पदाधिकारी और दो पूर्व सरपंचों की भी माओवादियों ने हत्या कर दी थी। यह सिलसिला बताता है कि माओवादी अब भी स्थानीय लोकतांत्रिक प्रक्रिया को कुचलने का प्रयास कर रहे हैं।
इन चुनौतियों के बावजूद, सुरक्षा बलों और सरकार ने अबूझमाड़ सहित पूरे दंडकारण्य क्षेत्र में नक्सली गतिविधियों को खत्म करने के लिए लगातार अभियान चला रखे हैं। फरवरी 2025 में, एक पूर्व माओवादी गिरिधर ने टाइम्सऑफ इंडिया को बताया कि माओवादियों का कभी अजेय गढ़ माना जाने वाला अबूझमाड़ अब गिर चुका है।
गिरिधर पहले PLGA (पीपुल्स लिबरेशन गुरिल्ला आर्मी) का कमांडर था और 2024 में आत्मसमर्पण कर चुका है। गिरिधर ने बताया, “अबूझमाड़ अब अभेद्य नक्सली किला नहीं रहा… कमांडो दंडकारण्य के जंगलों के हर इंच पर कब्जा कर रहे हैं। माओवादी कादर का आधार खत्म हो गया है।”
यह बयान दर्शाता है कि सुरक्षा बलों के अभियान अब निर्णायक मोड़ पर पहुँच चुके हैं और अबूझमाड़, जो कभी माओवादियों का सबसे मजबूत गढ़ था, अब तेजी से उनकी पकड़ से बाहर हो रहा है।
पूर्व माओवादी गिरिधर ने 2009 में राजनांदगाँव के एसपी विनोद चौबे की हत्या की साजिश रची थी। उन्होंने कहा, “हमारा कैडर बेस तेजी से कम हो रहा था। पुलिस अब अपने नागरिक कार्यों, मुफ्त सुविधाओं, नौकरियों और बेहतर जीवन के वादे के साथ लोगों में प्रभाव छोड़ रही थी।”
गिरिधर ने यह भी बताया कि शिक्षा, बेहतर जीवन और शहरी चकाचौंध के आकर्षण ने युवाओं को माओवादी रास्ते से दूर कर दिया है। उन्होंने बताया कि कोई भी युवा माओवादियों के साथ जुड़ना नहीं चाहता।
इस बयान से साफ है कि सरकार की जनकल्याणकारी योजनाएँ, शिक्षा और रोजगार के अवसर, और सहायता वाले दृष्टिकोण ने नक्सलवाद की जड़ें कमजोर करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
नक्सलवाद के खिलाफ जारी है लड़ाई
इस महीने की शुरुआत में छत्तीसगढ़ तेलंगाना सीमा पर कर्रेगुट्टा पहाड़ी पर सुरक्षा बलों ने नक्सलवाद के खिलाफ अब तक का सबसे बड़ा अभियान चलाया। इस ऑपरेशन में 31 इनामी नक्सलियों को मार गिराया गया था। इस कार्रवाई में सुरक्षाबलों ने कर्रेगुट्टा पहाड़ी का 1200 स्क्वायर किलोमीटर का इलाका खाली करवाया था।
इस ऐतिहासिक ऑपरेशन की सफलता के लिए बड़ी संख्या में सुरक्षा बलों, आधुनिक उपकरणों और अन्य जरूरी रसद को काफी मेहनत से इकट्ठा किया गया था। ऑपरेशन की शुरुआत से पहले एक संयुक्त ब्रीफिंग में बलों को कर्रेगुट्टा पहाड़ी (केजीएच) के कठिन और चुनौतीपूर्ण भू भाग के बारे में विस्तार से चेतावनी दी गई थी।
इसमें सैकड़ों गुफाओं, एम्बुश के बिंदुओं और IED जैसे खतरों की विशेष जानकारी शामिल थी। नक्सल विरोधी अभियान के तहत, सुरक्षा बलों ने नक्सलियों के 4 कारखानों को भी नष्ट कर दिया। यहाँ बीजीएल गोले, घरेलू हथियार, आईईडी और अन्य घातक हथियार बनाए जा रहे थे।
2024 में नक्सल विरोधी अभियानों की बड़ी सफलताओं के बाद, 2025 में भी सुरक्षा बलों ने नक्सलवाद के खिलाफ अपना अभियान तेज़ी से जारी रखा है। पिछले चार महीनों में ही 197 कट्टर नक्सलियों को ढेर किया गया है, जो इस संघर्ष की तीव्रता और प्रभावशीलता को दर्शाता है।
नक्सल प्रभावित क्षेत्रों की संख्या में भी ऐतिहासिक गिरावट देखी गई है। 2014 में जहाँ 35 जिले गंभीर रूप से नक्सल प्रभावित थे, वहीं 2025 तक यह संख्या घटकर सिर्फ 6 रह जाएगी। इसी तरह, इसी तरह कुल नक्सल प्रभावित जिलों की संख्या 126 से घटकर अब केवल 18 रह गई है।
नक्सली हिंसा की घटनाओं में भी बड़ा अंतर आया है। 2014 में 76 जिलों के 330 थानों में 1080 नक्सली घटनाएँ दर्ज की गई थीं, जबकि 2024 में यह संख्या घटकर 42 जिले तक सिमट गई। यहाँ के 151 थानों में इस दौरान 374 घटनाएँ ही हुई है। इसी अवधि में सुरक्षा बलों के नुकसान की संख्या 88 से घटकर 19 हो गई है।
साथ ही, मुठभेड़ों में मारे गए नक्सलियों की संख्या 2014 के 63 से बढ़कर अब 2089 हो चुकी है, जो इस अभियान की आक्रामकता और सफलता को दर्शाता है। आत्मसमर्पण की दर में भी बड़ी वृद्धि देखी गई है, 2024 में 928 नक्सलियों ने आत्मसमर्पण किया, जबकि 2025 के पहले चार महीनों में ही 718 नक्सली हथियार छोड़ चुके हैं।
2019 से 2025 के बीच, केंद्रीय बलों और राज्य पुलिस ने नक्सल प्रभावित राज्यों में 320 सुरक्षा कैंप स्थापित किए, जिनमें 68 नाइट लैंडिंग हेलीपैड शामिल हैं। फोर्टिफाइड (सुरक्षित) पुलिस स्टेशनों की संख्या भी 2014 में 66 से बढ़कर अब 555 हो गई है।
ये आँकड़े स्पष्ट रूप से दिखाते हैं कि सरकार और सुरक्षा बलों के संयुक्त प्रयासों से नक्सलवाद की कमर टूट चुकी है, और अब यह समस्या अपने अंत के कगार पर है।
नक्सलियों के खिलाफ चलाए जा रहे व्यापक अभियानों का बड़ा असर अब साफ़ नजर आने लगा हैं। बड़ी और सशस्त्र नक्सली इकाइयों का विभाजन हो गया है और वो छोटे-छोटे दलों में बंट गए हैं। सुरक्षा बलों की नक्सली क्षेत्रों पर पकड़ अब कहीं अधिक मजबूत हो गई है। बीजापुर और नारायणपुर में धीमे-धीमे नक्सली एक-एक इंच से भगाए जा रहे हैं।
ऑपरेशन ‘कगार’ के तहत नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में CRPF, DRG और पुलिस सहित लगभग एक लाख अर्धसैनिक बलों को तैनात किया गया है। इन सुरक्षाकर्मियों को सूचना एकत्र करने के लिए ड्रोन, खुफिया विश्लेषण के लिए एआई, और सैटेलाइट इमेजरी जैसी आधुनिक तकनीकों से लैस किया गया है।
कर्रेगुएटा के बाद अबूझमाड़ के पतन के साथ, भारत वामपंथी उग्रवाद और नक्सलवाद को समाप्त करने और इन विचारधाराओं से प्रभावित क्षेत्रों को शांति, समृद्धि, शिक्षा और विकास की मुख्यधारा में शामिल करने की दिशा में प्रगति कर रहा है।
ऑपइंडिया ने इससे पहले बताया था कि वामपंथी समूहों ने एक खुले पत्र के माध्यम से माओवादी आतंकवादियों का समर्थन किया और सरकार से नक्सल विरोधी अभियान को बंद करने की अपील की थी। हालाँकि, सरकार ने इस पर ध्यान दिए बिना यह लड़ाई जारी रखी थी।
यह रिपोर्ट मूल रूप से अंग्रेजी में श्रद्धा पाण्डेय ने लिखी है। इसका हिंदी में अनुवाद विवेकानंद मिश्रा ने किया है।