नागालैंड का इतिहास तथा इसकी संस्कृति विश्व भर में विख्यात है। नागालैंड का प्राकृतिक सौंदर्य, भोजन, पहनावा और इसकी संस्कृति विश्व को अपनी ओर आकर्षित करती है। नागालैंड राज्य दक्षिण में मणिपुर, उत्तर और पश्चिम में असम और पूर्वोत्तर में अरूणाचल प्रदेश की सीमाओं से घिरा हुआ बहुत ही रमणीय पर्वतीय तथा मैदानी क्षेत्र है। परन्तु इस सुन्दरता के पीछे बहुत ही कटु रक्त-रंजित इतिहास भी छिपा है जो ब्रिटिशों की विभाजनकारी और ईसाईकरण नीति के कारण आज भी अशांति का कारक है।
इतना ही नहीं उनकी इस कुत्सित मानसिकता ने भौगोलिक वर्तमान नागालैंड को स्वरूप में लाने वाले वास्तविक साहसी वीरों के त्याग, बलिदान तथा अखंड भारत के लिए किए गए उनके संघर्षों को इतिहास तथा जनमानस के मानस पटल से ओझल कर दिया है।
सदियों से इस क्षेत्र में अंगामी, आओ, चाखेसांग, चांग, खिआमनीउंगन, कुकी, कोन्याक, लोथा, फौम, पोचुरी, रेंग्मा, संगताम, सुमी, यिमसचुंगरू और ज़ेलिआंग हैं आदि अनेक जन-समुदाय अपनी-अपनी भाषा, वेशभूषा, भोजन, पर्व, परंपरा आदि अनेक सांस्कृतिक एवं भौगोलिक विविधताओं के अद्भुत मिश्रण के साथ सौहार्दपूर्वक रहते आए हैं। इन सांस्कृतिक विरासत से समृद्ध समुदाय के लोगों को “नागा” तथा असभ्य, जंगली एवं बेहद क्रूर जनजाति तथा अनुसूचित क्षेत्र कहने वाले ब्रिटिशर्स ही थे क्योंकि अंग्रेज इन समुदायों के वीर योद्धाओं का सामना नहीं कर पा रहे थे।
1826 की ‘यांदाबू’ संधि के अनुसार असम पर अधिकार करने के बाद ब्रिटेन ने 1892 तक नागा पर्वत पर अपने अधिकार क्षेत्र का लगातार विस्तार किया। परन्तु इसके बाद लंबे समय तक यहाँ नागाओं और अंग्रेजों के बीच भीषण संघर्ष चलता रहा। अंग्रेजों को जल्दी ही विश्वास हो गया था कि उन दुर्गम पहाड़ियों में नागाओं पर अपना आधिपत्य बनाए रखना बहुत मुश्किल है।
1826 से 1865 तक के 40 वर्षों में अंग्रेज़ी सेनाओं ने नागाओं पर कई तरीकों से हमले किए, लेकिन हर बार उन्हें उन मुट्ठी भर योद्धाओं के हाथों करारी हार का सामना करना पड़ा। नागाओं के ऐसे पराक्रम को देख कर सबके मन में उनके प्रति घृणा और भय का भाव भरने के लिए अंग्रेजों ने उन्हें ‘सरकटिया’ (Head-Hunters) जनजाति कहा।
इसके बाद अंग्रेज़ प्रशासकों ने 1866 में एक नवीन कूटनीति के तहत पर्वतीय क्षेत्र को एक अलग ज़िला बनाकर वहाँ सामाजिक विकास और शिक्षा के प्रचार के बहाने से चर्च के मिशनरियों ने लोगों के बीच काम करते हुए उन्हें ईसाई धर्म अपनाने के लिए प्रेरित किया।
अंग्रेजो ने नागों को ईसाइयत के प्रति संतुष्ट रखने के लिए हर तरह के प्रयास किये। इसके लिए उनकी पितरों की मौखिक कथाओं, विश्वासों तथा परम्परों को ईसाई धर्म में स्वीकार किया तथा उनकी मातृक मौखिक भाषा के लिए नवीन लिपि भी बनाई। धीरे-धीरे ईसाई मिशनरी इसमें सफल हुई और उनके प्रति नागाओं में अत्यंत आदर एवं कृतज्ञता का भाव देखा गया।
परिणामस्वरूप नागा जन-समुदाय में भारत के प्रति अलगाववाद तथा उग्रता का बहुत ही गहन बीजारोपण हो गया इसलिए 1929 में जब साइमन कमीशन का नागालैंड में आगमन हुआ था तो नागा प्रतिनिधियों ने उन्हें एक प्रतिवेदन में कहा था कि अंग्रेजों के बाद नागा पहाड़ियों को भारत में शामिल न किया जाए।
यही नहीं, नागाओं के नेता ब्रिटिश नागरिक फिज़ो ने देश की स्वतंत्रता से एक दिन पहले, 14 अगस्त 1947 को स्वतंत्र ‘बृहत्तर नागालैंड’ अथवा “नागालिम” की घोषणा कर दी थी। फ़िजो के नेतृत्व में इस तथाकथित अलग नागालिम या ग्रेटर नागालैंड की माँग को लेकर एन.एन.सी. (Naga National Council) का 1946 में गठन हो चुका था।
फ़िजो की अध्यक्षता ने अन्यायपूर्ण हिंसा का रास्ता अपनाया और नागा तथा NNC के हजारों लोगों को भी अपनी जान गँवानी पड़ी। चीन और पूर्वी पाकिस्तान (अद्यतन बांग्लादेश) ने भारत में अशांति और अस्थिरता उत्पन्न करने के उद्देश्य से इन नागा विद्रोहियों को आर्थिक सहयोग दिया।
परन्तु एक जन समुदाय ऐसा भी था जो न तो हिंसा चाहता था और न ही भारत का एक और हिस्सा। उन्होंने Dr. Imkongliba की अध्यक्षता में प्रथम सम्मलेन (The Naga people’s Convention), 1957 में किया गया जिसमे नागा-हितों का चिंतन करते हुए उनके स्वर्णिम भविष्य की योजना बनाई। जिसमें शुरू में 21 लोग सम्मिलित थे।
इन सब ने पूरे क्षेत्र में सभी 16 जन समुदायों के प्रत्येक घरों तथा ग्राम प्रधानों से मिलकर उन्हें वास्तविकता तथा भारत के साथ रहने में उनके आर्थिक, सामाजिक और धार्मिक विश्वासों के विकास से अवगत कराने का अभियान शुरू किया।
इस तरह प्रत्येक समुदाय के प्रतिनिधियों, विशेष रूप से नागा पहाड़ी और तत्कालीन उत्तर-पूर्व सीमांत एजेंसी के तेनसांग क्षेत्र के साथ-साथ मणिपुर, बर्मा जैसे अन्य नगा क्षेत्रों के लोगों के साथ विचार-विमर्श कर नागा समस्या का भारत सरकार के साथ सम्मानजनक और शांतिपूर्ण राजनीतिक समाधान करने के लिए तैयार किया और नागा लोगों से शांति और समृद्धि के लिए हिंसा का पंथ छोड़ने की अपील की।
प्रथम नागा पीपुल्स कन्वेंशन के प्रयासों के परिणामस्वरूप तत्कालीन भारत सरकार ने भारतीय संविधान की छठी अनुसूची में संशोधन और नागा हिल्स तुएनसांग क्षेत्र नाम से असम से अलग एक प्रशासनिक इकाई बनाई।
इस उपलब्धि से उत्साहित होकर नागा पीपुल्स कन्वेंशन ने नागा-समस्या का पूर्ण समाधान करने के लिए मई 1958 में दूसरा सम्मलेन किया। इस अधिवेशन में हिंसा तथा विभाजन को अनुमोदित करने वाले लोगों को अपनी मृत्यु की परवाह न करते हुए वास्तविकता से अवगत करने का निर्णय लिया गया और डॉ. इम्कोन्ग्लिबा एओ और 7 अन्य सदस्यों के नेतृत्व में एक संपर्क समिति का गठन किया। यह कार्य बहुत ही जोखिम भरा था जिसमें कुछ सफलता के साथ-साथ कई लोगों की शहादत भी हुई ।
इसके बाद अक्टूबर 1959 में तृतीय नागा पीपुल्स कन्वेंशन हुआ और राजनीतिक समाधान के लिए एक मसौदा समिति का गठन किया गया जिसने 16 सूत्री प्रस्ताव तैयार कर भारत सरकार को सौंपा। इस प्रस्ताव में नागा हिल्स तुएनसांग क्षेत्र (NHTA) के रूप में जाने वाले प्रदेश को भारतीय संघ में नगालैंड के नाम से जानने की परिकल्पना की गई तथा सरकार को आश्वासन दिया कि सभी नागा जनसमुदाय अपनी संस्कृति और परंपराओं के अनुसार देश के विकास में अपनी भूमिका पूरी तरह से निभाएँगे।
शान्ति प्रिय इन सम्मेलनों के कठिन और लम्बे संघर्षों के परिणामस्वरूप 1960 में पंडित नेहरू और नागा नेताओं के बीच बातचीत सही दिशा में आगे बढ़ी और नागालैंड को राज्य बनाने की कवायद शुरू की गई। शांतिपूर्ण और विकसित नागालैंड का सपना देखने वाले डॉ. इम्कोन्ग्लिबा एओ की विद्रोही विभाजनकारी नागाओं ने 22 अगस्त 1961 को मुकोचुंग में हत्या कर दी। अंततः 1962 में संसद में नागालैंड एक्ट पास हुआ और 1 दिसंबर 1963 को नागालैंड भारत का 16वाँ राज्य बन गया।
विद्रोहियों पर दबाव बढ़ने की स्थिति में फ़ीजो भारत से पलायन कर पूर्वी पकिस्तान भागा, और वहाँ से जून 1956 में लन्दन। उसके बाद वह कभी भारत नहीं लौटा। 1990 में लन्दन में ही उसकी मृत्यु हुई। विद्रोही नेतृत्वविहीन हो गए और नवम्बर 1975 को उन्होंने भारत सरकार द्वारा आम क्षमादान की पेशकश स्वीकार कर ली।
इस पर भी कुछ ऐसे चरमपंथी थे उसमें जिन्होंने समर्पण करने से इनकार कर दिया और उन्होंने नेशनल सोशलिस्ट काउंसिल ऑफ़ नागालैंड (NSCN) का गठन कर लिया। वर्तमान में NSCN (IM) आतंक की जड़ है, इन चरमपंथियों ने तब से लेकर उन लोगों को अपनी बंदूक का निशाना बनाना जारी रखा है कि जो शांतिपूर्ण ढंग से विवाद का समाधान करना चाहते हैं।
एक अद्वितीय नाम के साथ भारत के संविधान के भीतर 371(ए) का विशेष प्रावधान के तहत एक अलग पहचान प्राप्त करने की दिशा में श्रमसाध्य और खतरनाक यात्रा करने वाले देशभक्त नागा नेताओं के बलिदान और साहस के इतिहास को आधुनिक नागालैंड के इतिहास में जानबूझकर छोड़ दिया गया था।
भारत के 71 वें गणतंत्र दिवस पर नागालैंड के राज्यपाल आर.एन. रवि ने शांतिपूर्ण और विकसित नगालैंड के निर्माण के लिए अपना अप्रतीम योगदान देने वाले डॉ. इम्कोन्ग्लिबा एओ के सम्मान में, कोहिमा में राजभवन के दरबार हॉल को समर्पित किया। 3 अगस्त 2015 को जो भारत सरकार-नागा समझौता हेतु सम्मलेन हुआ है वह भारतीय मूल के आइसाक और मुइवा संचालित नागा संगठन के मध्य हुआ है, जिसे NSCN(IM) के नाम से अधिक जानते हैं।
अपने वक्तव्य में प्रधानमंत्री जी ने कहा था- नागाओं का साहस और प्रतिबद्धता प्रसिद्ध है, ऐसे में उनकी विशिष्ट संस्कृति और इतिहास को मान्यता देना, भारत की सांस्कृतिक समरसता और एकता को ही दर्शाएगा और 70 दशक लंबी इस लड़ाई का अंत होगा। मोदी सरकार के साथ हुए समझौते ने पिछले 40 वर्षों के भारत सरकार और इस अलगाववादी संगठन के बीच बार-बार होते संघर्षविराम को शांतिवार्ता के मंच तक पहुँचाएगा। अब नागालैंड की आम जनता इस समस्या से पूर्ण मुक्ति चाहती है और वह उसी संगठन का साथ देगी जो समाधान की दिशा में कदम बढ़ाएगा।