प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लोकसभा निर्वाचन 2019 जीतने के बाद 30 मई को शपथ ली। उनके साथ 24 कैबिनेट रैंक के मंत्रियों ने शपथ ली। लेकिन शपथ ग्रहण से पहले और उसके तुरंत बाद भी भारत के बुद्धिजीवी वर्ग ने जनता को भ्रमित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। कौन मंत्री बनेगा, नहीं बनेगा से लेकर इस पर भी अटकलों का बाज़ार गर्म किया गया कि किसको कैबिनेट रैंक मिलेगी अथवा नहीं मिलेगी।
भारत के बुद्धिजीवी वर्ग के साथ सबसे बड़ी समस्या यह है कि ये एसी कमरे में बैठकर आराम फरमाते हुए, अपनी अकादमिक डिग्रियों को सुबह शाम सहलाते हुए संविधान और संवैधानिक अधिकारों की दुहाई देते रहते हैं लेकिन जब ये किसी विषय पर विश्लेषण लिखते हैं तो संविधान की पुस्तक को बंद कर उसके ऊपर भारी भरकम कॉफी का मग रख देते हैं।
एक उदाहरण देखिए। स्वनामधन्य न्यूज़ चैनल एनडीटीवी की वेबसाइट पर नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री के रूप में शपथ लेने के एक दिन बाद ही बिजली की तेज़ी से यह विश्लेषण प्रकाशित किया गया कि मोदी ने अजित डोभाल के ‘पर क़तर दिए।’ डोभाल साहब के पर कतरने का क्या अर्थ है ये हमसे न पूछिए क्योंकि एनडीटीवी ने जब वह लेख प्रकाशित किया तब प्रधानमंत्री की नई कैबिनेट आकार ले ही रही थी, पोर्टफोलियो निर्धारित हो ही रहे थे।
यह ऐसा ही था जैसे स्पार्टा में किसी शिशु ने जन्म लिया हो और किसी ने उसे स्पर्श मात्र कर यह जान लिया कि उस नवजात में स्पार्टा के सैनिकों वाले गुण नहीं हैं। हे बुद्धि बेचकर जीविका कमाने वाले बुद्धिजीवियों! भारत के प्रधानमंत्री की कैबिनेट का निर्धारण स्पार्टा के सैनिकों जैसी प्रक्रिया से नहीं होता। जिस संविधान पर तुमने कॉफी का महंगा मग रखा है उसे खोलकर पढ़ लेते तो पता चल जाता कि अनुच्छेद 75 में यह लिखा है कि राष्ट्रपति उन्हीं को मंत्री बना सकते हैं जिनके नाम का सुझाव प्रधानमंत्री देते हैं।
अर्थात मंत्री बनाने की कोई ‘प्रक्रिया’ नहीं होती जिस पर प्रश्न खड़े किए जाएँ या चर्चा का विषय बनाया जाए। यह पूर्ण रूप से प्रधानमंत्री का अधिकार है कि वे किसको किस रैंक का मंत्री बनाते हैं। जानकारी के लिए बता दें कि केंद्र सरकार में तीन प्रकार के मंत्री होते हैं- कैबिनेट, राज्यमंत्री और राज्यमंत्री (स्वतंत्र प्रभार)। इनमें कैबिनेट रैंक के मंत्री शक्तिशाली माने जाते हैं क्योंकि वे कैबिनेट समितियों की बैठकों में भाग ले सकते हैं।
जहाँ तक अजित डोभाल का प्रश्न है वे प्रधानमंत्री के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार हैं। इससे पहले वे इंटेलिजेंस ब्यूरो के चीफ रह चुके हैं और चाहे पाकिस्तान समर्थित जिहादी आतंकवाद हो या उत्तर पूर्वी भारत का उग्रवाद, डोभाल साहब को देश की रणनीतिक सुरक्षा से जुड़े कठिनतम वातावरण में काम करने का अनुभव है। उन्होंने पंजाब में खालिस्तानी आतंकवाद भी देखा है और प्लेन हाईजैक की समस्या से भी दो चार हुए हैं।
वे नरेंद्र मोदी के विश्वस्त सहयोगी हैं। जिस व्यक्ति का पूरा जीवन इंटेलिजेंस जुटाने और संकट से जूझने में गुजरा हो और जिसे कीर्ति चक्र से सम्मानित किया गया हो उसकी योग्यता पर तो प्रश्न चिन्ह लग नहीं सकता। प्रधानमंत्री उन्हें कैबिनेट रैंक का दर्जा दें या न दें यह भी प्रधानमंत्री का विशेषाधिकार है। इस पर भी कोई प्रश्न खड़े नहीं कर सकता। इसलिए बुद्धिजीवी महोदय को ‘त्वरित’ विश्लेषण करने से पहले थोड़ा सोच लेना चाहिए था।
बहरहाल आजकल थिंक टैंकों में लिखने पढ़ने वाले बुद्धिजीवियों की छपास यानी ‘छपने की प्यास’ इतनी तीव्र है कि वे अपनी कलम रोक नहीं पाते। अब ताजा समाचार के अनुसार जब डोभाल साहब को अगले पाँच साल के लिए प्रधानमंत्री के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार के पद पर विस्तार मिल गया है और यही नहीं उन्हें कैबिनेट रैंक का दर्जा भी मिल गया है तब ‘पर कतरने’ वाला विश्लेषण इंटरनेट के किसी कूड़ेदान में जाएगा या पाठक की गालियों में सुशोभित होगा इस पर सम्मानित बुद्धिजीवी जी को विचार करना चाहिए।
दूसरी बात यह है कि किसी व्यक्ति को पद मिलना या न मिलना उतना महत्वपूर्ण नहीं। संस्थान सदैव व्यक्ति से ऊँचा होता है। नरेंद्र मोदी ने प्रधानमंत्री रहते हुए राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद की कार्यप्रणाली में जो परिवर्तन किए उसका विश्लेषण, प्रशंसा, आलोचना और विमर्श किया जाना चाहिए क्योंकि पद कोई भी ग्रहण करे, संस्थान की कार्यक्षमता अधिक महत्वपूर्ण है। अजित डोभाल को कैबिनेट रैंक मिलने से अब वे सुरक्षा मामलों की कैबिनेट समिति की बैठक में भी भाग ले सकेंगे। इससे क्या प्रभाव पड़ना चाहिए विमर्श का मुद्दा यह होना चाहिए, किंतु भारत के बुद्धिजीवी विरले प्राणी हैं जो ग्रहों की चाल का अध्ययन कर यही समझ पाते हैं कि कहीं वे आकाश में टकरा गए तो क्या होगा।