Tuesday, October 1, 2024
Home Blog Page 5378

राष्ट्रवादी से लेकर पेरियारवादी तक हैं नर्तकी नटराज की कला के प्रेरणा स्रोत: वो ‘इंसान’ जिसने इतिहास रचा

“मेरा मानना है कि नृत्य हमारे शरीरों ही नहीं, आत्माओं तक को जोड़ देने के सबसे अद्भुत मार्गों में से एक है।” यह शब्द हैं पद्मश्री से विभूषित होने वाली प्रथम किन्नर (ट्रांसजेंडर) नर्तकी नटराज के।

1989 में खोला अपना पहला नृत्य विद्यालय

1964 में मदुरै में जन्मीं नर्तकी नटराज ने अपना प्रथम नर्तकी नृत्य कलायालय मदुरै में प्रारंभ किया और तमिलनाडु की राजधानी चेन्नै में 2001-02 में दूसरा कलायालय खोला।

बचपन में उन्हें नृत्य की ओर प्रथम आकर्षण पद्मिनी और वैजयंतीमाला जैसी अभिनेत्रियों की फिल्मों के नृत्य को देखकर हुआ। धीरे-धीरे उन्होंने आसपास के स्थानीय नृत्य-नाटक समूहों को भी देखना शुरू कर दिया।

सामाजिक प्रताड़ना का होना पड़ा शिकार

जिस भारत में किन्नर एक समय देवताओं की एक जाति थी और जो अपने महानतम देवताओं शिव और कृष्ण के ‘अर्धनारीश्वर’ और ‘मोहिनी’ रूप के गुण गाता हो, उसके लिए यह ग्लानि का विषय है कि वह अबोध बच्चों को उनकी किन्नर के रूप में लैंगिक पहचान के कारण प्रताड़ित करे।

नर्तकी बतातीं हैं कि एक बच्चे के रूप में वह अपनी लैंगिक पहचान को लेकर समझ नहीं पातीं थीं कि वे औरों से अलग कैसे हैं। पर नृत्य को लेकर उनके मन में कोई दुविधा नहीं थी- उन्हें पता था कि शरीर से वे चाहे जो हों, उनकी आत्मा एक नृत्य-साधक है। उन्होंने नृत्य का दामन पकड़ लिया और “एकै साधै सब सधै…” की तर्ज पर उनके नृत्य ने उन्हें अपनी लैंगिक पहचान पाने और गढ़ने में भी सहायता की।

नृत्य के प्रति उनके मादक अनुराग की उनके पुरुष शरीर में नारी के तौर पर पहचान को ढूँढ़ने में और अभिव्यक्त करने में महत्वपूर्ण भूमिका रही। नर्तकी नटराज यह भी मानतीं हैं कि उन्होंने नृत्य का नहीं, नृत्य ने उनका चयन किया है।

“नृत्य ने मेरा चयन किया और मेरे अव्यक्त नारीत्व को अभिव्यक्ति दी। नृत्य ने उसे वास्तविकता के धरातल पर उतारा और उसकी सूक्ष्मताओं का बयान किया।”

“हमने (नर्तकी और उनकी मित्र व नृत्य में साझीदार शक्ति भास्कर) भय भी झेला है, शर्म भी, प्रतिबन्ध भी। लोग हमें वेश्यावृत्ति में धकेलना चाहते थे, पर हमने कला को चुना; शर्म और नकारे जाने को अपनी आत्मा को नहीं तोड़ने दिया।” नर्तकी कहतीं हैं, “सम्मानित कलाकार के नाम पर नाम कमाने का जूनून हमें यहाँ तक ले आया है।”

परंपरा की हैं मुरीद

नर्तकी नटराज की विशेषज्ञता तन्जवुर (तंजौर) नायकी भाव परंपरा  में है। उनके अनुसार यह पारंपरिक तन्जवुर शैली है, जो 20वीं सदी में कलाक्षेत्र की नर्तकी रुक्मिणी देवी द्वारा भरतनाट्यम के पुनर्निमाण से पहले की है। इस शैली में ऐतिहासिक विरासत को शुद्धतम रूप में प्रस्तुत करने पर खासा जोर दिया जाता है।

नर्तकी नटराज अपने गुरू, विख्यात डॉ. केपी किट्टप्पा पिल्लई, द्वारा निर्देशित नृत्यों को हूबहू मन्च पर उकेरतीं हैं, और अपने नृत्य को “मधुर भक्ति” कहतीं हैं, जिसमें भावनाओं की कोमलता और आवेश दोनों का सुन्दर समागम होता है।

गुरू और मित्र शक्ति, की जीवन में है महत्वपूर्ण भूमिका

2011 का संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी से प्राप्त कर चुकीं नर्तकी के जीवन में उनके गुरू किट्टप्पा पिल्लई और मित्र शक्ति भास्कर ने बड़ी भूमिकाएँ निभाईं हैं।

मित्र शक्ति, जो उन्हीं की तरह किन्नर हैं, ने अपने परिवार के टेक्सटाइल के धंधे में काम कर के नर्तकी की नृत्य की फ़ीस का बंदोबस्त किया। पहले नृत्य गुरू जयरमन (वह भी जाने-माने नृत्य-शिक्षक थे) से चोरी-छिपे नृत्य सीखने नर्तकी घर से 90 मिनट पैदल चल कर मदुरै की एक ‘चाल’ में जातीं थीं, जो किसी जानने वाले ने दया कर उन्हें अभ्यास के लिए दे दी थी। 1982 में ₹80 जयरमन की फीस थी और ₹20 उस ‘चाल’ तक रोज़ आने-जाने का उन्हें लगाना पड़ता था। (वह कुछ समय पहले ही लम्बी बीमारी से उबरे थे)

नर्तकी का बहाना शक्ति के साथ मंदिर जाने का होता था, इसलिए पूरे दिन काम करने के बाद शक्ति को भी उनके साथ वहाँ तक जाना पड़ता था।

1983 में एक साल की कठोर साधना के पश्चात् जब नर्तकी के अरंगेत्रम (पदार्पण) का मौका आया तो नर्तकी ने खुद जा कर मदुरै के तत्कालीन मेयर को आमंत्रित किया- और वह आए भी। नर्तकी के खुद के परिवार को इस पर विश्वास नहीं हुआ कि मेयर उनकी ‘बेटी’ के आमंत्रण पर उसका नृत्य देखने आए हैं। झमाझम बारिश को ईश्वर का आशीर्वाद मानते हुए नर्तकी ने उस दिन वह नृत्य किया कि वे एक शाम में पूरे मदुरै में जाने जानीं लगीं।

गुरू किट्टप्पा की व्यस्तता के चलते नर्तकी को उनसे शिष्यत्व पाने के लिए लगभग एक साल तक उनकी मनुहार करनी पड़ी। पर जब किट्टप्पा ने उन्हें पकड़ा तो महान नर्तकी बना कर ही छोड़ा। उन्हें उनका नाम ‘नर्तकी नटराज’ भी गुरू किट्टप्पा ने ही दिया। वह नर्तकी को नृत्य के लिए हमेशा प्रोत्साहित करते और कठिन-से-कठिन नृत्य सिखाते गए। इसके अलावा नर्तकी की लैंगिक पहचान और समस्याओं के विषय में भी गुरू किट्टप्पा ने हमेशा उनका साथ दिया।

उन्होंने नर्तकी को नायकी भावं नृत्य पर एक शोधपत्र लिखने का भी परामर्श दिया और पूरी-पूरी सहायता भी की।

राष्ट्रवाद से पेरियारवाद तक हर जगह से लेतीं हैं प्रेरणा

श्री कृष्ण गान सभा द्वारा नृत्य चूड़ामणि सम्मान से सुशोभित (2009) व तमिलनाडु सरकार का उच्चतम सम्मान कलाईमामणि से सम्मानित नटराज राष्ट्रवादी कवी सुब्रमण्य भारती से लेकर पेरियार से प्रभावित कवि भारतीडासन तक तमिल साहित्य की कई विभूतियों के कार्यों को अपनी प्रेरणा बना नृत्य निर्देशित करतीं हैं। पर शैली विशुद्ध भारतीय पारंपरिक ही रखतीं हैं।

अपने शिष्यों को भी वे उच्च कोटि के गुप्त नृत्य रूप इसी शर्त पर सिखातीं हैं कि वे न खुद उनसे छेड़-छाड़ करेंगे, न ही ऐसे किसी शिष्य को आगे सिखाएँगे जो यह प्रण न ले।

तमिलनाडु की 11वीं की तमिल किताबों में नर्तकी नटराज का जीवन चरित्र अंकित है (पूरे भारत में भी होना चाहिए और 7वीं-8वीं तक आ जाना चाहिए, ताकि उनकी तरह लैंगिक पहचान से जूझ रहे बच्चे उनसे प्रेरणा ले सकें)। उन्होंने शक्ति भास्कर के साथ मदुरै के मीनाक्षी मंदिर में 16 जनवरी 2002 को प्रस्तुति दी थी, जो प्राचीन भारत के इस कला केंद्र में 20 वर्ष के अंतराल पर पहली थी।

कड़वाहट नहीं, स्वाभिमान है दिल में

इतने कठिन दिन देखने और निरपराध होकर भी अपमान सहने के बावजूद नर्तकी कभी ‘विक्टिम-कार्ड’ खेल कर सहानुभूति नहीं बटोरना चाहतीं। वह नहीं चाहतीं कि उनके किन्नर होने के कारण उन्हें कोई विशेष सुविधा दी जाए, या उनकी कला को सहानुभूति के आधार पर सराहा जाए।

“मैं आभारी हूँ कि मेरे गुण उन बाकी सभी चीज़ों के मुकाबले उभर कर निकल पाए, जिन्हें लोग गुणों के स्थान पर तलाश रहे थे।”

परमहंस योगानंद का निम्नलिखित कथन उनकी वेबसाइट के मुख्य पेज पर साभार है:

“अटलता निर्णयों की निश्चितता को आश्वासित करती है।”

(“Persistence guarantees that results are inevitable.”)

मनोहर पर्रिकर के निधन पर ‘हँसने’ वाले इस्लामोफोबिया को बढ़ाते हैं

एक प्रयोग कर लीजिए अभी आप लोग। जिस किसी भी न्यूज़ चैनल/साइट/पोर्टल को आप फॉलो करते हैं उनके पेज पर जाइए और मनोहर पर्रिकर की मृत्यु की खबर पर ‘रिएक्शन्स’ पर क्लिक करके ‘हा-हा’ के नीचे के नाम पढ़ लीजिए। इस बार मैं स्क्रीनशॉट्स नहीं लगा रहा, क्योंकि आपकी जब इच्छा हो खुद जाकर देख सकते हैं। इसके साथ ही, यह कहना भी ज़रूरी है कि एक ख़ास तरह के नामों के अलावा इस तरह की संवेदनहीनता दिखाने में कई और लोग भी थे, जो दूसरी विचारधारा के थे। फिर भी, ऐसे हर मौके पर एक ही तरह के नाम का आना उन लोगों को प्रभावित करता है जिन्हें यह समझ में नहीं आता कि किसी की मौत पर कोई खुश कैसे हो सकता है।

कुछ लोग कहेंगे क्या साबित होता है इससे। ये लोग वो लोग हैं जो दिन भर ‘गरिमा’, ‘नैतिकता’, ‘लोक व्यवहार’ आदि के नाम पर फेसबुक पेज से लेकर नेता, व्यक्ति या संस्थानों को गरियाते दिखते हैं। 

इससे साबित इतना ही होता है कि समाज में एक सम्प्रदाय के कुछ लोगों की सामूहिक संवेदनहीनता हर ऐसे मौके पर दिख जाती है। इस्लामोफोबिया का भाव आकाश से नहीं टपकता। यही वो मौके हैं जब वैसे लोग सोचने लगते हैं कि ये किस तरह के लोग हैं?

कुछ लोगों के संवेदनहीनता के आधार पर सबको जज करना गैरज़रूरी है, लेकिन वास्तविकता यही है कि ऐसे लोग ही इस्लामोफोबिया के बड़े कारण हैं। इस्लामी आतंकवाद तो एक कारण है ही, लेकिन पुलवामा हमले के बाद सैनिकों के बलिदान होने की खबर पर ‘हा-हा’ करने वालों का भी रिलिजन था, पर्रिकर की मृत्यु की खबर पर हँसने वालों का भी और पुलवामा में आत्मघाती हमला करने वालों का भी।

किसी भी समाज या सम्प्रदाय से सामूहिक रूप से घृणा करना सही नहीं, लेकिन उसकी वजहें होती हैं। हो सकता है कि आप उन लोगों के ऐसे कार्यों से सीधे तौर पर प्रभावित न हो रहे हों, आपको पूरे जीवन उनसे कोई काम न पड़े, लेकिन मानवीय संवेदनाएँ निजी तौर पर ही हमें प्रभावित नहीं करती। अगर कोई चालीस जवानों के बलिदान पर ‘हँस’ रहा है, तो ज़ाहिर है कि उसकी संवेदना जवानों के साथ, उनके परिवारों के साथ तो नहीं ही है। 

ऐसे लोगों की संवेदना पर चर्चा करना भी अजीब ही है क्योंकि ऐसे लोग हर ऐसी घटना पर सामने आ जाते हैं। मनोहर पर्रिकर की मृत्यु पर ‘हा-हा’ करता हुआ मजहबी नाम वाला व्यक्ति इस ख़बर से किस स्तर पर प्रभावित हो रहा है, ये हम या आप नहीं समझ सकते। उसे बस एक विरोधी (शायद) विचारधारा या पार्टी के नेता की मृत्यु की खुशी है। उसे उस सरकार के कार्यकाल में वीरगति को प्राप्त हुए भारतीय सैनिकों की मृत्यु की खुशी है। खुशी का कारण यह भी हो सकता है कि जिसने आत्मघाती हमला किया वो भी उसी धर्म का हो।

यहाँ घृणा एक स्तर पर ही नहीं है। यहाँ घृणा, एक समूह के द्वारा, जिनकी पहचान उनके नामों से खुलकर सामने आती है, और वो ऐसा करने से छुपते नहीं, कहीं नाम छुपाकर ऐसी बातें नहीं करते, जो हर ऐसे मौक़े पर सरकार या दूसरे धर्म से संबंधित लोगों की मृत्यु पर हँसते हैं। ये एक बुनियादी मानवीय गुण है कि किसी की मृत्यु पर अगर अच्छी बातें नहीं बोल सकते, तो चुप रहना पसंद कर सकते हैं। 

लेकिन कुछ लोगों की घृणा का स्तर इतना ज़्यादा होता है कि वो अपनी भावनाओं को छुपा नहीं पाते। यही कारण है कि ऐसे कुछ लोगों की बेहूदगी के कारण इस्लामोफोबिया, या इस्लाम मज़हब से नफ़रत, को हवा मिलती है। ये कट्टरपंथी वैसे कट्टरपंथी हैं जो चाहते हैं कि लोग उनसे घृणा करें। वरना आज के समाज में, जहाँ करुणा और दया की बात करते हुए दीवाली पर पटाखों के शोर से परेशान होने वाले जानवरों की हालत पर चर्चाएँ होती हैं, वहाँ ऐसे लोग इस तरह के काम भला क्यों करते हैं! 

मेरी अपील है इस मज़हब के बेहतर लोगों से कि वो सामने आएँ और ऐसे लोगों को धिक्कारें। वो अगर पचास हैं, तो आप में से सौ को आगे आकर इस पर लिखना और बोलना चाहिए कि ये गलत है। आप यह कहकर बच नहीं सकते कि ये लोग ‘अच्छे मजहबी’ नहीं हैं। फिर तो, बाकी दुनिया भी किसी दाढ़ी वाले व्यक्ति को किसी अमेरिकी महिला द्वारा ट्रेन की ट्रैक पर ढकेल देने पर यही कहेगी कि वो ‘अच्छी ईसाई’ नहीं थी

ये ‘अच्छा मजहबी’ और ‘हमारा मज़हब यह नहीं सिखाता’ की नकारी सोच से ऊपर उठकर, एक बेहतर समाज के लिए अपने भीतर से ही सफ़ाई जरूरी है। अगर पूरा समुदाय ऐसे समय पर भर्त्सना नहीं करता, जैसा कि कई लोगों ने न्यूज़ीलैंड हमले के बाद ‘खुश होने वाले’ लोगों के साथ किया था, तब तक कट्टरपंथियों से घृणा की हवा और तेज ही बहेगी। और यही नफ़रत किसी युवक को मस्जिदों में पंद्रह मिनट तक गोली चलाने तक पहुँचा देती है। 

इस नफ़रत को फेसबुक जैसी जगहों से ही रोकना ज़रूरी है क्योंकि अगर वहाँ आप उस पर कड़ा रुख़ नहीं रख पा रहे, तो वहाँ उन नामों को भी वह रास्ता चुनने में सहजता होगी जो अभी तक इस तरह की घृणा पान की दुकान पर, सड़क के किनारे या चाय पीते हुए चार लोगों के बीच फैलाते थे।

सर्जिकल स्ट्राइक्स से लेकर OROP तक: रक्षा मंत्री के रूप में मनोहर पर्रिकर के कार्यकाल का विस्तृत विवरण

मनोहर पर्रिकर- एक ऐसा नाम, जिस से गोवा का बच्चा-बच्चा परिचित था। चूँकि राष्ट्रीय पटल पर वह उतने सक्रिय नहीं रहे थे, देश के दूसरे हिस्से के लोगों ने बस उनकी किवदंतियाँ सुन रखी थी। चार बार गोवा फतह कर चुके पर्रिकर का सीएम रहते स्कूटर से सड़कों पर निकल जाना सोशल मीडिया पर ट्रेंड किया करता था। लोगों के लिए यह काफ़ी आश्चर्य वाली बात थी कि आज के दौर में ऐसे नेता भी हैं जो शिखर पर पहुँच कर भी इस प्रकार सादगी भरा जीवन जीते हैं।

देश का सौभाग्य था कि राजग सरकार में पर्रिकर को गोवा से दिल्ली बुला कर एक ऐसे मंत्रालय की जिम्मेदारी सौंपी गई, जो पहले अपनी कछुआ चाल के कारण जाना जाता था। रक्षा मंत्रालय- यह एक ऐसा विभाग था जहाँ फाइलें वर्षों धूल फाँकती रहती थीं। अफसरों को भी इस धीमी गति की आदत पड़ गई थी और देश का रक्षा तंत्र ध्वस्त हो चला था। स्वयं पूर्व रक्षा मंत्री एके एंटोनी ने कहा था कि राफेल ख़रीदने के लिए सरकार के पास बजट नहीं है। जब आठ साल तक रक्षा मंत्री रहा व्यक्ति इस विभाग को ठीक नहीं कर सका, पर्रिकर जैसे कुशल प्रशासक ने यह कार्य सिर्फ़ 2 सालों में कर दिखाया।

गोवा का सर्वमान्य नेता

पर्रिकर ने रक्षा मंत्री का दायित्व सँभालते ही पूर्व में हुए अगस्ता-वेस्टलैंड जैसे घोटालों की जाँच बैठा कर भ्रष्टाचारियों में हड़कंप मचा दिया। कहते हैं, अगर भविष्य अच्छा करना हो तो अतीत में हुई गलतियों को सुधारना पड़ता है। पर्रिकर ने इसी को ध्येय बनाया। जनवरी 2016 में जब फ्रांस के राष्ट्रपति हॉलैंड भारत दौरे पर आए तब 36 राफेल एयरक्राफ्ट्स की ख़रीद के लिए MoU पर हस्ताक्षर किया गया। उस दौरान पर्रिकर ही देश के रक्षा मंत्री थे। भविष्य में जब राफेल भारतीय वायुसेना के बेड़े में शामिल होगा, देश को कहीं न कहीं पर्रिकर की याद आएगी ही। राफेल सौदे को लेकर उनपर कींचड़ उछलने की भरपूर कोशिश की गई, उनका नाम लेकर पीएम मोदी पर निशाना साधा गया, झूठ बोला गया। विपक्षियों ने बीमारी के दौरान भी पर्रिकर पर सवाल खड़े किए, जिसके कारण उन्हें पत्र लिख कर इन बातों का तथ्यों के साथ जवाब देना पड़ा।

इतनी गंभीर बीमारी के दौरान भी पर्रिकर जैसे नेता पर छींटाकशी करने वाले राहुल गाँधी आज ज़रूर शर्मिंदा होंगे। आपको याद होगा जब मनोहर पर्रिकर ‘वन रैंक, वन पेंशन (OROP)’ की घोषणा करने प्रेस कॉन्फ्रेंस में आए थे। सौम्य व्यक्तित्व और सरल भाषा में चीजों को रखने वाले पर्रिकर ने जवानों की दशकों से चली आ रही माँग पर ध्यान दिया और इसे पूरा किया। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कैबिनेट का हिस्सा बन कर एक तरह से पर्रिकर ने पूरे देश का दिल जीत लिया। लोग अब उन्हें गोवा से बाहर भी जान रहे थे, उनके कायल होने लगे थे। सेना के रिटायर्ड जवानों ने उन्हें धन्यवाद किया और एक योग्य शासक बनाया। नीचे आप वीडियो को देख कर वो याद फिर से ताज़ा कर सकते हैं। 45 वर्षों से चली आ रही इस माँग को पूरा करने वाला कोई साधारण नेता तो हो नहीं सकता।

OROP: चार दशक से चली आ रही माँग की पूरी

पर्रिकर ने इस कॉन्फ्रेंस में बताया था कि कैसे उनके पूर्ववर्तियों ने OROP को लेकर जवानों की माँगों को नज़रअंदाज़ किया। पर्रिकर ने बताया था कि यूपीए सरकार ने इसे लेकर समय की घोषणा तो कर दी थी लेकिन इसका स्वरूप क्या होगा, इसे कैसे लागू किया जाएगा, इस बारे में उन लोगों को कुछ पता ही नहीं था। सितम्बर 2015 में हुए इस प्रेस कॉन्फ्रेंस को याद करते हुए इसके ठीक एक साल बाद अक्टूबर 2016 में पर्रिकर था कि केवल मोदी सरकार ही OROP लागू कर सकती थी। उनकी ये बात बिलकुल सही थी क्योंकि नेताओं के लचर रवैये के कारण कालचक्र के अगनित लूप में फँसी इस योजना पर कार्य करने के लिए एक योग्य, कुशल और जनता से जुड़े नेता की ज़रूरत थी, जो पर्रिकर के रूप में देश को मिला। इस योजना से तीस लाख रिटायर्ड जवानों व दिवंगत जवानों के परिवारों को लाभ मिला।

सर्जिकल स्ट्राइक: अहम था पर्रिकर का योगदान

उरी हमले के बाद पूरा देश आक्रोश में थे, तब भारत ने पकसिएटन स्थित आतंकी कैम्पों पर सर्जिकल स्ट्राइक किया। यह बहुत बड़ी बात थी क्योंकि उस समय तक भारतीय सेना धैर्य का परिचय देती रही थी और राजनीतिक इच्छाशक्ति उतनी मज़बूत नहीं थी कि सीमा पार आतंकी कैम्पों को ध्वस्त करने के लिए कोई निर्णय लिया जा सके। बाद में पर्रिकर ने सेना को इस ऑपरेशन का क्रेडिट देते हुए यह भी जोड़ा था कि बिना योग्य राजनीतिक नेतृत्व के यह स्ट्राइक संभव नहीं था। उन्होंने कहा था कि उनके हर निर्णय में प्रधानमंत्री का समर्थन था, जो एक बहुत बड़ी बात थी। पर्रिकर के अनुसार, सर्जिकल स्ट्राइक की योजना तैयार करने में 15 महीने लगे थे। यह अचानक नहीं हुआ था।

सेना के आधुनिकीकरण में नहीं छोड़ी कोई कसर

सबसे बड़ी बात थी सेना के आधुनिकीकरण की। सेना का आधुनिकीकरण (Modernization) एक ऐसा मुद्दा रहा है, जो दशकों से प्रासंगिक रहा है। नेहरू से जब अधिकारियों ने इस सम्बन्ध में बात की, तो उन्होंने इसे मज़ाक में उड़ाते हुए अधिकारियों को ही झिड़क दिया था। पर्रिकर दूरदर्शी नेता थे। उन्हें पता था कि उन्हें विरासत में जो विभाग मिला है, उसका अतीत क्या रहा है और उसे कैसे सुधारना है? उनके कार्यकाल में निम्नलिखित बड़े और महत्वपूर्ण रक्षा सौदे हुए:

  • फ्रांस से राफेल एयरक्राफ्ट्स की ख़रीद हुई और करार फाइनल किया गया।
  • बोईंग AH64 अपाचे लॉन्गबो अटैक हैलीकॉप्टर ख़रीदने का करार फाइनल हुआ। इस से ज़मीन पर मौजूद ख़तरों से निपटने में आसानी होगी। सेना को आधुनिक साजोसामान मुहैया कराने की दिशा में एक एक अहम क़दम था।
  • 15 चिनूक हैवी लिफ्ट हैलीकॉप्टर ख़रीदने की डील पर हस्ताक्षर किए गए। अपाचे और चिनूक को भारत के लिए गेम-चेंजर बताया जा रहा है।
  • अमेरिका से अल्ट्रा लाइट होविट्जर (M777) की ख़रीद पर हस्ताक्षर किए गए। तुरंत तैनाती में सक्षम ये होविट्जर भारतीय सेना के लिए वरदान साबित हो रहे हैं।

आपको यह भी जानना चाहिए कि पर्रिकर द्वारा फाइनल की गई इन चीजों में से कई भारतीय सेना को मिल चुके हैं। इनमे से धीरे-धीरे कर कुछ खेप पहुँचने शुरू हो गए हैं और जब भी ऐसे साजोसामान सेना को मिलते हैं, उनमे जश्न का माहौल होता है। देश की रक्षा और आपदा प्रबंधन में आगे इनका योगदान अतुलनीय होने वाला है। शायद इसीलिए कहा जाता है कि पर्रिकर जैसे लोग निधन के बाद भी अपने कार्यों के जरिए जनता का भला करते रहते हैं, किसी न किसी रूप में हमारे बीच मौजूद रह कर हमारा मार्गदर्शन करते रहते हैं। शायद आपको नहीं पता हो लेकिन उनके कार्यकाल में न सिर्फपाकिस्तान बल्कि म्यांमार में भी एक बृहद सर्जिकल स्ट्राइक को अंजाम दिया गया था।

अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा व प्रधानमंत्री मोदी के साथ पर्रिकर

इसके अलावा रक्षा मंत्रालय ने उनके कार्यकाल में 16,000 करोड़ से भी अधिक में 420 एयर डिफेंस गन की ख़रीद को मंज़ूरी दी। 15,000 करोड़ से भी अधिक के मूल्य वाले 814 अर्टिलरी गन की ख़रीद को हरी झंडी दिखाई गई। जुलाई 2018 में पर्रिकर ने बताया था कि भारत 155/25 सेल्फ-प्रोपेल्ड गन्स की ख़रीद के मामले में अंतिम चरण में है और इसे कभी भी फाइनल किया जा सकता है। वाइब्रेंट गुजरात से के दौरान उन्होंने यह जानकारी दी थी। इसके अलावा 118 अर्जुन MK-ii टैंक्स को भी मंज़ूरी दी गई। हालाँकि, इनमे अड़चनें हमेशा से थी और आती रही हैं लेकिन पर्रिकर ने फाइलों को निबटाने में जो सक्रियता दिखाई, वो शायद ही किसी अन्य रक्षा मंत्री ने दिखाई हो।

LEMOA: भारत-अमेरिका के सैन्य रिश्ते हुए प्रगाढ़

विश्व महाशक्ति अमेरिका के साथ सैन्य समझौते को और प्रगाढ़ करने का कार्य पर्रिकर के कार्यकाल में ही हुआ। उनके कार्यकाल में अमेरिका के साथ logistics exchange memorandum of agreement पर हस्ताक्षर किया गया। इस समझौते के तहत अमेरिका और भारत की सेना एक दूसरे के साजोसामान और फैसिलिटीज को रिपेयर, मेंटेनेंस, सप्लाई और ट्रेनिंग के लिए प्रयोग कर सकते हैं। इसके लिए दिशानिर्देश भी तैयार किए गए हैं। इस से अमेरिका और भारत के बीच संयुक्त सैन्य अभ्यास और आसान हो गया। इसे एक दशक पूर्व ही अमेरिका द्वारा प्रस्तावित किया गया था लेकिन पर्रिकर के कार्यकाल में ही इसे मूर्त रूप लिया।

देश के पूर्व रक्षा मंत्री और चार बार गोवा के मुख्यमंत्री रहे सौम्य, सरल व्यक्तित्व के धनी मनोहर पर्रिकर को श्रद्धांजलि देते हुए हम उनकी आत्मा की शांति की कामना करते हैं। भारत के लिए उनके द्वारा किए गए कार्यों की गूँज सुनाई देती रहेगी, दशकों तक। इतिहास में उन्हें कम समय में बहुत कुछ करने के लिए याद रखा जाएगा। 63 वर्ष की उम्र में उनका निधन दुःखद है।

‘मुझे मोदी से दिक्कत नहीं है, भक्तों से है’ – बोत हार्ड भाई, बोत हार्ड…

आजकल यूट्यूब कॉमेडियन से लेकर कन्हैया कुमार तक एक नया राग छेड़ रहे हैं कि उन्हें ‘मोदी से दिक्कत नहीं है, भक्तों से है’, और यह कि ‘हमारी लड़ाई व्यक्ति से नहीं संविधान बचाने को लेकर है। पहला आदमी कुणाल कमरा है, दूसरा कन्हैया कुमार है। दोनों के नाम में इतने ‘के’ हैं कि ये लोग एकता कपूर के सीरियल होते तो हिट हो चुके होते, सस्ती लोकप्रियता के लिए मोदी-मोदी नहीं जपते। 

इनकी समस्या वाक़ई मोदी नहीं है, इनकी समस्या है कि इनके पास मोदी को छोड़कर और कुछ है ही नहीं करने को। कुणाल कमरा की बात करें तो वो पेशे से कॉमेडियन हैं। अपने विडियो के अंत में वो बाक़ायदा लेनन के शब्द रखते हैं कि ‘ह्यूमर और नॉन-वायलेंस’ से ही सब कुछ जीता जा सकता है। हालाँकि, वो ये नहीं समझ पाए कि उनसे बड़े-बड़े कॉमेडियन, जिन्होंने निजी आक्षेप भी किए, पोलिटिकल व्यंग्य और कटाक्ष भी किए, रीगन के इनॉगुरेशन तक में बोले, लेकिन उन्हें ‘फक’, ‘शिट’, ‘L@udu’, ‘g**nd’, ‘l@ud@’ कहने की ज़रूरत नहीं पड़ी।

अभी एक विडियो देखा जिसमें कुणाल कमरा ने ‘एक हाथ में फोन, एक हाथ में l@ud@’ कहकर मनोरंजन करने की शुरुआत की, और एनआरआई लोगों को देश से कितना मतलब है इसकी बात उन्होंने ‘बीस साल से टिशू से अपनी ‘g@#d’ पोंछ रहे हैं’ कहकर की। यूपी में मंदिर के प्रसाद खाकर आदमी ‘बाथरूम’ तो हैं नहीं, निकालेगा किधर से लेकर, ‘अमित शाह बॉलर का हाथ काट रहा होगा, उसकी जीभ भी कटी हुई होगी’ जैसे ‘पंच लाइन’ फेंककर ‘मनोरंजन किया।

ये कॉमेडी नहीं है। चूँकि आपके सामने बैठा व्यक्ति हँस रहा, यह बात उस कंटेंट को कॉमेडी या ह्यूमर नहीं बना देती। जैसे कि AIB का ‘रोस्ट’ न तो ‘रोस्ट’ था, न ही कॉमेडी। ये आपकी अभिव्यक्ति हो सकती है, विचार हो सकते हैं, लेकिन कॉमेडी कहकर, हास्य के स्तर को मत गिराइए। पचास लोगों के सामने हर दो मिनट पर माँ-बहन की गाली निकालते हुए, किसी के ऊपर दो-दो लाइन फेंकना, ह्यूमर नहीं है। 

जब आप तथ्यों से दूर हो जाते हैं, आपको पता है कि दुकान इसी बात से ही चलेगी, तब आप कुछ भी क्लेम कर देते हैं कि यूपी के 40% घरों में बाथरूम नहीं है, दो साल में सड़क गायब हो जाती है, पुल बन नहीं पा रहा, और विकास कहीं है नहीं। ज़ाहिर है कि जो लोग सुनने आए हैं, वो हास्य रस का आनंद लेने आए हैं, न कि वहाँ बैठकर गूगल करेंगे कि सामने खड़े व्यक्ति ने ह्यूमर के नाम पर जो फैक्ट फेंके हैं, उसमें कितनी सच्चाई है। 

कुणाल की बातों पर आप हँस सकते हैं क्योंकि और कोई चारा नहीं है। स्वच्छ भारत के तहत कितने ट्वॉयलेट बने, और गडकरी ने कितनी सड़कें बनवाईँ, ये देखने के लिए दिल्ली के क्लब से बाहर निकल कर वास्तव में यूपी या बिहार के गाँव में जाना पड़ेगा। विकास कितना हुआ है, उसको समझने के लिए कमरे से बाहर निकलना पड़ेगा क्योंकि दिल्ली भले ही जैसी थी, वैसी ही हो, लेकिन जहाँ विकास की ज़रूरत थी, वहाँ हुआ है, और दिखता है। 

वैसे ही वामपंथी विचारधारा से ताल्लुक़ रखने वाला कोई भी व्यक्ति जब संविधान बचाने की बात करता है तो उसे भी कॉमेडियन ही माना जाना चाहिए। कन्हैया कुमार संविधान बचाने, पीएम पद की गरिमा की बातें करते हुए आउट ऑफ प्लेस लगते हैं। कन्हैया ने जिन लोगों को समर्थन दिया है, जिस-जिस तरह के देश और संविधान-विरोधी कैम्पेन का हिस्सा रहे हैं, उनके मुँह से संविधान और गरिमा दोनों ही शब्द खोखले लगते हैं। 

समस्या तो मोदी से ही है, वरना जो अच्छा हो रहा है, उसका मजाक उड़ाने की ज़रूरत नहीं पड़ती। मजाक तो लोग किसी भी बात का उड़ा लेते हैं, और अच्छे हास्य को जस्टिफिकेशन की ज़रूरत नहीं पड़ती। अच्छे हास्य को मानव शरीर के अंगों के नामों की ज़रूरत नहीं पड़ती। ऐसे शब्द भूलने से लोग इसलिए हँसते हैं क्योंकि वैसे शब्द निजी बातचीत का हिस्सा होते हैं, लेकिन पब्लिक में उन्हें सुनना या बोलना इतना अजीब लगता है कि लोग उस व्यक्ति पर हँस देते हैं कि ये बोल क्या रहा है। 

हो सकता है बातचीत का तरीक़ा बदल गया हो, और हमारी बातों में ऐसे शब्द नॉर्मलाइज हो चुके हों, लेकिन हर नॉर्मलाइज्ड चीज कला के नाम पर प्रदर्शित नहीं की जा सकती। ऐसे शब्दों का उपयोग तभी किया जाता है जब बचाना हो कि इन शब्दों का उपयोग नहीं होना चाहिए। कला-साहित्य समाज को दिशा ज़रूर देते हैं, लेकिन दिशाहीन कलाकार समाज को बहकाता है।

गोवा CM मनोहर पर्रिकर का निधन, राष्ट्रपति समेत PM और मंत्रियों ने जताया शोक

गोवा के मुख्यमंत्री मनोहर पर्रिकर को लेकर बेहद दुःखद ख़बर आ रही है। गोवा मुख्यमंत्री कार्यालय ने जानकारी देते हुए बताया था कि उनकी हालत बहुत ही नाजुक है और डॉक्टर्स की टीम लगातार प्रयास कर रही है। अब ताज़ा ख़बरों के अनुसार, देश के पूर्व रक्षा मंत्री मनोहर पर्रिकर का निधन हो गया है। कैंसर की बीमारी से जूझ रहे पर्रिकर के निधन के बाद राष्ट्रपति राम नाथ कोविंद ने ट्वीट कर शोक जताया।

राष्ट्रपति ने लिखा- “गोवा के मुख्यमंत्री श्री मनोहर पर्रिकर के निधन के बारे में जानकर गहरा दुख हुआ। उन्होंने दृढ़ता और गरिमा से अपनी बीमारी का सामना किया। सार्वजनिक जीवन में सत्यनिष्ठा और समर्पण के प्रतीक रहे श्री पर्रिकर ने गोवा की और भारत की जो सेवा की है, वह हमेशा याद रखी जाएगी।”

बता दें कि पर्रिकर के रक्षा मंत्रित्व काम में ही पाकिस्तान में बहुचर्चित सर्जिकल स्ट्राइक को अंजाम दिया गया था। मनोहर पर्रिकर उन गिने -चुने नेताओं में से एक थे जो सादा जीवन जीने के लिए विख्यात थे। सीएम रहते स्कूटर से सड़कों पर निकल जाना अक्सर सुर्खियाँ बनती थी। उनके रक्षा मंत्री रहते जी जवानों के लिए ‘वन रैंक, वन पेंशन’ योजना लागू की गई। इसकी माँग बरसों से की जा रही थी।

पर्रिकर गोवा में भाजपा के संकटमोचक भी थे। गोवा में सरकार बनाने में आ रही मुश्किलों के दौरान सभी विधायकों का पसंददीदा चेहरा बन कर उभरे पर्रिकर को केंद्रीय मंत्रिमंडल से इस्तीफा देकर वापस गोवा की जिम्मेदारी सँभालनी पड़ी थी। उनके नाक में चिकित्सीय नलियाँ लगी हुई थीं और वे ठीक से चल नहीं पाते थे लेकिन फिर भी वे जहाँ तक संभव हो सका, शासन से जुड़े कार्य निपटाते रहे। कभी किसी परियोजना का निरीक्षण तो कभी फाइलों का निपटारा- बीमारी के बीच भी पर्रिकर राज्य के विकास कार्यों के लिए सजग रहे।

उनके निधन पर उपराष्ट्रपति, प्रधानमंत्री समेत सारे मंत्रियों और आम नागरिकों ने शोक प्रकट किया।

दिल्ली की शिक्षा व्यस्वस्था का सच: विज्ञापनों के चक्कर में छात्रों के भविष्य से खेल रहे हैं केजरीवाल

अरविन्द केजरीवाल जब से दिल्ली के मुख्यमंत्री बने हैं, तब से वह लगातार दावा करते रहे हैं कि उन्होंने दिल्ली की शिक्षा व्यवस्था में आमूल-चूल परिवर्तन किया है। इस बारे में शुरुआत में तो लोगों को ज्यादा कुछ नहीं पता चला लेकिन पासिंग प्रतिशत ने केजरीवाल के इस दावे की पोल खोल कर रख दी। केजरीवाल की अब कोई विश्वसनीयता रही नहीं है और उनके द्वारा लगातार कॉन्ग्रेस को गठबंधन के लिए निवेदन करना उस विश्वसनीयता को और कम करता है।

ये वही कॉन्ग्रेस है, जिसके ख़िलाफ़ लड़ाई लड़ कर केजरीवाल ने प्रसिद्धि पाई थी, जिसे विश्व की सबसे भ्रष्ट पार्टी बताया करते उनके करियर के साथ खेल रही है। उनके पास पूर्व मुख्यमंत्री शीला दीक्षित के ख़िलाफ़ सैकड़ों सबूत हुआ करते थे लेकिन आज वह उन्ही शीला दीक्षित के पीछे भाग रहे हैं, सिर्फ़ गठबंधन के लिए। उनके कई यू-टर्न देखने के बाद कोई भी यह सोचने को विवश हो जाए कि क्या सचमुच दिल्ली की व्यवस्था में कोई बदलाव हुआ है? इसकी पड़ताल जरूरी हैं।

दरअसल, वास्तविकता तो यह है कि दिल्ली की शिक्षा व्यवस्था और ख़राब ही हुई है। लम्बे-चौड़े विज्ञापनों के पीछे दिल्ली में पासिंग प्रतिशत को छिपाने की कोशिश की जा रही है। टाइम्स ऑफ इंडिया की रिपोर्ट के अनुसार, दिल्ली में 9वीं से 12वीं तक के 66% छात्र जो 2017 में अनुत्तीर्ण रह गए थे, अब औपचारिक शिक्षा प्रणाली से बाहर हो गए हैं। आधिकारिक दस्तावेजों के अनुसार, 1,55,436 अनुत्तीर्ण छात्रों में से 52,582 छात्रों को ही फिर से कक्षा में प्रवेश दिया गया।

दिल्ली के कई स्कूलों में दाख़िल छात्रों के माता-पिता से बातचीत करने पर पता चलता है कि 11वीं में स्ट्रीम के चयन को लेकर एक अनौपचारिक प्रचलन आम हो चुका है जिसमे छात्रों को विज्ञान या गणित लेने की अनुमति नहीं देने का निर्णय लिया गया। सरकारी स्कूलों में अधिकतर विद्यार्थी गणित या विज्ञान में ही अनुत्तीर्ण होते हैं, अतः अनौपचारिक रूप से उनके चयन पर प्रतिबन्ध लगाकर सरकार उनके करियर के साथ खेल रही है ताकि पासिंग प्रतिशत को ज्यादा दिखाया जा सके।

आँकड़ों के अनुसार, दिल्ली सरकार ने केवल 25 स्कूलों का निर्माण किया है। तथ्य यह भी है कि दिल्ली में केजरीवाल सरकार के गठन के बाद एक भी डिग्री कॉलेज का निर्माण नहीं किया गया है। अगर उनकी घोषणाओं की बात कारण तो उन्होंने 500 स्कूलों और 20 कॉलेजों के निर्माण का वादा किया था। आँकड़े उनकी पोल खोलते हैं। उन्होंने जो वादा किया था, उस पर वह अमल करने में विफल रहे।

चुनाव पूर्व अरविन्द केजरीवाल और उनकी आम आदमी पार्टी ने लम्बे-लम्बे दावे करते हुए कहा था कि गेस्ट शिक्षकों को स्थायी किया जाएगा और रिक्त पड़ी सभी सीटों को भरा जाएगा। स्थिति यह है कि अभी भी हज़ारों पद रिक्त पड़े हैं और जिन पदों पर बहाली की भी गई है, उसमें भी 17,000 अतिथि शिक्षक शामिल हैं। चूँकि वे दावा करते हैं कि उन्होंने शिक्षा व्यवथा में सुधार के लिए ज़रूरी आधारभूत संरचना का निर्माण किया है, इंफ़्रास्ट्रक्चर मज़बूत किया है लेकिन शिक्षकों की बहाली के बिना ये सब अधूरा है। भवन और कक्षा रहें लेकिन पढ़ाने के लिए शिक्षक ही न रहें तो शिक्षा व्यवस्था में सुधार कैसे आएगा?

वास्तव में दिल्ली में स्कूलों की स्थिति और गिरती ही जा रही है। दिल्ली की सरकार बस देश भर में विज्ञापन देने में व्यस्त ही ताकि यह दिखाया जा सके कि उसने दिल्ली की शिक्षा व्यवस्था को बदल कर रख दिया है। इसके लिए छात्रों के भविष्य के साथ खिलवाड़ किया जा रहा है। उसके शिक्षा मॉडल की पोल इसी बात से खुल जाती है कि पिछले साल (2017-18) 10वीं के छात्रों का औसत उत्तीर्ण प्रतिशत पिछले एक दशक के सबसे निचले स्तर (68.9%) पर आ गया। अगर 12वीं के छात्रों के औसत उत्तीर्ण प्रतिशत की बात करें तो उसमे भी ज्यादा बदलाव या सुधार नहीं आया है। जब दिल्ली सरकार शिक्षा क्षेत्र में एक बड़ी राशि ख़र्च करने का दावा कर रही है, हमें केजरीवाल और सिसोदिया से यह सवाल पूछना चाहिए कि अगर धन ख़र्च किया जा रहा है तो उसके प्रभाव क्यों नहीं दिख रहे?

दिल्ली सरकार से पूछा जाना चाहिए कि अगर शिक्षा व्यवस्था पर ख़र्च किए गए रुपयों से शिक्षा व्यवस्था में सुधार नहीं आ रहा, शिक्षकों की भर्तियाँ नहीं हो रही, तो फिर ये रुपए जा कहाँ रहे हैं? यह शिक्षा मॉडल इतना दोषपूर्ण है, बावजूद इसके इस से जुड़े विज्ञापन कर्नाटक और तमिलनाडु से लेकर बंगाल तक के समाचारपत्रों में छपवाए जा रहे हैं। वो तो अच्छा है कि अभी मंगल गृह पर जीवन नहीं बसाया गया है वर्ण अगर वहाँ मनुष्यों की एक छोटी सी कॉलोनी भी होती तो उन्हें दिल्ली के शिक्षा व्यवस्था के सम्बन्ध में विज्ञापन पढ़ने को मिलते। उस शिक्षा व्यवस्था के बारे में, जो दोषपूर्ण है। लेकिन, यह मुद्दा मज़ाक से परे है।

अगर वे वास्तव में शिक्षा को लेकर गंभीर हैं तो बजट में आवंटित 15,133 करोड़ रुपयों में से सिर्फ़ 11,201 करोड़ ही क्यों ख़र्च किए जा सके हैं? ये उनकी शिक्षा के प्रति प्रतिबद्धता के दावों की पोल खोलता है। दिल्ली सरकार को सिर्फ़ अपने स्कूलों को जगमगाने के लिए छात्रों के भविष्य से खेलने का कोई हक़ नहीं है। शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार करने की बजाए दिल्ली सरकार विज्ञापनों में व्यस्त है और इस सबके बीच में दिल्ली के छात्र क्या चाहते हैं, इस विषय में उनकी राय ली ही नहीं गई। आप सरकार ने न सिर्फ़ दिल्ली की जनता बल्कि छात्रों का भी शोषण किया है।

दिल्ली की जनता के दिलों में स्थित भ्रष्टाचार विरोधी भावना का फ़ायदा उठा कर सत्ता के सिंहासन पर चढ़ने वाले अरविन्द केजरीवाल दिल्ली के बाहर भले ही जितने विज्ञापन छपवा लें, यहाँ पर सब उनकी परिस्थिति से परिचित हैं। यहाँ जनता को केजरीवाल की अवसरवादी राजनीति, कई यू-टर्न के बारे में पता है। तभी जनता ने उन्हें एमसीडी में अस्वीकार कर दिया। दिल्ली शासन की अक्षमता का भार छात्रों को उठाना पड़ रहा है।

सुमित भसीन के मूल अंग्रेजी लेख का अनुवाद अनुपम कुमार सिंह ने किया है।

कॉन्ग्रेस प्रवक्ता ने PM मोदी को बताया मसूद, ओसामा, दाऊद और ISI; जनता ने दुत्कारा

चुनाव के माहौल में कॉन्ग्रेस नेताओं की जबान फिसलने का सिलसिला सा चल पड़ा है। अब कॉन्ग्रेस प्रवक्ता पवन खेड़ा ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर आपत्तिजनक टिप्पणी की है। उन्होंने आवेश में आकर मोदी के लिए कुछ ऐसा कह दिया, जो उनकी पूरी पार्टी को भारी पड़ सकता है। इंडिया टीवी कॉन्क्लेव ‘वन्दे मातरम 2019’ कार्यक्रम के मंच पर एंकर मीनाक्षी जोशी के सवाल का खेड़ा ने कुछ ऐसा जवाब दिया, जिस पर जनता ने उन्हें खड़े होकर दुत्कारा। उस दौरान मंच पर भाजपा प्रवक्ता डॉक्टर संबित पात्रा भी मौजूद थे। दरअसल, खेड़ा ने मोदी के अंग्रेजी शब्द का विच्छेद करते हुए उन्हें मसूद अज़हर, ओसामा बिन लादेन, दाऊद इब्राहिम और पाकिस्तानी एजेंसी आईएसआई बताया। इसके बाद जनता ‘शेम-शेम’ बोलती हुई खड़ी हो गई और कॉन्ग्रेस प्रवक्ता को दुत्कारा।

मंच पर मौजूद संबित पात्रा ने खेड़ा की इस आपत्तिजनक टिप्पणी का विरोध करते हुए कहा कि आप किसी भी पार्टी के हों लेकिन नरेंद्र मोदी देश के प्रधानमंत्री हैं और इस नाते आप उनके लिए इस तरह के तुच्छ शब्दों का प्रयोग नहीं कर सकते। पात्रा ने खेड़ा से यह बयान वापस लेने और जनता से माफ़ी माँगने को कहा। खेड़ा ने सफाई देते हुए कहा कि जब भी मोदी से कोई सवाल पूछे जाते हैं तो वह मसूद और दाऊद के पीछे छिप जाते हैं। मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने खेड़ा के इस बयान को लेकर कॉन्ग्रेस को आड़े हाथों लिया और मोदी की अलग परिभाषा व्यक्त की। चौहान ने मोदी को प्रेरक, व्यवस्थापक, विकास पुरुष और सरल बताया।

भाजपा ने अपने आधिकारिक हैंडल से ट्वीट करते हुए खेड़ा के बयान की निंदा की। भाजपा ने लिखा- “कॉन्ग्रेस प्रवक्ता पवन खेड़ा ने मोदी का फुल फॉर्म मसूद, ओसामा, दाऊद और आईएसआई बताया है। हमें पाकिस्तान जैसे दुश्मनों की क्या ज़रूरत है, जब हमारे पास कॉन्ग्रेस है?” भाजपा की आक्रामकता पर खेड़ा ने सलमान खान की फ़िल्म रेडी के गाने का सहारा लिया। इतना विरोध होने के बावजूद वे अपने बयान पर क़ायम दिखे।

सोशल मीडिया पर विरोध प्रदर्शनों के बावजूद पवन खेड़ा ने कई ट्वीट्स कर अपने बयान का सिर्फ़ बचाव ही नहीं किया बल्कि उसके पक्ष में कई बेढंगे तर्क भी दिए।

यूपी में कॉन्ग्रेस का ‘त्याग’, सपा-बसपा-रालोद के बड़े नेताओं के लिए छोड़ी 7 सीटें

उत्तर प्रदेश में महागठबंधन और कॉन्ग्रेस के बीच आँख-मिचौली का खेल जारी है। पहले कॉन्ग्रेस, सपा और बसपा के साथ लड़ने की ख़बर आ रही थी लेकिन अखिलेश यादव और मायावती ने कॉन्ग्रेस पार्टी को दरकिनार कर सीटों का समझौता कर लिया। पत्रकारों द्वारा बार-बार पूछने के बावजूद अखिलेश कहते रहे कि उनके गठबंधन में कॉन्ग्रेस शामिल है और 2 सीटों पर लड़ रही है।

यूपी महगठबंधन ने गाँधी परिवार की पारम्परिक लोकसभा सीटों पर प्रत्याशी न उतारने का फ़ैसला किया है। कॉन्ग्रेस पहले तो सपा-बसपा पर हमलावर रही लेकिन ताज़ा ऐलान जनता के लिए काफ़ी भ्रामक है क्योंकि कॉन्ग्रेस ने महागठबंधन के बड़े नेताओं व उनके परिवार की सीटों पर उम्मीदवार न उतारने का निर्णय लिया है। इस घोषणा के अनुसार सपा का गढ़ कहे जाने वाले मैनपुरी, कन्नौज और फ़िरोज़ाबाद सीट छोड़ने का निर्णय लिया है।

मैनपुरी से सपा संरक्षक मुलायम सिंह यादव चुनाव लड़ने वाले हैं। कन्नौज से पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव की पत्नी डिंपल यादव सपा से ताल ठोकेंगी। वहीं फ़िरोज़ाबाद से वरिष्ठ सपा नेता रामगोपाल यादव के बेटे अक्षय यादव को टिकट दिया गया है। हालाँकि, चर्चा है कि सपा से अलग हो चुके मुलायम के भाई शिवपाल यादव के भी चुनाव लड़ने की संभावना है। ऐसे में, सपा का पारिवारिक कलह एक बार फिर सतह पर आता दिख रहा है। फिलहाल कॉन्ग्रेस ने इन तीनों सीटों पर उम्मीदवार नहीं उतारने का निर्णय लिया है। इसके अलावा पश्चिमी उत्तर प्रदेश के कुछ इलाक़ों में प्रभाव रखने वाले रालोद संस्थापक अजीत सिंह जिस भी सीट से चुनाव लड़ेंगे, कॉन्ग्रेस वहाँ अपने उम्मीदवार नहीं उतारेगी

चौधरी अजीत सिंह के बेटे जयंत सिंह के ख़िलाफ़ भी कॉन्ग्रेस उम्मीदवार नहीं उतारेगी। बसपा अध्यक्ष मायावती के ख़िलाफ़ भी कॉन्ग्रेस उम्मीदवार नहीं खड़ा करेगी। उत्तर प्रदेश कॉन्ग्रेस अध्यक्ष राज बब्बर ने ऐलान किया कि पीलीभीत और गोंडा सीटों को अपना दल के लिए छोड़ दिया जाएगा। इसके अलावा कॉन्ग्रेस ने जान अधिकार पार्टी व महान दल के साथ भी गठबंधन का ऐलान किया।

कॉन्ग्रेस ने अब तक यूपी में अपने 35 प्रत्याशियों के नाम जारी कर दिए हैं। प्रियंका गाँधी ने लखनऊ पहुँच कर कार्यकर्ताओं के साथ मुलाक़ातों का दौर शुरू कर दिया है। उन्होने प्रदेश की जनता से एक पत्र के माध्यम से कॉन्ग्रेस को वोट देने की अपील की। प्रियंका 18 से 20 मार्च तक प्रयागराज, भदोही, मिजार्पुर और वाराणसी के दौरे पर रहेंगी। इसका कार्यक्रम पहले ही जारी हो चुका है।

मोदी… वाजपेयी नहीं हैं – मर्यादा की LoC और आधी रात घर में घुसकर मारने वाले में अंतर है

कुछ परम आशावादी लोग, अभी भी यह मानने को राजी नहीं हैं कि मोदी ही आएगा। बेशक उनके पास कोई विकल्प नहीं हैं, लेकिन उनके भीतर ‘चमत्कार’ की जो एक विशेष ग्रंथि है, वह उन्हें इस बात का लगातार यकीन दिला रही है कि बेशक काला कौवा पीएम बन जावेगो लेकिन मोदी तो गयो।

चूँकि मैं ऐसे चमत्कारों और ग्रंथियों का पुराना सर्जन हूँ तो बता सकता हूँ कि मोदी विरोधियों के इस ‘यकीन’ के पीछे का राज क्या है! दरअसल… यह जो उड़नछल्ले हैं, वे अपने भरोसे की जीत के पीछे वर्ष 2004 के चुनावों में बीजेपी की असफल ‘शाइनिंग इंडिया’ थ्योरी को देख रहे हैं।

जब वाजपेयी सरकार और उनके राजनैतिक मैनेजरों को भरोसा था कि उन्होंने इतना विकास कर दिया है कि गाँव से लेकर शहर तक चमक रहा है और चुनावों में वे फिर से सरकार बनाने जा रहे हैं, लेकिन बावजूद इसके कि वाजपेयी सरकार ने विकास के हर पैमाने पर काम किया था, अटल जी की वापसी नहीं हो सकी।

तो पनामा की बिना फ़िल्टर वाली सिगरेट के धुएँ से निकले उड़नछल्लो, इतना जान लो कि वह साल दूसरा था, यह साल दूसरा है। वह जमाना दूसरा था, यह मिजाज दूसरा है।

क्या तुम जानते हो कि उस हारी हुए बीजेपी नीत राजग सरकार के दौरान भाजपा का अध्यक्ष कौन था? लेकिन अभी का तो पता ही है न कौन है… जो तड़ीपार भी रहा है और जेल में भी रहा है, सुनने में तो यह भी आता है कि वह (पॉलिटिकल) एनकाउंटर स्पेशलिस्ट भी है।

जब वाजपेयी सरकार गई तो उस वक्त अटल जी का घुटनों का ऑपरेशन हो चुका था, वे ठीक से चल भी नहीं पाते थे, उनको प्राइममिनिस्टरशिप जीवन के ऐसे कालखंड में मिली जब उनका शरीर लगभग निढाल हो चुका था, वे अपने रोजमर्रा के कार्यों के लिए ही नहीं बल्कि राजनीतिक निर्णयों के लिए भी आडवाणी, प्रमोद महाजन, जॉर्ज फर्नांडीज जैसे सहयोगियों पर निर्भर हो चुके थे।

लेकिन अभी का जो नेता है उसका दिल, दिमाग और घुटना एकदम ठीक और ठिकाने पर हैं, और यही वजह है कि वह हवाई जहाज की खड़ी सीढ़ियों को भी दौड़ते हुए चढ़ जाता है।

अटल जी, भौतिक रूप से बेशक भाजपाई और संघी थे, लेकिन अंतरात्मा से प्योर नेहरूवियन ही थे, क्योंकि उन्होंने अपनी राजनीति का ककहरा नेहरु के दौर में ही सीखा था, और उनके व्यक्तित्व पर नेहरु के उस आशीर्वाद की छाप और कृतज्ञता भी सदैव रही, जब नेहरू ने संसद में युवा अटल के एक दिन देश का पीएम बनने की बात कही थी।

लेकिन अभी का जो पीएम है, वह बहुत ही बदमिजाज है और ठेठ है। उसे नेहरू की अंग्रेजियत, गुलाबियत, बौद्धिकता और गुटनिरपेक्षता जैसे ढकोसले कतई आकर्षित नहीं करते, बल्कि अगर भारत के 70 साल के इतिहास में किसी पीएम ने नेहरूवाद को जूते की नोंक पर रखा है तो वह मोदी ही है।

वाजपेयी जहाँ कवि, लेखक, पत्रकार, चिंतक, विचारक और पारिवारिक टाइप व्यक्ति थे, वहीं मोदी इन सबके उलट एक उत्कृष्ट दर्जे के ट्रोलर हैं। वाजपेयी जहाँ भाषा की मर्यादा के पीछे संसद और बाहर घंटों बोल सकते थे, वहीं मोदी अपनी बात ’50 करोड़ की गर्लफ्रेंड’ से शुरू करते हैं तो शहजादे, मैडम सोनिया और इटली वाले मामा पर खत्म करते हैं।

वाजपेयी सरकार का जब पतन हुआ तो उस समय सोनिया गाँधी लोगों के लिए एक तुरुप का पत्ता थीं, जिनका चलना बाकी था और लोगों ने सोनिया गाँधी वाली कॉन्ग्रेस पर दाँव लगा दिया था। आज जब मोदी फिर से पीएम पद के इम्तिहान में बैठने वाले हैं तब सोनिया ही नहीं बल्कि इटली की पूरी बटालियन खत्म हो चुकी बाजी और फुँक चुका ट्रांसफार्मर है।

अटल जी को जब उनके विकास कार्यों के लिए ‘पुरस्कृत’ करके देश की जनता ने दिल्ली की सत्ता से बेदखल किया तब कॉन्ग्रेस ही नहीं बल्कि तीसरा मोर्चा भी वैकल्पिक राजनीति का एक मजबूत आधार था, जहाँ कई दिग्गज, क्षत्रप और कद्दावर नेता गैर-भाजपा और गैर-कांग्रेसी सरकार को साकार करने की स्थिति में थे। लेकिन आज तीसरे मोर्चे के नाम पर विरासत की राजनीति के पापा’ज़ बॉय तेजस्वी, अखिलेश, जयंत चौधरी और खुर्राट ममता बनर्जी तथा कहीं की न रहीं मायावती ही बची हुई हैं।

इसलिए ‘शाइनिंग इंडिया अस्त्र’ से मोदी के राजनीतिक जीवन का खात्मा देखने वालों को इस खुशफहमी से बाहर आ जाना चाहिए। आपको पता है उत्तर प्रदेश में हाथ से निकल चुके अपना दल को कौन वापस लेकर आया है? उत्तर प्रदेश भाजपा के सह-प्रभारी गोर्धन झडफिया, जो बीते कई वर्षों से मोदी और अमित शाह के एंटी रहे, लेकिन मोदी जी उनको वापस ले कर आए कि आप काम करो, और पूरी आजादी के साथ करो। पूर्वोत्तर में एनआरसी के मुद्दे को ठन्डे बस्ते में डाल कर असम गण परिषद् सहित अन्य क्षेत्रीय दल फिर से बीजेपी के साथ जुड़ चुके हैं।

जिन संजय जोशी के सहारे बीजेपी के भीतर और बाहर, लोग मोदी विरोध की राजनीति करते थे, मोदी ने उनको भी इन चुनावों में काम पर लगा दिया है और इसलिए जितनी भीड़ इन दिनों भाजपा मुख्यालय में दिखती है उतनी ही भीड़ संजय जोशी के घर पर भी होने लगी है।

बात को लम्बा खींचने से कोई मतलब नहीं हैं जबकि लब्बोलुआब यही है कि मोदी….वाजपेयी नहीं हैं। वाजपेयी जहाँ क्रिएटिव थे वहीं मोदी डिस्ट्रक्टिव हैं, बेशक इसके मतलब कुछ भी निकालते रहिये। वाजपेयी मर्यादा की एलओसी थे, वहीं मोदी आधी रात को घर में घुस कर मारने में यकीन रखते हैं। इसलिए पहले 56 इंच और अब चौकीदार के नाम से रंग-बिरंगे लेख लिखने वालों को मेरी यही सलाह है कि काम बेशक यही करो लेकिन पेस धीमा कर लो, क्योंकि अगले पाँच साल भी यही करना है।

हिन्दूफोबिक ट्वीट करते पकड़ा गया IFCN-सर्टिफाइड इंडिया टुडे

डोनाल्ड ट्रम्प ने एक बार कहा था, “तथ्य सही हैं, लेकिन खबर फ़र्ज़ी है”। मशहूर सांख्यिकीविद नासिम निकोलस तालेब ने अपनी किताब ‘स्किन इन द गेम’ में इसको समझाते हुए एक पूरा अध्याय भी लिखा है। और, आज महान फैक्ट चेकर इंडिया टुडे ने इसकी ताज़ा नज़ीर हमारे सामने प्रस्तुत की।

केरल सरकार के आर्थिक व सांख्यिकीय विभाग द्वारा प्रकाशित 2017 के मातृत्व आँकड़ों के अनुसार वहाँ आज भी बाल-विवाह अति-प्रचलित है। 15-19 आयु-वर्ग में माँ बनने वाली किशोरियों में तीन-चौथाई से ज़्यादा विशेष सम्प्रदाय से हैं। पर भला मजहब विशेष को असहज कर देने वाली बात कैसे कही जा सकती है? ‘ऊपर’ जवाब भी तो देना होता है!

फिर राज्य भी तो केरल है- वामपंथियों का आखिरी किला, जिसकी शत-प्रतिशत साक्षरता दर के पीछे कन्नूर में पनप रहे इस्लामिक कट्टरपंथ और जिहाद, कम्युनिस्टों द्वारा किलो के भाव संघ के स्वयंसेवकों के कत्ले-आम, सबरीमाला और पद्मनाभस्वामी आदि मंदिरों की संपत्तियों और परम्पराओं पर हमले जैसे सौ ऐब छुपाए जाते हैं।

पत्रकारिता के स्पिन गेंदबाज़ों ने यह ट्वीट किया:

ध्यान से देखिए इस ट्वीट और इस लेख की फीचर्ड इमेज को। तीन-चौथाई से ज़्यादा बाल-विवाह हो रहे हैं मजहब विशेष में, और चित्र लगा है हिन्दू बच्ची का। पता है कि 90 प्रतिशत जनता पढ़ने-लिखने की आदत खो चुकी है, और सोशल मीडिया जनित पूरी खबर न पढ़ने के दौर में ‘सही’ हेडलाइन लगा कर मनमुताबिक हवा बनाई जा सकती है।

यह उसी वैचारिक गिरोह के लोग हैं जिन्हें भारत का हिन्दू उद्गम मानने में साँस लेने में समस्या होने लगती है, जिन्हें केन्द्रीय विद्यालय में ‘असतो मा सद्गमय’ सिखाना ‘हिंदुत्व थोपना’ बनकर माइग्रेन का अटैक देने लगता है, पर विशेष समुदाय के नकारात्मक पहलू को छुपाने के लिए हिन्दू प्रतीकों को जेनेरलाइज़ कर ‘भारतीय’ बना देने में कोई दिक्कत नहीं है।

स्वराज्य ने दी सही तस्वीर (pun certainly intended)

इसके उलट ‘मोदी का मुखपत्र’ कहला कर छद्म-उदारवादी साम्यवादी गैंग से दिन-रात गाली खाने वाली स्वराज्य मैगज़ीन ने न इसे बेबात का सनसनीखेज़ बनाने की कोशिश की और न ही असली ‘तस्वीर’ पेश करने से संकोच।

पत्रकार शेफ़ाली वैद्य ने पकड़ा  

लेखिका व स्तंभकार शेफ़ाली वैद्य ने दोनों के स्क्रीनशॉट्स डालते हुए दिखाया कि कैसे तथ्य को तथ्य की तरह बयान करने की जगह इंडिया टुडे ने स्टोरी को विपरीत दिशा में घुमाने की कोशिश की।