Wednesday, October 2, 2024
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Facebook की राजनीतिक निष्पक्षता पर सवाल, दक्षिणपंथी आवाज़ें दबाने का आरोप: पूर्व कर्मचारी ने खोली पोल

लोकसभा चुनावों की दुंदुभी बजने के साथ ही आदर्श आचार संहिता लागू हो गई है जिसके अंतर्गत मीडिया भी किन चुनावी चीज़ों को कवर कर सकता है और किनको नहीं, क्या छाप सकता है और क्या नहीं (मसलन एक्जिट पोल्स, चुनावी प्रचार सामग्री वगैरह) आदि भी तार्किक नियमों के घेरे में है- जिसका उल्लंघन करने पर टीवी चैनलों, अख़बारों, रेडियो चैनलों इत्यादि को गंभीर परिणाम भुगतने पड़ सकते हैं।

पर राजनीतिक हलचल में भागीदारी और उस पर असर डाल सकने के हिसाब से सबसे बड़ा और ताकतवर माध्यम- फेसबुक– चुनाव आयोग, और यहाँ तक कि भारत सरकार, की पहुँच के न केवल बाहर है, बल्कि राजनीति में सक्रिय हस्तक्षेप (फेसबुक अधिकारियों द्वारा अपने फेसबुक पद का प्रयोग राजनीति को प्रभावित करने के लिए करना) के लिए कमर कस कर तैयार भी है।   

प्रोजेक्ट वेरिटास (Project Veritas) के चिंताजनक खुलासे

गैर लाभकारी मीडिया वेबसाइट प्रोजेक्ट वेरिटास ने गत 27 फ़रवरी को फेसबुक की आतंरिक गतिविधियों को लेकर बहुत ही चिंताजनक कुछ दस्तावेज़ जारी किए हैं। इन दस्तावेज़ों के मुताबिक हिंसक, भड़काऊ, और फेक न्यूज़ फैलानी वाली सामग्री रोकने के नाम पर फेसबुक प्रबंधन दक्षिणपंथी सामग्री और व्यक्तियों को बाकायदा निशाना बनाकर वायरल होने से रोक रहा है। (इन्टरनेट की भाषा में इसे टार्गेटेड डीबूस्टिंग कहते हैं)

फ़ेसबुक की ही पूर्व कर्मचारी ने खोली पोल

जिन दस्तावेज़ों के आधार पर वेरिटास ने यह दावा किया है, वह दस्तावेज़ उसे फेसबुक की ही पूर्व कर्मचारी ने उपलब्ध कराए हैं। उसकी सुरक्षा और उसे ऑनलाइन प्रताड़ना से बचाने के मद्देनज़र वेरिटास ने उसकी पहचान गुप्त रखते हुए केवल इतना बताया है कि वह कर्मचारी अब वेरिटास के साथ ही काम कर रही है।

क्या है पूरा मामला

ActionDeboostLiveDistribution लेबल के इस तकनीकी निर्देश को, ‘इनसाइडर’ कह कर रिपोर्ट में जिक्र की गई कर्मचारी के अनुसार, उसने जब माइक सर्नोविच (अमेरिकी लेखक व राजनीतिक टिप्पणीकार), स्टीवेन क्राउडर (अमेरिकी दक्षिणपंथी हास्य-कलाकार और अभिनेता), डेली कॉलर (वॉशिंगटन डीसी से चलने वाली दक्षिणपंथी खबर व ओपिनियन वेबसाइट, जिसे डिजिटल मार्केटिंग विशेषज्ञ नील पटेल और दक्षिणपंथी राजनीतिक टिप्पणीकार टकर कार्लसन ने स्थापित किया है) आदि दक्षिणपंथी हैंडल्स पर नोटिस किया तो उसे शक हुआ।

यहाँ यह जानना ज़रूरी है कि क्राउडर के खिलाफ़ पहले भी इसी प्रकार के गुप्त ‘बैन’ को लेकर फ़ेसबुक विवादों में घिर चुका है। वर्ष 2016 में डिज़ाइन, टेक्नोलॉजी, विज्ञान से जुड़े विषयों की विशेषज्ञ वेबसाइट गिज़्मोडो ने अपनी एक खबर में यह दावा किया था कि स्टीवेन क्राउडर, जो कि फॉक्स न्यूज़ के साथ भी जुड़े रह चुके हैं, क्रिस काइल (भूतपूर्व सील सैनिक, 2013 में जिनकी हत्या हुई), दक्षिणपंथी न्यूज़ एग्रीगेटर द ड्रेज रिपोर्ट, इत्यादि छः विषयों को फ़ेसबुक योजनाबद्ध तरीके से ट्रेंड करने से, लोगों की न्यूज़ फीड में आने आदि से रोक रहा है- गौरतलब है कि सभी छः विषय दक्षिणपंथियों के लिए ही भावनात्मक अपील वाले थे।

इस खबर के सामने आने के बाद क्राउडर ने फ़ेसबुक पर मुकदमा किया था, जिसका निपटारा फ़ेसबुक को आउट-ऑफ़-कोर्ट सेटेलमेंट में करना पड़ा था।

इनसाइडर ने जब अश्वेत अमेरिकी खिलाड़ी कॉलिन केपर्निक, यंग टर्क्स आदि वाम की ओर झुकाव रखने वाले फ़ेसबुक पेजों पर इस ActionDeboostLiveDistribution टैग को ढूँढ़ने का प्रयास किया तो उन्हें यह टैग किसी भी वामपंथी झुकाव वाले व्यक्ति या संस्था के फ़ेसबुक पेज पर नहीं मिला।

वेरिटास ने जब अभी भी फ़ेसबुक में कार्यरत अपने एक गुप्त सूत्र से इनसाइडर की खबर और दावों की पुष्टि करनी चाही तो उस सूत्र ने अनाधिकारिक तौर पर इस खबर की पुष्टि करते हुए साथ में यह भी जोड़ा कि यह टैग पूरी तरह से गुप्त होकर अपना काम करता है। इसका अर्थ यह हुआ कि जिस यूज़र के फ़ेसबुक पेज पर यह टैग लगाया जाता है उसे पता भी नहीं चलता कि उसके पेज पर यह रोक लगाई गई है और उसकी लाइवस्ट्रीम उसके दोस्तों की न्यूज़फ़ीड में दिखनी बंद हो चुकी है, उन्हें उसके लाइव जाने की नोटिफिकेशन नहीं आते, और उसके लाइव वीडियो शेयर भी नहीं हो पाते।

आत्महत्या के लाइव प्रसारण रोकने के लिए बना था यह सिस्टम

वेरिटास के पास मौजूद दस्तावेजों में यह ActionDeboostLiveDistribution लेबल जिस Sigma के बगल में दिख रहा है, वह फ़ेसबुक का एक आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस सिस्टम है जिसे फ़ेसबुक ने आत्महत्या, सेल्फ़-हार्म जैसी- किसी भी आम इन्सान को विचलित कर सकने वाली सामग्री से कमज़ोर दिल वालों की रक्षा करने के लिए विकसित किया था। पर इन दस्तावेज़ों से यह साफ़ है कि फ़ेसबुक इसका दुरुपयोग राजनीतिक हित साधने के लिए कर रहा है।

‘भड़काऊ सामग्री’ पहचानने का फ़ेसबुक का तरीका और भी चिंताजनक

वेरिटास ने यह भी बताया कि डेटा साइंस मेनेजर सेजी यामामोटो और फ़ेसबुक के चीफ़ डेटा साइंटिस्ट एडूआर्डो एरिनो डे ला रुबिया ने एक चिंताजनक पेपर फ़ेसबुक के आतंरिक चैनल में पेश किया है। वे फ़ेसबुक की सीक्रेट सेंसरशिप को नस्लवादी और होमोफ़ोबिक गालियों से आगे ले जाकर ‘पोटेंशियली हेट्फुल’ (संभावित रूप से नफ़रत फ़ैलाने वाली) कैटेगरी बना कर उसपर भी “लगाम लगाने” की वकालत करते हैं। जिन ‘कीवर्ड्स’ में वह ‘संभावित नफ़रत’ की सम्भावना देखते हैं, उनमें लगभग सभी शब्द दक्षिणपंथी सर्कल्स में आम हंसी-मज़ाक या मुख्यधारा के पॉप-कल्चर और मीम-कल्चर का हिस्सा हैं।

यही नहीं, महत्वपूर्ण चुनावों के पहले चिह्नित दक्षिणपंथी यूज़र्स को तकनीकी खराबियां देने, जैसे कि बार-बार ऑटो-लॉगआउट, उनके कमेन्ट करने में बाधा पैदा करना, आदि शामिल हैं। इसके अलावा किसी भी यूज़र को बैन करने के समय उसकी मित्र-सूची को इसकी नोटिफिकेशन देकर उसकी सोशल शेमिंग और दूसरे “ट्रोल्स” (जिसमें फ़ेसबुक की दुराग्रही परिभाषा के चलते कोई भी दक्षिणपंथी यूज़र शामिल हो सकता है) को आतंकित करने की भी वकालत की गई है।

भारत के लिए इसके मायने

सबसे ज़्यादा फ़ेसबुक यूज़र्स का देश होने के नाते निश्चित तौर पर भारत के लिए यह खुलासा अहम है। 5 साल पहले जब फ़ेसबुक का राजनीतिक प्रभाव इस हद तक नहीं था, तब ही नरेन्द्र मोदी ने शायद आधा चुनाव फ़ेसबुक पर ही जीत लिया था। तब से चुनाव-दर-चुनाव फ़ेसबुक का राजनीतिक महत्त्व बढ़ता जा रहा है।

ऐसे में फ़ेसबुक का एक राजनीतिक विचारधारा और पक्ष की आवाज़ पर रोक लगाना निष्पक्ष चुनाव कराने की हमारी सिस्टम की कोशिश में रुकावट डालने से कम कुछ भी नहीं है। तिस पर से अमेरिका से संचालित होने के कारण फ़ेसबुक भारत के कानून और राजनयिकों की पकड़ से भी कोसों दूर है।

दक्षिणपंथी आवाज़ों को दबाने के लिए जिन तरीकों को इस्तेमाल करने की वकालत इन दस्तावेज़ों में की गई है, वह समस्याएँ, जैसे बार-बार ऑटो-लॉगआउट, कमेन्ट करने में बाधा, इत्यादि एक बड़ी संख्या में भारतीय यूज़र्स काफ़ी समय से झेल रहे हैं। अभी तक तो इन्हें नेटवर्क समस्या, डिवाइस समस्या आदि मानकर हम नज़रंदाज़ करते आए हैं। पर अब यह सवाल बेशक मन में उठेगा कि क्या फ़ेसबुक अपने खुद के देश अमेरिका में जिस तरह का राजनीतिक हस्तक्षेप करने के बारे में सोच भर रहा है, भारत में क्या उसने चुपचाप उसे लागू भी कर दिया? या फिर भारतीय यूज़र्स उसके ‘गिनीपिग्स’ हैं, जिन पर वह यह सब टेस्ट कर रहा था?

भारत में इलेक्शन वॉर रूम के मायने क्या हैं?

लोकसभा चुनावों की घोषणा होते ही यह खबर आई कि फ़ेसबुक चुनावों में अपने दुरुपयोग और फेक न्यूज़ के फैलाव को रोकने के लिए अमेरिका-सरीखा वॉर रूम बना रहा है, और राजनीतिक विज्ञापनों से जुड़े सारे ब्यौरे साप्ताहिक रूप से सार्वजनिक करेगा।

पर ऑर्गेनिक पोस्ट्स का क्या? क्या फ़ेसबुक यह हलफ़नामा देगा कि वह किसी भी भारतीय यूज़र के राजनीतिक झुकाव के चलते उसकी पोस्ट्स को बूस्ट या डीबूस्ट नहीं कर रहा है?

चुनाव आयोग भी फ़ेसबुक के साथ सहयोग करके चुनाव प्रक्रिया में उसकी भूमिका को मान्यता और स्वीकार्यता पाने में सहयोग कर रहा है। क्या चुनाव आयोग को फ़ेसबुक की यह सच्चाई पता है?

यदि फ़ेसबुक भारत में अपनी निष्पक्षता उपरोक्त हलफ़नामे या किसी अन्य प्रकार से साबित नहीं करता है तो यह मानने के पूरे-पूरे कारण होने चाहिए कि फ़ेसबुक यह इलेक्शन वॉर रूम निष्पक्षता के लिए नहीं बल्कि अपने वामपंथी मित्रों को और सहयोग करने के लिए कर रहा है।

दिग्विजय के ‘ओसामा जी’ के बाद अब राहुल गाँधी का ‘मसूद अज़हर जी’, देखें वीडियो

देश की सबसे पुरानी पार्टी के अध्यक्ष राहुल गाँधी ने आतंकी मसूद अज़हर को ‘मसूद अज़हर जी’ कह कर सम्बोधित किया है। दिल्ली में कॉन्ग्रेस के ‘मेरा बूथ, मेरा गौरव’ कार्यक्रम के दौरान सभा को सम्बोधित करते हुए राहुल गाँधी ने कहा कि पिछली भाजपा सरकार ने मसूद अज़हर को रिहा किया। कंधार विमान हाईजैक कांड की चर्चा करते हुए राहुल गाँधी ने कहा कि अजीत डोभाल ख़ुद ‘मसूद अज़हर जी’ को कंधार छोड़ने एयरक्राफ्ट से गए थे। राहुल गाँधी द्वारा एक आतंकी को सम्मान देने के कारण सोशल मीडिया पर लोगों ने उन्हें निशाना बनाया। केंद्रीय टेक्सटाइल मंत्री स्मृति ईरानी ने राहुल गाँधी पर तंज कसते हुए कहा कि राहुल गाँधी और पाकिस्तान के बीच एक चीज कॉमन है और वह है- आतंकवादियों के प्रति उनका प्रेम।

भारतीय जनता पार्टी ने भी राहुल को निशाना बनाते हुए पूछा कि आख़िर राहुल के मन में आतंकियों के प्रति इतना सम्मान क्यों है?

ट्विटर पर कई लोगों ने राहुल को उनके इस बयान के लिए आड़े हाथों लिया। बता दें कि मसूद अज़हर ही आतंकी संगठन जैश-ए-मोहम्मद का संस्थापक है, जिसने पुलवामा आतंकी हमले को अंजाम दिया था। इस हमले में 40 सीआरपीएफ जवान वीरगति को प्राप्त हो गए थे। इसके अलावा पठानकोट हमले सहित अन्य आतंकी हमलों में भी मसूद अज़हर का हाथ था। ऐसे में उसके लिए सम्मानसूचक शब्द का प्रयोग करना राहुल को चुनावी मौसम में भारी पड़ सकता है।

इस से पहले कॉन्ग्रेस नेता और मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह अलक़ायदा प्रमुख ओसामा बिन लादेन को ‘लादेन जी’ कह कर सम्बोधित कर चुके हैं। ओसामा बिन लादेन को दुनिया के सबसे खूँखार आतंकवादियों में से एक गिना जाता है। पाकिस्तान में छिपे ओसामा को अमेरिका ने मार गिराया था। इसके अलावा दिग्विजय सिंह मुंबई हमलों के साज़िशकर्ता आतंकी हाफिज सईद को ‘साहब’ कह कर भी सम्बोधित कर चुके हैं।

जैसा कि आप देख सकते हैं, एक ट्विटर यूजर ने कार्टून के माध्यम से राहुल गाँधी, पाकिस्तान और नवजोत सिद्धू पर निशाना साधा। राहुल गाँधी द्वारा भारत में ख़ून बहाने वाले पाकिस्तानी आतंकी को ‘जी’ कह कर पुकारने पर ट्विटर पर लोगों ने उनकी क्लास लगाई।

‘क्रांतिकारी पत्रकार’ पुण्य प्रसून बाजपेयी ने कर डाला एक और ‘कांड’, IAS अधिकारी ने लगाई लताड़

चुनाव की तारीखों की घोषणा हो चुकी है। तारीखों की घोषणा के साथ ही चुनावी सरगर्मियाँ और भी तेज हो गई हैं।
इस चुनावी मौसम में मीडिया वाले भी कुछ ज्यादा ही सक्रिय और उत्तेजित दिखाई देते हैं। इसी चक्कर में कई बार तो ऐसा देखने को मिलता है कि मीडिया में बैठे वरिष्ठ पत्रकार भी अपनी सूझ-बूझ का परिचय नहीं दे पाते हैं और कुछ ऐसी बातें कह जाते हैं जो कि उनकी काबिलियत और कौशल पर सवाल खड़े कर देता है।

ऐसा ही कुछ कर दिया है जाने-माने पत्रकार पुण्य प्रसून बाजपेयी ने। वही बाजपेयी जो ‘आज तक’ और ‘एबीपी’ जैसे न्यूज़ चैनल में काम करने के बाद ‘सूर्या समाचार’ में एडिटर-इन-चीफ के ओहदे पर आसीन हैं। शायद ये इनका ‘कर्म’ ही है कि शीर्ष समाचार चैनलों में काम करने वाले वरिष्ठ और अनुभवी पत्रकार आज एक यू ट्यूब चैनल में काम करने को मजबूर हैं। अभी एक बार फिर से वो निशाने पर आ गए, जब उन्होंने ट्वीट करते हुए लिखा कि आज शाम से केयर-टेकर की भूमिका में आ जाएगी मोदी सरकार।

बाजपेयी के इस ट्वीट के बाद लोगों की तरह-तरह की प्रतिक्रियाएँ आनी शुरू हो गईं। उनकी बुद्धिमत्ता पर भी सवाल उठाए जा रहे हैं। एक आईएएस अधिकारी ने तो यहाँ तक कह दिया, “बाजपेयी जी, एंकरिंग आपको संवैधानिक विशेषज्ञ नहीं बनाती है। लोकसभा भंग होने पर ही सरकार केयर-टेकर बनती है। कृपया भारत में पाकिस्तान और बांग्लादेश का संविधान लागू न करें।”

भारतीय संविधान की बात करें तो पार्लियामेंट के भंग होने के बाद सरकार को केयर-टेकर की भूमिका में रखा जाता है या फिर सरकार को तभी केयर-टेकर के तौर पर रखा जाता है, जब सरकार खुद से इस्तीफा दे दे। इस्तीफा देने के बाद राष्ट्रपति के द्वारा तब तक के लिए सरकार को केयर-टेकर की भूमिका में रखा जाता है, जब तक कि चुनावी प्रक्रिया से नए सरकार की नियुक्ति ना हो जाए।

बाजपेयी ने ये ट्वीट तो मोदी सरकार के खिलाफ में किया था और सरकार को नीचा दिखाने की कोशिश की, मगर आधी-अधूरी जानकारी के साथ किया गया यह ट्वीट अब इन पर ही भारी पड़ रहा है। चले तो थे मोदी को घेरने पर खुद ही घिरते हुए नज़र आ रहे हैं। लोगों ने तो उन पर तंज कसते हुए ये तक कह दिया कि पैसे लेकर हेडलाइन बदलने वाले बाजपेयी जी पैसे लेकर संविधान भी बदल सकते हैं।

‘चंदामामा’ के मालिकों पर ‘दाग’: मनी लॉन्ड्रिंग के मामले में स्विस बैंक देगा जानकारी

दशकों से बच्चों के मनोरंजन के लिहाज़ से पढ़ी जाने वाली चंदमामा मैग्जीन के नए मालिक इस बार मनी लॉन्ड्रिंग के मामले में बुरी तरह फँसे हैं। दरअसल, 2007 में मुंबई की जियोडेसिक लिमिटेड कंपनी ने इस पत्रिका को खरीद लिया था।

लेकिन अब कंपनी में पैसों की हेर-फेर और अन्य वित्तीय गड़बड़ियों को लेकर तीनों निदेशकों के ख़िलाफ़ जाँच चल रही है। इस जाँच में सहयोग करते हुए स्विट्जरलैंड ने तीनों के स्विस बैंक के खातों से संबंधित जानकारी देने की सहमति दे दी है।

आधिकारिक कागज़ातों के मुताबिक, स्विट्जरलैंड के टैक्स विभाग ने 5 मार्च को कंपनी और इसके तीनों निदेशकों पंकज कुमार ओंकार श्रीवास्तव, किरण कुलकर्णी और प्रशांत शरद मुलेकर के बैंक खातों में प्रशासनिक सहयोग देने का निर्णय कर लिया है।

स्विटज़रलैंड के कानून के अनुसार कर विभाग के फैसले के ख़िलाफ़ 30 दिनों के भीतर अपील की जा सकती है। इसलिए 2018 में इस विषय पर लिए निर्णय को चुनौती दी गई, लेकिन योग्य प्रमाण न होने के कारण इस अपील को ख़ारिज कर दिया गया। जिसके बाद एक बार दोबारा से यह निर्णय लिया गया है।

चंदामामा मैग्जीन

बता दें कि चंदामामा मैग्जीन को ख़रीदने वाली यह कंपनी विभिन्न नियमों की अनदेखी के आरोप में पहले भी सेबी (Securities and Exchange Board of India) की कार्रवाई का सामना कर चुकी है।

राष्ट्रगान के समय खड़े होने पर राजनीति शुरू… इस बार दक्षिण भारत से आई यह हवा

किसी भी नागरिक के लिए देश सर्वोपरि होता है और होना भी चाहिए, क्योंकि देश है तो हम हैं। हमारी पहचान देश से है। जिस देश में हम सुकून और इज्जत के साथ जीते हैं, जिस देश की हम रोटी खाते हैं, जिस देश की मिट्टी में हम सोते हैं, क्या हमारा उस देश के प्रति कोई फ़र्ज़ नहीं बनता? क्या ये हमारा कर्तव्य नहीं बनता कि हम देश की अस्मिता और गरिमा का सम्मान करें और अगर हम ऐसा नहीं कर सकते तो हमें इस देश में रहने का कोई अधिकार नहीं है।

दरअसल, हम यहाँ पर बात कर रहे हैं अभिनेता से नेता बने जन सेना प्रमुख पवन कल्याण की, जिन्होंने उच्चतम न्यायालय के उस निर्देश पर सवाल खड़े किए हैं, जिसमें सिनेमा हॉल के अंदर राष्ट्रगान बजाने को अनिवार्य किया गया। पवन कल्याण को सिनेमा हॉल में राष्ट्रगान पर खड़े होना पसंद नहीं है। पवन ने कहा, “ये मेरी देशभक्ति की परीक्षा नहीं है, सीमा पर युद्ध चल रहा है, यह मेरी देशभक्ति की परीक्षा है। समाज में रूढ़िवाद व्याप्त है, यह मेरी देशभक्ति की परीक्षा है। मैं रिश्वतखोरी को रोक सकता हूँ या नहीं यह मेरी देशभक्ति की परीक्षा है। परिवार और दोस्तों के साथ फ़िल्म देखने के लिए निकाला गया समय अब देशभक्ति के प्रदर्शन का परीक्षण बन गया है।”

ऐसे में यह सवाल उठना ज़रूरी बन पड़ता है कि क्या राष्ट्रगान पर खड़ा होना आपका कर्तव्य नहीं है? माना कि आप परिवार और दोस्तों के साथ मस्ती करने गए हैं, मगर क्या आप उसमें से 52 सेकेंड का समय अपने देश के लिए नहीं निकाल सकते? 3 घंटे की फ़िल्म के दौरान 52 सेकेंड का समय निकालना आपके लिए देशभक्ति प्रदर्शित करने का परीक्षण बन गया?

हमारे राष्ट्रगान का संबंध राष्ट्रीय पहचान, राष्ट्रीय एकता और संवैधानिक देशभक्ति से है। मगर ये देखकर बड़ा ताज्जुब होता है कि कुछ लोगों को हमारे राष्ट्रगान के समय खड़े होने में तकलीफ़ होती है, राष्ट्रगान के समय
उन्हें खड़ा होना पसंद नहीं होता।

बड़ी अजीब सी बात है कि जब हम छोटे थे तो स्कूलों में राष्ट्रगान बजने के दौरान खड़े होते थे। तब हमें उतनी समझ भी नहीं थी, लेकिन फिर भी खड़े हो जाते थे। अब जब समझदार हो गए हैं तो यह जानकर हैरानी होती है कि समाज में ऐसे लोग भी हैं, जिन्हें राष्ट्रगान के समय आदरपूर्वक खड़े होने में कष्ट होता है।

आमतौर पर यह देखा गया है कि अभी भी घर में बड़ों के सम्मान में लोग खड़े हो जाते हैं, ऑफिस में बॉस के आने पर कर्मचारी जन उनके समक्ष खड़े होकर आदर का भाव व्यक्त करते हैं। ऐसे में मात्र 52 सेकंड के लिए राष्ट्रगान के सम्मान में खड़े होने पर भला क्या आपत्ति हो सकती है? जबकि इसका सीधा संबंध हमारे देश के गौरव से है।

हाँ, अगर किसी को शारीरिक तौर पर कोई परेशानी हो या फिर अस्वस्थ हों तो ये बात समझ में आती है, मगर जानबूझकर राष्ट्रगान के समय खड़ा ना होना शिष्टाचार का प्रतीक तो नहीं है।

अलगाववादी मीरवाइज़ ने NIA की नोटिस को धता बताया, पूछताछ के लिए हाजिर होने से किया इनकार

मीरवाइज़ उमर फ़ारुक़ ने राष्ट्रीय जाँच एजेंसी (NIA) की नोटिस को धता बताते हुए एजेंसी के समक्ष पेश होने से इनकार कर दिया है। टेरर फंडिंग के मामले में एजेंसी ने मीरवाइज़ को नई दिल्ली समन किया था लेकिन उसने उलटा एनआईए को ही श्रीनगर आकर पूछताछ करने को कहा। टेरर फंडिंग के मामले में चल रही जाँच में सहयोग करने से उसने साफ़ इनकार कर दिया है। सोशल मीडिया पर लोगों ने मीरवाइज़ उमर फ़ारुक़ के इस रवैये पर सवाल खड़ा करते हुए पूछा कि क्या वह अपने आप को क़ानून से ऊपर मानता है? हुर्रियत के प्रवक्ता ने कहा कि मीरवाइज़ एनआईए के समक्ष पेश नहीं होंगे बल्कि लिखित में जवाब देंगे। प्रवक्ता ने कहा कि मीरवाइज़ ने क़ानूनी सलाह लेने के बाद यह निर्णय लिया।

एनआईए द्वारा अलगावादी नेताओं को समन करने के बाद से श्रीनगर में विरोध प्रदर्शन शुरू हो गए। अलगाववादियों के गुर्गों ने सड़क पर उत्पात मचाया। पिछले सप्ताह एनआईए द्वारा मीरवाइज़ को थमाए गए नोटिस में लिखा था- “एनआईए द्वारा जिस केस की जाँच की जा रही है, आप उसके पहलुओं से परिचित हैं। अतः आपको पूछताछ हेतु एजेंसी के समक्ष 11 मार्च को सुबह 11.30 बजे रिपोर्ट करना आवश्यक है।”

जम्मू कश्मीर की पूर्व मुख्यमंत्री और पीडीपी अध्यक्ष महबूबा मुफ़्ती ने मीरवाइज़ को नोटिस देने को लेकर केंद्र सरकार पर निशाना साधा। महबूबा ने एक ट्वीट में लिखा कि एनआईए का समन हमारी धार्मिक पहचान पर भारत सरकार द्वारा बार-बार किए जा रहे चोट का प्रमाण है। उन्होंने कहा कि सरकार वास्तविक मुद्दों से ध्यान हटाने के लिए मीरवाइज़ को बलि का बकरा बना रही है।

बता दें कि पुलवामा हमले के बाद सरकार कश्मीर के अलगाववादियों व आतंकियों के प्रति सख़्त रवैया अपनाए हुई है। यासीन मलिक को गिरफ़्तार कर लिया गया है। 150 से भी अधिक अलगाववादियों व अन्य कश्मीरी नेताओं की सुरक्षा वापस ले ली गई है। कुछ दिनों पहले एनआईए ने मीरवाइज़ के श्रीनगर स्थित आवास की तलाशी भी ली थी। एजेंसी के अनुसार, इस छापे में कई अहम दस्तावेज बरामद हुए। जम्मू-कश्मीर में आतंकी वारदातों को बढ़ावा देने के लिए पाकिस्तानियों से हुए अवैध वित्तीय करार के सम्बन्ध में एनआईए ने 2017 में मीरवाइज़ के प्रवक्ता शहीद-उल-इस्लाम सहित 7 अन्य अलगाववादियों को गिरफ़्तार किया था।

फ़ैक्ट चेक: कंधार प्रकरण के लिए अजीत डोभाल को राहुल गाँधी द्वारा दोषी ठहराना दुर्भावनापूर्ण और तथ्यों से परे है

देश में चुनाव का मौसम शुरू हो चुका है और ऐसे में राजनीतिक गलियारे में उथल-पुथल होना आम बात है। विपक्ष का केंद्र के ख़िलाफ़ हमलावर रहना कोई नई बात नहीं है लेकिन जब उन बेबुनियादी मुद्दों को हवा दी जाती है, जिनका वास्तविकता से कोई सरोकार नहीं होता तो यह काम निंदनीय होता है। हाल के दिनों में राहुल गाँधी द्वारा ऐसे ही झूठ का दुष्प्रचार किया जा रहा है जिसका संबंध राष्ट्रीय जाँच एजेंसी (NSA) के अजीत डोभाल से है। बीते रविवार (मार्च 10, 2019) को राहुल गाँधी ने अजीत डोभाल को 1999 में आतंकवादी मसूद अज़हर को रिहा करने वाली वार्ता टीम का हिस्सा बनाने की भरसक कोशिश की। अपनी इस कोशिश में वो मसूद अज़हर की रिहाई के लिए अजीत डोभाल को दोषी करार देने पर तुले नज़र आए।

अपने ट्विटर पोस्ट में, राहुल गाँधी ने कुख्यात आतंकवादियों द्वारा IC-814 के अपहरण का ज़िक्र किया। राहुल ने अपने ट्वीट में प्रधानमंत्री मोदी से सवालिया होते हुए लिखा कि वो 40 CRPF शहीदों के परिवारों को बताएँ, जिन्होंने उनके हत्यारे मसूद अज़हर को रिहा कर दिया। इसके अलावा राहुल ने अपने ट्वीट में अजीत डोभाल पर भी निशाना साधा। हालाँकि, राहुल गाँधी के अधिकतर दावे आधे-अधूरे ही नज़र आते हैं।

बता दें कि IC-814 जब अमृतसर से दक्षिणी अफ़गानिस्तान में कंधार ले जाया गया था तब आतंकवादी मुल्ला मोहम्मद उमर के नेतृत्व में अपहर्ताओं ने खूंखार आतंकवादी मौलाना मसूद अज़हर सहित भारतीय जेलों से 35 आतंकवादियों को रिहाई के अलावा 200 मिलियन डॉलर नकद की माँग की थी।

इसके बाद भारत सरकार ने राजनयिक विवेक काटजू, अजीत डोभाल के नेतृत्व में वार्ताकारों की एक टीम भेजी। इस टीम में उस समय के एक उच्च श्रेणी के इंटेलिजेंस ब्यूरो अधिकारी नेचल संधू और सीडी सहाय समेत ब्यूरो ऑफ़ सिविल एविएशन सिक्योरिटी के कुछ अन्य प्रतिनिधि भी शामिल थे। 31 दिसंबर 1999 को, इस मसले को हल कर लिया गया। बता दें कि इस मसले को हल करने के लिए भारत सरकार आतंकवादी संगठन, जैश-ए-मोहम्मद के संस्थापक मसूद अज़हर सहित तीन शीर्ष आतंकवादियों को रिहा करने पर सहमत हो गई थी। इन सभी गतिविधियों में एक महत्वपूर्ण बात यह है कि कई वार्ताओं के दौरान, अजीत डोभाल ने आतंकवादियों की रिहाई संख्या को 35 से घटाकर सिर्फ़ तीन किया था और इसके लिए उन्होंने एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।

कुछ विशेषज्ञों के अनुसार, अजीत डोभाल ने आतंकवादी मसूद अज़हर की रिहाई का विरोध किया था, क्योंकि वे जानते थे कि इस तरह के खूंखार आतंकवादी को रिहा करने के नतीजे भविष्य में बुरे परिणाम होंगे। हालाँकि, तब अजीत डोभाल एक सरकारी अधिकारी थे और उन्हें सरकार के फ़ैसलों के अनुसार चलना पड़ा। कथित तौर पर, अजीत डोभाल ने बंधकों को छुड़ाने के लिए अज़हर की रिहाई के बिना सौदे पर बातचीत करने के लिए सरकार से और समय भी माँगा था।

यह बात चौंकाने वाली है कि भविष्य में देश का नेतृत्व करने की इच्छा रखने वाले राहुल गाँधी को ऐसी राष्ट्रीय आपात स्थितियों के दौरान आतंकी समूहों के साथ होने वाली जटिल वार्ताओं के बारे में पूरी और सही जानकारी अब तक नहीं है। राहुल गाँधी ने जानबूझकर इस तथ्य की अवहेलना की कि इस मुद्दे पर निर्णय लेने के लिए तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी द्वारा बुलाई गई बैठक में तत्कालीन कॉन्ग्रेस प्रमुख सोनिया गाँधी और मनमोहन सिंह भी उपस्थित थे। बावजूद इसके राहुल गाँधी ने न सिर्फ़ सच को छिपाया बल्कि देश की जनता को भ्रमित करने का अपराध भी किया।

कंधार घटना को कवर करने वाले कुछ पत्रकारों ने इस बात का भी ख़ुलासा किया था कि 1999 में वाजपेयी सरकार को तीन आतंकवादियों को रिहा करना पड़ा था क्योंकि उस समय मीडिया और कार्यकर्ताओं ने IC-814 अपहरण की भड़काऊ कवरेज की थी और जल्द निर्णय लेने के लिए सरकार पर बहुत अधिक दबाव बनाने का काम किया था।

यह बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है जब बड़े स्तर पर होने वाली राजनीतिक बातचीत और चर्चा को ग़लत रूप से प्रचारित कर हमारे ‘राष्ट्रीय नायकों’ की सम्मानित छवि को धूमिल करने का भरसक प्रयास किया जाता है। राहुल गाँधी, जिनका एकमात्र ध्येय केवल केंद्र सरकार को बेवजह घेरना भर रहता है, उन्हें अजीत डोभाल को दोषी ठहराए जाने वाले इस निंदनीय कृत्य के लिए शर्मिंदा होना चाहिए।

जावेद साहब! प्रेमगीत लिखिए, वीर रस आपको शोभा नहीं देता

जावेद अख्तर अल्फ़ाज़ों के अच्छे जादूगर हैं। हाल ही में उन्होंने एक बार फिर जादू दिखाया है। इस बार उन्होंने भारतीय सेना के कंधे पर कमान रखकर मोदी के तीर से संघ को निशाना बनाया है। अख्तर का कहना है कि नरेंद्र मोदी को भारतीय सेना में गुजराती रेजिमेंट बनानी चाहिए ताकि उसमें स्वयंसेवक भर्ती हो सकें।

जावेद अख्तर अपने इस कथन से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के ‘स्वयंसेवकों’ को निशाना बना रहे थे। लेकिन शायद उन्हें इस बात का ज्ञान नहीं है कि भारतीय सेना में रेजिमेंट सिस्टम अंग्रेज़ों का बनाया हुआ है। अंग्रेज़ों ने कुछ क्षेत्रों और जातियों के लोगों को ‘मार्शल कास्ट’ घोषित किया था। ब्रिटिश अधिकारी नस्लभेदी विचारधारा से ग्रसित होते थे इसीलिए कुछ क्षेत्र विशेष या जाति के लोगों के प्रति उनकी यह धारणा थी कि उस जाति के लोगों का जन्म युद्ध लड़ने के लिए ही हुआ है।

क्षेत्र और जाति विशेष के आधार पर ही अंग्रेज़ों ने सेना की इन्फैंट्री में रेजिमेंट बनाई थी। आज की भारतीय सेना एक मॉडर्न फ़ोर्स है और वह उस पुरातन औपनिवेशिक अवधारणा में विश्वास नहीं करती। हालाँकि रेजीमेंट सिस्टम आज भी हैं और प्रत्येक रेजिमेंट का अपना गौरवशाली इतिहास है। लेकिन यह भी सत्य है कि सेना में देश के प्रत्येक क्षेत्र की अपनी एक रेजिमेंट नहीं है। और यदि किसी क्षेत्र या जाति के नाम पर रेजिमेंट नहीं है तो इसका अर्थ यह नहीं है कि उस क्षेत्र अथवा जाति, समुदाय, पंथ के लोग हीन हैं। वास्तव में स्वतंत्रता के बाद भारतीय सेना ने यह निर्णय लिया था कि रेजिमेंट का नाम किसी क्षेत्र या समुदाय के नाम पर नहीं रखा जाएगा।

यदि भारतीय सेना में गुजरात रेजिमेंट नहीं है तो इसका अर्थ यह नहीं है कि गुजराती लोगों का देश की प्रगति में कोई योगदान नहीं है। वस्तुतः देश की आर्थिक प्रगति में गुजरातियों का सबसे बड़ा हाथ है। सेना जहाँ देश की अखंडता सुनिश्चित करती है वहीं अर्थ जगत प्रगति का कारक है। सेना में गुजराती रेजिमेंट भले न हो लेकिन गुजराती लोग सेना में हैं और उनका पराक्रम किसी से कम नहीं है।

जावेद अख्तर ने सेना में गुजरातियों के बहाने संघ के स्वयंसेवकों पर निशाना साधा है। नरेंद्र मोदी को यह सलाह देने से पहले कि आरएसएस के स्वयंसेवकों को सेना में लिया जाए अख्तर को अपनी योग्यता जाँच लेनी चाहिए थी। क्या जावेद अख्तर इस योग्य हैं कि वे प्रधानमंत्री को सलाह दें कि देश की सेना कैसे चलानी है? देश कोई एक व्यक्ति नहीं चलाता। यहाँ सेना, व्यवसायी, लेखक, पत्रकार, सिनेमा के लोग सबका योगदान होता है और एक प्रधानमंत्री को सबको साथ लेकर चलना होता है। वह किसी संगठन के लोगों को किसी दूसरे संस्थान का हिस्सा बनने पर मजबूर नहीं कर सकता।

जावेद अख्तर को यह समझना चाहिए कि लोकतंत्र में हर किसी का अपना काम होता है। एक गीतकार गाने लिखता है, सैनिक युद्ध लड़ता है, शिक्षक पढ़ाता है और प्रधानमंत्री शासन करता है। ऐसे में संघ का जो काम है वह संघ बखूबी समझता है और करता है। एक गाना लिखने वाला व्यक्ति जिसने कभी किसी संगठन की कमान नहीं संभाली वह क्या जानेगा कि आरएसएस कैसे काम करता है? क्या कोई सॉफ्टवेयर इंजीनियर किसी कलाकार को यह बता सकता है कि उसे अभिनय कैसे करना है?

जावेद अख्तर ने खुद को इतना काबिल कैसे मान लिया कि अब वह देश के प्रधानमंत्री को समझाएंगे कि सेना में फलाने रेजिमेंट होनी चाहिए? प्रधानमंत्री भी सेना से संबंधित निर्णय स्वयं नहीं लेते। सेना से संबंधित निर्णय लेने के लिए सेना से पूछा जाता है। मंत्रालय के वरिष्ठ अधिकारियों तथा सेनाध्यक्ष की राय ली जाती है तब कोई निर्णय होता है। इसलिए जावेद साहब आप गाने लिखते हैं तो वही काम कीजिए। देश कैसे चलाना है यह शासन व्यवस्था पर छोड़ दीजिए।

कॉन्ग्रेसी नेशनल हेराल्ड की ‘पत्तलकारिता’: BSP से चुनाव लड़ चुके पुजारी को जोड़ दिया RSS और BJP से, कांड हुआ दुबई में

नेश्नल हेराल्ड ने कल (मार्च 10, 2019) एक ख़बर छापी। इसमें नासिक के पुजारी सुधीर प्रभाकर के दुबई में अरेस्ट होने का समाचार था। इस ख़बर में मूल जानकारी के साथ कई तरह की पृष्ठभूमि को तैयार किया गया। इसे पढ़ते हुए आपको बार-बार लगेगा कि ख़बर पुजारी पर न होकर मुख्यत: RSS और BJP पर केंद्रित है। जिस तरह से नेशनल हेराल्ड ने इस खबर को एंगल दिया है, वो इस बात को ही दर्शाता है कि आरोपित पर लगे आरोप से ज्यादा बड़ा मुद्दा RSS और भाजपा को टारगेट करना है।

नेशनल हेराल्ड की हेडलाइन का स्क्रीनशॉट

अपनी इस खबर को एंगल देने के लिए नेशनल हेराल्ड के सूत्रों का तर्क कितना हास्यास्पद है… जरा समझिए। इस खबर में बताया गया है कि दुबई में जिस सुधीर प्रभाकर को पकड़ा गया है वह RSS का करीबी है। इसलिए उसके गिरफ्तार होने के कुछ देर बाद ही भारतीय दूतावास का एक अधिकारी खुद पुलिस थाने में आकर उसकी बेल को सुनिश्चित किया।

इस ख़बर में अपनी बात को उचित साबित करने के लिए सुधीर के फेसबुक पेज का हवाला देते हुए बताया गया कि सोशल मीडिया पर वह ‘सुधीर दास पुजारी महाराज’ के नाम से सक्रिय है। साथ ही उसकी डीपी RSS प्रमुख मोहन भागवत और महाराष्ट्र मुख्य मंत्री के साथ भी है। यह तर्क किसी के आरोपों को समझाने के लिए जितने हास्यास्पद हैं उतने ही हैरान करने वाले भी… आखिर कोई किसी के सोशल मीडिया अकॉउंट से किसी के अपराधों की पृष्ठभूमि को किस तरह से तय कर सकता है?

साभार: सुधीर प्रभाकर का फेसबुक अकॉउंट

इस पूरे ख़बर में हर दूसरी बात में प्रभाकर को आरएसएस और बीजेपी से जुड़ा हुआ बताया जाता रहा है। जबकि ख़बर लिखने वाले ने खुद ही यह बताया है कि प्रभाकर 2006-07 में उस समय लाइमलाइट में आए, जब उन्होंने दलितों के लिए नासिक में मंदिर खोला था, और कहा था कि वह अपने दादा के पापों का प्रायश्चित कर रहे हैं, जिन्होंने डॉ बीआर अम्बेडकर को मंदिर में जाने से रोका था। इसके बाद वह बहुजन समाज पार्टी से जुड़े और 2009 में बीएसपी की ओर से लोकसभा चुनाव लड़ा लेकिन इसमें वो हार गए।

नेशनल हेराल्ड इतने पर भी नहीं रुका। इसके तुरंत बाद ख़बर में जिक्र किया गया कि प्रभाकर विश्व हिन्दू परिषद के प्रमुख कार्यकर्ता और सलाहकारी बोर्ड के सदस्य भी रह चुके हैं। साथ ही लगातार इस बात पर फोकस किया गया कि यह शख्स बीजेपी का और प्रधानमंत्री मोदी का कट्टर समर्थक है। इसे प्रमाणित करने के लिए खबर में सुधीर के ट्विटर से कई ट्वीट भी शामिल किए गए। कोई व्यक्ति अपने सोशल मीडिया अकाउंट पर कैसी चीजें पोस्ट कर रहा, किसके साथ ली गई फोटो शेयर कर रहा, इससे वह व्यक्ति किस संस्था से जुड़ा है कैसे पता चल जाता है, यह खुद जाँच का विषय है।

सोचने वाली बात है कि आखिर कोई मीडिया संस्थान किसी व्यक्ति के अपराध की ख़बर को उसके सोशल मीडिया की वॉल से जोड़कर क्यों दिखाने का प्रयास कर रहा है। आप किसी के सोशल मीडिया से कैसे जाँच सकते हैं कि उसके किए कारनामों के पीछे उसके सोशल मीडिया पर शेयर की गई चीजें जिम्मेदार हैं। स्वयं ही इस बात को बताना कि प्रभाकर बीएसपी से चुनाव लड़ चुके हैं और फिर खुद ही प्रभाकर के सोशल मीडिया खंगालना दर्शाता है कि खबर कि दिशा चाहे कुछ भी लेकिन उसे मोड़ा आरएसएस और बीजेपी की तरफ ही जाएगा।

किसी खबर को कवर करना हर मीडिया संस्थान का काम होता है लेकिन झूठ और अनुमानों का सहारा लेकर किसी खबर को एंगल देना उस संस्थान की विश्वस्नीयता पर सवाल खड़ा करता है। प्रभाकर पर इल्जाम है कि उन्होंने अपनी पूँजी को बढ़ाने के लिए एक शाही परिवार के नाम का इस्तेमाल किया है लेकिन नेशनल हेराल्ड ने इस ख़बर को जो एंगल देकर पेश किया उसमें साफ़ है कि वह विश्व हिंदू परिषद और आरएसएस की छवि को धूमिल करने के लिए प्रयासरत है। नेशनल हेराल्ड जैसी पत्तलकारिता (माफी चाहती हूँ क्योंकि पत्रकारिता तो ये कर नहीं रहे) करने वाले संस्थानों को समझने की आवश्यकता है कि किसी पार्टी का समर्थन करना और किसी से व्यक्तिगत धोखेबाजी करना एक दूसरे का पर्याय नहीं है।

महाराष्ट्र: पीछे हटे शरद पवार, नहीं लड़ेंगे आगामी लोकसभा चुनाव

एनसीपी अध्यक्ष शरद पवार ने लोकसभा चुनाव लड़ने से इनकार कर दिया है। आज सोमवार (मार्च 11, 2019) को एक अहम बयान देते हुए उन्होंने कहा कि वे आगामी लोकसभा चुनावों में एक उम्मीदवार के तौर पर हिस्सा नहीं लेंगे। तीन बार महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री का पद संभाल चुके पवार के इस ऐलान के बाद सियासी गलियारों में चर्चाएँ तेज़ हो गयी है। लोगों का कहना है कि राज्य में भाजपा-शिवसेना का गठबंधन होने और मोदी लहर के कारण उन्होंने आगामी चुनाव परिणाम भाँप लिया है। इस बारे में अधिक जानकारी देते हुए एनसीपी सुप्रीमो ने कहा:

“मैंने सोचा कि मेरे परिवार के दो सदस्य इस बार चुनाव लड़ रहे हैं, इसलिए मुझे लगा कि यह सही समय है उचित फैसला लेने का। इसलिए मैंने चुनाव नहीं लड़ने का निर्णय लिया। मैं पहले के 14 चुनाव लड़ चुका हूं।”

शरद पवार के मढ़ा लोकसभा निर्वाचन क्षेत्र से चुनाव लड़ने के क़यास लगाए जा रहे थे। राष्ट्रवादी कॉन्ग्रेस पार्टी के नेताओं ने उनसे चुनाव लड़ने का आग्रह भी किया था। 78 वर्षीय पवार अभी राज्यसभा के सदस्य हैं। कभी केंद्र सरकार में कृषि मंत्री और रक्षा मंत्री जैसे अहम पद संभाल चुके पवार पर भाजपा भी काफ़ी आक्रामक हो गई थी। भाजपा अध्यक्ष अमित शाह और मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस ने कुछ दिनों पहले कहा था कि भाजपा राज्य में 2014 के मुक़ाबले एक सीट अधिक जीतेगी और वह सीट होगी- बारामती। ज्ञात हो कि बारामती पवार का गढ़ माना जाता रहा है। वे यहाँ से 1984, 1991, 1996, 1998, 1999 और 2004 में जीत दर्ज कर चुके हैं। पवार 1967, 1972, 1978, 1980, 1985 और 1990 में बारामती विधानसभा क्षेत्र से विधायक भी रह चुके हैं।

पवार की बेटी सुप्रिया सुले 2009 और 2014 में बारामती लोकसभा क्षेत्र से जीत दर्ज कर चुकी हैं। उनके भतीजे अजित पवार ने 1991 में इस क्षेत्र का प्रतिनिधित्व किया था। इसके अलावा 1991, 1995, 1999, 2004, 2009 और 2014 में अजित पवार बारामती विधानसभा क्षेत्र का भी प्रतिनिधित्व कर चुके हैं। अगर पवार चाहते तो मढ़ा या बारामती से चुनाव लड़ सकते थे क्योंकि ये क्षेत्र उनके परिवार का गढ़ रहा है लेकिन उन्होंने पाँव पीछे खींच लिए हैं। पवार ने 2009 में मढ़ा लोकसभा क्षेत्र से जीत दर्ज की थी। पवार अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट संस्था आईसीसी और भारतीय क्रिकेट की सर्वोच्च संस्था बीसीसीआई के अध्यक्ष भी रह चुके हैं।

महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस ने पवार के इस निर्णय पर टिप्पणी करते हुए कहा कि पवार हवा का रुख पहले ही भाँप लेते हैं और इसी कारण उन्होंने ऐसा ऐलान किया है। बता दें संसद में सपा संरक्षक मुलायम सिंह यादव भी मोदी के फिर से प्रधानमंत्री बनने की कामना कर चुके हैं। रविवार (मार्च 10, 2019) को चुनाव आयोग ने आगामी लोकसभा चुनाव के लिए तारीखों का ऐलान भी कर दिया। महाराष्ट्र में 4 चरणों में चुनाव संपन्न कराए जाएँगे।