विचार
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मनमोहन सिंह की नीति से बढ़ी बीमारी: हर साल मरती हैं 1000 गायें, आज भी सॅंभले तो 1000 साल में खत्म होगा मर्ज
यह मर्जी का मसला नहीं है। न ही प्रधानमंत्री की अपील या सख्त नियम-कायदों का होना जरूरी है। यह मसला आपकी जिंदगी, आने वाली पीढ़ियों की जिंदगी से जुड़ा। इसलिए, खुद से ही संभलिए। देर हुई तो न हम बचेंगे न पर्यावरण।
हिन्दुओं को बार-बार नीचा दिखाओ, क्योंकि वे हमारा कुछ नहीं उखाड़ पाएँगे…रत्ती भर भी नहीं
हिन्दू का व्यवसाय धंधा तो मजहब विशीष का कारोबार इबादत कैसे? क्यों असहिष्णुता गणेश चतुर्थी पर ही आती है, मुहर्रम पर नहीं? क्यों कम्पनियॉं मानती हैं कि जूते खाकर भी आप उनका ही प्रोडक्ट खरीदेंगे। जवाब है, हिन्दू आज अपनी ही संस्कृति, दर्शन और इतिहास का मज़ाक बनाने वालों के पोषक बने हुए हैं।
क्या सचमुच बर्बाद हो गई है हमारी अर्थव्यवस्था? सरकार क्या कर रही है? (भाग 2)
नीतियाँ लम्बे समय तक के लिए होती हैं, इसलिए सरकारों को सोच समझ कर बोलना चाहिए ताकि बिजनेस करने वालों के बीच यह भरोसा रहे कि यह सरकार जो बोलती है, वो करती है। अगर नीतियाँ तीन महीने में घोषणा के बाद बदलती रहेंगी, जो कि मोदी सरकार में कई बार हो चुका है, तो इंडस्ट्री उसे सही सिग्नल नहीं मानती।
GDP से क्या होता है? क्या सचमुच बर्बाद हो गई है हमारी अर्थव्यवस्था? (भाग 1)
ऑक्सफोर्ड से पढ़े हुए मनमोहन सिंह अर्थव्यवस्था पर ज्ञान दिए जा रहे हैं। मनमोहन सिंह कहते हैं कि मोदी की नीतियों ने भारत को इस स्थिति में पहुँचाया है। लेकिन आँकड़े इस दावे के उलट कुछ और ही कहानी कहते हैं।
हिन्दू होने के नाते भारत की राष्ट्रीयता मिल जाने का प्रावधान जब तक लागू नहीं होगा, तब तक…
एनआरसी में जिन 19 लाख लोगों का आँकड़ा निकाला गया है, उसमें से अधिकांश हिन्दू ही हैं। जिन 19 लाख लोगों को एनआरसी से बाहर किया गया है, उनकी अपील को अगर फोरेनर ट्रिब्यूनल ने ठुकरा दिया तो उन्हें लम्बी कानूनी लड़ाई भी लड़नी पड़ेगी।
मुस्लिम महिला सबसे गोरी, ब्राह्मण सबसे काले: Cadbury वालो, धंधा करो ज्ञान मत बाँटो
कॉर्पोरेट को समझना होगा कि उसके एजेन्डाबाज और राजनीतिक रूप से वामपंथी झुकाव वाले प्रोफेशनल किसी मुद्दे का समाधान करने की कोशिश नहीं कर रहे। यही कारण है कि मूल व्यवसाय से ज्यादा ऐसी फ़िज़ूल की गतिविधियों में ऊर्जा खपाना धंधे पर भारी पड़ रहा है।
घोघो रानी… चुल्लू भर ही था पानी, इसलिए छेनू उसमें डूब के मर न सका!
लोकतंत्र के चार खम्भे जब गिनवाए जाते हैं तो विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका के बाद पत्रकारिता का नंबर भी आता है। जब पहले तीन से जनता सवाल कर सकती है तो आखिर ऐसा क्यों है कि पत्रकारिता सीजर्स वाइफ की तरह सवालों से बिलकुल परे करार दी जाती है?
मीडिया को सत्ता का गुंडा बताने वाले रवीश के 4P- प्रपंच, पाखंड, प्रोपेगेंडा, प्रलाप
रवीश कुमार ने बीजगणित के अध्याय की तरह सब कुछ अब 'मान लिया' है। इससे बड़ी हानि यह है कि वो चाहते हैं कि उनके इसी 'मान लेने' को बाकी लोग भी मान लें, जबकि उनकी यह बीजगणित एकदम ऊसर है, इससे कुछ भी सृजन नहीं हो सकता है।
काश! कश्मीर में दंगे हो जाते, घरों में आग लगाई जाती, सैकड़ों लोग मारे जाते! कितना मजा आता…
प्रपंच फैलाया जा रहा है कि अस्पतालों में लोग मर रहे हैं, जीवनरक्षक दवाइयाँ नहीं हैं। आप सोचिए कि आखिर यही चार-पाँच मीडिया वाले, इसी एक तरह की रिपोर्टिंग क्यों कर रहे हैं? आखिर दो लोगों के बयान के आधार पर पूरी सेना को बर्बर कहने की रिपोर्टिंग का लक्ष्य क्या है? अमेरिकी अखबार को भारत के एक हिस्से के अस्पतालों पर झूठ लिखने की क्यों जरूरत पड़ती है?
‘मुल्लों से आज हर कोई डरता है’: रेप के अड्डे बने मदरसे, मुँह खोलने पर 19 साल की नुसरत को जलाकर मारा डाला
यौन शोषण के ज्यादातर मामले मौलवियों के खौफ में दबा दिए जाते हैं। जो मामले सामने आते हैं उनमें भी पीड़िताओं के साथ नुसरत जैसी घटना अंजाम दी जाती है। आखिर क्यों कभी धर्म तो कभी तुष्टिकरण के नाम पर आरोपी मौलवियों के कुकर्म धुल जाते हैं?