केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार द्वारा बनाए गए वक्फ संशोधन अधिनियम-2025 की संवैधानिकता पर सुप्रीम कोर्ट सुनवाई कर रहा है। इससे पहले सुप्रीम कोर्ट ने देश के सर्वोच्च पद राष्ट्रपति को भी समय सीमा देते हुए निर्देश जारी किया था। अब उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने न्यायपालिका पर फिर से निशाना साधा है और कहा कि वह अपने अधिकार क्षेत्र से आगे बढ़कर विधायिका के मामले में हस्तक्षेप कर रही है।
उपराष्ट्रपति धनखड़ ने सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर गंभीर आपत्ति जताई है। उन्होंने कहा कि संविधान का अनुच्छेद 142 लोकतांत्रिक ताकतों के खिलाफ एक ‘परमाणु मिसाइल’ बन गया है, जो न्यायपालिका के पास 24 घंटे उपलब्ध होता है।। उपराष्ट्रपति का बयान ऐसे समय में आया है, जब संसद के दोनों सदनों द्वारा पारित वक्फ अधिनियम के कुछ प्रावधानों पर सुप्रीम कोर्ट ने आपत्ति जताई और उसे रोकने की बात कही।
उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने कहा, “हाल ही में एक निर्णय के माध्यम से राष्ट्रपति को निर्देश दिया गया है। हम कहाँ जा रहे हैं? देश में क्या हो रहा है? हमने लोकतंत्र के लिए इस दिन की कभी उम्मीद नहीं की थी। हमारे पास ऐसे न्यायाधीश हैं जो कानून बनाएँगे, कार्यकारी कार्य करेंगे, सुपर-संसद के रूप में कार्य करेंगे और उनकी कोई जवाबदेही नहीं होगी, क्योंकि देश का कानून उन पर लागू नहीं होता है।”
उपराष्ट्रपति ने कहा, “हम ऐसी स्थिति नहीं बना सकते, जहाँ आप (सुप्रीम कोर्ट) भारत के राष्ट्रपति को निर्देश दें। वह भी किस आधार पर? संविधान के तहत आपके पास एकमात्र अधिकार अनुच्छेद 145(3) के तहत संविधान की व्याख्या करना है।” उन्होंने कहा कि अनुच्छेद 145(3) के अनुसार किसी महत्वपूर्ण संवैधानिक मुद्दे पर कम-से-कम 5 न्यायाधीशों वाली पीठ द्वारा निर्णय लिया जाना चाहिए।
उन्होंने कहा कि जब पाँच न्यायाधीशों वाली पीठों का निर्णय निर्धारित किया गया था, तब सर्वोच्च न्यायालय में न्यायाधीशों की संख्या आठ थी। धनखड़ ने बिल के संबंधित मामले को लेकर कहा कि सुप्रीम कोर्ट द्वारा राष्ट्रपति के खिलाफ निर्णय दो न्यायाधीशों वाली पीठ द्वारा दिया गया था। अब सर्वोच्च न्यायालय में न्यायाधीशों की संख्या बढ़कर 31 हो गई है।
Article 142 has become a nuclear missile against Democratic forces available to judiciary 24×7.
— Vice-President of India (@VPIndia) April 17, 2025
We cannot have a situation where you direct the President of India and on what basis?
The only right you have under the Constitution is to interpret the Constitution under Article… pic.twitter.com/ctmd1L2KUW
उन्होंने यहाँ तक कहा कि संविधान पीठ में न्यायाधीशों की न्यूनतम संख्या बढ़ाने के लिए अनुच्छेद 145(3) में संशोधन करने की आवश्यकता है। उपराष्ट्रपति ने राज्यसभा के प्रशिक्षुओं के छठे बैच को संबोधित करते हुए कहा कि सुप्रीम कोर्ट द्वारा राष्ट्रपति को बिल पर तीन महीने में निर्णय लेने का निर्देश दिया गया है। यदि वे ऐसा नहीं करते हैं तो संबंधित राज्यपाल द्वारा भेजा गया विधेयक कानून बन जाता है।
न्यायपालिका की वर्तमान हालात पर बात करते हुए उपराष्ट्रपति ने न्यायाधीश यशवंत वर्मा का भी जिक्र किया। ये वही जज हैं, जिनके घर पर इस साल होली के दिन नोटों से भरे बोरों में आग लग गई थी। मामले में भारी विवाद के बाद भी सुप्रीम कोर्ट उन्हें दिल्ली से इलाहाबाद हाई कोर्ट स्थानांतरित कर दिया गया और मामले की जाँच के लिए आंतरिक कमिटी बना दी गई।
धनखड़ ने कहा, “14 और 15 मार्च की रात को नई दिल्ली में एक न्यायाधीश के निवास पर एक घटना घटी। सात दिनों तक किसी को इसके बारे में पता नहीं चला। हमें खुद से सवाल पूछने होंगे। इसमें हुई देरी को क्या समझा जा सकता है? क्या यह क्षमा योग्य है? क्या इससे कुछ बुनियादी सवाल नहीं उठते? किसी भी सामान्य स्थिति में और सामान्य परिस्थितियाँ कानून के शासन को परिभाषित करती हैं।”
अनुच्छेद 142, जिसे उपराष्ट्रपति ने परमाणु मिसाइल कहा
संविधान के अनुच्छेद 142 में सुप्रीम कोर्ट के आदेशों और डिक्री को देने का अधिकार और उसे लागू करने आदि से संबंधित से संबंधित है। अनुच्छेद 142 के उपबंध-1 सुप्रीम कोर्ट को ये अधिकार देता है कि उसके पास आए किसी भी मामले में वह न्याय के लिए डिक्री या आदेश पारित कर सकेगा। यह डिक्री या आदेश पूरे भारत में लागू होगा।
इसके उपबंध-2 में कहा गया है कि इस संंबंध में संसद द्वारा बनाए गए किसी कानून के अधीन रहते हुए सुप्रीम कोर्ट पूरे भारत के किसी भी क्षेत्र के किसी व्यक्ति को हाजिर होने, दस्तावेज प्रस्तुत करने, अवमानना की जाँच करने या दंड देने का समस्त अधिकार उसके पास होगा। इस तरह अनुच्छेद 142 में स्पष्ट है कि सुप्रीम कोर्ट को संसद द्वारा पारित कानून के दायरे में ही काम करना है।
हालाँकि, बात यहीं खत्म नहीं होती। कॉलेजियम के तर्ज पर सुप्रीम कोर्ट ने इसकी भी काट निकाली है। पिछले कुछ वर्षों में अनुच्छेद 142 की व्याख्या और उसके प्रयोग के विभिन्न उदाहरण पेश किए गए। हाल ही में भारत के सुप्रीम कोर्ट के पाँच न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने इलाहाबाद हाई कोर्ट बार एसोसिएशन बनाम उत्तर प्रदेश राज्य एवं अन्य मामले में निर्णय देकर एक कानूनी ढाँचा विकसित किया।
यह ढाँचा संविधान के अनुच्छेद 142 की व्याख्या और उसके प्रयोग से संबंधित था। इस निर्णय ‘एशियन रीसर्फेसिंग ऑफ रोड एजेंसी प्राइवेट लिमिटेड एवं अन्य बनाम सीबीआई के पिछले निर्णय से बिल्कुल उलट था। सुप्रीम कोर्ट हाई कोर्ट बार के फैसले में एशियन रीसर्फेसिंग के निर्णय को पलट दिया था। इसमें अनुच्छेद 142 के तहत नए दिशा-निर्देश जारी करने के अलावा अंतरिम आदेशों से संबंधित पहलुओं को भी शामिल किया।
इसमें विचार किया गया कि अंतरिम आदेश को रद्द करने या संशोधित करने का हाई कोर्ट का अधिकार क्या है और क्या अंतरिम आदेश किसी विशेष समय की समाप्ति पर खुद ही समाप्त हो सकता है। एशियन रिसर्फेसिंग के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने इसी मुद्दे पर विचार किया था। उस दौरान शीर्ष न्यायालय ने माना था कि जब तक अंतरिम आदेश का समय ना बढ़ाया न जाए, वह आदेश की तारीख से 6 महीने बाद स्वतः समाप्त हो जाता है।
इलाहाबाद हाई कोर्ट बार एसोसिएशन मामले में सुप्रीम कोर्ट ने अपने उस फैसले को उलट दिया। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि एशियन रीसर्फेसिंग मामले में निर्धारित समय बीत जाने पर अंतरिम आदेशों की स्वतः समाप्ति की शर्त लागू रहने योग्य नहीं थी और इसलिए इसे खारिज कर दिया। इसके बाद अनुच्छेद 142 में दिए गए अधिकारों के तहत उसने नए दिशा-निर्देश जारी किए।
इसके तहत सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि क्या कोई न्यायालय अंतरिम आदेश पारित करते समय कोई समय सीमा तय कर सकता है। न्यायालय ने इस बात पर जोर दिया कि अनुच्छेद 142 के तहत शक्ति का उपयोग प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों को दबाने या वादियों के मूल अधिकारों को दबाने के लिए नहीं किया जाना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट ने इसके लिए मौलिक अधिकारों का उल्लंघन बताया।
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि अनुच्छेद 142 के तहत अधिकार क्षेत्र का उपयोग विवेक से और केवल असाधारण परिस्थितियों में ही किया जाना चाहिए, ताकि विवादों का निष्पक्ष और न्यायपूर्ण समाधान निकाला जा सके। सुप्रीम कोर्ट ने जोर दिया कि अनुच्छेद 142 द्वारा दी गई शक्तियों का उद्देश्यपूर्ण न्याय सुनिश्चित करना है।
सुप्रीम कोर्ट ने एशियन रीसर्फेसिंग में पहले दिए गए निर्णय को खारिज करते हुए कहा कि अनुच्छेद 226(3) के तहत पारित स्थगन आदेश को रद्द करने के लिए अनिवार्य शर्त स्थगन आदेश हटाने के लिए आवेदन दाखिल करना और न्यायालय द्वारा न्यायिक विवेक का प्रयोग करना है। इस आवेदन पर दो सप्ताह के भीतर निर्णय नहीं लिया जाता है तो स्थगन आदेश स्वतः समाप्त नहीं होता है।
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि स्थगन आदेश तब तक प्रभावी रहता है, जब तक कि इसके रद्द करने के लिए प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों का पालन करते हुए आवेदन का कारणों के साथ निपटारा नहीं हो जाता। सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा कि अदालतों को मामलों के निपटान के लिए कठोर समय-सीमा नहीं लगानी चाहिए, जब तक कि कोई असाधारण परिस्थिति न हो।
अपने इस निर्णय में सुप्रीम कोर्ट ने जो नया गाइडलाइन तय किया उसके अनुसार, अनुच्छेद 142 के तहत शक्तियों का प्रयोग न्यायालय द्वारा अपने समक्ष पक्षकारों के लिए पूर्ण न्याय करने के लिए किया जा सकता है, लेकिन ऐसा करने में न्यायालय अन्य अधिकार क्षेत्रों में अन्य वादियों के पक्ष में पारित वैध न्यायिक आदेशों को रद्द नहीं करेगा।
राष्ट्रपति को निर्देश देने के लिए उपराष्ट्रपति सुप्रीम कोर्ट पर क्यों भड़के?
हमने अपने पिछले आर्टिकल में बताया था कि क्या सुप्रीम कोर्ट भारत के सर्वोच्च पद राष्ट्रपति को निर्देश सकते हैं या नहीं। इस आर्टिकल में हमने कई कानून पहलुओं पर विचार किया था। कई लोगों के मन में सवाल उठता होगा कि भारत में पदों की वरीयता क्रम क्या है। इससे भी साफ हो जाएगा कि सुप्रीम कोर्ट राष्ट्रपति को निर्देश दे सकता है या नहीं।
अगर वरीयता क्रम की बात की जाए तो राष्ट्रपति को देश का सर्वोच्च पद है। राष्ट्रपति को भारत का पहला नागरिक कहा जाता है। इतना ही नहीं, राष्ट्रपति और संसद को मिलाकर ही भारत बनता है और वह संघ के प्रशासन का प्रमुख होता है। इसी प्रशासन का एक अंग न्यायपालिका भी है। इस तरह देश का सर्वोच्च राष्ट्रपति का होता है।
भारत में राष्ट्रपति और राज्यपाल ही ऐसे दो पद हैं, जिनके खिलाफ अदालती कार्रवाई नहीं की जा सकती है। भारत के संविधान ने अनुच्छेद 361 के तहत इसका प्रावधान किया है। यह अनुच्छेद राष्ट्रपति और राज्यपालों के खिलाफ अदालती कार्यवाही से सुरक्षा प्रदान करता है। ऐसे में सुप्रीम कोर्ट ना ही इन दोनों को किसी मामले में नोटिस जारी कर सकता है और ना ही निर्देश दे सकता है।
राष्ट्रपति के बाद देश में दूसरा सर्वोच्च पद उपराष्ट्रपति का होता है। इसके बाद तीसरे नंबर पर प्रधानमंत्री आते हैं। देश का चौथा सर्वोच्च पद राज्यपाल का होता है, जो उनके कार्य वाले राज्यों में होता है। इसके बाद वरीयता क्रम में पाँचवें स्थान पर पूर्व राष्ट्रपति आते हैं। इसके बाद भारत के उपप्रधानमंत्री का पद वरीयता क्रम में 5A स्थान पर आता है।

केंद्रीय गृह मंत्रालय के अनुसार, भारत के मुख्य न्यायाधीश (CJI) और लोकसभा स्पीकर का पद एक समान होता है। दोनों वरीयता क्रम में छठे नंबर पर आते हैं। इसके बाद सातवें नंबर पर केंद्रीय कैबिनेट मंत्री और राज्यों के मुख्यमंत्री अपने राज्यों में होते हैं। योजना आयोग के उपाध्यक्ष, पूर्व प्रधानमंत्री, राज्यसभा और लोकसभा में विपक्ष के नेता भी सातवें क्रम पर ही आते हैं।
भारत रत्न से सम्मानित व्यक्ति का क्रम 7A होता है। आठवें क्रम में राजदूत, भारत द्वारा मान्यता प्राप्त राष्ट्रमंडल देशों के आयुक्त, अपने राज्य के बाहर मुख्यमंत्री एवं राज्यपाल होते हैं। नौंवें क्रम पर सुप्रीम कोर्ट के आते हैं। इसके बाद 9A पर संघ लोक सेवा आयोग के अध्यक्ष, मुख्य चुनाव आयुक्त और भारत के नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (CAG) आते हैं।
वरीयता क्रम मेें 10वें स्थान पर राज्यसभा के उपसभापति, राज्यों के उपमुख्यमंत्री, लोकसभा के उपसभापति, योजना आयोग (वर्तमान में नीति आयोग) के सदस्य और केंद्र सरकार के राज्यमंत्री आते हैं। वहीं, 11वें स्थान पर भारत के अटॉर्नी जनरल, कैबिनेट सचिव और अपने-अपने केंद्रशासित प्रदेशों के भीतर लेफ्टिनेंट गवर्नर (उपराज्यपाल) तक शामिल हैं। वरीयता क्रम में 12वें स्थान पर पूर्ण जनरल या समकक्ष रैंक के पद पर कार्यरत चीफ ऑफ स्टाफ।