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Sunday, April 13, 2025
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क्या राष्ट्रपति को आदेश दे सकता है सुप्रीम कोर्ट, किन कारणों से डेडलाइन तय करने के फैसले पर उठ रहे सवाल: जानिए अधिकारों को लेकर क्या कहता है संविधान

संविधान के अनुच्छेद 168 के अनुसार, राज्य का राज्यपाल विधानमंडल का हिस्सा होता है। राज्यपाल जब किसी बिल पर सहमति देता है तो वह कानून बन जाता है। इस तरह, कानून बनाने, उसे पारित करने और उस पर सहमति देने का कार्य पूरी तरह से विधायी प्रक्रिया का हिस्सा है। ऐसे में सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिया गया निर्णय विधायी प्रक्रिया में न्यायपालिका का सीधा हस्तक्षेप कहा जा सकता है।

सुप्रीम कोर्ट ने स्वतंत्र भारत के इतिहास में पहली बार राष्ट्रपति को आदेश दिया है। एक मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि राज्यपाल की ओर से भेजे गए बिल पर राष्ट्रपति को 3 महीने के भीतर फैसला लेना होगा। सुप्रीम कोर्ट के इस आदेश के बाद राष्ट्रपति और सुप्रीम कोर्ट के बीच की शक्तियों को लेकर सोशल मीडिया से लेकर प्रबुद्ध वर्ग तक के बीच बहस छिड़ गई है कि सुप्रीम कोर्ट आदेश दे सकता है या नहीं।

दरअसल, यह मामला तमिलनाडु से जुड़ा है। सुप्रीम कोर्ट ने 8 अप्रैल 2025 को तमिलनाडु सरकार की याचिका पर सुनवाई करते हुए कहा था कि विधानसभा की ओर से भेजे गए बिल पर राज्यपाल को एक महीने के भीतर फैसला लेना होगा। इस फैसले के दौरान अदालत ने राष्ट्रपति को लेकर भी समय सीमा तय की। कोर्ट का यह आदेश 11 अप्रैल 2025 को सार्वजनिक किया गया है।

अपलोड किए गए ऑर्डर शीट में सुप्रीम कोर्ट ने संविधान के अनुच्छेद 201 का हवाला दिया है। जस्टिस जेबी पारदीवाला और जस्टिस आर महादेवन की पीठ ने इसमें कहा है, “राज्यपालों द्वारा भेजे गए बिल के मामले में राष्ट्रपति के पास पूर्ण वीटो या पॉकेट वीटो का अधिकार नहीं है। उनके (राष्ट्रपति के) फैसले की न्यायिक समीक्षा की जा सकती है और न्यायपालिका बिल की संवैधानिकता का फैसला करेगी।”

सु्प्रीम कोर्ट ने कहा कि अगर राज्यपाल किसी बिल को राष्ट्रपति के पास भेजता है तो राष्ट्रपति को उस बिल को स्वीकार करना होगा, उस पर राय देकर देकर वापस भेजनी होगी या फिर अस्वीकार करना होगा। यह सब कुछ तीन महीने के भीतर करना होगा। सुप्रीम कोर्ट ने यहाँ तक कह दिया कि राज्यपाल द्वारा भेजे गए बिल पर राष्ट्रपति को बार-बार लौटाने की प्रक्रिया रोकनी होगी।

सुप्रीम कोर्ट की पीठ ने अपने फैसले में आगे कहा, “कानून की स्थिति यह है कि जहाँ किसी कानून के तहत किसी शक्ति के प्रयोग के लिए कोई समय-सीमा निर्धारित नहीं है, वहाँ भी उचित समय सीमा के भीतर यह प्रयोग किया जाना चाहिए। अनुच्छेद 201 के तहत राष्ट्रपति द्वारा शक्तियों का प्रयोग कानून के इस सामान्य सिद्धांत से अछूता नहीं कहा जा सकता है।”

सर्वोच्च न्यायालय ने आगे कहा कि अगर राष्ट्रपति समय-सीमा के भीतर कार्रवाई करने में विफल रहते हैं तो प्रभावित राज्य कानूनी सहारा ले सकते हैं और समाधान हासिल करने के लिए अदालतों का दरवाजा खटखटा सकते हैं। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि बिल की संवैधानिकता के मामले में कार्यपालिका को जज नहीं बनना चाहिए। ऐसे मुद्दों को अनुच्छेद 143 के तहत निर्णय के लिए सुप्रीम कोर्ट भेजना चाहिए।

सुप्रीम कोर्ट का निर्णय और संविधान

सुप्रीम कोर्ट का यह निर्णय राजनैतिक कारणों से किसी भी विधेयक को रोकने की प्रवृत्ति को हतोत्साहित करने के लिए है। अगर सुप्रीम कोर्ट के इस निर्णय को देखा जाए तो यह आम जनता और निर्णय प्रक्रिया को प्रभावी बनाने की दिशा में सही कदम है। हालाँकि, लोग शक्ति के बँटवारे में न्यायिक हस्तक्षेप को लेकर सवाल उठा रहे हैं। यहाँ यह जानना बेहद जरूरी है कि सुप्रीम कोर्ट का यह निर्णय कितना वैध है और कितना अवैध।

यहाँ जानना यह बेहद महत्वपूर्ण है कि यह निर्णय सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ द्वारा नहीं दिया गया है, जैसा कि संविधान के अनुच्छेद 145(3) में अनिवार्य है। अनुच्छेद 145(3) में कहा गया है, “संविधान की व्याख्या के संबंध में विधि के किसी सारवान प्रश्न से संबंधित किसी मामले का निर्णय करने के लिए या अनुच्छेद 143 के अंतर्गत किसी संदर्भ की सुनवाई के लिए न्यायाधीशों की न्यूनतम संख्या पाँच होगी।”

इसमें ऐसे मामलों की सुनवाई करने के लिए संविधान पीठ का विकल्प नहीं दिया गया है। दरअसल, सुप्रीम कोर्ट ने जो निर्णय दिया है वह संविधान के अनुच्छेद 200 और 201 की व्याख्या करके दिया है। सुप्रीम कोर्ट की यह बेंच ना संवैधानिक थी और ना ही इसमें न्यूनतम पाँच जज थे। ऐसे में सवाल यह है कि संविधान के अनुच्छेद 145(3) का उल्लंघन करके सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिया गया निर्णय वैध है या नहीं।

सुप्रीम कोर्ट ने अपने आदेश में कहा कि कार्यपालिका को खुद जज नहीं बनना चाहिए, उसे संवैधानिक मामलों से जुड़े मामलों को अनुच्छेद 143 के तहत सुप्रीम कोर्ट भेजना चाहिए। अब ध्यान देने वाली बात ये है कि संविधान के मसलों से जुड़े ऐसे प्रश्नों को हल करने के लिए संविधान के निर्माताओं ने उसमें अनुच्छेद 145 (3) का प्रावधान किया था, ताकि उस पर विद्वान जजों की बहुमत द्वारा विश्लेषण किया जा सके।

संविधान का अनुच्छेद 143(1) कहता है कि यदि किसी समय राष्ट्रपति को प्रतीत होता है कि विधि या तथ्य का कोई प्रश्न उत्पन्न हुआ है या उत्पन्न होने की आशंका है, जो ऐसी प्रकृति का और ऐसे महत्व का है कि उस पर उच्चतम न्यायालय की राय प्राप्त करना समीचीन होगा तो वह उस प्रश्न पर विचार करने के लिए न्यायालय को ‘निर्देशित’ करेगा और वह न्यायालय, ऐसी सुनवाई के पश्चात जो वह ठीक समझता है, राष्ट्रपति को उस पर अपनी राय प्रतिवेदित करेगा।

दरअसल, संविधान के अनुच्छेद 124 के माध्यम से सुप्रीम कोर्ट की स्थापना की गई थी। इसमें तब सुप्रीम कोर्ट के लिए एक मुख्य न्यायाधीश और इसके साथ ही 7 अन्य न्यायाधीश की बात कही गई थी। अनुच्छेद 145(3) में साफ कहा गया है कि ऐसे मामलों की सुनवाई के लिए न्यूनतम पाँच जज होंगे। यानी कुल 8 जजों में से कम-से-कम 5 जज यानी कम-से-कम 62 प्रतिशत जज शामिल रहेंगे।

इस तरह देखें तो सुप्रीम के वर्तमान पीठ में सिर्फ दो जज थे। अब अगर अनुच्छेद 143 की बात करें तो इसमें सुप्रीम कोर्ट के वर्तमान जजों की कुल 33 में से कम-से-कम 21 न्यायाधीश शामिल होने चाहिए, जो इस तरह के संवैधानिक मामले पर सुनवाई करें। इतना ही नहीं, वर्तमान निर्णय में सुप्रीम कोर्ट ने अनुच्छेद 200 और 201 में समय-सीमा का प्रावधान जोड़ा है, जो यह उसके अधिकार क्षेत्र का नहीं है।

यह एक तरह से व्याख्या के रूप में संविधान संशोधन है। यहाँ बताना आवश्यक है कि संविधान संशोधन का अधिकार सिर्फ और सिर्फ विधायिका है। भारत के संविधान में उसके अनुच्छेद 368 के तहत ही संशोधन किया जा सकता है। इसके अलावा किसी अन्य तरीके से संविधान में संशोधन का प्रावधान नहीं है। न्यायालय सिर्फ कानून का संरक्षक है, उसका निर्माता नहीं है।

संविधान के अनुच्छेद 168 के अनुसार, राज्य का राज्यपाल विधानमंडल का हिस्सा होता है। राज्यपाल जब किसी बिल पर सहमति देता है तो वह कानून बन जाता है। इस तरह, कानून बनाने, उसे पारित करने और उस पर सहमति देने का कार्य पूरी तरह से विधायी प्रक्रिया का हिस्सा है। ऐसे में सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिया गया निर्णय विधायी प्रक्रिया में न्यायपालिका का सीधा हस्तक्षेप कहा जा सकता है।

सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि संविधान का अनुच्छेद 361 राष्ट्रपति और राज्यपालों के खिलाफ अदालती कार्यवाही से सुरक्षा प्रदान करता है। ऐसे में सुप्रीम कोर्ट उन्हें नोटिस जारी करके या अन्य तरीके से जवाब नहीं माँग सकता है। जब सुप्रीम कोर्ट उनसे जवाब नहीं माँग सकता है तो उनकी बात सुने बिना उन पर टिप्पणी करना, उन्हें आदेश और निर्देश देना प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों का सीधा उल्लंघन है।

जैसा कि सीनियर एडवोकेट पी. श्रीकुमार ने वर्डिक्टम लॉ पोर्टल पर अपने लेख में लिखा है कि संविधान का अनुच्छेद 361 राष्ट्रपति और राज्यपालों के कार्यों की न्यायिक समीक्षा को भी सीधे तौर पर रोकता है। इसके बावजूद सुप्रीम कोर्ट ने राज्यपाल और यहाँ तक कि राष्ट्रपति को निर्देश जारी कर दिया। यह अपने आप में बहुत बड़ा एवं ढाँचागत सवाल है।

राष्ट्रपति और सुप्रीम कोर्ट

बहस का सबसे बड़ा मुद्दा सुप्रीम कोर्ट का राष्ट्रपति को दिया गया निर्देश है। भारत संघ का प्रमुख राष्ट्रपति होता है। संविधान का अनुच्छेद 79 कहता है कि संघ (भारत) के लिए एक संसद होगी, जो राष्ट्रपति और दो सदनों से मिलकर बनेगी, जिनके नाम लोकसभा और राज्यसभा होंगे। देश का शासन भी राष्ट्रपति के नाम से प्रधानमंत्री द्वारा संचालित होता है, जिसका एक हिस्सा न्यायपालिका है।

सुप्रीम कोर्ट की अधिवक्ता रीना एन सिंह का कहना है कि भारत के संविधान की निम्नलिखित धाराओं एवं सिद्धांतों के अंतर्गत यह स्पष्ट करना आवश्यक है कि क्या भारत का सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court of India), भारत के राष्ट्रपति (President of India) अथवा किसी राज्यपाल (Governor) को यह निर्देश दे सकता है कि वे विधानमंडल द्वारा पारित किसी विधेयक पर निर्धारित समय के भीतर निर्णय लें।

संवैधानिक प्रावधान (Constitutional Provisions):

अनुच्छेद 200 (Article 200): राज्यपाल विधानसभा द्वारा पारित विधेयक को –

(क) स्वीकृति दे सकता है,
(ख) अस्वीकृत कर सकता है, या
(ग) राष्ट्रपति को विचारार्थ भेज सकता है

  • अनुच्छेद 201 (Article 201): यदि राज्यपाल विधेयक को राष्ट्रपति के पास भेजते हैं, तो राष्ट्रपति उसे स्वीकृत या अस्वीकृत कर सकते हैं।
  • अनुच्छेद 32 और 226 (Articles 32 & 226): ये संविधानिक अधिकार न्यायालयों को writ jurisdiction प्रदान करते हैं, जिसके अंतर्गत सुप्रीम कोर्ट अथवा उच्च न्यायालय mandamus जारी कर सकते हैं ताकि कोई संवैधानिक पदाधिकारी (जैसे कि राज्यपाल या राष्ट्रपति) अपने संवैधानिक कर्तव्यों का पालन करें।
  • नयायिक व्याख्या (Judicial Interpretation)
  • सुप्रीम कोर्ट ने तमिलनाडु बनाम राज्यपाल केस (2024) में स्पष्ट कहा कि राज्यपाल द्वारा विधेयकों को अनिश्चितकाल तक लंबित रखना संविधान की भावना के विरुद्ध है और “reasonable time ” में निर्णय लेना अनिवार्य है।
  • अतः, यदि राष्ट्रपति या राज्यपाल संविधानिक कर्तव्य में अनुचित विलंब करें, तो सुप्रीम कोर्ट उन्हें निर्देश दे सकता है ताकि वे विलंब किए बिना निर्णय लें। भारत का संविधान किसी भी संस्था को पूर्णतः सर्वोच्च (absolute authority) नहीं मानता। परंतु, सुप्रीम कोर्ट संविधान का सर्वोच्च व्याख्याकार (final interpreter) है।
  • अनुच्छेद 141 के अनुसार: सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिया गया निर्णय और विधिक सिद्धांत पूरे देश में बाध्यकारी होगा। अतः यदि राष्ट्रपति या राज्यपाल किसी संविधानिक प्रक्रिया में विलंब करें तो सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिया गया निर्देश बाध्यकारी होता है।
  • भारत का सुप्रीम कोर्ट, संविधान के अनुच्छेद 32, 226 एवं 141 के तहत यह अधिकार रखता है कि वह राष्ट्रपति या राज्यपाल को उनके संवैधानिक दायित्वों का पालन करने हेतु निर्देश दे सके, विशेषतः जब वे विधेयकों पर अनुचित विलंब करें। सुप्रीम कोर्ट किसी भी संवैधानिक पदाधिकारी को कानून एवं संविधान के अनुसार समयबद्ध निर्णय के लिए बाध्य कर सकता है।

राष्ट्रपति को सुप्रीम कोर्ट का ‘निर्देश’

संविधान का अनुच्छेद 53(1) कहता है कि संघ की कार्यपालिका शक्ति राष्ट्रपति में निहित होगी। ऐसे में सुप्रीम कोर्ट राष्ट्रपति को ‘निर्देश’ दे सकता है, यह अहम सवाल है। यहाँ बताना आवश्यक है कि सुप्रीम कोर्ट के सभी न्यायाधीशों की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा होती है। अनुच्छेद 124(2) के अनुसार, राष्ट्रपति अपनी मुद्रा और हस्ताक्षर सहित अधिपत्र द्वारा उच्चतम न्यायालय के प्रत्येक न्यायाधीश को नियुक्त करेगा।

नियुक्ति ही नहीं, बल्कि महाभियोग के बाद जजों का निष्कासन या फिर पद से त्याग-पत्र भी राष्ट्रपति के नाम से होता है। संविधान के अनुच्छेद 124(2)(क) के अनुसार, कोई भी न्यायाधीश राष्ट्रपति को संबोधित अपने हस्ताक्षर सहित लेख द्वारा अपना पद त्याग सकेगा। ऐसे में भारत संघ के प्रमुख को सुप्रीम कोर्ट को माँगने पर सलाह दे सकता है, लेकिन ‘निर्देश’ दे सकता है या नहीं यह सवाल है।

जिस सुप्रीम कोर्ट में किसी व्यक्ति को मृत्युदंड जैसी सजा दी जाती है, उस सजा को क्षमा करने का अधिकार राष्ट्रपति को है। संविधान का अनुच्छेद 72(2) इसका प्रावधान करता है। इस अनुच्छेद के अनुसार, राष्ट्रपति को किसी अपराध में दोषसिद्ध ठहराए गए किसी व्यक्ति के दंड को क्षमा, उसका प्रविलंबन, विराम या परिहार करने की अथवा दंडादेश के निलंबन कर सकता है.

इतना ही नहीं, संविधान के अनुच्छेद 361 के तहत राष्ट्रपति तो दूर की बात है, राज्यपाल तक पर कार्रवाई नहीं हो सकती है। राष्ट्रपति इस देश के शासन का प्रमुख ही नहीं होता, जिसका एक हिस्सा न्यायपालिका भी है, बल्कि वो सेना का सर्वोच्च कमांडर भी होता है। सैन्य निर्णयों के मामलों को संविधान के अनुसार चुनौती नहीं दी जा सकती है।

संविधान के अनुच्छेद 136(2) के अनुसार, सशस्त्र बलों से संबंधित किसी विधि द्वारा या उसके अधीन गठित किसी न्यायालय या अधिकरण द्वारा पारित किए गए या दिए गए किसी निर्णय, अवधारणा, निर्णय, दंडादेश या आदेश लागू नहीं होगी। जब संसद के किसी सदस्य पर सदन में कही गई बातों को लेकर भी सुप्रीम कोर्ट कोई कार्रवाई नहीं कर सकता।

अनुच्छेद 105 (2) के अनुसार, संसद में या उसकी किसी समिति में संसद के किसी सदस्य द्वारा कही गई किसी बात या दिए गए किसी मत के संबंध में उसके विरुद्ध किसी न्यायालय में कोई कार्यवाही नहीं की जाएगी और किसी व्यक्ति के विरुद्ध संसद के किसी सदन के प्राधिकार द्वारा या उसके अधीन किसी प्रतिवेदन, पत्र, मत या कार्यवाहियों के प्रकाशन के संबंध में इस प्रकार की कोई कार्यवाही नहीं की जाएगी।

संविधान के अनुच्छेद 143(1) में साफ कहा गया है कि राष्ट्रपति किसी विषय पर उच्चतम न्यायालय की राय प्राप्त करने के लिए उसे न्यायालय को ‘निर्देशित’ कर सकते हैं। ऐसे में राष्ट्रपति को सुप्रीम कोर्ट द्वारा ‘निर्देशित’ करना कुछ लोगों को न्यायपालिका का अन्य क्षेत्रों में हस्तक्षेप या कहें तो घुसपैठ माना जा रहा है। लोगों में मन में गंभीर सवाल है कि सुप्रीम कोर्ट इस देश के सर्वोच्च पद को निर्देश दे सकता है या नहीं।

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सुधीर गहलोत
सुधीर गहलोत
प्रकृति प्रेमी

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