सुप्रीम कोर्ट ने मंगलवार (28 जनवरी) को एक महत्वपूर्ण फैसले में कहा कि वैध विवाह के दौरान पैदा हुए बच्चे को उन माता-पिता की वैध संतान माना जाएगा, जो गर्भधारण के समय साथ थे। कोर्ट ने कहा कि जब एक महिला-पुरुष का विवाह होता है और वे एक-दूसरे के संपर्क में होते हैं तो पुरुष को महिला से पैदा हुए बच्चे का कानूनी पिता माना जाएगा, भले ही वह दावा करे कि बच्चा किसी अन्य पुरुष से पैदा हुआ है।
जस्टिस सूर्यकांत और जस्टिस उज्जल भुइयां की पीठ ने कहा कि भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 112 में ऐसी वैधता की परिकल्पना की गई है। जो व्यक्ति अवैधता का दावा करता है, उसे पति-पत्नी के बीच एक-दूसरे तक पहुँच नहीं (संबंध नहीं बनाने के संबंध में) होने की बात साबित करनी होगी। कोर्ट ने माना कि वैधता और पितृत्व एक दूसरे से जुड़े हैं, क्योंकि बच्चे की वैधता सीधे पितृत्व को स्थापित करती है।
कोर्ट का कहना है कि जब वैधता मानने के लिए साक्ष्य मौजूद हों तो न्यायालय पितृत्व निर्धारित करने के लिए डीएनए परीक्षण का आदेश नहीं दे सकता, क्योंकि इससे उस व्यक्ति (जो कथित रूप से प्रेमी है) की गोपनीयता का उल्लंघन होगा, जिसे पत्नी ने कथित रूप से अपने बेटे का पिता बताया है। अदालत ने कहा कि कथित प्रेमी को इस तरह के डीएनए परीक्षण के लिए मजबूर करना उसकी निजता और गरिमा का उल्लंघन होगा।
कोर्ट ने कहा, “जबरन डीएनए परीक्षण करवाने से व्यक्ति के निजी जीवन पर प्रभाव पड़ सकता है। जब मामला बेवफाई का हो तो इसका प्रभाव और प्रतिकूल होगा। यह व्यक्ति के मानसिक स्वास्थ्य के साथ-साथ उसके सामाजिक और पेशेवर जीवन को प्रभावित कर सकता है। इस कारण से उसे अपनी गरिमा और गोपनीयता की रक्षा का कुछ अधिकार है, जिसमें डीएनए परीक्षण करवाने से इनकार भी शामिल है।”
दरअसल, यह मामला केरल के एक दंपत्ति से जुड़ा है। विभिन्न कोर्ट से होते हुए यह मामला सुप्रीम कोर्ट पहुँचा। सुप्रीम कोर्ट में अपील उस व्यक्ति द्वारा दायर की गई थी, जिस पर बच्चे के पिता होने का आरोप था। बच्चे की माँ ने दावा किया था कि अपीलकर्ता ने उस समय बच्चे को जन्म दिया था, जब वह किसी अन्य व्यक्ति से विवाहित थी।
साल 2001 में जब बच्चे का जन्म हुआ था, तब महिला की शादी किसी अन्य व्यक्ति से हो चुकी थी। बच्चे की माँ ने दावा किया था कि बच्चा अपीलकर्ता का है। बाद में उसने 2006 में अपने पति से तलाक ले लिया और कोचीन नगर निगम से संपर्क करके अपीलकर्ता का नाम बच्चे के पिता के रूप में दर्ज करने का अनुरोध किया। उसने तर्क दिया कि वह उस अपीलकर्ता के साथ अवैध संबंधों में थी। हालाँकि, अधिकारियों ने इससे इनकार कर दिया।
इसके बाद महिला ने साल 2007 में मुंसिफ कोर्ट में एक मुकदमा दायर किया और यह घोषित करने की माँग की गई कि अपीलकर्ता ही बच्चे का असली पिता है। इस याचिका को मुंसिफ कोर्ट ने खारिज कर दिया। इसके बाद महिला केरल हाई कोर्ट पहुँची। साल 2011 में केरल हाई कोर्ट ने भी इस याचिका को खारिज कर दिया। दोनों अदालतों ने कहा कि महिला और उसके पति के बीच प्रासंगिक समय पर एक वैध विवाह था।
दोनों अदालतों ने डीएनए परीक्षण का आदेश देने से भी इनकार कर दिया। इसके बाद साल 2015 में बेटे ने अपीलकर्ता से भरण-पोषण का दावा करते हुए पारिवारिक कोर्ट का रुख किया। इसमें दावा किया कि वह उसका जैविक पिता है। फैमिली कोर्ट ने फैसला सुनाया कि मुंसिफ कोर्ट के पास पहले के मुकदमे पर विचार करने का अधिकार नहीं है और उसका आदेश पारिवारिक न्यायालय को बाध्य नहीं करेगा।
पारिवारिक अदालत ने आगे कहा कि भरण-पोषण के लिए आवेदन वैधता के बारे में नहीं, बल्कि पितृत्व के बारे में है। इसलिए मुंसिफ अदालत और केरल हाई कोर्ट के पूर्व के आदेश पारिवारिक अदालत को डीएनए परीक्षण के माध्यम से पितृत्व का निर्धारण करने से नहीं रोकेंगे। केरल हाई कोर्ट ने फैमिली कोर्ट के निर्णय को बरकरार रखा।
केरल हाई कोर्ट कहा कि बच्चे के अपने जैविक पिता से भरण-पोषण प्राप्त करने का अधिकार है। इसके परिणामस्वरूप उस व्यक्ति ने सर्वोच्च न्यायालय में अपील दायर की है, जिस पर कथित रूप से बच्चे का पिता होने का आरोप है। न्यायालय ने पारिवारिक न्यायालय के आदेश को रद्द कर दिया। कोर्ट ने इसने यह भी माना कि प्रतिवादी को अपनी मां के पूर्व पति का वैध पुत्र माना जाता है।