Wednesday, April 24, 2024
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तीस हजार बाबरी बाकी है, और हम उसे ले कर रहेंगे

तीस हजार बाबरियाँ हिन्दुओं के अस्तित्व का उपहास करती खड़ी हैं। हर मंदिर के लिए सत्तर साल की कानूनी लड़ाई का धैर्य हिन्दू समाज में नहीं होना चाहिए, क्योंकि यह धैर्य नहीं कायरता है।

हमारी सहिष्णुता, सर्वसमावेशी स्वभाव, विधर्मियों को भी यथोचित सम्मान से नहीं बल्कि पूर्ण सम्मान से ही देखना, आतंकी विचारधारा वाली कौम से किसी प्रकार सुधरने की उम्मीद करना आदि हिन्दुओं को हेय, तुच्छ और नीची निगाह से देखे जाने वाली डरपोक जनसंख्या की तरह प्रचारित करती है। आदर्श रूप में यही वो सद्गुण हैं जिससे एक समाज, धर्म के मार्ग पर चलते हुए अपना अस्तित्व बचाए रखता है और वृहद् समाज को भी विवेकशील बनाते हुए उत्कृष्ट नागरिकों के रूप में राष्ट्र के सार्वभौमिक विकास की पताका को ऊँचा और लहराता हुआ रखता है।

परन्तु, समय सदैव एक-सा नहीं रहता। कुछ मजहब जिनका जन्मसिद्ध मकसद ही दुनिया के दूसरे धर्मों का विनाश, लोगों का मतांतरण, बहू-बेटियों का शीलहरण, धार्मिक स्थलों का विनाश और उनकी बात न मानने वाले लोगों का सामूहिक नरसंहार रहा हो, वो तो तलवारों और कटारों के दौर से बाहर आते ही, नित नए हथियारों और सूचनाओं के द्रुत आवागमन के दौर में अपनी विकृत सोच को धरातल पर क्रियान्वित करने हेतु नए पैंतरे बदलेंगे ही। ऐसे मजहब के लोगों में ऐसी मानसिक विकृति, कि जो हमारे मजहब के प्रतीकों को नहीं मानते वो कत्ल के योग्य हैं, अब विस्तार पाने लगी है। उनकी वहशी सोच अब चंद मजहबी स्थलों से बाहर, छोटे-छोटे मजहबी स्थलों तक पहुँच कर, घरों तक पैठ बना चुकी है।

बदलते राजनैतिक समीकरण ने इस मजहब के कुछ नेताओं और लोगों के मन में हिन्दुओं को ले कर ऐसे घृणा के बीच बो दिए हैं कि अब न तो लोकतांत्रिक सरकार का महत्व रह गया है, न ही सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिए गए फैसलों का। एक कौम किसी विचित्र सोच से उत्प्लावित हो कर यह सोचने लगी है कि वो कैसे ज्यादा बच्चे पैदा करे, कैसे अपने मजहब के नेताओं को ही चुने, कैसे हिन्दुओं की बच्चियों को धोखे से प्रेम में फँसा कर, बलात्कार, हत्या और अन्य दुष्कृत्य करे और अंततः उसके मतलब के लोग सत्ता में पहुँचे और वहाँ पहुँचते ही वह वो करे जिसकी परिकल्पना दिल दहला देने वाली है।

हिन्दुओं के प्रतीकों को तोड़ना, देवी-देवताओं की मूर्तियाँ विखंडित करना, धार्मिक जुलूसों पर पत्थरबाजी, दंगों की स्थिति उत्पन्न करना और स्वयं को ही पीड़ित बताना, हिन्दुओं को उकसाना और उनकी असीमित धैर्य की परीक्षा लेना इस कौम की विशेषता बनती जा रही है और इसी उत्कंठा से प्रणोदित हो कर गली और मुहल्ले में आकंठ विष लिए घूमने वाली यह कौम विनाशवृत्ति का नग्न नृत्य करना चाहती तो है, लेकिन हिन्दुओं के संख्याबल और प्रशासनिक सूझ-बूझ के कारण छुच्छी में आग पकड़ने के बाद मसल कर बुझा दी जाती है।

यह क्रोध इनके भीतर वैसे ही जमता जा रहा है जैसे धूम्रपान से फेफड़ों के भीतरी रोएँ के जल जाने से बलगम और टार जमता जाता है। यही असंगत क्रोध इनके हर सोशल मीडिया पोस्ट, हर बयान, हर बातचीत में फफक कर बाहर आता रहता है, और अगर बाहर न आ पाए तो पीब बन कर आंतरिक रिसाव से इनके पूरे व्यक्तित्व को ही विषैला बनाता रहता है। इसी मजहबी घृणा का बलगम छः साल से चल रहे ‘डॉट्स’ ट्रीटमेंट को ले कर प्रतिरोध दिखाता रहता है, लेकिन समुचित डबल डोज दे कर इसे नियंत्रण में ले आया जाता है। यह ट्रीटमेंट दीर्घकालिक हो, तभी इनकी सोच से लहसुन-ए-हिंद की बलवती अवधारणा क्षीण हो पाएगी, अन्यथा ये छतों पर पत्थर, पेट्रोल बम, एसिड के पाउच आदि ऐसे इकट्ठा करते हैं जैसे कब दंगा करना पड़े और ऐन मौके पर छत खाली न मिल जाए।

बाबरी जिंदा है…

हिन्दुओं के लिए ही नहीं, पूरे भारतीय समाज के लिए पाँच सौ वर्षों से खड़े एक कोढ़ और एक लुटेरे नस्ल के आतंकी विचारधारा की कहानी कहती एक इमारत ‘जय श्री राम’ के नारों से छः दिसम्बर के भरभरा कर गिर गई। कहा जाता है कि किसी मजहबी इमारत को बचाने के लिए इतनी बड़ी ‘ह्यूमन चेन’ को उस दिन चाँद से भी देखा जा सकता था, और हिन्दू समाज ने हर संभव कोशिश की कि कोई उसे नुकसान न पहुँचाए। परंतु, दैवसंयोग देखिए कि मुगलई आतंक की कहानी कहती, काली होती इमारत जो कि एक हिन्दू मंदिर के मलबे को किसी तरह रेगिस्तानी तकनीक से जोड़ कर खड़ी की गई थी, राम नाम के जयकारे को भी थम नहीं पाई और नकलची, चोर मुगलों की पोलपट्टी खोल गई जो कहते रहते हैं कि भारत की बड़ी इमारतें मुगलिया वास्तुकला का अद्भुत नमूना हैं।

सवाल यह है कि रेगिस्तानों में कौन-सी विलक्षण इमारत इन चोरों ने कहाँ खड़ी की थी चार सौ साल पहले, कि वो किसी को दिखाई नहीं देती? या कहीं ऐसा तो नहीं कि नाक पर सींग लगी घोड़ी के खुर लगने से वो अंतर्धान हो चुकी हैं? या फिर दोगले मुगल शासक, जो पितृहंता थे, जबरन समलैंगिक संबंध बनाने के लिए उद्यत पाए जाते थे, और सत्ता के मद में चूर किसी भारतीय से ही सारी इमारते बनवा कर लहसुन-नामा और स्कोडा-ए-अकबरी में अपना नाम लिखवाते थे? क्योंकि बिरयानी को अपना कहने वाले मुगलों ने बाप जनम में न तो चावल देखा था, और उसमें पड़ने वाले मसाले बालू में नहीं उगते।

जिन्हें अपना बाप मानने वाले आज भी बकरे के मांस को कटवाना तक नहीं जानते, वो हमारे ही मसाले, चावल और मांस को पकाने की विधि को मुगलई बताते फिरते हैं। चोर और लुटेरे विनाश करना जानते हैं, निर्माण उनके गुणसूत्रों में ही नहीं होता, फिर वो खाने और बनाने की विधि भला कैसे जानेंगे! डरा-धमका कर कुतुब मीनार को क़ुतुबुद्दीन का बता देने से, प्रयागराज इलाहाबाद नहीं बन जाता। वो प्रयागराज ही रहेगा जहाँ गंगा और यमुना का संगम होता है, और दोनों हिन्दुओं की ही हैं चाहे तहजीब के नाम पर जो नौटंकी कर लो।

बाबरी एक घटिया इमारत थी, ढह गई। बाद में न्यायालय ने भी कह दिया कि वहाँ राम मंदिर था और सत्तर साल से हिन्दुओं की बाट जोहते रामलला की किलकारियाँ उनके नए घर में गूँजेगी जिसे कब्र में कयामत की राह देख रहे बाबर और उसकी नस्ल को दिन में अनगिनत बार सुनाई देगी। और उन्हें सुनाना आवश्यक भी है क्योंकि पता तो चले कि मलबे जोड़ने वाली लुटेरी और आतंकी कौम धरती के नीचे दफ्न है और राम मंदिर वापस उदित हो रहा है। शंख और घड़ीघंट के नाद से वैसे भी हानिकारक जीवाणुओं का नाश हो ही जाता है, इस बार सुना है 2100 किलोग्राम की घंटी बनाई है और दूसरी रामेश्वरम से ग्यारह राज्यों की यात्रा कर के पहुँची है! और भी जगहों की कई घंटियाँ लगने वाली हैं, कितने मूर्तिभंजक सोच वालों के दिमाग पर इसका असर पड़ेगा, इस पर शीघ्र ही शोध हो सकता है।

किसी गुमनाम शायर ने कहा है कि ‘तेल लगा लो डाबर का, नाम मिटा दो बाबर का’। ये पंक्तियाँ पैफ्फलेटों से होते हुए, एसएमएस, फेसबुक और यूट्यूब पर प्रचलित हो चुकी है। ये बात और है कि शायर ने यह नहीं बताया है कि तेल कहाँ लगाना है। फिर भी क्या मिटाना है, यह तो स्पष्ट है ही और अब वो कायदे से मिट भी चुका है। जैसे आडवाणी जी द्वारा दिया गया एक साधारण नारा, ‘मंदिर वहीं बनाएँगे’, पूरे जनमानस को चलायमान रखने का, उनके दृढ़संकल्प का, उनकी सहिष्णुता का प्रतीक बन गया और कालांतर में ‘मंदिर वहीं बन रहा है ब्रो’ हो गया, वैसे ही ‘डाबर-बाबर’ भी सनातन आस्था के इस अनूठे अनुप्रयोग के प्रणोदक के रूप में स्थापित हो चुका है जब ‘जय श्री राम’ के उद्घोष से ही बाबरी ढनमना कर ढह गई। कोर्ट ने भी माना कि संघ या भाजपा के नेताओं ने ढाँचा नहीं गिराया था।

बाबरी जिनके लिए जिंदा है वो रंग-पेंट ले कर पोस्टर बनाते रहें, घर में वैसे ही लगा कर रखें जैसे कश्मीरी आतंकियों के घर में ईरान के कासिम सुलेमानी की तस्वीरें लगी होती हैं। अपने घर में जिन्हें बाबर को बाप मानना है, वो मानते रहें। जिन्हें लगता है कि विदेशी आक्रांताओं ने ही उनके पूर्वजों के साथ संसर्ग किया था और उनके दादे-परदादे उन्हीं से जनमे, उसमें कोई दूसरा क्या कर सकता है। समझदार लोग ऐसी बातों को ‘वो तो पुरानी बात है’ कह कर छुपाने की कोशिश करते हैं, यहाँ तो होड़ लगी हुई है कि मुगलिया अस्तबलों में घोड़े की लीद उठाने वाले भी स्वयं को बाबर की औलाद और भारत का शहजादा मानते हैं। ये बात और है कि अरब वाले उन्हें बाबर की नस्ल तो दूर, हममजहब भी मानने से इनकार करते हैं।

बाबर मर गया, बाबरी ढह गई। जहाँ मंदिर था, मंदिर वहीं बनेगा। भूमिपूजन हो चुका है, सीमेंट-बालू-छड़-पत्थर आ रहे हैं। क्या पता बाबरी नस्ल के कुछ लोगों को भी रोजगार मिले और वो स्वयं हिन्दू आस्था के विराट प्रतीक को आकार लेता देख सकें। स्कोडा-लहसुन तहजीब का एक उदाहरण यह भी सही। जब सारी तथाकथित मुगलिया इमारतें हिन्दू कारीगरों और श्रमिकों ने ही बनाईं, तो बड़े भाई होने के नाते थोड़ा काम तो बाबर को बाप बताने वालों को दे ही सकते हैं। तहजीब की मशाल में वो भले ही बारूद डालते हैं, हमें तो गौ माता के दूध से बनी घी ही डालनी चाहिए।

आग लगाने वाले पीड़ित होने का नैरेटिव न चलाएँ

भारत उन चंद विचित्र राष्ट्रों में से एक है जहाँ स्टॉकहोम सिंड्रोम वृहद् तौर पर समाज को घेरे हुए है। अंग्रेजियत आवश्यकता से अधिक हमें पसंद है, और नाम में चिकन जहाँगीरी होने से हमें लगता है कि जहाँगीर ने ही अपनी बेगम के साथ संभोग कर के किसी पर्वत पर मुर्गी को जन्म दिया था। दासता और हिन्दू विरोधी शासन को औपनिवेशिक एवम् ऐतिहासिक गलतबयानी कि खुमारी से जूझता समाज अपने एकमात्र बेहतर भूतकाल के रूप में देखता है। उसे हर वह चीज दकियानूसी लगती है जो हिन्दू है, या हिन्दू धर्म की परम्पराओं से पोषित है।

यही कारण है कि आज वो भी बाबर को बाप बनाने पर आमादा हैं जिनके पूर्वजों को तलवार की नोक पर मतपरिवर्तन करा कर ‘शांतिप्रिय’ समुदाय का हिस्सा बना दिया गया था। भले ही जो कन्वर्ट हुए उनके सामने उनकी बेटियों की इज्जत लूटी गई हो, माँओं को नंगा कर के घसीटा गया हो, पूरे गाँव को जला दिया गया हो, लेकिन वो आज भी ‘आह अकबर, वाह औरंगजेब’ के नाम के कसीदे काढ़ने से नहीं चूकते।

आप ही सोचिए कि वह कैसी बेगैरत नस्ल होगी जो उन बलात्कारियों, आततायियों, हत्यारों, लुटेरों और आतंकवादियों को सजदा करती है जिन्होंने उन्हीं के घरवालों के साथ बलात्कार किया, अत्याचार किए, हत्याएँ कीं, गाँव लूटे और धार्मिक स्थलों को नष्ट किया। ऐसी बेगैरत नस्ल न सिर्फ जीवित है, बल्कि फल-फूल रही है और छाती ठोक कर कहती फिरती है कि बाबर उनका बाप था।

ऐसे लोग इस बात का रोना रोते हैं कि बाबरी में मूर्तियाँ रख दी गईं, जबकि इस बात पर कोई कुछ नहीं कह पाता कि हमारे मंदिर पर कुछ दोगलों ने पूरा विवादित ढाँचा ही रख दिया था। तुम्हारा ढाँचा अगर रातोंरात उग सकता है, तो हमारे रामलला भी प्रकट हो सकते हैं। हमारे रामलला के प्रकट होने के आसार ज्यादा हैं क्योंकि जमीन में नीचे तो मंदिर ही था, लेकिन बाबरी ढाँचा कैसे उग आया वहाँ, इसका साइंस तो बताओ! या फिर यही कह दो कि जैसे बिना चावल वाले रेगिस्तान से बिरयानी भारत में आई, वैसे ही बाबर अयोध्या में चादर बिछा कर बैठा और धप्प से ढाँचा आसमान से गिर कर स्थापित हो गया।

ये नैरेटिव नहीं चलेगा। भारत में जितने बड़े मंदिर थे, अगर वो वर्तमान में मंदिर ही नहीं हैं, वहाँ कुछ और है, तो उस कुछ और को मंदिर में बदलना हमारी पीढ़ी का कार्य होना चाहिए। क्रूर शासकों की लवस्टोरी पढ़ा कर पीढ़ी दर पीढ़ी एक पूरे समाज को सच्चाई से वंचित रख कर, मुगलों का जो बॉलीवुडीकरण हुआ है, उसे पलटना जरूरी है। इन बलात्कारी मुगलों का हमारे इतिहास में होना आवश्यक है, लेकिन उनके सच्चे रूप में। हमें यह पता होना चाहिए कि औरंगजेब ने कितने मंदिर तुड़वाए, टीपू सुल्तान ने हिन्दू महिलाओं को स्तन क्यों कटवाए, अकबर ने जोधाबाई से शादी की थी या ये फर्जीवाड़ा गढ़ा गया, रक्षाबंधन हुमायूँ और कर्णावती के कारण शुरू हुआ या फिर यह सनातन पर्व है।

सच बताने, रक्तपिपासु और हिन्दूविरोधी विचारों के क्रूरतम स्वरूप को स्कूली शिक्षा का अंग बनाने से ही हमारी पीढ़ी को पता चलेगा कि हमारे साथ हमारे अपनों ने ही छल किया है। न जाने कौन सी विवशता रही होगी कि लुटेरों के नाम पर दिल्ली में सड़कें हैं और देश आजाद होने के बाद भी ‘कूव्वत-उल-इस्लाम’ समेत हजारों मजहबी स्थल ऐसे हैं जिनकी दीवारों में, सीढ़ियों के पायदानों में, झरोखों में हिन्दू मंदिरों के अवशेष दिखते हैं। आज भी हिन्दुओं का उपहास करने के लिए, हिन्दुओं के ही पैसों से ‘रखरखाव’ के छद्मावरण के साथ इन जगहों को सँवारा जाता है। आज भी मुगलिया शासकों और उनके मुस्लिम सैन्याधिकारियों के मल को सर पर ढोने वाले डरपोक लोगों के नस्लें इन्हीं इमारतों का नाम ले कर चिढ़ाती हैं कि उनके ही बापों ने हिन्दुओं पर आठ सौ साल राज किया था।

तीस हजार मंदिरों का वापस लेना ही होगा

सरकारें आएँगी, जाएँगी लेकिन हिन्दू यहीं रहेगा क्योंकि उसके पास विकल्प है नहीं। हिन्दुओं को सरकार-निरपेक्ष हो कर, अपनी बात रखने, एक दवाब समूह की तरह कार्य करने और अपनी लड़ाई लड़ने के लिए सतत प्रयासरत होना पड़ेगा। इधर एक कौम है जो सत्ता में नहीं है, जो सत्ता में स्थापित प्रतिनिधियों को खुलकर अपना प्रतिनिधि मानने से इनकार करती है, लेकिन सारे कानून अपने हिसाब के बनवाती है, और विदेशी नागरिकों तक के लिए 53 लाशें गिरवा देती है क्योंकि वो उसकी कौम के हैं। दूसरी तरफ वह समुदाय है जिसके नेता हमेशा सत्ता में होते हैं, फिर भी कभी उसकी काँवड़ यात्रा पर पथराव होता है, कभी देवी दुर्गा की मूर्ति विखंडित होती है, कभी उसके शिवलिंग पर पेशाब कर दिया जाता है…

इसलिए, धीरे-धीरे ही सही, अपने अधिकारों की लड़ाई को अपने सामूहिक अस्तित्व से जोड़ कर देखना ही होगा। हमें हर सत्ताधीश को यह ध्यान दिलाना ही होगा कि राष्ट्र हमारा है, और हमारी उपेक्षा भारी पड़ सकती है। सत्ताधीश या सत्तारूढ़ दल हमारी बात समझ लें तो अच्छा है, वरना उन्हें अपनी बात मनवाने पर विवश करने आना चाहिए। किसी भी प्रकार की अशांति फैलाए बिना, सिर्फ संख्या बल के कारण, हिन्दू समाज अपने अधिकारों के लिए एकजुट हो सकता है, अपनी बात मनवा सकता है।

हर राष्ट्र में कानून बहुसंख्यकों के हिसाब से होता है और अल्पसंख्यकों को उसी दायरे के अनुकूल बनना पड़ता है। यहाँ हमेशा उल्टा होता आया है क्योंकि सर्वसमावेशन और सहिष्णुता की बात सिर्फ हिन्दुओं की ही जिम्मेदारी बन गई है। यहाँ दिन में पाँच बार कर्कश आवाज आपका ध्यान भंग करेगी, सर्वोच्च न्यायालय ने आदेश दे रखे हैं, लेकिन मजाल है कि एक मजहबी स्थल से लाउडस्पीकर उतार लिया जाए! वहीं हर दीवाली वायु प्रदूषण, हर होली जल की बर्बादी, हर करवाचौथ फेमिनिज्म और हर दुर्गापूजा बलात्कारी हिन्दू पुरुषों के नैरेटिव की बलि चढ़ जाते हैं।

ये इसलिए होता है क्योंकि हमने ऐसा होने दिया, और लम्बे समय तक ऐसा होने दिया। ये इसलिए होता है क्योंकि हमने इसे लम्बे समय तक मजाक में लिया, गंभीर नहीं हुए। दीवाली के लिए पूरे महीने पटाखे पर बैन और क्रिसमस-न्यू ईयर में चंद घंटे का प्रतिबंध बताता है कि हमारी आवाज छः दिन के उस कुक्कुर के बच्चे जैसी है जिसकी आँख भी नहीं फूटी है। जबकि हमारी आवाज ऐसी होनी चाहिए कि हम इन्हीं प्राधिकरणों के मुँह पर प्रदूषण का आँकड़ा फेंक कर मार सकें, उसे कोर्ट में घसीटें और वकीलों के जरिए परमादरणीय न्यायाधीशों से कहलवा सकें कि पटाखों द्वारा प्रदूषण के स्तर इतना कम है कि उस पर प्रतिबंध लगाना सिवाय हिन्दूघृणा के और कुछ है ही नहीं।

हमें उन संस्थाओं को वैचारिक और आर्थिक सहयोग देना होगा जो मंदिरों के पुनरुत्थान के लिए युद्धस्तर पर जुटे हुए हैं। हमें उन्हें खोजना, समझना और आगे बढ़ाना होगा जो हिन्दू मंदिरों को सरकारी चंगुल से मुक्त कराने के लिए प्रयासरत हैं। हमें हिन्दुओं द्वारा दान की गई राशि और संसाधनों को हिन्दुओं के गुरुकुलों, चिकित्सालयों, सेवाघरों, अनाथालयों, आश्रय गृहों आदि के लिए ही प्रयोग में लाने के लिए दवाब बनाने होंगे।

आखिर एक मंदिर के ट्रस्ट में ईसाई कैसे घुस जाता है? किसी सरकार को यह अधिकार कैसे मिल जाता है कि मंदिर के दान के पैसों से विधर्मियों के लिए संसाधन जुटाने की बातें होने लगती हैं? जबकि हमारा लक्ष्य यह होना चाहिए कि हमारे मंदिरों के पैसे का एक हिस्सा कानूनी लड़ाई के लिए अलग होना चाहिए और एक हिस्सा इस संघर्ष के लिए घेराबंदी, दवाब आदि के लिए जाना चाहिए।

तीस हजार बाबरियाँ हिन्दुओं के अस्तित्व का उपहास करती खड़ी हैं। हर मंदिर के लिए सत्तर साल की कानूनी लड़ाई का धैर्य हिन्दू समाज में नहीं होना चाहिए, क्योंकि यह धैर्य नहीं कायरता है। धार्मिक स्थलों की यथास्थिति को लेकर जो कानून है, उसे निरस्त करना समय की माँग है क्योंकि वो बिल्कुल ही हिन्दू विरोध में है। सिर्फ हिन्दुओं के ही मंदिर तोड़ कर मस्जिद बनाए गए हैं, अतः यह कानून सिर्फ कहने के लिए ‘हर धार्मिक स्थल’ के लिए है, जबकि इसका एक ही लक्ष्य है कि गैरकानूनी और अनैतिक रूप से मंदिरों को तोड़ कर बनाए गए मस्जिदों को सत्ता का संरक्षण देना।

कानून समाज के अनुरूप होने चाहिए, समाज कानून के अनुरूप नहीं हो सकता। पहले समाज है, तब कानून है। बहुसंख्यकों को गलत इतिहास की भाँग पिला कर एक समय तक ही सुलाया जा सकता है। अब वह समय आ गया है कि जब भी कोई ‘बाबरी जिंदा है‘ कहे, तो हमें कहना चाहिए कि हाँ, तीस हजार जिंदा है, और एक-एक को तोड़ कर, मंदिर वहीं बनाएँगे। तेल और उसका ब्रांड भले बदल जाएगा लेकिन नाम तो बाबर का मिटा ही देंगे।

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अजीत भारती
अजीत भारती
पूर्व सम्पादक (फ़रवरी 2021 तक), ऑपइंडिया हिन्दी

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