Wednesday, June 4, 2025
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खदीजा शेख को जमानत क्योंकि जेल में रहती तो ‘जिंदगी हो जाती बर्बाद’, शर्मिष्ठा पर कहा- आसमान नहीं टूट जाएगा: क्या अभिव्यक्ति की आजादी के मायनों को संकुचित कर रही हैं अदालतें?

"क्या अब देश से प्यार करना अपराध है?" यह सवाल आज हर उस भारतीय का है, जो इस दोहरे मापदंड को देखकर आहत है। क्या हमारी न्यायपालिका और सरकार इस भेदभाव को खत्म करने के लिए कुछ करेगी? क्या शर्मिष्ठा जैसे राष्ट्रवादियों की आवाज को सुना जाएगा, या उन्हें जेल में धमकियाँ झेलने के लिए छोड़ दिया जाएगा?

भारत देश की नींव संविधान पर टिकी है, जिसके तहत हर नागरिक को समान अधिकार और सम्मान की बात कही गई है। लेकिन आज देश की दो हाई कोर्ट्स के दो अलग-अलग फैसलों ने इस सपने पर सवाल खड़े कर दिए हैं। एक तरफ बॉम्बे हाई कोर्ट ने खदीजा शेख को जमानत दे दी, जिसने ‘पाकिस्तान जिंदाबाद’ जैसे नारे लगाए। दूसरी तरफ कोलकाता हाई कोर्ट ने शर्मिष्ठा पनोली को जमानत देने से इनकार कर दिया, जिसने ‘पाकिस्तान मुर्दाबाद’ कहा।

इन दोनों मामलों में आरोपित छात्राएँ हैं। दोनों ने ही अपनी अभिव्यक्ति व्यक्त की.. लेकिन एक को बेल मिल गई, तो दूसरी को जेल में ठूँट दिया गया। इन दोनों मामलों में न्याय का तराजू एक तरफ झुका हुआ क्यों दिखता है? आखिर क्या वजह है कि एक को उसकी जिंदगी और करियर की चिंता में राहत मिलती है, जबकि दूसरी को जेल की सलाखों के पीछे धमकियाँ और परेशानी झेलनी पड़ रही है? ये सवाल हर भारतीय के मन में उठ रहे हैं।

दो छात्राएँ, दो हाई कोर्ट, दो फैसले, दो कहानियाँ

खदीजा शेख को रिहाई: पुणे की इंजीनियरिंग छात्रा खदीजा ने सोशल मीडिया पर ‘पाकिस्तान जिंदाबाद’ लिखा। उसने भारत के ‘ऑपरेशन सिंदूर’ की आलोचना की, जिसमें भारत ने पाकिस्तान में आतंकी ठिकानों को नष्ट किया था। खदीजा ने इसे ‘फासीवादी’ करार दिया और जम्मू-कश्मीर को ‘अधिकृत’ बताया। उसकी पोस्ट में भारत की संप्रभुता को चुनौती थी, फिर भी बॉम्बे हाई कोर्ट ने उसे जमानत दे दी

कोर्ट ने कहा कि खदीजा ने माफी माँग ली है, वह एक छात्रा है और उसकी जिंदगी बर्बाद नहीं करनी चाहिए। कोर्ट ने महाराष्ट्र सरकार को फटकार लगाई कि एक छात्रा को उसकी राय के लिए इस तरह सजा देना गलत है। कोर्ट ने यह भी सुनिश्चित किया कि खदीजा बिना किसी डर के अपनी परीक्षाएँ दे सके।

शर्मिष्ठा पनोली को कैद: 22 साल की लॉ स्टूडेंट शर्मिष्ठा ने इंस्टाग्राम पर एक वीडियो डाला, जिसमें उसने ‘पाकिस्तान मुर्दाबाद’ कहा। उसका गुस्सा जायज था – पहलगाम में हुए आतंकी हमले में 24 हिंदुओं की हत्या के बाद, जिसमें आतंकियों ने धर्म पूछकर गोली मारी थी। शर्मिष्ठा ने पाकिस्तान के खिलाफ बोलते हुए कुछ शब्दों का इस्तेमाल किया, जिससे भारत के कुछ इस्लामी कट्टरपंथी नाराज हो गए। यहाँ तक कि हिंदू देवी-देवताओं पर आपत्तिजनक टिप्पणियाँ करने वाले वजाहत खान ने एफआईआर करा दी।

नतीजा? बंगाल पुलिस ने उसे 1500 किमी दूर आकर हरियाणा के गुरुग्राम से गिरफ्तार कर लिया। उसके खिलाफ IPC की धारा 295A (धार्मिक भावनाएँ आहत करना), 505(2) (सांप्रदायिक वैमनस्य फैलाना) और 504 (जानबूझकर अपमान) के तहत केस दर्ज हुआ। कोलकाता हाई कोर्ट ने उसकी जमानत याचिका खारिज कर दी, यह कहते हुए कि ‘दो दिन जेल में रहने से आसमान नहीं टूट पड़ेगा‘ और उसके वीडियो ने ‘लोगों की भावनाएँ आहत’ की हैं।

खदीजा को बेल, शर्मिष्ठा को जेल क्यों?

दोनों मामले देखने के बाद सवाल उठता है – अगर खदीजा को छात्र होने के नाते, माफी माँगने के बाद और उसकी शिक्षा व करियर की चिंता करते हुए जमानत मिल सकती है, तो शर्मिष्ठा को क्यों नहीं? अगर खदीजा की अभिव्यक्ति की आजादी का सम्मान किया जा सकता है, तो शर्मिष्ठा की क्यों नहीं? अगर खदीजा की पोस्ट – जिसमें उसने भारत की संप्रभुता को चुनौती दी, ‘भावनात्मक’ मानी जा सकती है, तो शर्मिष्ठा का भारत के दुश्मन देश और आतंकवाद के संरक्षक पाकिस्तान के खिलाफ बोलना अपराध कैसे हो गया? वो भी तब, जब भारत और पाकिस्तान ने हाल ही में एक लड़ाई लड़ी हो और पूरा मामला उसी के इर्द-गिर्द घूम रहा हो।

शर्मिष्ठा ने अपनी याचिका में बताया कि उसे जेल में धमकियाँ मिल रही हैं। उसे साफ पानी तक नहीं मिल रहा और जेल की हालत ऐसी है कि उसकी सेहत को खतरा है। फिर भी कोलकाता हाई कोर्ट ने उसकी जमानत खारिज कर दी। दूसरी तरफ बॉम्बे हाई कोर्ट ने खदीजा के लिए कहा कि उसे बिना डर के पढ़ाई का मौका मिलना चाहिए। क्या शर्मिष्ठा का करियर, उसकी सुरक्षा, उसकी अभिव्यक्ति का अधिकार मायने नहीं रखता?

क्या धर्म के आधार पर हो रहा है भेदभाव?

सबसे बड़ा सवाल जो हर भारतीय के मन में उठ रहा है – क्या भारत की न्यायपालिका धर्म के आधार पर फैसले दे रही है? क्या खदीजा को इसलिए जमानत मिली क्योंकि वह मुस्लिम है, और शर्मिष्ठा को इसलिए जमानत नहीं मिली क्योंकि वह हिंदू है? यह सवाल इसलिए भी गंभीर है क्योंकि शर्मिष्ठा का मामला नुपुर शर्मा के मामले से मिलता-जुलता है। 2022 में नुपुर शर्मा को भी इस्लामी कट्टरपंथियों के गुस्से का शिकार होना पड़ा था।

उनकी टिप्पणी को गलत तरीके से पेश किया गया और उनके खिलाफ देशभर में हिंसा भड़की। नुपुर ने माफी माँगी, लेकिन उनकी माफी को स्वीकार नहीं किया गया। उल्टा सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें ही ‘लूज टंग’ कहकर दोषी ठहराया। इस हिंसा में दो हिंदुओं – कन्हैया लाल और उमेश कोल्हे की बेरहमी से हत्या कर दी गई, सिर्फ इसलिए क्योंकि उन्होंने नुपुर का समर्थन किया था।

शर्मिष्ठा के मामले में भी यही पैटर्न दिखता है। उसने माफी माँगी, वीडियो हटा लिया, लेकिन फिर भी उसे जेल में डाल दिया गया। दूसरी तरफ खदीजा की पोस्ट, जिसमें उसने भारत के खिलाफ और पाकिस्तान के पक्ष में बात की, उसे ‘भावनात्मक’ मानकर माफ कर दिया गया। क्या यह दोहरा मापदंड नहीं है?

अभिव्यक्ति की आजादी सिर्फ एक समुदाय को?

भारत में संविधान के तहत अभिव्यक्ति की आजादी हर नागरिक का अधिकार है। लेकिन क्या यह आजादी सिर्फ एक समुदाय के लिए है? अगर कोई हिंदू देवी-देवताओं के खिलाफ अपमानजनक टिप्पणी करता है, तो उसे अभिव्यक्ति की आजादी का हवाला दिया जाता है। लेकिन अगर कोई इस्लाम या इस्लामी कट्टरपंथ के खिलाफ बोलता है, तो उसे ‘धार्मिक भावनाएँ आहत’ करने का दोषी ठहराया जाता है। शर्मिष्ठा ने पाकिस्तान के खिलाफ बोला, जो भारत के खिलाफ आतंकी गतिविधियों को बढ़ावा देता रहा है। फिर भी, उसे अपराधी की तरह जेल में डाल दिया गया। दूसरी तरफ, खदीजा ने भारत की संप्रभुता को चुनौती दी, लेकिन उसे ‘छात्रा’ और ‘भावनात्मक’ कहकर छोड़ दिया गया।

यह पैटर्न सिर्फ शर्मिष्ठा या नुपुर शर्मा तक सीमित नहीं है। 2019 में कमलेश तिवारी और 2022 में किशन भरवाड़ की हत्या सिर्फ इसलिए कर दी गई क्योंकि इस्लामी कट्टरपंथियों ने उनकी टिप्पणियों को ‘ब्लासफेमी’ यानी ईशनिंद माना। क्या भारत में अब राष्ट्रवाद अपराध बन गया है? क्या ‘भारत माता की जय’ कहने वालों को जेल मिलेगी और ‘पाकिस्तान जिंदाबाद’ कहने वालों को बेल?

कलकत्ता हाई कोर्ट की कड़ाई और ममता सरकार की वोटबैंक पॉलिटिक्स

कोलकाता हाई कोर्ट का यह कहना कि “दो दिन जेल में रहने से आसमान नहीं टूट पड़ेगा” शर्मिष्ठा के लिए बेहद कठोर है। क्या कोर्ट को यह नहीं सोचना चाहिए कि एक युवा छात्रा, जो अपनी पढ़ाई और करियर के लिए मेहनत कर रही है, उसकी जिंदगी और सुरक्षा का क्या होगा? दूसरी तरफ बॉम्बे हाई कोर्ट ने खदीजा के करियर और शिक्षा की चिंता की, लेकिन शर्मिष्ठा के लिए ऐसी कोई चिंता क्यों नहीं दिखाई गई?

पश्चिम बंगाल की टीएमसी सरकार ने भी इस मामले में शर्मिष्ठा को राहत देने का विरोध किया। क्या यह सिर्फ वोटबैंक की राजनीति है? क्या बंगाल में राष्ट्रवाद को अपराध मान लिया गया है? शर्मिष्ठा ने अपनी याचिका में बताया कि उसे जेल में जान से मारने की धमकियाँ मिल रही हैं, साफ पानी तक नहीं मिल रहा और उसकी सेहत खराब हो रही है। फिर भी न तो कोर्ट और न ही सरकार ने उसकी सुरक्षा की चिंता की।

जनता का भरोसा डगमगा रहा है मीलॉर्ड

भारत की न्यायपालिका और संविधान पर हर भारतीय को गर्व है। लेकिन जब ऐसे फैसले सामने आते हैं, जो धर्म के आधार पर भेदभाव की बू देते हैं, तो लोगों का भरोसा डगमगाने लगता है। अगर खदीजा को माफी और जमानत मिल सकती है, तो शर्मिष्ठा को क्यों नहीं? अगर खदीजा की अभिव्यक्ति की आजादी और करियर की चिंता हो सकती है, तो शर्मिष्ठा की क्यों नहीं? क्या हिंदू छात्रा का भविष्य मुस्लिम छात्रा जितना महत्वपूर्ण नहीं है?

जब कोर्ट इस्लामी कट्टरपंथियों की ‘आहत भावनाओं’ को इतना गंभीरता से लेते हैं, लेकिन हिंदुओं की भावनाओं को नजरअंदाज करते हैं, तो यह सवाल उठता है कि क्या न्यायपालिका का तराजू संतुलित है? जब इस्लामी कट्टरपंथी ‘सर तन से जुदा’ की धमकियाँ देते हैं, और कोर्ट उन पर कार्रवाई करने के बजाय पीड़ित को ही दोषी ठहराते हैं, तो यह कट्टरपंथ को बढ़ावा देने जैसा नहीं है?

बाबा साहेब आंबेडकर ने एक ऐसे भारत की कल्पना की थी, जहाँ धर्म, जाति या लिंग के आधार पर कोई भेदभाव न हो। लेकिन आज जब शर्मिष्ठा जैसी हिंदू छात्रा को सिर्फ इसलिए जेल में डाल दिया जाता है क्योंकि उसने आतंकवाद के खिलाफ बोला और खदीजा जैसी छात्रा को भारत के खिलाफ बोलने के बावजूद राहत मिलती है, तो क्या यह बाबा साहेब के सपने का अपमान नहीं है?

“क्या अब देश से प्यार करना अपराध है?” यह सवाल आज हर उस भारतीय का है, जो इस दोहरे मापदंड को देखकर आहत है। क्या हमारी न्यायपालिका और सरकार इस भेदभाव को खत्म करने के लिए कुछ करेगी? क्या शर्मिष्ठा जैसे राष्ट्रवादियों की आवाज को सुना जाएगा, या उन्हें जेल में धमकियाँ झेलने के लिए छोड़ दिया जाएगा?

यह समय है कि हम भारत के नागरिक इस अन्याय के खिलाफ आवाज उठाएँ। हमें अपने संविधान, अपनी न्यायपालिका और अपने देश पर भरोसा है। लेकिन जब ऐसे फैसले सामने आते हैं, जो हिंदू-मुस्लिम के आधार पर भेदभाव का शक पैदा करते हैं, तो हमें सवाल पूछने का हक है। आखिर क्या यही है वह भारत, जिसका सपना बाबा साहेब ने देखा था? क्या यही है वह न्याय, जिसके लिए हमारा संविधान बना था?

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श्रवण शुक्ल
श्रवण शुक्ल
I am Shravan Kumar Shukla, known as ePatrakaar, a multimedia journalist deeply passionate about digital media. Since 2010, I’ve been actively engaged in journalism, working across diverse platforms including agencies, news channels, and print publications. My understanding of social media strengthens my ability to thrive in the digital space. Above all, ground reporting is closest to my heart and remains my preferred way of working. explore ground reporting digital journalism trends more personal tone.

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