Friday, April 19, 2024
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जब आप मुझे मेरे शब्दों के चयन पर ज्ञान देते हैं, उसी वक्त कोई ताहिर पेट्रोल बम बना रहा होता है

जब आप मुझे मेरे शब्दों के चयन की बता रहे होंगे, उसी समय में कोई जुबैर, किसी ताहिर की छत पर गुलेल बना रहा होगा, कोई अहमद किसी कोल्ड ड्रिंक की बोतल में पेट्रोल बम बना रहा होगा और कोई सलमा एसिड की बोतल ले कर नीचे फेंकने की तैयारी कर रही होगी।

कई दोस्त, शुभचिंतक, वरिष्ठ सहकर्मी से लेकर डिजिटल दुनिया के मित्र आदि हमेशा सलाह देते हैं कि मुझे अपनी भाषा पर नियंत्रण रखना चाहिए वरना भविष्य में मेरे ये कथन/शब्द/अभिव्यक्तियाँ मेरे पीछे पड़ जाएँगी, कमज़ोर करेंगी। वो जो बात मुझे कहना चाहते हैं, वो मैं समझता हूँ। उनकी मंशा भी अच्छी है, मैं वो भी देख पा रहा हूँ।

ऐसा नहीं है कि मैंने नियंत्रण नहीं किया है। किया है, काफी हद तक किया है। लेकिन मैं जिससे लड़ रहा हूँ, मैं सभ्यता के जिस दौर में हूँ, मेरे हाथों की उँगलियों ने जो शस्त्र धारण किए हुए हैं, वो राम और कृष्ण के युग की आदर्शवादिता और सामयिकता से नहीं समझे जा सकते।

आज मेरा दुश्मन युद्ध के किसी भी नियम से नहीं चलता। वो हर दिन, हर घटना के बीतते ही, नए पैंतरे बदलता है, छल का सहारा लेता है, पीछे से वार करता है, छवि को धूमिल करने के लिए तमाम सामाजिक रूप से स्वीकार्य शब्दों का प्रयोग करता है। और आप चाहते हैं कि मैं उन्हें सम्मानसूचक शब्दों से लताड़ता रहूँ?

अंकित शर्मा को जब मजहबी झुंड चाकू मार रहा होगा तब क्या उनमें से किसी की भी घृणा का स्तर, मेरे द्वारा इस्तेमाल किए गए किसी भी शब्द से कम रहा होगा? दिलबर नेगी के हाथ-पाँव काट कर जला देने वाली मजहबी भीड़ की क्रूरता का सामना मेरे द्वारा लिखे या बोले गए कोई भी शब्द कर सकते हैं?

क्या मेरे द्वारा अभिव्यक्त शब्दावली का कोई भी शब्द इतना मारक हो सकता है जितना फारूक फैसल के राजधानी स्कूल पर लगी गुलेल से फेंके गए पेट्रोल बम होंगे? वो कौन-सा शब्द है जो मैंने लिखा या बोला, जिसका घाव ब्रह्मपुरी के विनोद को घसीट कर ले गए 40 कट्टरपंथियों द्वारा दिए गए उस घाव से गहरा है जिससे उनकी हत्या की गई?

हिन्दुओं की मूर्खता और उसके घातक परिणाम

यही मूर्खता हिन्दू करता आया है, और इसी मूर्खता की उम्मीद मुझसे की जा रही है। इसी मूर्खता के कारण हिन्दू अपने मंदिर गँवाता रहा। इसी मूर्खता का परिणाम है कि मंदिर के पुजारी को अपनी युवा बेटियों को दूसरे के घर में छुपाना पड़ता है, लेकिन वो इतना अनभिज्ञ है कि वो कैमरे पर पॉलिटिकली करेक्ट होने के चक्कर में ये बोलता है कि मंदिर पर पत्थर कौन फेंक रहा था उसे पता नहीं।

न तो सेकुलर शब्द या भाव भारतीय है, न ही उसका इस धरती पर होना आवश्यक है। ये शब्द ही वो छलावा है जहाँ अचानक से एक खूनी, आतंकी मजहब का पारम्परिक शिकार धर्म स्वयं को आक्रांता बना पाता है। मंदिर भी तुम्हारे टूटे, दंगों में मरे भी तुम, तुम्हारे ही 59 कार सेवकों को भी जलाया और तुम्हारे ही खिलाफ झूठी कहानी गढ़ी गई कि गर्भवती महिला के पेट के बच्चे को भी निकाल कर मार दिया गया।

कल को फिर से कहानी रची जाएगी कि अंकित शर्मा तो ताहिर हुसैन के घर में आग लगाने जा रहा था, और आत्मरक्षा में उसकी हत्या हो गई, उसके बाद सरकार और पुलिस ने डॉक्टर पर दबाव बनाया और कहा कि पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट बदल डालो, उसे क्रूर बनाओ। तुम इंतजार करो, ये कहानी भी आएगी और उनका तंत्र इतना मजबूत है कि वो पोस्टमॉर्टम करने वाले डॉक्टरों को खारिज कर देंगे, पैसे खाने वाला बता देंगे और अंततः अंकित शर्मा गायब हो जाएगा हमारी सामूहिक स्मृति से।

वो अपने चोर तबरेज को भी याद रखते हैं, लाखों की भीड़ जुटाते हैं। उन्हें झूठ के झूठ साबित होने के बाद भी उसे बोलते रहना आता है। और हम इस इंतजार में हैं कि हमारे लिए जो लिख-बोल रहा है, उसको हम तभी पढ़ेंगे जब वो अपनी भाषा में सुधार लाएगा। और हाँ, मथुरा के भरत, दिल्ली के अंकित, रविंदर, ध्रुव त्यागी, सक्सेना समेत तमाम हिन्दुओं की भीड़ हत्या तो हम भूल ही गए हैं। क्योंकि हमारा पूरा फोकस इस पर है कि यार, वो बोलता तो सही है लेकिन बीच में ‘साला’ बोल जाता है!

हम एक अनवरत युद्ध का अनचाहा हिस्सा बन चुके हैं

आप लोगों को अंदाजा नहीं है कि हम किस समर के केन्द्र में हैं। आप ही को मारने की समग्र तैयारी होती है। मजहबी फसादी छतों से हवाई हमले करते हुए, जमीन पर बंदूक, पत्थर, तलवार से आक्रमण करते हैं, और लाशों को नाली में फेंक रहे हैं, और आपको इस बात की पड़ी है कि उसने तो ट्वीट में ‘फक’ लिख दिया यार, ऐसे नहीं लिखना चाहिए।

वो दुर्गा को वेश्या कहें, चलेगा। वो ‘फक हिन्दुत्व’ लिखें, चलेगा। वो देवी काली को मुस्लिम बना कर हिजाब पहना दें, चलेगा। वो स्वास्तिक के पवित्र प्रतीक में आग लगाएँ, पैरों से तोड़े, चलेगा। वो ॐ को मरोड़ कर नाजियों वाला प्रतीक बना दें, चलेगा। वो शिवलिंग पर कंडोम चढ़ा दें, चलेगा। वो कृष्ण को बलात्कारी बताएँ, चलेगा।

ये सारी गालियाँ चलेंगी क्योंकि ‘हम में और उनमें अंतर रहना चाहिए।’ यही तर्क है ना आपका? आपको ये समझ में नहीं आ रहा कि उनके तंत्र ने कैसे हर छोटी बात पर ‘आपातकाल’ बोल कर आपको धीरे-धीरे अपने मालिकों द्वारा लाए गए उस वीभत्स राजनैतिक और सामाजिक दौर की वास्तविकता से दूर कर दिया। आप उस वक्त पैदा नहीं हुए थे, या काफी छोटे थे, पढ़ना और रिसर्च करना आपके वश की बात है नहीं, तो अब आपको कोई ‘आपातकाल’ कहेगा तो आपको लगेगा कि इंदिरा गाँधी के समय में किसी चोर को किसी भीड़ ने मारा होगा, उसी को ‘आपातकाल’ कहते होंगे।

आपको अंदाजा भी है कि वो चाकू भी मार रहे हैं, और शब्दों के प्रयोग से आपकी स्मृति से अपने राजनैतिक मालिकों के कुकर्मों को धोते भी जा रहे हैं। आप पढ़िए दंगों की कवरेज। आप सुनिए तो रवीश को कि कैसे दस मिनट में नौ मिनट वो फैजान और नईम के जले दुकानों की भावुक बात करता है, और अंत में यह भी कहता है कि राहुल का भी जल गया। बरखा दत्त ने अंकित शर्मा की नृशंस हत्या पर कुछ नहीं लिखा, पर रिक्शाचालक इमरान को किसी हिन्दू ने कथित तौर पर थप्पड़ मार दिया तो भावुक काव्य रचना में लीन है।

आप देखिए तो ‘द वायर’, ‘क्विंट’, ‘स्क्रॉल’, ‘एनडीटीवी’, ‘दी प्रिंट’ जैसों की कवरेज। गिन लीजिए कि कितने ग्राउंड रिपोर्ट हैं, कितने कट्टरपंथियों की कहानी है, और कितने हिन्दुओं की। देखिए जा कर कि पूरी दुनिया को जो पेट्रोल बम, पत्थरों का ढेर, एसिड की बोतलें कट्टरपंथियों के छतों पर दिख रही है, वो इन लोगों को क्यों नहीं दिख रही। वो इसलिए महोदय, कि हम साल भर बाद अगर खोजें, तो हमें सिर्फ कट्टरपंथियों की ही कहानियाँ मिलें कि उन्हीं पर हमला हुआ।

इसलिए शब्दों पर मत जाइए, भाव समझिए। आपको यह समझना ही होगा कि ‘आपातकाल’ जैसे शब्दों को मुक्तहस्त प्रयोग समाज को मेरे द्वारा बोले गए ‘दोगलेपन’ जैसे शब्दों से ज्यादा नुकसान पहुँचाता है। ‘फक’ शब्द से ज्यादा घातक ‘फक हिन्दुत्व’ है, और उससे भी ज्यादा घातक हमारी यह सोच है कि उनके एक पोस्टर से क्या होगा। अरे भाई, वो पोस्टर भी उन्होंने हिन्दुओं से ही बनवाया और उनके ही हाथों में रखवाया है। विवेक का इस्तेमाल करो, समझ जाओगे!

सबूत सामने फिर भी पाप हिन्दुओं के सर कैसे?

सड़कें पत्थरों से पटी हुई हैं, मस्जिदों की छतों पर पत्थर दिख रहे हैं, समुदाय विशेष के लोगों के घर के ऊपर युद्ध लड़ने के मकसद से पेट्रोल बम, एसिड, पत्थर और आग लगाने का सामान इकट्ठा दिख रहा है, और फिर भी आपको बताया जा रहा है कि ये ‘हिन्दुओं द्वारा मुस्लिमों के सफाए की साजिश है’, ‘ये मुस्लिमों का पोगरोम है’, ‘ये मुस्लिमों का नरसंहार है’।

सबूत हमारे सामने चीख रहे हैं लेकिन ‘लागा सेकुलरिज्म का दाग’ ऐसा गहरा है कि दिमाग के तंतुओं तक पर उसकी परत चढ़ी हुई दिख रही है। सबूत हिन्दुओं की लाशें हैं, और उनको मारने का तरीका है। उनको मारने के तरीके में निहित घृणा दिख रही है। आपको नहीं दिखेगी क्योंकि आप दंगा साहित्य के कवियों को पढ़ते हैं जो आज भी कह रहे हैं, “यार! मरे तो दोनों ही तरफ के लोग हैं!”

ये क्या पागलपन है! एक भीड़ मारने के लिए ही निकली थी। वो भीड़ जल-थल-नभ पर तैयार खड़ी थी। वो जानती थी कि हिन्दुओं के इस नरसंहार की कोशिश में उसके अपने भी मरेंगे। वो तैयार थे अपनी लाशें भी गिराने के लिए। योजना तो काफी सघन थी, लेकिन ताहिर या फारूक की छतों से दंगा-फसाद करने वाली इस्लामी भीड़ यह भूल गई कि नीचे दौड़ कर चाकू, पत्थर और गोली चलाने वाली भीड़ भी कट्टरपंथियों की ही है।

हिन्दू का क्या था, वो तो आलोक तिवारी या दिनेश की तरह सुबह अपने बच्चों के लिए दूध लाने निकला था। वो किसी वीरभान की तरह ऐसे ही बाहर निकला होगा। उसने तो तैयारी नहीं की थी। उसकी घात में तो हवा से पेट्रोल बम फेंकते, जमीन पर पत्थर, चाकू और पिस्तौल लिए कट्टरपंथियों की एक भीड़ तैयार थी।

इलाके का अल्पसंख्यक हिन्दू, हवा से भी गोली का शिकार हो सकता था, जमीन पर चाकू से मारा जा सकता था, नाली में फेंक कर मारा जा सकता था। हर जगह भीड़ थी। अब ताहिर के छत की भीड़ को या फैसल फारूक के छत पर से गुलेल ताने, रायफल से निशाना साधती भीड़ को क्या पता कि नीचे भी उसी के पैदल सिपाही हैं। भीड़ में निशाना भी कितना लगाओगे। परिणामवश कट्टरपंथियों को भी कट्टरपंथियों ने ही मार डाला होगा, इससे इनकार नहीं किया जा सकता।

सेकुलर-सेकुलर खेलना बंद करो, हलाल तंत्र को समझो

इसलिए, ‘दोनों तरफ के मरने वाले हैं’ वाला गीत गाना बंद करो। सच्चाई को स्वीकारो कि दंगे की तैयारी उस इलाके के कथित अल्पसंख्यक कर रहे थे। पत्थर इकट्ठा हो रहा था, पेट्रोल बम बन रहे थे, गुलेल बनाए जा रहे थे, हथियार जुटाए जा रहे थे। हिन्दू क्या कर रहा था? वो शायद उसी दुकान से सामान खरीद रहा था जो दंगाइयों को पेट्रोल खरीदने के लिए चंदा दे कर मदद कर रहा होगा।

दो ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था है हलाल तंत्र की। दो ट्रिलियन का मतलब जानते हो? भारत की पूरी अर्थव्यवस्था के दो तिहाई के बराबर। तुम्हारा तंत्र कहाँ है? तुम इस बात पर आह्लादित रहते हो कि ‘मैं तो ये भी नहीं जानता कि मेरी पूजा के लिए धूप, माला और प्रसाद कौन बनाता है?’ ये मूर्खता है क्योंकि ये जानना धार्मिक कारणों से भी जरूरी है कि तुम्हारे पूजा के फूल पर किसी आतंकी के रक्तरंजित हाथों का खून तो नहीं, और नैतिक कारणों से भी कि जो पैसा तुम दे रहे हो, वो किसी अनैतिक कार्य के लिए तो खर्च नहीं हो रहा।

तुम्हें जानना चाहिए कि तुम्हारा व्यापार किसके साथ हो रहा है। तुम किस बात के लिए, किस दुकानदार से सामान खरीदते हो। यह जानना जरूरी है क्योंकि जब गली का कोई दुकानदार जब किसी बम कांड में पकड़ा जाएगा तो नाम सुन कर तुम्हें आश्चर्य होता रहेगा… और थोड़ी देर सोचने के बाद पता चलेगा कि तुम्हारे संकट मोचन मंदिर पर जो बम फटे थे, उसके रहने की व्यवस्था तुम्हारी गली का वही दुकानदार कर रहा था। जागरूक नागरिक बनो, अपना आर्थिक तंत्र बनाओ कि किसी नेगी की हत्या पर, किसी नीरज प्रजापति के चले जाने पर, उनके परिवार वालों को भूखा न रहना पड़े।

वास्तविकता के धरातल पर नंगे पैर चलने पर उसकी तपन और सर्दी, दोनों का ही अहसास, होगा। इनका तंत्र देखो कि तुम्हारा मंदिर तोड़ा, उस पर मस्जिद बनाई, और तुम्हारे राम को काल्पनिक बता कर पूरी लड़ाई लगभग जीत ही ली थी। मथुरा और काशी की तो बात ही नहीं कर रहा। बाकी के तीस हजार मंदिरों की तो चर्चा भी नहीं कर रहा।

मैं तो बता रहा हूँ कि जिस बख्तियार खिलजी ने नालंदा विश्वविद्यालय को आग लगा दी, हमारी संस्कृति के बड़े हिस्से को गायब कर दिया, उसी के नाम का शहर, उसी नालंदा विश्वविद्यालय के खंडहरों के पास, बख्तियारपुर के नाम से है, और किसी माई के लाल में नाम बदलने का प्रस्ताव रखने तक की हिम्मत नहीं है।

यही तो वो तंत्र है जो अपने जलसों पर गलियों में जानवरों के खून की नदियाँ बहा देता है और होली को छेड़छाड़ का त्योहार, दीवाली को प्रदूषण फैलाने वाला, रक्षाबंधन को पितृसत्ता का प्रतिनिधि, गणपति और दुर्गा विसर्जन को जलराशि को गंदा करने वाला बताता है, लेख लिखता है और तुम्हें भी सोचने पर विवश करता है कि ये तो सही बोल रहे हैं। सौ करोड़ हिन्दू हैं भारत में, अगर 10 करोड़ भी होली मनाते हैं तो कितनी खबरें पढ़ते हो छेड़छाड़ की?

छेड़छाड़ बसों में नहीं होती, मदरसों में मौलवी रेप नहीं कर रहे बच्चियों का, आम दिनों में छेड़छाड़ नहीं होती लड़कियों के साथ, परिवार के सदस्य बलात्कार नहीं कर रहे लड़कियों का? तो फिर परिवार नाम की संस्था क्यों खारिज नहीं कर पा रहे? होली को खारिज करना आसान है, क्योंकि हर शहर में दो-चार घटनाएँ होती हैं ऐसी।

सहिष्णुता, भावुकता और कोमलता का लाभ उठा रहे हैं वो

चूँकि सहिष्णु हो, तो तुम्हें अपराधबोध में डुबाना बहुत आसान है। कभी याद है कि क्रिसमस पर या न्यू इयर पर पटाखे छोड़ने की मनाही हुई हो? ईद पर हिंसा न करने का ज्ञान किसी ने दिया? बुरके और हिजाब को किसी ने बंधन कहा? नहीं कहा, क्योंकि तुम कह कर देखो एक बार, और कैसे वो झुंड में हमला बोलते हैं।

वे न सिर्फ अपने पाषाकालीन परंपराओं को डिफेंड करते हैं, बल्कि तुम्हारी वैज्ञानिकता को नकारने के लिए हमेशा तैयार रहते हैं। वो तुम्हें बाँटने के लिए हिरण्यकश्यपु, महिषासुर, होलिका, रावण, कंस जैसे राक्षसों को दलितों का राजा और पता नहीं क्या-क्या बताते हैं, लेकिन दंगे में जब उन्हें दुकान जलानी होती है, तब वो तुमसे नहीं पूछते कि तुम दलित हो कि हिन्दू। उस समय, तुम हिन्दू ही होते हो भले ही सोशल मीडिया पर देवी दुर्गा को वेश्या कहे जाने पर तुम्हें खुशी मिलती है।

इसलिए, काल, परिस्थिति और पात्र देख कर आचरण करना ही शास्त्रोचित है। कृष्ण और राम के समय में गालियाँ नहीं थी, न ही सोशल मीडिया था। इसलिए उन्होंने फेसबुक पर गाली नहीं लिखी। उनके दुश्मन वैसे नहीं थे कि मच्छर मारने पर भी आपातकाल की घोषणा कर देते थे। कृष्ण के समय में धूर्त दुश्मन थे, तो कृष्ण ने कर्ण को रथ का पहिया लगाते वक्त मरवाया, दुर्योधन की जाँघ तुड़वाई, जयद्रथ का वध करवाया और युधिष्ठिर से ‘अश्वत्थामा हतः’ कहलवाया…

कृष्ण अगर अपने से पूर्व के युग में, स्वयं के ही अवतार राम का अनुसरण करने लगते तो कुरुक्षेत्र का युद्ध अधर्मी दुर्योधन जीत जाता और नैरेटिव से अभिमन्यु की हत्या गायब हो जाती। कहा जाता कि वो तो आत्मरक्षा में मार दिया गया।

मैं अपने समय का राम या कृष्ण नहीं हूँ। मैं अपने समय का अजीत ही रहना चाहता हूँ, लेकिन मैं राम और कृष्ण दोनों के समय को याद रखना चाहता हूँ। अगर कलयुग में रामायण और महाभारत को पढ़ने के बाद भी, मैं अपना आचरण त्रेता और द्वापर जैसा रखूँ, तो स्वयं राम और कृष्ण ही उसे नकार देंगे। ये कलियुग है, और हम अपना युद्ध लड़ रहे हैं। राम को भारत छोड़ कर लड़ने जाना पड़ा था, कृष्ण को अपनी ही धरती पर युद्ध करना पड़ा था, और हमारे समय में हम पैदा ही अनवरत चलते एक अदृश्य युद्ध के दौर में हुए हैं।

दंगों की लाशों पर मेरे कथित ‘अपशब्द’ भारी कैसे?

इसलिए, यहाँ त्रेता का आदर्शवाद तो बिलकुल नहीं चलेगा। यहाँ तो, सामने वाला ‘पोगरोम’, ‘जिनोसाइड’ जैसे शब्द कहेगा, और बताएगा कि मरने वालों में ज्यादा समुदाय विशेष वाले हैं, तो आपको उसे इस दोगलेपन की याद दिलानी होगी कि ‘अबे हरामखोर, छत पर पत्थर, पेट्रोल, एसिड तुमने जमा किए, जमीन पर तुम्हारे लोग पत्थर, चाकू लेकर घूम रहे थे, तो ये दंगा हिन्दुओं के माथे कैसे मढ़ रहे हो बे?’

अब आप संवेदनशील हो कर कह देंगे कि ‘अजीत जी, आपकी सारी बात सही है लेकिन आपने ‘दोगलेपन’, ‘हरामखोर’ और ‘बे’ का जो प्रयोग किया उससे फलाँ तरह के दर्शक आपसे नहीं जुड़ पाएँगे। और जब आप मुझे ये ज्ञान की बात बता रहे होंगे, उसी समय में कोई जुबैर, किसी फारूक फैसल या ताहिर हुसैन की छत पर टायर-ट्यूब से गुलेल बना रहा होगा, कोई अहमद किसी कोल्ड ड्रिंक की खाली बोतल में पेट्रोल डाल रहा होगा और कोई सलमा एसिड की बोतल ले कर नीचे फेंकने की तैयारी कर रही होगी।

अब आप मुझे बताइए कि मेरे तीन शब्दों से समाज का ज्यादा नुकसान है या फिर पूर्वी दिल्ली के दंगों से? उधर कोई शातिर हर्ष मंदर, जिसे करोड़ों की फंडिंग है, वो खुलेआम कह रहा है कि फैसला सुप्रीम कोर्ट में नहीं सड़कों पर होगा… और अंत में दार्शनिक बनते हुए जोड़ देगा कि ‘फैसला दिलों में होगा’ और आप उस टैक्निकेलिटी के बल पर ‘फैक्टचेकरों की लम्पट टोली’ के जाल में उलझते रहेंगे कि ‘हाँ भाई, उसने तो बोला दिल में होगा फैसला’।

अबे घोंचू, जब फैसला दिल में ही होना था, तो सड़क क्यों बोला? और राम मंदिर का फैसला क्या दिल में हुआ था? अब क्या कल को बलात्कार और चोरी के अपराधों के फैसले भी दिल से होंगे? कोर्ट यहाँ क्या घास छीलने के लिए है? वो पागल बनाते रहेंगे, और तुम कहना कि ‘अजीत जी, आपकी भाषा सही नहीं है, आपको ये शोभा नहीं देता, करियर के लिए खराब है!’

ऐसा है कि मैं किसान का बेटा हूँ। मेरी महात्वाकांक्षाएँ इतनी नहीं हैं कि बीस साल बाद मैं फलाने अवॉर्ड के लिए लालायित रहूँगा और इंटरनेट से कोई मेरी पुरानी क्लिप निकाल कर चला देगा कि देखो उसने तो ‘हरामखोर’ शब्द का प्रयोग किया था, उसे आप सम्मानित कैसे कर रहे हैं। मुझे मान-सम्मान की आशा कभी नहीं रही। जिस कार्य में दक्ष हूँ, करता रहूँगा। जैसे करना है, वैसे ही करूँगा। एक दायरा है, जिसे न तो लाँघता हूँ, न लाघूँगा।

मुझे न तो अवॉर्ड चाहिए, न दस लाख फॉलोवर जुटाने की चाह है, न विडियो से करोड़ों रुपए बनाने की चाह है। जो इतनी बातें सोचते हैं, वही अपने शब्दों को तौलते हैं, पॉलिटिकली करेक्ट बनना चाहते हैं। मैं बस करेक्ट बोलना चाहता हूँ क्योंकि पॉलिटिक्स और डिप्लोमेसी मुझे समझ में नहीं आती। आपको मेरी बात समझ में आती है तो, अच्छी बात है, आगे बढ़ाइए। इससे ज्यादा मेरी कोई इच्छा नहीं।

मेरा ध्यान वामपंथियों और इस्लामी कट्टरपंथियों के नैरेटिव को ध्वस्त करना है। वो कैसे करना है, उसके लिए मेरे पास पूरी योजना है। वो काम मैं जानता हूँ क्योंकि अहर्निश मैं उन्हें पढ़ता और समझता रहता हूँ। मैं आपके सामने सच को लाने को तत्पर हूँ। मैं आपको यह याद दिलाने के लिए काम करता हूँ कि अगर ऑपइंडिया जैसी तीन-चार संस्थाएँ नहीं होतीं, तो आप गोधरा की ही तरह 59 कारसेवकों की हत्या भूल कर, कश्मीर के लाखों हिन्दुओं के नरसंहार को भूल कर, पूर्वी दिल्ली के इन दंगों को भी हिन्दुओं पर ही लाद कर पूछते कि मुस्लिमों की हत्या क्यों कर दी हमारे हिन्दुओं ने?

इसलिए, समय को समझिए, इस अदृश्य अनवरत चलते युद्ध को समझिए और उन परिवारों के दर्द को अपनाइए क्योंकि अगर ताहिर हुसैन के गुंडे गली नंबर पाँच और छः की हिन्दू लड़कियों के कपड़े उतार सकते हैं, तो गलियों और शहरों का नाम बदलने में देर नहीं होगी। आप बच गए लेकिन शरजील आपके शहर तक भी पहुँचाएगा अपनी आवाज, सलमान आपकी कब्र खोदने की तैयारी कर रहा है, एक पूरा विश्वविद्यालय हिन्दुओं से आजादी की जद्दोजहद में लगा हुआ है, दूसरी यूनिवर्सिटी मुस्लिमों के वैश्विक शासन की चाह में दीवारों पर नारे लिख रहा है…

और आपको पड़ी है कि अजीत भारती बोलता तो सही है लेकिन कभी-कभी गाली दे देता है, इसलिए मैं नहीं सुनता!

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अजीत भारती
अजीत भारती
पूर्व सम्पादक (फ़रवरी 2021 तक), ऑपइंडिया हिन्दी

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