Sunday, June 22, 2025
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जिस जमात-ए-इस्लामी का इतिहास हिन्दू नरसंहारों से रंगा, उस पर बांग्लादेश में हटा प्रतिबंध: 1971 में पाकिस्तान की बना था कठपुतली, जानिए इस कट्टरपंथी संगठन का पूरा कच्चा-चिट्ठा

बांग्लादेश के सुप्रीम कोर्ट ने जमात-ए-इस्लामी को बहाल कर दिया है, जिससे एक दशक लंबे प्रतिबंध के बाद मुख्यधारा की राजनीति में इसकी वापसी का रास्ता साफ हो गया है।

बांग्लादेश के सुप्रीम कोर्ट ने 1 जून 2025 को जमात-ए-इस्लामी को बहाल कर दिया है, जिससे एक दशक लंबे प्रतिबंध के बाद मुख्यधारा की राजनीति में इसकी वापसी का रास्ता साफ हो गया है।

बांग्लादेश के सुप्रीम कोर्ट ने जमात-ए-इस्लामी बांग्लादेश को राजनीतिक पार्टी के रूप में एक बार फिर पंजीकृत कर लिया है। इसके अलावा पार्टी की छात्र शाखा ‘इस्लामी छात्र शिबिर’ का राजनीतिक पंजीकरण भी बहाल कर दिया गया है।

सुप्रीम कोर्ट बांग्लादेश के इस फैसले के बाद ये संगठन चुनाव आयोग की सूची में शामिल हो सकता है। जून 2026 में बांग्लादेश में आम चुनाव होने वाले हैं। ऐसे में जमात-ए-इस्लाम के शामिल होने का रास्ता साफ हो गया है।

अगस्त 2013 में बांग्लादेश के उच्च न्यायालय ने ही जमात-ए-इस्लामी पर प्रतिबंध लगा दिया था। कोर्ट को ये सबूत मिले थे कि कट्टरपंथी संगठन ने चुनाव नियमों का उल्लंघन किया था और उसके पास एक चार्टर था जो बांग्लादेश को एक संप्रभु और स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में मान्यता देने से इनकार करता था। साथ ही चार्टर देश की ‘धर्मनिरपेक्ष भावना’ के खिलाफ था।

ये फैसला ऐसे समय आया है जब कुछ दिन पहले ही सुप्रीम कोर्ट ने जमात ए इस्लामी से जुड़े 1971 युद्ध के अपराधी अजहरुल इस्लाम को बरी कर दिया था। इससे देश में कट्टरपंथी इस्लामिक संगठनों को बढ़ावा मिला है, जिन्हें अब मुहम्मद यूनुस के नेतृत्व वाली सरकार का समर्थन हासिल है।

इतिहास के आईने में जमात-ए-इस्लामी

जमात-ए-इस्लामी की स्थापना 1941 में अबुल अला मौदूदी नामक एक इस्लामी चरमपंथी ने की थी। इसे पाकिस्तान में दो बार 1959 और 1964 में प्रतिबंधित किया गया था।

बांग्लादेश की स्थापना के तुरंत बाद देश के पहले राष्ट्रपति और संस्थापक शेख मुजीबुर रहमान ने 1971 के बांग्लादेश मुक्ति युद्ध के दौरान पाकिस्तान का साथ देने और बंगाली आबादी के खिलाफ नरसंहार करने के कारण चरमपंथी संगठन पर प्रतिबंध लगा दिया था। हालाँकि शेख मुजीबुर रहमान की हत्या के बाद ये प्रतिबंध हटा लिया गया

शेख मुजीबुर रहमान की बेटी शेख हसीना ने इसके बाद अवामी लीग सरकार का नेतृत्व किया। अगस्त 2024 में आतंकवाद विरोधी अधिनियम के तहत जमात ए इस्लामी और उसके छात्र संगठन ‘इस्लामी छात्र शिबिर’ पर एक बार फिर प्रतिबंध लगा दिया गया।

ये भी ध्यान देने वाली बात है कि इस चरमपंथी संगठन को शुरू से ही खालिदा जिया के नेतृत्व वाली बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी का समर्थन प्राप्त है।

मई 1979 में जियाउर रहमान के शासन में जमात-ए-इस्लामी ने सक्रिय राजनीति में कदम रखा और 1991 में खालिदा जिया की पार्टी का समर्थन किया। इससे बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी को सत्ता हासिल हुई।

1971 बांग्लादेश मुक्ति युद्ध और जमात-ए-इस्लामी की भूमिका

दिसंबर 1970 में हुए आम चुनावों में शेख मुजीबुर रहमान के नेतृत्व में अवामी लीग ने पूर्वी पाकिस्तान की प्रांतीय विधायिका में भारी बहुमत (167 सीटें) हासिल की।

पूर्वी पाकिस्तान के मामलों में कट्टरपंथी नेताओं द्वारा लगातार हस्तक्षेप से रहमान परेशान थे। इसलिए रहमान ने अधिक क्षेत्रीय स्वायत्तता की माँग शुरू कर दी थी।

यह भारतीय उपमहाद्वीप के विभाजन के ठीक 13 वर्ष के भीतर की बात है, जब मुसलमानों ने अपने लिए एक अलग देश की माँग की थी।

इस्लामिक देश होने के बावजूद पश्चिमी और पूर्वी पाकिस्तान एक-दूसरे के खिलाफ हो गए। 1970 के चुनावों में पश्चिमी पाकिस्तान में सबसे ज्यादा सीटें हासिल करने वाली पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी (पीपीपी) क्षेत्रीय स्वायत्तता के खिलाफ थी।

पीपीपी के नेता ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो ने शेख मुजीबुर रहमान की माँगों को नकार दिया। उन्होंने धमकी दी थी कि अगर पीपीपी को पूर्वी पाकिस्तान की सरकार में शामिल नहीं किया गया तो वे विधानसभा का बहिष्कार करेंगे और प्रांतीय विधानमंडल भंग करने की माँग करेंगे।

पूर्वी पाकिस्तान को स्वायत्तता न दिए जाने से नाराज शेख मुजीबुर रहमान ने 7 मार्च 1971 को सविनय अवज्ञा आंदोलन शुरू किया। भुट्टो को गृह युद्ध की आशंका थी। इसको देखते हुए राष्ट्रपति याह्या खान ने मार्शल लॉ घोषित कर दिया। रहमान और दूसरे नेताओं को गिरफ्तार करने के आदेश दिए गए।

आंदोलन को नियंत्रित करने के लिए पाकिस्तानी फौज ने 26 मार्च 1971 को ऑपरेशन सर्चलाइट शुरू किया। राष्ट्रपति याह्या खान और भूट्टो के रवैये से निराश रहमान ने पहले ही पश्चिमी पाकिस्तान से स्वतंत्रता का आह्वान कर दिया था।

पाकिस्तानी फौज ने राजारबाग और पीलखाना इलाके में बंगाली समुदाय पर हमला किया । उन्होंने मुजीबुर रहमान को सलाखों के पीछे डाल दिया। पाकिस्तानी फौज के हमले में ढाका विश्वविद्यालय में 9 शिक्षक और 200 छात्र मारे गए।

पाकिस्तानी फौज ने पुराने ढाका, तेजगांव, इंदिरा रोड, मीरपुर, कालाबागान और अन्य स्थानों पर बंगाली नागरिकों पर बर्बर हमला जारी रखा।

उसी रात चटगाँव में पाकिस्तानी फौज ने कई लोगों को गोली मार दी। दैनिक इत्तेफाक, दैनिक संगबाद समेत राष्ट्रीय अखबारों को बंद कर दिया गया और उनके दफ़्तरों में आग लगा दी गई। इस घटना में कई मीडियाकर्मी मारे गए। सामूहिक कब्रें खोदी गईं और आनन-फानन में बुलडोजर से गिरा दी गईं।

ढाका में करीब 700 लोग जलकर मर गए। उन्होंने झुग्गी-झोपड़ियों में रहने वालों के घरों को आग लगा दी, जान बचाने के लिए भाग रहे लोगों पर गोलियाँ चलाईं, काली मंदिर को ढहा दिया और सेंट्रल शहीद मीनार को भी नष्ट कर दिया गया।

एक अनुमान के मुताबिक ऑपरेशन सर्चलाइट के दौरान पाकिस्तानी फौज ने 10,000-35,000 बंगालियों को मार दिया था। बांग्लादेश मुक्ति आंदोलन के दौरान कुछ ही महीने में मरने वालों की संख्या बढ़कर 3 लाख से अधिक हो गई थी।

बंगाली आबादी के खिलाफ नरसंहार बढ़ता ही जा रहा था। माना जाता है कि करीब 4 लाख बंगाली महिलाओं के साथ पाकिस्तानी फौज ने बलात्कार किया, इन महिलाओं में से अधिकांश हिंदू थे।

पाकिस्तानी फौज द्वारा मानवता के विरुद्ध किए गए ये सभी अत्याचार और अपराध को जमात-ए-इस्लामी का समर्थन था। ये संगठन उस वक्त ‘अल बद्र’, ‘अल शम्स’ और ‘रजाकार’ नामक तीन सशस्त्र संगठनों का संचालन करते थे।

हालात और खराब हो गए, जिससे पड़ोसी भारत को नरसंहार को रोकने के लिए कदम उठाना पड़ा। 14 दिनों में ए.के. नियाजी के नेतृत्व में पाकिस्तानी फौज ने घुटने टेक दिए और 16 दिसंबर 1971 को बांग्लादेश के रूप में एक नए राष्ट्र का उदय हुआ।

2010 में स्थापित अंतर्राष्ट्रीय अपराध न्यायाधिकरण (बांग्लादेश) ने जमात-ए-इस्लामी से जुड़े 10 चरमपंथियों को 1971 के नरसंहार में शामिल पाया । इनके नाम हैं-

  1. अब्दुल कादर मुल्ला (दिसंबर 2013 में फांसी दी गई)
  2. गुलाम आज़म
  3. मुहम्मद कमरुज्जमां (अप्रैल 2015 में फाँसी)
  4. दिलवर हुसैन सईदी
  5. अली अहसान मोहम्मद मुजाहिद (नवंबर 2015 में फांसी दी गई)
  6. अबुल कलाम आज़ाद
  7. मोतीउर रहमान निज़ामी (मई 2016 में निष्पादित)
  8. मीर कासिम अली (सितंबर 2016 में फांसी दी गई)
  9. अबुल कलाम मुहम्मद यूसुफ
  10. चौधरी मुईन-उद्दीन

गुलाम आजम और अबुल कलाम मुहम्मद यूसुफ की मृत्यु 2014 में हुई जबकि दिलवर हुसैन सईदी की मृत्यु 2023 में प्राकृतिक कारणों से हुई। अबुल कलाम आजाद आज तक फरार है। चौधरी मुईन-उद्दीन अब ब्रिटिश नागरिक है और उसे गिरफ्तार नहीं किया गया है।

दिसंबर 2013 से सितंबर 2016 के बीच ‘जमात-ए-इस्लामी’ बांग्लादेश से जुड़े 5 चरमपंथियों को फाँसी पर लटका दिया गया था।

1971 के बाद भी जमात-ए-इस्लामी के निशाने पर हिन्दू

6 दिसंबर 1992 को बाँस की लाठियों और हथियारों से लैस 5000 मुस्लिम भीड़ ने ढाका नेशनल स्टेडियम में भारत और बांग्लादेश के बीच खेले जा रहे क्रिकेट मैच पर धावा बोलने की कोशिश की। हालाँकि पुलिस ने ये कोशिश विफल कर दी। पुलिस ने भीड़ पर आँसू गैस और रबर की गोलियाँ बरसाई।

यूनाइटेड प्रेस इंटरनेशनल की एक रिपोर्ट के अनुसार , 1000 मुस्लिम भीड़ ने ढाका के थाटारी बाजार जिले में स्थित हिंदू शिव मंदिर को तोड़ दिया।

इस्लामिक कट्टरपंथियों ने नरिंदा जिले में एक हिंदू मंदिर पर भी हमला किया और बम विस्फोट में 88 वर्षीय हिंदू पुजारी को गंभीर रूप से घायल कर दिया। मुस्लिम भीड़ ने ढाका में ढाकेश्वरी मंदिर में भी घुसने की कोशिश की।

उन्होंने हिंदुओं की दुकानें भी लूट लीं और कारों को लाठियों और लोहे के रॉड से तोड़ दिया।

बांग्लादेश अल्पसंख्यक मानवाधिकार कॉन्ग्रेस (एचआरसीबीएम) के अनुसार, इस नरसंहार को कट्टरपंथी इस्लामी संगठन जमात-ए-इस्लामी ने अंजाम दिया था , जो सत्तारूढ़ गठबंधन का हिस्सा थी।

दंगे अचानक नहीं हुए थे, बल्कि सुनियोजित तरीके से करवाए गए। अनुमान है कि 2400 हिंदू महिलाओं के साथ सामूहिक बलात्कार किया गया और उन्मादी मुस्लिम भीड़ ने 3500 मंदिरों और धार्मिक प्रतिष्ठानों को नष्ट कर दिया।

हिंदू समुदाय के 28000 से ज्यादा घर और 2500 व्यावसायिक प्रतिष्ठान तबाह कर दिए गए। अनुमान है कि इस नरसंहार में 700 हिंदू मारे गए। उस समय के कई प्रमुख राजनेताओं ने माना था कि ये संख्या वास्तविकता से दूर थी।

2001 में जमात-ए-इस्लामी ने अपने सहयोगी बीएनपी के साथ मिलकर बांग्लादेश में चुनाव जीता था, जिसके बाद हिंदू समुदाय पर जमकर अत्याचार किए गए। योजनाबद्ध नरसंहार के बाद कई बांग्लादेशी हिंदुओं को देश छोड़कर भागने पर मजबूर होना पड़ा।

बीबीसी की एक रिपोर्ट में कहा गया है, “हिंदू नेताओं ने कहा कि उनके खिलाफ हत्या, लूटपाट और बलात्कार समेत कई हमले हुए, जो परिणाम घोषित होने के बाद शुरू हुए। उन्होंने कहा कि इस्लामिक कट्टरपंथियों और बीएनपी ने उन्हें इसलिए निशाना बनाया क्योंकि उन्होंने उन चुनावों में प्रतिद्वंद्वी अवामी लीग का समर्थन किया था।

2013 में हिन्दू मंदिर पर हमला हुआ

फरवरी 2013 में जमात-ए-इस्लामी और उसके छात्र संगठन ‘इस्लामी छात्र शिबिर’ ने 50 से ज्यादा हिंदू मंदिरों पर हमला किया और 1,500 से ज्यादा घरों और व्यापारिक प्रतिष्ठानों को निशाना बनाया। उन्होंने बांग्लादेश के कई जिलों जैसे गैबांधा, चटगाँव, रंगपुर, सिलहट, बोगरा आदि में आगजनी की ।

एक साल बाद फरवरी 2014 में बीएनपी सदस्यों और जमात-ए-इस्लामी चरमपंथियों ने हिंदू समुदाय पर 160 हमले किए ।

इस वर्ष 12 फरवरी को, संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार उच्चायुक्त कार्यालय (ओएचसीएचआर) ने 104 पृष्ठों की एक रिपोर्ट [पीडीएफ] प्रकाशित की। रिपोर्ट में बांग्लादेश के हिंदू अल्पसंख्यकों के खिलाफ किए गए अत्याचारों का विवरण दिया गया है।

रिपोर्ट का शीर्षक है ‘बांग्लादेश में जुलाई और अगस्त 2024 के विरोध प्रदर्शनों से संबंधित मानवाधिकार उल्लंघन और दुर्व्यवहार।’

रिपोर्ट में कहा गया है कि हिंदू समुदाय पर अधिकांश हमले पूर्व बांग्लादेशी प्रधानमंत्री शेख हसीना को पद से हटाने की ‘खुशी’ में निकाले गए ‘विजय जुलूसों’ के दौरान हुए।

ओएचसीएचआर ने कहा कि हमलावर बीएनपी और जमात-ए-इस्लामी के स्थानीय समर्थक थे। रिपोर्ट के पेज 62 में कहा गया है –

” बीएनपी और जमात-ए-इस्लामी विपक्षी दलों के कुछ स्थानीय सदस्य और समर्थक हिंदू समुदाय पर हुए हमलों और मानवाधिकार हनन के लिए जिम्मेदार हैं। “

सितंबर 2024 में मानवाधिकार कार्यकर्ता और निर्वासित बांग्लादेशी ब्लॉगर असद नूर ने खुलासा किया कि हिंदुओं को ‘जमात-ए-इस्लामी बांग्लादेश’ में शामिल होने के लिए मजबूर किया जा रहा है।

नूर ने बताया कि कट्टरपंथी इस्लामी संगठन के सदस्यों ने लालमोनिरहाट सदर उपजिला के खुनियागाच संघ के कलमाटी वार्ड नंबर 2 में प्रवेश किया। उन्होंने 27 गरीब, बेसहारा हिंदुओं को अपना शिकार बनाया और उन्हें ‘जमात-ए-इस्लामी’ में शामिल होने के लिए मजबूर किया।

असद नूर के अनुसार, कट्टरपंथियों ने पीड़ितों को जान से मारने और देश से निकाल देने की धमकी दी थी। मजबूरन गरीब हिंदुओं को उनके हुक्म का पालन करना पड़ा। जमात-ए-इस्लामी के सदस्यों ने उन्हें कुछ फॉर्म पर हस्ताक्षर करवाए और उन्हें इस्लामी किताबें दीं ताकि उनका धर्मपरिवर्तन कराया जा सके।

जमात-ए-इस्लामी (लालमोनिरहाट शाखा) के सहायक सचिव हाफिज मोहम्मद शाह आलम हिंदुओं को कट्टरपंथी संगठन में जबरन शामिल करने के दौरान मौजूद थे।

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ऑपइंडिया स्टाफ़
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