प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने शुक्रवार (19 नवंबर, 2021) को राष्ट्र को सम्बोधित करते हुए अचानक से तीनों कृषि कानूनों को वापस लिए जाने की घोषणा कर दी। इन कानूनों को कृषि सुधार के लिए लाया गया था। भारत में जिस तरह से कृषि उत्पादों को किसान उपजाते और फिर बेचते हैं, ये कानून उस प्रक्रिया के विविधीकरण और उसमें आने वाली बाधाओं को हटाने के लिए लाए गए थे। इस घोषणा से सभी को हैरानी हुई। सत्ताधारी दल के कई समर्थक भी बेचैन हो गए। कम से कम ऑनलाइन तो ऐसा ही देखने को मिला। अब जब लोगों का गुस्सा और चर्चाओं का बाजार थमता नजर आ रहा है, मैं पिछले एक वर्ष में हुई घटनाओं का विश्लेषण करने का खतरा मोल ले रहा हूँ।
सबसे पहले तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की इस घोषणा पर दो तरह की प्रतिक्रियाएँ देखने को सामने आईं। सत्ता और पार्टी के लोगों का कहना है कि राष्ट्रीय सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए ये फैसला लिया गया, क्योंकि खालिस्तानी ताकतों ने ‘किसान आंदोलन’ में घुसपैठ करने में कामयाबी पा ली थी। जबकि, विपक्ष और यहाँ तक कि मोदी समर्थकों का कहना है कि उत्तर प्रदेश और पंजाब में होने वाले विधानसभा चुनावों के मद्देनजर ऐसा किया गया। बता दें कि अगले 4 महीनों में इन दोनों ही राज्यों में विधानसभा चुनाव होने हैं।
पहले दूसरी वाली प्रतिक्रिया की बात करते हैं, जिसमें कहा गया है कि ये चुनाव जीतने के लिए लिया गया फैसला था। विपक्ष तो ऐसा कहेगा ही, लेकिन कुछ भाजपा समर्थक भी ऐसी ही राय रख रहे हैं। मुझे ऐसे लोगों की कोई गलती नजर नहीं आती, क्योंकि बाहर से देखने पर कई चीजें समझ में नहीं आ रही हैं।
1 वर्ष पहले जब किसान प्रदर्शनकारी दिल्ली के लिए निकले थे, तभी इस आंदोलन में खालिस्तानी तत्वों की उपस्थिति का स्पष्ट रूप से पता चल गया था। एक सिख व्यक्ति का अंग्रेजी में एक पुलिस अधिकारी से बहस करते हुए वीडियो भी सामने आया था। मीडिया के गिरोह विशेष ने तुरंत उसे ‘आधुनिक शिक्षित किसान’ बताते हुए अपने सिर पर बिठा लिया, लेकिन एक सप्ताह के भीतर ही उसे ‘भाजपा एजेंट’ बताते हुए लिबरलों ने अजीबोगरीब ढंग से उससे नाता तोड़ लिया। उसने जनरैल सिंह भिंडरवाला की निंदा करने से इनकार कर दिया था। याद दिला दें कि भिंडरवाला वही व्यक्ति है, जिसने 80 के दशक में सिख अलगावाद और खालिस्तानी विचारधारा को पुनर्जीवित किया था। इसका परिणाम हमें पंजाब में हिन्दुओं के नरसंहार के रूप में देखने को मिला। फिर ‘ऑपरेशन ब्लू स्टार’ हुआ।
वापस ‘किसान आंदोलन’ पर लौटें तो शुरू से ही इसमें भिंडरवाला की तस्वीरों वाले के पोस्टर-बैनर्स, ट्रैक्टर्स, टीशर्ट्स इसमें दिख रहे थे। कई बार आंदोलनकारियों ने अलगाववादी और हिन्दू विरोधी नारे लगाए, इस तरह की बातें की। कुछ ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की उसी तरह हत्या करने की धमकी दी, जिस तरह इंदिरा गाँधी की हुई थी। इसके बाद गणतंत्र दिवस (26 जनवरी, 2021) को लाल किला सहित दिल्ली में जो हिंसा हुई, वो हम सबने देखा। अगर खालिस्तानी खतरे के कारण कृषि कानूनों को वापस लिया गया है तो सरकार इतने दिनों से क्या कर रही थी? ये खतरा तो पिछले 10 महीने से यूँ ही दिख रहा है, फिर इस पर क्या किया गया?
इसीलिए, ये सारा का सारा टाइमिंग का खेल है और मैं इसे पूरी तरह समझ रहा हूँ। जब खालिस्तानी खतरा शुरू से ही किसानों के आंदोलन में मौजूद था, फिर अब कृषि कानूनों को चुनाव से पहले वापस लिए जाने की घोषणा क्यों हुई? क्या इससे इशारा नहीं मिलता कि चुनाव जीतने के लिए ऐसा किया गया है?
कृषि कानूनों की वापसी विधानसभा चुनावी जीत के लिए?
इस घोषणा का जो समय है, वही इस बात को बल देता है कि 2022 में पंजाब और उत्तर प्रदेश में होने वाले विधानसभा चुनावों में राजनीतिक फायदे के लिए तीनों कृषि कानूनों को वापस लिया गया। लेकिन, घोषणा की टाइमिंग ही ऐसा भी इशारा करती है कि ये कारण नहीं भी हो सकता है। अगर पंजाब-यूपी विधानसभा चुनाव जीतने ही इस फैसले का कारण है, फिर तो काफी खराब समय पर घोषणा की गई।
4 महीना भारतीय लोकतंत्र में एक लंबा समय होता है और कोई मंझा हुआ राजनेता विपक्ष को फिर से रणनीति बनाने के लिए इतना लंबा समय नहीं दे सकता। ममता बनर्जी ने इसी चतुराई को अपना कर भाजपा को मात दी थी, जब पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव से कुछ ही दिनों पहले खबर आई थी एक हमले में उनका पाँव टूट गया है। पैरों में प्लास्टर लगा कर वो अस्पताल में भर्ती हुईं और वहाँ से कई तस्वीरें मीडिया में सामने आईं। भाजपा समझ नहीं पाई कि इस ‘पीड़िता महिला कार्ड’ के जवाब में उनकी पोल खुले जाए, उनका मजाक उड़ाया जाए या फिर किसी अन्य महिला नेता को आगे कर के इसे ड्रामा साबित किया जाए। लेकिन, अगर आप कुछ हैरानी भरा लेकर सामने आना चाहते हैं तो इसके लिए उचित समय किसी चुनाव से कुछ ही दिन पूर्व तक होता है। ये वो समय होता है, जब विरोधी भी लड़खड़ा जाते हैं।
दूसरी बात ये है कि राष्ट्र को सम्बोधित करते हुए टीवी पर ये घोषणा क्यों की जाएगी? ये आपके लिए खुद परेशानी भरा होगा, क्योंकि आप इससे और कमजोर नजर आएँगे। चुनाव के तारीखों की घोषणा होने के बाद किसी रैली में जनता के सामने भी तो ऐसा किया जा सकता है? लोहरी के दिन पूर्व मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह के साथ पंजाब की किसी रैली में भी तो ये घोषणा की जा सकती थी? लोहरी का त्योहार जब और कृषि से जुड़ा हुआ है। साथ ही ये ऐसे समय पर आ रहा है, जब पंजाब में विधानसभा चुनाव नजदीक होगा। भाजपा और अमरिंदर सिंह की नई पार्टी के गठबंधन के साथ ये घोषणा हो सकती थी। ऐसा कुछ कर के आप अपने विपक्ष को बड़ा झटका दे सकते हैं। विपक्ष और आपके समर्थक इस फैसले पर वैसे भी आपकी आलोचना करते, फिर कम से कम टाइमिंग तो सही होती?
भाजपा के रणनीतिकार, जिन पर अक्सर आरोप लगते रहते हैं कि वो चुनाव जीतने पर ही अपना ध्यान केंद्रित रखते हैं, निश्चित रूप से इस घोषणा के फायदों और नुकसान पर विचार-विमर्श कर सकते हैं। अगर पंजाब और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के असंतुष्ट किसानों को मनाना इस घोषणा का लक्ष्य है, फिर तो इसकी टाइमिंग बिलकुल भी सही नहीं है।
कुछ न कुछ तो ऐसा ज़रूर है, जिस कारण चुनाव से इतना पहले ही भाजपा ने तीनों कृषि कानूनों को वापस लेने की अचानक से घोषणा करने को मजबूर कर दिया। इस महीने की शुरुआत में हुए कुछ राज्यों के उपचुनाव में भाजपा का प्रदर्शन मिलाजुला रहा था। वहाँ से भी कुछ ऐसा इशारा नहीं मिलता कि उपचुनावों के परिणाम के कारण ऐसा हुआ होगा।
हालिया उपचुनाव के दौरान एकमात्र विधानसभा क्षेत्र जहाँ किसान प्रदर्शनकारियों का असर था, वो था हरियाणा का एलेनाबाद। यहाँ के विधायक INLD के अभय सिंह चौटाला ने कृषि कानूनों का विरोध करते हुए ही अपने पद से इस्तीफा दिया था। फिर से उनकी ही जीत हुई। लेकिन, भाजपा का प्रदर्शन उतना बुरा नहीं रहा जितना यहाँ 2019 के विधानसभा चुनाव में रहा था। उलटा उसे पहले से ज्यादा ही वोट मिले। इसके परिणाम उतने हैरान करने वाले नहीं थे कि आपात स्थिति में भाजपा इस तरह की कोई घोषणा कर दे। केवल पश्चिम बंगाल और हिमाचल प्रदेश से भाजपा के लिए बुरी खबर आई। हिमाचल प्रदेश में भाजपा को एक भी सीट नसीब नहीं हुई। हालाँकि, इन दोनों ही राज्यों में ‘किसान आंदोलन’ का कोई असर नहीं था और हार का कारण कृषि कानून नहीं थे।
घोषणा की टाइमिंग पंजाब से ज्यादा सिखों को लेकर
अगर इरादा पंजाब और उत्तर प्रदेश चुनावों को जीतने का है तो ये समय ठीक नहीं है। हालाँकि समय ये बताता है कि क्या प्राप्त करने की कोशिश हो रही है। प्रधानमंत्री ने इस घोषणा के लिए गुरु परब का अवसर चुना, सिख धर्म के संस्थापक गुरु नानक देव के जन्मदिन वाला दिन। ये विचार सिख भावना से जुड़ने का या उन्हें खुश करने का है।
अब कोई ये भी तर्क दे सकता है कि अगर उद्देश्य पंजाब चुनाव नहीं जीतना है तो सिख भावना और जाट-सिख भावना को किस वजह से खुश किया जा रहा है? ये जरूरी नहीं। अगर ऐसा होगा तो ये बीजेपी के लिए बोनस होगा (मुझे नहीं लगता कि इससे पार्टी को लाभ होगा और ये हम आज से आने वाले 4-5 माह में देख लेंगे), लेकिन पहला उद्देश्य चुनाव जीतना नहीं है क्योंकि जैसे मैंने ऊपर समझाया कि ये समय उस लक्ष्य प्राप्ति का नहीं।
तो सरकार खालिस्तानी हैंडलर के बहकावे में आ गई है? या ये ख़ुफ़िया विफलता है? ख़ुफ़िया एजेंसियों को कैसे नहीं पता था कि खालिस्तानी इस किसान प्रदर्शन को अपना एजेंडा चलाने के लिए इस्तेमाल करेंगे? इसके मिश्रित जवाब हैं।
जाहिर तौर पर सरकार ने इसे होते नहीं देखा और वे इसे मानने की स्थिति में भी नहीं हैं। ये वो बदलाव थे जो हर पार्टी माँग रही थी और हर पार्टी ने इसके लिए वादा दिया। लेकिन बाद में ये लोग पलट गए। यहाँ तक कि तथाकथित बुद्धिजीवी भी सिर्फ ‘सरकार के बर्ताव’ में गलतियाँ निकाल पा रहा था न कि लाए गए कृषि कानूनों में। शिरोमणि अकाली दल ने भी यू टर्न लिया और एक मुद्दा पूरे पंजाब का मुद्दा बन गया और कुछ ही समय बाद इसे खालिस्तानियों द्वारा सिख मुद्दा बना दिया गया जो लंबे समय से ‘जनमत संग्रह 2020’ पर काम कर रहे थे। हमें लगा कि ये कुछ हास्यास्पद सी चीज है कि कुछ सिख लंदन और कनाडा में बैठकर इसके सपने देख रहे हैं। लेकिन हम गलत थे।
सरकारी एजेंसियों को निश्चित तौर पर खालिस्तानी खतरा महसूस हुआ, उन्होंने इसे गौर भी करवाया लेकिन जब उन्होंने ये सब किया तो उस समय उनपर किसानों को बदनाम करने का आरोप लग गया। हम लोग नहीं जानते कि शुक्रवार को गुरु परब के दिन किसानों के सामने हार मानने से पहले इतने महीनों में कितनी बार इस (खतरे) को निपटाने की कोशिश हुई। हम शायद कभी नहीं जान पाएँगे, क्योंकि राष्ट्रीय सुरक्षा के मुद्दों और विशेष रूप से इसका मुकाबला करने की रणनीतियों पर सार्वजनिक रूप से चर्चा नहीं की जाती है। वर्गीकृत सूचनाएँ और, इससे दूसरों को अपनी थ्योरी बुनने के अवसर मिलेंगे।
जो जानकारी पब्लिक डोमेन में है वो एक ऐसे परिदृश्य को चित्रित करती है जहाँ सरकार ने इस खतरे- पंजाब में खालिस्तानियों की वापसी, से निपटने के लिए पीछे हटने को सबसे अच्छा तरीका समझा। ये फैसला या तो बड़ी जीत की ओर जाना चाहिए या फिर युद्ध को जीतने के लिए एक लड़ाई हारने पर। और वह बड़ी जीत चुनावों में जीत नहीं हो सकती है या कोई ऐसा बैकडोर भी नहीं हो सकती जिसके जरिए दोबारा कानून को पेश किया जा सके। अगर ये पीछे हटना राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए हुआ है, तो बड़ी जीत भी राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए होनी चाहिए।
और यहीं पर असली चुनौती है। ये रणनीति खालिस्तानी तत्वों को प्रोत्साहित ही करेगी। अगर मुस्लिमों का तुष्टिकरण कभी काम नहीं आया तो जाट सिखों का तुष्टिकरण क्यों काम आएगा?
हिंदू-सिख संबंध
मुझे पता है कि ऐसी चिंताएँ हैं कि यह एक गलत मिसाल कायम कर सकता है। गलत मिसाल मसलन अन्य समूह भी अपनी माँगों को पूरा करने के लिए हिंसा और भीड़तंत्र वाली शक्ति का प्रदर्शन करना शुरू कर देंगे। दुर्भाग्य से हमारा देश हमेशा से ऐसा ही रहा है।
विभिन्न समूहों के लिए आरक्षण या किसी भी क्षेत्र की माँग हमेशा से व्यापक हिंसा के बाद लगभग पूरी हुई ही है। संविधान में किया गया पहला संशोधन ही एक तरह से हिंसा को वैध बना दिया। इसी के कारण अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर ‘उचित प्रतिबंध’ लगाने की व्यवस्था की गई, क्योंकि कुछ लोग किसी अन्य की स्वतंत्र अभिव्यक्ति के बाद पागल होकर बसों को जलाने निकल पड़ते थे। उसके बाद यह नियम तो नहीं बना लेकिन पैटर्न जरूर सेट हो गया।
मेरी चिंता इस बारे में नहीं है कि दूसरे समूह भी इसका अनुसरण करेंगे, वे पहले से ही कर चुके हैं। CAA को लेकर पहले दिन से ही हिंसा हो रही थी। पश्चिम बंगाल, उत्तर प्रदेश, बिहार और अन्य जगहों पर हिंसक घटनाएँ हुईं और फिर 2020 के दिल्ली दंगे भी हुए। मैं कुछ ऐसा लिख जाऊँगा, जो प्रकाशित ही नहीं होगा लेकिन संक्षेप में कहूँ तो अगर कोई सरकार सोचती है कि कुछ लोगों पर गोलियाँ चलाई जा सकती हैं, तो चलती हैं (न केवल सरकारें, यहाँ तक कि पत्रकार भी सोचते हैं कि कुछ लोगों पर गोलियाँ चलाई जा सकती हैं)। जैसा होता आया है, मौजूदा सरकार सिखों के साथ वह जोखिम नहीं उठाना चाहती। और मेरी चिंता यही है – आगे क्या? हमने निश्चित रूप से रक्तपात होने के समय को कुछ देर के लिए टाल दिया है, लेकिन क्या हमने इस विकराल समस्या को हल करने की योजना भी बना ली है?
खालिस्तानी समस्या को हल करना मृत-समान है और पहले इसे हल करने की सोच से अब यह आगे जा चुका है… और हमारी आँखें खोलने के लिए हमें ‘किसान को धन्यवाद’ जरूर कहना चाहिए। फिर भी अगर कोई इसकी कोशिश कर रहा है तो निश्चित रूप से वो सिख वर्चस्ववादी मानसिकता के मुद्दे को हल करने की कोशिश कर रहा है, जो हिंदू-सिख संबंधों को लेकर विकृत दृष्टिकोण रखता है। मुझे नहीं पता कि इसके लिए सरकार या भाजपा की क्या योजना है, लेकिन मुझे आशा है कि वे राम स्वरूप की पुस्तक “हिंदू-सिख संबंध” पढ़ेंगे, जो संयोग से पार्टी की वेबसाइट (यहाँ क्लिक करें) पर उपलब्ध है।
यह पुस्तक पूरे इतिहास के उस हिस्से को विस्तार से बताती है कि कैसे सिख धर्म का एक प्रमुख हिस्सा हिंदू धर्म के एक संप्रदाय होने से दूर होता गया। इतना ही नहीं, हिंदू धर्म से दूर होते-होते यह ऐसा रूप ले लिया, जिसमें अब्राहमिक धर्म (एक खुदा, एक भगवान वाला) की छवि दिखने लगी। इतना ही नहीं, इस पुस्तक से आप जान पाएँगे कि कुछ सिखों, विशेषकर जाट सिखों के बीच यह वर्चस्ववादी मानसिकता क्यों मौजूद है।
यह पुस्तक उस समय प्रकाशित हुई थी, जब पंजाब में सिख उग्रवाद चरम पर था। संयोग से इसमें यह उल्लेख भी है कि कैसे कृषि मुद्दों ने तब पूरी प्रक्रिया में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी (और जैसा कि कहते हैं, इतिहास दोहराता है, अब हमारे सामने फिर से ‘कृषि कानून’ के माध्यम से वही एजेंडा बढ़ाया जा रहा है)। मैं इस पुस्तक के केवल तीन पैराग्राफ आपके सामने रख रहा हूँ, ये एक तरह से वर्तमान समस्या के साथ-साथ आने वाली चुनौती को भी दर्शाते हैं:
पिछले दो दशकों में, अलगाव करने वाला एक अन्य कारक भी चुपचाप काम कर रहा है। हरित क्रांति और कई अन्य कारकों की वजह से सिख अपेक्षाकृत अधिक समृद्ध हो गए हैं। इसके बाद उन्होंने यह देखना-समझना शुरू कर दिया है कि हिंदुओं के साथ बंधन (मतलब हिंदू धर्म का ही संप्रदाय) उनके लिए पर्याप्त नहीं है। इसी सोच के साथ वे अपने नाम और प्रतीकों में आसानी से उपलब्ध नई पहचान की तलाश करने लगे। यह एक मानवीय कमजोरी है, अप्रत्याशित या अचंभित होने जैसा कुछ नहीं।
राम स्वरूप की पुस्तक “हिंदू-सिख संबंध” से
“आप हमारे रक्षक रहे हैं” – यह बात हिंदू सिखों को बताते रहे हैं। लेकिन वर्तमान समय में (या कह लें वर्तमान मनोविज्ञान काल में), प्रशंसा से केवल अवमानना मिलती है – और मेरा मानना गलत नहीं है। आत्म-निराशा किसी मित्र या भाई को खोने का पक्का तरीका है। यह हिंदुओं के साथ हुआ। दूसरी ओर सिखों को इससे अलग लेवल के आत्म-मूल्यांकन (अतिरेक वाला) का मौका मिला।
इस मनोविज्ञान के दबाव में – बनावटी शिकायते गढ़ी गईं; ऐसे चरमपंथी नारों को लाया गया, जिसके साथ नरमपंथी तबकों को भी चलना पड़ा। पिछले कुछ सालों में हत्या की राजनीति भी शुरू हो गई। कहीं कोई रोक नहीं, कहीं से कोई शिकंजा नहीं… अंततः इसे कहाँ रुकना है… नहीं पता था; यह अपने आप में एक कानून बन गया; यह हुक्म चलाने लगा, धमकाने लगा।
और अब हम सब इसी समस्या के सामने खड़े हैं। इस खौफ पर कैसे काबू पाया जाए, यह अभी का सबसे बड़ा सवाल है। सिर्फ सरकार ही नहीं, बल्कि हिंदू समुदाय को भी इस समस्या को समझने की जरूरत है। मुझे आशा है कि इसके लिए एक योजना तो है। और मुझे यह आशा भी है कि जिनके पास यह योजना है, उन्होंने राम स्वरूप को पढ़ा होगा। और हाँ, मेरे प्रिय पाठक, आप भी पढ़ सकते हैं।
(यह लेख OpIndia पर राहुल रौशन के अंग्रेजी लेख का हिंदी अनुवाद है। ओरिजिनल लेख आप यहाँ क्लिक कर के पढ़ सकते हैं।)