यूँ तो रवीश कुमार की पत्रकारिता भीतर से जंग खाकर खोखली हो ही चुकी है, लेकिन इस खोखले पाइप पर भी तर्कों के हमले करते हुए, इसे छिन्न-भिन्न करना ज़रूरी है। इसके दो परिणाम हो सकते हैं। पहला यह कि रवीश कुमार सुधर कर सही पत्रकारिता करने लगेंगे, या, दूसरा यह कि माइक को पॉलिथीन से लपेटकर बक्सा में बंद करके रख देंगे, और हिमालय या, जो भी पहाड़ सेकुलर लगे, उधर को निकल लेंगे।
ये मेरी रवीश शृंखला का तीसरा हिस्सा है। पहले दो हिस्से में मैंने उनके ‘द वायर’ वाले साक्षात्कार में की गई फर्जी बातों को यहाँ और यहाँ लिखा है। इस कड़ी में हम उनके उसी साक्षात्कार के उन हिस्सों पर बात करेंगे जहाँ वो वैकल्पिक मीडिया के उभरने की बात करते हैं, और उसकी परिभाषा बताते हैं। आप लोग यह न समझें कि मैं उनके एक लेख से प्रतिस्पर्धा में हूँ, जिसका ब्रह्मांड की सतहत्तर करोड़ भाषाओं और बोलियों में अनुवाद हो चुका है। मेरा प्लान बस छः हिस्सों में उनकी बातों पर बात करने का है।
टीवी न देखने की बात करने वाले रवीश कुमार ने न तो टीवी पर जाना बंद किया है, न ही प्रोपेगेंडा के टायरों से जलने वाली आग पर फरेबों के पॉलिथीन फेंककर उसे लगातार प्रज्ज्वलित करने में कोताही बरती है। बस कह कर निकल लिए कि टीवी मत देखिए। कहना यह था कि ‘मेरा टीवी देखिए, बाकी चैनल मत देखिए ताकि मेरे मालिक श्री रॉय साहब पर जो मनी लॉन्ड्रिंग का मामला चल रहा है, उसका खर्चा निकलता रहे।’ लेकिन कोई इतना खुलकर कैसे कह देगा!
ख़ैर, वैकल्पिक मीडिया की परिभाषा बताते हुए श्री रवीश कुमार जी ने कहा कि ‘वैकल्पिक मीडिया को खड़ा करना पड़ेगा जो कि नैतिकता वाली, साफ पैसा वाली हो’। ज़ाहिर है कि पैसा साफ किसका है, यह फ़ैसला रवीश जी ही करेंगे क्योंकि दूरदर्शन के शो के टेप चुराकर, सूटकेसों को अहाते से बाहर फेंककर ले जाने वाले प्रणय रॉय द्वारा शुरू किए एनडीटीवी का पैसा कितना साफ है, वो सबको पता है। ये वाक़या आपको कोई भी मीडिया जानकार बता देगा, फिर भी मैं इस बात के सत्य होने की पुष्टि वैसे ही नहीं करूँगा जैसे सेक्स रैकेट वाले ब्रजेश पांडे की पुष्टि एनडीटीवी या रवीश ने नहीं की थी।
नैतिकता की बात करने की पहली शर्त स्वयं की नैतिकता और आदर्श होते हैं। जो आदमी नौकरी कर रहा हो, पूरा जीवन खोजी पत्रकारिता और ख़बरों को सूँघने में निकल गया हो, उसे अपने मालिक की सच्चाई मालूम होने के बाद भी, केस का फ़ैसला जो भी आए, वहीं होकर नैतिक शिक्षा का पाठ पढ़ाता हो, तो सही नहीं लगता। केस तो न मोदी पर साबित हुए, न राफेल पर, न जय शाह पर, न डोभाल पर, लेकिन आपने कितने प्राइम टाइम न्योछावर कर दिए, फिर आप प्रणय रॉय वाले एनडीटीवी में क्यों हैं? नैतिकता आपको वहाँ से बाहर निकलने क्यों नहीं कहती?
आगे आपने एंकरों के डर के बारे में कहा है कि उन्हें डर लगने लगा है। ग़ज़ब की बात यह है कि इस ‘डर’ की बात वो व्यक्ति कर रहा है जिसने 2014 के बाद एक भी रात बिना सत्ता को आड़े हाथों लिए नहीं बिताई है। आपने तो डर का माहौल और आपातकाल की बात करते हुए तमाम प्राइम टाइम किए हैं, मुझे तो याद नहीं कि आप पर वॉरंट निकला है, या आपका फेसबुक अकाउंट सस्पैंड करा दिया गया। फिर एंकरों को किस डर की बात कर रहे हैं आप?
कितने पत्रकारों को सरकार ने जेल में डाल दिया है? थूक कर भागने वाली नीति अपनाने वाले लोग आज भी भर मुँह थूक लिए घूमते हैं, और पूरे देश में हर जगह थूकते फिर रहे हैं। सरकार अपनी गति से काम कर रही है, आप सब अपनी गति से। आप कहते हैं कि पेपरों में खबरें बंद हो गई हैं। पहली बात तो यह है कि द हिन्दू वाले मस्त राम से लेकर इंडियन एक्सप्रेस तक, जब मौका मिलता है खबरें छाप ही रहे हैं। आपने पढ़ना बंद कर दिया है, तो वो बात अलग है।
दूसरी बात यह भी है कि आपको घोटालों की ख़बर पढ़नी है, और आपके दुर्भाग्य से घोटाले हुए नहीं। आपने जो दो-चार फर्जीवाड़े गढ़े जिसे आपने इसी इंटरव्यू में ‘बड़ी खबरें वायर, स्क्रॉल और कैरेवेन से आई हैं’ कह कर जो कहानियाँ याद कराईं, वो तो जासूसी धारावाहिक कहानियाँ साबित हुईं। अंग्रेज़ी में तो ख़बरों को स्टोरी कहते हैं वैसे, लेकिन वायर, स्क्रॉल और कैरेवेन में तो सच्ची वाले कहानीकार भर्ती हो रखे हैं।
अब बड़ी ख़बरों और वैकल्पिक मीडिया की बात से मैं आपको ऑपइंडिया द्वारा किए गए 3-4 बड़े ख़ुलासों की तरफ ले जाना चाहूँगा जिसमें राहुल गाँधी, सोनिया गाँधी, रॉबर्ट वाड्रा और प्रियंका गाँधी की कई ज़मीन डील, राफेल और यूरोफाइटर की लॉबीइंग, सोनिया के बहनोई और बोफ़ोर्स का कनेक्शन और राहुल गाँधी के चुनावी हलफनामे में FTIL और फ़ार्महाउस का नाम आया।
सबके सबूत भी हमने लगाए, एक दो मीडिया हाउस में ख़बर भी चली जिसमें आपका चैनल या फेसबुक शामिल नहीं था, फिर सवाल यह है कि क्या आप तक यह ख़बर नहीं पहुँची, या आपने इसे इग्नोर किया? हमें आपके इग्नोर करने पर कोई आपत्ति नहीं है, लेकिन ज्ञान मत दिया कीजिए ज़्यादा कि बड़ी खबरें कहाँ से आ रही हैं। इसी को हिन्दी में दोमुँहापन कहा जाता है।
आपने नहीं चलाया क्योंकि आपको ये सूट नहीं करता। आपके नैरेटिव में यह फ़िट नहीं बैठता। एक न्यूज पोर्टल की ख़बर छुप सकती है लेकिन जेटली, ईरानी और रविशंकर प्रसाद का प्रेस कॉन्फ़्रेंस एक पत्रकार की नज़रों में न आए, ऐसा मानना मुश्किल है। इसलिए, नैतिकता और आदर्श का ज्ञान बिलकुल मत दिया कीजिए।
आपने जो एक फर्जी परिभाषा गढ़ ली थी मीडिया की कि मीडिया का काम सत्ता की आलोचना है, वो बेहूदी परिभाषा है, भटकाने वाली परिभाषा है। मीडिया का काम सत्ता नहीं, लोकतंत्र का वाच डॉग बनना है। उसे सत्ता और विपक्ष की कमियों और उनके बेहतर कार्यों, दोनों को मैग्निफाय करके जनता तक लाना है। मीडिया अगर सत्ता के अभियानों में सहयोग नहीं करेगी तो न तो स्वच्छता अभियान सफल होगा, न बेटी पढ़ाओ।
आपने सत्ता की आलोचना को अपनी घृणा के सहारे खूब हवा दी, लेकिन आपने देश के नकारे विपक्ष और एक परिवार पर एक गहरी चुप्पी ओढ़े रखी। इसको अंग्रेज़ी में कन्विनिएंट साइलेन्स कहते हैं। यहाँ आप न्यूट्रल नहीं हो रहे, यहाँ आप जानबूझकर एक व्यक्ति का पक्ष ले रहे हैं ताकि उसकी छवि बेकार न हो। वरना आपकी छवि तो ऐसी रही है कि कोई भी व्यक्ति, कुछ भी, बिना किसी सबूत या आधार के मोदी या मोदी सरकार के खिलाफ बोलता है तो आपकी लाइन होती है, ‘जाँच तो होनी ही चाहिए, जाँच में क्या हर्ज है’। फिर पूरा प्राइम टाइम न सही, तीन मिनट अंत में ही बोल देते कि राहुल गाँधी पर सरकार जाँच क्यों नहीं करा रही?
आपने नहीं बोला क्योंकि आपको पता है कि कन्विक्शन तो बाद में होगा, पहले चुनावों के समय कॉन्ग्रेस की छवि खराब हो जाएगी, और आपके भक्तगण आपको संघी कहकर गरिया लेंगे। इसीलिए, आप बिहार पर खूब ज्ञान दे देते हैं कि ‘मेरा बिहार जल रहा है’ लेकिन उसी रामनवमी पर या अन्य धार्मिक मौक़ों पर बंगाल में सम्प्रदाय विशेष की भीड़ जब उत्पात मचाती है, तो आप लिखने से कतराते हैं, और लिखते भी हैं तो ममता बनर्जी का नाम तक नहीं ले पाते।
ख़ैर, रहने दीजिए, आपके हर लाइन पर एक लेख लिख सकता हूँ, लेकिन समयाभाव है। आपने राफेल पर खूब ढोल पीटा कि छपेगा ही नहीं तो दिखेगा कैसे? जबकि सत्य यह है कि आपको घमंड हो गया है कि आप जिस बात में विश्वास करते हैं, आप जो कह देते हैं, वही सार्वभौमिक सत्य है भले ही उस पर सुप्रीम कोर्ट ने अपना निर्णय दे दिया हो। आपके लिए सुप्रीम कोर्ट तभी सही लगता है जब आपके मतलब की बात हो रही हो, वरना वो लाल बलुआ पत्थरों की एक इमारत है जहाँ काले कोट में कुछ लोग आते और जाते हैं।
समस्या यह नहीं है कि ‘छपेगा नहीं तो दिखेगा कहाँ’, बल्कि इसके उलट समस्या यह है कि ‘जब है ही नहीं, तो छपेगा कैसे’। रवीश जी उस युग में हिट हुए पत्रकार हैं जब हर महीने किसी नेता पर डकैती का इल्जाम लगता था, इसलिए उनके लिए यह मानना मुश्किल है कि इस सरकार में कुछ हुआ ही नहीं। मैं उनकी बात समझ सकता हूँ क्योंकि दुकान बंद होने के कगार पर है, और नकारात्मकता बिक नहीं रही। इसलिए कई बार आपातकाल आकर अब इतनी दूर चला गया है कि बुलाने पर भी नहीं आ रहा।
रवीश जी रुकते नहीं। एक अथक मीडियाकर्मी होने के कारण वो लगातार छिद्रान्वेषण की राह पर चलते रहते हैं। इसलिए, अमित शाह के पुत्र और अजित डोभाल के पुत्रों पर लगातार लांछन लगाने के बाद जब पोर्टलों पर मानहानि का दावा लगाया गया तो बिलबिला गए। कहने लगे कि पत्रकार का काम केस लड़ना नहीं है और ऐसा करके सरकार उनका मुँह बंद करना चाहती है।
जबकि वो भूल गए कि कोर्ट सरकार के भीतर कार्य नहीं करती। प्रभावित पार्टी कोर्ट गई, और उसने अपनी मानहानि का दावा ठोका। अब कोर्ट को लगे कि वह गलत है, तो वो अपना फ़ैसला देगी। रवीश ने जज को ही लपेट लिया कि आखिर जज ने ‘मानहानि को कैसे बर्दाश्त किया, नेता को जजों ने कैसे बर्दाश्त किया’ कह कर।
यहाँ रवीश जी स्वयं ही संविधान का अवतार बन गए क्योंकि संविधान में न्यायपालिका के अधिकार हैं जिसमें वो ये तय करती है कि क्या सही है, क्या गलत। लेकिन यहाँ रवीश तय कर रहे हैं कि क्या सही है, और क्या गलत होना चाहिए। फिर उन्होंने सवा रुपए की मानहानि की बात की है। वो यह भूल गए कि जिस अम्बानी, अडानी, टाटा, बिरला या किसी भी उद्योगपति पर घोटालों और भ्रष्टाचार के आरोप लगते हैं, उनकी कम्पनी का स्टॉक एक मिनट में कितना गिर सकता है। इसलिए, भले ही रवीश कुमार का मान सवा रुपए लायक हो, लेकिन हर व्यक्ति का नहीं क्योंकि वाक़ई किसी के मान से उसकी कम्पनी का स्टॉक क्रैश कर सकता है, और हजारों लोगों की नौकरियाँ जा सकती हैं।
अब रवीश कुमार की स्थिति यह है कि उन्होंने जो भी कमाई की थी, उसका अधिकतर कैपिटल बह चुका है। अब कुछ लोग उनके भक्त बन गए हैं, जो उनकी हर बात को सही ही मानते हैं। इन्हीं तरह के भक्तों की बात उन्होंने इसी इंटरव्यू में की थी, जबकि ग़ज़ब की बात यह है कि जब वो यह बोलने लगे कि हर चैनल का अपना एक दर्शक समूह है, जो दर्शक नहीं समर्थक है, तो मुझे इन्हीं का चेहरा याद आ रहा था कि देखो, कितना ईमानदार आदमी है। इनकी ईमानदारी की दाद मैं दे देता अगर ये टीवी न देखने की सलाह देने के बाद, स्वयं उस स्टूडियो से ‘नमस्कार, मैं रवीश कुमार’ वाली लघु कविता कहना बंद कर देते। लेख की चौथी कड़ी में हम रवीश कुमार के ब्रह्मज्ञान के कुछ और बिन्दुओं पर चर्चा करेंगे।