Tuesday, October 1, 2024
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भारत के मुस्लिमों को पाकिस्तान भेज दो: सुप्रीम कोर्ट में याचिका पर जज साहब ने लिए ‘मजे’

भारत एक लोकतांत्रिक देश है। हर प्रकार की कला-संस्कृति को फलने-फूलने का एकसमान अवसर मिलता है यहाँ। अभिव्यक्ति की आजादी भी है यहाँ। लेकिन कुछ विकृत मानसिकता वाले लोग भी यहाँ मौजूद हैं, जो अपनी उल-जलूल हरक़तों से बाज नहीं आते और अधिकारों का हवाला देकर अक्सर ऊट-पटांग सवाल कर बैठते हैं जिनका कोई औचित्य ही नहीं होता।

ऐसा ही एक मामला देश की शीर्ष अदालत की चौखट तक पहुँचा, जिसमें भारतीय मुस्लिमों को पाकिस्तान भेजने की माँग करने संबंधी एक याचिका सामने आई। इस याचिका पर न्यायमूर्ति रोहिंग्टन एफ नरीमन की अध्यक्षता वाली पीठ ने कड़ा रुख़ अख़्तियार किया और याचिकाकर्ता की ओर से पेश हुए वकील से पूछा कि आपको अंदाज़ा भी है ये किस तरह की याचिका है? पीठ ने लगभग चेतावनी देते हुए यह भी कहा कि हम दलील सुनने के लिए तैयार हैं लेकिन आप इसका अंजाम भुगतने के लिए तैयार रहिएगा। इस पर याचिकाकर्ता के वकील ने दलील पेश न करने में ही भलाई समझी। इसके बाद कोर्ट ने उस याचिका को ख़ारिज कर दिया।

कोर्ट से परे भी चले ख़ारिज वाला डंडा

आइए अब लौटते हैं इस तरह की मानसिकता वाले लोगों पर। ऐसे लोग प्रमाणित करते हैं कि खाली दिमाग वाकई शैतान का होता है और उसी दिमाग की उपज होती है इस तरह की वाहियात याचिकाएँ। ऐसा ही कुछ ‘सूचना के अधिकार (RTI)’ नियम के साथ भी होता है। इसके तहत कई बार ऐसी सूचनाएँ माँगी जाती हैं, जिनका कोई सिर-पैर ही नहीं होता।

ख़ासतौर पर प्रधानमंत्री कार्यालय का RTI विभाग आए दिन अजीबोगरीब आवेदनों से परेशान है। माँगी गई जानकारियों की जरा लिस्ट देखिए। और सोचिए कि इस तरह की जानकारियों का भला क्या मक़सद हो सकता है!

  • प्रधानमंत्री कार्यालय में कितने सिलेंडर इस्तेमाल होते हैं
  • वहाँ सब्ज़ी कौन लाता है
  • पीएम मोदी कौन सा मोबाइल इस्तेमाल करते हैं
  • पीएम मोदी को खाने में क्या पसंद है

ऐसा ही एक मामला सेंट्रल बैंक से भी है। यहाँ RTI के माध्यम से सूचना माँगी गई कि कितने पोल्ट्री फार्म्स में Battery Cages का प्रयोग किया जाता है। बता दें कि Battery Cages उन पिंजरों का संग्रह होता है, जिसका उपयोग अण्डा देने वाली मुर्गियों के आवास के लिए किया जाता है।

इस सूचना का जवाब देने के लिए एक लंबी प्रक्रिया का पालन करना पड़ेगा। बैंक इसके लिए विभिन्न स्तरों पर जानकारी जुटाएगा, तब जाकर इसका जवाब जानकारी माँगने वाले तक पहुँचाया जाएगा। सूचना माँगने वाले को तो शायद इस बात का अंदाज़ा भी नहीं होगा कि एक लाइन में माँगी गई जानकारी को जुटाने में बैंक का कितना समय बर्बाद होगा। फिर अगर कोई त्रुटि या देरी हो जाए तो यह कहने में देरी नहीं होगी कि बैंक कोई काम ही नहीं करता।

कई बार RTI का दुरुपयोग भी होता है, जिसका इस्तेमाल ब्लैकमेल करने के लिए किया जाता है। बेहतर होता कि RTI के सही इस्तेमाल पर ध्यान दिया जाए। फिर भी अगर इस तरह के वाहियात और बेबुनियाद सवाल पूछे जाते हैं तो उनका जवाब भी उसी ढंग से देना चाहिए, जिससे पूछने वाले को उसका स्तर पता चल सके।

तुम बदसूरत हो, मर्दों जैसी दिखती हो; कोई तुम्हारा बलात्कार क्यों करेगा – रेप पीड़िता से महिला जजों की बेंच

बलात्कार शब्द जेहन में आते ही सामान्य तौर पर किसी लड़की की ही छवि उभर कर सामने आती है, ये सोचकर कि उसके साथ किसी लड़के ने दुष्कर्म किया होगा। आम तौर पर लोग यही सोचते हैं कि रेप सिर्फ लड़कियों का ही होता है, लड़कियाँ सुरक्षित नहीं है। मगर ऐसा नहीं है। आज की दुनिया में, इस समाज में कोई भी इंसान सुरक्षित नहीं है। ना तो लड़के, ना लड़कियाँ, ना महिलाएँ और ना ही बच्चे। हर दिन यौन हिंसाओं जैसी घटनाओं के बारे में सुनने में आता रहता है। आज के दौर में घर हो या फिर सड़क, कहीं पर भी लड़का या लड़की दोनों ही सुरक्षित नहीं हैं। कहीं ना कहीं कोई दरिन्दा अपनी मानसिक विकृति को लेकर हवस का मुंह फैलाए किसी कोने में छुपा होता है और मौका देखकर वो इस जघन्य अपराध को अंजाम दे देता है। या तो इन दरिन्दों को पता नहीं होता है कि वो क्या कर रहे हैं या फिर वो मानसिक रूप से इतने बीमार होते हैं कि वो जान बूझकर ये करते हैं। ऐसा देखा गया है कि दुष्कर्म के मामले में बहुत कम दोषियों को ही सजा मिल पाती है। अधिकतर आरोपी इतना बड़ा गुनाह करने के बाद भी खुले आम घूम रहा होता है, किसी और को अपना शिकार बनाने के लिए। ऐसा नहीं है कि हमारी कानून व्यवस्था कमजोर है, मगर कभी साक्ष्य की कमी की वजह से तो कभी किसी बेतुके से तर्क के आधार पर ये आरोपी बरी हो जाते हैं।

लड़की बदसूरत तो नहीं हो सकता रेप

ऐसा ही एक मामला सामने आया है इटली से। यहाँं साल 2016 में निचली अदालत ने पेरुवियन मूल के 2 लोगों को दुष्कर्म का दोषी करार दिया था। मगर अपीलीय अदालत ने इस फैसला को पलटते हुए दुष्कर्म आरोपी को ये कहते हुए बरी कर दिया कि महिला बदसूरत है और पुरुषों जैसी दिखती है, इसलिए इसके साथ रेप नहीं हो सकता। आपको बता दें कि ये फैसला जजों के उस पैनल ने सुनाया, जिसमें सारी जज महिलाएँ थीं।

क्या होता है बलात्कार?

अब यहाँ पर मन में एक सवाल यह उठता है कि क्या बलात्कार सुंदरता के आधार पर होता है? तो आइए सबसे पहले हम ये जान लें कि बलात्कार होता क्या है?

बलात्कार का मतलब होता है किसी इंसान की सहमति या अनुमति के बिना उसके साथ संबंध बनाना या जबरन किसी फॉरेन ऑब्जेक्ट का पेनिट्रेशन (forceful penetration of foreign object) करना। फिर चाहे वो पुरुष हो, महिला हो, बच्चा/बच्ची हो या फिर कोई प्रौढ़ महिला। कोई भी, कभी भी इसका शिकार हो सकता है। बलात्कार करने वाला इंसान सामने वाला की सुंदरता या उम्र नहीं देखता। ये तो उसकी मानसिक विकृति होती है। वरना क्यों किसी पुरुष, किसी बच्चे/बच्ची या फिर बुजुर्ग महिला के साथ ऐसा होता?

पुरुषों का भी होता है बलात्कार

ऐसा देखा गया है कि लोगों को लगता है कि रेप या बलात्कार केवल महिलाओं के साथ ही होता है। कुछ हद तक इसकी वजह यह भी है कि संचार माध्यमों और समाचारों में हम केवल यही देखते और सुनते हैं कि बलात्कार केवल महिलाओं के साथ ही होता है। पुरुषों के साथ हुए बलात्कार की बातें सामने नहीं आती हैं। लेकिन हम आपको बता दें कि यह पुरुषों के साथ भी होता है। एक पुरुष के साथ शारीरिक शोषण ना सिर्फ एक पुरुष कर सकता है बल्कि एक महिला भी पुरुष का बलात्कार (सेक्स से जुड़े खिलौनों का इस्तेमाल कर) कर सकती है। पुरुषों को भी बलात्कार की शिकार महिला पीड़ित की तरह ही मानसिक पीड़ा से होकर गुजरना पड़ता है। वास्तव में एक पुरुष होने के बावजूद बलात्कार का शिकार होने की शर्म, अविश्वास और इससे जुड़ी शर्मिंदगियों का पुरुषों पर अधिक प्रभाव डालता है। शायद यही वजह है कि आमतौर पर वो इसके खिलाफ शिकायत दर्ज़ नहीं करवाते। इसलिए पुरुषों के बलात्कार से जुड़े बेहद कम आँकड़े दर्ज हुए हैं।

भारत में पुरुषों के साथ रेप पर कोई कानून नहीं

हैरानी की बात तो ये भी है कि भारत, पाकिस्तान सहित चीन, इंडोनेशिया ऐसे एशियाई देश हैं, जहाँ पुरुषों के साथ रेप के खिलाफ कोई कानून नहीं है। भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 354 A, 354 B, 354 C, 354 D के तहत यौन उत्पीड़न, किसी को घूरना, किसी का पीछा करना आदि जुर्म माना गया है। लेकिन ये सभी कानून महिलाओं के पक्ष में है। इसके साथ ही धारा- 375 में भी रेप और उसके खिलाफ कानूनी प्रावधान की बातें कही गई हैं, लेकन यहाँ भी पुरूषों के साथ होने वाले रेप के बारे में कोई बात नहीं कही गई है। मगर चाहे वो महिला हो या पुरुष दोनों को ही पूरा अधिकार है कि वो अपने साथ हुए अन्याय के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाएँ और यह कानून की ज़िम्मेदारी है कि दोनों के सम्मान की पूरी तरह सुरक्षा करे।

बच्चे और बुर्जुर्ग महिला भी अछूते नहीं इस सामाजिक विकृति से

हमारे सामने कई ऐसी खबरें आती हैं, जिसमें हम पाते हैं कि छोटे-छोटे मासूम बच्चे, जिन्होंने अभी-अभी दुनिया को देखना-समझना शुरू किया ही था कि किसी दरिंदे ने उसे अपनी दरिंदगी का शिकार बना लिया। कभी स्कूल में शिक्षकों के द्वारा, कभी रिश्तेदारों-दोस्तों के द्वारा और कभी तो पिता के द्वारा ही इस घटना का शिकार हो जाती है। यानी कि बच्चियाँ अपने घर में भी सुरक्षित नहीं हैं। कठुआ और उन्नाव में बच्चियों के साथ होने वाले दुष्कर्म की घटना भी इसी के उदाहरण हैं, जो कि हमें हिलाकर रख देते हैं। इतना ही नहीं बुजुर्ग महिलाएँ भी महफ़ूज नहीं हैं आज के माहौल में। क्योंकि आए दिन हमें कभी 75 साल की, कभी 80 साल की, तो कभी 85 साल की महिला के साथ भी दुष्कर्म की घटनाएँ सुनने को मिल जाती है, जो हमें सोचने पर मजबूर कर देती है।

MeToo अभियान- यौन शोषण के खिलाफ एक लड़ाई

मी टू एक ऐसा अभियान है, जिसमें महिलाओं ने अपने यौन शोषण के खिलाफ आवाज़ उठाई। ये अभियान एक तरह की लड़ाई थी, जिसमें महिलाएँ अपने ऊपर हुए अत्याचारों के खिलाफ एक जुट होकर लड़ीं और दोषियों को सामने भी लाया। बता दें कि, Metoo की शुरुआत साल 2006 में हुई थी, लेकिन चर्चा में आई यह 2017 में। इसकी शुरुआत अमेरिकी सिविल राइट्स एक्टिविस्ट तराना बर्क ने पहली बार 2006 में की थी। तराना बर्क के खुलासे के 11 साल बाद 2017 में यह सोशल मीडिया में खूब वायरल हुआ।

तराना बर्क के साथ भी हुआ है रेप और यौन उत्पीड़न

भारत में इसकी शुरुआत बॉलीवुड अभिनेत्री तनुश्री दत्ता ने की थी। उन्होंने अभिनेता नाना पाटेकर पर गलत तरीके से छूने का आरोप लगाया था। भारत में ‘मी टू’ अभियान शुरू होने के बाद कई बड़े बॉलीवुड हस्तियों के नाम सामने आए। नाना पाटेकर के साथ ही जिन पर आरोप लगाए गए, उनमें विकास बहल, चेतन भगत, रजत कपूर, कैलाश खैर, जुल्फी सुईद, आलोक नाथ, सिंगर अभिजीत भट्टाचार्य, तमिल राइटर वैरामुथु से लेकर एमजे अकबर और सुहेल सेठ आदि तक का नाम शामिल है।

किसी के भी साथ दुष्कर्म उसकी सुंदरता के आधार पर नहीं होता है। इसलिए इटली की अदालत में जिस बेतुके तर्क के आधार पर दोनों रेप आरोपी को बरी किया गया है, वो वाकई शर्मनाक है। अगर अदालत साक्ष्य ना मिलने के कारण या फिर गुनाह साबित ना हो पाने की वजह से बरी करे तो बात समझ में आती है। मगर इसे ये कहकर कि लड़की बदसूरत है और पुरूषों की तरह दिखती है, इसलिए इसका रेप नहीं हो सकता काफी निंदनीय है। अदालत के इस फैसले के बाद अदालत के बाहर ‘शर्म करो’ के नारे भी लगाए गए। हालाँकि देश भर में इस फैसले के खिलाफ हो रहे प्रदर्शन के बाद न्याय मंत्रालय ने फैसले की जाँच के आदेश दिए हैं।

‘परिवारवाद’ से नहीं उबर पा रही है कॉन्ग्रेस, तीसरी लिस्ट में भी दो बड़े नेता-पुत्र किए गए शामिल

देश में स्वतंत्रता को चाहे कितने ही साल क्यों न बीत जाएँ लेकिन कॉन्ग्रेस को देखकर लगता है कि वो अपनी मूल नीतियों से कभी भी डगमगा नहीं सकती। हमेशा से ‘परिवारवाद’ को बढ़ावा देने वाली कॉन्ग्रेस सरकार में आज भी यह दौर चालू है। पहले इसकी बढ़ती सीमा सिर्फ़ हमें गाँधी परिवार तक ही देखने को मिलती थी, लेकिन अब पार्टी से जुड़े नेताओं में भी ‘परिवारवाद’ के प्रति यकीन देखने को मिल रहा है।

लोकसभा चुनावों को मद्देनजर रखते हुए कॉन्ग्रेस ने शुक्रवार (मार्च 16, 2019) को उम्मीदवारों की तीसरी लिस्ट जारी की। इस लिस्ट में असम, मेघालय, नागालैंड, सिक्किम, तेलंगाना और यूपी की 18 सीटों पर खड़े होने वाले उम्मीदवारों के नाम घोषित किए गए। इस तीसरी सूची में एक नाम तनुज पुनिया का भी है। तनुज पुनिया के बारे में बता दें कि वह यूपी के बाराबंकी लोकसभा सीट से कॉन्ग्रेस के वरिष्ठ नेता और राज्यसभा सांसद पीएल पुनिया के बेटे हैं।

पिछले कुछ दिनों से आंतरिक सर्वेक्षण में पीएल पुनिया का नाम आने के बाद वह माँग कर रहे थे कि उनके बेटे तनुज पुनिया को इस बार टिकट दिया जाए। ऐसे में आखिरकार पार्टी ने अपनी ‘रीत’ को आगे बढ़ाते हुए पी एल पुनिया की माँग सुन ली और तनुज पुनिया के नाम पर मुहर लगाते हुए उन्हें टिकट दे दिया। तनुज के अलावा कलियाबोर से कॉन्ग्रेस के वरिष्ठ नेता तरुण गोगोई के बेटे गौरव गोगोई को भी उम्मीदवार के रूप में उतारा गया है।

स्पष्ट है ‘परिवारवाद’ कॉन्ग्रेस में अब सीमित न रहकर अपने विस्तार की ओर आगे बढ़ रहा है। बाक़ी नेताओं ने भी कॉन्ग्रेस में रहकर इसकी राह पकड़ ली है। बता दें कि इस सूची में इन दोनों उम्मीदवारों के अलावा कॉन्ग्रेस ने असम के करीमगंज से स्वरूप दास, सिल्चर से श्रीमती सुष्मिता देव, जोहराट से सुशांत बोरगोहेन, डिब्रूगढ़ से पवन सिंह घटोवार को टिकट दिया है।

इनके अलावा भरत बसनेट को सिक्किम से प्रत्याशी और केएल चिश्ती को नगालैंड से उम्मीदवार बनाया गया है। पूर्व केंद्रीय मंत्री विंसेट एच पाला को शिलॉन्ग से प्रत्याशी बनाया गया है। तेलंगाना की बात करें तो पेडापल्ली से ए चंद्रशेखर, दिलाबाद से रमेश राठौड़, करीमनगर से पोन्नम प्रभाकर, जहीराबाद से के मदन मोहन राव, मेडक से गली अनिल कुमार, मलकाजगिरी से ए रेवंथ रेड्डी को, कोंडा विश्वेश्वर रेड्डी को चेवेला से जबकि पोरिका बलराम नायक महमूदाबाद से प्रत्याशी बनाया गया है।

कॉन्ग्रेस की वेबसाइट पर सेक्स टेप की तस्वीर, इससे पहले भी अपनी ही पार्टी को कहा था ठगों की पार्टी

कल शुक्रवार (मार्च 16, 2019) को एक खबर आई कि पाटीदार नेता हार्दिक के कॉन्ग्रेस से जुड़ने के बाद पार्टी ने अपनी वेबसाइट पर उनकी सेक्स टेप की तस्वीरों को लगाकर अपने नए नेता का स्वागत किया। लेकिन आज खबर आ रही है कि ऐसा गुजरात कॉन्ग्रेस की वेबसाइट हैक होने के कारण हुआ था। पूरा मामला देखकर लग रहा है जैसे हैकर्स ने सिर्फ़ हार्दिक का ‘ऐसा’ स्वागत करने के लिहाज़ से ही वेबसाइट को हैक किया।

इस घटना के सामने आने के बाद कॉन्ग्रेस पार्टी हरकत में आई और वेबसाइट को तुरंत बंद कराया, इसके बाद नेताओं ने वेबसाइट की जाँच पर बात कही। नवभारत टाइम्स में छपी रिपोर्ट के अनुसार गुजरात प्रवक्ता मनीश दोशी ने उनके सहयोगी अखबार इकनॉमिक टाइम्स से इस मामले पर बात की और बताया कि उनकी वेबसाइट को हैक कर लिया गया है।

मनीष ने बताया कि इस घटना के बाद वेबसाइट को अस्थाई रूप से बंद कर दिया गया है, जाँच के बाद इसे फिर से लाइव किया जाएगा। मनीष का कहना है कि यह हरकत उन लोगों द्वारा की गई है, जो हार्दिक के कॉन्ग्रेस पार्टी में शामिल होने से खुश नहीं हैं।

कुछ दिनों पहले ही, हार्दिक पटेल, जो गुजरात में पाटीदार आंदोलन के दौरान उपद्रव करने के लिए प्रसिद्ध हुए और दंगों के दोषी भी पाए गए, आधिकारिक तौर पर कॉन्ग्रेस अध्यक्ष राहुल गाँधी की उपस्थिति में कॉन्ग्रेस में शामिल हो गए हैं।

ख़ैर, गुजरात कॉन्ग्रेस की आधिकारिक वेबसाइट का अपनी पार्टी कॉन्ग्रेस की ही मिट्टी पलीद करने का एक और भी दिलचस्प इतिहास है। जानकारी के लिए बता दें कि इससे पहले, उन्होंने कॉन्ग्रेस को ठगों की पार्टी कहा था। यह भी कहा था कि पार्टी ने 70 साल तक भारत को लूटा। क्या पता सच गलती से ही सही, लेकिन बाहर आ गया था उस वक्त!

कॉन्ग्रेस औंधे मुँह गिरने को तत्पर, मोदी को कोसने के सिवा नहीं बचा कोई काम

राजनीतिक गलियारे में हड़कंप का माहौल या खींचतान का होना कोई नई और अचंभित कर देने वाली बात नहीं। यह हड़कंप उस समय अपने चरम पर होता है जब देश में चुनाव का माहौल गरमाया हो। चुनावी दौर में आरोप-प्रत्यारोपों का दौर चल निकलता है, फिर भले ही वे आरोप मनगढ़ंत ही क्यों न हों। एक-दूसरे को नीचा और कमतर दिखाने की होड़ लग जाती है। राजनीतिक सभाएँ और रैलियाँ किसी जंग के मैदान से कम नहीं होतीं।

ख़ैर, यह सब तो स्वाभाविक ही है क्योंकि चुनाव में जीत हासिल कर सत्ता पर क़ाबिज़ होना हर कोई चाहता है। इसके लिए सभी अपने-अपने तौर-तरीक़ों का इस्तेमाल करते हैं। सत्ता में दो तरह के लोग आना चाहते हैं, एक वो जो सही मायने में देश-हित चाहते हैं और उसके लिए वे अपनी सटीक रणनीति का इस्तेमाल कर देश को विकास की राह पर ले जाना चाहते हैं, और दूसरे वो जो केवल सत्ता की भूख और लालसा को शांत करना चाहते हैं।

सदमे से उबरने में कॉन्ग्रेस अब तक नाक़ामयाब

फ़िलहाल कॉन्ग्रेस पार्टी का यही हाल है। वो सत्ता खो देने के सदमे से अब तक उबर नहीं पाई है। सदमे से न उबर पाने का एक महत्वपूर्ण कारण उसका पुश्तैनी रूप से राजनीति में बने रहना भी है, जिसकी उसे आदत हो गई थी। जिस तरह घर के बड़े-बुज़ुर्ग अपने पीछे विरासत स्वरूप धन-सम्पत्ति छोड़ जाते हैं और अगली पीढ़ी उस पर अपना हक़ जताकर उसे पूर्णत: अपना मान लेती है ठीक उसी प्रकार कॉन्ग्रेस को भी यही लगता है कि भारतीय राजनीति उनके पुरखों द्वारा छोड़ी गई ऐसी ही कोई विरासत है, जिस पर केवल उसी का एकछत्र राज होना चाहिए। कॉन्ग्रेस अपने इसी सपने को वर्षों से जीती आई है, जिसकी उसे ऐसी लत लग गई है कि वो अब राजनीति में बने रहने के लिए कुछ भी कर गुजरने और किसी भी हद को पार करने से पीछे नहीं हटेगी। इसी का जीता जागता प्रमाण उसके वो घोटाले हैं, जिन्हें नज़रअंदाज़ करके वो फिर से अपनी वापसी का ख़्वाब संजोए बैठी है, लेकिन इस ख़्वाब के पूरे होने में वो सबसे बड़ा रोड़ा प्रधानमंत्री मोदी को मानती है।

भारतीय राजनीति को अपनी जेब में रखकर चलने वाली कॉन्ग्रेस को साल 2014 में उस समय तगड़ा झटका लगा, जब केंद्र में मोदी सरकार आई। मोदी लहर कॉन्ग्रेस के उन सभी मनसूबों को बहाकर ले जाने में कामयाब रही, जिसके बीज कॉन्ग्रेस ने अपने शासनकाल के दौरान बोए थे। और तब के मनसूबों पर पानी फिरने की वजह से कॉन्ग्रेस अब तक पीएम मोदी को सिर्फ़ एक दुश्मन की नज़र से देखती है।

कब लगेगा गाँधी-वाड्रा परिवार के घोटालों की फेहरिस्त पर विराम

केंद्र में मोदी सरकार के आने के बाद एक-एक करके कॉन्ग्रेस के वो सभी काले चिट्ठे सामने आने लगे जो वर्षों से दबे पड़े थे। घोटालों की एक ऐसी फेहरिस्त बनती चली गई, जिस पर से धीरे-धीरे पर्दा उठता चला गया और कॉन्ग्रेस के ‘राजकुमार’ राहुल गाँधी समेत पूरे परिवार पर जाँच के काले घेरे मँडराने लगे। परिवारवाद की छवि वाली कॉन्ग्रेस पार्टी जो दूध की धुली होने का दावा करती थी, उसके कारनामे जगज़ाहिर होने लगे। इन काले कारनामों में टैक्स चोरी, मनी लॉड्रिंग, अगस्ता-वेस्टलैंड, खाद घोटाले से लेकर बोफ़ोर्स और पनडुब्बियों तक के हर घोटाले में कॉन्ग्रेस का हाथ शामिल था।

साल 2008 में राहुल गाँधी ने ज़मीन ख़रीदी और उसे साल 2012 में अपनी बहन प्रियंका गाँधी को बतौर तोहफ़े में दे दी। गाँधी-वाड्रा परिवार का सीधा संबंध हथियार डीलर संजय भंडारी से भी था। भंडारी ने तोहफे वाली उसी ज़मीन को अधिक क़ीमत देकर फिर से ख़रीद लिया। इसके पीछे राहुल गाँधी, रॉबर्ट वाड्रा और प्रियंका गाँधी वाड्रा के आपसी भाईचारा और एक गहरा रिश्ता तो उभरकर सामने आता ही है, साथ में दिखती है दलालों से संबंध की एक लंबी और कॉम्पलेक्स जोड़।

राहुल गाँधी का एक बेहद प्रगाढ़ रिश्ता HL पाहवा के साथ भी सामने आया। यह वही भंडारी है जिसके घर ED की छापेमारी के दौरान रक्षा सौदों से संबंधित गोपनीय दस्तावेज़ों की फोटोकॉपी बरामद हुई थी। मतलब साफ है कि यूपीए के शासनकाल में एक बिचौलिए की इतनी पहुँच थी कि वो बेहद संजीदा दस्तावेज़ों की फोटोकॉपी तक अपने पास रखता था। इससे साफ पता चलता है कि गाँधी-वाड्रा का परिवार मिलकर रक्षा सौदों में घालमेल करने की फ़िराक में था।

राहुल गाँधी ने 2008 में हसनपुर, पलवल में महेश कुमार नागर के माध्यम से ज़मीन ख़रीदी और फिर उस ज़मीन की क़ीमत को बढ़ाकर रॉबर्ट वाड्रा को बेच दिया गया। 2008 में मात्र ₹15 लाख में ख़रीदी गई ज़मीन को केवल 3 साल 10 महीने बाद ₹84.15 लाख में बेचा गया। इस तरह के ज़मीनी सौदों में गाँधी-वाड्रा परिवार की धोखाधड़ी का कनेक्शन सीधे तौर पर साफ़ नज़र आता है। ऐसे और भी कई ज़मीनी सौदे हुए, जिनमें गाँधी-वाड्रा परिवार के ज़मीन सौदागरों के साथ प्रगाढ़ रिश्ते उजागर हुए। इनमें एक नाम सीसी थम्पी का भी है, जिसने ज़मीन ख़रीद के लिए संजय भंडारी को धन की आपूर्ति की थी।

आरोपों से घिरी कॉन्ग्रेस को प्रधानमंत्री मोदी की साफ छवि कहाँ भाएगी

राहुल गाँधी जिस राफ़ेल को लेकर प्रधानमंत्री मोदी के इस्तीफ़े की माँग कर रहे थे, उस वक़्त उन्होंने मौन क्यों धारण कर लिया था जब राफ़ेल की असल क़ीमत पर से पर्दा उठा कि मोदी सरकार के दौरान हुई राफ़ेल डील यूपीए सरकार की तुलना में प्रति विमान ₹59 करोड़ सस्ती है। ऐसे हर आरोप पर राहुल गाँधी को मुँह की खानी पड़ी है, जब उन्होंने मोदी के ख़िलाफ़ बेवजह के मुद्दों को हवा देने की कोशिश की जबकि वो ख़ुद अपने भ्रष्ट आचरण को किसी से नहीं छिपा पाए। ये राहुल गाँधी का ओवर कॉन्फ़िडेंस ही है, जो ख़ुद तमाम विवादों में घिरे होने के बावजूद मोदी सरकार को घेरने से नहीं चूकते, फिर भले ही वो आरोप बेबुनियाद ही क्यों न हों।

राफ़ेल विवाद में एक बड़ा मोड़ तब आया, जब वीवीआईपी हेलीकॉप्टर अगस्ता वेस्टलैंड डील में बिचौलिया रहा क्रिश्चिन मिशेल का वो प्रकरण सामने आया, जिसमें ख़ुलासा हुआ कि वो राफ़ेल के ख़िलाफ़ सौदेबाज़ी कर रहा था। 2007 में जब भारत की तरफ से 126 मीडियम मल्टी रोल एयरक्राफ्ट ख़रीदने की बात कही गई थी तो उस समय कई कंपनियों ने बोली लगाई थी। साल 2011 आते-आते तक सिर्फ़ दो ही विमान आमने-सामने थे, एक दसौं की राफ़ेल और दूसरा यूरोफाइटर टाइफून। दलाल मिशेल यूरोफाइटर टाइफून की लॉबियिंग कर रहा था। आपको याद दिला दें कि अगस्ता-वेस्टलैंड सौदे में सोनिया गाँधी का कनेक्शन सामने आया था। इस पर ख़ुद को बचाने के लिए कॉन्ग्रेस ने मिशेल को बचाने के लिए अपने वकील को मैदान में उतारा था।

आरोपों से बचने के लिए कॉन्ग्रेस को पीएम मोदी में दिखता है अपना दुश्मन

चुनावी माहौल में अपने कारनामों को छिपाने के लिए कॉन्ग्रेस किसी न किसी बहाने बचने का रास्ता तलाशती रहती है। अपने इन प्रयासों में वो कभी कंधार प्रकरण में अजीत डोभाल पर आरोप मढ़ती दिखती है, तो कभी प्रधानमंत्री की छवि को ग़लत रूप से प्रचारित करने का दुस्साहस करती दिखती है। कभी चीन का रुख़ करके मोदी को कोसती है कि मसूद अज़हर पर प्रतिबंध लगाने में वो क्यों नाकामयाब हैं?

अब बात अगर प्रतिबंध की ही की जाए तो ऐसा पहली बार तो हुआ नहीं है, जब चीन ने पाकिस्तान के ख़िलाफ़ जाने से इनकार किया हो या मसूद अज़हर को वैश्विक स्तर पर आतंकवादी घोषित करने से अपने पैर पीछे किए हों। यह बात विश्व-विख्यात है कि चीन और पाकिस्तान के मध्य कई व्यापारिक समझौते हैं, जिसकी वजह से चीन हमेशा पाकिस्तान के साथ अपना दोस्ती का रिश्ता निभाता चला आया है।

भारत के प्रति चीन का दोहरा रवैया तो काफी साल पुराना है। यह तब भी था जब केंद्र में कॉन्ग्रेस के नेतृत्व वाली सरकार थी। कॉन्ग्रेस ने उस समय क्यों नहीं चीन को डरा धमका कर मसूद अज़हर पर प्रतिबंध लगवाया लिया? इसका जवाब तो कॉन्ग्रेस के पास तब भी नहीं था, जब वो सत्ता में थी और आज भी नहीं है जब सत्ता में उसकी वापसी का कोई ओर-छोर नहीं दिखता।

जब आतंकवादियों पर उमड़ा राहुल गाँधी का ‘जी’ भरकर प्रेम

हैरान कर देने वाली बात तो यह है कि मसूद अज़हर पर प्रतिबंध लगाने की बात करने वाले राहुल गाँधी तो आतंकवादियों को ‘जी’ भर-भर कर इज़्जत परोसते हैं। उनकी पार्टी के दिग्विजय सिंह उर्फ़ दिग्गी आतंकवादियों को ‘ओसामा जी और हाफ़िज सईद साहब’ बोलकर उनके सम्मान में चार चाँद लगाते हैं। भले ही राहुल गाँधी आतंकवादियों से अपनी इस बेइंतहा मोहब्बत पर कुछ न कहें लेकिन आतंकवादियों से उनका यह ‘अपनेपन’ का रिश्ता तो जगज़ाहिर हो ही गया है। राहुल गाँधी का यह प्यार भरा एहसास तो चीन जैसा ही जान पड़ता है, माने ऊपर से कुछ और अंदर से वही दोमुँहापन।

असल बात तो यह है कि सत्ता से दूर होने और वापसी का कोई रास्ता न बन पाने की बौखलाहट में कॉन्ग्रेस अपना आपा पूरी तरह से खो चुकी है। इसीलिए कोई रास्ता न सूझता देख राहुल गाँधी को ले-देकर केवल मोदी ही नज़र आते हैं। इसलिए वो कभी 56 इंच के सीने का जुमला रटते हैं तो कभी जनता को बेवजह भरमाने का काम करते हैं और कहते हैं कि वर्तमान केंद्र सरकार ने अपने शासनकाल में देश-हित में कुछ नहीं किया।

सच पूछें तो इस सवाल का जवाब कॉन्ग्रेस बखूबी जानती है कि मोदी ने जिस कुशलता के साथ अपने कार्यकाल को पूरा किया है, वो कॉन्ग्रेस से 70 सालों में नहीं हो सका। राहुल गाँधी और कॉन्ग्रेस पार्टी का गिरता स्तर पता नहीं कब क्या नया बखेड़ा खड़ा कर दे, इसके बारे में कुछ कहा नहीं जा सकता।

वो दिन दूर नहीं जब प्रधानमंत्री मोदी को बदनाम करने के लिए राहुल गाँधी उनकी फोटो को पोर्नोग्राफी के लिए भी इस्तेमाल कर लें। अपनी धूमिल होती छवि के सदमे में गाँधी परिवार पता नहीं कब पीएम मोदी को गाली-गलौच देने पर उतारू हो जाए क्योंकि सत्ता से दूरी कॉन्ग्रेस को हजम नहीं हो पा रही है और अपनी वापसी के लिए उसे केवल मोदी को कोसने का ही मार्ग दिख रहा है, जिस पर वो बड़ी तेज़ी से बिना कुछ सोचे-समझे लगातार बढ़ती जा रही है। लेकिन यह तेज़ी कॉन्ग्रेस को बड़ी महँगी साबित होगी क्योंकि हताशा के इस आलम में राहुल और उनकी पार्टी किंकर्तव्यविमूढ़ हो चुकी है। अब शायद उनकी चेतना लोकसभा चुनाव के परिणाम के बाद ही आने की संभावना है।

2014 के बाद एक आम आदमी के जीवन में जो सुधार आया है, पहले केवल उसकी कल्पना ही की जा सकती थी। देश के भीतर तो मोदी सरकार ने अनेकों लाभकारी योजनाओं से जन-जीवन को सुधारने के अपने लक्ष्य को तो पूरा किया ही, साथ में वैश्विक स्तर पर अन्य देशों से जो संबंध आज भारत के साथ स्थापित हैं, उन्हें सही दिशा और मज़बूती भी प्रदान की।

आज भारत के साथ हर बड़ी शक्ति कंधे से कंधा मिलाकर डटकर खड़ी है फिर चाहे वो व्यापार को लेकर हो या आतंकवाद जैसे मुद्दे को लेकर हो। विश्व में भारत की छवि एक ताक़तवर देश के रूप में बनकर उभरी है। इसका श्रेय निश्चित तौर पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को ही जाता है क्योंकि यह उनकी सूझबूझ और सटीक रणनीति का ही परिणाम है।

अभी हाल ही में कॉन्ग्रेस ने उन मतदाताओं को आड़े हाथों लिया, जिन्होंने 2014 में बीजेपी को वोट दिया था। जो राजनीतिक पार्टी अपने ही देश के मतदाताओं को एक दुश्मन की नज़र से देखे, इसे उसका पागलपन न कहा जाए तो और क्या कहा जाए! क्योंकि इस तरह का व्यवहार आज तक किसी देश में किसी राजनीतिक पार्टी द्वारा नहीं किया गया।

ऐसी स्थिति में कॉन्ग्रेस देश की जनता के समक्ष भला किस मुँह से जाएगी और किस आधार पर जनता से अपने पक्ष में वोट माँगने का साहस जुटा पाएगी, ये देखना बाक़ी है?

मनमोहन सिंह ने मोदी के सबसे ‘ताकतवर’ मंत्री को दिया ‘गब्बर सिंह टैक्स’ अवॉर्ड

देश में जीएसटी लागू होते ही विपक्षी दलों ने इसका भरपूर विरोध किया था। इसमें कॉन्ग्रेस अध्यक्ष राहुल गाँधी सबसे आगे रहे थे। उन्होंने हमेशा ही इसे ‘गब्बर सिंह टैक्स’ कहा। मगर इस सब से इतर दिल्ली में एक अवॉर्ड शो के दौरान एक अलग ही तरह का नजारा देखने को मिला। यहाँ वित्त मंत्री अरूण जेटली को जीएसटी काउंसिल के लिए अवॉर्ड दिया जा रहा था। इस अवॉर्ड फंक्शन की खास बात यह रही कि जेटली को अवॉर्ड देने वाले कोई और नहीं बल्कि पूर्व प्रधानमंत्री और कॉन्ग्रेस नेता मनमोहन सिंह थे।

मीडिया संस्थान हिन्दू बिजनेस लाइन की तरफ से आयोजित चेंजमेकर अवॉर्ड्स में जीएसटी काउंसिल को ‘चेंजमेकर ऑफ द ईयर अवार्ड’ दिया गया। वित्त मंत्री अरूण जेटली ने जीएसटी काउंसिल का चेयरमैन होने के नाते इस अवॉर्ड को रिसीव किया।

बता दें कि जीएसटी काउंसिल को यह अवॉर्ड ‘वन नेशन वन टैक्स’ की दिशा में काम करने के लिए दिया गया। जीएसटी काउंसिल की खास बात यह है कि इसने संघवाद के सिद्धांतों पर काम करते हुए अलग-अलग राजनीतिक दलों को एक साथ लाया और पूरे देश में इसे सफलतापूर्वक लागू करवाया। इसके साथ ही इसकी कामयाबी को इस तरह से भी देखा जा सकता है कि इसे विवादित मुद्दों को सुलझाने के लिए कभी भी वोटिंग का सहारा नहीं लेना पड़ा। इस काउंसिल के सामने जितने भी विवाद या असहमति के मुद्दे आए, सभी सदस्यों ने आपसी सहमति से ही इसे सुलझाया।

हालाँकि राहुल गाँधी ने हमेशा इसका विरोध ही किया और इसे लागू करने के तरीके को लेकर हमेशा मोदी सरकार पर उँगली उठाई। सरकार को घेरने की कोशिश की। लेकिन आज जब जीएसटी काउंसिल को चेंज मेकर ऑफ द ईयर का अवॉर्ड दिया गया तो यह बात साफ हो जाती है कि ना तो जीएसटी ‘गब्बर सिंह टैक्स’ है और ना ही इसे लागू करने के तरीके में कहीं कोई कमी रही। इस अवॉर्ड के साथ ही जीएसटी को लेकर जनता को गुमराह करने और राजनीतिक रोटियाँ सेंकने के लिए राहुल गाँधी की झोली में से एक और मुद्दा कम हो गया।

चैत्र संक्रांति के साथ उत्तराखंड मना रहा है प्रकृति देवी का पर्व – फूलदेई

“कौन हो तुम वसंत के दूत,
विरस पतझड़ में अति सुकुमार।
घन तिमिर में चपल की रेख, 
तपन में शीतल मंद बयार।”

‘कामायनी’ में जयशंकर प्रसाद जी द्वारा लिखी गई ये पंक्तियाँ उत्तराखंड के लोकपर्व ‘फूलदेई’ या ‘फूल संक्रान्ति’ की सटीक व्याख्या करती हैं। देवभूमि उत्तराखंड विभिन्न संस्कृतियों को समेटे एक विशाल सभ्यता का नाम है। कई तरह की जाति और जनजातियों के मिश्रण से बना यह राज्य अपने नैसर्गिक रूप में ही अपने त्यौहारों के माध्यम से अपनी सुन्दर सांस्कृतिक धरोहरों को बयाँ करता है। उत्तराखंड में हिन्दू मास की प्रत्येक संक्रान्ति को एक विशेष त्यौहार के साथ मनाया जाता है जो उस माह की विशेषता से जुड़ा होता है। जैसे, फसल को बोने से लेकर काटने पर, स्थानीय ग्राम्य देवताओं की पूजा पर, विवाहिता महिलाओं के मायके से आने और जाने पर अलग-अलग त्यौहारों का खूब प्रचलन है।

इन्हीं में से एक है चैत्र मास के प्रथम दिन से मनाया जाने वाला पर्वतीय अंचल का लोकपर्व फूलदेई! इस त्यौहार का खास तौर पर बच्चों को बहुत इंतजार रहता है। हिंदू कैलेंडर के अनुसार चैत्र मास से ही नवीन वर्ष शुरू होता है।इस संस्कृति का सबसे बड़ा महत्व ये भी देखने को मिलता है कि हिन्दू मान्यता में नवीन वर्ष को ठीक पतझड़ की समाप्ति और बसंत ऋतु के आगमन पर मनाया जाता है। और महीने भर चलने वाला यह लोकपर्व वैशाखी के दिन समाप्त हो जाता है।

यह समय नवीन ऊर्जा के संचार का होता है। खेतों में हरे गेहूँ और पीली सरसों नव वर्ष का स्वागत करते हैं। सर्दियों के मौसम की विदाई के उपरांत पहाड़ की ऊँची चोटियों पर पड़ी बर्फ धीरे-धीरे पिघलने लगती है। वनों में वृक्षों पर नई कोंपल आनी शुरू हो जाती हैं और हर फलदार वृक्ष फूलों से भर जाते हैं। लेकिन उत्तराखंड की पहचान विशेष रूप से खेतों की मुंडेर पर उगने वाले पीले फ्योंली के फूलों और जंगल में खिलने वाले लाल बुराँस के फूलों से की जा सकती है। ये दोनों फूल इतने खूबसूरत होते हैं कि कई लोक गीतों में प्रेमी और प्रेमिका के सौंदर्य की तुलना इनसे की जाती है। चारों ओर पहाड़ के जंगल, गाँवों में आड़ू, सेब, खुमानी, पोलम, मेलू के पेड़ों के रंग बिरंगे सफेद फूलों से बसंत के इस मौसम को बासंती बना देते है।

प्रकृति देवी की उपासना का प्रतीक है फूल संक्रान्ति

हिन्दू वेद और उपनिषदों में प्रकृति को देवी के रूप में पूजनीय बताया गया है। जिसका प्रमुख उद्देश्य निश्चित रूप से मानव को प्रकृति के साथ आत्मीयता बढ़ाना और उसका संरक्षण करना है। फूलदेई त्यौहार में गाँव के बच्चे सुबह उठकर जंगलों में जाकर रंगीन फूल चुनकर लाते हैं और सूर्योदय से पहले उन्हें अपने घर के पूजा-स्थान, देहरी और चूल्हे को चढ़ाते हैं। साथ ही बच्चे सुबह घर-घर जाकर घरों और मंदिरों की देहरी पर रंगबिरंगे फूल, चावल आदि बिखेरते हैं। पलायन जैसी महामारी झेल रहा उत्तराखंड राज्य आज अपनी हर संस्कृति से विमुख होता जा रहा है। समय के साथ हर बड़े रीति-रिवाज, त्यौहार और परम्पराएँ सोशल मीडिया तक सीमित होकर रह गई हैं।

बाँस की लकड़ियों से बनी टोकरी में लाते हैं रंगीन फूल

बच्चे चैत्र मास के पहले दिन से बुराँस, फ्योंली, सरसों, कठफ्योंली, आड़ू, खुबानी, भिटौर, गुलाब आदि फूलों को तोड़कर घर लाते हैं। फूलों को ‘रिंगाल’ से बनी टोकरी में सजाते हैं। बच्चे घर-घर जाकर “फूलदेई-फूल देई छम्मा देई दैणी द्वार भर भकार यो देई सौं बारंबार नमस्कार” कहकर घरों और मंदिरों की देहरी पर फूल बिखरते हैं। इन पंक्तियों का अर्थ है, “देहरी के फूल भरपूर और मंगलमयी हो, घर की देहरी क्षमाशील हों और सबकी रक्षा करें, सबके घरों में अन्न का पूर्ण भंडार हो।”

बदले में लोग बच्चों को आशीर्वाद देेकर गुड़, चावल, मिठाई और पैसे दक्षिणा के रूप में भेंट करते हैं। शाम को पारम्परिक गढ़वाली-कुमाउँनी पकवान बनाकर आस-पड़ोस में बाँटे जाते हैं। देखा जाए तो फूल संक्रान्ति बच्चों को प्रकृति प्रेम और सामाजिक चिंतन की शिक्षा बचपन से ही देने का एक आध्यात्मिक पर्व है।

‘फ्योंली’ की कहानी

फ्योंली के फूल के बिना उत्तराखंड राज्य का सौंदर्य अधूरा है और साथ ही फूल संक्रान्ति का यह त्यौहार भी। बंसत ऋतु के आगमन के साथ पहाड़ के कोनो-कोनो में फ्योंली का पीला फूल खिलने लगता है। लोकगायक नरेंद्र सिंह नेगी ने भी अपने एक प्रसिद्ध गढ़वाली गीत में गाया है, “म्यरा डांडी कांठ्युं का मुलुक जैलु, बसंत ऋतु माँ जैई।” इस गाने का अर्थ है- “मेरे पहाड़ों के देश जाओगे, तो बसंत ऋतु में जाना। जब हरे वनों में लाल बुराँस और खेतों में पीली फ्योंली खिली होगी।”

फ्योंली पहाड़ में प्रेम और त्याग की सबसे सुन्दर प्रतीक मानी जाती है। पौराणिक लोककथाओं के अनुसार फ्योंली एक गरीब परिवार की बहुत सुंदर कन्या थी। एक बार गढ़ नरेश राजकुमार को जंगल में शिकार खेलते खेलते देर हो गई। रात को राजकुमार ने एक गाँव में शरण ली। उस गाँव में राजकुमार ने बहुत ही खूबसूरत फ्योंली को देखा और उसकी सुंदरता में मंत्रमुग्ध हो गया। राजकुमार ने फ्योंली के माता पिता से फ्योंली के साथ शादी करने का प्रस्ताव रख दिया। फ्योंली के माता पिता ख़ुशी ख़ुशी राजा के इस प्रस्ताव को मान गए।

शादी के बाद फ्योंली राजमहल में आ तो गई, लेकिन गाँव की रहने वाली फ्योंली को राजसी वैभव कारागृह लगने लगा था। हर घड़ी उसका मन अपने गाँव में लगा रहता था। राजमहल की चकाचौंध फ्योंली को असहज करने लगी। फ्योंली ने इस पर राजकुमार से अपने मायके जाने की इच्छा जताई। गाँव में फ्योंली पहुँच तो गई, लेकिन इससे पहले ही फ्योंली की तबियत बिगड़ने लगी और वह मरणासन्न स्थिति में पहुँच गई।

बाद में राजकुमार ने गाँव आकर फ्योंली से उसकी अन्तिम इच्छा पूछी तो उसने कहा कि उसके मरने के बाद उसे गाँव की किसी मुंडेर की मिट्टी में ही दफना दिया जाए। इसके बाद फ्योंली को उसके मायके के पास दफना दिया गया। जिस स्थान पर उसे दफनाया गया था, वहीं कुछ दिनों बाद पीले रंग का एक सुंदर फूल खिला। इस फूल को फ्योंली नाम दे दिया गया। कुछ लोगों का मानना है कि उसकी याद में ही पहाड़ में फूलों का यह त्यौहार मनाया जाता है।

पहाड़ों से पलायन उत्तराखंड की संस्कृति को लीलता जा रहा है

शिक्षा और रोजगार के लिए पहाड़ों से दूर जाना लोगों की मजबूरी बन चुकी है, जिसका नतीजा है कि अब पहाड़ धीरे-धीरे खाली होते जा रहे हैं। यहाँ के घर-गाँवो में सदियों से मनाए जाने वाले खुशियों और नव वर्ष के इस फुलारी/फूलदेई पर्व को भी पलायन ने अपनी चपेट में ले लिया है। पहाड़ के कई गाँवो में अब इस त्यौहार को मनाने के लिए बच्चे ही नहीं हैं क्योंकि इन गाँवो में केवल कुछ बुजुर्ग ही बाकी रह गए हैं, जो बस खंडहरों के प्रहरी की तरह अपने घरों की रखवाली करते नजर आते हैं।

उम्मीद है कि यह सभ्यता सोशल मीडिया तक सिमटने से पहले एक बार फिर जरूर गुलज़ार होगी। बसंत का यह त्यौहार उत्साह और उम्मीद का प्रतीक है, शायद पहाड़ अपने बसंत के दूतों की चहचहाहट से फिर जरूर महकेगा।

फैक्ट चेक: राफेल पर ‘मस्त राम’ की नौटंकी के बाद नेहरू पर ‘द हिन्दू’ के अर्धसत्य

जैसे ही चीन ने जैश आतंकी मसूद अज़हर पर प्रतिबन्ध लगाने में चौथी बार पलीता लगाया, सोशल मीडिया में आग की तरह पूर्व प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के उस कदम पर चर्चा प्रारंभ हो गई जिसमें उन्होंने कथित तौर पर भारत को मिल रही सुरक्षा परिषद की सीट चीन की ओर घुमा दी थी।

फिर फँसा ‘द हिन्दू’

अंग्रेज़ी दैनिक ‘द हिन्दू’ ने इस मान्यता को नकारते हुए प्रधानमंत्री नेहरू का संसद में दिया गया एक बयान छापा जिसमें हिन्दू ने नेहरू के संसद में इस बात को खारिज करने का दावा किया। हिन्दू के अनुसार, नेहरू ने 27 सितम्बर, 1955 को डॉ. जेएन पारेख के इसी विषय पर पूछे गए प्रश्न के उत्तर में यह कहा कि उन्हें कोई औपचारिक या अनौपचारिक प्रस्ताव मिला ही नहीं।

एक ट्विटर यूज़र True Indology ने हिन्दू और कॉन्ग्रेस प्रवक्ता प्रियंका चतुर्वेदी समेत कईयों के इस दावे के विपरीत यह दावा किया कि उपरोक्त बयान देने के पहले ही प्रधानमंत्री महोदय एक नहीं, दो-दो बार इस प्रस्ताव के दिए जाने और अपने उसे नकारने की बात स्वीकार चुके थे।

True Indology के मुताबिक मुख्यमंत्रियों को लिखे एक पत्र में नेहरू जी यह साफ तौर पर लिखते हैं कि भारत को चीन की जगह सुरक्षा परिषद का सदस्य बनने का प्रस्ताव आया था जिसे उन्होंने चीन के साथ अन्याय न होने देने के लिए अस्वीकार कर दिया।

True Indology ने यह भी दावा किया कि 5 वर्ष पूर्व (1950 में) भी प्रधानमंत्री नेहरू को यह प्रस्ताव दिया गया था, जिसे उन्होंने चीन को नाराज़ न करने के लिए नकार दिया। यह प्रस्ताव तो उनकी बहन और भारत की अमेरिका में राजदूत डॉ. विजयलक्ष्मी पण्डित के ज़रिए आया था।

कौन झूठा, कौन अनभिज्ञ

चूँकि प्रधानमंत्री नेहरू केवल कॉन्ग्रेस नहीं बल्कि पूरे देश के प्रधानमंत्री रह चुके हैं, और मृत होने के कारण अपना बचाव करने में अक्षम हैं, अतः उन पर तो हम झूठा होने का आरोप लगा नहीं सकते। तो अब बचा ‘द हिन्दू’।

राफ़ेल विवाद में रक्षा मंत्रालय का नोट क्रॉप कर भ्रष्टाचार के मनगढ़ंत सबूत बनाने के आरोपों का सामना पहले ही हिन्दू कर रहा है। ऐसे में हिन्दू को इसका स्पष्टीकरण देना चाहिए कि इन विरोधाभासी दस्तावेज़ों का तात्पर्य क्या है?

यदि हिन्दू कोई संतोषजनक उत्तर नहीं ला पाता है तो भारी दिल से हमें इस निष्कर्ष पर पहुँचना पड़ेगा कि या तो देश के सबसे पुराने और ‘esteemed’ समाचार पत्रों में शुमार ‘द हिन्दू’ को ऐतिहासिक तथ्यों की जानकारी ही नहीं है, और या फिर हिन्दू ने जानबूझकर ऐसी बात कही जिसका तुरंत खण्डन होगा और हम बच्चों के प्यारे चाचा नेहरू पर सवालिया निशान लगेंगे।

या फिर हिन्दू ने नेहरू जी का जो बयान छापा वह ही गलत है? देश के दूसरे सबसे मशहूर चाचा (पहले चाचा चौधरी हैं) के साथ इनमें से कोई-न-कोई एक साज़िश करने के लिए द हिन्दू की जितनी भर्त्सना की जाए, कम है!

शशि थरूर के मौसा-मौसी भी हुए BJP में शामिल

एक तरफ राहुल गाँधी कॉन्ग्रेस को फिर से खड़ा करने की कोशिश कर रहे हैं, वहीं उनकी कोशिशों के असर होने की बजाय कॉन्ग्रेस पर एक के बाद एक कुठाराघात ही हो रहा है। कॉन्ग्रेस प्रवक्ता टॉम वडक्कन के भाजपा में शामिल होने के एक दिन बाद ही तिरुवनंतपुरम से कॉन्ग्रेसी सांसद शशि थरूर के मौसा-मौसी ने भी शुक्रवार (मार्च 15, 2019) को बीजेपी ज्वाइन कर लिया।

बता दें कि थरूर की माँ की बहन, सोभना शशिकुमार और उनके पति शशिकुमार तथा 13 अन्य लोग बीजेपी में शामिल हो गए। बीजेपी के राज्य अध्यक्ष पी.एस. श्रीधरन पिल्लै ने सभी का पार्टी में स्वागत किया। खास बात ये है कि कॉन्ग्रेसी सांसद शशि थरूर के मौसा-मौसी ने कहा कि बहुत लंबे समय से वे भारतीय जनता पार्टी की विचारधारा का अनुसरण कर रहे हैं।

वर्तमान में केरल के त‍िरुवनंतपुरम से सांसद शशि थरूर कॉन्ग्रेस के बड़े नेताओं में से एक हैं। बीजेपी की लंबे समय से उनकी सीट पर नजर है। मीडिया रिपोर्टों में ऐसी भी चर्चा है कि हाल ही में मिजोरम के राज्‍यपाल पद से इस्‍तीफा देने वाले कुम्‍मानम राजशेखरन यहाँ से चुनाव लड़ सकते हैं।

गौरतलब है कि आरएसएस के निष्ठावान व्यक्ति माने जाने वाले और भाजपा की प्रदेश इकाई के पूर्व प्रमुख राजशेखरन को केरल में लोकसभा चुनाव में बीजेपी को बेहतर मौका नजर आ रहा है। हालाँकि, इस राज्य में पार्टी ने अभी तक अपना खाता नहीं खोला है।

मीडिया रिपोर्टों की माने तो, खबर ये भी है कि पूर्व मुख्यमंत्री ओमन चांडी, केपीसीसी प्रमुख एवं वर्तमान सांसद मुल्लापल्ली रामचंद्रन और वरिष्ठ नेता वीएम सुधीरन सहित कई वरिष्ठ कॉन्ग्रेसी नेताओं ने लोकसभा चुनाव लड़ने में अनिच्छा जाहिर की है जिससे कॉन्ग्रेसी नेतृत्व की मुश्किलें और बढ़ गई हैं।

अभी तो लोकसभा की जंग शुरू ही हुई है और कॉन्ग्रेस को झटके पर झटके लगते जा रहे हैं। अब देखना ये है कि क्या कॉन्ग्रेस ऐसे झटकों से उभर पाती है। या बीजेपी उसे हर कदम पर पटखनी देती है।

ISIS से मुक्त हुई यज़ीदी लड़कियाँ, जलाए बुरखे; ISIS लक्षण है, बीमारी नहीं

भूतपूर्व ‘सेक्स-स्लेव’ महिलाएँ वह बुरखे जला रहीं हैं जो उन्हें इस्लामिक स्टेट के आतंकी पहनने को विवश करते थे। आइएस के चंगुल से पिछले हफ़्ते फ़रार हुईं यज़ीदी महिलाओं के एक समूह ने कुर्दिश सेना (PKK) के समक्ष समर्पण करने के बाद पहला काम किया अपने बुरखे इकठ्ठा कर उन्हें आग के हवाले करने का।

‘काश मैं दएश (आइएस) को यहाँ ला पाती और जला पाती, जैसे मैंने अपने उन कपड़ों को जला दिया है।’

इस ‘हिंसक’ उद्गार के पीछे है अपमान और प्रताड़ना की वो दास्ताँ जहाँ इन यज़ीदी युवतियों को एक ओर रेगिस्तानी रातों में नंगा कर रात भर उनके साथ हिंसक-से-हिंसक तरीकों से बलात्कार किया जाता था। वहीं दूसरी ओर दिन की चिलचिलाती गर्मी में, भीषण-से-भीषण उमस में, बुरखे के पीछे कर दिया जाता था। बुरखा उतारने देने के लिए जब वह मिन्नतें करतीं थीं, गिड़गिड़ाती थीं कि इसके अन्दर से साँस नहीं ली जा रही, तो उन्हें कहा जाता था कि बाकी सब औरतें कैसे कर ले रहीं हैं।

एक ओर अपना मन भर जाने पर आइएस लड़ाके सेक्स-गुलामों की अदला-बदली कर लेते थे, और दूसरी ओर जब तक वह लड़की/औरत उनकी property रहती थी, उसके चेहरे पर अपने ही साथियों की नज़र भर पड़ जाना नागवार था।

अपना बुरखा उतार कर जलाते हुए इस युवती के चेहरे पर जो राहत, जो catharsis दिख रही है, वह इंसानी सभ्यता के लिए शर्मिंदगी का सबब है।

फिर जड़ में असहिष्णु, वर्चस्ववादी इस्लाम

इन महिलाओं, और इनके निर्ममता से क़त्ल कर दिए गए भाईयों, पिताओं, बेटों का गुनाह केवल इतना था कि वह ऐसी आबादी (यज़ीदियों) में पैदा हुए थे जिन्हें सलाफ़ी-वहाबी इस्लाम (जो कि आइएस ही नहीं, लगभग हर जिहाद के वैचारिक स्तम्भ हैं) शैतान के पुजारी और “काबिल-ए-क़त्ल” मानता है। आइएस के कट्टरपंथियों का मानना है कि उन्हें पूरी आज़ादी है यज़ीदी लोगों के साथ हत्या, बलात्कार, शोषण, और अत्याचार करने की क्योंकि यज़ीदी शैतान के पुजारी माने जाते हैं।

पुराना है इस्लाम के हाथों यज़ीदियों के  उत्पीड़न का इतिहास

इस्लाम के हाथों यज़ीदी आज से नहीं, सदियों से कुचले जाते रहे हैं- और हर बार मज़हबी कारणों से ही। 1640 में 40,000 तुर्की इस्लामिक लड़ाकों ने सिंजर की पहाड़ी के आस-पास बसे यज़ीदियों पर हमला कर दिया, और 3000 से ज़्यादा यज़ीदी केवल जंग के मैदान में क़त्ल हो गए। उसके बाद अल्लाह के ‘जाँबाज़’ लड़ाकों ने 300 से ज़्यादा यज़ीदी गाँवों को आग के हवाले कर दिया। सिंजर पहाड़ी की गुफ़ाओं में बैठ कर किसी तरह जान बचाने की जद्दोजहद कर रहे हज़ारों यज़ीदियों को ढूँढ़-ढूँढ़ कर मौत के घाट उतारा।

1892 में इसी तुर्की खिलाफ़त के आख़िरी ‘ताकतवर’ चश्मोचिराग सुल्तान अब्दुल हमीद द्वितीय ने यज़ीदियों को अपने जिहादी दस्ते में शामिल हो जाने या उन्हीं जिहादियों के हाथों क़त्ल हो जाने का फ़रमान दिया।

2007 में इराक के मोसुल शहर में सुन्नियों ने एक बस को रोका, बस में सवार ईसाईयों और समुदाय विशेष को बाइज्ज़त रुखसत किया और 23 यज़ीदियों को इकठ्ठा कर उनकी गोली मारकर हत्या कर दी।

(Apologists यह कह कर डिफेंड कर सकते हैं कि बस घटना के पीछे यज़ीदियों द्वारा की गई एक यज़ीदी किशोरी की honor-killing थी, जो एक सुन्नी लड़के से प्रेम करती थी, पर सामूहिक-पहचान के आधार पर इस कत्ले-आम को सही ठहराना मानसिक दिवालियापन ही कहा जायेगा।)

मंडी भी थी, और रेट भी

जवान मर्दों और वृद्धों का क़त्ल करने के बाद उन्हें सामूहिक कब्रों में दफना दिया गया।
आइएस ने बचे हुए यज़ीदियों को तीन हिस्सों में बाँटा। सबसे छोटे बच्चों को $500 में संतानहीन दम्पतियों को बेच दिया गया ताकि वे मजहबी परवरिश में ही पलें-बढ़ें।

उनसे थोड़े बड़े लड़कों को जिहादी लड़ाके बनने की ट्रेनिंग लेने भेज दिया गया। जो लड़ाके बनने में शारीरिक रूप से अक्षम पाए गए, उन्हें घरेलू नौकरों के तौर पर बेच दिया गया। अब बचीं किशोरियाँ और युवतियाँ। इनकी बाकायदा मंडी लगी और खरीददारों ने बोली लगाई- और हर लड़की को बेच दिया गया।

‘शरिया हमें इज़ाज़त देता है’

आइएस एक डिजिटल मैगज़ीन निकालता है- Dabiq। (‘अशिक्षा’ को आतंकवाद की जड़ के तौर पर प्रचारित करने वाले अब यह भी बता सकते हैं कि ज़रूरी नहीं है दो साल तक कई-कई भाषाओं में डिजिटल मैगज़ीन प्रकाशित और वितरित करने वाला पढ़ा-लिखा, और इस हैवानियत के अलावा दूसरे काम करने में भी सक्षम, हो)

अक्टूबर, 2014 के अपने अंक में आइएस ने साफ़-साफ़ कहा कि उसके इस भयावह कृत्य को शरिया का पूरा समर्थन है। वहाँ कहा गया है कि हज़रत मुहम्मद के साथी जीती हुई युद्धबंदी औरतों/लड़कियों को सेक्स-स्लेव के तौर पर बाँटते थे।

यज़ीदी औरतों और बच्चों के बारे में Dabiq में लिखा है, “… यज़ीदी औरतों और बच्चों को शरिया के मुताबिक सिंजर की लड़ाई में हिस्सा लेने वाले लड़ाकों में बाँट दिया गया… मुशरिक (मूर्ति-पूजक) गुलामों का इतने बड़े पैमाने पर बँटवारा शरिया हटाए जाने के बाद से शायद पहली बार हो रहा है।”

आइएस लक्षण है, बीमारी नहीं

महज़ कुछ साल पहले तक सीरिया के अलेप्पो से लेकर के इराक के बगदाद तक यही नंगा-नाच करने वाला आइएस भले ही आज एक कस्बे तक सीमित हो चुका है, पर वर्चस्ववाद को मज़हब बनाने वाली जिस ज़हरीली जड़ का वह फल है, वो आज भी कश्मीर, कन्नूर, से लेकर नाइजीरिया के बोको हराम तक खाद पानी पा रही है। जड़ में मट्ठा डाले बिना कल इसी पेड़ से ऐसा फल उगेगा, कि आइएस उत्पाती बच्चों का गुट लगने लगेगा।

इसका अर्थ यह बिलकुल नहीं कि क्राइस्टचर्च के पागल हमलावर की तरह मजहब के हर आदमी को गोली मारनी शुरू कर दी जाए। पर इसका यह अर्थ ज़रूर है कि पूरी दुनिया को इकठ्ठा होकर समुदाय विशेष पर यह दबाव बनाना ही होगा कि वह अपनी मज़हबी किताबों को सम्पादित कर उन हिस्सों को अप्रासंगिक घोषित करें जिनमें अल्लाह को न मानने भर से काफ़िर, मुशरिक, आदि गैर-इस्लामी लोगों के गैर-इस्लामी होने भर से उनके तौर तरीकों को हराम, और उन्हें काबिल-ए-क़त्ल, घोषित कर दिया जाता है।

जब तक 180 करोड़ लोगों की आस्था से ऐसे हिंसक और ज़हरीले ख्यालों को साफ़ तौर पर बाहर का रास्ता नहीं दिखाया जाता, आइएस जैसे संगठन दर्जनों के भाव आते ही रहेंगे।