Wednesday, October 2, 2024
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आतंक की फंडिंग की जाँच मज़हब में दखल कैसे बन गई?

अभी 24 घंटे भी नहीं बीते थे ‘कश्मीर समस्या’ की इस्लामिक वर्चस्ववादी गर्भनाल को रेखांकित किए हुए और प्रदेश भर के कठमुल्लों के गिरोह ने इस आकलन को सही साबित कर दिया।

शिया-सुन्नी, सलाफ़ी-सूफी का भेद भुलाकर घाटी भर के इस्लामी नेता, अलगाववादी संगठन हुर्रियत कॉन्फ्रेंस के ‘नरमपंथी’ धड़े के नेता मीरवाइज़ उमर फ़ारुख को एनआइए के जाँच समन के खिलाफ़ इकट्ठे हो गए हैं। उनके मुताबिक कश्मीर में दहशतगर्दी और मौत के वीभत्स नाच के लिए पैसा कहाँ से आ रहा है, इसकी जाँच करना और इसी सिलसिले में जनाब उमर फ़ारुख जी से सवालात करने की हिमाकत घाटी के मज़हबी मामलों में दखलंदाज़ी है।

(आतंक के खिलाफ़ कदम उठाना मजहब के नेताओं के लिए उनके मज़हबी मुआमलों में दखल है, पर देहली की सत्ता के लिए आज भी न ही आतंकवादियों का कोई मज़हब है न ही आतंक का कोई रंग)

180 करोड़ या दुनिया की लगभग एक-चौथाई आबादी के इस्लामिक ‘उम्माह’ की 500 सबसे ताक़तवर शख्सियतों में शुमार उमर फ़ारुख ने अपनी जान को खतरे का हवाला देते हुए दिल्ली आने से मना कर दिया है और एनआइए से इल्तज़ा की है कि उनसे पूछताछ श्रीनगर में ही की जाए। इससे पहले आयकर विभाग और एनआइए ने उनके और उनकी अलगाववादी कौम के कई लीडरान के अड्डों पर इसी मामले के सिलसिले में छापेमारी की थी

हंगामा है क्यों बरपा

पुलवामा हमले के बाद केंद्र सरकार ने उमर फ़ारुख समेत हिंदुस्तान के खिलाफ़ विष-वमन करने वाले अलगाववादी नेताओं, जिनमें हिंदुस्तान के सेक्युलरिज्म को जम कर निचोड़ने के बाद भी उसे ही कश्मीर और इस्लाम के दुश्मन के रूप में निशाने पर रखने वाले सैयद अली शाह गीलानी शामिल हैं, की हिफ़ाज़त में लगे अपने जवान वापस बुला लिए थे।

उमर फ़ारुख केवल हुर्रियत के एक धड़े के मुखिया ही नहीं बल्कि श्रीनगर की जामा मस्जिद के भी सिरमौर हैं। उनको समर्थन देने के लिए घाटी की गालियों में जुटी भीड़, और उस भीड़ के दिलों में मौजूद नफ़रत, फिर एक बार चीख़-चीख़ कर बता रहीं हैं कि कश्मीर की समस्या राजनीतिक नहीं मज़हबी है।

श्रीनगर में 20 मज़हबी जमातों की मीटिंग में प्रस्ताव पारित किया गया कि यह (दहशतगर्दी के समर्थन के आरोप में उमर फ़ारुख को एनआइए की नोटिस) समुदाय विशेष के मज़हबी मुआमलों में सीधी दखलंदाज़ी है। मीरवाइज़ केवल एक सियासी राहनुमा नहीं बल्कि कश्मीर के लोगों के मज़हबी अगुआ भी हैं। उनके उत्पीड़न की हर कोशिश, जिसमें एनआइए की नोटिस भी शामिल है, की पुरज़ोर मुखालफ़त की जाएगी क्योंकि इससे सूबे की रिआया के जज्बातों को ठेस पहुँचती है।

इस प्रस्ताव को एक बार फ़िर से पढ़िए- और ध्यान से देखिए। समुदाय के मज़हबी अगुआ अपने आप पूरी घाटी और पूरे सूबे के मज़हबी लीडर हो गए- किसी ने जम्मू के हिन्दू डोगराओं से, लद्दाख के बौद्धों से, प्रदेश के मुट्ठी भर सिखों से नहीं पूछा कि जिस इस्लाम में उन्हें “काबिल-ए-क़त्ल” और “काफ़िर” कहा जाता है, उसके मज़हबी लीडर उमर फ़ारुख उनके लीडर कैसे हो गए!

दुर्भाग्यपूर्वक इस्लाम की यही सच्चाई है- जहाँ बहुसंख्यक इस्लामी हैं, वहाँ अल्पसंख्यकों की कोई गिनती ही नहीं है। कश्मीर की यह वही सोच है जो 1947 से पाकिस्तान की रही है- अल्पसंख्यक जब बराबरी के मानवाधिकार तक नहीं रखते तो काहे के राजनीतिक अधिकार?

यही नहीं, प्रस्ताव को पढ़ते हुए कश्मीर के वरिष्ठतम मुफ़्ती (Grand Mufti) नसीर-उल-इस्लाम ने दहशतगर्दी की अनेक घटनाओं में साफ़ तौर पर लिप्त पाए गए संगठन जमात-ए-इस्लामी पर लगे प्रतिबन्ध की निंदा की। निंदा करते हुए इसके सरगनाओं व ज़मीनी दहशतगर्दों (Liberal media की भाषा में “कार्यकर्ताओं/cadres”, और सत्य के शब्दों में foot soldiers) की गिरफ़्तारी को भी मुफ़्ती नसीर-उल-इस्लाम ने इसे भी घाटी के कट्टरपंथियों की मज़हबी गतिविधियों(?) में हस्तक्षेप घोषित किया

इसके पूर्व मंगलवार को घाटी के शांतिप्रिय व्यापारी संगठनों ने भी आतंकवादी नेताओं की गिरफ़्तारी को अपने “नेताओं, संस्थाओं, और संगठनों का बारम्बार उत्पीड़न” मानते हुए इसके खिलाफ़ विरोध प्रदर्शन किया।

नफ़रत की आग में पिता को खोकर भी उमर फ़ारुख को नहीं आई सुध

1990 में अपने पिता को इसी ज़हरीली, इस्लामी-वर्चस्ववादी सोच के दहशतगर्दों के हाथों मीरवाइज़ उमर फ़ारुख खो चुके हैं। उनके वालिद, मीरवाइज़-ए-कश्मीर (लिख कर ले लीजिए कि उन्हें पूरे कश्मीर का मीरवाइज़ घोषित करते समय 300 साल पहले भी किसी ने घाटी के बौद्धों-सिखों-हिन्दुओं से नहीं पूछा होगा कि उन्हें इस्लामी मीरवाइज़ अपने पूरे सूबे के मीरवाइज़ के रूप में स्वीकार हैं या नहीं) मौलाना मौलवी मुहम्मद फ़ारुख शाह, को हिजबुल मुजाहिदीन के दहशतगर्द मोहम्मद अयूब डार ने उनके ही घर में गोली मारकर मौत के घाट उतार दिया था।

उस समय भारतीय सुरक्षा एजेंसियों, सेना, और पैरा-मिलिट्री फ़ोर्सेज़ पर उनकी हत्या का आरोप लगा था, पर 2011 में हुर्रियत के ही दूसरे नेता प्रोफ़ेसर अब्दुल गनी बट ने मुहम्मद फ़ारुख के क़त्ल को हुर्रियत की ही आतंरिक खींचातानी का परिणाम बताया था।

12 साल बाद उनके क़त्ल की बरसी पर मातम मानते हुए एक दूसरे अलगाववादी नेता अब्दुल गनी लोन को भी पाकिस्तान-परस्त (no surprises here!!) नारे लगा रहे कुछ युवकों ने मौत के घाट उतर दिया था। उस समय लोन के पुत्र सज्जाद गनी लोन ने अपने पिता के क़त्ल की साजिश रचने का इल्ज़ाम आइएसआइ के साथ-साथ हुर्रियत कॉन्फ्रेंस के ही कट्टरपंथी नेता सैयद अली शाह गीलानी (जो कि बाद में हुर्रियत कॉन्फ्रेंस के बंटवारे पर कट्टरपंथी धड़े के सिरमौर बने) पर लगया था। बाद में सज्जाद ने यह आरोप ‘किसी कारणवश’ वापिस ले लिया।

1931 में तत्कालीन मीरवाइज़-ए-कश्मीर ने काफ़िर हिन्दुओं के डोगरा समुदाय से ताल्लुक रखने वाले तत्कालीन महाराजा-ए-कश्मीर के खिलाफ़ मज़हबी संघर्ष में महती भूमिका निभाई थी।

महज़ 17 साल की उम्र में अपने वालिद के मीरवाइज़ उत्तराधिकारी बनने वाले उमर फ़ारुख हुर्रियत कॉन्फ्रेंस के ‘उदारवादी’ धड़े के मुखिया माने जाते हैं।

वह ‘उदारवादी’ किस एंगल से हैं, यह समझना मुश्किल है। शायद इसलिए कि वह अपने कट्टरवादी समकक्ष की तरह खुल कर “हिन्दुओं के दमन के लिए चाहिए आज़ादी” नहीं कहते।  

और कितने सबूत चाहिए

चूँकि भारतीय राजसत्ता सबसे अच्छा वाला केश तेल लगाकर सोती है, अतः इस उदहारण से भी राजनीतिक वर्ग पर सवार एकतरफ़ा सेक्युलरिज़्म और सहिष्णुता की तन्द्रा टूटना मुश्किल है। कश्मीरी बहुसंख्यक और उनके नेता चाहे जितना गला फाड़-फाड़ कर चिल्लाएँ कि उन्हें काफ़िर हिन्दुओं के बराबर में खुद को खड़ा कर देने वाला संविधान मंज़ूर नहीं, सदियों से एक-दूसरे के खून के प्यासे शिया-सुन्नी हिन्दुओं की जिहाद रोकने की हिमाकत का पुरज़ोर जवाब देने एक हो जाएँ, राजनेता “all religions are same” की आलस्यपूर्ण सोच से निकलने से साफ़ मना कर देते हैं।

अभी भी लिख कर ले लीजिए कि वही रील रिवाइंड कर बजाई जाएगी- कट्टरपंथी मज़हबी सोच का राजनीतिक मोल-तोल से band-aid समाधान निकाल कर अपनी पीठ थपथपाई जाएगी, और “मज़हब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना” के तरानों से घाटी की नफ़रत भरी दहाड़ और जम्मू-लद्दाख के दिल में बैठे भय के आर्तनाद को दबा दिया जाएगा।

(महायोगी और प्रखर क्रांतिकारी Sri Aurobindo ने दशकों पहले अपने समकालीन भारतीयों में बौद्धिक आलस्य और खुद को छलने की इस प्रवृत्ति को भाँप कर इसे “loss of thought power (in Indians  of HIS TIME)” कहा था। अफ़सोस यह है भारत को आज़ाद हुए 75 साल होने वाले हैं, Aurobindo हमें लगभग 70 साल पहले छोड़ कर जा चुके हैं, और हम एक इंच भी आगे बढ़ने की बजाय 4 मील और पीछे आ गए हैं)

रिज़वान ने हिंदू बनकर की धोखे से मंदिर में शादी, आधार कार्ड ने खोली पोल

उत्तर प्रदेश के देवरिया जिले में एक मुस्लिम युवक ने अपनी पहचान छिपाकर एक हिंदू युवती से शादी कर ली और उसके साथ पति के रूप में कई महीनों से रह रहा था। एक दिन युवती के हाथ रिज़वान नाम के इस युवक का आधार कार्ड हाथ लगा जिसके बाद उसे युवक के मुस्लिम होने का पता चला।

इसके बाद महिला ने इस मामले में देवरिया पुलिस थाने में अपने पति के खिलाफ धोखाधड़ी का मामला दर्ज करवाया है। पुलिस आगे इस मामले में जाँच कर रही है।

घटना के संबंध में बरहज थाने के प्रभारी (SHO) वीर बहादुर यादव ने बताया कि आरोपित युवक अपनी मूल पहचान और धर्म छिपाकर पिछले डेढ़ माह से कपरवार के पश्चिम टोला में हिन्दू युवती के साथ किराए के मकान में रह रहा था। युवती ने पुलिस को बताया कि उसे रिज़वान पर कभी जरा भी शक नहीं हुआ कि जिस युवक से उसने शादी की है वह मुस्लिम है।

पुलिस ने बताया कि आरोपित युवक का असल नाम रिज़वान है, जबकि वह आशुतोष राय नाम की झूठी पहचान के साथ महिला के साथ रह रहा था। यही नहीं आरोपित के पास से आशुतोष राय नाम से झूठा पहचान पत्र भी बरामद हुआ है। उन्होंने बताया कि देवरिया जिले के लार के रोपन छपरा निवासी रिज़वान दवा का कारोबारी है।

कुशीनगर जिले के रामकोला क्षेत्र में वह दवा आपूर्ति करता था। इसी बीच वह युवती के संपर्क में आया। दोनों के बीच मुलाकात बढ़ी और रिज़वान ने युवती को बहला-फुसला कर उससे मंदिर में शादी कर ली और उसके साथ रहने लगा। युवती को रिजवान पर कभी भी शक नहीं हुआ कि जिस रिज़वान उसे नाम बदलकर धोखा दे रहा है।
इस मामले में पुलिस अभी जाँच कर रही है और पता लगाने की कोशिश कर रही है कि आरोपित रिजवान ने इसी तरह किसी अन्य के साथ भी तो धोखा नहीं किया है।

‘आपकी ऋण माफ़ी अब चुनाव के बाद होगी’: गोभक्त कमलनाथ का लोगों को SMS

“XYZ जी, जय किसान फसल ऋण माफी योजना में आपका आवेदन मिला है। लोकसभा चुनाव आचार संहिता के कारण आपकी ऋण माफी अभी स्वीकृत नहीं हो पाई है। चुनाव के बाद शीघ्र स्वीकृत की जाएगी।” 10 मार्च, 2.24 PM पर मुख्यमंत्री कमलनाथ का यह मैसेज जारी हुआ।

रिपोर्ट्स के अनुसार, इसी तरह के SMS दोपहर 2 बजे के करीब ऋण माफी के अन्य आवेदकों को भी भेजे गए, जबकि लोकसभा चुनाव की आचार संहिता के लिए चुनाव आयोग ने शाम को 5 बजे प्रेस कॉन्फ्रेंस की थी। मानो मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री कमलनाथ इंतजार कर रहे थे कि जल्द से जल्द आचार संहिता लगे, ताकि किसानों का ऋण माफ न हो। वहीं, मैसेज बताए गए समय से जल्दी भेजने को लेकर ऋण माफी से जुड़े सरकारी दफ्तरों खामोशी पसर गई है।

सत्ता हासिल करने के 7 दिन के भीतर होना था किसानों का 2 लाख तक का ऋण माफ

प्रदेश में सत्ता हासिल करने के 7 दिन के भीतर ही किसानों का ₹2 लाख तक का कर्ज माफ करने का दावा करने वाली कॉन्ग्रेस सरकार 75 दिन के बाद भी अपने वादे को पूरा नहीं कर पाई है। आवेदन जमा होने के बाद चिह्नित किसानों को प्रमाण-पत्र तो दे दिए परंतु बैंकों में पैसा न होने के कारण किसान ठगा महसूस कर रहे हैं।

मुख्यमंत्री कमलनाथ के हवाले से भेजे जा रहे मोबाइल संदेशों में कहा जा रहा है, “जय किसान फसल ऋण माफी योजना में आपका आवेदन मिला है। लोकसभा चुनाव की आचार संहिता के कारण आपकी ऋण माफी नहीं हो पाई है। चुनाव के बाद शीघ्र स्वीकृति की जावेगी।”

बैतूल बाजार क्षेत्र के किसानों सहित अन्य किसान भी बता रहे हैं कि मोबाइल पर ऐसे मैसेज मिले हैं। इसी तरह के मैसेज विदिशा, सीहोर जिले के किसानों के मोबाइल पर रविवार (मार्च 10, 2019) दोपहर में किसानों को प्राप्त हुए हैं।

ऋण माफ़ी के वादे पर अब तक कमलनाथ का प्रदर्शन निराशाजनक ही रहा है

कॉन्ग्रेस सरकार के ऋण माफ़ी के दावे और हक़ीक़त में अब तक जमीन आसमान का अंतर देखने को मिला है। कभी किसानों के खाते में 13 रुपए डाल दिए गए, तो कभी कॉन्ग्रेस कार्यकर्ताओं द्वारा किसानों को दौड़ा कर पीटा गया है।

गो-भक्ति पर ज्यादा ध्यान दे रहे हैं CM कमलनाथ

गाय माता के प्रति मध्य प्रदेश में कॉन्ग्रेस के CM गो-भक्त कमलनाथ भाजपा से ज्यादा संवेदनशील हैं और गो हत्या के मामलों पर बिलकुल भी नरमी बरतने के मूड में नहीं दिख रहे हैं। गाय को ‘चुनावी माता’ बनाकर कॉन्ग्रेस ने मध्य प्रदेश में विधानसभा चुनाव से पहले अपने घोषणापत्र में ग्राम पंचायतों में गौशाला बढ़ाने का वादा किया था। कॉन्ग्रेस पार्टी ने डंके की चोट पर गाय के पीछे-पीछे चलने का ऐलान कर दिया था और गौशाला बनाने के लिए अनुदान देने की बात भी कही है। लेकिन वोट बैंक बनाने के लिए की जा रही गाय माता की सेवा के साथ वो अन्य काम पर ध्यान नहीं दे पा रहे हैं।

अंतर्यामी हैं मुख्यमंत्री कमलनाथ: भार्गव

नेता प्रतिपक्ष गोपाल भार्गव ने इस मैसेज को लेकर कटाक्ष करते हुए कहा है, “CM कमलनाथ अंतर्यामी हो गए हैं। उनकी आत्मा ने पहले ही सुन लिया था कि 3 घंटे बाद आचार संहिता लगने वाली है। दरअसल, कॉन्ग्रेस तो बहाना तलाश रही थी कि कब आचार संहिता लगे और पैसा न देना पड़े। लोकसभा चुनाव से पहले कॉन्ग्रेस सरकार ने झुनझुना थमाया था। पैसा है नहीं, कहाँ से देते। किसान अब समझ चुके हैं कि ऋण माफ़ी के नाम पर कॉन्ग्रेस ने उनके साथ मजाक किया है।”

केजरीवाल सपोर्ट देने के लिए घूम रहे हैं, राहुल गाँधी लेना ही नहीं चाहते! दुःखद!

केजरीवाल जी दिल्ली के मुख्यमंत्री हैं, सम्मानित व्यक्ति हैं। ये उनको वोट देने वाला हर व्यक्ति कसम खाकर कह सकता है। आजकल वो लेन-देन की बात कर रहे हैं, जो हो सकता है व्यापारियों का समर्थन लेना चाह रहे हैं। पिछले कुछ दिनों में उन्होंने लगातार ट्वीट, भाषण और जनसभाओं को संबोधित करते हुए बोला कि वो तो कॉन्ग्रेस को सपोर्ट देने के लिए लालायित हैं, वो लेना ही नहीं चाहते। 

ये स्थिति बहुत खराब है। खासकर कॉन्ग्रेस को यह समझना चाहिए कि यही वो समय है जब वो चुपके से केजरीवाल जी के रजिस्टर में अपने आप को सच्ची और अच्छी पार्टी वाले कॉलम में जगह बनवा ले। लेकिन दिनकर जी ने कहा था कि ‘जब नाश मनुज पर छाता है, पहले विवेक मर जाता है’। राहुल गाँधी और शीला दीक्षित समेत पूरे कॉन्ग्रेस का विवेक मर चुका है क्योंकि वो इस सुनहरे मौक़े को छोड़ रहे हैं।

केजरीवाल की पूरी राजनीति कॉन्ग्रेस और शीला दीक्षित के खिलाफ काग़ज़ों के बंडल की आधारशिला पर खड़ी हुई है। जब उन्हें कोई नहीं जानता था, तब वो जनसामान्य की भावनाओं पर खेलते हुए, ‘सारे नेता चोर हैं’ का कोरस गाकर सुपरहिट हो गए थे। लोग मेट्रो ट्रेन से लेकर सड़कों पर ‘या तो आप अन्ना-केजरीवाल के साथ हैं, या आप भ्रष्ट हैं’ की बातों करते हुए लड़ जाते थे। 

और आज, केजरीवाल मुँह से, शरीर से, ट्वीट से, और हर उस तरीके से कॉन्ग्रेस से समर्थन के लिए डेस्पेरेट हुए जा रहे हैं, जिससे लगता है कि इस व्यक्ति के लिए सत्ता का लालच कितना प्रबल है। ये आदमी आपको ‘नई राजनीति’ के सपने दिखाया करता था। ये आदमी आपको कहता था कि तिजोरी में सबूत हैं, और उसकी चाभी उसके पास है। ये आदमी हवा में पन्ने लहराकर कहता था कि भ्रष्टाचारियों को जेल में डाल देगा।

और आज, खुद ही उन्हीं लोगों से समर्थन ऐसे माँग रहा है… ऐसे-ऐसे माँग रहा है कि उसके स्वघोषित आलोचक तक स्तब्ध हैं कि ये किस हद तक गिरेगा! केजरीवाल कल को भले ही कह दें कि ट्वीट उनका भतीजा लिख रहा था और मोदी ने उनके क्लोन से सभाओं में कॉन्ग्रेस से सपोर्ट की बात कहलवाई है, लेकिन आज का सच यही है कि केजरीवाल ‘मेरे हस्बैंड मुझसे प्यार नहीं करते’ का रोना हर जगह रो रहे हैं।

कुछ दिन पहले शीला दीक्षित की उपस्थिति में इस बात पर चर्चा हुई थी, और दिल्ली में गठबंधन को कॉन्ग्रेस ने पूरी तरह से नकार दिया था। ये बात और है कि महागठबंधन के मंचों पर राहुल और केजरीवाल साथ-साथ देखे गए हैं। शीला दीक्षित को ये बात तो याद होगी ही कि दिल्ली में इतना काम करने के बाद भी केजरीवाल ने एक हवा बनाकर उन्हें सत्ता से ऐसा पटका कि कॉन्ग्रेस का पूरा सूपड़ा साफ हो गया। 

अब शायद केजरीवाल को अपने अस्तित्व की चिंता हो रही होगी। लगातार घटते जनाधार, निगम चुनावों में हुई हार, हर दिन अपने आप को जनता की नज़रों में गिराते रहने के बाद, आंतरिक सर्वे बाहर में जो भी इन्होंने दिखाया हो, भीतर की हवा तो टाइट ही दिखती है। केजरीवाल को पहले की तरह न तो चंदा मिल रहा है, न ही लोग इसके पक्ष में हैं। चंदा जुटाने के लिए टिकटों की बिक्री से लेकर, विधायकों से वसूली तक की बातें सामने आती रही हैं। इसमें सच कितना है, वो केजरीवाल ही जानते होंगे, लेकिन टिपिकल रवीश कुमार टाइप शब्दों को इस्तेमाल करूँ तो ‘जाँच करा लेनी चाहिए’। 

केजरीवाल के गिरने का स्तर अभी तक निम्नतम पर नहीं पहुँचा है। क्योंकि ये अभी बेक़रारी का दौर है, यहाँ हताशा दिखनी शुरु हुई है। निम्नतम स्तर पर ये तब पहुँचेगा जब केजरीवाल अपने असली रंग में आकर राहुल गाँधी और कॉन्ग्रेस को गालियाँ देना शुरु करेंगे। ये होगा, और ज़रूर होगा। केजरीवाल एक महीने के भीतर, जब कॉन्ग्रेस की तरफ से सारे उम्मीदवारों के नामांकन की ख़बर सुन लेंगे, तो कॉन्ग्रेस को चोर, लुटेरा और भ्रष्ट कहने लगेंगे। 

उसके बाद फिर से आम आदमी पार्टी के समर्थकों को चरमसुख मिलने लगेगा। फ़िलहाल तो केजरीवाल चरमसुख की तलाश में हैं जो कि कॉन्ग्रेस से गठबंधन करने के बाद, थ्योरेटिकली मोदी-शाह को हर जगह से उखाड़ फेंकने के बाद, सत्ता पाने के बाद, अपने आप इन तक चल कर आएगा। 

यही कारण है कि अरविन्द केजरीवाल सपोर्ट देना चाह रहे हैं, आगे पीछे घूम रहे हैं, मीटिंग कर रहे हैं, पब्लिक जगहों से आवाज लगा रहे हैं, और एक बेवफ़ा सनम राहुल हैं कि लेना ही नहीं चाह रहे सपोर्ट। 

किसको पता था क्यूट डिम्पलधारी राहुल गाँधी एक दिन केजरीवाल जैसे दूध के धुले, सर्टिफ़िकेट वितरक केजरीवाल जी के सपोर्ट को लेने से मना कर देगा! लेकिन दुनिया है, ये सब भी देखना पड़ता है। देखते रहिए, पता नहीं कल क्या दिख जाए।  

बिहार महागठबंधन का लोकतंत्र: लालू यादव जेल से ही तय कर रहे उम्मीदवार और रणनीति

बिहार में विपक्षी महागठबंधन के सभी बड़े नेता राँची स्थित बिरसा मुंडा सेंट्रल जेल में हाजिरी दे रहे हैं। चारा घोटाले में सज़ायाफ्ता बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव उसी जेल में बंद हैं। बता दें कि बिहार में भाजपा-जदयू-लोजपा गठबंधन के मुक़ाबले राजद महागठबंधन का नेतृत्व करेगा जिसमें उपेंद्र कुशवाहा की रालोसपा भी शामिल है। कॉन्ग्रेस के इसमें शामिल होने को लेकर अभी तक पेंच बरकरार है। हालाँकि,दोनों दलों के नेताओं का कहना है कि कॉन्ग्रेस इस गठबंधन का हिस्सा बनेगी। लेकिन, ये सारी रणनीति एक व्यक्ति के इशारे पर तय हो रही है और वो हैं लालू यादव। लालू जेल से ही अपने पत्ते खेल रहे हैं और उनके इशारे पर महागठबंधन में बाजी बन और पलट रही है।

फिलहाल लालू यादव स्वास्थ्य कारणों से राजेंद्र इंस्टिट्यूट ऑफ मेडिकल साइंस (RIMS) में दाखिल हैं। वहाँ उनका इलाज़ चल रहा है। उनसे मिलने आने वाले लोगों से भी वह हॉस्पिटल में ही मुलाक़ात कर रहे हैं। झारखण्ड के उस अस्पताल के बाहर बिहारी नेताओं की लम्बी लाइन लगी हुई है। जनवरी में हिंदुस्तानी आवाम मोर्चा के अध्यक्ष और पूर्व मुख्यमंत्री जीतन राम माँझी लालू से मिलने पहुँचे थे। जदयू के पूर्व अध्यक्ष और राज्यसभा से अयोग्य करार दिए गए शरद यादव भी लालू से मिले। फरवरी में पूर्व केंद्रीय मंत्री उपेंद्र कुशवाहा और मुकेश साहनी ने लालू के साथ बैठक की। लालू यादव को इस स्थिति में बिहार की राजनीति का ‘हैंड ऑफ गॉड’ कहा जा रहा है।

लालू यादव उम्मीदवार चुनने से लेकर पार्टी के आंतरिक निर्णयों तक, सभी चीजों पर नेताओं से मिलकर अपनी सलाह दे रहे हैं। पिछले कुछ सप्ताह में विधायक भोला यादव और वामपंथी नेता सीताराम येचुरी, डी राजा ने भी लालू से मुलाक़ात की। भोला यादव ने इस बारे में अधिक जानकारी देते हुए कहा:

“उनसे मिलने के अनुरोध के साथ हर हफ्ते सैकड़ों आवेदन आते हैं। विपक्षी दलों के राजनीतिक नेताओं, उनके अपने विधायकों और नेताओं, टिकट चाहने वालों और यहाँ तक कि उन लोगों से जो बिहार के विभिन्न हिस्सों से सिर्फ उनसे मिलने के लिए आना चाहते हैं।”

नियमानुसार आगुन्तकों में से लालू यादव को किसी तीन को चुनने को कहा जाता है। उन्हें मिलने आए लोगों के नाम दिए जाते हैं, जिसमे से वह किसी तीन से मिलते हैं। झारखण्ड के मुख्यमंत्री रघुबर दास ने कहा है कि इस मामले में जेल नियमों में कोई ढील नहीं दी जाएगी। फरवरी के पहले सप्ताह में पटना में हुई राहुल गाँधी की रैली में तेजस्वी यादव लालू के कहने पर ही शामिल हुए थे। लालू जानते थे कि विपक्षी एकता दिखने के लिए राजद की मौजूदगी उस मंच पर ज़रूरी है। लालू यादव की पार्टी बिहार में उनके पुराने माय (मुस्लिम-यादव) समीकरण के भरोसे है। नितीश कुमार और नरेंद्र मोदी के रूप में राज्य में राजग के पास वोट बटोरने के लिए दो बड़े चेहरे हैं। पासवान के रहते एक बड़ा दलित चेहरा भी है। ऐसे में, महागठगबंधन की स्थिति अभी वहाँ कमजोर लग रही है।

समझें Terrorism financing का कुचक्र: JNU से लेकर अमेरिका तक फैला है नेक्सस

जम्मू कश्मीर में आतंकियों और अलगाववादियों की गतिविधियों से कोई अनजान नहीं। आतंकी छुप-छुप कर कायराना तरीक़े से वार करते हैं, अलगाववादी अपने आप को विक्टिम दिखा कर इस पार से भी मलाई चाटते आए हैं और उस पार से भी। अभी तक अलगाववादियों के मजे ही मजे थे लेकिन मोदी सरकार के सत्ता सँभालने के साथ ही इनकी अय्याशियों का दौर ख़त्म हो गया, जो कि ज़रूरत से ज़्यादा लम्बा हो चला था। किसी भी कार्य को बड़े स्तर पर करने के लिए प्राथमिक तौर पर दो संसाधनों की आवश्यकता होती है- मानव संसाधन और धन। कश्मीरी अलगाववादी इन दोनों का ही भरपूर इस्तेमाल करते हैं। पत्थरबाजों की फ़ौज सड़कों पर यूँ ही नहीं उतरती, उन्हें उतारने के लिए रुपयों की ज़रूरत पड़ती है। यह कुचक्र काफ़ी बड़ा है, गहन है और इसमें कई खिलाड़ी शामिल हैं। हम एक-एक कर इन सभी पहलुओं की पड़ताल करेंगे और इतने बड़े नेक्सस को उजागर करने के लिए इतिहास की घटनाओं, विश्लेषकों की राय और ताज़ा घटनाक्रम पर प्रकाश डालेंगे।

व्यापारी ज़हूर अहमद और टेरर फंडिंग

यह खेल इतना बड़ा है कि इसमें व्यापारी, राजनयिक, नेता, आतंकी और अलगाववादी सभी शामिल हैं। अभी हाल ही में राष्ट्रीय जाँच एजेंसी (NIA) ने कश्मीरी व्यापारी ज़हूर अहमद शाह वटाली की गुड़गाँव स्थित एक करोड़ रुपए की संपत्ति को जब्त किया। टेरर फंडिंग और मनी लॉन्ड्रिंग का मामला झेल रहा ज़हूर कश्मीर का एक बहुत बड़ा व्यापारी है। श्रीनगर में उसका अच्छा-ख़ासा प्रभाव है। उस पर कई महीनों से जाँच चल रही है। सितंबर 2018 में दिल्ली हाईकोर्ट ने उसे जमानत दी थी। आने वाले दिनों में प्रवर्तन निदेशालय उनकी 6 करोड़ रुपए की अतिरिक्त संपत्ति को भी जब्त करने वाला है। ज़हूर के सम्बन्ध पाकिस्तानी आईएसआई से लेकर आतंकियों तक से हैं। उसे 17 अगस्त 2017 को गिरफ़्तार किया गया था। यह बहुत ही गंभीर मामला है। यह इतना गंभीर है कि उस पर फाइल की गई चार्जशीट में हाफ़िज़ सईद और सैयद सलाहुद्दीन के साथ मिल कर जम्मू कश्मीर को पाकिस्तान में मिलाने का कुचक्र रचने का जिक्र किया गया था।

सबसे बड़ी समस्या है कि ऐसे लोगों पर कड़ी कार्रवाई नहीं की जाती। अगर वटाली जैसे लोगों पर समय रहते उचित कार्रवाई की गई होती तो आज उसने हाफ़िज़ सईद के रुपयों से गुरुग्राम में संपत्ति नहीं ख़रीद रखी होती। डेढ़ दर्जन से भी ज्यादा आरोपितों पर टेरर फंडिंग के मामले में कार्रवाई चल रही है। आपको यह जान कर आश्चर्य होगा कि वटाली को 1990 में ही कश्मीरी आतंकियों को पोषित करने के आरोप में गिरफ़्तार किया गया था। अगर उस समय उचित कार्रवाई की गई होती तो आज लगभग 30 वर्षों बाद वही व्यक्ति फिर से वही सब नहीं कर रहा होता। पिछले 30 वर्षों में उसने किन आतंकियों को रुपए मुहैया कराए, उनका कहाँ इस्तेमाल किया गया, उससे कितनी क्षति हुई यह सोच कर ही रोंगटे खड़े हो जाते हैं। तीन दशक एक बहुत बड़ा समय होता है। अब जब एनआईए ने इस केस को अपने हाथों में ले लिया है, कई राज खुलने की संभावना है।

ज़हूर अहमद को 1991 में छोड़ दिया गया लेकिन वह अपनी आदत से बाज नहीं आया। उसे अगस्त 1994 में पाकिस्तानी आतंकी सगठन अल बुर्क़ को वित्तीय संरक्षण देने के लिए फिर गिरफ़्तार किया गया। 2005 में यूपीए के शासनकाल के दौरान ही यह बात खुल कर सामने आ गई थी कि ज़हूर अहमद आईएसआई और अलगाववादियों के बीच धन प्रवाह का एक पुल है। वह एक ऐसा केंद्र रहा है, जहाँ पाकिस्तान और कश्मीर में आतंक फैला रहे लोग एक-दूसरे की ज़रूरतों को पूरा करने के लिए आवश्यक संसाधनों का आदान-प्रदान करते हैं। वटाली दिल्ली की कई महँगी जगहों पर संपत्ति लेकर बैठा रहा और 30 सालों से सरकारें अनजान बानी रही या उसे खुला छोड़ रखा गया। वह अपना व्यापार बढ़ाता गया और साथ ही आतंकवाद को फंडिंग मुहैया कराता रहा।

टेरर फंडिंग: पाकिस्तान राजनयिक कनेक्शन

अब घूम-फिर कर शक की सुई फिर से पाकिस्तानी दूतावास पर आ गई है। एनआईए को शक है कि अलगाववादियों को कश्मीर में अशांति फैलाने के लिए सरहद पार से करोड़ों रुपए मिले हैं। वटाली के साथ काम कर रहे गुलाम बट के पास से मिले दस्तावेजों के आधार पर प्रवर्तन निदेशालय का कहना है कि पाकिस्तानी राजनयिकों ने टेरर फंडिंग के इस मामले में अहम भूमिका निभाई है। कर्नल जयबंस सिंह ने अपनी पुस्तक ‘Jammu and Kashmir: The Tide Turns‘ में लिखा है कि बरसों से चल रही सीबीआई की जाँचों से पता चलता है कि गिलानी, अब्दुल गनी लोन, मौलाना अब्बास गिलानी जैसे अलगाववादी ‘Foreign Contribution Regulation Act (FCRA)’ का उल्लंघन करते आए हैं। ऐसा वे कई बार कर चुके हैं। गिलानी सरकार को दशकों से यह बोल कर बेवकूफ बनाता रहा है कि उसे स्थानीय लोगों से रुपए मिलते हैं लेकिन कश्मीरी ग्रामीणों की आर्थिक स्थिति को देख कर ऐसा लगता नहीं कि वे अलगाववादियों के लिए इतने रुपए चंदा दे सकते हों। हाँ, मध्यम वर्ग ज़रूर रंगदारी या जबरदस्ती की वजह से पैसे देने में समर्थ हो लेकिन स्वेच्छा से शायद ही कश्मीरी करोड़ों रुपए दान कर दें।

कर्नल सिंह ने अपने रिसर्च में पाया कि अलगाववादियों की लम्बे समय से हवाला कारोबार में हिस्सेदारी रही है और सीबीआई ने कहा था कि गिलानी ने अमेरिका में रह रहे कश्मीरियों और सऊदी अरब से क़रीब 30 करोड़ रुपए जुटाए थे। जेएनयू के एक छात्र सहाबुद्दीन गोरी ने अलगाववादियों को 16 लाख से भी अधिक रुपए दिए थे, जो उसने हवाला के जरिए जुटाया था। जेएनयू तक इस कनेक्शन का पहुँचना यह दिखाता है कि भारत के कोने-कोने से ऐसे कथित बुद्धिजीवी हैं जो कश्मीर में फ़ैल रहे आतंकवाद को बढ़ावा दे रहे हैं। 1992 में तो एक सुप्रीम कोर्ट के वकील के भी इस कुचक्र में शामिल होने की ख़बरें आई थीं। 1992 में पूर्व कॉन्ग्रेस (आई) नेता मोहम्मद अनीस ने खुलासा किया था कि अब्दुल गनी लोन को उसकी बेटी के माध्यम से हवाला भुगतान हुआ था। उसकी बेटी शबनम सुप्रीम कोर्ट में वकील है। ये रुपए दिल्ली के हवाला ऑपरेटर शशि अग्रवाल द्वारा आया था।

अब हम आपको 2003 की एक ख़बर की तरफ ले चलते हैं। आज जो भारतीय एजेंसियों की शक की सुई पाकिस्तानी राजनयिकों तक जा पहुँची है, यह बेजा नहीं है। 2003 में भारत ने कार्यवाहक पाकिस्तानी उच्चायुक्त जलील अब्बास जिलानी को देश से निकाल दिया था। जिलानी और दिल्ली स्थित पाकिस्तानी दूतावास के अन्य राजनयिकों ने कश्मीर में आतंक को बढ़ावा देने के लिए फंडिंग करने का कार्य किया था। इसी कारण उन्हें निकाल बाहर किया गया। यह दिखाता है कि देश में पाकिस्तानी नागरिकों की मौजूदगी कितनी ख़तरनाक है, चाहे यह किसी भी रूप में हो। टेरर फंडिंग के इस मामले में कुछ पत्रकार भी शामिल हैं। पाकिस्तानी राजनयिक महमूद अख्तर को तो हाथों भारत में जासूसी करते हुए पकड़ा गया था, जिसके बाद उन्हें देश से निकाल फेंका गया।

अंतररष्ट्रीय विश्लेषक मैथ्यू जे वेब अपनी पुस्तक ‘Separatist Violence in South Asia: A comparative study‘ में श्रीलंका में तमिल विद्रोह, पंजाब में खालिस्तान आंदोलन और कश्मीर में अलगाववाद की तुलना करते हुए कहते हैं कि इन तीनों में विदेश में रह रहे स्थानीय समुदाय के लोगों का वित्तीय योगदान था। शायद यही कारण है कि कश्मीरी अलगाववादी अक्सर अमेरिकी और दुबई दौरे पर जाते हैं ताकि वहाँ रह रहे अमीर कश्मीरी कट्टरपंथियों से सहानुभूति पाकर फंडिंग ले सकें।

भारत सरकार ने बढ़ाई अलगाववादियों की हिम्मत

भारत की जमीन पर आतंकवाद को फंडिंग करने वाले व जासूसी करने वाले पाकिस्तानी राजनयिकों को निकाल बाहर किया गया। बदले में पाकिस्तान ने भी भारतीय राजनयिकों को वापस देश जाने को कहा। इस तरह से इसे एक अंतरराष्ट्रीय कूटनीतिक मुद्दे का रूप दे दिया जाता है। एक व्यापारी जो भारत में ही रह कर आतंकियों को वित्त पोषण दे उसे गिरफ़्तार कर के खुला छोड़ दिया जाता है। अलगाववादियों द्वारा विदेशों से करोड़ों रुपए जुटा कर लाए जाते हैं और विदेशी मुद्रा अधिनियम का उल्लंघन किया जाता है लेकिन इस मामले में भी कोई कार्रवाई नहीं की जाती। इस सबसे क्या पता चलता है? इन सब से यही निष्कर्ष निकलता है कि आतंकियों और अलगाववादियों पर ढीला रवैया अपना कर सरकारों ने ही उनका हौसला बढ़ाया।

आतंकवाद पर भारत की हर कार्रवाई को पाकिस्तान द्वारा कूटनीतिक रंग देना अलगाववादियों व आतंकियों के हित में कार्य करता है। राजनेताओं द्वारा इसे धार्मिक कोण दे दिया जाता है। धर्म और कूटनीति के बीच पिसता हुआ आतंकवाद का मुद्दा न जाने कहाँ खो जाता है। अब भारत सरकार द्वारा अलगावादियों की सुरक्षा वापस लेकर और टेरर फंडिंग का मामला दर्ज कर सही काम किया गया है। मीरवाइज़ उमर फ़ारुक़ ने तो एनआईए के समक्ष पेश होने से ही मना कर दिया। पूर्व मुख्यमंत्री महबूबा ने उसे धर्म की आड़ में बचाने की कोशिश की। यह सब असली मुद्दे को छिपाने की कोशिश है, जिसे समझते हुए आगे की कार्रवाई की जानी चाहिए। चाहे वह जेएनयू का छात्र हो, सुप्रीम कोर्ट का वकील हो, कोई व्यापारी हो या फिर कोई पत्रकार आतंक को वित्तीय मदद मुहैया कराने वाले इन सभी पर तगड़ा वार होना चाहिए।

29 ट्वीट, 88 लोगों व संस्था को टैग: एक सामान्य बात के लिए आखिर PM मोदी को क्यों लगाना पड़ा इतना जोर

लोकसभा चुनाव 2019 के पहले चरण के मतदान में अब महीने भर से भी कम समय है।

मतदान हमारे महत्वपूर्ण कर्तव्यों में से एक है।

हमारा वोट देश की विकास यात्रा में हमारी भागीदारी का संकल्प है। मताधिकार का प्रयोग कर हम देश के सपनों और आकांक्षाओं को पूरा करने में अपना योगदान देते हैं।

आइए, एक ऐसा वातावरण बनाते हैं, जहां वोटर कार्ड पाना और वोट देना गर्व की बात हो, सब लोग इसको लेकर उत्साहित हों। विशेषकर पहली बार वोट डालने वालों के लिए तो यह लोकतंत्र का उत्सव ही बन जाए।

माहौल ऐसा बने कि वोट नहीं कर पाने पर व्यक्ति को पश्चाताप हो। फिर कभी देश में कुछ भी गलत दिखे तो व्यक्ति अपने आप को उसके लिए जिम्मेदार माने और सोचे कि यदि मैं उस दिन वोट करने गया होता तो ऐसी दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति पैदा नहीं होती और देश मुसीबत नहीं झेलता। हमें अपने जीवन में ऐसा पछतावा न करना पड़े, इसके लिए वोट अवश्य दें।

आज मैं आप लोगों से चार अनुरोध करना चाहता हूं –

(1) आज ही रजिस्टर करें :

वोटर कार्ड होना हर एक के लिए गर्व का विषय हो।
अगर आपने अपने आपको वोटर के रूप में रजिस्टर नहीं किया है तो जल्द से जल्द इस कार्य को पूरा करें।
आप www.nvsp.in वेबसाइट पर जाकर ऑनलाइन भी आवेदन कर सकते हैं। इसके अलावा अपने पोलिंग स्टेशन के BLOs यानि बूथ लेवल ऑफिसर से या फिर मतदाता पंजीकरण कार्यालय में जाकर भी रजिस्ट्रेशन करवा सकते हैं।

2019 का चुनाव बहुत ही खास है, क्योंकि 21वीं सदी में जन्म लेने वाले युवाओं को वोट करने का अवसर प्राप्त होगा। मुझे विश्वास है कि जिन युवाओं को वोट देने का अधिकार है और अब तक खुद को रजिस्टर नहीं कर पाए हैं, वे जल्द से जल्द ऐसा करेंगे और हमारे महान लोकतंत्र को और मजबूत करेंगे।

(2) अपने नाम की जांच मतदाता सूची में अच्छे से कर लें

समय रहते एक बार फिर से मतदाता सूची को देखें और ये जांच लें कि उसमें आपका नाम दर्ज है या नहीं।
आप अपने राज्य के इलेक्शन कमीशन की वेबसाइट पर जाकर भी मतदाता सूची में अपने नाम की जांच कर सकते हैं।
अगर आपका नाम मतदाता सूची में नहीं है तो संबंधित कर्मचारी को इसके बारे में बताएं। अगर आपने अपना घर बदला है तो ये सुनिश्चित करें कि जहां आप रहने गए हैं, वहां की मतदाता सूची में आपका नाम हो।
आपके क्षेत्र में जिस चरण में मतदान होना है, उसके लिए नामांकन दाखिल करने के अंतिम दिन तक मतदाता सूची में सुधार का काम जारी रहता है, लेकिन अंतिम तारीख तक इंतजार नहीं करें और आज ही अपना नाम जुड़वा लें।

(3) अपने कार्यक्रम सोच समझ कर तय करें

चुनाव की तारीखों की घोषणा हो चुकी है। आने वाले दिनों की योजना इस तरह बनाएं कि आप मतदान के दिन उपलब्ध हों। अगर आपने गर्मी की छुट्टी में बाहर जाने की योजना बनाई है तो मतदान से पहले या फिर बाद में जाएं।
अगर आपके वोट डालने की जगह और आपके काम करने की जगह अलग-अलग है तो वोट डालने के लिए आप जा पाएं, यह अभी से सुनिश्चित करें। आपका एक वोट राष्ट्र का भविष्य तय करेगा, इसलिए जरूरत पड़े तो वोट डालने के लिए छुट्टी भी लें।

(4) दूसरों को भी प्रेरित करें

आप अपने परिवार के सदस्यों और साथियों को भी मतदान के लिए प्रेरित करें।
जरूरत पड़े तो मतदान के दिन वोट देने के लिए उन्हें साथ लेकर जाएं।
अधिक से अधिक मतदान का मतलब है, एक मजबूत लोकतंत्र और एक मजबूत लोकतंत्र से ही विकसित भारत बनेगा।
हमने देश में पिछले कुछ चुनावों में रिकॉर्ड मतदान देखा है।

लोकतंत्र की इस महान परंपरा को और मजबूती देने के लिए मैं सभी देशवासियों से अनुरोध करता हूं कि वे 2019 के लोकसभा चुनाव में रिकॉर्ड संख्या में मतदान करें।

मैं अलग-अलग क्षेत्रों के प्रभावशाली लोगों, राजनीति, उद्योग, खेल और फिल्म जगत के लोगों से कहना चाहूंगा कि वे मतदाताओं को जागरूक करने के लिए आगे आएं। हम सब लोग मिलकर यह दिखा दें कि इस बार अभूतपूर्व मतदान होगा और इस बार का मतदान देश के चुनावी इतिहास के पिछले सारे रिकॉर्ड तोड़ देगा।

लेखक: नरेंद्र मोदी (प्रधानमंत्री, भारत)

पोप का पूर्व सलाहकार और वैटिकन का टॉप कार्डिनल बाल यौन अपराध का दोषी: मिली 6 वर्ष की क़ैद

चर्च भले ही खुद को परमपिता परमेश्वर के दूत का घर और पवित्र संस्थान बताता हो लेकिन उसके दामन पर लगने वाले दागों की संख्या दिन ब दिन बढ़ती ही जा रही है। हाल ही में एक बड़ा मामला सामने आया है जिसमें वैटिकन के पूर्व कोषाध्यक्ष और पोप फ्रांसिस के सलाहकार रह चुके कार्डिनल जॉर्ज पेल को बाल यौन अपराध का दोषी करार दिया गया है और 6 वर्ष जेल की सज़ा सुनाई गई है।

मेलबर्न (ऑस्ट्रेलिया) के कार्डिनल जॉर्ज पेल पर आरोप था कि उसने चर्च के दो ‘कॉयर बॉयज़’ (प्रार्थना गीत गाने वाले लड़के) का नब्बे के दशक में यौन शोषण किया था। अदालत ने इन आरोपों को सही पाया और जॉर्ज को 6 साल जेल की सज़ा सुनाई है। हालाँकि यह सज़ा बहुत कम है फिर भी महत्वपूर्ण यह है कि विश्वभर भर में ऐसे मामलों में अब तक सज़ा पाए ईसाई कैथोलिक पादरियों में जॉर्ज पेल का ओहदा सबसे ऊँचा है क्योंकि वह सीधा वैटिकन से जुड़ा हुआ था।

विक्टोरिया काउंटी के चीफ जज पीटर किड ने सज़ा सुनाते हुए कहा कि वो चाहते हैं कि पेल अब जीवन में कभी भी जेल से न निकल पाए और यह सज़ा बाकियों के लिए एक सबक होगी। 77 वर्षीय पेल ने दो कॉयर बॉयज़ का यौन शोषण कैथेड्रल में ही 1996 में ‘संडे मास’ के एकत्रीकरण के बाद किया था। जज ने सज़ा सुनाते हुए इस बात को रेखांकित किया कि यौन शोषण के बाद लड़कों की मानसिकता पर ऐसा दुष्प्रभाव पड़ा जो वे जीवनभर नहीं भूल पाए। एक लड़के को तो इसके कारण हेरोइन की लत गई थी जिसके कारण उसकी मौत हो गई थी।     

दक्षिणपंथी मूर्ख नहीं है वामपंथी परमादरणीय क्यूटियों, तुम एक्सेल-एक्सेल खेलते रहो

मीडिया अपनी नंगई के नए आयाम हर दिन गढ़ता जाता है। जब ख़बर न हो, तो ख़बर बनाई जाती है। एंगल न हो, तो एंगल निकाला जाता है। बात कही न गई हो, तो बात कहलवाई जाती है। कोई माफ़ीनामा नहीं, कोई शुद्धिकरण नहीं, कोई पछतावा नहीं। 

सर्फ़ एक्सेल ने एक प्रोपेगेंडा किया अपने एक विज्ञापन के माध्यम से। बहुत ही सहज तरीके से, अपने आप को धार्मिक सद्भाव का पक्षधर दिखाते हुए, विज्ञापन में होली के त्योहार को समुदाय विशेष के बच्चे पर आतंक की तरह से दिखाते हुए, एक बच्ची का सहारा लेकर यह जताने की कोशिश हुई कि हिन्दुओं ने उनकी नमाज़ तक बंद करा रखी है।

विज्ञापन बनाने वालों को सामान भी बेचना है, और उन्हीं की भावनाओं को टार्गेट भी करना है जो उनका सबसे बड़ा ख़रीदार है। जब विज्ञापन की कॉपी लिखी जाती है तो किसी को आहत करना उसका मक़सद नहीं होता, बशर्ते आप सच में किसी को आहत करके ही चर्चा का विषय बनना चाहते हैं। 

टीवी पर अब विज्ञापन कोई नहीं देखता। विज्ञापन आया, आप चैनल बदल लेते हैं। ऐसे में दो उपाय बचते हैं विज्ञापन बनाने वालों के लिए, पहला यह कि विज्ञापन इतना अच्छा बना दिया जाए कि वाक़ई लोग उसे देखें। जैसा कि गूगल ने कई बार एक से डेढ़ मिनट लम्बे विज्ञापन बनाए हैं, जिसमें कहानियाँ होती हैं, और आप भावुक हो जाते हैं। ऐसे विज्ञापन खूब शेयर होते हैं, और इसी के माध्यम से कम्पनी का प्रचार भी हो जाता है।

इस तरीके में थोड़ा समय लगता है, थोड़ा दिमाग लगाना होता है, टीम को बैठकर कॉपी लिखनी होती है, सामाजिक संवेदना और भावनाओं को केन्द्र में रखकर चर्चा होती है, तब जाकर वह विज्ञापन बनकर तैयार होता है। चूँकि, इतने स्तर पर इसमें लोग जुड़े होते हैं, तो उसमें किसी को टार्गेट करने की जगह, सब को अपील करने की बात पर ज़्यादा ज़ोर होता है। 

दूसरे तरीके में ऐसा अप्रोच नहीं होता। दोनों तरीके का मक़सद है चर्चा में आना। दूसरे तरह के लोग, जो सर्फ़ एक्सेल वाले हैं, या फिर पूरी दुनिया में कभी बीयर बेचते हुए नस्लभेदी बात कहने वाले, या फिर डोल्चे एंड गबाना, पेप्सी, या केटी पैरी जैसे ब्रांड और लोगों के द्वारा आम जनता की भावनाओं के साथ खेलते हैं, ऐसे लोग जानबूझकर इस तरह के विज्ञापन बनाते हैं।

इस तरह के विज्ञापन को बनाने में आपको टार्गेट पता होता है, वो किन बातों से नाराज हो सकते हैं, ये भी पता होता है। फिर आप शब्दों और तस्वीरों की कलाकारी से दिखाते हैं कि आप सद्भावना की बात कर रहे हैं, और बड़े ही प्रेम से आप नफ़रत बाँटकर निकल लेते हैं। सर्फ़ एक्सेल ने यही तरीक़ा अपनाया। उनका तरीक़ा सफल रहा। उस विज्ञापन के कुछ दिन पहले हिन्दुस्तान यूनिलीवर ने कुम्भ मेले को ऐसे दिखाया था जैसे वहाँ हिन्दू युवक अपने बुजुर्ग माँ-बाप को छोड़कर भाग जाने के लिए आते हैं।

ऐसे विज्ञापनों के तरीके तो अब सब जानते हैं, लेकिन इसके बाद जो होता है, वो भी एक गिरोह का कारोबार बन गया है। ये बातें भी पहले से तय होती हैं कि क्या होगा, कैसे होगा, और कब होगा। एक्सेल का विज्ञापन न सिर्फ अपनी तस्वीरों के लिए बेहूदा कहा जाएगा, बल्कि होली के रंगों को ‘दाग’ जैसे नकारात्मक शब्दों से जताने के लिए भी। हम होली खेलकर आते हैं, तो यह नहीं कहते कि ‘दाग नहीं छूट रहा’, हम यही कहते हैं कि ‘रंग नहीं उतर रहा’। 

एक्सेल ने अपने शब्द चुने, टोपी पहनकर सफ़ेद कपड़ों में मस्जिद जाते मासूम बच्चे को चुना, हिन्दुओं के सुंदर से त्योहार को चुना, बच्चों की टोलियाँ चुनीं और उनके माध्यम से एक घृणित सोच को विज्ञापन के रूप में चलाया। क्या ऐसा कहीं होता है? आज के दौर में जहाँ रामनवमी के जुलूस पर समुदाय विशेष की चप्पलें फेंकी जाती हैं, दुर्गा पूजा के पंडालों पर पत्थरबाज़ी होती है, विसर्जन पर प्रशासन को घेराबंदी पर मजबूर होना पड़ता है, वहाँ आप हिन्दुओं के रंगो को ऐसे दिखा रहे हैं जैसे वो छतों से बम फेंकते हों? 

इसे कहते हैं सामान्यीकरण। अपवाद भी नहीं है, ऐसा कहीं नहीं होता कि नमाज़ पढ़ने जाते बच्चे पर, या युवक पर, किसी हिन्दू ने रंग फेंक दिया हो। अगर ऐसा होगा तो वहाँ दंगा हो जाएगा, क्योंकि इतनी समझदारी हर आदमी में है कि किस पर रंग फेंका जाए, किस पर नहीं। दंगा इसलिए होगा क्योंकि कुछ लोग दंगा कराने की फ़िराक़ में बैठे रहते हैं। जिसे रंग पड़ा हो, वो मजहब का आदमी भले ही कपड़े बदल ले, लेकिन चार लोग उस बात का बतंगड़ बनाकर झगड़ा शुरू कर सकते हैं।

नॉर्मल बात यह है, न कि वो कि छोटा बच्चा मस्जिद जा रहा है, और उसे रंगों से नहलाने का इंतजार किया जा रहा हो। और हाँ, इन मासूम बच्चों को अपनी घृणित मानसिकता में क्यों घसीट रहे हो? इन्हें न तो होली पता है, न नमाज़। ये तो रंगों से सराबोर कपड़ों में नमाज़ पढ़ लेंगे, लेकिन तुम पढ़ने दोगे नहीं। तुम्हें उन बच्चों को आतंकियों की तरह दिखाना है जो रंग खेल रहे हैं, होली मना रहे हैं।

किसी त्योहार से किसी तक नकारात्मकता कैसे पहुँचाई जाए, ये एक्सेल के विज्ञापन से देखा जा सकता है। अगली बार कोई एन्टीसैप्टिक क्रीम वाले लोग ऐसा विज्ञापन बनाएँगे, जिसमें किसी नमाज़ पढ़ने जाते समुदाय विशेष के बच्चे पर हिन्दू बच्चों ने बम उछाल दिया हो, और उसकी चमड़ी जल जाए। बाद में पता चले कि वो तो हिन्दू ही था जिसने अपने मजहबी दोस्त के लिए टोपी पहनकर बम झेला! फिर आप चुपके से अपनी क्रीम बेच लेना यह कहकर कि साम्प्रदायिक सद्भावना का परिचायक है यह विज्ञापन।

ये सब अब क्रिएटिवीटी के नाम पर हो रहा है। ऐसा करना इस प्रोसेस का पहला हिस्सा है। इसमें हिन्दुओं को पहले रंग खेलने वाले आतंकवादियों की तरह दिखाया गया जैसे वो रंग की जगह एसिड फेंक रहे हों, और रही सही कसर शब्दों के चुनाव से पूरी हो गई। प्रोसेस का दूसरा हिस्सा है ट्विटर पर बॉयकॉट सर्फ़ एक्सेल ट्रेंड होना।

ये ट्रेंड, हो सकता है, ऑर्गेनिक हो, और लोगों ने वाक़ई सर्फ़ एक्सेल को न ख़रीदने का विचार किया हो, लेकिन एंड्रॉयड एप्प स्टोर में जाकर, माइक्रोसॉफ़्ट एक्सेल एप्प के नीचे, फर्जी नाम बनाकर (प्राउड हिन्दू, जय श्री राम, अ एंड्रॉयड यूज़र आदि) टूटी-फूटी हिन्दी और अंग्रेज़ी में एप्प को गाली देना, रेटिंग कम करना, ऑर्गेनिक नहीं है। ये स्वतः नहीं होता, ये किया जाता है।

ये ऐसा जताने की कोशिश है कि दक्षिणपंथी लोग, हिन्दू लोग, वैसे लोग जिन्हें ऐसे विज्ञापनों से समस्या है, वो न सिर्फ ‘एक सामाजिक सद्भाव के विज्ञापन को समझ नहीं सके’ बल्कि उन्हें तो ‘सर्फ़ एक्सेल और माइक्रोसॉफ़्ट एक्सेल का भी फ़र्क़ नहीं पता’। ये लोग मीडिया पोर्टल चलाते हैं, तीन एप्प रिव्यू देखकर आर्टिकल लिखते हैं, और ‘स्टूपिड राइट विंगर्स’ के मज़े लेते हैं।

इनकी यही मूर्खता इनकी ताबूत में कीलों को ठोकती जा रही है। इन्हें लगता है कि ये दक्षिणपंथियों को ऐसे ही मूर्ख बनाकर दिखाते रहेंगे और इन्हें कुछ हासिल हो जाएगा। जबकि होता है इसका उल्टा। राइट विंग वाले जानते हैं कि ये करतूत किसकी है। अब सबको पता है कि मीडिया इन बातों पर कैसे रिएक्ट करेगी। लोग कटाक्ष करने के लिए माइक्रोसॉफ़्ट एक्सेल के एप्प की रेटिंग कम देकर, बुरी भाषा में कुछ लिखकर आ जाते हैं। 

ऐसा करना वामपंथियों का मजाक उड़ाना है कि तुम यही खोजते आओगे, मैंने पहले ही तुम्हारी चाल समझ ली, इसलिए हवेली पर आओ, हम तुम्हारे मज़े लेंगे। अब दक्षिणपंथी इन वामपंथियों को इन्हीं के खेल में हराने लगे हैं। ये इन्हें जितना मूर्ख दिखाने की कोशिश करें, मोर तो ये खुद ही बन रहे हैं। सर्फ़ एक्सेल वालों को बेहतर पता होगा कि फ़र्क़ माइक्रोसॉफ़्ट को पड़ा है, या सर्फ़ को। 

अब ये हथकंडे पुराने हो चुके हैं। ये उतना ही घिसा हुआ आर्टिकल होता है जितना कि हर सेलिब्रिटी के इन्स्टाग्राम पर गाली देने वाले ट्रोल को जवाब देती सेलिब्रिटी के एक कमेंट पर आर्टिकल लिखने वाले पोर्टलों के खलिहरपन की जब वो लिखते हैं ‘एंड शी शट डाउन द ट्रोल विद हर एपिक रिप्लाय’। रिप्लाय कोई एपिक नहीं होता, वो लिख रही होती है कि ट्रोल को ढंग का काम करना चाहिए, गाली देने से कुछ नहीं होगी, या फिर गाली ही देकर उससे उलझा जा रहा हो।

इसलिए, वामपंथी क्यूटाचारी पत्रकारो, पत्रकारिता के समुदाय विशेष गिरोह के चिरकुट सदस्यो, बंद करो ये नौटंकी। वैसे भी दक्षिणपंथी पोर्टलों की ट्रैफिक बढ़ती ही जा रही है और तुम्हारे बाप और दादा हिटलर का लिंग नापने से लेकर जवानों की जाति बताने, झूठे ‘एक्सपोज़े’ करने और सनसनी फैलाकर हिट्स बटोरने की जद्दोजहद में लगे हुए हैं।

एक-एक कर पार्टी छोड़ रहे कॉन्ग्रेस विधायक, 5 हफ़्तों में 7 विधायक BJP में शामिल

पिछले कुछ दिनों के ट्रेंड को देखें तो पता चलता है कि कॉन्ग्रेस के कई विधायक पार्टी से असंतुष्ट होकर खेमा बदल रहे हैं। गुजरात में तो पार्टी की स्थिति अच्छी ख़ासी बुरी है। कुल मिलाकर देखें तो पिछले 5 सप्ताह में 4 राज्यों में कॉन्ग्रेस के 6 विधायकों ने भाजपा का दामन थाम लिया। महाराष्ट्र विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष राधाकृष्ण विखे पाटिल के बेटे सुजय मुंबई में भाजपा में शामिल हुए। नेता प्रतिपक्ष के बेटे के ही पार्टी बदल लेने से कॉन्ग्रेस को राज्य में फ़ज़ीहत का सामना करना पड़ा। सुजय ने भाजपा में शामिल होने के बाद कहा- “मुझे नहीं पता कि मेरे पिता इस फैसले का कितना समर्थन करेंगे, लेकिन भाजपा के नेतृत्व में मैं अपना सब कुछ झोंक दूंगा। ताकि सभी को गर्व हो।” उनके अहमदनगर से भाजपा के टिकट पर चुनाव लड़ने की संभावना है। भाजपा संसदीय बोर्ड को उनका नाम लोकसभा उम्मीदवारी के लिए भेज दिया गया है। ये जानकारी स्वयं मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस ने दी।

गुजरात में तो कॉन्ग्रेस की स्थिति और भी बुरी हो चली है। पिछले पाँच हफ्ते में राज्य के 4 विधायकों ने भाजपा का दामन थाम लिया है। हाल ही में विधायक वल्लभ धारविया कॉन्ग्रेस छोड़ भाजपा में शामिल हुए। धारविया ने जामनगर (ग्रामीण) के विधायक पद से इस्तीफा दे दिया है। भाजपा ने कहा कि यह धारविया के लिए घर वापसी है। 2017 के विधानसभा चुनावों से पहले कॉन्ग्रेस में जाने और विपक्षी पार्टी के टिकट पर जीतने से पहले वह भाजपा के साथ थे। उन्होंने भाजपा में शामिल होकर पीएम मोदी के नेतृत्व की प्रशंसा की। उस से पहले 2 विधायकों पुरुषोत्तम सावरिया और जवाहर चावड़ा ने एक ही दिन में कॉन्ग्रेस को डबल झटका दिया था और भाजपा में शामिल हो गए थे। बता दें कि जवाहर चावड़ा और पुरुषोत्तम सावरिया दोनों ही नेताओं की अपने इलाक़े में अच्छी पकड़ रही है।

चावड़ा को तो विजय रुपानी सरकार में मंत्री भी बनाया गया है। अगर दक्षिण भारत की बात करें तो कर्णाटक में कॉन्ग्रेस विधायक उमेश जाधव इस्तीफा देने के बाद 6 मार्च को भाजपा में शामिल हो गए थे। वह लोकसभा चुनाव में कॉन्ग्रेस नेता मल्लिकार्जुन खड़गे के ख़िलाफ़ गुलबर्गा से ताल ठोक सकते हैं। खड़गे के बेटे को राज्य सरकार में मंत्रीपद दिया गया था। जाधव इसी बात से नाराज चल रहे थे। बंगाल में भी कॉन्ग्रेस की स्थिति अच्छी नहीं है। यहाँ पार्टी के विधायक दुलार चंद बार ने भाजपा का दामन थाम लिया है। बंगाल में भाजपा को डबल फ़ायदा हुआ है। राज्य में माकपा विधायक खगेन मुर्गु भी भाजपा में शामिल हो गए हैं। तृणमूल कॉन्ग्रेस के लिए भी कोई अच्छी ख़बर नहीं है। तृणमूल से निष्काषित सांसद अनुपम हजारा भी भाजपा में शामिल हुए हैं।

चुनाव के इस मौसम में भाजपा भी बाहर से आ रहे नेताओं के स्वागत में खड़ी है। जदयू, लोजपा, शिवसेना और अकाली दल जैसे पुराने गठबंधन साथियों का साथ बनाए रख कर भाजपा और उत्साह में नज़र आ रही है। तमिलनाडु में अन्नाद्रमुक के रूप में राजग में एक और बड़ा दल शामिल हुआ है। भाजपा ने जहाँ से जीत दर्ज नहीं की थी, वहाँ के विधायकों के पार्टी में शामिल होने को वह एक अच्छी निशानी के रूप में देख रही है।