Thursday, October 3, 2024
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ICICI बैंक की पूर्व CEO चंदा कोचर के ठिकानों पर CBI की छापेमारी

ICICI बैंक की पूर्व मैनेजिंग डायरेक्टर (MD) और चीफ़ एग्जीक्यूटिव अफसर (CEO) चंदा कोचर से सम्बंधित चार ठिकानों पर CBI ने छापेमारी की है। बताया जा रहा है कि FIR दर्ज़ करने के बाद जाँच एजेंसी ने गुरुवार (जनवरी 24, 2019) की सुबह महाराष्ट्र में चार जगहों पर छापेमारी की। ख़बरों के अनुसार मुंबई और औरंगाबाद में चली इस छापेमारी में औरंगाबाद स्थित वीडियोकॉन ऑफिस की भी छानबीन की गई। नरीमन पॉइंट में वीडियोकॉन का मुख्यालय है।

चंदा कोचर 2016 में फ़ोर्ब्स पत्रिका की ‘एशिया की 10 सबसे शक्तिशाली बिज़नेस-वूमन’ की लिस्ट में शामिल रही थीं। उन पर आरोप है कि उन्होंने एक नई कम्पनी बना कर फर्जीवाड़ा किया। उनके पति दीपक कोचर ने वीडियोकॉन समूह के मालिक वेणुगोपाल धूत के साथ मिलकर दिसंबर 2008 में एक कंपनी बनाई थी और फिर ₹65 करोड़ की कम्पनी को ₹9 लाख में बेच दिया। इस कंपनी को ₹64 करोड़ का लोन भी दिया गया था।

बाद में इस कंपनी को दीपक कोचर के ट्रस्ट को सौंप दिया गया था। वीडियोकॉन ग्रुप को ICICI बैंक ने ₹3,250 करोड़ का लोन दिया था, जिसके कुछ महीनों बाद दीपक कोचर के हाथ में नई कम्पनी की कमान दे दी गई थी। इन लोन की कुल 86% राशि (₹2,810 करोड़) जमा नहीं कराई गई, जिसे NPA घोषित कर दिया गया। CBI इस मामले की जाँच कर रही है।

कश्मीर के पत्थरबाज़ों को चिन्हित करने में IIT मद्रास करेगा सेना की मदद

जब भीड़ कहीं एकत्रित होती है तब उसकी कार्यशैली का कोई फिक्स पैटर्न नहीं होता। कोई यह नहीं बता सकता कि भीड़ का अमुक व्यक्ति किस समय क्या करेगा। भीड़ की प्रतिक्रिया एकदम रैंडम होती है वैसे ही जैसे पदार्थ के कुछ कणों का व्यवहार अप्रत्याशित होता है जिसे ‘ब्राउनियन मोशन’ कहा जाता है। हालाँकि पदार्थ के कणों के रैंडम व्यवहार को मापने के लिए गणित का सहारा लिया जाता रहा है लेकिन मनुष्यों की भीड़ कब क्या करेगी इसकी भविष्यवाणी करना कठिन है।

युद्ध में किसकी सेना का पलड़ा भारी होगा यह गेम थ्योरी बता सकती है। बैक्टीरिया की संख्या कब और कितनी तेज़ी से बढ़ेगी यह सांख्यिकीय विश्लेषण से ज्ञात किया जा सकता है। लेकिन किसी समूह में जब एक से अधिक चीजें अप्रत्याशित व्यवहार करती हैं तब उनका सामूहिक व्यवहार कैसा होगा यह पता लगाना कठिन है वह भी तब जब समूह की प्रत्येक इकाई को मानव मस्तिष्क नियंत्रित कर रहा हो।

गत कुछ दशकों में विकसित हुई कंप्यूटर विज्ञान की शाखा ‘आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस’ में इतनी प्रगति हुई है कि अब भीड़ जैसे सिस्टम के व्यवहार की भविष्यवाणी भी की जा सकती है। आईआईटी मद्रास के विद्यार्थियों ने ऐसी तकनीक विकसित की है जिससे कश्मीर में पत्थरबाज़ों की भीड़ के व्यवहार का अध्ययन किया जा सकता है और उससे बचने के उपाय खोजे जा सकते हैं।  

आईआईटी मद्रास में सेंटर फॉर इनोवेशन के स्टूडेंट एग्जीक्यूटिव हेड राघव वैद्यनाथन के अनुसार ‘एक्शन रिकग्निशन एल्गोरिदम’, ‘क्राउड डेंसिटी मैप’ और सीसीटीवी द्वारा प्राप्त लाइव इमेज को आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस तकनीक से जोड़ कर कश्मीर में पत्थरबाजी के दौरान होने वाली अप्रत्याशित घटनाओं का पूर्वानुमान लगाया जा सकता है और उन घटनाओं से निजात पाने के उपाय थलसेना द्वारा पहले से किए जा सकते हैं।

‘एक्शन रिकग्निशन एल्गोरिदम’ एक प्रकार का एल्गोरिदम है जो मनुष्य की हरकतों का संज्ञान लेने के लिए प्रयोग किया जाता है। ‘क्राउड डेंसिटी मैप’ से भीड़ का घनत्व अथवा आकार मापा जा सकता है। सीसीटीवी फुटेज से पत्थरबाजों की सटीक पहचान की जा सकती है। इन तीनों के मेल से यह बताया जा सकता है कि अमुक पत्थरबाज यदि दोबारा दिखाई दे तो वह कैसी प्रतिक्रिया कर सकता है।

आईआईटी मद्रास के चार विद्यार्थियों ने नई दिल्ली में आयोजित हुए आर्मी टेक्नोलॉजी सेमिनार-2019 (ARTECH) में भाग लेते हुए इस खोज के बारे में बताया जिसपर थलसेना के उच्च अधिकारियों द्वारा सकारात्मक प्रतिक्रिया आई। थलेसना का विभाग ‘आर्मी डिज़ाइन ब्यूरो’ इस प्रकार के सेमिनार करवाता रहता है जिससे सेना और तकनीकी संस्थानों के बीच विचारों का आदान प्रदान होता रहे।  

एक प्रश्न यह भी है कि क्या आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस जैसी तकनीक आतंकवाद और पत्थरबाजी जैसी घटनाओं को रोकने में वास्तव में कारगर सिद्ध होगी। यहाँ बताते चलें कि आधुनिक तकनीक जैसे बिग डेटा एनालिटिक्स की सहायता से आतंकवादी घटनाओं का पूर्वानुमान लगाने के प्रयास पहले भी किये जा चुके हैं।

मेरीलैंड यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर वी एस सुब्रमण्यन ने ऐसी एल्गोरिदम की खोज की है जिससे उन्होंने इंडियन मुजाहिदीन और लश्कर ए तय्यबा जैसे संगठनों की हरकतों की भविष्यवाणी की थी। वे इसे SOMA और Temporal Probabilistic Rules कहते हैं। इनकी सहायता से प्रोफेसर सुब्रमण्यन ने 2013 में नरेंद्र मोदी की पटना रैली में हुए बम धमाकों की भविष्यवाणी पहले ही कर दी थी।

यदि इस विषय पर निरंतर शोध होता रहा तो आईआईटी मद्रास के विद्यार्थियों द्वारा किया गया प्रयास भविष्य में सफल हो सकता है और थलसेना उनके द्वारा विकसित की गई तकनीक को अपना सकती है। यह इस पर निर्भर करेगा कि रियल टाइम सिचुएशन में आईआईटी के विद्यार्थियों द्वारा बनाया गया एल्गोरिदम कितने सटीक परिणाम दे पाता है। थलसेना द्वारा तकनीकी संस्थानों के विद्यार्थियों के साथ ARTECH जैसे संवाद और प्रोत्साहन भविष्य में निश्चित ही फलदायी होंगे।

वेतन मौलवियों को और PM ‘किसी’ को… हद कर दी ‘सड़’ने!

अरविन्द केजरीवाल ने मोदी-शाह की जोड़ी को रोकने के लिए ‘किसी भी हद’ तक जाने की बात कही है। उनकी हद कहाँ शुरू होती है और कहाँ ख़त्म, इस पर चर्चा जरूरी है लेकिन सबसे पहले उनके बयान के परिपेक्ष्य और बैकग्राउंड को समझने की जरूरत है।

सेक्युलर वातावरण में दिया गया बयान

अरविन्द केजरीवाल ने एक चौंकाने वाला बयान दिया है। यह बयान ऐसी परिस्थिति में दिया गया है, ताकि यह एकदम सेक्युलर लगे और मीडिया के एक बड़े वर्ग द्वारा सवाल ही न पूछे जा सके। मौका था- दिल्ली के मौलवियों को सम्बोधित करने का। जिस कार्यक्रम स्थल पर उन्होंने यह बड़ा बयान दिया, उसका नाम था- ऐवान-ए-ग़ालिब। सब कुछ लग रहा है न सेक्युलर-सेक्युलर सा। और तो और, अरविन्द केजरीवाल ने यहाँ जो घोषणाएँ कीं, वो भी इतनी सेक्युलर थीं कि कोई इस पर सवाल खड़ा करने से पहले हज़ार बार सोचे।

दरअसल, इस कार्यक्रम में केजरीवाल ने दिल्ली की क़रीब 200 मस्ज़िदों के मौलवियों के वेतन में भारी बढ़ोतरी की और 1500 अन्य मस्जिदों के कर्मचारियों को भी वेतन देने की घोषणा की। इस पर अलग से सवाल खड़ा किया जा सकता है कि दिल्ली के इमाम, मुअज़्ज़िन व मस्ज़िद के अन्य कर्मचारी जनता की कौन सी ऐसी सेवा कर रहे हैं, जिसके कारण केजरीवाल उन पर सरकारी ख़ज़ाना लुटाने को तैयार बैठे हैं। इस बात पर भी बहस की जा सकती है कि मस्जिदों पर सरकारी रुपयों के वारे-न्यारे करने वाली AAP सरकार पुजारियों को कितने भत्ते दे रही है।

मज़बूरी में व्यक्तिगत राष्ट्रीय महत्वाकांक्षा पर ब्रेक?

लेकिन यहाँ हम केजरीवाल के उस बयान की चर्चा करेंगे, जिस में उन्होंने मोदी-शाह के ख़िलाफ़ किसी भी हद तक जाने की बात कही है। मौलवियों को सम्बोधित करते हुए अरविन्द केजरीवाल ने कहा:

“अभी तो यह किसी को पता नहीं है कि प्रधानमंत्री कौन बनेगा, लेकिन मोदी-शाह को नहीं बनने देंगे। इसके लिए मैं किसी भी हद तक जाने को तैयार हूँ। इसके अलावा, जो भी बन रहा होगा उसको समर्थन दे देंगे। कांग्रेस अगर जीतती है तो उसको भी समर्थन देने को तैयार हैं।”

केजरीवाल के इस बयान के जो मायने निकल कर आ रहे हैं, वो राजनीतिक पंडितों की समझ से परे नहीं हैं, लेकिन इस पर मेनस्ट्रीम मीडिया में ज़्यादा विश्लेषण नहीं किया जाएगा। ऐसा इसीलिए, क्योंकि इस बयान के साथ ही अरविन्द केजरीवाल ने इस बात को स्वीकार कर लिया है कि वो प्रधानमंत्री की रेस में नहीं हैं। ये उन पत्रकारों और मीडिया हाउसेज के लिए शॉकिंग है, जिन्होंने केजरीवाल को पीएम मटेरियल बता-बता कर हमारा कान ख़राब कर दिया था।

सबसे पहले तो इस बात पर चर्चा करते हैं कि प्रधानमंत्री कौन बनेगा? अरविन्द केजरीवाल ने कहा कि यह किसी को पता नहीं है कि पीएम कौन बनेगा? महागठबंधन और कथित तीसरे मोर्चे के नेताओं का भी इस बारे में क़रीबन यही बयान होता है। सभी ये कहते हुए पाए जाते हैं कि पीएम कौन बनेगा, यह ‘जनता’ तय करेगी। उन्हें पता होना चाहिए कि आज़ादी के बाद 70 सालों से जनता ही प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से प्रधानमंत्री तय करते आ रही है। राजनीति, वंशवाद और मौक़ापरस्ती की मारी भारतीय लोकतंत्र में जनता के चुने हुए प्रतिनिधि ही पीएम का चुनाव करते आ रहे हैं।

केजरीवाल का यह कहना उनकी इस मौन स्वीकृति को दिखाता है कि उन्होंने अपनी राष्ट्रीय महत्वाकांक्षा पर फ़िलहाल ब्रेक लगा दिया है। उन्होंने ऐसा मज़बूरी में किया है क्योंकि उन्हें अब इस बात का अहसास हो गया है कि AAP के लिए कुछ साल पहले जो वसंती हवा बहाई गई थी, उसने एक ऐसे लू का रूप ले लिया है, जिसमें लोग झुलसना नहीं चाहते। कम से कम केजरीवाल जनता को ये दिखाने की कोशिश कर रहे हैं कि वह पीएम की रेस में नहीं हैं और पीएम कोई और ही बनेगा।

आपकी ‘हद’ क्या है केजरीवाल ‘सड़’?

अगर अरविन्द केजरीवाल की ‘हद’ की बात करनी हो तो हमें 2014 के आम चुनाव की एक घटना याद करनी पड़ेगी। उत्तर प्रदेश के बाहुबली नेता और कई अपराधों में जेल की हवा खा रहे मुख़्तार अंसारी का यूपी के कई इलाक़ों के मुस्लिमों में अच्छा-ख़ासा प्रभाव था। कई ख़बरों के अनुसार वाराणसी से मोदी के ख़िलाफ़ ताल ठोक रहे केजरीवाल और उनकी पार्टी AAP ने मुख़्तार को लुभाने की भरपूर कोशिश की थी। उस दौरान केजरीवाल ने कहा था कि वाराणसी से मोदी को हराने के लिए वो किसी का भी समर्थन ले सकते हैं।

ताज़ा बयान इस बात की पुष्टि करते हैं कि केजरीवाल की राजनीति कभी अलग थी ही नहीं। आज से पाँच साल पहले उन्होंने ‘किसी’ से भी समर्थन लेने की बात कही थी, आज वो ‘किसी’ को भी समर्थन देने की बात कह रहे हैं। उन्होंने कहा कि जो भी पीएम बने, उसे समर्थन दे देंगे। ये इस तरफ इंगित करता है कि केजरीवाल मोदी को रोकने के लिए एक ऐसे मौक़ापरस्त किंगमेकर की भूमिका ढूंढ रहे हैं, जिसकी न कोई राजनीतिक विचारधारा होगी और न कोई नैतिकता।

पहले भी कॉन्ग्रेस के समर्थन से दिल्ली में सरकार चला चुके केजरीवाल ने कभी अपने बच्चों की कसम खाई थी कि कॉन्ग्रेस का साथ कभी नहीं लेंगे। राजनीतिक मौकापरस्ती के सशक्त हस्ताक्षर बन चुके अरविन्द केजरीवाल ने नैतिकता की सारी हदों को ताक पर रखते हुए ऐसे लोगों के साथ मंच साझा किया, जिन्हें वह गालियाँ देते थकते नहीं थे। जिनका विरोध करते-करते सत्ता की सीढ़ी तक चढ़े, आज उन्हीं के सुर में गा रहे केजरीवाल पर ‘धोबी के कुत्ते’ वाली कहावत भी लागू होती है।

महागठबंधन की रैलियों में उन्हें आमंत्रित तो किया जा रहा है, लेकिन कॉन्ग्रेस या कोई भी पार्टी उनके साथ गठबंधन की इच्छुक नहीं है। उन्हें KCR के प्रयासों द्वारा तैयार किए जा रहे तीसरे मोर्चे की तरफ से भी भाव नहीं दिया जा रहा है। इस परिस्थिति में बौखलाए केजरीवाल को पता है कि मोदी को रोकने के लिए अगर दिल्ली में कोई जोड़-तोड़ वाला प्रधानमंत्री बैठता भी है तो एक-एक सीटों का काफ़ी महत्व होगा। दो-चार सीटों के साथ भी मोलभाव का सपना देख रहे केजरीवाल ने ‘किसी’ को समर्थन देने की बात कह इस बात की आधिकारिक घोषणा कर दी है कि उनकी कोई राजनीतिक विचारधारा है ही नहीं।

जाति-धर्म के दलदल में और गहरे उतरने की तैयारी

केजरीवाल ने मुस्लिम धर्मगुरुओं को लुभाते हुए मौलवियों को वेतन का झुनझुना थमाया और कहा:

“दिल्ली में भाजपा को आप ही हरा सकती है। आप इस गणित को समझें और वोटों को बँटने न दें,अगर वोट बँटे तो फिर भाजपा जीत जाएगी।”

मुस्लिमों को यह बात समझाने के लिए उन्होंने बजाप्ते वोट प्रतिशत का अंकगणित भी समझाया। जाति और धर्म की राजनीति के दलदल में गहरे उतर चुके केजरीवाल ने कभी वैश्य समुदाय के लोगों को लुभाने के लिए बनिया कार्ड भी खेला था। आज मुस्लिमों को अपने पाले में करने के लिए उन्हें भाजपा का डर दिखा रहे हैं। यह वही कार्ड है, जिसे पूरे देश में कॉन्ग्रेस, बिहार में लालू, यूपी में मुलायम और कश्मीर में अब्दुल्ला परिवार खेलते आया है। अरविन्द केजरीवाल ने यह बयान देकर यह साबित कर दिया है कि वो उनसे अलग नहीं हैं।

अब ये तो समय ही बताएगा कि सीटों की स्थिति में ख़ुद को किंगमेकर की भूमिका में देख रहे केजरीवाल ‘किसे’ समर्थन देते हैं। फ़िलहाल उन्होंने अपनी व्यक्तिगत लालसा को कुछ पल के लिए किनारे कर लिया है।

मध्य प्रदेश में अब RSS कार्यकर्ता की हत्या, 9 दिनों में 6 मर्डर से संघ-BJP में रोष

मध्य प्रदेश के रतलाम जिले में आरएसएस के एक कार्यकर्ता की हत्या कर दी गई। शिवपुर मंडल के पूर्व कार्यवाह हिम्मत पाटीदार की लाश बुधवार को उनके खेत के पास मिली। गला काटने के बाद पहचान मिटाने के लिए चेहरे को जला दिया गया, इससे आप हत्या की बेरहमी का अंदाज़ा लगा सकते हैं।

राज्य में कॉन्ग्रेस की कमलनाथ सरकार आने के बाद से राजनीतिक हत्याओं का जो सिलसिला शुरू हुआ है, वो रुकने का नाम ही नहीं ले रहा। इन हत्याओं से भाजपा नेताओं व कार्यकर्ताओं के साथ-साथ अब संघ के स्वयंसेवकों तक में गुस्सा फैल गया।

रतलाम के बीजेपी विधायक दिलीप मकवाना ने कमलनाथ सरकार पर सीधे आरोप लगाते हुए कहा कि जब से कॉन्ग्रेस सत्ता में आई है, तब से बीजेपी और उससे जुड़े लोगों को टारगेट किया जा रहा है। मध्य प्रदेश के गृहमंत्री बाला बच्चन ने इस पर वही घिसी-पिटी प्रतिक्रिया दी, “अपराधी को पकड़ना और कानून-व्यवस्था बनाए रखना हमारी जिम्मेदारी है।”

आपको बता दें कि मध्य प्रदेश में राजनीतिक हत्याओं का यह दौर 16 जनवरी से शुरू हुआ था। इन हत्याओं का ये रहा रिकॉर्ड:

  • 16 जनवरी (बुधवार) – इंदौर में कारोबारी और भाजपा नेता संदीप अग्रवाल को सरेआम गोलियों से भून दिया गया था।
  • 17 जनवरी (गुरुवार) – मंदसौर नगर पालिका के दो बार अध्यक्ष रहे भाजपा नेता प्रहलाद बंधवार की सरे बाजार गोली मारकर हत्या कर दी गई।
  • 20 जनवरी (रव‍िवार) – गुना में परमाल कुशवाह को गोली मारी गई। परमाल भारतीय जनता पार्टी के पालक संयोजक शिवराम कुशवाह के रिश्तेदार थे।
  • 20 जनवरी (रव‍िवार) – बड़वानी में भाजपा के मंडल अध्यक्ष मनोज ठाकरे को पत्थरों से कुचलकर बेरहमी से मार डाला गया।
  • 21 जनवरी (सोमवार) – ग्वालियर भाजपा के ग्रामीण जिला मंत्री नरेंद्र रावत के भाई छतरपाल सिंह रावत की लाश मिली। छतरपाल सिंह रावत खुद भी भाजपा कार्यकर्ता थे।
  • 24 जनवरी (बुधवार) – आरएसएस कार्यकर्ता और शिवपुर मंडल के पूर्व कार्यवाह हिम्मत पाटीदार की लाश उनके खेत से मिली।

1500 से अधिक मस्ज़िदों के मौलवियों और मुअज़्ज़िनों को वेतन देगी AAP सरकार

लोकसभा चुनाव की सरगर्मियों के बीच अरविन्द केजरीवाल ने समुदाय विशेष को लुभाने के लिए एक बड़ा पासा फेंका है। दिल्ली के मस्ज़िदों के इमामों के वेतन को ₹10,000 से बढ़ा कर ₹18,000 करने का ऐलान किया गया। यही नहीं, मस्जिदों में अज़ान पढ़ने वाले मुअज़्ज़िनों के वेतन में भी बढ़ोतरी कर इसे ₹9,000 से ₹16,000 कर दिया गया। बता दें कि दिल्ली वक़्फ़ बोर्ड के तहत कुल 185 मस्ज़िद आते हैं। ताज़ा ऐलान के बाद वक़्फ़ बोर्ड मस्ज़िद के कर्मचारियों को बढ़ा हुआ वेतन देगा।

इमाम और मोअज़्ज़िन लम्बे समय से वेतन बढ़ाए जाने की माँग कर रहे थे। इसके अलावा केजरीवल सरकार ने एक चौंकाने वाला फ़ैसला भी लिया। AAP सरकार ने दिल्ली वक़्फ़ बोर्ड के अंतर्गत नहीं आने वाले मस्ज़िदों के इमामों और मुअज़्ज़िनों के वेतन बढ़ाने की भी घोषणा की। इतिहास में शायद यह पहला ऐसा मौक़ा है जब बोर्ड के तहत नहीं आने वाले मस्ज़िदों के कर्मचारियों को सरकार वेतन दे रही है। दिल्ली में ऐसे 1,500 से भी अधिक मस्ज़िद हैं जो बोर्ड के अंतर्गत नहीं आते हैं। ऐसे में ये कयास लगाए जा रहे हैं कि दिल्ली सरकार इन सभी मस्ज़िदों के कर्मचारियों को वेतन देने के लिए रुपया कहाँ से लाएगी।

अरविन्द केजरीवाल सरकार के नए निर्णय के तहत बोर्ड के अंदर नहीं आने वाले मस्ज़िदों के इमामों को ₹14,000 और मुअज़्ज़िनों को ₹12,000 दिए जाएँगे। दिल्ली वक़्फ़ बोर्ड के द्वारा आयोजित कार्यक्रम में दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल ने ये सारी घोषणाएँ की। इस कार्यक्रम में केजरीवाल के अलावे दिल्ली सरकार में मंत्री इमरान हुसैन और AAP विधायक अमानतुल्लाह ख़ान भी उपस्थित थे। दिल्ली हज़ कमिटी के अध्यक्ष हाजी इशराक और वक़्फ़ बोर्ड के मुख्य कार्यकारी अधिकारी मो. ए अदीब ने भी इस कार्यक्रम में शिरकत की।

आज ही के दिन नेहरू के कड़े विरोध के बावजूद डॉ राजेंद्र प्रसाद देश के पहले राष्ट्रपति चुन लिए गए थे

देश के राजनीतिक इतिहास में 24 जनवरी की तारीख़ बेहद ख़ास है। इसी दिन संविधान सभा ने राजेंद्र बाबू को देश के पहले राष्ट्रपति के रूप में चुन लिया था। लेकिन राजेंद्र प्रसाद का राष्ट्रपति पद तक पहुँचना बेहद उतार-चढ़ाव से भरा हुआ था। कॉन्ग्रेस पार्टी के नेता और बाद में देश के पहले प्रधानमंत्री बनने वाले पंडित नेहरू किसी भी कीमत पर राजेंद्र प्रसाद को राष्ट्रपति नहीं बनने देना चाहते थे।

नेहरू के नहीं चाहने के बावजूद कॉन्ग्रेस संगठन में मजबूत पकड़ रखने वाले सरदार पटेल ने राष्ट्रपति पद के लिए अपनी तरफ़ से संविधान सभा में राजेंद्र प्रसाद के नाम का प्रस्ताव रखा और इस तरह प्रसाद संविधान सभा द्वारा देश के पहले राष्ट्रपति चुन लिए गए। लेकिन इतना पढ़ने के बाद क्या आपने सोचा कि पंडित नेहरू आखिर क्यों डॉ प्रसाद को देश का राष्ट्रपति नहीं बनने देना चाहते थे? आइए इस सवाल का जवाब आपको बताते हैं।

राजेंद्र प्रसाद के राष्ट्रपति चुने जाने से दो साल तीन महीने पहले अक्टूबर 1947 की बात है। संविधान सभा में डॉ भीमराव अंबेडकर ने हिंदू कोड बिल नाम से एक प्रस्ताव पेश किया। इस प्रस्ताव पर बहस के दौरान संविधान सभा दो हिस्से में बँटी नजर आई।

संविधान सभा में बैठे हुए कुछ लोग हिंदू कोड बिल को कानूनी रूप देने के समर्थन में थे, जबकि कुछ इस पर किसी भी तरह की जल्दबाजी करने के पक्ष में नहीं थे। डॉ अंबेडकर द्वारा हिंदू कोड बिल प्रस्ताव पेश करने के बाद नेहरू हर हाल में बिल को कानूनी रूप देना चाहते थे, जबकि राजेंद्र प्रसाद इस मामले में जनमत के आधार पर किसी निष्कर्ष पर पहुँचना चाहते थे।

दरअसल हिंदू कोड बिल के तहत देश में रहने वाले बहुसंख्यक हिंदुओं के लिए एक नियम संहिता बनाई जानी थी। इस नियम संहिता के तहत हिंदुओं के लिए विवाह, विरासत जैसे मामले पर कानून बनाया जाना था। इस बिल के तहत हिंदुओं के लिए एक समान विवाह की व्यवस्था करने के अलावा भी कई तरह के कानून बनाए जाने थे।

इस मामले में राजेंद्र प्रसाद चाहते थे कि परंपराओं से जुड़े किसी भी मसले पर कानून बनाने से पहले पूरे देश में लोगों की राय जान लेना चाहिए। राजेंद्र प्रसाद मानते थे कि ऐसे मामलों पर महज नेताओं द्वारा बहस करके कोई कानून बनाने से बेहतर है कि आम लोगों की राय के आधार पर कानून बनाया जाना जाए।

परंपरा और संस्कृति से जुड़ाव होने की वजह से जैसे ही यह मामला सभा के समक्ष रखा गया बतौर संविधान सभा अध्यक्ष राजेंद्र प्रसाद ने तुरंत मामले में दखल दिया।

राजेंद्र प्रसाद के मामले में दख़ल देने के बाद नेहरू ने इस मसले पर सख़्त रूख अपना लिया था । यही नहीं नेहरू ने इस मसले को अपने प्रतिष्ठा से भी जोड़ लिया। इस तरह पंडित नेहरू द्वारा इस मामले में ज़ज्बाती फ़ैसले लेने से राजेंद्र प्रसाद इतने दु:खी हुए कि उन्होंने गुस्सा हो कर नेहरू को एक पत्र लिखा।

अपने पत्र में डॉ प्रसाद ने नेहरू को अलोकतांत्रिक व्यक्ति बताया। इंडिया टुडे के एक लेख में इस बात का ज़िक्र है कि नेहरू के पास पत्र भेजने से पहले राजेंद्र प्रसाद ने यह पत्र सरदार पटेल को दिखाया। पटेल ने पत्र पढ़ने के बाद अपने पास रख लिया और डॉ प्रसाद को गुस्सा करने के बजाय पार्टी में अपनी बात रखने के लिए कहा। पटेल आने वाले समय में राजेंद्र प्रसाद को राष्ट्रपति बनाना चाहते थे, शायद इसीलिए उन्होंने ऐसा किया था।

26 जनवरी 1950 को देश में संविधान लागू होना था। ऐसे में राष्ट्रपति पद के लिए चुनाव होना था। नेहरू सी राजगोपालाचार्य को देश का राष्ट्रपति बनाना चाहते थे। जबकि सरदार पटेल ने राजेंद्र प्रसाद का नाम आगे किया। नेहरू के नहीं चाहने के बावजूद संगठन में मजबूत पकड़ रखने की वजह से संविधान सभा द्वारा डॉ राजेंद्र प्रसाद को देश का पहला राष्ट्रपति चुन लिया गया।

राष्ट्रपति बनने के बाद भी नेहरू व राजेंद्र प्रसाद के बीच मतभेद जारी रहा। इसकी सबसे बड़ी वजह यह थी कि नेहरू आस्था व संस्कृति जैसी चीजों को ढकोसला मानते थे। जबकि इसके ठीक उल्टा राजेंद्र प्रसाद तरक्की पसंद ज़रूर थे, लेकिन अपनी परंपराओं को साथ लेकर चलना चाहते थे। राजेंद्र प्रसाद जानते थे कि वह राष्ट्र अपने स्वाभिमान को कभी नहीं गिरवी रख सकता, जहाँ के लोगों की रोम-रोम में अपनी परंपरा और संस्कृति बसती हो।

एक तरह से डॉ प्रसाद की छवि ऐसे लोगों की थी जिनका इरादा आसमान की तरह ऊँचा व विशाल था, परंतु पैर अपनी परंपरा के जमीन पर थी। जबकि नेहरू परंपरा व संस्कृति जैसी चीजों से नफ़रत करते हुए एक ऐसे भारत के निर्माण का सपना देखते थे, जिसकी बुनियाद भारतीय संस्कृति से बिल्कुल जुड़ी नहीं थी।

इसी तरह सोमनाथ मंदिर के मामले में भी राजेंद्र प्रसाद पर नेहरू अपना निजी राय थोपने लगे थे। दरअसल सोमनाथ मंदिर बनकर तैयार होने के बाद जब उद्घाटन के लिए राजेंद्र प्रसाद के पास न्योता भेजा गया तो उन्होंने इसे सहर्ष स्वीकार कर लिया।

इसके बाद नेहरू ने उनके इस फ़ैसले की जमकर आलोचना की। हालाँकि, नेहरू को करारा जवाब देते हुए डॉ प्रसाद ने कहा, “मैं एक हिंदू हूँ, लेकिन सारे धर्मों का आदर करता हूँ। कई मौकों पर चर्च, मस्जिद, दरगाह और गुरुद्वारा भी जाता रहता हूँ।”

इस तरह स्वतंत्र भारत में राजेंद्र प्रसाद आज ही के दिन एक ऐसे राष्ट्रपति के रूप चुने गए जिन्होंने धर्म, आस्था, संस्कृति व परंपराओं की जमीन पर विकसित राष्ट्र के सपने की बीज को बोया था, जो बीज आज के समय में एक पौधे का रूप ले रही है।

पीयूष गोयल को वित्त मंत्रालय का अतिरिक्त प्रभार, पेश करेंगे बजट

रेल मंत्री पीयूष गोयल को वित्त मंत्रालय का अतिरिक्त प्रभार दिया गया है। हाल के दिनों में अरुण जेटली के स्वास्थ्य समस्याओं के कारण उन्हें ये ज़िम्मेदारी दी गई है। अरुण जेटली स्वस्थ होने तक या फिर ऐसे समय तक जब वह वित्त मंत्री और कॉर्पोरेट मामलों के मंत्री के रूप में अपने काम को फिर से शुरू करने में सक्षम नहीं हो जाते, बिना पोर्टफोलियो के मंत्री बने रहेंगे।

सरकारी सूत्रों के अनुसार संसद का बजट सत्र 31 जनवरी से 13 फ़रवरी के बीच आयोजित किया जाएगा और 1 फ़रवरी को अंतरिम बजट पेश किया जाएगा। संसदीय मामलों की कैबिनेट कमेटी (CCPA) में यह फैसला लिया गया है। यह बजट सत्र इस कारण भी महत्वपूर्ण होगा क्योंकि अप्रैल-मई में आम चुनाव होने के कारण यह वर्तमान लोकसभा के लिए आखिरी बजट सत्र है और सरकार कुछ ज़रूरी घोषणाएँ भी कर सकती है।

क्योंकि यह बजट सत्र लोकसभा चुनावों से ठीक पहले होगा, इसलिए आम आदमी की निगाह सरकार की ओर रहने वाली है। मौजूदा शीतकालीन सत्र में सरकार कुछ ऐसे विधेयक पास कराने में सफल रही है, जो जनता के लिए बेहद चौंकाने वाले थे। इसमें, सरकार सामान्य श्रेणी के गरीबों के लिए 10% आरक्षण का 124वाँ  संविधान संशोधन विधेयक ला चुकी है, जिसे लोकसभा में पारित किए जाने के बाद राज्यसभा में पारित किया जाना बाकी है। इसके अलावा, नागरिक संशोधन विधेयक को पास किया जाना भी एक बहुत बड़ी चुनौती साबित हुई है, हालाँकि सरकार ने इसे सदन में पारित कर दिया है।

पिछले सत्र की तरह ही विपक्ष इस बजट सत्र में भी व्यवधान डालकर सत्र का समय ख़राब करने की पूरी कोशिश कर सकता है। आख़िरी वर्ष के बजट सत्र में आंध्र प्रदेश को विशेष राज्य का दर्जा देने की मांग को लेकर विपक्ष पहले भी समय बर्बाद कर चुका है। सरकार अन्य लंबित मामलों को इस सत्र में लाने का प्रयास करेगी, इसलिए यह देखना होगा कि विपक्ष सरकार के क्रियाकलापों में बाधा डालने की फिर से कोशिश करता है या नहीं?

जिस वर्ष लोकसभा चुनाव होते हैं उसमें मौजूदा सरकार ही अंतरिम बजट पेश करती है, बाद में नई सरकार पूरा बजट पेश करती है। फरवरी 2014 में पूर्व वित्त मंत्री पी. चिदंबरम ने अंतरिम बजट पेश किया था, इसके बाद जुलाई में वित्त मंत्री अरुण जेटली ने संसद में पूरा बजट लाए थे।

जब सूट-बूट वाली सरकार ने आम आदमी को वो दिया जो उन्हें 50 साल पहले मिलना था

एक ओर जहाँ राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी का मानना था कि स्वच्छता आज़ादी से ज़्यादा ज़रूरी है, वहीं देश में एक ऐसा गिरोह आज खड़ा हो चुका है, जिसे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और समस्त मंत्रालय द्वारा की जाने वाली समाज की बेहद बुनियादी जरूरतें और उनको लेकर की गई पहल हास्यास्पद और गैरज़रूरी नज़र आती हैं।

विपक्ष, खासकर कॉन्ग्रेस मोदी सरकार को उन सभी योजनाओं को लेकर मजाक बनाती आई है, जिन्हें वर्तमान सरकार देश के उस आख़िरी नागरिक को ध्यान में रखकर शुरू करती है, जो आज़ादी के इतने वर्षों बाद भी सरकारी योजनाओं से वंचित रहा है।

चाहे जन-धन योजना हो, स्वास्थ्य बीमा हो, मुद्रा योजना हो, ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ का नारा हो या फिर सबसे ज्यादा चर्चा में रहने वाला स्वच्छ भारत अभियान का मुद्दा हो, विपक्ष हमेशा यही कहता नज़र आता है कि यह सरकार सिर्फ़ पूँजीपतियों का ध्यान रखती है।

विपक्ष के इस वाक्य में ही विरोधाभास है कि यदि यह सरकार स्वरोजगार को बढ़ावा देती है, कन्याओं के लिए शिक्षा पर बात करती है, स्वास्थ्य बीमा के मुद्दे लाती है, कौशल विकास कार्यक्रम चलाती है, और गरीब को स्वच्छता के साधन उपलब्ध कराती है तो फिर स्पष्ट है कि यह सरकार पूँजीपतियों से पहले देश के आम नागरिक की हितैषी है। ख़ासतौर से उस व्यक्ति की हितैषी जो इतने वर्षों तक अपने पैसे के रखरखाव और आर्थिक रूप से समर्थ हो पाने के लिए एक बैंक खाता तक नहीं रख सका था।

महात्मा गाँधी संविधान सभा के सदस्य नहीं थे, लेकिन उन्होंने देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरु को एक ‘ताबीज़’ दिया था, यह ताबीज़ कुछ और नहीं बल्कि गाँधी जी की वह राय थी जिसमें वे चाहते थे कि संविधान ‘अन्त्योदय’ और ‘सर्वोदय’ के सिद्दांतों के साथ तैयार किया जाए। लेकिन हालात ये हैं कि अगर प्रधानमंत्री उदहारण के लिए भी सड़क पर पकोड़े तलने वाले का ज़िक्र भी कर दें तो यह हास्य का विषय बन जाता है, इसका कारण यह है कि आज तक हमें इन विषयों पर नहीं बल्कि इटली के महँगे भोजनालयों पर चर्चा करने की आदत रही है। ये हँसने वाले लोग वास्तव में वो लोग हैं जिन्होंने गरीबी को कभी महसूस नहीं किया है और शाही रजवाड़ों में पैदा हुए हैं। एक गरीब व्यक्ति अपना और परिवार का पेट भरने के लिए किन संघर्षों का सामना करता है, ये इन बातों से ताल्लुक नहीं रखते हैं। इन्हें ‘भी’ और ‘ही’ का अंतर मालूम नहीं है।

अगर देखा जाए तो 2014 के आम चुनावों ने इस देश को पहली बार ऐसा प्रधानमंत्री दिया, जो देश के इस सबसे वंचित वर्ग के प्रति संवेदनशील दिखता है। यह प्रधानमंत्री चाहता है कि गरीब व्यक्ति आर्थिक रूप से सक्षम बने, उसका अपने धन पर अधिकार हो, उसका परिवेश साफ़ हो, समाज में लैंगिक समानता हो, उसकी बिटिया स्कूल जा सके, युवा स्वरोज़गार का रास्ता पकड़कर अपने लिए और दूसरों के लिए रोज़गार के अवसर पैदा कर सके।

परिवारवाद में लिप्त यह विपक्ष कहीं ना कहीं इस बात से परेशान है कि राजनीति में ऐसे लोग आ चुके हैं जो इस परिवेश को जी कर आए हैं, और जो वास्तव में देश के आम आदमी का चेहरा है। यही कारण है कि प्रधानमंत्री स्वयं को देश का चौकीदार कहता है। इस देश की जनता इन्हीं वजहों से इस प्रधानमंत्री को अपना नेता मानती है, क्योंकि उसे यहीं पर उस ‘एलीटिज्म’ की काट मिल जाती है जिसके नीचे वो वर्षों रह चुका है।

यदि हम कौशल विकास योजना की बात करें तो इसका सबसे बेहतरीन उदाहरण मेरे सामने अपने ही गाँव के गोपाल का आता है। गोपाल लगभग 17-18 साल का लड़का, जो बड़ी मुश्किल से अपनी पढ़ाई बारहवीं तक भी पूरी कर पाया है, उसके परिवार की आर्थिक स्थिति इतनी बेहतर नहीं रही है कि वो आगे कोई डिप्लोमा या स्नातक करने के बाद नौकरी के लिए आवेदन करने लायक हो सके।

मैं अपने गाँव और आसपास के तमाम ऐसे परिवारों की 2 पीढ़ियों को जानता हूँ, जिनमें ऐसे लड़कों पर घर से दबाव रहता है कि वो अपने गाँव से बहुत दूर कहीं जाकर अपनी रोजी-रोटी का जुगाड़ कर सकें। नतीजा होता है कि लड़के या तो घर से भाग जाते हैं, या फिर शादी कर के घर बसाकर अपने उसी दैनिक जीवन का हिस्सा बन जाते हैं जैसा उसकी पिछली पीढ़ियाँ करती आई हैं। यानी इस युवा के पास सपने देखने का अधिकार इसकी गरीबी और अवसरों की असमानता छीनती आई है।

इस बार जब गोपाल मुझे मिला तो उसने बताया कि स्किल इंडिया प्रोग्राम की मदद से अब वो इलेक्ट्रिशियन का काम करता है और उसने सरकार से लोन लेकर अपना खुद का बिज़नेस भी शुरू कर दिया है।

मैं आश्चर्यचकित था कि आखिर उसने ये सब कैसे किया, जहाँ एक 17-18 साल के युवा के सामने रोज़गार जैसे विकल्प तक मौज़ूद नहीं थे, ना ही इस बारे में सोच पाने तक की आज़ादी थी, वहीं अब उसके पास अपनी एक पूरी टीम है। यह एक बेहद छोटा-सा उदाहरण उत्तराखंड के एक दूरस्थ इलाके का है, तो मेरा मानना है कि ये योजनाएँ तो बेशक़ जनता के लिए वरदान से कम नहीं हैं।

दुखद पहलू यह है की वर्तमान समय में देश का विपक्ष और प्रोपैगंडा-परस्त मीडिया तंत्र जिस शिद्दत से मोदी सरकार की योजनाओं को विफल साबित करने में लगा है, यदि उसका 1% भी वो इन योजनाओं को वंचितों तक पहुँचाने का काम करें, तो वाकई में देश की तस्वीर बदलते देर नहीं लगेगी।

लेकिन हालात एकदम उलट हैं, यह प्रोपैगंडा-परस्त मीडिया तंत्र जब सुनता है कि देश में पूरी तरह से विद्द्युतिकरण हो चुका है, तो यह जाकर ऐसे बिजली के खम्बे की तस्वीर लेने अपने पत्रकारों को भेज देता है जिसमें जंग लगा हो। यह शिकायत लेकर विशेष चर्चा बिठाता है कि प्रधानमंत्री ने शौचालय तो बना दिए लेकिन वहाँ जाकर पानी नहीं डाल रहे हैं, प्रधानमंत्री लोन तो दिला रहे हैं लेकिन लोन घर तक चलकर नहीं आ रहा है, देश में बाग़ तो हैं लेकिन बहार गायब है।

सवाल सीधा सा है कि क्या यह तंत्र वाकई में समाज की बदलती तस्वीर देखकर खुश होता है?
जवाब भी एकदम सीधा सा है कि नहीं, यह तो उस जंज़ीर से बंधा है जिसमें इनके पसंदीदा अवार्ड देने वाले लोग सत्ता में नहीं बैठे हैं या जो इन्हें शाबासी देते आये हैं। इसलिए इनकी दुविधा और छटपटाहट समझ आती है।

मैं व्यक्तिगत रूप से ‘स्वच्छ भारत मिशन’ प्रधानमंत्री के इस कार्यकाल की सबसे बड़ी सफलता मानता हूँ। आज से लगभग 2500BC पहले हड़प्पा सभ्यता के दौरान हम लोग इतने जागरूक थे कि भारत में उस समय पानी के माध्यम से संचालित होने वाला शौचालय लोथल में मौज़ूद था। जिसे हम दिल्ली स्थित सुलभ इंटरनेशनल म्यूजियम में देख सकते हैं।

हड़प्पा सभ्यता के नगर, लोथल में पानी से संचालित होने वाला Toilet प्राप्त हुआ था। ईंट और चिकनी मिट्टी से बने इन शौचालयों में मेनहोल और चैंबर हुआ करता था, जहाँ जाकर मल इकठ्ठा होता था।

वहीं देश ने एक ऐसा भी दौर देखा जिसमें महिलाओं और पुरुषों को शौच के लिए सुबह 4-5 बजे अँधेरे में उठकर खेतों में जाना होता है और यह समस्या आज तक देश के कई ग्रामीण इलाकों में जस की तस विद्यमान है।

इस बारे में विद्याधर सूरजप्रसाद नायपॉल ने 1964 में आई अपनी पुस्तक ‘An Area of Darkness’ में अपने अनुभव लिखे हैं। नायपॉल ने लिखा है कि भारतवासी कहीं भी शौच कर सकते हैं: चाहे वह रेलवे ट्रैक हो, बस अड्डा, समुद्र का किनारा, पहाड़ी, सड़कें या नदी का किनारा। भारतीयों को खुले में शौच करने से कोई परहेज नहीं होता।

हमें शौचालय के प्रयोग और स्वछता के महत्व को समझने में 50 वर्षों से अधिक का समय लगा। शौचालय को लेकर मनःस्थिति में परिवर्तन आज से 5 वर्ष पूर्व देखने को मिला था जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने स्वयं आगे आकर स्वच्छ भारत अभियान का नेतृत्व किया था। स्वच्छ भारत अभियान के पीछे सरकार की मंशा यह थी कि लोगों की मानसिकता में परिवर्तन हो।

हर घर शौचालय के मिशन ने लोगों के स्वाभिमान को पहचाना और उस दिशा में कार्य किया। इस मुद्दे पर अक्षय कुमार अभिनीत फिल्म ‘टॉयलेट: एक प्रेम कथा’ भी दर्शकों के सामने आ चुकी है। घरों में शौचालय निर्माण समाज का एक भावनात्मक पहलू है, जिसे पहचानने में हमें इतने साल लगे।

यदि मैं अपना उदाहरण दूँ तो उत्तराखंड के एक गाँव में रहने वाले एक परिवार ने जब साल 1990 में पहली बार शौचालय बनाया था तो लोगों में यह एक हँसी का विषय बन गया था। हास्य का विषय ये इसलिए था क्योंकि उनका मानना था कि आख़िर घर के अंदर कोई ‘झाड़’ (शौच) कैसे कर सकता है?

1990 का वह समय था और आज का समय है जब लोगों को यह महसूस हुआ कि शौच वास्तव में बेहद व्यक्तिगत विषय हो सकता है और खुले आसमान में शौच करने के लिए जाना स्वाभिमान का विषय हो सकता है। वरना इतनी पीढ़ियाँ इस अन्धकार में गुजर गईं कि ‘आसमान के नीचे यह प्रक्रिया नहीं हुई तो तो शौच होगी तक नहीं’। पिछले कुछ वर्षों में इस जागरूकता ने जोर पकड़ा है। हालाँकि, अभी भी एक वर्ग है जो मानता है कि उसे घर के भीतर बने किसी शौचालय में मलत्याग नहीं करना चाहिए।

यह सब पढ़ने और सुनने में हस्यास्पद लग सकता है, लेकिन उन लोगों के बारे में सोचिए और उन महिलाओं के बारे में सोचिए जिन्हें शौच आदि के लिए जंगलों में जाना होता है। जहाँ सुबह अँधेरे में बाघ और भालू का भी डर रहता है। और जिस दिशा में पुरुष गए हों उन्हें उस दिशा में भी नहीं जाना है।

लड़कियाँ स्कूल सिर्फ इस कारण नहीं जाना चाहती हैं क्योंकि वहाँ उनके पास शौचालय जाने जैसे सुविधाएँ ही नहीं मिल पाती हैं। उन्हें उन तमाम मनोवैज्ञानिक असुविधाओं से गुजरना होता है, जिनके बारे में हम कल्पना तक नहीं कर सकते हैं।

शौचालय बेटियों को शिक्षा से जोड़ने की समस्या का सिर्फ़ एक हिस्सा था, लेकिन हाल ही में अपने राजनीतिक विरोधाभासों के कारण मीडिया यह समाचार लेकर आया कि सरकार अपनी योजनाओं में रुपया खर्च कर रही है। लेकिन इसमें बुराई भी क्या ?

अगर एक परिवार सिर्फ इसलिए रुपए खर्च कर सकता है ताकि वो अपने पूर्वजों के नाम के इश्तिहार छपवा सके, तो क्या बुराई है कि सरकार की बेहद मूलभूत और जरूरी योजनाओं को उनके असल हकदारों तक पहुँचाने के लिए प्रयास किए जाएँ। यह बेहद छोटे मुद्दे हैं जिन्हें वर्तमान प्रधानमंत्री ने प्रकाश में लाने का काम किया है।

शौचालय जैसे विषयों पर यातायात का ये हाल था कि अगर पश्चिम बंगाल के ओखिल चंद्र सेन की ‘प्रसाधन सम्बन्धी’ समस्याओं के कारण ट्रेन ना छूटती तो शायद ट्रेन में शौचालय आज तक ना होते। हुआ यूँ कि साल 1909 तक भारत के ट्रेनों में शौचालय नहीं हुआ करता था और ओखिल चंद्र सेन ट्रेन से सफर कर रहे थे। उस समय यात्री गाड़ी रुकने के दौरान ही खुले में शौच के लिए जाया करते थे, ऐसे में कई बार ट्रेन भी छूट जाया करती थी।

सेन साहब शौच के लिए बाहर निकले और गार्ड की सीटी सुनने के बाद खुद को संभाल नहीं सके और गिर पड़े। ओखिल सेन ने चिट्ठी लिखकर इस बात की सूचना रेलवे ऑफिस को दी थी। मज़ेदार तरीके से लिखी गई इस चिट्ठी में टॉयलेट न होने के कारण परेशानियों का ज़िक्र था। इसके बाद से ही ट्रेन में टॉयलेट की सुविधा दी जाने लगी, ये चिट्ठी अब भी रेलवे म्यूजियम दिल्ली में रखी गई है।

वर्तमान आँकड़े बताते हैं कि स्वच्छ भारत अभियान के अंतर्गत अब तक देश भर में 9 करोड़ से अधिक शौचालय बनाए जा चुके हैं। 2014 में देश में सैनिटेशन कवरेज 39% था, जो अब बढ़कर 98% तक पहुँच चुका है।

स्वच्छता और शौचालय अब ऐसे विषय बन गए हैं, जिन पर बात होती है, फ़िल्म बनती है, प्रशंसा और आलोचना भी होती है। इस दृष्टि से अब हम खुले में शौच करने के कारण होने वाली बीमारियों के प्रति सचेत हो चले हैं। मानसिकता में यह परिवर्तन जो स्वतंत्रता के इतने वर्षों तक नहीं आया था अब दिखने लगा है।

ऐसा भी नहीं कि यह एकदम से आया और इसके लिए केवल प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ही ज़िम्मेदार हैं। इसके लिए सारा परिवेश और समाज जिम्मेदार है, जो देर से ही सही लेकिन अपने स्वाभिमान और अधिकारों के प्रति जागरूक हुआ है।

इस तरह से हम देखते हैं कि स्वच्छता एक बहुत ही व्यापक मुद्दा है, जो मात्र घर की साफ़-सफाई से ही नहीं बल्कि हमारे स्वास्थ्य और शिक्षा से लेकर सभी पहलुओं को भी प्रभावित करने में सक्षम है।

देश का मीडिया तंत्र को चाहिए कि बजाए देश के शीर्ष नेतृत्व को नीचा दिखाने और उसके ख़िलाफ़ झूठे आँकड़े एकत्रित कर अफ़वाह और भ्रम फैलाने के, वो इन योजनाओं को अपने संचार के माध्यम से लोगों तक पहुँचाएँ। सूचना के सभी तरीकों की प्राथमिकता होनी चाहिए कि वह आम आदमी को जागरूक कर सके कि देश में क्या चल रहा है ताकि वो उस खाई को कम कर सके और मुख्यधारा से स्वयं को जोड़ सके।

जनवरी से जून 2019 के बीच नौकरियों में 20% बढ़ोतरी की संभावना: Naukri.Com

भारत के प्रमुख जॉब पोर्टल्स में से एक Naukri.com ने ‘हायरिंग आउटलुक सर्वेक्षण’ (Hiring Outlook survey) में प्रकाशित किया है कि जनवरी से जून 2019 के बीच देश में रोज़गार के लिए सुनहरा अवसर है।

रिपोर्ट में कहा गया है, “आने वाले छह महीने रोज़गार की दृष्टि से बहुत ज़्यादा उम्मीदों से भरा है। सर्वेक्षण में देश भर के 3310 रिक्रूटर्स को शामिल कर किया गया है। सर्वे में शामिल 84% रिक्रूटर्स देश में हायरिंग एक्टिविटी में तेज़ उछाल की उम्मीद कर रहे हैं, जो पिछले साल की तुलना में 20% ज़्यादा है।”

इंफो इंडिया लिमिटेड के चीफ़ मार्केटिंग ऑफिसर सुमीत सिंह के हवाले से रिपोर्ट में कहा गया है, “जिस तरह से रिक्रूटर्स नौकरियों के लिए उत्सुकता दिखा रहे हैं, चाहे वो रिप्लेसमेंट जॉब हो या नई भर्तियाँ (replacement hiring and new jobs), दोनों क्षेत्र आने वाले समय में रोज़गार की बेहतर छवि पेश करते हैं।”

पिछले काफ़ी समय से जिस तरह से आधारभूत उद्योगों ने तेज गति से उछाल आया है। उससे नौकरियों के सृजन की उम्मीदें और बढ़ी हैं। इसी तरह की सम्भावना ‘जॉबस्पीक’ नामक पोर्टल ने भी व्यक्त की है। कहा है कि जॉब क्रिएशन ने पिछले साल से जो गति पकड़ी है उसके नए साल में भी जारी रहने की संभावना है।

सर्वेक्षण में कहा गया है कि 56% रिक्रूटर्स नए जॉब क्रिएशन और रिप्लेसमेंट हायरिंग दोनों की उम्मीद कर रहे हैं। साथ ही, ”साल की पहली छमाही में नई जॉब क्रिएशन और रिप्लेसमेंट हायरिंग दोनों में ग्रोथ की 56% रिक्रूटर्स को उम्मीद है। जबकि सर्वे में शामिल 12 पर्सेंट रिक्रूटर्स ने कहा कि सिर्फ़ रिप्लेसमेंट हायरिंग ही होगी। ज़्यादातर रिक्रूटमेंट की संभावना आईटी, बीएफएसआई और बीपीओ में हैं।

लगभग आधे रिक्रूटर्स ने सर्वे में उम्मीद जताई कि रिक्रूटमेंट सेल्स और मार्केटिंग में सबसे ज्यादा हो सकता है। इसके बाद आईटी-सॉफ्टवेयर फंक्शनल एरियाज में। एक-चौथाई रिक्रूटर्स ने यह भी टिप्पणी की कि ऑपरेशन सेक्टर जैसे एचआर और अकॉउंट डोमेन में भर्ती अधिक होगी। रोज़गार के अवसरों में बढ़ोतरी की उम्मीद को इस तथ्य से और बल मिल जाता है कि सर्वेक्षण में शामिल केवल 1% रिक्रूटर्स ने ही इस दौरान छँटनी की उम्मीद की थी।

साथ ही दिलचस्प बात यह है कि रिक्रूटर्स के बीच इस बात पर संदेह व्यक्त किया गया है कि ज़रूरत के हिसाब से क्या उतने मात्रा में योग्य उम्मीदवार मिलेंगे या नहीं? रिपोर्ट में कहा गया है, “42% रिक्रूटर्स ने भविष्यवाणी की है कि अगले छह महीनों में योग्य उम्मीदवारों की कमी का मुद्दा सामने आ सकता है। जबकि 31% रिक्रूटर्स ने कहा कि प्रतिभा (योग्य उम्मीदवार) की कमी बनी रहने के बावजूद, नौकरियों में तीव्रता बानी रहेगी। अधिकतम ‘टैलेंट क्रंच’ 3-5 साल के अनुभव बैंड में होने की उम्मीद है।”

वेतन वृद्धि के मुद्दे पर, सर्वे में शामिल एक-तिहाई रिक्रूटर्स का मानना ​​था कि वेतन वृद्धि 10-15% के बीच होगी। 15% रिक्रूटर्स ने इसे 15-20% के बीच होने की संभावना व्यक्त की, जबकि 16% ने रिपोर्ट किया कि इंक्रीमेंट 20% से ऊपर होगा।

रिपोर्ट में कहा गया है कि कर्मचारियों के अपने पुराने संस्था को छोड़ देने की दर ( Predicted rate of Attrition) के बारे में 14% रिक्रूटर्स ने पिछले साल कराए गए आउटलुक सर्वेक्षण में 20% – 40% के बीच होने की भविष्यवाणी की थी। यह वर्तमान आउटलुक सर्वे में 7% तक है। सर्वे में शामिल 50% रिक्रूटर 5% – 15% के बीच एट्रिशन की दर बनाए रखते हैं। कुछ रिक्रूटर्स ने ये सुझाव दिया कि 1-3 साल के प्रवेश स्तर (Entry Level) के बैंड में अधिकतम प्रभाव दिखाई देगा। रिक्रूटर्स ने कार्यात्मक क्षेत्रों जैसे बिक्री और विपणन और आईटी सॉफ्टवेयर (Sales & Marketing and IT Software) में अधिक एट्रिशन दर होने की संभावना व्यक्त की है।

बता दें कि, विपक्षी दलों द्वारा रोज़गार की संभावनाओं पर लगातार हो-हल्ला मचाने के बावजूद, देश में व्यापक रोज़गार सृजन हुए हैं। हाल ही में रेलवे में भी 4 लाख नौकरियों के साथ अगले 6 महीने रोज़गार की दृष्टि से आशावादी दिखते हैं।

Naukri.com सर्वेक्षण से अगर निष्कर्ष निकालें तो साफ़ देख सकते हैं कि यदि किसी व्यक्ति के पास आवश्यक प्रतिभा है, तो उसे काम पर रखने की संभावना पहले की तुलना में बहुत अधिक है।

अंग्रेज़ी के मूल लेख का अनुवाद रवि अग्रहरि ने किया है।

येचुरी का लेनिन प्रेम: माओवंशियों पर तर्क़ के हमले होते हैं तो वो ‘महान विचारों’ की पनाह लेता है

रूस में जिस लेनिन की मूर्तियों को कई जगह से हटाया गया, उस आतंकी और सामूहिक नरसंहारों के दोषी की मूर्ति तमिलनाडु में सीताराम येचुरी समेत वामपंथियों की मौज़ूदगी में स्थापित की गयी। लेनिनवंशियों ने हत्यारे के तथाकथित महान विचारों की बात करते हुए उसकी बड़ाई में कसीदे काढ़े।

‘कुत्ते की मौत आती है तो वो शहर की ओर भागता है’ से प्रेरित होकर ये कहा जा सकता है कि नालायक माओवंशियों पर तर्क़ के हमले होते हैं तो वो विचारों की गोद में पनाह लेता है। वो ये गिनाता है कि लेनिन ने जो विचार दिए थे वो कितने ग़ज़ब के हैं!

ये चिरकुट सोचते हैं कि किसी ने बहुत पहले कुछ कहा था और वो छप कर आ गया तो वो हर काल और संदर्भ में सही होगा। जैसे कि ‘शांति की स्थापना बंदूक की नली से गुज़रते हुए होती है’, ये आज के वामपंथियों के कई बापों में से एक ने कहा था। मेरा सवाल ये है कि आज के दौर में कौन-सी शांति की स्थापना होनी रह गई है? क्या कहीं पर कोई तंत्र असंवैधानिक तरीक़े से लाया गया है? क्या देश की सरकार चुनी गई सरकार नहीं है या राज्यों में पुलिस के मुखिया सरकार चला रहे हैं?

ये वही माला जपेंगे कि मार्क्स ने ये कहा था, लेनिन के विचारों से भगत सिंह सहमत थे, और दिस एवं दैट…

ये लीचड़ों का समूह, जो दिनों-दिन सिकुड़ता जा रहा है, ये नहीं देखता कि किताब किस समय लिखी गई थी, भगत सिंह के सामने कौन थे, और लेनिन ने किस तंत्र को ध्वस्त किया था। उससे इनको मतलब नहीं है। समय और संदर्भ से बहुत दूर इनके लहज़े में ज़बरदस्ती की अभिजात्य गुंडई और कुतर्की बातें होती हैं।

चूँकि लेनिन ने ज़ारशाही को ख़त्म करने के लिए क्रांति की थी, और उसके समर्थकों ने आतंक मचाया था, तो आज के दौर में भी वो सब जायज़ है। जायज़ इसलिए क्योंकि इनको शब्दों से किसी तानाशाह, मोनार्क या ज़ार और लोकतांत्रिक तरीक़े से चुनी हुई सरकार में कोई अंतर नहीं दिखता। ये धूर्तता है इनकी क्योंकि और कोई रास्ता नहीं है अपने अस्तित्व को लेकर चर्चा में बने रहने का। इसीलिए ‘मूर्ति पूजा’ पर उतर आए हैं।

इनकी बातें अब विश्वविद्यालयों तक सिमट कर रह गई है। वहाँ से भी अपनी बेकार की बातों के कारण हूटिंग के द्वारा भगाए जाते हैं। अब ये डिग्री कॉलेजों में हुए चुनावों में कैमिस्ट्री डिपार्टमेंट के सेक्रेटरी का चुनाव जीतकर देश में युवाओं का अपनी विचारधारा में विश्वास होने की बातें करते हैं। इनके मुद्दे दूसरे लोग अपना रहे हैं, और ये चोरकटबा सब, तमाम वैचारिक असहमति के बावजूद, अपने बापों के नाम को बचाने के लिए विरोधियों से गठबंधन करते नज़र आते हैं।

चूँकि ये सत्ता में नहीं हैं तो जो सत्ता में है वो हिटलर और ज़ार हो जाता है। चूँकि ये अपनी बातों से जनता को वोट करने के लिए प्रेरित नहीं कर पाते तो ‘आर्म्ड रेबेलियन’ जायज़ हो जाता है। चूँकि तुम्हारा मैनिफ़ेस्टो बकवास है इसलिए ग़रीबी एक हिंसा है, जो कि किसी दूसरे ग़रीब को काट देने के बराबर वाली हिंसा के समकक्ष हो जाती है।

आप ज़रा सोचिए कि अगर मेरे पास शब्द हों, और तंत्र हों, तो मैं आपको क्या साबित करके नहीं दे सकता। मैं ये कह सकता हूँ कि कौए सफ़ेद होते हैं, और आप इसलिए मत काटिए मेरी बात क्योंकि आपने ब्रह्माण्ड के हर ग्रह का विचरण नहीं किया है। मैं ये कह सकता हूँ कि ग़रीबी एक स्टेट-स्पॉन्सर्ड टेररिज़्म है क्योंकि लोग ग़रीबी से मरते हैं और स्टेट कुछ नहीं कर रहा।

उस वक़्त मैं ये नहीं देखूँगा कि क्या देश की आर्थिक स्थिति वैसी है, और क्या सामाजिक परिस्थिति वैसी है कि हर ग़रीब को सब्सिडी देकर भोजन दिया जा सके। उस वक़्त जब आपसे टैक्स लिया जाएगा तो आप ये कहते पाए जाएँगे कि हमारी कमाई से किसी ग़रीब का पेट क्यों भरे? सरकार मिडिल क्लास की जान ले लेना चाहती हैं। ये है वामपंथी विचारकों की दोगलई।

लेनिन की करनी जायज़ हो जाती है, उसके समर्थकों द्वारा किया नरसंहार क्रांति के नाम पर जायज़ है क्योंकि उससे रूस में नया तंत्र सामने आया। फिर हिटलर भी तो औपनिवेशिक शक्तियों से लड़ रहा था, उसने भी तो एक तरह से ऑप्रेसिव तंत्र के सामने खड़े होने की हिम्मत दिखाई थी। उसकी मूर्तियाँ लगवा दी जाएँ?

जब ब्लैक और व्हाइट में चुनाव करना हो, तो ये आपको ‘लेस इविल’, ‘गुड टेरर’ जैसी बातों में उलझाएँगे। ये आपको कहेंगे कि लेनिन कितने महान विचारक थे, लेकिन वो ये भूल जाते हैं कि आपकी पार्टी या विचारधारा के समर्थक लेनिन की लिखी किताब नहीं पढ़ते, वो वही काम करते हैं जो आप उनसे लेनिन के महान होने के नाम पर करवाते हैं: हिंसा और मारकाट।

लेनिन की क्रांति को एक शब्द में समाहित करके अपने काडरों द्वारा किए गए अनेकों नरसंहारों पर चुप रहने वाले संवेदनहीनता के चरम पर बैठे वो लोग हैं जिन्हें ग़रीबों और सर्वहारा की बातों से कोई लेना-देना नहीं है। ये लोग सीआरपीएफ़ के जवानों की विधवाओं, अनाथ बच्चों और अकेले पड़ चुके परिवारों की ग़रीबी और भविष्य की ओर नहीं देखते। ये प्रैक्टिकल बातें नहीं देखते, ये बस यही रटते रहते हैं कि ग़रीबी भी हिंसा है।

अंत में हर बात वहीं ख़त्म होती है कि जब सत्ता आपके समीप नहीं है तो आप हर वो यत्न करते हैं जिससे लगे कि आप बहुत गम्भीर हैं मुद्दों को लेकर। तब वुडलैंड का जूता पहनकर ग़रीब रिक्शावाले के द्वारा भरी दोपहरी में ख़ाली पैर रिक्शे के पैडल चलाने से होने वाले छालों पर कविता करते हैं आप। तब आपके सेमिनारों में ग़रीबी और सत्ताधारी पक्ष के ‘हिंसा’ के तरीक़ों पर बात होती है, जहाँ टेंट के बाहर बैठा ग़रीब प्लेट से बची हुई सब्ज़ी चाटता है जिसे देखकर आपको घिन आती है। आप उसके लिए तब भी कुछ नहीं करते और हिक़ारत भरी निगाह से ताकते हुए उसे गरिया देते हैं कि ‘मोदी को वोट दिया था, तो भुगतो।’

ये तो संवेदना नहीं है। ये तो द्वेष है, घृणा है उन लोगों के प्रति जो संविधान की व्यवस्था का हिस्सा बने हैं और आपकी बातों से कन्विन्स नहीं हो पा रहे। अगर संवैधानिक व्यवस्थाओं में विश्वास नहीं है तो नाव लेकर समंदर में जाइए और पायरेट बन जाइए। क्योंकि आपकी बातों में देश के किसी कोने के लोग अब विश्वास दिखाते नज़र नहीं आ रहे।

इसीलिए आज भी आप काम की बात करने की बजाय वाहियात बातें करते नज़र आ रहे हैं। आप उन प्रतीकों को डिफ़ेंड कर रहे हैं जिनका नाम लेकर इसी ज़मीन के ग़रीब मुलाजिमों को काटा गया, बमों और गोलियों से भूना गया। इस ख़ून की महक से आप उन्मादित होते हैं कि सरकार पर दबाव बन रहा है क्योंकि आपके प्यादे जंगलों में आपकी कही बातों को सच मानकर आपके ख़ूनी इरादों को अंजाम देते हैं।

आप कभी नहीं फँसते क्योंकि आपको लिखना और बोलना आता है। आपके पास वक़ील हैं। आपकी बेटी नक्सलियों के साथ जंगलों में एरिया कमांडर के सेक्स की भूख नहीं मिटा रही। आपका बेटा सीआरपीएफ़ के लिए माइन्स नहीं बिछा रहा। आप बुद्धिजीवी बनते हैं और मौन वैचारिक सहमति देते हैं क्योंकि प्यादों की लाइन ही राजा को बचाने के लिए पंक्तिबद्ध होती है। आपको ये छोटे-छोटे ग़रीब लोग चाहिए जिनके कंधों पर लूटे गए इन्सास रखवाकर आप चर्चा में बने रहते हैं।

अपने चेहरों के आईनों में देखिए हुज़ूर, वहाँ फटी चमड़ी के बीच पीव और मवाद में नहाया अवचेतन मिलेगा। वो आपसे कुछ कहना चाह रहा होगा लेकिन आप मुँह फेर लेंगे। क्योंकि दोगलेपन में आपका सानी नहीं। आप एक विलुप्त होती विचारधारा के वो स्तम्भ हैं जहाँ आपका अपना कुत्ता भी निशान नहीं लगाता क्योंकि उसे भी पता है कि आपकी ज़मीन ग़ायब हो रही है।