Monday, September 30, 2024
Home Blog Page 5529

अपने पति के हत्यारों से भला सोनिया को इतनी सहानुभूति क्यों है?

भारतीय राजनीतिक इतिहास में 9 दिसंबर का दिन बेहद महत्वपूर्ण है। इसी दिन 200 साल के ब्रिटिश हुकूमत से आजादी के बाद देश के भावी-भविष्य के लिए संविधान सभा की पहली बैठक दिल्ली के कंस्टीट्यूशनल हॉल में हुई थी। और अब इसी दिन 9 दिसंबर 2018 को अपने जन्मदिन के मौके पर सोनिया ने डीएमके नेताओं से मिलकर कॉन्ग्रेस-डीएमके गठबंधन को लोकसभा चुनाव के लिए एक तरह से हरी झंडी दिखाई। ऐसा करके सोनिया ने एक ऐसे राजनीतिक दल के साथ गठबंधन किया है, जिस दल के नेता पर राजीव गाँधी हत्याकांड में शामिल होने का आरोप है।     

सोनिया गाँधी के 72वें जन्मदिन 9 दिसंबर 2018 के मौके पर राहुल गाँधी ने ट्वीट करके कुछ तस्वीर साझा की थी, इस तस्वीर में सोनिया गाँधी डीएमके के नेताओं से मिलते हुए दिख रही हैं। डीएमके नेता टीआर बालू, स्टालिन और ए राजा ने दिल्ली में सोनिया से मुलाकात करके शॉल ओढ़ाकर उन्हें जन्मदिन की बधाई दी। इसके साथ ही यह ज़ाहिर हो गया कि आने वाले चुनाव में कॉन्ग्रेस-डीएमके के साथ मिलकर चुनाव लड़ेगी। लेकिन राजनितिक बहस यहाँ आकर खत्म नहीं होती है, बल्कि यहाँ से शुरू होती है।

यह सोचने वाली बात है कि एक राजनीतिक पार्टी, जिसके नेताओं पर राजीव गाँधी हत्या का आरोप है, उस पार्टी के नेताओं से अपने जन्मदिन की सुबह सबसे पहले मिलकर सोनिया क्या संकेत देना चाहती है? क्या ऐसा करके सोनिया ने उस दल से दोस्ती कर ली है, जिसके उपर राजीव गाँधी के क़त्ल का इल्जाम है? इस सवाल का जवाब है, ‘हाँ, सोनिया ने अपने पति के हत्यारोपी से दोस्ती आज नहीं बल्कि एक दशक पहले ही कर ली थी।’ इस गठबंधन के बाद कई लोगों को हैरीनी हुई थी। लोगों की यह हैरानी जायज़ भी थी, क्योंकि राजीव सिर्फ़ सोनिया के पति नहीं बल्कि देश के प्रधानमंत्री भी थे।

जब राजीव की हत्या में डीएमके नेताओं का नाम आया

राजीव गाँधी की हत्या के बाद जाँच के लिए एक जैन कमीशन का गठन किया गया था। इस कमीशन को राजीव गाँधी हत्याकांड को सुलझाने की जिम्मेदारी दी गई थी। इस कमीशन ने अपने अंतरिम रिपोर्ट में इस बात को ज़ाहिर किया कि श्रीपेरेंबदूर में राजीव की हत्या करने वाले आतंकवादी, राज्य के डीएमके नेताओं के संपर्क में थे। जब यह घटना हुई तब राज्य में डीएमके की सरकार थी। ऐसे में रिपोर्ट में इस बात की चर्चा है कि कई डीएमके नेताओं को भी इस साज़िश की जानकारी थी।

हालाँकि, बाद में जब जैन कमीशन की रिपोर्ट आई तब केंद्र में आईके गुजराल साहब की सरकार थी। गुजराल सरकार में डीएमके गठबंधन दल के रूप में शामिल थी। ऐसे में इस बात की संभावना ज़ाहिर की गई कि सरकार ने जानबूझकर अंतरिम रिपोर्ट से उस हिस्से को अलग कर दिया जिसमें डीएमके उपर कार्रवाई करने की बात कही गई थी। तब कॉन्ग्रेस ने भी गठबंधन सरकार से डीएमके को बाहर करने की बात कही थी। जब कॉन्ग्रेस पार्टी की बात को गुजराल ने नज़रअंदाज़ कर दिया तो पार्टी ने सरकार से अपना समर्थन वापस ले लिया था।

लेकिन आश्चर्च की बात यह है कि इसी डीएमके से सोनिया ने 2004 लोकसभा चुनाव में गठबंधन कर लिया। इस गठबंधन के पिछे सोनिया ने यह तर्क दिया था कि एक सांप्रदायिक पार्टी को हराने के लिए मैंने ऐसा किया है। लेकिन ऐसा करके अपने पति की मौत को अंजाम देने वाले डीएमके को भले ही सोनिया ने माफ़ कर दिया हो, परंतु उसी डीएमके ने 2G घोटाले की बात सामने आने के बाद अपने नेताओं को भ्रष्टाचार में फँसता देख समर्थन वापस ले लिया।

एक भ्रष्टाचारी को बचाने के लिए अपने पति की मौत को भूल जाने वाली सोनिया की डीएमके ने जरा भी परवाह नहीं की। इन सबके बावजूद एक बार फ़िर से मोदी सरकार को गिराने के लिए दोनों दलों ने पहले के किए-धरे पर मिट्टी डालकर गठबंधन कर लिया है।

जब करुणानिधि ने खुद प्रभाकरण को दोस्त बताया

भारतीय जाँच एजेंसी इस बात को ज़ाहिर कर चुकी है कि राजीव के मौत में लिट्टे प्रमुख प्रभाकरण का हाथ था। प्रभाकरण ने इस घटना को अंजाम देने के लिए पूरी रणनीति तैयार की थी। देश के एक भावी युवा नेता को मारने के लिए कोई और नहीं बल्कि प्रभाकरण जिम्मेदार है, यह जानते हुए भी 2009 को अपने एक इंटरव्यू में करुणानिधि ने बताया कि प्रभाकरण उनके काफ़ी अच्छे दोस्त थे। ऐसा कहकर डीएमके नेता ने एक तरह से राजीव के हत्यारे से अपनी दोस्ती होने की बात को स्वीकार कर लिया। यह सोचने वाली बात है कि इतना सब कुछ होने के बावजूद  सोनिया के नेतृत्व वाले कॉन्ग्रेस ने करुणानिधि से हाथ मिलाना स्वीकर किया।

अपने पति के हत्यारे से दोस्ती कैसी?

यह कितना आश्चर्य की बात है कि राजनीतिक नफ़ा-नुकसान को देखते हुए एक महिला नेता उस पार्टी के साथ मंच साझा करने लगती है, जिसने कभी उसके पति की मौत का ताना-बाना बुना था। यही नहीं इससे भी अधिक आश्चर्य की बात यह है कि सोनिया ने अपनी बेटी को पिता के हत्यारे से मिलने के लिए जेल भेजा। प्रियंका ने यह कहकर लोगों को चौंका दिया कि वह अपने पिता के हत्यारों को माफ़ करना चाहती है। ऐसा करते हुए प्रियंका ने ज़रा भी नहीं सोचा कि वो भारतीय कानून व्यवस्था से आगे निकल रही हैं।  किसी हत्यारे की सज़ा क्या होगी इस फ़ैसले का अधिकार प्रियंका नहीं बल्कि देश के न्यायपालिका का होता है।

2019 में भाजपा को वोट न देने के पक्ष में 5 भयंकर (और ठोस) तर्क – (नंबर फ़ोर विल ब्लो योर माइंड)

तर्क १ – राहुल गाँधी शायद चुप हो जाएँ और ध्वनि प्रदूषण कम करें

एक समय था जब राहुल गाँधी जी अधिकतर समय ननिहाल वगैरह घूम लिया करते थे और साल में चार बार नज़र आते थे जब मनमोहन जी को उनकी औकात दिखाने की ज़रूरत दिखाई देती थी। पर अब उनको दिन में चार बार नज़र आना पड़ता है रफ़ाल-रफ़ाल जपने, ऊपर से जिस मज़दूर के मुँह पर पहले ऑर्डिनेंस फाड़ के फेंका करते थे, अब उसके बर्थडे पे जबरदस्ती मुँह में केक ठूसना पड़ता है। तीन-चार साल तो राहुल जी ने आलू की फैक्ट्री, मक्डोनल्ड का ढाबा, कोका कोला शिकंजी जैसी भसड़ मचा कर थोड़ा मनोरंजन भी किया, पर अब वो भी नहीं कर रहे।

राहुल जी अगर प्रधानमंत्री बन जाये तो उसका फ़ायदा ये भी है की आपको आपके खुदके शहर गाँव मोहल्ले में बना मोबाइल भी मिल जायेगा। हालाँकि, सुतिया गाँव के लोग शायद ‘MADE IN SUTIYA’ फ़ोन न चाहें। पर रिस्क यह भी है कि अगर राहुल जी ने हर गली में मोबाइल फ़ैक्ट्री नहीं दिए तो हम सबको खुद अपने फ़ोन पे “MADE IN SUTIYA” लेबल लगाना पड़ सकता है।

तर्क २ – अपनी विफलताओं के लिए सरकार को जिम्मेदार ठहराने का मौका फिर से मिल पाए

जब से मोदी जी आए हैं सरकार लूट खसोट छोड़ के काम में लग गई है। जब ससुरी सरकार अपना काम करने लगेगी तो आम आदमी के पास भी काम करने के आलावा दूसरा कोई विकल्प नहीं बचता। अब आपकी बात तो मैं नहीं कर सकता पर मैं पुराने वक़्त ज़रूर याद करने लगा हूँ, जब सरकार इतनी निक्कम्मी थी कि किसी भी विषय के लिए उसको गालियाँ दी जा सकती थी। ऐसा करने पर कोई आपको शक की निगाहों से भी नहीं देखता था बल्कि सुनने वाले अपनी तरफ से चार गाली और जोड़ देते थे। सरकार ऐसी होनी चाहिए कि आम आदमी जब रात को थका-हारा घर आए तो कोई हो जिससे गाली दिया जा सके बे-रोकटोक। ये काम कांग्रेस 70 साल से कर रही है और भाजपा इसमें कॉन्ग्रेस को पछाड़ नहीं सकती।

तर्क ३ – लिबरल वामपंथी अख़बार में वही चार घिसी-पिटी ख़बरें बंद हों और नया मसाला आये

हिन्दू-मुस्लिम, दलित, रफ़ाल से मुक्ति मिले। पहले तो कुछ तैमूर बाबा की न्यूज़ फिर भी आ जाती थी मन बहलाने को, पर जैसे इलेक्शन पास आ रहें हैं तैमूर तक को बेरहम पत्रकारों ने अपने पन्नो से निकाल फेका है। मोदी जी जाएँ तो फिर कुछ वरायटी आए। सोनिया जी क्या खाती हैं, क्या पकाती हैं, किस मंत्री पर आक्रोशित हैं, आदि महत्वपूर्ण ख़बरों के बिना जीवन सूना-सूना हो चला है।

तर्क ४ – कुछ बड़े आतंकवादी हमले हों और पाकिस्तान को पकिस्तानियत दिखने का मौक़ा मिले

अगर जैसे चल रहा है वैसे चलता रहा तो जल्द पाकिस्तान खुद भूल जायेगा की उसके अस्तित्व का मक़सद क्या है। साँप का डसना, कुत्ते का भौंकना, केजरीवाल का पगलाना और पाकिस्तान का आतंकवाद करना प्रकृति का नियम है और इसमें अड़ंगा डालना पाप है। राहुल जी इस बात को समझते हैं। राहुल जी सत्ता में आएँगे तो उनका दिया हुआ मैसेज कि ‘हर हमले को हम रोक नहीं सकते’ पाकिस्तान को हौसला देगा की इस तरफ कोई है जो उसकी वेदना समझता है।

तर्क ५ – हम किसी लिस्ट में तो विश्व में अव्वल दर्जा पा सकें

मोदी जी चाहे जो कर ले, भारत कितनी भी तेज गति से अपनी अर्थ-व्यवस्था को आगे बढ़ा ले, कभी इथियोपिया जैसे छोटे देशों की गति से ज़्यादा तेज़ नहीं बढ़ेगा। हो सकता है इस साल भारत तीसरी सबसे बड़ी अर्थ-व्यवस्था बन जाये पर फिर भी तीसरा ही रहेगा।

पर भारत दो लिस्टों में अव्वल आ सकता है, अगर मोदी जी जाएँ और कॉन्ग्रेस आ जाए।

अगर कॉन्ग्रेस वापस आ जाए तो वो इस्लामी देशों से आबादी भर-भर के भारत ला सकती है। इस से हम जल्द ही चीन को आबादी के मामले में पीछे छोड़ देंगे। अगर मोदी जी रहे तो रोहिंग्या, बांग्लादेशी तो वापस भेजे ही जाएँगे बल्कि हो सकता है, आबादी को काबू करने के लिए क़ानून भी ले आएँ। ऐसा हुआ तो भारत किसी चीज़ में अव्वल नहीं आ पाएगा। भारत को कम से कम एक जगह तो अव्वल लाने के लिए मोदी जी का जाना ज़रूरी है।

दूसरा लिस्ट जहाँ हम तुरंत एक नंबर पे हो सकते हैं, वो है घोटाला। कॉन्ग्रेस और सेक्युलर बंधुओं की घोटाला करने की क्षमता पे तो बस UNESCO की मोहर लगना बाकी है वरना भारतवासी तो नाज़ करते आएँ है इनकी इस कला पर 70 साल से।

लगे हाथों, एक और बोनस लिस्ट दिए देता हूँ जहाँ हमारी शान बढ़ जाये अगर मोदी जी जाएँ और राहुल जी आएँ।

ऐसा हुआ तो भारत दुनिया का पहला और एक मात्र देश होगा जिसके प्रधानमंत्री ने प्रधानमंत्री बनने के पहले कभी कुछ करने में समय व्यर्थ नहीं किया, सीधा प्रधानमंत्री बने। अंग्रेज़ी में इसे ‘क्लैरिटी ऑफ़ पर्पस’ कहते हैं। मतलब पैदा होने के पहले से तय था कि देश हमारे बाप का ही है तो क्यों अपना और दूसरों का समय व्यर्थ करें कुछ काम करके! इस से पूरी दुनिया में मैसेज जायेगा की सोच में क्लैरिटी होनी चाहिए।

अगर अब भी आप सहमत नहीं होंगे कि मोदी जी को हटाना चाहिए तो आप ज़रूर घनघोर संघी मानसिकता से पीड़ित हैं। JNU जाकर इलाज कराइए। और जो सहमत हो गए उनको सलाम। और राहुल जी को वोट न करना हो तो NOTA ही दबा आएँ, कुल्हाड़ी पैर पर उतनी ही ज़ोर से पड़ेगी और न्यूट्रल का ठप्पा भी बरकरार रहेगा।

जय हिन्द! जय NOTA!

गौ-भक्त केजरीवाल, क्या से क्या हो गए देखते देखते

देश को पिछले एक-दो साल में जितने गौ-भक्त मिले हैं, इतने आज़ादी के 60 साल बाद तक कभी नहीं मिले थे। गौ भक्तों की श्रेणी में आज एक और नाम जुड़ गया है। ये नाम कोई और नहीं बल्कि देश के पहले ऐसे मुख्यमंत्री का है, जिन्होंने अपने कई प्रत्याशियों की ज़मानत ज़ब्त करवाने से कई सौ साल पहले घोषणा कर दी थी कि वो ‘अलग किस्म की राजनीति’ करेंगे। हालात ये हुए कि दिल्ली में चुनाव प्रचार के पहले ही दौर में वो खुद को ‘पीड़ित बनिया’ बता गए।

जब भी केजरीवाल जी को ऐसी अलग किस्म की राजनीति करते हुए देखता हूँ तो मुझे क्रान्ति के शुरुआती दिनों में चंदा माँगकर ‘वॉलंटियर्स’ जोड़ने वाले वो भोले-भाले युवक याद आते हैं, जो कह रहे थे कि उन्होंने अपनी तनख्वाह का फ़लाना प्रतिशत आम आदमी पार्टी को दे दिया है। तभी दूसरा वॉलंटियर एक सत्संगी लेख लिखता हुआ मिलता था, जिसमें वो बताता था कि कैसे वो अपने कॉलेज से मिलने वाली स्कॉलरशिप आम आदमी पार्टी को देने के बाद ‘हल्का’ महसूस कर रहा था। भैया, हल्का ही महसूस करना था तो ‘पेट-सफ़ा’ ले लेते, बेकार में राजू श्रीवास्तव पीला कोट पहनकर सुबह शाम टेलीविज़न पर उसकी मार्केटिंग कर रहा है, जबकि वो अपने खाली समय में फ़ेसबुक पर लोगों को गाली दे सकता था।

देश की जनता बहुत समय से परेशान थी कि जब उनके क्रांतिकारी नेता अरविन्द केजरीवाल हाथों में पेचकस-प्लास लेकर बिजली नहीं बना रहे हैं, ना ही उनके फिल्मों के रिव्यु आ रहे हैं, तो वो मुख्यमंत्री होकर आखिरकार आजकल अपना कौन सा फ़र्ज़ निभा रहे हैं?

जवाब आज ही आम आदमी पार्टी द्वारा जारी किए गए एक विडियो में आ चुका है। मित्रों, केजरीवाल बाबू गौ माता को धुप-अगरबत्ती लगा रहे हैं, मैंने देखा कि विडियो में जिस गाय माता को वो आरती की थाली घुमा रहे हैं और तिलक लगा रहे हैं, वो केजरीवाल जी की गौभक्ति के कारण बहुत तंदुरुस्त हो गई है। मने कहाँ योगी जी असल गौसेवक होने का वादा करते रहे और कहाँ केजरीवाल जी ने यहाँ भी बाज़ी मार डाली।

ये गौभक्ति का निर्णय शायद केजरीवाल जी ने ट्विटर पर लोगों से जनादेश लेकर ही किया है। वो ट्वीट कर के जनता की राय पूछ भी चुके हैं कि क्या दिल्ली की जनता भी यही चाहती है की गाय की सेवा की जाए? जवाब शायद “हाँ” ही था

दोस्तों, देश में आस्था का सैलाब आ चुका है। अब बस मोदी जी ही ऐसे इंसान रह गए हैं जो हिन्दुओं के लाख चाहने के बावज़ूद भी हिन्दुओं के तुष्टिकरण के लिए कुछ कर नहीं रहे हैं। वरना तो 48 वर्ष के युवा द्वारा जनेऊ धारण कर लिया जा चुका है, पहली रोटी गाय माता को खिलाई जाने लगी है। लिबरल-फेमिनाज़ी महिलाओं में मंदिरों में प्रवेश के लिए होड़ मची हुई है, कुछ तो सुबह 3 बजे उठकर मंदिर में घुसी जा रही हैं। जबकि किसी कट्टर हिन्दू शेर से अगर आप पूछेंगे कि वो आख़िरी बार कब नहा-धोकर ब्रह्म मुहूर्त में मंदिर में भगवान के दर्शन करने गया था तो उसे यही याद करने में हफ्ता लग जाएगा कि वो आखिरी बार 10 बजे से पहले भी कब उठा था?

लेकिन आस्था का माहौल टाईट है, रोज सुबह उठकर सबसे पहले नाश्ते के साथ पित्रसत्ता और लंच में ब्राह्मणवाद को कोसने वाली फेमिनाज़ियों को भी अगर आप कह देंगे कि बहन आजकल मंदिर जाकर कॉन्ट्रोवर्सी हो रही है, तो वो भी बिना पिंक कलर के खरगोश के मुँह वाले ज़ुराब पहने ही दौड़ लगाकर झट से मंदिर में जाकर खड़ी हो जाएगी।

लेकिन अभी तो चुनाव आने में कुछ और महीने बाकी हैं। अभी मैं उम्मीद लेकर चल रहा हूँ कि देश में गाय माता खूब फूलेंगी-फलेंगी। आख़िरी बार गौ-माताओं का स्वर्णिम काल तब आया था जब मामले की नज़ाकत को भांपते हुए एक समाजवादी नेता ने बैलों को और एक लौह महिला ने गाय और बछड़े को अपनी पार्टी का चिन्ह घोषित कर दिया था। ये बात अलग है कि जरुरत पड़ने पर उसी कॉन्ग्रेस ने केरल में वामपंथियों के साथ मिलकर गाय को काटकर जबरदस्त प्रदर्शनी लगाकर उत्सव भी मनाया।

तो भैया, ये गाय माता हैं, बच्चों का बड़े से बड़ा अपराध भी क्षमा कर देना माता का स्वभाव होता है। इसलिए जितना हो सके चुनावों से पहले अपराध कर डालिए। जनता तो सब देख ही रही है।

छत्तीसगढ़ की कॉन्ग्रेस सरकार ने CBI से छीना राज्य में छापा मारने का अधिकार

पश्चिम बंगाल और आंध्र प्रदेश के बाद अब छत्तीसगढ़ में भी सीबीआई से अनुमति के बिना राज्या में रेड करने का अधिकार ले लिया गया है। इस बात की जानकारी अधिकारियों ने गुरूवार (जनवरी 10, 2019) को दी।

राज्य के मुख्यमंत्री ने यह निर्णय दिल्ली विशेष पुलिस प्रतिष्ठान अधिनियम 1946 की धारा 6 के तहत मिली शक्तियों का इस्तेमाल करते हुए लिया गया है।

छत्तीसगढ़ से पहले आंध्र प्रदेश और पश्चिम बंगाल में ये नियम पहले से ही लागू है। न्यूज़ 18 के अनुसार उन्हें ये जानकारी मुख्यमंत्री भूपेश बाघेल के सेक्रेट्री गौरव द्विवेदी से प्राप्त हुई है।

एक अधिकारिक बयान का हवाला देते हुए अधिकारियों ने बताया है कि सीएम भूपेश बाघेल की नेतृत्व वाली छत्तीसगढ़ सरकार ने केंद्रीय गृह मंत्रालय और कार्मिक मंत्रालय (Ministry of Personnel) से सीबीआई को राज्य में कोई भी नया मामला दाखिल नहीं करने का निर्देश देने की माँग करते हुए पत्र लिखा है।

इसके साथ ही अधिकारियों का ये भी कहना है कि वर्ष 2001 में छत्तीसगढ़ सरकार ने सीबीआई को जांच करने की सामान्य सहमति दी थी। छत्तीसगढ़ के अलावा आंध्र प्रदेश और पश्चिम बंगाल ने अपने राज्य में जाँच करने और रेड मारने को दी गई सहमति पिछले साल ही वापस ले ली थी।

दिल्ली में कार्मिक मंत्रालय के एक अधिकारी का कहना है कि इस तरह सहमति वापस लेने से सीबीआई के पास पहले से चल रही जाँच के मामलों पर कोई असर नहीं पड़ेगा।

जानकारी के लिए बता दें कि इतना बड़ा कदम तभी उठाया गया है जब प्रधानमंत्री के नेतृत्व वाले एक पैनल ने सीबीआई प्रमुख आलोक वर्मा को पद से हटाकर नागरिक रक्षा, अग्निशमन सेवा, और  होमगार्ड्स महानिदेशक के पद पर नियुक्त किया है। बता दें कि केंद्रीय सतर्कता आयोग की एक रिपोर्ट में आलोक पर भ्रष्टाचार के मामले पर आरोप लगा था।

फैजल! कब खून खौलेगा रे तेरा?

यह कहानी फ़िल्मी नहीं है। धनबाद के वासेपुर की तो बिल्कुल भी नहीं। यह कहानी है बर्फ के वादियों से। वहीं से, जहाँ हिरोइनें शिफ़ॉन की साड़ियों में होती हैं लेकिन हीरो स्वेटर और लेदर जैकेट में! यह कहानी है एक बच्चे की। कहानी में एक माँ भी है। माँ जो हम सबकी होती है… अफ़सोस हम माँ के उतने नहीं हो पाते हैं 🙁

तो पेशे-ख़िदमत है माँ और उसके ‘शेरदिल’ बेटे की कहानी

मई का महीना था। मौसम ख़ुशगवार था। तभी तेज़ आवाज़ आई – बेटा हुआ है। माँ के आँसू छलक गए, खुशी के आँसू। बेटे के हर लात, हर मुक्के, हर ज़िद और बदमाशी को माँ झेलती रही। क्योंकि यह माँ का फ़र्ज़ था। दिन-ब-दिन बेटा बड़ा होता गया। और बड़ी होती गईं उसकी शैतानियाँ। जहाँ-तहाँ सूसू-पॉटी से लेकर पेड़-पौधों तक को उसने नेस्तानाबूद किया, माँ ने सब झेला… सिर्फ इसलिए क्योंकि वह माँ थी।

अब वो किशोरावस्था में पहुँच गया। सूसू-पॉटी जैसी शैतानियाँ अब वो बंद कमरे में करने लगा। गिल्ली-डंडा, क्रिकेट, कबड्डी अब उसके अड्डे थे – शैतानियों के अड्डे। इनके आगे वो अपनी माँ को माँ नहीं समझता था। कभी माँ से नहीं पूछता कि उसकी इच्छा क्या है… शायद ज़रूरत भी महसूस नहीं की उसने। लेकिन माँ ने कभी भी उसे अपनी छाँव से दूर नहीं किया। उसके नैसर्गिक गुणों से उसे वंचित नहीं किया। चाहती तो कर सकती थी लेकिन माँ भला ऐसा क्यों सोचे!

खैर, लड़का जवान हुआ। अपने नैसर्गिक गुणों के दम पर लड़के ने मेडिकल कॉलेज में एडमिशन पा लिया। माँ बहुत खुश थी। आज फिर उसके आँसू छलके थे, खुशी के आँसू। यहाँ उसकी बदमाशियों का पोस्टमॉर्टम हो गया। एक से बढ़कर एक सीनियरों ने उसकी कह के ली। न जाने कितनों को उसे तोहफ़ा क़ुबूल करवाना पड़ा। अब उसे माँ की याद आने लगी। माँ तो ठहरी माँ! उसका कलेज़ा पसीज़ गया। हिम्मत दी, हौसलाफ़ज़ाई की। लौंडे ने मेडिकल का किला फ़तेह कर लिया।

मेडिकल कॉलेज के पिंजरे से निकल बदमाशियों का स्केलटन फिर से तन कर खड़ा हो गया। लेकिन अब उसे बड़ा मैदान चाहिए था। बदमाशियों का कैनवास बड़ा था, तो दिलासा भी बड़ा होना था। माँ से बड़ा कौन! माँ फिर उसके साथ खड़ी थी। बड़े जतन से बेटे के नैसर्गिक गुणों पर माँ ने फिर से धार चढ़ाई। और चाहिए ही क्या… IAS में जीत इतनी बड़ी हुई कि इलाका धुआँ-धुआँ हो गया। हर तरफ़ हज़रात-हज़रात-हज़रात का शोर! शोर में माँ को फिर से भूल गया बेटा… अफ़सोस!

A Wednesday को इस्तीफ़ा दिया, Friday को फुटुरे (Future) बताने को

10-11 बरस बीत गए। बेटे को फिर से माँ की ‘याद’ आई। क्योंकि उसकी बदमाशियाँ अब किसी सरहद की मोहताज़ नहीं रहना चाहती थीं। उसने IAS से इस्तीफ़ा दे दिया। क्योंकि A Wednesday (जनवरी 9, 2019) को उसे माँ की ‘सेवा’ करनी है। लेकिन नहीं… मौसम थम के बरसने को तैयार ही नहीं, आख़िर Friday को अपनी ‘महबूबा’ ‘उमर’ के पास जाएँ कैसे फैजल साहब! माँ और मौसम के बीच मौसम ने बाज़ी मार ली।

Friday को ‘महबूबा’ से ‘उमर’ का नहीं हुआ मिलन, क्योंकि मौसम बन गया विलन!

तेज़ आवाज़ आई। माँ की तेज़ आवाज़। धरती माँ की धिक्कार भरी आवाज़ -फैजल! सेना और कश्मीर पुलिस के जवानों की मौत के वक्त तू गांज़ा मार के कहां पड़ा था रे फैजल? कब बनाएगा इनके लिए तू पॉलिसी फैजलवा? बर्फ-पानी-पत्थर से सेना का खून नहीं जमता, अल्लाह के सबसे पाक दिन Friday को तेरा खून कैसे जम गया रे फैजलवा? कब खून खौलेगा रे तेरा?

35-A का वह पहलू जिसका भार उठाते जम्मू-कश्मीर में दलितों की पीढ़ियाँ खप गईं

अबुल फ़ज़्ल ने ‘आइन-ए-अक़बरी’ में लिखा है कि कश्मीर के सबसे इज़्ज़तदार लोग वे ऋषि हैं जो रिवाज़ों से बँधे नहीं हैं फिर भी ईश्वर के सच्चे पुजारी हैं। ये ऋषि किसी अन्य मत या पंथ को गाली नहीं देते और न ही किसी से कुछ माँगते हैं बल्कि वे तो राहगीरों के लिए मार्ग पर फल देने वाले वृक्ष लगाते हैं।

प्राचीनकाल में ऐसे ऋषि केवल कश्मीर में ही नहीं बल्कि समूचे भारत में थे। जैसा कि भाषा विज्ञान के ख्यातिप्राप्त प्रोफेसर कपिल कपूर कहते हैं, “ऋषिगण अपने जमाने के ‘इंटेलेक्चुअल’ हुआ करते थे। इसमें संशय नहीं कि समाज को दिशा दिखाने के साथ ही ये ऋषि सामाजिक बुराइयों की सफाई भी करते रहते थे।”

ऋषि परंपरा में सर्वाधिक प्रसिद्ध आदिकवि महर्षि वाल्मीकि ने रामायण की रचना की थी। यह विडंबना ही है कि वाल्मीकि को अपना मानने वाला और खुद को उनके नाम से संबोधित करने वाला ‘वाल्मीकि समुदाय’ आज भी मैला ढोने का घृणित काम करने को विवश है। दलित वर्ग के वाल्मीकि समुदाय के लोग भारत में हर जगह रहते हैं और चूहड़ा, भंगी, मेहतर आदि नामों से भी जाने जाते हैं। हमारे आसपास प्रायः वाल्मीकि समुदाय के लोग सीवर में गहरे उतरकर सफ़ाई करते दिख जाएँगे जिन्हें नगरपालिका अस्थाई रूप से सफ़ाई कर्मचारी के तौर पर वेतन देती है

वाल्मीकि समुदाय तथा अन्य दलित वर्गों को संविधान और समय-समय पर लागू किए गए क़ानूनों द्वारा अनेक प्रकार के अधिकार प्राप्त हैं। सिविल अधिकार संरक्षण अधिनियम 1955 में छुआछूत करने वालों को दंड के प्रावधान हैं। सन 1993 और 2013 में आये अन्य कानूनों में यह प्रावधान किया गया कि स्थानीय प्रशासन सर्वे कर यह सुनिश्चित करेगा कि सूखे पाखाने न बनें जहाँ हाथों से मानव मल-मूत्र की सफ़ाई करनी पड़े।

जो व्यक्ति इस प्रकार के कार्यों में लिप्त हैं उनके पुनर्वास और मैला ढोने का काम छुड़ा कर दूसरे सम्मानित रोजगार देने का प्रावधान भी किया गया है। दलितों के उत्थान के लिए देश में न जाने कितने आंदोलन हुए, कमीशन और क़ानून बने जिनकी कोई गिनती नहीं है। लेकिन जम्मू कश्मीर राज्य में 1957 से रह रहे वाल्मीकि समुदाय की पीड़ा ऐसी है जिससे देश आज भी अनभिज्ञ है। इसका एक कारण यह भी है कि शेष भारत में दलितों के लिए जो कानून बने हैं वे जम्मू कश्मीर के वाल्मीकि समुदाय के लोगों पर लागू नहीं होते।

यह कहानी आरंभ होती है सन 1957 में जब जम्मू-कश्मीर के सफ़ाई कर्मचारी कई महीनों के लिए हड़ताल पर चले गए थे। तब जम्मू कश्मीर राज्य सरकार के हाथ पाँव फूल गए थे क्योंकि पूरे राज्य में विशेषकर जम्मू और श्रीनगर में कूड़े-कचरे और मानव मल-मूत्र का अंबार लग गया था। तब तत्कालीन मुख्यमंत्री बक्शी ग़ुलाम मुहम्मद ने कैबिनेट की मीटिंग बुलाई और तय किया कि दूसरे राज्यों से सफ़ाई कर्मचारी बुलाकर उन्हें जम्मू कश्मीर में नौकरी दी जाएगी।

चूँकि निकटतम राज्य पंजाब था इसलिए वहाँ के गुरदासपुर और अमृतसर ज़िले से लगभग 272 सफ़ाई कर्मचारी बुलाए गए और उन्हें जम्मू डिवीज़न में बसाया गया। जम्मू कश्मीर राज्य में उन सभी वाल्मीकि समुदाय के लोगों को बसाने के साथ ही उनके साथ संवैधानिक छल किया गया।

दरसअल जम्मू-कश्मीर राज्य भारत की स्वतंत्रता के समय से ही कुछ मुट्ठी भर नेताओं के स्वार्थ का शिकार हुआ जिसका परिणाम आज वहाँ रह रहा प्रत्येक व्यक्ति भुगत रहा है। इसकी शुरुआत तब हुई जब शेख अब्दुल्ला से मित्रता रखने वाले जवाहरलाल नेहरू ने संविधान बनने के अंतिम दिनों में गोपालस्वामी आयंगर के ज़रिये अनुच्छेद 370 को संविधान में जुड़वा दिया।

अनुच्छेद 370 यह कहता है कि भारतीय संविधान एक बार में पूर्ण रूप से जम्मू-कश्मीर राज्य में लागू नहीं होगा। भारतीय संविधान के सभी अनुच्छेद और अन्य कानूनी प्रावधान एक-एक कर के राष्ट्रपति द्वारा संवैधानिक आदेश के रूप में जम्मू-कश्मीर राज्य में लागू करवाए गए। अनुच्छेद 370 में यह प्रावधान है कि भारत के राष्ट्रपति जम्मू-कश्मीर राज्य से सलाह लेकर समय-समय पर संविधान के अनुच्छेद राज्य में लागू करवाते रहेंगे।

इसी क्रम में 14 मई 1954 को एक ऐसा संवैधानिक आदेश भारत के राष्ट्रपति द्वारा जम्मू-कश्मीर राज्य में लागू करवाया गया जिसने भारत के संविधान में एक नया अनुच्छेद जोड़ दिया। इस अनुच्छेद को 35-A के नाम से जाना जाता है। इसी अनुच्छेद के कारण आज जम्मू-कश्मीर में वाल्मीकि समुदाय समेत कई समुदाय के लोग पीड़ित हैं।

अनुच्छेद 35-A जम्मू-कश्मीर राज्य को यह निर्णय लेने का अधिकार देता है कि राज्य के स्थाई निवासी कौन होंगे। अर्थात यह राज्य तय करेगा कि स्थाई निवास प्रमाण पत्र किसको देना है और किसे नहीं। जम्मू-कश्मीर राज्य को जब यह अधिकार दिया गया तब तक राज्य का संविधान भी नहीं बना था। बाद में राज्य का संविधान बनते ही उसमें यह लिख दिया गया कि जम्मू-कश्मीर के स्थाई निवासी का दर्ज़ा उन्हें ही दिया जाएगा जो 1944 या उसके पहले से राज्य में रह रहे हैं।  

लेकिन वाल्मीकि समाज के लोग तो 1957 में पंजाब से लाकर बसाए गए थे इसलिए आजतक उन्हें जम्मू-कश्मीर का स्थाई निवासी नहीं माना गया और उन्हें स्थाई निवास प्रमाण पत्र- जिसे PRC कहा जाता है- नहीं दिया गया। राज्य सरकार ने वाल्मीकि समुदाय के लोगों को अपने यहाँ रोजगार देने के लिए नियमों में परिवर्तन कर यह लिख दिया कि इन्हें केवल ‘सफ़ाई कर्मचारी’ के रूप में ही अस्थाई रूप से रहने का अधिकार और नौकरी दी जाएगी। इस प्रकार जब इस समुदाय का कोई बच्चा जन्म लेता है तो उसके माथे पर वैधानिक रूप से ‘दलित’ लिखा होता है। वह बड़ा होकर चाहे कितनी भी पढ़ाई कर ले उसे जम्मू-कश्मीर राज्य में सफ़ाई कर्मचारी की नौकरी ही मिल सकती है।

वाल्मीकि समुदाय के लोगों के पास स्थाई निवास प्रमाण पत्र न होने से वे राज्य में स्थाई रूप से न तो बस सकते हैं न ही संपत्ति खरीद सकते हैं। उनके बच्चों को राज्य सरकार द्वारा छात्रवृत्ति भी नहीं मिल सकती। यही नहीं PRC के अभाव में वाल्मीकि समुदाय के बच्चों को राज्य सरकार के इंजीनियरिंग, मेडिकल या किसी अन्य टेक्निकल कोर्स के कॉलेजों में दाख़िला नहीं मिल सकता।     

जम्मू-कश्मीर राज्य में 1957 में आए वाल्मीकि समुदाय के 272 लोगों के वंशजों की संख्या आज बढ़कर हज़ारों में हो गई है लेकिन वे उसी अस्थाई रूप से एक के ऊपर एक बने कई तलों में बने बसेरों में रहते हैं जो आज से 60 वर्ष पहले जम्मू-कश्मीर राज्य ने उन्हें रहने के लिए दिए थे क्योंकि राज्य सरकार उन्हें मकान बनवाकर रहने की अनुमति नहीं देती। स्थाई निवास प्रमाण पत्र न होने से वाल्मीकि समुदाय के लोग लोकसभा चुनाव में तो मताधिकार का प्रयोग कर सकते हैं किंतु विधानसभा चुनावों में वोट नहीं डाल सकते।

हालत ये हो चुकी है कि आज जब पूरे देश में दलित उत्थान की बातें होती हैं तब जम्मू-कश्मीर में रह रहे वाल्मीकि समुदाय के लड़के-लड़कियाँ स्कूली शिक्षा के आगे पढ़ाई ही नहीं करना चाहते। उनका कहना है कि जब पढ़-लिख कर सफ़ाई कर्मचारी ही बनना है तब पढ़ने से क्या फ़ायदा? इस समुदाय की लड़कियाँ जम्मू-कश्मीर राज्य के बाहर जाकर विवाह कर रही हैं क्योंकि वे अपनी जाति के कम पढ़े लिखे सफाई कर्मचारी की नौकरी करने वाले युवाओं से विवाह नहीं करना चाहतीं। ऐसे में वाल्मीकि समुदाय के लड़कों को विवाह के लिए लड़कियाँ नहीं मिल रहीं।

आज जब शेष भारत में ऐसा माहौल है कि एक जाति सूचक शब्द बोलने पर सजा हो जाती है तब जम्मू-कश्मीर राज्य वाल्मीकि समुदाय को जाति प्रमाण पत्र तक जारी नहीं करता जिससे इस समुदाय के लोगों को अनुसूचित जातियों के लिए बनाए गए विशेष प्रावधानों और सरकारी योजनाओं के लाभ से वंचित रहना पड़ता है। यही नहीं 2015 में एकलव्य नामक एक लड़के के प्रमाण पत्र पर जम्मू-कश्मीर राज्य के सरकारी कर्मचारी ने जाति सूचक शब्द लिखा और उस कर्मचारी पर कोई कार्यवाही नहीं हुई। जाति प्रमाण पत्र न होने से एक प्रकार से अनुसूचित जातियों में जम्मू-कश्मीर के वाल्मीकि समुदाय की गिनती ही नहीं होती।

मीडिया में भी जम्मू-कश्मीर के वाल्मीकि समुदाय की कवरेज नहीं के बराबर है। मैला ढोने की कुप्रथा पर भाषा सिंह ने एक बहुचर्चित पुस्तक लिखी ‘Unseen: The Truth About Indian Manual Scavengers’ जिसमें उन्होंने जम्मू-कश्मीर की उन जातियों के बारे में लिखा जो यह घृणित कार्य आज भी करने को विवश हैं किन्तु भाषा सिंह ने अपनी पुस्तक में वाल्मीकि समुदाय के बारे में एक शब्द भी नहीं लिखा।

इस तरह जम्मू-कश्मीर में संविधान प्रदत्त मौलिक अधिकारों का खुल्लमखुल्ला मखौल उड़ाया जा रहा है और इसकी जड़ में है अनुच्छेद 35-A जिसे गलत तरीके से संविधान में जोड़ा गया था। इस अनुच्छेद को संविधान में जोड़ने की प्रक्रिया ही अपने आप में असंवैधानिक थी। संविधान संशोधन की प्रक्रिया अनुच्छेद 368 में दी गई है जिसके अनुसार संविधान में कोई भी अनुच्छेद जोड़ने के लिए संसद में संविधान संशोधन बिल लाया जाता है। परन्तु अनुच्छेद 35-A कभी संसद से पास नहीं हुआ।   

जब इसे हस्ताक्षर के लिए तत्कालीन राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद के पास भेजा गया था तब उन्होंने जवाहरलाल नेहरू से पूछा था कि क्या मैं यह असंवैधानिक कार्य कर सकता हूँ। इस पर नेहरू ने उनसे कहा था कि हम इस मामले पर अनौपचारिक रूप से चर्चा करेंगे। ख़ास बात यह है कि यह संवाद भी औपचारिक रूप से किया गया था। आज उच्चतम न्यायालय में 35-A पर एक दो नहीं बल्कि पाँच याचिकाएँ लंबित हैं किंतु न्यायाधीशों को इन पर निर्णय देने का समय नहीं मिल रहा।

CM साहब को कहा डाकू, DM ने मास्टर जी को किया सस्पेंड

मामला मध्य प्रदेश का है और मज़ेदार है। राज्य के मुख्यमंत्री कमलनाथ को डाकू कहने वाले सरकारी स्कूल के एक हेडमास्टर को निलंबित कर दिया गया है। पिछले दिनों एक कार्यक्रम के दौरान सरकारी स्कूल के हेडमास्टर मुकेश तिवारी ने मुख्यमंत्री को डाकू कह दिया था।

कार्यक्रम के बाद उनके इस बयान का वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल होने लगा। जिसके बाद जबलपुर के जिलाधिकारी ने मामले को गंभीरता से लेते हुए सरकारी कर्मचारी को निलंबित कर दिया। मध्य प्रदेश सरकार के इस फ़ैसले के बाद सोशल मीडिया पर सरकार के खिलाफ़ जमकर बवाल काटा जा रहा है। आइए जानते हैं इस घटना पर ट्वीटर यूजर की क्या प्रतिक्रिया रही।

किरण बालियाण नाम की एक यूजर ने ट्वीट करके कॉन्ग्रेस पार्टी के फ़ैसले का विरोध किया। किरण ने अपने ट्वीट में लिखा “यदि मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री के बारे में डाकू (चोर) कहने पर एक शिक्षक को निलंबित किया जा सकता है, तो देश के प्रधानमंत्री को चोर कहने वाले राहुल गाँधी को तो जेल में होना चाहिए। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता सभी के लिए है न कि किसी एक के लिए है।“

इसी तरह एक दूसरे ट्वीटर यूजर मोहतरमा ने लिखा, “अच्छा तो अब मैं कमलनाथ को डाकू कहकर ट्वीट करूँगी, तो मेरे ट्वीटर अकाउंट को भी सस्पेंड कर सकते हैं।”

एक अन्य ट्वीटर यूजर पावी ने कटाक्ष करते हुए लिखा कि कमलनाथ के इस फ़ैसले के बाद आपका फ्रीडम ऑफ़ एक्सप्रेशन अभी कहाँ चला गया मिस्टर राहुल गाँधी।

फटा घाव लेकर जब वो लड़की स्कूल पहुँची, ताकि आगे शादी में दिक्कत न आए!

धर्मों से परे और जाति से परे हर लड़की की कहानी अपने आप में ही इतिहास का समकालीन ज़िंदगी के साथ समावेश है। हम जिस दौर में जी रहे हैं, वहाँ कार की स्टेयरिंग हाथ में लिए हर लड़की आज के समाज का आईना नहीं है। स्कूल जाती लड़की को देखकर कभी भी इस बात का अंदाज़ा नहीं लगाना चाहिए कि उसके भीतर पढ़ने का बहुत जोश है या फिर उसके घर के लोगों में उसे पढ़ाने की मंशा है। हो सकता है ‘लाडली योजना’ के तहत मिलने वाली 1 लाख की राशि की चमक ने उसे स्कूल के क्लासरूम तक लाकर खड़ा दिया हो… या फिर ‘बेटी पढ़ाओ, बेटी बचाओ’ के बैनर तले उसका नाम दर्ज़ करने के लिए घर की बेटी को स्कूल तो भेजा जा रहा हो, लेकिन घर में उसे शिक्षा उन्हीं लोगों द्वारा दिलाई जा रही हो, जो आज भी औरत का सबसे बड़ा कर्म रोटी को गोल बनाना बताते हैं। हो सकता उसकी डिग्रियों की आड़ में सिर्फ शादी के लिए एक परफ़ेक्ट ‘रेज़्युमे’ तैयार किया जा रहा हो।

ये ऊपर लिखी बातें निराधार नहीं हैं, और न ही मैं महिलाओं की शिक्षा का विरोध कर रही हूँ। मैं बस उस व्यथा को ज़ाहिर करना चाहती हूँ, जो अपने माहौल में देखते सब हैं लेकिन महसूस कोई-कोई ही करता है। ऊपर की बातें लिखते समय मैं कुछ वैसी लड़कियों का चेहरा याद कर रही हूँ, जिनके जीवन को और रहन-सहन को हमेशा से मुझे जानने की इच्छा हुई। लेकिन जब जाना तब सहम गई। इन लड़कियों में एक नाम अन्नू (बदला हुआ नाम) भी है। नीचे की कहानी (सच्ची घटना) है तो अन्नू की लेकिन इस कहानी के पात्र आपको अपने आस-पास देखने को अक्सर मिलेंगे।

बात 2009 की है। 8वीं पास करके मैंने नए स्कूल में 9वीं में एडमिशन लिया था। वो स्कूल मेरे लिए बहुत बड़ा अनुभव था। मैं पहली बार इतनी सारी लड़कियों को एक साथ पढ़ते हुए देख रही थी। इनमें कुछ बहुत पढ़ाकू थीं और कुछ बहुत ही बिंदास… मैं एवरेज वाली सूची में थी। घर में हमेशा से पढ़ाई के लिए दबाव रहता था, इसलिए मुझे पढ़ाकू लड़कियों को न देखने का मन करता था और न ही मैं उनसे प्रभावित होती थी।

क्लास में कुछ ऐसी भी लड़कियों का ग्रुप था, जो बहुत बिंदास था। नम्बर चाहे कम आएँ, लेकिन हेयरस्टाइल हर रोज़ नया रहता था। हम कुर्ता घुटने से नीचे तक का पहनते थे और वो घुटने से ऊपर पहन कर भी कुर्ते की लंबाई को ज़्यादा बताती थीं। उन्हें देखकर मुझे लगता था कि इनके घर का माहौल कितना गज़ब होगा कि ये लोग टीचर की डाँट खाने के बाद भी मस्तमौला होकर घूमती हैं। उन्हें न होमवर्क की चिंता होती थी और न ही यूनिट टेस्ट की। इस ग्रुप की हर लड़की के पास अपनी एक फ़ाइल थी, जिसमें पसंदीदा हिरोइनों की अखबार से काटी हुई तस्वीरें थी। बैक बेंच पर वो भी बैठती थीं और मैं भी। फ़र्क़ बस ये था वो खुलकर हँसती थीं और अपनी तरह से क्लास रूम को जीती थीं और मैं पढ़ाई के साथ उनके लाइफ़स्टाइल को देखने में ही उलझी रहती थीं। इस ग्रुप ने मुझे बहुत प्रभावित किया था।

इस स्कूल में मेरे दिन बीतते जा रहे थे और मैं अपनी एवरेज परफॉर्मेंस के साथ दूर से ही इनमें घुलती जा रही थी। घर आकर भी मैं इसी ग्रुप के बारे में सोचती रहती थी। इनमें एक लड़की अन्नू भी थी। बेहद सुंदर और मस्तमौला… लेकिन उसका पढ़ाई में डब्बा गोल था। इसलिए टीचर ज़्यादा पसंद नहीं करते थे। हालाँकि, इस बात से उसे भी कोई ज़्यादा फ़र्क़ नहीं पड़ता था। उसके लिए तो उपलब्धि ये थी कि स्कूल के बाहर खड़े लड़के उसके ग्रुप की किसी लड़की को न देखकर सिर्फ़ उसे देखते हैं। मुझे लगता था जैसे उसने न पढ़ने की ही ठान रखी है। लेकिन फिर भी मुझे वो पसंद थी।

उसके जन्मदिन वाले दिन उस ग्रुप में बहुत हल्ला था। सबको पता था अन्नू का जन्मदिन है, बस इंतज़ार हो रहा था उसके आने का। प्रार्थना से लेकर पहला पीरियड खत्म हो गया, लेकिन वो नहीं आई। उसकी सहेलियाँ बेहद नाराज़ थीं। मानो अब से अन्नू से दोस्ती बिल्कुल ख़त्म कर लेंगी। स्कूल की घंटी बजी और मैं भी अपने घर आकर यह सोचती रही कि आज आखिर अन्नू क्यों नहीं आई?

अगले दिन वो आई तो हाथ में पट्टी बंधी थी। तब पता चला कि जन्मदिन पर ही कार से उसका एक्सीडेंट हो गया था, जिससे उसके हाथ में गहरी चोट आई थी। क्योंकि चोट गहरी थी, तो सबको लगा टाँके लगे होंगे। लेकिन उसने इस बात को झट से नकारते हुए कहा, “मैंने कोई टाँके नहीं लगवाए।” सहेलियों के ज़्यादा पूछने पर उसने बड़े चिंता-भाव में कहा, “टाँके लग जाते हैं तो निशान पड़ जाता है न यार! फिर शादी में दिक्कत आती है। इसलिए मम्मी ने टाँके नहीं लगवाए। भले ही टेम (समय) लगेगा लेकिन घाव ऐसे ही सही हो जाएगा।”

इस बात को सुनकर अभी मैं हैरान हुई ही थी कि तब तक उस ग्रुप से ही किसी लड़की की आवाज़ आई, “हाँ, ये तो आंटी ने सही किया, शादी में इन सबसे बहुत दिक्कतें आती हैं।” आश्चर्य कि उस ग्रुप में सबने इस बात पर हामी भरी!

इस बात को सुनने से पहले मेरे भीतर कभी भी लड़की होने पर सवाल नहीं उठे थे, लेकिन इस घटना के बाद मानो मैं सहम गई। मैं कई दिनों तक सवालों से जूझती रही कि क्या एक लड़की का शरीर शादी का मटेरियल मात्र है! जो जितना साफ़ रहेगा, उसकी माँग उतने बढ़िया लोग करेंगे?

फिर एक ख़्याल यह भी आया कि क्या अन्नू के जन्मदिन पर हुए एक्सीडेंट में जो चोट उसे लगी, उसे देखकर उसकी मम्मी का मन नहीं पसीजा होगा, जो उन्होंने चोट में बहता ख़ून नकार कर उसके न मिटने वाले निशान को ज़रूरी समझा?

अपनी मम्मी की इस बात को मानकर अन्नू खुले घाव के साथ स्कूल आ गई। मतलब वो भी इस उम्र से ही खुद को शादी के लिए ही तैयार कर रही है?

क्या सच में चोट लगने से ज्यादा शरीर पर निशान का दिखना खतरनाक है?

निशान को लेकर परेशान हो जाने वाली अन्नू की मम्मी कभी भी उसके पढ़ाई में कम नम्बर देखकर परेशान नहीं हुई होंगी?

अन्नू की मम्मी वाली बात पर सहमति भरने वाली उसकी सहेलियों को भी क्या यही सिखाया जा रहा होगा उनके घरों में?

ये वो सवाल थे जो आज भी मुझे कुरेदते हैं। इस घटना के बाद मैं खुद को बेहद ख़ुशनसीब मानती हूँ कि मैंने बतौर लड़की एक ऐसे घर में जन्म लिया, जहाँ मुझे पहला थप्पड़ पढ़ाई न करने पर पड़ा था। मेरे शरीर पर एलर्जी से हुए कई निशानों के बावजूद भी मेरे घर में किसी ने कभी मुझे उसे छुपाने को नहीं कहा, न ही उसे देखकर कभी चिंता जताई। अन्नू को देखकर मेरे मन में इस तरह के सवाल आना शायद मेरी परवरिश का नतीजा है और शायद उसका अपनी मम्मी की बात को मान जाना उसकी परवरिश का… ऐसे में अगर हम ये कहें कि स्कूल जाती हर लड़की शिक्षित होगी तो शायद यह गलत होगा क्योंकि लड़की से ज़्यादा हमारे परिवेश में पनप रही कुंठित मानसिकता का बदलना ज़रूरी है। ऐसा इसलिए क्योंकि हर लड़की स्कूल जाते वक्त शिक्षा को अपना लक्ष्य रखे न कि समाज की थोपी बातों पर।

उम्मीद यही है कि देश में आने वाली हर सरकार बेटी बचाने के साथ समाज को शिक्षित करने का भी काम करे। सिर्फ एक निश्चित समाज या तबके की लड़कियाँ ही कार की स्टेयरिंग पर हाथ न घुमाएँ। बल्कि अन्नू जैसी लड़कियों को भी पता चल सके कि वो साइड में बैठने के अलावा गाड़ी खुद भी चला सकती हैं और मंजिल तक पहुँचा भी सकती हैं।

CBI डायरेक्टर पद से हटाए गए आलोक वर्मा ने दिया इस्तीफ़ा

शुक्रवार (जनवरी 10, 2019) को सीबीआई निदेशक पद से हटाए गए आलोक वर्मा ने शनिवार को नौकरी से इस्तीफ़ा दे दिया है। ज्ञात हो कि शुक्रवार को प्रधानमंत्री के नेतृत्व वाले हाई पावर्ड समिति ने आलोक वर्मा को सीबीआई निदेशक पद से हटा कर उनका तबादला फायर सर्विसेज में कर दिया था। इसके बाद वर्मा ने फायर विभाग में चार्ज लेने से इनकार कर दिया और सर्विस से इस्तीफ़ा दे दिया। फरवरी 1, 2017 को सीबीआई डायरेक्टर बनाए गए वर्मा इसी महीने की अंतिम तारिख को रिटायर होने वाले थे। अपने इस्तीफ़े में उन्होंने कहा;

“मैं अपनी सर्विस 31 जुलाई 2017 को ही पूरी कर चुका था और सिर्फ सीबीआई डायरेक्टर के पद पर कार्यरत था। सिविल डिफेंस, फायर सर्विसेज़ और होमगार्ड का महानिदेशक बनने के लिए तय आयु सीमा को मैं पार कर चुका हूं।”

बता दें कि सीबीआई डायरेक्टर आलोक वर्मा और उनके डिप्टी राकेश अस्थाना के बीच हुए विवाद के बाद दोनों को ही पद से हटा दिया गया था। 23 अक्टूबर की आधी रात को केंद्र सरकार ने सीबीआई के भीतर बढ़ते विवाद को लेकर आलोक वर्मा को उनके पद से मुक्त कर लम्बी छुट्टी पर भेज दिया था। इसके करीब ढ़ाई महीने के बाद सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार के इस फ़ैसले को पलटते हुए वर्मा को फिर से बहाल कर दिया था। अदालत ने अपने इस निर्णय में कहा था कि इस मामले में आगे का फैसला चयन समिति करेगी। चयन समिति में प्रधानमंत्री के अलावे नेता प्रतिपक्ष और मुख़्य न्यायाधीश का शामिल होना था। शुक्रवार को हुई समिति की बैठक में मुख़्य न्यायाधीश के प्रतिनिधि के रूप में न्यायमूर्ति एके सीकरी ने भाग लिया था।

1979 बैच के IPS अधिकारी आलोक वर्मा सीबीआई के 27वें निदेशक थे। सीबीआई निदेशक के रूप में उनका कार्यकाल काफी विवादित रहा और राकेश अस्थाना से उनके झगड़े के कारण सीबीआई भी कई दिनों तक सुर्ख़ियों में रही। वर्मा के खिलाफ केंद्रीय सतर्कता आयोग में भ्रष्टाचार संबंधी जाँच भी चल रहा है। वर्मा ने कहा कि उन्होंने सीबीआई की अखंडता बनाए रखने की पूरी कोशिश की लेकिन कुछ लोगों द्वारा इस संस्था को बर्बाद करने की कोशिश की जा रही है।

उधर सीबीआई के अंतरिम निदेशक नागेश्वर राव ने वर्मा द्वारा लिए गए स्थानांतरण वाले सारे निर्णयों को रोक दिया है।

सामान्य वर्ग में आरक्षण के लिए ₹8 लाख और 5 एकड़ फ़ाइनल नहीं: केंद्रीय मंत्री

सामान्य वर्ग के कमज़ोर तबके को 10 फ़ीसदी आरक्षण देने वाला बिल पास होने के बाद से ही लगातार चर्चा का विषय बना हुआ है। सामान्य वर्ग के ग़रीबों को आरक्षण देने संबंधी बिल के तहत सरकार अब ₹8 लाख और 5 एकड़ ज़मीन के दायरे को कम कर सकती है।

वित्त मंत्रालय के मुताबिक अगले महीने इस तरह के बदलाव को अमल में लाया जा सकता है। केंद्रीय सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्री थावरचंद गहलोत ने भी बदलाव करने की संभावना व्यक्त की है। उनके मुताबिक़ वर्तमान में जो आय और संपत्ति का दायरा है, वो अधिक है।

सामान्य वर्ग आरक्षण बिल पर जानकारी देते हुए गहलोत ने बताया कि फ़िलहाल जो बिल लोकसभा में पास हुआ है, उसमें आय और संपत्ति का ज़िक्र नहीं किया गया है।

इसका सीधा सा मतलब यह है कि सरकार अगले महीने बिल में इस प्रकार बदलाव करेगी, जिससे यह स्पष्ट हो सके कि 10 फ़ीसदी आरक्षण का लाभ सामान्य वर्ग के केवल ज़रुरतमंद तबके को ही मिले। वित्त मंत्रालय के मुताबिक, केंद्र इस बात पर भी विचार कर रहा है, कि राज्यों को अपने हिसाब से सवर्ण आरक्षण के दायरे को निर्धारित करने की छूट दी जाए।

केंद्रीय मंत्री ने कहा कि ओबीसी (अन्य पिछड़ा वर्ग) के बीच क्रीमी लेयर के लिए मौजूदा मापदंडों से वार्षिक घरेलू आय और भूमि की होल्डिंग का संदर्भ तब लिया गया था, जब आरक्षण हेतु आर्थिक अभाव को शामिल करने के लिए संविधान संशोधन पर विचार किया जा रहा था।

संविधान के अनुच्छेद 15 में क्लॉज़ 4 और 5 में कम समृद्ध दलित, आदिवासी और ओबीसी को कोटा के अंतर्गत कवर नहीं किया गया था। इन क्लॉज़ों के कारण ही आरक्षण की बाधा उत्पन्न हो रही थी। गहलोत ने कहा, “क्लॉज 6 अब इस तरह का आरक्षण देना संभव बनाता है।” इसके अलावा उन्होंने जानकारी दी कि मंत्रालय अब जिन उपायों पर विचार करेगा, उसके अंतर्गत आय और ग़रीबी के मौजूदा संकेतकों को ध्यान में रखा जाएगा।