बचपन में हमने एक कविता पढ़ी थी, जिसकी कुछ पंक्तियाँ आज भी जेहन में ताज़ा हैं:
“चढ़ चेतक पर, तलवार उठा रखता था भूतल पानी को
राणा प्रताप सिर काट-काट करता था सफल जवानी को”
उन पंक्तियों के माध्यम से हमने राणा प्रताप और उनके शौर्य को जाना। राजस्थान के क्षेत्रों में तो आज भी यह कहावत है-
“माई रे एहड़ा पूत जण जेणा राणाप्रताप”
(अर्थात्, लगभग 500 साल के बाद, आज भी लोगों के मन में यह इच्छा है कि उनका बेटा महाराणा प्रताप जैसा हो।)
विपरीत क्षणों में भी थामी रखी धर्म की उँगली
आपको आधुनिक युग में ऐसा कोई महापुरुष शायद ही मिलेगा, जो 500 वर्षों से लगातार वीरता, शौर्य और स्वाभिमान का प्रतीक बना हुआ है। महाराणा प्रताप आज भी उतने ही महत्वपूर्ण बने हुए हैं, जितने वो 500 साल पहले थे।
इस परिवर्तनशील दुनिया में, सारी प्राकृतिक और मानव निर्मित चीजें अस्थाई हैं। सब कुछ एक न एक दिन खत्म हो जाना है। लेकिन, इस क्षणभंगुर दुनिया में अगर कुछ शाश्वत है, अगर कुछ स्थाई है तो वह है, स्वाभिमान और आत्मसम्मान। महाराणा प्रताप ने इसी स्वाभिमान और आत्मसम्मान की रक्षा के लिए अपना सब कुछ दाँव पर लगा दिया।
महाराणा ने इस देश को यह संदेश दिया कि कैसे विपरीत क्षणों में भी धर्म की ऊँगली थाम कर खड़े रहना है। उन्होंने हम भारतीयों को सदैव अपने स्वाभिमान के लिए डटे रहना सिखाया। हम अगर उनकी जीवन यात्रा देखेंगे तो उसमें कई घटनाएँ ऐसी मिलती हैं, जिनसे बहुत कुछ सीखा जा सकता है।
महाराणा प्रताप जब मेवाड़ की गद्दी पर बैठे तो अकबर की तरफ से उनको न जाने कितने प्रलोभन दिए गए, कि आप दरबार में हाज़िरी लगाइए, अकबर को बादशाह कहिए, और मुगलिया सल्तनत के झंडे के तले मेवाड़ पर शासन करिए।
जाहिर है, उस समय देश के अनेक रजवाड़े ऐसा कर रहे थे। उन रजवाड़ों ने अकबर को अपना बादशाह मान लिया था और अकबर का हुक्म मानते हुए, वो लोग अपना प्रशासन भी चलाते थे। लेकिन, प्रताप तो किसी और ही मिट्टी के बने हुए थे। उन्होंने मेवाड़ की गद्दी पर बैठते ही एकलिंग भगवान की सौगंध खाई थी कि वे मुगलों की अधीनता कभी स्वीकार नहीं करेंगे। उन्होंने इस धरा के स्वाभिमान और राष्ट्र के आत्मसम्मान के लिए सारे लुभावने प्रस्तावों को जूते की नोक से उड़ा दिया। उन्होंने मेवाड़ राजवंश के उस राजचिह्न को चरितार्थ किया, जिसमें कहा गया है,
“जो दृढ़ राखे धर्म को
तिहि राखे करतार” (अर्थात्, जो अपने धर्म पर दृढ़ रहता है परमात्मा स्वयं उसकी रक्षा करते हैं।)
मिलती-जुलती है महाराणा प्रताप और श्रीराम की जीवन-यात्रा
पूरे मध्यकाल के दौरान जब मुगलिया सल्तनत का चारों तरफ बोलबाला था, उस समय भी मेवाड़ राजवंश ने महाराणा प्रताप के नेतृत्व में भारतीय स्वाभिमान के ध्वज को लहराए रखा। यदि हम उस दौर में महाराणा प्रताप के समर्पण को ठीक से समझ लें, तो हम उस दौर को ‘मुग़ल काल’ न कहकर ‘महाराणा काल’ कहेंगे। अपनी मातृभूमि के प्रति ऐसा समर्पण, अपने धर्म के प्रति ऐसी अगाध श्रद्धा विरले ही देखने को मिलती है।
उनके बारे में एक और रोचक बात यह है, कि कई बार महाराणा प्रताप की जीवन यात्रा, मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्री राम की जीवन यात्रा से मिलती-जुलती नजर आती है।
दोनों ही राजवंश में जन्मे थे, दोनों को ही वनवास झेलना पड़ा। मातृभूमि के प्रति दोनों ही के अंदर अगाध प्रेम था। जहाँ एक तरफ महाराणा अपनी मातृभूमि के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर कर देते हैं, वहीं दूसरी तरफ भगवान श्री राम “जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी” कहते हुए जन्मभूमि को स्वर्ग से भी ऊपर का स्थान देते हैं।
भगवान राम पिता के वचनों का पालन करने के लिए सब कुछ छोड़कर जंगल के लिए प्रस्थान करते हैं तो गोस्वामी तुलसीदास लिखते हैं–
“रघुपति प्रजा प्रेमबस देखी, सदय हृदय दुख भयउ बिशेषी”
भगवान राम को जंगल जाते देख प्रजा उनके साथ जाने को तैयार हो जाती है। ठीक उसी प्रकार, जब महाराणा जंगल जाते हैं, तो उनकी प्रजा जंगल में जाने के लिए उनके पीछे-पीछे चल पड़ती है।
भगवान राम की यात्रा जब आगे बढ़ती है तो माता सीता को रावण के चंगुल से छुड़ाने के लिए भगवान राम ने भी जनजातियों को साथ मिलाया, वनवासियों को साथ मिलाया, दलितों को, वंचितों को, व वानर समूहों को अपने साथ मिलाया। ठीक उसी प्रकार महाराणा प्रताप ने भी अपनी मातृभूमि मेवाड़ के उद्धार के लिए हमेशा समाज के वंचित वर्गों को अपने साथ मिलाए रखा। भील समाज के साथ उनकी मित्रता की तो अनेक कथाएँ देश में आज भी प्रचलित हैं। प्रताप ने राजवंश और प्रजा के बीच की सीमाओं को धुंधला कर दिया था। भीलों के साथ मिलकर प्रताप ने मेवाड़ की एकता को नई ऊँचाइयों तक पहुँचाया था।
कभी-कभी तो ऐसा लगता है, कि इस देश में जब भी कोई महापुरुष अवतरित होता है, तो उस महापुरुष के अंदर भगवान श्री राम की चेतना स्वत: ही प्रवेश कर जाती है। शायद बहुत लोग जानते होंगे, कि महाराणा प्रताप और गोस्वामी तुलसीदास समकालीन थे। दोनों कभी मिले भी थे या नहीं, यह विद्वानों के बीच चर्चा का विषय है। लेकिन आप जब गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित रामचरितमानस पढ़ेंगे, तो तो आप पाएँगे कि उनमें कई ऐसी चौपाइयाँ हैं, जो लिखी तो भगवान राम के लिए गई थीं, लेकिन शब्दशः वैसी घटनाएँ महाराणा प्रताप के साथ भी हुईं। जैसे – जंगल जाने की घटना, वनवासियों के साथ मिलकर रावण को हराने की योजना, इत्यादि। यह इस देश की संस्कृति है, कि भगवान राम से लेकर महाराणा प्रताप तक सबने सामाजिक समरसता को सर्वोपरि रखा। बिना किसी भेदभाव के सबको अपने साथ मिलाए रखा।
इसीलिए, हमे यह सोचना होगा कि हम अपने बच्चों को प्रताप बनाना चाहते हैं या अकबर।
महाराणा प्रताप या अकबर? हमारी विरासत कौन?
हम किसके पदचिह्नों पर अपने बच्चों को चलाना चाहते हैं? क्योंकि किसी राष्ट्र के दो विपरीत आदर्श नहीं हो सकते। यदि अकबर महान हैं, तो हमें प्रताप को भूलना होगा, और यदि महाराणा प्रताप महान हैं, तो अकबर को महान कहना बंद करना होगा। एक राष्ट्र के रूप में हमारी जिम्मेदारी है कि हम किसे महान बनाना चाहते हैं और अपने बच्चों को क्या पढ़ाना चाहते हैं। लाल किले की प्राचीर से माननीय प्रधानमंत्री जी ने देश को पंचप्रण दिए थे। उन 5 प्रणों में से एक प्रण यह भी है कि हमें अपनी विरासत पर गर्व करना है।
हमें समझना होगा कि हमारी असली विरासत कौन है। इस राष्ट्र को यह निर्णय करना होगा, कि वह अपनी विरासत के रूप में महाराणा प्रताप को मानेगा या फिर अकबर को। क्योंकि भविष्य का वटवृक्ष अतीत की जड़ों से अंकुरित होता है। यदि हमारे आदर्श उच्च नैतिकता वाले होंगे तो हमारा समाज अपने आप नैतिक बनेगा।
यह दुर्भाग्य ही रहा है कि इतिहास में हमेशा से ही इस राष्ट्र के रणबाँकुरों को वह स्थान नहीं मिल पाया जो उन्हें मिलना चाहिए था। कई बार अनजाने में तो कई बार जानबूझ कर इतिहास को छुपाने का भरसक प्रयास किया गया। लेकिन, जैसे पत्थरों का सीना चीरकर पौधे पल्लवित हो आते हैं, वैसे ही सच भी बाहर आ ही जाता है।
साहिर लुधियानवी का शे’र भी है –
हज़ार बर्क़ गिरे, लाख आँधियाँ उट्ठें
वो फूल खिल के रहेंगे जो खिलने वाले हैं
अब राष्ट्र अपने असली नायकों को पहचान रहा है। देश का सांस्कृतिक पुनरुद्धार हो रहा है। आज राष्ट्र अपने उन नायकों के बारे में जान रहा है, जिन्होंने अपनी मातृभूमि के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर कर दिया। आज आप भारत के चाहे किसी भी शहर में चले जाइए, आपको वहाँ अकबर की मूर्तियाँ नहीं दिखेंगी, लेकिन भारत के लगभग प्रत्येक शहर में आपको चेतक पर सवार महाराणा प्रताप की मूर्तियाँ जरूर दिखेंगी। लोगों के अंदर महाराणा प्रताप की ऐसी स्वीकार्यता इसीलिए भी है, क्योंकि उन्होंने मानवीय मूल्यों को सदैव शिरोधार्य रखा। जिसकी धमनियों में मातृभूमि के प्रति ऐसा अगाध प्रेम बह रहा हो, ऐसे महापुरुष को तो इतिहास भी अपने सुनहरे पृष्ठों में स्थान देने को बाध्य हो जाता है।
प्रताप ने हमें एक आशा दी कि यदि एक अकेला राजा उस समय के सर्वाधिक शक्तिशाली राजा से लड़ सकता है, तो आज हम भी भारत को नष्ट करने में जुटी शक्तियों को पराजित कर सकते हैं। महाराणा प्रताप का जीवन हमें यह संदेश देता है कि अस्तित्त्व के संघर्ष में कभी युद्धविराम नहीं होता। हमें लगातार सतर्कता बनाए रखनी है तथा राष्ट्र के खिलाफ उठे हर कदम का पुरजोर जवाब देना है। जब तक पृथ्वी पर एक भी भारतीय जीवित है, तब तक प्रताप जीवित रहेंगे, क्योंकि प्रताप एक भावना हैं। प्रताप सम्मान व स्वतंत्रता की ऐसी भावना हैं, जिस पर काल की धूल कभी जम ही नहीं सकती।